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[१.२] प्रकृति, वह है परिणाम स्वरूप से
क्योंकि जो प्रकृति बन चुकी है, वह तो इफेक्ट है और इफेक्ट में तो चलता ही नहीं न किसी का। अत: वह इफेक्ट हमें भोगना ही पड़ेगा अर्थात् उसके वश में रहना पड़ेगा। अतः हमें, पुरुष को पुरुषार्थ करना है और प्रकृति अपना ज़ोर लगाएगी। ऐसे करते-करते हम अलग हो जाएँगे, तो वह खत्म हो जाएगी। नई आमदनी आती नहीं और पुरानी भी खत्म हो जाती है। पुराना डिस्चार्ज हो जाता है और नया चार्ज नहीं होता, इसलिए खत्म हो जाता है। अभी तक तो अपना कर्तापन था ही, यह तो ऐसा है कि प्रकृति पलभर में अच्छा रखती है, पलभर में बिगाड़ देती है। पलभर में अच्छा रखती है, पलभर में बिगाड़ देती है। बस इतना ही है कि उसमें हम मेरापन मानते थे। बाकी वास्तव में वह हम थे ही नहीं न! इस ज्ञान को समझने के बाद हम तो पुरुष हो गए! यह जो रियल है वह पुरुष है और जो रिलेटिव है वह प्रारब्ध है, इफेक्टवाली प्रकृति। यह पूरा विज्ञान समझने जैसा है सारा।
प्रकृति बरबस करवाती है...... असल में देखने जाएँ तो अज्ञान दशा में कोई प्रकृति से अलग हुआ ही नहीं है। ये सब लोग कुछ हद तक प्रकृति के भोक्ता हैं। प्रकृति का मालिक कौन है? जो कहता है कि 'यह मैं ही हूँ, मैं चंदूलाल हूँ,' वही इस प्रकृति का भोक्ता है। वहाँ पर प्रकृति कैसी रहती है? किसी की वह सास होती है, तब वह सासवाला भाव दिखाए तो खुश हो जाती है। मासी सास आई, चाची सास आई, वाइफ होती है। बेटा कहेगा, 'पापा जी।' उससे प्रकृति तो खुश हो जाती है, पर यह जो चंदूलाल है, वह भोगता है ये सब चीजें, अर्थात् कि आत्मा नहीं लेकिन यह सारा अहंकार है, 'चंदूलाल' नामक अहंकार है।
यह दुनिया प्रकृति के वश में है। यह सबकुछ प्रकृति बरबस करवाती है सभी से और वह खुद बरबस करता है। हमें नहीं करना हो, फिर भी करवाती है। अपना विज्ञान यह सूचित करता है कि प्रकृति यह सब बरबस करवाती है, उसे तू जान और प्रकृति से अलग हो जा, लेकिन 'यह प्रकृति मैं ही हूँ, यह जो कर रहा है वह मैं ही हूँ।' ऐसा जो देहाध्यास है, वह छूट जाए उसके लिए यह (ज्ञान) है। वर्ना प्रकृति तो पूरे जगत् को बरबस नचाती है।