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[१.२] प्रकृति, वह है परिणाम स्वरूप से
दादाश्री : जैसे-जैसे प्रकृति चोखी होती जाती है न, वैसे-वैसे ज्ञान की ओर जाता है। जैसे - जैसे प्रकृति अधिक बिगाड़ता है वैसे-वैसे डाउन जाता है, नीचे जाता है वह । प्रकृति को जैसे - जैसे चोखी करे, वैसे-वैसे हल्का होता जाता है और वैसे-वैसे ऊर्ध्वगति में जाता है।
प्रश्नकर्ता : क्या प्राकृत अवस्थाएँ केवलज्ञान तक रहती हैं?
दादाश्री : प्राकृत अवस्थाएँ तो केवलज्ञान के बाद भी रहती हैं। जब तक मोक्ष में नहीं जाए, तब तक प्रकृति है । अतः कुछ गुण रहते हैं, लेकिन क्रोध-मान-माया-लोभ वगैरह सब निकल चुका होता है, लेकिन जो बाकी बच गया हो, वह रहता है।
संबंध, स्वसत्ता और प्राकृत सत्ता का
खुद इस परसत्ता को समझ जाए और परसत्ता में फिर खुद एकाध जनम तक हाथ न डाले तो फिर वह सत्ता ही उसे छोड़ देती है और वह मुक्त हो जाता है, बस । खुद परसत्ता में दखलंदाज़ी करता है, इसीलिए यह सत्ता उसे पकड़कर रखती है । उसकी सत्ता में लोग दखलंदाज़ी करते हैं । 'मैंने किया' कहते हैं । संडास जाने की शक्ति नहीं है। मैंने फॉरेन के डॉक्टरों को इकट्ठा करके कहा था, तब वे सब असमंजस में पड़ गए। फिर मैंने कहा, जब बंद हो जाएगा तब पता चलेगा कि आपकी शक्ति नहीं थी ।
प्रश्नकर्ता : प्राकृतिक शक्ति है।
दादाश्री : हाँ बस । यह जो है, उसे कुदरत चलाती है, प्रकृति चलाती है और ऊपर से कहता है, 'मैं चला ।'
प्रश्नकर्ता : प्रकृति की सत्ता, आत्मा की सत्ता से स्वतंत्र है या परतंत्र
है?
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दादाश्री : प्रकृति की सत्ता, आत्मा की सत्ता से स्वतंत्र है बिल्कुल। सिर्फ आत्मा की हाज़री की ज़रूरत है । आत्मा कुछ भी नहीं करता है I आत्मा की हाज़िरी हो तो चलता रहता है । आत्मा के अधीन नहीं है वह ।