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[१.२] प्रकृति, वह है परिणाम स्वरूप से
चारित्र से खराब हो तो मार खाकर भी प्रकृति वैसी की वैसी ही और प्रकृति के वश होकर ऐसा सब करता है। दान देता है, वह भी प्रकृति के वश, वह ज्ञान से नहीं है, और चोरी भी प्रकृति के वश करता है। अब उसे जब प्रकृति
और पुरुष का यह ज्ञान हो जाता है कि 'मैं कौन हूँ' और 'यह प्रकृति कौन है' तब दोनों जुदा हो जाते हैं, तब छुटकारा होता है, नहीं तो छुटकारा नहीं होता। आप पुरुष हो, आत्मा भी पुरुष है जबकि यह प्रकृति है। जब तक पुरुष प्रकृति के अधीन है, तब तक उसका कुछ नहीं चलता। जब पुरुष प्रकृति से छूटे, तब सबकुछ पुरुष का ही चलता है। मैं कौन हूँ' ऐसा जानो
और वह अनुभव में आ जाए, तब छुटकारा होगा, नहीं तो छुटकारा नहीं होगा। वर्ना ये दु:ख आप पर आते ही रहेंगे, संसार के दुःख निरंतर भोगते ही रहने पड़ेंगे। पलभर में शांति और पलभर में अशांति, पलभर में शांति
और पलभर में अशांति, वह प्रकृति की वजह से है। खरा सुख इसमें है ही नहीं। शांति और अशांति, दोनों ही कल्पित चीजें हैं, सच्चा सुख नहीं है। सच्चा सुख तो सनातन होता है, जो आने के बाद जाता नहीं। सच्चा सुख तो, अगर जेल में डाल दे न, तो भी परेशानी नहीं हो, अशांति नहीं हो।
प्रश्नकर्ता : कितने ही लोग तो जब शांति नहीं होती, तो परेशान होकर शांति प्राप्त करने के लिए जहर पीकर मर जाते हैं।
दादाश्री : हाँ, लेकिन क्या करें वे? और जहर पीता है ऐसा नहीं है। वह भी जान-बूझकर ज़हर नहीं पीता है, वह भी प्रकृति पिलवाती है। जान बूझकर तो संडास जाने की भी शक्ति नहीं है। मुझे भी नहीं है और कृष्ण भगवान को भी नहीं थी और महावीर भगवान को भी नहीं थी। प्रकृति के अधीन है यह सब। भगवान तो भगवान थे, कृष्ण भगवान थे। पुरुष हो चुके थे, इसीलिए इस प्रकृति को जानते थे! यह प्रकृति है, ऐसा पड़ोसी की तरह जाना करते थे, पहचानते थे। यह बहुत जानने जैसा है, अंदर का पूरा साइन्स!
प्रकृति नचाए वैसे नाचता है जैसे प्रकृति नचाए वैसे नाचता है। खुद के हिताहित का ध्यान नहीं