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[१.१] प्रकृति किस तरह बनती है?
है, और प्रकृति, प्रकृति के भाव में। इन दोनों को अलग करो तो पुरुष, पुरुष की जगह पर और प्रकृति, प्रकृति की जगह पर। जब तक एकाकार हैं तब तक जंग बढ़ता ही जाएगा, बढ़ता ही जाएगा....
'ज्ञान' - स्वभाव में, विभाव में पुरुष और प्रकृति एक दूसरे के साथ गुथे हुए नहीं हैं। दोनों सामीप्य भाव में हैं और इस सामीप्य भाव में होने की वजह से उसे खुद के 'ज्ञान' में विभ्रमता उत्पन्न हो जाती है क्योंकि पुरुष ज्ञानमय है। उसे विभ्रमता उत्पन्न हो जाती है कि 'यह किसने किया?' फिर कहता है 'मैंने किया,' जबकि वास्तव में यह सब प्रकृति ही करती है। बाकी 'ज्ञान' बदलने की वजह से प्रकृति उत्पन्न होती है और अगर ज्ञान स्वभाव में आ जाए तो प्रकृति का नाश हो जाता है। अभी यह ज्ञान विशेष भाव में है और अगर यह स्वभाव में आ जाए, तो प्रकृति का नाश हो जाए।
दो सनातन वस्तुओं के इकट्ठे होने से दोनों में विशेष भाव' उत्पन्न हो जाता है। उसमें दोनों के खुद के गुणधर्म तो रहते ही हैं, लेकिन अतिरिक्त विशेष गुण उत्पन्न हो जाते हैं। छः मूल वस्तुओं में से जब जड़ और चेतन दोनों सामीप्य भाव में आते हैं, तब विशेष परिणाम उत्पन्न होते हैं। अन्य चार तत्व चाहे कहीं भी, चाहे किसी भी तरह सामीप्य में आएँ तो भी उन पर कुछ असर नहीं होता।
सूर्यनारायण की उपस्थिति से संगेमरमर का पत्थर तप जाता है, उसमें मूल (असल) मालिक ऐसा मानता है कि पत्थर का स्वभाव गरम है। उसी के जैसा इस विशेष परिणाम का है। सूर्यनारायण अस्त हो जाएँगे तो वह खत्म हो जाएगा। पत्थर तो स्वभाव से ठंडे ही हैं। उसी प्रकार आत्मा और पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) के सामीप्य भाव से 'विशेष परिणाम' खड़ा हुआ, उससे अहंकार खड़ा हो गया। जो मूल स्वाभाविक पुद्गल था, वह नहीं रहा।
दो वस्तुओं का मिश्रण से दोनों के ही स्वभाव में फर्क नहीं आता लेकिन 'अज्ञान दशा' में तीसरा 'विशेष भाव' उत्पन्न हो जाता है। जैसे कि