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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
हैं। क्रोध और मान से 'अहंकार' बना और माया और लोभ से 'मेरा' (ममता) बना, उससे बन गई यह प्रकृति।
खुद आत्मा है लेकिन खुद के स्वरूप की अज्ञानता से भ्रांति खड़ी हो गई है कि मैं चंदूभाई हूँ, मैंने किया।' ऐसा माना इसलिए यह नया पुतला खड़ा हो गया। उससे बन गई प्रकृति। अब खुद ने किया नहीं है, हो गया है। ये दोनों वस्तुएँ जुदा हो जाएँ तो नई प्रकृति उत्पन्न होना बंद हो जाती है, बस इतना ही है। प्रकृति अर्थात् चेतन रहित पुतला। जिसमें चेतन है ही नहीं। सिर्फ 'बिलीफ चेतन' है।
दोनों के संबंध से यह जो भ्रांति उत्पन्न हो गई है न, कि 'यह मैं कर रहा हूँ या फिर यह कौन कर रहा है?' फिर 'खुद ने' उसे स्वीकार कर लिया है कि 'यह मैं ही कर रहा हूँ। मेरे अलावा अन्य कोई अस्तित्व है ही नहीं। नहीं तो कौन कर सकता है?'
दो वस्तुएँ साथ में आई, उससे यह विशेष परिणाम उत्पन्न हो गया है। यह विशेष परिणाम है, वही है यह प्रकृति।
इसमें एक 'पुरुष' खुद आत्मारूप है, भगवान ही है खुद। लेकिन बाहर के दबाव से प्रकृति उत्पन्न हो गई ! यह सब क्या है? यह सब किसने किया? 'मैंने किया' ऐसा सब जो भान उत्पन्न होता है, वह विशेष भाव है और उससे प्रकृति बन जाती है।
___ इसमें मूल पुरुष को कुछ भी नहीं होता। बाहर के संयोगों की वजह से यह विशेष भाव उत्पन्न हुआ है। जब तक पुरुष खुद की जागृति में नहीं आ जाता, तब तक प्रकृति-भाव में ही रहा करता है। प्रकृति अर्थात् खुद के स्वभाव की अजागृति!
लोहे को समुद्र के किनारे रख छोड़ें तो उसमें बदलाव होता है। इसमें लोहा कुछ भी नहीं करता है। उसी प्रकार समुद्र की हवा भी कुछ नहीं करती। यदि हवा कर रही होती तो सभी चीज़ों को जंग लगता! यह तो दो चीज़ों का संयोग है, इसलिए तीसरी चीज़ उत्पन्न हो जाती है। वह विशेष भाव है। जो जंग लगता है, वह प्रकृति है। लोहा, लोहे के भाव में