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होता था लेकिन खुद सहज ही रहते थे। दीक्षा लेने के बाद शुरुआत में भगवान महावीर का समय कर्म खपाने में गया और फिर देखने' में गया।
एक पुद्गल को देखना अर्थात् जो पूरण-गलन होता है, वेढ़मी (गुजराती पकवान) खाई, तो पूरण और फिर उसका गलन, उन सब को निरंतर देखते रहना। सुगंध-दुर्गंध दोनों को देखते रहना, उसमें अच्छा-बुरा नहीं करना। अच्छा-बुरा सापेक्ष दृष्टि से है, समाज में है, रियल में नहीं है।
जब प्रवृत्ति में निवृत्ति रहे, तब नया कर्म नहीं बंधता।
जब पूरण व गलन दोनों ही हों, तब वह मोह है और जब सिर्फ गलन हो, तब वह चारित्रमोह है। समकित के बाद सिर्फ गलन रहता है, पूरण नहीं होता। उसके बाद हर एक को खुद का पूरण किया हुआ पुद्गल खपाना पड़ेगा। जैन को जैन का पुद्गल, वैष्णव को वैष्णव का पुद्गल।
अच्छा-बुरा सभी कुछ पुद्गल की बाज़ी है। लोगों ने इसका भ्रांति से विभाजन कर लिया।
अब ध्यान किसका करना है? खुद के एक पुद्गल को ही देखना है।
आत्मा के अलावा अपने अंदर बाकी का सभी कुछ पुद्गल है। उसके बाद सभी ज्ञेय स्वरूप से हैं। उनमें कोई विशेष नहीं है।
सारा पुद्गल एक है, उसमें कहाँ हाथ डालना? अनंत प्रकार की अवस्थाएँ हैं लेकिन पुद्गल एक ही है सारा।
भगवान महावीर को प्रश्न पूछे जाते थे और वे उसका जवाब देते थे, वह भी पुद्गल ही देता था और वे खुद तो उसके देखने-जाननेवाले ही रहते थे!
ज्ञानी के खूब परिचय में रहा जाए तो सहजरूप से ही वीतराग हो जाएँगे!
जो एक पुद्गल का स्वभाव है, वही सर्व पुद्गलों का स्वभाव है इसलिए भगवान महावीर मात्र एक ही पुद्गल को ही देखते थे।