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वे देह के मालिक नहीं हैं, वाणी के और मन के मालिक नहीं हैं। इस देह का मालिक कौन है? पब्लिक ट्रस्ट!
दादाश्री जब भी अमरीका में, भारत में, देश-विदेश में जाते थे, तब वे पोटली की तरह जाते थे। “विचरे उदय प्रयोग! अपूर्व वाणी परमश्रुत!" उस तरह से।
जितना सहज हो जाए, उतना ही आत्म ऐश्वर्य प्रकट होता है।
क्रिया से नहीं लेकिन उस समय अंदर जो चंचलता उत्पन्न हो जाती है, उससे सहजता टूट जाती है और उसी से कर्म बंधन होता है। चंचलता शुभ भाव में हो तो शुभ कर्म बंधते हैं और अशुभ भाव में हो तब अशुभ कर्म बंधते हैं।
जल्दी से अंतिम दशा में पहुँचने के लिए क्या करना चाहिए? व्यवहार पूरा ही छूट जाए तब काम होगा। व्यवहार तुझ से नहीं चिपटा है, तू व्यवहार से चिपटा है! जिसे जल्दबाज़ी हो उसे अपरिग्रही बन जाना चाहिए। आवश्यक व्यवहार को शुद्ध व्यवहार कहा गया है। खाना, पीना, सोना वगैरह आवश्यक है। नौकरी-धंधा आवश्यक व्यवहार नहीं है।
पूरे दिन शुद्ध उपयोग में रहे न, तो फिर कोई झंझट ही नहीं।
जंजाल कितना होना चाहिए? जिसे आवश्यक कहा गया है उतना ही। जिसके बगैर न चले, उतना ही। खाना, पीना, सोना सभी कुछ सहज होना चाहिए फिर। सोच-समझकर किया हुआ नहीं होना चाहिए वह। वह अंतिम दशा! जितनी अनावश्यक चीजें, परेशानी उतने ही ज्यादा! बागबगीचे बनाते हैं, पूरे दिन खोदते रहते हैं।
अंतिम दशा में कैसा रहता है? थाली और लोटे की ज़रूरत नहीं रहती। संडास बाथरूम भी गाय-भैंस की तरह ! शादी के मंडप में भी क्या उन्हें शरम आती है? उनमें तो कपड़े भी नहीं होते हैं! सहजता में विवेक नहीं होता। खाना भी नहीं माँगते न? लेकिन नियम है कि उसे समय-समय पर चीजें अपने आप ही मिल जाती है।
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