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'मैं करता हूँ और मैं जानता हूँ' उसका जो मिक्स्चर है, उसे ज्ञेय कहते हैं और 'मैं जानता हूँ, मैं करता नहीं हूँ' वह है ज्ञायक भाव!
ज्ञायक भाव को अच्छा-बुरा, कोई द्वंद्व है ही नहीं। वे मात्र ज्ञेय और दृश्य ही हैं उसके लिए।
ज्ञायक में हिंसा भी नहीं है और अहिंसा भी नहीं है, लेकिन फाइल नं-१ से प्रतिक्रमण करवाना है। इससे परमाणु हो जाते हैं शुद्ध!
ज्ञायक भाव अर्थात् अंतिम भाव! फिर देह चाहे कुछ भी कर रही हो तो भी उसे कोई दोष स्पर्श नहीं करता। जब सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष भी दिखाई दें, तब ज्ञायक भाव कहलाता है।
ज्ञायक को स्मृति का संग नहीं है, उसे किसी आधार की ज़रूरत नहीं है। ज्ञायक अर्थात् दर्पण जैसा। अंदर पूरा जगत् दिखाई देता है, सहज रूप से।
ज्ञायक से आगे क्या है? उसके बाद कोई शब्द है ही नहीं। यह तो जब तक व्यवहार में है, तभी तक यह भाग है। उसके बाद तो खुद ही रहा! जहाँ ज्ञायकपना है वहाँ पर राग-द्वेष नहीं है, वीतरागता है। ज्ञायक को संसार दिखाई ही नहीं देता। संसार तो, जब तक देहाध्यास है तभी तक है।
दादाश्री को पूरा ब्रह्मांड समझ में आ गया था लेकिन ज्ञान में नहीं आया था। ज्ञान में आ जाए तो सबकुछ दिखाई देता है!
जिसका ज्ञायक स्वभाव नहीं छूटे, वह परमात्मा है। वहाँ पर परमानंद
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[५] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व
साहजिकता क्या है? मन-वचन-काया की क्रियाओं में दखलंदाजी नहीं करना। 'मैं कौन हूँ' वह समझ में आ जाए, तब सहज हो जाता है।
आत्मज्ञान के बाद व्यवहार कैसा रहता है? सहज व्यवहार चलता रहता है। कर्तापना छूट जाए तो फिर व्यवहार उदय स्वरूप रहा!
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