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थोड़े ही चली जाती है? व्यवहार सारा ज्ञेय स्वरूप से है और निश्चय ज्ञायक स्वरूप से है। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है यह !
ज्ञाता-दृष्टा भाव में रहें, तब खूब ठंडक लगती है। उसमें तो केवलज्ञान के नज़दीक की ठंडक लगती है। मैं केवलज्ञान स्वरूप हूँ' ऐसा भी कितने ही महात्माओं को रहता है! यह तो ओवर ड्राफ्ट की वजह से आया है। जो संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा रहें, वे केवलज्ञानी, लेकिन वह धीरे-धीरे प्राप्त होता है।
ज्ञाता-दृष्टा बन जाए तो 'व्यवस्थित' सुंदर रूप से चला लेता है। क्या शुद्धात्मा को प्रकृति की मदद की ज़रूरत पड़ती है? नहीं। आत्मा परमात्मा ही है। संपूर्ण स्वतंत्र है, निरालंब है ! अनंत शक्ति, अनंत ज्ञानवाला है। वह ज्ञान स्वरूप है, विज्ञान स्वरूप है। उसे किसी की क्या ज़रूरत?
क्या आत्मा का जानपना प्रकृति के माध्यम से है? नहीं। आत्मा खुद स्वभाव से ही जानपनेवाला है। प्रकृति में जो जानपना आता है, वह आत्मा में से आरोपित हुआ है। बुद्धि, वह भी खुद का आरोपण है। आत्मा के अलावा किसी में भी जानपना है ही नहीं। अब नया आरोपण करना ही नहीं है।
ज्ञाता-दृष्टा अर्थात् कैसा रहता है? हम दर्पण के सामने खड़े रहें तो हम उसमें दिखाई देते हैं न? क्या उसमें दर्पण को कुछ करना पड़ता है? उसके स्वभाव से ही, जो कुछ भी उसके सामने आता है वह उसमें झलकता ही है। उसी प्रकार आत्मा में सभी कुछ झलकता है। अंतिम ज्ञाता-दृष्टा इस तरह से है!
जितने समय तक ज्ञाता-दृष्टा रहे, उतने ही वीतराग। जो संपूर्ण ज्ञातादृष्टा हैं, वे संपूर्ण वीतराग।
जितना शुद्ध उपयोग, उतना ही ज्ञाता-दृष्टापन अधिक।
विनाशी जगत् के साथ आत्मा का क्या संबंध है? जो सिनेमा के परदे के साथ प्रेक्षक का होता है वैसा, देखनेवाले का संबंध सिर्फ देखने का ही
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