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आत्मा स्वभाव में ही है लेकिन चश्मे रूपी कोहरा आ जाता है। कोहरा आ जाए तो स्पष्ट नहीं दिखाई देता। द्रव्यकर्म कोहरे जैसे हैं। कोहरे में से बाहर निकलने के बाद भी कितने ही काल तक उसका असर रहता है।
अगले जन्म के लिए जो बीज डालना, वह भावकर्म है। बीजरहित कर्म, वे नोकर्म हैं और पिछले जन्म के चश्मे, वे द्रव्यकर्म हैं। जैसे चश्मे वैसा ही पूरी जिंदगी दिखाई देता है और चश्मे के अनुसार सूझ पड़ती है।
स्थूल चश्मे का पता चलता है लेकिन इन सूक्ष्म द्रव्यकर्म रूपी चश्मों का पता चलना मुश्किल है। यदि चश्मा लक्ष (जागृति) में रहे, खुद का लक्ष रहे और बाहर की हकीकत लक्ष में रहे तो कोई भी हर्ज नहीं है।
अक्रम में सभी कुछ खत्म कर दिया, इसीलिए कहते हैं न, 'मैं भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से मुक्त ऐसा शुद्धात्मा हूँ।'
जब ज्ञानी को सर्वस्व समर्पण करते हैं उस समय जीवित भाव अर्पण हो जाता है और मृत भाग बचता है यानी कि मात्र फल देने लायक ही बचते हैं जो कि फल देकर झड़ जाते हैं।
क्रमिक मार्ग में जैसे-जैसे भावकर्म कम करते जाते हैं वैसे-वैसे स्वभाव अनावृत होता जाता है, जबकि अक्रम में पूरा भावकर्म ही खत्म कर दिया है क्योंकि 'मैं चंदूभाई हूँ' वही भावकर्म है, जो अब खत्म हो गया है। भावकर्म खत्म हो गया इसलिए फिर नए द्रव्यकर्म नहीं बंधते क्योंकि भाव के कर्ता भी अब खुद नहीं रहे। अक्रम में मात्र दादाश्री की पाँच आज्ञाओं का पालन करना होता है, उतना ही चार्ज होता है, जिससे ज़बरदस्त पुण्यानुबंधी पुण्य बंधते हैं। जो महाविदेह में सीमंधर स्वामी द्वारा पूर्णाहुति करवाने के लिए तमाम सहूलियतें उपलब्ध करवा देते हैं।
इस प्रकार भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म की यह सूक्ष्म समझ दादाश्री ने सरल कर दी है। ऐसी समझ और कहीं भी मिल सके, ऐसा नहीं है। हालांकि यहाँ पर वह शब्दों में ही मिलती है, लेकिन जैसे-जैसे महात्मा ज्ञानी की इस समझ को आत्मसात करते जाते हैं, वैसे-वैसे उन्हें ये अनुभव में आता जाता है। यह सटीक अनुभवजन्य हकीकत है।
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