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[ ३ ] 'कुछ है', वह दर्शन है और 'क्या है, ' वह ज्ञान है
दर्शन और ज्ञान। दृष्टा देखे, वह दर्शन है और ज्ञाता जाने, वह ज्ञान
दर्शन क्या है? ज्ञान क्या है? अंधेरे में अगर पास के कमरे में कुछ खड़के तो सभी को अंदर, ऐसा लगता है कि वहाँ पर 'कुछ है!' कुत्ता है, बिल्ली है या कुछ है। अब 'कुछ है' ऐसा लगना, उसे दर्शन कहा है। उसके बाद उठकर अंदर जाकर देखें तो दिखाई देता है कि बिल्ली थी ! 'कुछ है' वह जो अस्पष्ट ज्ञान था, वह पक्का हो गया कि बिल्ली ही है, उसे 'ज्ञान' कहते हैं। अर्थात् अनडिसाइडेड ज्ञान को दर्शन कहते हैं और डिसाइडेड ज्ञान को ज्ञान कहते हैं। इसमें बिल्ली ज्ञेय है और जब अस्पष्ट था कि 'कोई जानवर है', तो उसे दृश्य कहा गया है। पेट में दुखता रहता है, वह दर्शन है और निदान हो गया कि 'अपेन्डिक्स है' तो उसे ज्ञान कहा गया है।
सोचकर देखा जाए वह ज्ञेय है और जो बिना सोचे-देखा जाए, वह दृश्य कहलाता है।
अंदर जब चिढ़ जाता है तो उसका उसे पता चलता है लेकिन वह चिढ़ किस वजह से हुई, जब तक उसका पता न चले तो वह दर्शन है और पता चल जाए, जान जाए, डिसाइडेड हो जाए कि अपमान होने की वजह से चिढ़ मची, तो वह ज्ञान कहलाता है । देखने में तो बहुत कुछ आ जाता है लेकिन जानने में कम आता है । देखते हैं लेकिन जानते नहीं हैं । अभी तक यह अनुभव में नहीं आता कि उससे क्या फायदा हुआ?
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देखना और जानना, दोनों रिलेटिव ज्ञान हैं। विनाशी चीज़ों के आधार पर देखा और जाना, अत: रिलेटिव ज्ञान है और 'मैं यह जो समझा हूँ वह रिलेटिव ज्ञान है,' जब समझ ऐसी हो गई तो वह केवलज्ञान की नज़दीक की समझ है! यह निरपेक्ष ज्ञान के पक्ष में आता है। ज्ञाता-दृष्टा दोनों एक ही हैं। डिसाइडेड हो जाए तब दृष्टा ही ज्ञाता बन जाता है I
वास्तव में तो ज्ञान दर्शन और चारित्र में कोई भेद है ही नहीं । आत्मा तो एक ही है। जब आत्मा का 'कुछ' भान होता है, आत्मा दर्शन में आया
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