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तो उसे 'प्रतीति होना' कहते हैं, उसके बाद ज्ञान होता है। निरंतर प्रतीति रहे तो उसे क्षायक दर्शन कहा गया है। महात्माओं को दादाश्री ने क्षायक दर्शन दिया है। अब, अनुभव करने पर जब डिसाइड होता है, तब ज्ञान हो जाता है और जब दर्शन व ज्ञान दोनों साथ में हों, तब चारित्र हुआ।
अस्पष्ट हो, वह दर्शन है और स्पष्ट होना, वह ज्ञान है।
मैं आपको समझाऊँ और आपको समझ में आ जाए तो ऐसा कहा जाएगा कि वह आपके दर्शन में आया', और मेरा ‘ज्ञान में कहा जाएगा। आप जो समझे, उसे फिर दूसरों को समझाते हो तो ऐसा कहा जाएगा कि आपका दर्शन ज्ञान में परिणमित हुआ और सुननेवाले का दर्शन कहा जाएगा।
जब तक ज्ञान में परिणमित नहीं हो जाता, तब तक सामनेवाले को समझाया नहीं जा सकता। दादाश्री को केवलज्ञान पूरा दर्शन में आ गया है लेकिन वह समझाया नहीं जा सकता। जाना हुआ समझ में रहता ही है, लेकिन समझा हुआ शायद जानपने में न भी हो।
रास्ते पर जाते हुए सभी पेड़ों को सामान्य भाव से देखें तो उसे दर्शन कहा जाता है और यह नीम है, यह आम है, जब ऐसा विशेष भाव से जानें, तब उसे ज्ञान कहते हैं। विशेष भाव से जानने गया तो फँस गया, अतः सामान्य भाव से देखते रहो। विशेष ज्ञान से दखल हो जाती है और सामान्य भाव से वीतरागता रहती है।
हम अगर पूछे, 'तू कहाँ रहता है?' अहमदाबाद। अहमदाबाद में कहाँ पर? अडालज। अडालज में कहाँ पर? सीमंधर सिटी में। सीमंधर सिटी में कहाँ पर? बंगला नं-२ में। दो में कहाँ पर? मेरे रूम में। बाकी के रूमों में तो चिड़ियाँ, चूहा, और कॉक्रोच वगैरह सभी रहते हैं। ये सब फॉरेन में ही रहते हैं जबकि संक्षेप में तो एक ही जवाब है। कहाँ रहते हो? 'मैं अपने स्वदेश में रहता हूँ। होम डिपार्टमेन्ट में रहता हूँ।' होम में बैठकर फॉरेन का सभी कुछ देखता रहता है । होम से बाहर निकला कि सफोकेशन होने लगता है। विस्तारपूर्वक जानने गया इसीलिए परेशानी है। अंदर आत्मा
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