Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाणमा नमो नमो निम्मलदंसणस्स गमागम आग
हभाग पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम:
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
आगम १८ "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: [३]
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
''वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा।
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिवाणा
TEOSEO
EUROBONSOR
070
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
HRAICH
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
~3
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजमाता जिम म मामा जीपमाला गया
ਰਿਸ਼ ਨੂੰ
ਵੀ ਭਾਰ ਉਸ ਨੂੰ
ਵੀ
ਬਾਲਗ
आगम
वाचना शताब्दी वर्षा
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-२५] श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्रम्-७/३)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं शान्तिचन्द्र विहिता वृत्तिः]
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२५
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
~5~
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - ..
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर...
.
.
..
-
..
-..
-
..
-
..
-
..
-..
-..
-..
-
..
-
..
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
.
____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलाड़का: १७८+१३१
जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ३६५
मलाक:
पृष्ठांक: |
मूलाक:
००१
२
विषय: | पृष्ठांक: | | मूलांक: | विषयः | वक्षस्कार:
०५४ वक्षस्कार: ३ जंबुद्वीपस्य प्रमाण, संस्थान,
भरतनाम्नस्य हेत्, विनीतानगरी स्वरुप, जगति, गवाक्ष.
भरतचक्रवर्ती-वक्तव्यता, पद्मवरवेदिका, वनखंड,
चक्ररत्नस्य उत्पत्ति,षटखंडयात्रा विजयद्वार एवं राजधानी,
मागध-प्रभास-वरदानानां कथनं भरतक्षेत्रस्य स्थान, प्रमाण,
| चतुर्दश-रत्नानि, रत्नानाम् कार्य विभाग, दक्षिणार्धभरत
|-एवं उत्पतिस्थानानि वैताद्यपर्वत,
| भरतचक्रवर्त्या: निधय:, देवा: सिद्धायतनवर्णन
राजानः, सेना:, ग्रामाय: - उत्तरार्धभरत.
| इत्यादि वर्णनं
विषय:
| पृष्ठाक: वक्षस्कार: ५ जिनजन्माभिषेकस्य वर्णनं, दिक्कुमार्याणां वक्तव्यता, इन्द्राणां आगमनम्, पण्डकवनं -एवं अभिषेकशीला, सुघोषाघंटा
२४५
वक्षस्कार:६ जम्बूदवीपगता पदार्थाः, जम्बूद्वीपे स्थिता: वर्षक्षेत्राः, - -पर्वता:, कूटा:, तीर्थानि, गुफ़ा;, द्रहाः, नद्य: आदि वक्तव्यता
०२२
२५०-३६५
| वक्षस्कार: २ काल- अवसर्पिणि, उत्सर्पिणि, औपमिककाल- पल्योपम, ... सागरोपम, कल्पवृक्षवर्णन. कालस्य षविधत्व व तस्मिन् तस्मिन्काले वास्तव्या मनुष्या कुलकर वक्तव्यता, रुषभदेवस्य वर्णन, नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाह्निका-महोत्सव, पंचभेदे मेघवर्षा
| वक्षस्कार: ४ | चुल्लहिमवंत-वर्षधरपर्वत-वर्णनं, पद्मद्रहवर्णनं, पद्मस्य कथनं, गंगा-सिंधु आदि नद्यानां वर्णनं, | सिद्धायतन-आदि कुटा:, | हेमवन्त-हरिवर्ष-महाविदेह-कुरु-रम्यक आदि क्षेत्राणां वर्णनं, निषध-नीलवंत-रुक्मि-हिमवंतादि -पर्वतानां वक्तव्यता, | मेरुपर्वतस्य वर्णनं.
वक्षस्कार: ७ जम्बूद्वीपे अवस्थित चन्द्र - -सूर्य-नक्षत्र-तारादि वक्तव्यता, सूर्यमंडल एवं तस्य आयाम, विष्कंभः, परिधि:, अंतर आदि. चंद्रमंडल एवं तस्य आयामादि -वर्णनं, नक्षत्रमंडल-वक्तव्यता, संवत्सराणां भेदा:, तिर्थकरआदि उत्तम पुरुषाणाम् वक्तव्यता
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८],उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
['जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्रम्” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में 'देवचन्द्र-लालभाइ-जैनपुस्तकोद्धार' द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई , जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया , मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा , और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया , जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी , ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम , फिर वक्षस्कार और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा वक्षस्कार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है , उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है , इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ । ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है , जिसमे प्रत्येक वक्षस्कार और मूलसूत्र लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है , जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है |अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है , जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२५ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
......मुनि दीपरत्नसागर.
~10
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
अथ पञ्चमो जिनजन्माभिषेकाख्यो वक्षस्कारः ।
सूत्रांक
[११२]
गाथा
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
सम्पति यदुक्तं पाण्डुकम्बलाशिलादी सिंहासनवर्णनाधिकारे 'अत्र जिना अभिषिच्यन्ते' तत्सिंहावलोकनन्यायेनानु-18 | स्मरन् जिनजन्माभिषेकोत्सवर्णनार्थ प्रस्तावनासूत्रमाह
जया णं एकमेको चकवट्टिविजए भगवन्तो तित्थयरा समुप्पजन्ति तेणं कालेणं तेणं समएणं महेलोगवस्थब्वाओ अ रिसाकुमारीओ महत्तरिआओ साहिं २ कूडेहिं सरहिं २ भवणेहिं सरहिं २ पासायवडेंसरहिं पत्ते २ चउहि सामाणिजसाहस्सीहिं चाहिं महत्तरिआदि सपरिवाराहिं सत्तहिं अणिरहि सत्ताहि अणिआहिवईहिं सोळसरहिं आवरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि अ बहूहिं भवणवज्ञवाणमन्तरेहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिखुडाओ महया हयणगीयवाइअ जाव भोगभोगाई भुंजमाणीओ बिहरति, संजहा-भोगफरा १ भोगवई २, सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । तोयधारा ५ विचित्ता य ६, पुष्फमाला . अणिदि ८॥ १॥ तए थे तासिं अहेलोगवत्यव्वाणं अट्टण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं पत्ते आसणाई चलंति, तए णं ताओ अहेलोगवस्थव्याओ अव दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्तेयं २ आसणाई चलिआई पासन्ति २ ता ओहिं पहुंजंति पउंजित्ता भगवं तित्थयर ओहिणा आभोएंति २ चा अण्णमण्णं सदाविति २ चा एवं बयासी-प्पण्णे खलु भो ! जम्बुद्दीवे वीवे भयवं! तित्थयरे तं जीयमे तीअपचुप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्यवाणं अट्ठाई दिसाकुमारीमदत्तरिआणं भगवओ ति
5
अथ पञ्चम-वक्षस्कारः आरभ्यते
...जिनेश्वरस्य जन्म-अभिषेकस्य वर्णनं आरभ्यते
~11
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------
--------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्या
५वक्षस्कारे
द्वीपशा-18
दिकुमा
[११]
न्तिचन्द्रीया वृतिः ॥३८॥
त्सवः मू. ११२
गाथा
स्थगरस्स जम्मणमहिम करेत्तए, तं गच्छामों णं अम्हेवि भगवओं जम्मणमहिमं करैमोत्तिक एवं वर्षति २ चा पत्ते पत्तों आभिमोगिए देवे साति २ चा एवं क्योसी-खिप्पामेव भों देवाणुप्पिा! अणेगसम्भसयसण्णिपिढे लीलटिम एवं विमाणवण्णमो भाणिभवो जाव जोमणविविधपणे दिव्वे जाणविमाणे विउवित्ता एमाणत्तिों पापिणहत्तिा सए ण ते आमिमोगा देवा अणेगसम्भसय जाव पचप्पिणति, तए ण ताओ अहेलोगवत्थव्याओं अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ हद्वतुढ० पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणिअसाहसीहि घउहि महत्तरिआदि जाव अण्णेहिं बहूहिँ देवेहिं देवीहि अ सर्वि संपरिखुडाभो ते दिवे जाणवि. माणे दुरूहंति दुरूहिता सन्धिट्टीए सम्वजुईए चणमुइंगपणवपचाइअरवेणं ताए उकिट्ठाए जाव देवगईए जेणेक भगवओ तित्वगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जन्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवओ तित्थयस्स जम्मणभवणं तेहिं विव्येहि जाणविमाणेहिं तिसुत्तो आयाहिणपयाहिण करेंति करित्ता उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए इंसि परंगुलमसंपत्ते धरणिले ते दिवे जाणविमाणे ठविति ठवित्ता पचे २ पाहि सामाणिजसहरसेहि जाव सद्धिं संपरिवुद्धाओ दिव्येहिती जाणविमाणेहितो पचोरहंति २त्ता सब्बिद्धीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २सा भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति २ ता पत्ते २ करयलपरिग्गहि अं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं वयासीणमोत्थु ते रयणकुचिधारिए जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स चक्सुणो अ मुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हिअकारगमगादेसियपागिद्धिविभुपभुस्स जिणस्स गाणिस्स नायगस्स बुहस्स बोहगस्स सबलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुम्भवस्स जाईए १ सम्बनगमगलरसेति प्राग्वत, न पात्र पीनरुतमं शहनी, स्तुती तदभावात्, गदुर्ग-रामायर
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
४
॥३८३॥
।
~12
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [4], ....------------------------------------------------- मलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२]
गाथा
सत्तिबस्स जैसि लोगुतमस्स जणणी धण्णासि तं पुण्णासि कयंत्यासि अम्हे गं देवाणुप्पिए! हेलींगवरथनाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम करिस्सामो तण्णं तुम्भेहिं म भाइव्वं शतिक? उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकामन्ति २ ता बेउल्विअसमुग्धापणं सम्मोहणंति २ ता संखिज्जाई जोषणाई दंड निसरति, संजहा-रयणाणं जाच संबगवाए विउत्थंति २त्ता तेणं सिवेणं मउएणं मारएणं अणुकुएर्ण भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं सोपभसुरहिकुसुमगन्धाणुवासिएणं पिण्डिमणिहारिमेणं गन्धुदुएणं तिरि पवाइएणं भगवओ सिस्थयरस्स जम्मणभवणस्स सध्यभो समन्ता जोगणपरिमण्डलं से जहा णामए कम्मगरदारए सिआ जाव तहेव जे तस्थ तणं वा पत्तं वा कहूं वा कथवरं वा असुइमचोक्षं पूइभ दुन्भिगन्ध तं सव्वं आहुणिम २ एगन्ते एडेति २ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव ख्वागच्छन्ति २ त्ता भगवो तित्थयरस्स तित्वयरमावाए अ अदूरसामन्ते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति । (सूत्र ११२)
यदा-यस्मिन् काले एकैकस्मिन् चक्रवर्तिविजेतव्ये क्षेत्रखण्डे भरतैरावतादौ भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते-जाय-18 ॥॥न्ते तदाऽयं जन्ममहोत्सवः प्रवर्तते इति शेषः, अत्र च चक्रवर्तिविजये इत्यनेनाकर्मभूमिषु देवकुर्वादिषु जिनजन्मा-1 || सम्भव इत्युक्तं भवति, एकैकस्मिन्नित्यत्र वीप्साकरणेन च सर्वत्रापि कर्मभूमौ जिनजन्मसम्भवश्च यथाकालमभिहित
| इति, तत्र चादौ पट्पञ्चाशतो दिकमारीणामितिकर्तव्यता वक्तव्या, तत्राप्यधोलोकवासिनीनामष्टानामिति तासां। | स्वरूपमाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले सम्भवज्जिनजन्मके भरतरायतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे महावि-18
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~13
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], -------------------------------------------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११]
११२
गाथा
श्रीजम्बू- देहेषु चतुर्थारकप्रतिभागलक्षणे, तत्र सर्वदापि तदाद्यसमयसदृशकालस्य विद्यमानत्वात् तस्मिन् समये-सर्वत्राप्यर्द्ध- ५वक्षस्कारे द्वीपशा
| रात्रलक्षणे, तीर्थकराणा हि मध्यरात्र एव जन्मसम्भवात्, अधोलोकवास्तव्या:-चतुर्णा गजदन्तानामधः समभूतला- दिकुमायुन्तिचन्द्रीनवशतयोजनरूपां तिर्यग्लोकव्यवस्था विमुच्य प्रतिगजदन्तं द्विद्विभावेन, तत्र भवनेषु वसनशीलाः, यत्तु गजदन्तानां ||
|त्सव: मू. या वृत्तिः
षष्ठपञ्चमकूटेषु पूर्व गजदन्तसूत्रे आसां वासः प्ररूपितस्तत्र क्रीडार्थमागमनं हेतुरिति, अन्यथा आसामपि चतुःशतयो-11 ॥३८४॥ जनादिपश्चशतयोजनपर्यन्तोश्चत्वगजदन्तगिरिगतपञ्चशतिककूटगतप्रासादावतंसकवासित्वेन नन्दनवनकूटगतमेघरा-10 IS दिदिकुमारीणामिवोर्ध्वलोकवासित्वापत्तिः । अथ प्रकृतं प्रस्तुमः, अष्टौ दिकुमार्यो-दिक्कुमारभवनपतिजातीया महत्त
रिकाः-स्ववर्येषु प्रधानतरिकाः स्वकेषु स्वकेषु कूटषु-गजदन्तादिगिरिवत्तिषु स्वकेषु २ भवनेषु-भवनपतिदेवावासेषु स्वकेषु २ प्रासादावतंसकेषु-स्वस्वकूटवर्तिक्रीडावासेषु, सूत्रे च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् , प्रत्येकं २ चतुर्भिः सामानिकानां-दिकुमारीसदृशद्युतिविभवादिकदेवानां सहस्रः चतसृभिश्च महत्तरिकादिभिः-दिकुमारिकातुल्यविभवा-191 भिस्ताभिरनतिक्रमणीयवचनाभिश्च स्वस्वपरिवारसहिताभिः सप्तभिरनीकैः-हस्त्यश्वरथपदातिमहिषगन्धर्वनाव्यरूपैः सप्त-1131 भिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षकदेवसहरित्यादिकं सर्व विजयदेवाधिकार इव व्याख्येयं, ननु कासाश्चित् |
॥३८॥ दिक्कुमारीणां व्यक्त्या स्थानाङ्गे पस्योपमस्थितेर्भणनात् समानजातीयत्वेनासामपि तथाभूतायुषः सम्भाग्यमानत्वाद् भवनपतिजातीयत्वं सिद्धं तेन भवनपतिजातीयानां वानमन्तरजातीयपरिकरः कथं सङ्गच्छते, उच्यते, एतासां महर्दि-11
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~14
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२]
गाथा
कत्वेन थे आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति, अथवा वानमन्तरशब्देनात्र वनानामन्तरेषु चरन्तीति योगिका-18 र्थसंश्रयणात् भवनपतयोऽपि वानमन्तरा इत्युच्यन्ते, उभयेषामपि प्रायो वनकुटादिषु विहरणशीलत्वादिति | सम्भाव्यते, तत्वं तु बहुश्रुतगम्यमिति सर्व सुस्थम् , आसां नामान्याह-'तंजहा' इत्यादि, तद्यथा-भोगकरेत्यादिरूपकमेतत् , कण्ठयं ॥ अथैतास्वेवं विहरन्तीषु सतीषु किं जातमित्याह-तए ण'मित्यादि, ततस्तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिकुमारीणां महत्तरिकाणां प्रत्येकरमासनानि चलन्तीति, अर्थताः किं किमकाघुरित्याह-'तए ण'-18 मित्यादि, ततः-आसनप्रकम्पानन्तरं ता:-अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिकुमार्यों महत्तरिकाः प्रत्येकं २ आसनानि चलितानि पश्यन्ति दृष्ट्वा चावधि प्रयुञ्जन्ति प्रयुज्य च भगवन्तं तीर्थकरमवधिना आभोगयन्ति आभोग्य च अन्यमन्य
शब्दयन्ति शब्दयित्वा च एवमवादिषुः, यदवादिषुस्तदाह-'उप्पण्णे इत्यादि, उत्पन्नः खलु भो! जम्बूद्वीपे द्वीपे || भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत्-कल्प एपोऽतीतप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिककुमारीमहत्तरिकाणांए
भगवतो जन्ममहिमा कर्त्त, तद् गच्छामो वयमपि भगवतो जन्ममहिमा कुर्म इतिकृत्वा-धातूनामनेकार्थत्वानिश्चित्य मनसा एवं-अनन्तरोक्तं वदन्ति, उदित्वा च प्रत्येकं २ आभियोगिकान देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवा-14 1 दिषुः, किमवादिपुरित्याह-खिप्पामेव'इत्यादि, भो देवानुप्रियाः! क्षिप्रमेव अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थितशालभजिकाकानीत्येवमनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः, स चाय-ईहामिगउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नर-18
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
श्रीजम्ब. (५
TION
~15
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [4], ....------------------------------------------------- मलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११]
1 ११२
गाथा
श्रीजम्बू-1 रुरुसरभचमरकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवइरवेइआपरिगयाभिरामे विजाहरजमलजुअलजन्तजुत्ते विव वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
IN अधीसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिभिसमाणे चक्खुल्लोअणलेसे सुहफासे सस्सिरीअरूवे घंटावलि-|| दिकुमायुया इतिः
अमरमणहरसरे सुभे कंते दरिसणिजे निउणोविजमिसिमिसेंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्ते'सि, कियत्पर्यन्त-1 सवः मू. 1 मित्याह-यावद्योजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानाय-इष्टस्थाने गमनाय विमानानि अथवा यानरूपाणि-वाहनरूपाणि 1 ॥३८॥1 विमानानि यानविमानानि विकुर्वत-वैक्रियशक्त्या सम्पादयत विकुर्वित्वा च एनामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत, अथ यान विमा-11
|नवर्णकव्याख्या प्राग्वद् ज्ञेया, तोरणादिवर्णकेषु एतद्विशेषणगणस्य ब्याख्यातत्वात् , ततस्ते किं चकुरित्याह-'तए ण'-181 मित्यादि ततस्ते आभियोगिका देवा अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि यावदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति, अर्थताः किं कुर्वन्तीत्याह-8 'तए णं ताओ'इत्यादि, ततस्ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः हतुह्रत्यायेकदेशदर्शनेन सम्पूर्ण आलापको ग्राह्यः, सचार्य-हडतुदृचित्तमाणदिआ पीअमणा परमसोमणस्सिआ हरिसवसविसप्पमाणहिअया विअसिअवरकमलनयणा पचलिअवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुण्डलहारविरायंतरइअवच्छा पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरा ससं| भमं तुरिअंचवलं सीहासणाओ अब्भुडेन्ति २ चा पायपीढाओ पचोरुहन्ति २त्ता' इति प्रत्येक २ चतुर्भिः सामानिक|| सहीः चतसृभिच महत्तरिकाभिर्यावदन्यै बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृताः तानि दिव्यानि यानविमानान्यारो-MI R| हन्ति, आरोहणोत्तरकालं येन प्रकारेण सूतिकागृहमुपतिष्ठन्ते तथाऽऽह-'दुरुहित्ता इत्यादि, आरुह्य च सर्वेन्यो ।
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~16
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ------------------
-------------------- मलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
Resecra
सूत्रांक
[११२]
गाथा
18सर्वद्युत्या घनमृदङ्ग-मेघवत् गम्भीरध्वनिकं मृदङ्गं पणयो-मृत्पटहः, उपलक्षणमेतत् तेनाम्येषामपि तूर्याणा संग्रहः,, 18 एतेषां प्रवादितानां यो रवस्तेन, तया उत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरिआए चवलाए' इत्यादिपदसंग्रहः प्राग्वत् देवगत्या 181 यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य
जन्मभवन तैर्दिव्यैर्यानविमानैखिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, बीन् वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः, त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे-ईशानकोणे ईपचतुरङ्गलमसम्प्राप्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि स्थापयन्तीति, अथ यच्च कुस्तदाह--'ठवित्ता' इत्यादि, स्थापयित्वा च प्रत्येक २ अष्टायपीत्यर्थः चतुर्भिः सामानिकसहौ-11 वित् सा“ सम्परिता दिव्येभ्यो यान विमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य च सर्ववर्या यावच्छब्दात् सर्वेद्युत्यादि-16 परिग्रहः कियत्पर्यन्त मित्याह--'संखपणवभे रिझलरिखरमुहिहुडुक्कमुरजमुइंगदुंदुहिनिघोसनाइएणं'ति, यत्रैव भगवास्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च त्रिः प्रदक्षिणयन्ति त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च प्रत्येक करतलपरिगृहीतं शिरस्यावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं-वक्ष्यमाणमवादिषुः, यदवादिपुस्तदाह-18 'नमोऽत्थु ते इत्यादि, नमोऽस्तु ते-तुभ्यं रन-भगवलक्षणं कुक्षी धरतीति रत्नकुक्षिधारिके अथवा रत्नगर्भाव गर्भधारक-18 वेनापरखीकुतिभ्योऽतिशायित्वेन रत्नरूपां कुक्षिं धरतीति, शेष तथैव. तथा जगतो-जगदर्सिजनानां सर्वभावाना। प्रकाशकत्येन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान् तस्य दीपिके, सर्वजगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुरिव चक्षुः सकलजगद्भावदर्शकत्वेन
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
SEE
~17~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ------------------
-------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशा
[११]
गाथा
18 तस्य, चः समुचये, चक्षुश्च द्रव्यभावभेदाभ्या द्विधा, तत्राद्यं भावचक्षुरसहकृतं नार्थ (सर्व)प्रकाशकं तेन भावचक्षुषा भगवा-|
५वक्षस्कारे नुपमीयते, तच्चामूर्त्तमिति ततो विशेषमाह-मूर्तस्य-मूर्तिमतः चक्षुयोह्यस्येत्यर्थः, सर्वजगजीवाना वत्सलस्य-उपका-1181
दिकुमायुन्तिपन्द्री-18| रकस्य, उतार्थे विशेषणद्वारा हेतुमाह-हितकारको मार्गो-मुक्तिमार्गः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्तस्य देशिका-% या वृत्तिः। उपदेशिका उपदेशदर्शिकेत्यर्थः, तथा विभ्वी-सर्वभाषानुगमनेन परिणमनात् सर्वव्यापिनी सकलश्रोतृजनहृदयसङ्क्रान्त- ११२ ॥३८६॥
तात्पर्याथी एवंविधा वाग्ऋद्धिः-वाकूसम्पत्तस्याः प्रभुः-स्वामी सातिशयवचनलब्धिक इत्यर्थः, तस्य तथा, अत्र विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , जिनस्य-रागद्वेषजेतुः ज्ञानिनः-सातिशयज्ञानयुक्तस्य नायकस्य-धर्मवरचक्रवशर्तिनः बुद्धस्य-विदिततत्त्वस्य बोधकस्य-परेषामावेदिततत्त्वस्य सकललोकनाथस्य-सर्वप्राणिवर्गस्य बोधिवीजाधानसंरक्षणाभ्यां योगक्षेमकारित्वात् निर्ममस्य-ममत्वरहितस्य प्रवरकुलसमुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य एवंविधविख्यातगुणस्य लोकोत्तमस्य यत्त्वमसि जननी तत्त्वं धन्याऽसि पुण्यवत्यसि कृतार्थाऽसि, वयं हे देवानुप्रिये! अधोलोकवा
स्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः भगवतो जन्ममहिमा करिष्यामस्तेन युष्माभिर्न भेतव्यं, असम्भाव्यमानपरजनाI पातेऽस्मिन् रहस्थाने इमा विसदृशजातीयाः किमितिशङ्काकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः, अर्थतासामितिकर्तव्यता
माह--'इतिकट्ट उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग'मित्यादि, इतिकृत्वा-प्रस्तावादित्युक्त्वा ता एवोत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम- ॥३८६॥ पनामन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति समवहत्य च सङ्ख्यातानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति, निसृज्य |
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
4.10
Resea
~18~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
हanese
[११२]
॥||च किं ताः कुर्वन्ति ?, तदेवाह-तद्यथा रत्नानां यावत्पदात् 'वइराणं वेरुलिआणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसग
भाणं पुलवाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं पुलयाणं रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिहाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ, अहासुहुमे पुग्गले परिआएइ, दुचंपि वेउनिअसमुग्घाएणं समोहणइ २ त्ता' इति पदसंग्रहः, एतत्सविस्तरव्याख्या पूर्व भरताभियोगिकदेवानां वैक्रियकरणाधिकारे कृता तेन ततो ग्राह्या, वाक्ययोजनार्थं तु किश्चि-18 | लिख्यते, एषां रजानां पादरान् पुद्गलान् परिशाव्य सूक्ष्मान् पुद्गलान् गृहन्ति, पुनर्वक्रियसमुत्पातपूर्वकं संवत-18 कवातान् चिकुर्वन्ति, बहुवचनं चात्र चिकीर्पितकार्यस्य सम्यक्सियर्थं पुनः पुनर्वातविकुर्वणाज्ञापनार्थ, बिकुळ च तेनतत्काल विकुर्वितेन शिवेन-उपद्रवरहितेन मृदुकेन-भूमिसर्पिणा मारुतेन अनुकृतेन-अनूवचारिणा भूमितलविमलकरणेन मनोहरेण सर्वतुकानां-पऋतुसम्भवानां सुरभिकुसुमानां गन्धेनानुवासितेन पिण्डिमः-पिण्डितः सन निहरिमो-दूर विनिर्गमनशीलो यो गन्धस्तेन उद्धरेण बलिष्ठेनेत्यर्थः तिर्यक्रवातेन-तिर्यक् वातुमारब्धेन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य | सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षु योजनपरिमण्डलं से जहाणामए कम्मारदारए सिआ जाव' इत्येतत्सूत्रैकदेशसूचितदृष्टा-10 न्तसूत्रान्तर्गतेन तहेवेति दार्शन्तिकसूत्रबलादायातेन सम्माजतीतिपदेन सहान्वययोजना कार्या, तचेदं दृष्टान्तसूत्र-1 से जहाणामए कम्मयरदारए सिआ तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपाए पिटुतरोरुपरिणए घणनिचिअबवलिअखंधे चम्मेहगदुहणमुठिअसमायनिचिअगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तलजमलजुअलपरिषवाहू लंध
sececeoesesereversectse
गाथा
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
~19
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११]
गाथा
sec
श्रीजम्बू-
गणपवणजइणपमहणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महंत सिलागहत्थर्ग वा दंडसंपुच्छणि वक्षस्कारे द्वीपशा- वावेणुसिलागिगं वा गहाय रायंगणं वा रायंते उरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उजाणं वा अतुरिअमचबल- दिकुमायुसचन्द्र मसंभंतं निरन्तरं सनिउणं सचओ समन्ता संपमज्जति' स यथानामको-यत्प्रकारनामकः कर्मदारकः स्याद्-भवेत् , आस-11
त्सवः सू. या वृत्तिः ।
११२ मृत्युहिं दारको न विशिष्ट सामर्थ्यभागू भवतीत्यत आह-तरुणः-प्रवर्द्धमानवयान, स च बलहीनोऽपि स्यादित्यत आह-11 l૨૮ણી बलवान् , कालोपद्रवोऽपि विशिष्टसामर्थ्य विघ्नहेतुरित्यत आह-युगं-सुषमदुष्षमादिकालः सोऽदुष्टो-निरुपद्रवो विशिष्ट-18
बलहेतुर्यस्यास्त्यसौ युगवान् , एवंविधश्च को भवति?-युवा-यौवनवयस्थः, ईदृशोऽपि ग्लानः सन् निर्बलो भवत्यतः IS|| अल्पातङ्कम, अल्पशब्दोऽत्राभाववचनः, तेन निरातङ्क इत्यर्थः, तथा स्थिर:-प्रस्तुतकार्यकरणेऽकम्पोऽग्रहस्तो-हस्तानं य
स्थासौ तथा, तथा दृढं-निबिडितरचयमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथा, पृष्ठ-प्रतीतं अन्तरे-पार्यरूपे ऊरू-सक्थिनी एतानि परिणतानि-परिनिष्ठिततां गतानि यस्य स तथा, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः कान्तस्य परनिपातः अहीनाङ्ग इत्यर्थः, घननि-110 चितौ-निविडतरचयमापन्नौ वलिताविव वलिती हृदयाभिमुखौ जातावित्यर्थः वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा, तथा चर्मेष्टकेनचर्मपरिणद्धकुट्टनोपगरणविशेषेण दुषणेन-घनेन मुष्टिकया च-मुष्ट्या समाहता:समाहताः सन्तस्ताडितास्ताडिताः सन्तो
IS॥३८७॥
nal ये निचिता-निबिडीकृताः प्रवहणप्रेष्यमाणवखग्रन्थकादयस्तद्वद् गात्रं यस्य स तथा, उरसि भवमुरस्य ईश्शेन बलेन 18 समन्वागतः-आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः तली-तालवृक्षौ तयोर्यमल-समश्रेणीकं ययुगलं-द्वयं परिपश्च-अर्गला तन्निभे
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
8000
-~-20~
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११२]
गाथा
तत्सदृशे दीर्घसरलपीनरवादिना बाहु यस्य स तथा लंघने-गर्तादेरतिक्रमे प्लवने-मनाक विक्रमपति गमने जवने-18
अतिशीघ्रगमने प्रमर्दने-कठिनस्यापि वस्तुनश्चर्णने समर्थः, छेक:-कलापण्डितः दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी 191 प्रष्ठो-वाग्मी कुशल:-सम्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावी-सकृत्श्रुतदृष्टकर्मज्ञः 'निपुणशिल्पोपगतः' निपुणं यथा| र भवत्येवं शिल्पक्रियासु कौशलं उपगतः-प्राप्तः, एकं महान्तं शलाकहस्तक-सरित्पर्णादिशलाकासमुदाय सरित्पर्णादि-18
शलाकामयीं सम्मार्जनीमित्यर्थः वाशब्दा विकल्पार्थाः दण्डसंपुंछनी-दण्डयुक्तां सम्मार्जनी वेणुशलाकिकी-वंशश-18 लानिवृत्तां सम्मार्जनी गृहीत्या, राजाङ्गणं वा राजान्तःपुरं वा देवकुलं वा सभा बा, पुरधानानां सुखनिवेशनहेतु-10 | मण्डपिकामित्यर्थः, प्रपा वा-पानीयशाला आराम वा-दम्पत्योर्नगरासन्नरतिस्थानं उद्यानं वा-क्रीडार्थागतजनानां ||& प्रयोजनाभावेनोवोवलम्बितयानवाहनाद्याश्रयभूतं तरुखण्डं अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं, त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे | या सम्यक्कवचराद्यपगमासम्भवात् , तत्र त्वरा-मानसौत्सुक्यं चापल्यं-कायौत्सुर्य सम्भ्रमश्च-गतिस्खलनमिति निर-1 न्तरं न तु अपान्तरालमोचनेन सुनिपुणमल्पस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन सम्प्रमार्जयेदिति, अथोक्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिकयोजनायाह-तथैवैता अपि योजनपरिमण्डलं-योजनप्रमाणं वृत्तक्षेत्रं सम्मार्जयन्तीति-यत्तत्र योजनपरिमण्डले तृणं वा पत्रं वा काष्ठं वा कचवरं वा अशुचि-अपवित्रं अचोक्षं-मलिनं पूतिक-दुरभिगन्धं तत्सर्वमाधूय २-सञ्चाल्य २ एकान्ते-योजनमण्डलादन्यत्र एडयन्ति-अपनयन्ति, अपनीयात् संवर्तकवातोपशमं विधाय च यत्रैव भगवांस्ती
Reversectotatoecenesesececece
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
Jaticomint
~21
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे
सूत्रांक
ऊर्ध्वलोक
[११२]
दिकुमायुत्सवः सू.
JOH
११३
गाथा
श्रीजम्बू- र्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च नातिदूरासने आगायन्त्य द्वीपशा- आ-ईषत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दरस्वरेण गायमानत्वात् परिगायन्त्यो-गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण न्तचन्द्री-गायन्त्यस्तिष्ठन्ति । अधोलोकवासिनीनामवसर:पा वृत्तिः तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्घलोगवस्थवाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरहिं २ कूडेहिं सपहिं २ भवणेहिं सएहि २ ||३८८॥
पासायवसएदि पत्ते २ चरहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं तं चेव पुवगिअंजाब विहरंति, तंजहा-मेहंकरा १ मेहवई २, सुमेहा ३ मेहमालिनी ४ । सुवच्छा ५ वच्छमित्ता य ६, वारिसेणा ७ बलाहगा ।। १ ।। तए णं तासि उद्धलोगवत्यब्वाणं अट्ठाई दिसाकुमारीमहत्तरिाणं पत्तेअं २ आसणाई चलन्ति, एवं तं चेत्र पुत्ववणि भाणिअचं जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए । उद्धलोगवस्थयाभो अढ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिनं करिस्सामो तेणं तुभेहिं ण भाइभयंतिक उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं अवकमन्ति २त्ता जाव अभवदलए विवन्ति २ चा जाय तं नियरयं णट्ठरवं भट्टरवं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति २ खिप्पामेव पचुवसमन्ति, एवं पुष्फबद्दलंसि पुष्फवासं वासंति वासित्ता जाव कालागुरुपवर जाव सुरवराभिगमणजोमग करेंति २ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २चा जाब आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति (सूत्रं १९३) 'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं ऊर्वलोकवासित्वं चासां समभूतलात् पञ्चशतयोजनोचनन्दनवनगतपञ्चशतिकाष्टकूटवासित्वेन ज्ञेयं, नन्वधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिगतकूटाष्टके यथा क्रीडानिमित्तको वासस्तथैव तासामप्यत्र
दीप अनुक्रम [२१२-२१४]
॥३८८||
।
~22
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मूलं [११३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११३]
गाथा
भविष्यतीति चेत् , मैवं, यथाऽधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरीणामधो भवनेषु वासः श्रूयते तथैतासाभश्रूयमाणत्वेन तत्र निरन्तरं वासस्ततश्चोर्ध्वलोकवासित्वं, ताश्चेमा नामतः पद्यबन्धेनाह-"मेघवारा १ मेघवती २ सुमेघा ३ मेघमालिनी ४ सुवत्सा ५ वत्समित्रा ६ चः समुच्चये वारिषेणा ७ वहालका ८॥१॥ अथ यत्तासां वक्तव्यं तदाह-तए णं तासिं उद्धलोगवत्थवाण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं तदेव पूर्ववर्णितं भणितव्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अम्हे - मित्यादि, अत्र यावच्छन्दोऽवधिवाचको नतु संग्राहक, 'अवक्कमित्ता जाव'त्ति अत्र यावत्पदात् 'वेउविअसमुग्याएणं समोहणंति २त्ता जाव दोच्चंपि वे उषिअसमुग्धाएणं समोहणंति २ चा' इति चोध्यम् , 'अभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति' अधे-आकाशे वाः-पानीयं तस्य दलकानि अभ्रवादलकानि मेघानित्यर्थः, विउवित्ता जाव'त्ति अत्र थावत्करणादिदं दश्यम्-से जहाणामए कम्मारदारए जाव सिप्पोवगए एगं महंतं दगवारगं वा दगकुंभयं वा दगथालगं वा दगक
लसंवा दगभिंगारं वा गहाय रायंगणं वा प०सभंता जाव समन्ता आवरिसिज्जा, एवमेव ताओवि उद्धलोगवस्थवाओ अठ्ठ/81 18 दिसाकुमारीमहत्तरिआओ अभवद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति २ ता खिप्पामेव विज्जआयंति २ त्ता भगवओ||
तित्थगरस्स जम्मणभवणस्स सबओ समन्ता जोअणपरिमंडलं णित्रोअगं नाइमट्टिों पविरलपफुसि रयरेणुविणासणं । | दिवं सुरभिगन्धोदयवासं वासंति २,' अत्र व्याख्या-स यथा कर्मदारक इत्यादि प्राग्वत् व्याख्येयं, एक महान्तं दकवारकं वा-मृत्तिकामयजलभाजनविशेष दककुम्भकं वा-जल बट दकस्थालकं वा-कांस्यादिमयं जलपात्रं दककलशं
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
Jain
,
~23~
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मलं [११३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू
न्तिचन्द्री
[११३]
११३
गाथा
18 वा जलश्रृंगारं वा गृहीत्वा राजाङ्गणं वा यावदुधानं या आवर्षेत्-समन्तात् सिञ्चेत् एवमेता अपि उद्धलोगवत्थवाओवक्षस्कारे द्वीपशा-18 इत्यादि प्राग्वत् , क्षिप्रमेव 'पतणतणायन्ति'त्ति, अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः, गर्जित्वा च 'पविजआयन्ति'त्ति प्रकर्षण ऊर्ध्वलोक
विद्युतं कुर्वन्ति, कृत्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्तायोजनपरिमण्डलं क्षेत्रं यावत् , अत्र नैरन्तयें दिकुमायुया वृत्तिः 18 द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिमण्डलक्षेत्रे इत्यर्थः, नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात्तथा प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता ||
त्सवः सू. ॥३८९॥ भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, उक्कप्रकारेण विरलोनि-सान्तराणि घनभावे कर्दमसम्भवात् प्रस्पृष्टानि-प्रकर्ष
वन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन् वर्षे तत् प्रविरलपस्पृष्टं, अब एव रजसा-लक्ष्णरे-18 णुपुद्गलानां रेणूनां च-स्थूलतमतत्पुगलानां विनाशनं दिव्यं-अतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति वर्षित्वा च, अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते-तद् योजनपरिमण्डल क्षेत्रं निहतरजः कुर्वन्तीति योगः, निहतं-भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र तत्तथा, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि सम्भवति तत आह-नष्टरजः-नष्टं सर्वथा अरश्यी
भूतं रजो यत्र तत्तथा, तथा भ्रष्टं वातोद्भूततया योजनमात्रात् दूरतः क्षिप्त रजो यत्र तत्सथा, अत एव प्रशान्तं12 सर्वथाऽसदिव रजो यत्र तत्तथा, अस्यैवात्यन्तिकताख्यापनार्थमाह-उपशान्तं रजो यत्र तसथा, कृत्वा च क्षिप्रमेव
प्रत्युपशाम्यन्ति, गन्धोदकवर्षणान्निवर्तन्त इत्यर्थः, अथासां तृतीयकर्त्तव्यकरणावसरः-एवं गन्धोदकवर्षणानुसारेण ॥३८९।। पुष्पवादलकेन-पुष्पवर्षकवादलकेन प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी पुष्पवर्ष वर्षन्तीति, अत्रैवमित्यादिवाक्यसूचित-18
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
~24
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ------------------
-------------------- मल [११३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११३]
गाथा
मिदं सूत्रं ज्ञेयम् , 'तचंपि वेविअसमुग्घाएणं समोहणंति २ त्ता पुष्फबद्दलए विउच्चन्ति, से जहाणामए मालागारदारए सिआ जाव सिप्पोवगए एग महं पुष्फछजिअं वा पुष्फपडलगं वा पुप्फचंगेरीअं वा गहाय रायंगणं वा जाव समन्ता कयग्गहगहिअकरयलपब्भविष्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुष्फपुंजोवयारकलिअं करेति एवमेव ताओवि | उद्धलोगवथवाओ जाव पुष्फबद्दलए विउवित्ता खिप्पामेव पतणतणायन्ति जाब जोअणपरिमण्डलं जलयथलयभा|| सुरप्पभूयस्स बिंटवाइस्स दसवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति'त्ति, अत्र व्याख्या-तृतीयवारं वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, कोऽर्थः-संवर्तकवातविकुर्वणार्थ हि यत् वेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहननं तत्किलैक एवमभ्रवादलकविकुर्वणार्थ द्वितीयं इदं तु पुष्पवादलकविकुर्वणार्थ तृतीय, समवहत्य च पुष्पवादलकानि ||
विकुर्वन्ति, स यथानामको मालाकारदारको-मालिकपुत्रः अस्यैव प्रस्तुतकार्ये व्युत्पन्नत्वात् स्याद्यावन्निपुणशिल्पो1 पगतः एका महतीं 'पुष्पच्छाद्यिकां वा' छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या छायैव छाधिका पुष्पैर्भूता छाधिका पुष्प
छायिका तां पुष्पपटलकं वा-पुष्पाधारभाजन विशेष पुष्पचङ्गेरिकां वा प्रतीतां यावत् समन्तात् रतकलहे या परा| मुखी सुमुखी तत्संमुखीकरणाय केशेषु ग्रहणं कचग्रहस्तत्प्रकारेण गृहीतं तथा करतलाद्विपमुक्तं सत् प्रचष्टं करत-18॥
लप्रभ्रष्टविप्रमुक्तं प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः तेन कचग्रहगृहीतकरतलगभ्रष्टविप्रमुक्तेन दशार्द्ध19 वर्णेन-पञ्चवर्णेन कुसुमेन-जात्यपेक्षया एकवचनं कुसुमजातेन पुष्पपुञ्जोपचारो-बलिप्रकारस्तेन कलितं करोति, एवमेता ||
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
Jation
-~-25
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ------------------
---------------------- मल [११३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११३]
गाथा
श्रीजम्बू- अपि ऊर्ध्वलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः पुष्पबद्दलए विउवित्ता इत्यादिक योजनपरिमण्डलान्तं प्राग्वद्व क्षस्कारे
पशा व्याख्येयं, वाक्ययोजना तु योजनपरिमण्डलं यावत् दशावर्णस्य कुसुमस्य वर्ष वर्षन्तीति, कथंभूतस्य कुसुमस्य- ऊर्ध्वलोकन्तिचन्द्री
दिक्कुमायु'जलजस्थलजभासुरप्रभूतस्य' जलजं-पद्मादि स्थलज-विचकिलादि भास्वरं-दीप्यमानं प्रभूतं च-अतिप्रचुरं ततः कर्म-1 या वृत्तिः धारयः भास्वरं च तत् प्रभूतं च भास्वरप्रभूतं जलस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च तत्तथा, तथा 'वृन्तस्थायिनः |
त्सवः स.
११३ ॥३९०॥ वृन्तेन-अधोभागवर्तिना तिष्ठतीत्येवंशीलस्य, तथा, वृन्तमधोभागे पत्राण्युपरीत्येवं स्थानशीलस्येत्यर्थः, कथंभूतं वर्ष 1-19
जाम्बवधिक उत्सेधो जानूत्सेधस्तस्य प्रमाणं-द्वात्रिंशदंगुललक्षणं तेन सदृशी मात्रा यस्य स तथा तं, द्वात्रिंशदंगुलानि चैवं-चरणस्य चत्वारि जंघायाश्चतुर्विंशतिः जानुनश्चत्वारीति, एवमेव सामुद्रिके चरणादिमानस्य भणनात्, बर्षित्वा च, कियत्पर्यन्तोऽयं एव'मित्यादिवाक्यसूचितसूत्रसंग्रह इत्याह-यावत् 'कालागुरुपवर'त्ति अत्र यावच्छब्दोऽवधिवाची 'जाव सुरवराभिगमणजोग्गति अत्र यावत्करणात् कुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघन्तगंधुदुआभिरामं सुगंधवरगन्धिों गन्धवट्टिभूअं दिवं'ति पर्यन्तं सूत्र ज्ञेयं, तत्कालागुरुप्रभृतिधूपधूपितं धूपालापकव्याख्या प्राग्वत् , अत एव 'सुरवराभिग-1 मनयोग्य' सुरवरस्य-इन्द्रस्याभिगमनाय-अवतरणाय योग्यं कुर्वन्ति, कृत्वा च यत्रैव भगवांस्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च
तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च यावच्छब्दात् 'भगवओ तित्थयरस्स तित्धयरमायाए य अदरसामंते' इति ग्राह्य, आगा- ॥२९ ॥ 1 यन्त्यः परिगावन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अथ रुचकवासिनीदिक्कुमारीवक्तव्ये प्रथमं पूर्वरुचकस्थानामष्टानां वक्तव्यमाह
दीप अनुक्रम [२१५-२१७]
Seae
~26
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ------------------ .-----.-..-....------------ मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरत्यिमरुभगवत्यवाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिभाओ सएहिं २ कूदेहिं तहेव जाच विहरति, तंजहाणंदुत्तरा य १ णन्दा २, आणन्दा ३ णदिवद्धणा ४ । विजया य ५ वेजयन्ती ६, जयन्ती ७ अपराजिमा ८ ॥१॥ सेस तं चेव जाव तुम्भाहिं ण भाइअव्वंतिक भगवओ तित्थयरस्स तित्ययरमायाए अपुरथिमेणं आयंसहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणकअवगत्थब्बाओ अट्ठ विसाकुमारीमहत्तरिआओ तहेब जाव विहरति, तंजहा-समाहारा १ सुप्पइण्णा २, मुष्पबुद्धा ३ जसोहरा ४ । लच्छिमई ५ सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७ वसुंधरा ८ ॥१॥ तहेव जाव तुम्भाहिं न भाइअव्वंतिकट्ट भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ वाहिणेणं भिंगारहत्त्वगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं पञ्चस्विमरुअगवत्यव्याओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरहिं २ जाब विहरंति, २० इलादेवी १ सुरादेवी २, पुहवी ३ पउमावई ४ । एगणासा ५ णवमिआ ६, भदा ७ सीमा य ८ अट्ठमा ॥१॥ तहेव जाव तुम्भाहिं ण भाइअवंतिकटु जाव भगवओ तित्वयरस्स तित्थयरमाऊए अ पञ्चत्थिमेणं वालिअंटहत्थगयाओ आगायमाणीभो परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुभगवत्यव्याओ,जाव विहरंति, तंजहाअलंबुसा १ मिस्सकेसी २, पुण्डरीआ य ३ वारुणी ४ । हासा ५ सव्वपभा १ चेव, सिरि ७ हिरि ८ चेव उत्तरओ ॥१॥ वहेब जाव वन्दित्ता भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमाऊए अ उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्ति । तेणं कालेणं तेणे समएणं विदिसिहभगवस्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जाब विहरति, संजहा-चित्ता य १ चित्तकणगा २, सतेरा ३ य सोदामिणी ४ । तहेव जाव ण भाइसम्बंतिकटु भगवओ तित्थयरस वित्यवरमाऊए भ पसु विदिसासु
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
श्रीजम्बू, ६६
~27~
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------- -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू द्वीपशा
सूत्रांक [११४]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
५वक्षस्कार रुचकवासिकुमायुत्सवः सू. ११४
॥३९शा
गाथा:
दीविआहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्तित्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं मझिमरुभगवत्थव्याओ चचारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाब विहरति, संजहा-रूआ रूआसिआ, सुरुआ रूमगावई। तहेब जाव तुब्भाहिं ण भाइयव्यंतिकट्ठ भगवओ तित्थयरस्स चउरंगुलवजं णाभिणालं कप्पन्ति कप्पेत्ता विअरगं खणन्ति खणित्ता बिअरगे णाभि णिहणंति णिहणित्ता रयणाण व बइराण य पूरेंति २ ता हरिआलिआए पे वन्धंति २ ता तिदिसि तओ कयलीहरए विउव्यंति, तए णं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउस्सालए विउध्वन्ति, तए णं वेसिं चाउरसौलगाणं बहुमझदेसभाए तओ सीहासणे विउचन्ति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारुवे वण्णायासे पण्णत्ते सव्यो वण्णगो भाणिअब्बो । तए णं वाओ रुअगमज्झवस्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भययं नित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति २ त्ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुढेणं गिण्हन्ति तित्थवरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति २ चा जेणेव दाहिणिले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमावरं च सीहासणे णिसीयाति २ ता सयपागसहस्सपागेहिं तिलहि अभंगेंति २ त्ता सुरभिणा गन्धवट्टएणं उपहेंवि २ चा भगवं तित्थयरं करयलपुढेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हन्ति २ ता जेणेव पुरथिमिले कयलीहरए जेणेब चउसालए जेणेक सीहासणे तेणेव उबागच्छन्ति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयर तिस्थयरमायरं च सीहासणे णिसीआवेति २ ता तिहिं उदएहिं मज्जावेंति, संजहााग्योदएणं १ पुप्फोदएणं २ सुद्धोदएणं, मजाविता सम्बालंकारविभूसि करेंति २ चा भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं व वाहाहिं गिणहन्ति २ त्ता जेणेव उत्तरिले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता भगवं तिस्थयरं तित्थयरमायरं च
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
॥३९॥
~28~
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ------------------------- -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
सीहासणे णिसीविति २ ता आमिओगे देवे सदाविन्ति २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिया! चुलहिमवन्ताओ वासहरपचयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह, तए णं ते आमिओगा देवा ताहिं रुभगमझवस्थबाहिं चाहिं दिसाकुमारीमहत्तरिहिं एवं वुत्ता समाणा हद्दतुहा जाव विणएणं ववणं पडिच्छन्ति २ ता खिप्पामेव चुलहिमवन्ताओ वासहरपब्धयाओ सरसाई गोसीसचन्दणकटाई साहरन्ति, तए णं ताओ मज्झिमरुअगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सरगं करेन्ति २त्ता अरणिं घडेवि अरणिं घडित्ता सरएणं अरणि महिंति २ ता अमिंग पाति २ अगि संधुक्खंति २ ता गोसीसचन्दणकडे पक्खिवन्ति २त्ता अग्गि उजालंति २ समिहाकट्ठाई पक्खिविन्ति २ ता अग्गिहोमं करेंति २ ता भूतिकम्मं करेंति २त्ता रक्खापोट्टलिअं बंधन्ति बन्धेत्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिटिआविन्ति भवउ भयवं पव्वयाउए २ । तए गं ताओ रुअगमज्झवत्थव्याओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्वयरमायरं च बाहाहि गिण्हन्ति गिहित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति २ ता तित्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीआकिंति णिसीआविता भयवं तित्ववरं माउए पासे ठवेंति ठविता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठन्तीति । (सूत्रं ११४) 'तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये पौरस्त्यरुचकवास्तव्याः-पूर्वदिग्भागवतिरुचक-II कूटवासिन्योऽष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथा-नन्दोत्तरा १ चः समुच्चये
दीप
अनुक्रम [२१८-२२६]
-~-29~
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ----------------------- -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
श्रीजम्ब-18 नन्दा २ आनन्दा नन्दिवर्धना ४ विजया ५ चः पूर्ववत् 'वैजयन्ती ६ जयन्ती ७ अपराजिता ८ इत्येता नामतः क र
थिताः शेष आसनप्रकम्पावधिप्रयोगभगवदर्शनपरस्पराह्वानस्वस्वाभियोगिककृतयानविमानविकुर्विणादिक तथैव |||| रुचकवान्तिचन्द्री-18 यावघुष्माभिर्न भेतव्यमिति कृत्वा भगवतः तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च पूर्वरुचकसमागतत्वात् पूर्वतो हस्तगत आद
सिकुमायुया वृतिः
शों-दर्पणो जिनजनन्योः शृङ्गारादिविलोकनाथुपयोगी यासां तास्तथा, विशेषणपरनिपातः प्राकृतत्वात् , आगायन्त्यः त्सव: मू. ॥३९२॥ परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अत्र च रुचकादिस्वरूपप्ररूपणेयं-एकादेशेन एकादशे द्वितीयादेशेन त्रयोदशे तृतीयादेशेन
एकविंशे रुचकद्वीपे बहुमध्ये वलयाकारो रुचकशैलश्चतुरशीतियोजनसहस्राण्युचः मूले १००२२ मध्ये ७०२३ शिखरे ४०२४ योजनानि विस्तीर्णः, तस्य शिरसि चतुर्थे सहले पूर्वदिशि मध्ये सिद्धायतनकूट, उभयोः पार्श्वयोश्चत्वारि २ दिक्कुमारीणां कूटानि, नन्दोत्तराद्यास्तेषु वसन्तीति । सम्प्रति दक्षिणरुचकस्थानां वक्तव्यमुपक्रम्यते-तेणं कालेण'-18 मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये दक्षिणरुचकवास्तव्या इति पूर्ववद्रूचकशिरसि दक्षिणदिशि मध्ये सिद्धायतन-15 कूट उभयतश्चत्वारि २ कूटानि, तत्र वासिन्य इत्यर्थः, अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथासमाहारा १ सुप्रदत्ता २ सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ लक्ष्मीवती ५ शेषवती ६ चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८ तथैव यावद्युमाभिने भेतव्यमितिकृत्वा जिनजनन्योर्दक्षिणदिग्गतत्वाइक्षिणदिग्भागे जिनजननीखपनोपयोगिजलपूर्णकलशाहस्तान मागायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । साम्प्रतं पश्चिमरुचकस्थानां वकव्यतामाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, सर्व तथैव
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
JanEcitation
~30
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ----------------------- -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
IS नवरं पश्चिमरुचकवास्तव्याः-पश्चिमदिग्भागवत्र्तिरुचकवासिन्य इति, नामान्यासां पनाह-इलादेवी १ सुरादेवी २
पृथिवी ३ पद्मावती ४ एकनासा ५ नवमिका ६ भद्रा ७ सीता ८ चः समुच्चये, अष्टमी चेति, कूटव्यवस्था तथैव, पश्चिमरुचकागतत्वाजिनजनन्योः पश्चिमदिग्भागे तालवृन्त-व्यजनं तहस्तगतास्तिष्ठन्तीति, उदीच्या अप्येवमेवेति तत्सूत्रमाह-'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यकं, नवरमुत्तररुचकवास्तव्या-उत्तरदिग्भागवर्तिरुचकवासिन्य इति, नामा-18 न्यासा पद्येनाह-अलंनुसा १ मिश्रकेसी २ पुण्डरीका ३ चः प्राग्वत् वारुणी४ हासा ५ सर्वप्रभा ६ चैवेति प्राग्वत् । श्रीः ७ ही ८ श्चोत्तरतः, कूटव्यवस्था तथैव, उत्तररुचकागतत्वाजिनजनन्योरुत्तरदिग्भागे चामरहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति । अथ विदिगुरुचकवासिनीनामागमनावसरः-'तेणं कालेण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं विदिग्रुचकवास्तव्यास्तस्यैव रुचकपर्वतस्य शिरसि चतुर्थे सहने चतसृषु विदिक्षु एकैकं कूटं तत्र वासिन्यश्चतम्रो विदिक्-18 कुमार्यों यावद् विहरन्ति, इमाश्च स्थानाने विद्युत्कुमारीमहत्तरिका इत्युक्ता इति, एतासां चैशान्यादिक्रमेण नामान्येवं
चित्रा१चः समुच्चये चित्रकनका २ शतेरा सौदामिनी ४ तथैव यावन भेतव्यमितिकृत्वा, विदिगागतत्वात् भगवतस्तीर्थिकरस्य तीर्थकरमातुश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अथ मध्यरुचकवासिन्य 18 आगमितव्याः-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन्काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्या-मध्यभागवर्तिरुचकवासिन्यः, ६ कोऽर्थः-चतुर्विशत्यधिकचतुःसहस्रप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे द्वितीयसहने चतुर्दिग्वर्तिषु चतुर्यु कूटेषु पूर्वादिक्रमेण
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~31
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ------------------------- -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
श्रीजम्बू- चतम्रस्ता वसन्तीत्यर्थः, श्रीअभयदेवसूरयस्तु षष्ठाङ्गवृत्तौ मल्यध्ययने 'मज्झिमरुअगवत्थवा' इत्यत्र रुचकद्वीपस्याभ्यन्त- ५वक्षस्कारे द्वीपशारार्द्धवासिन्य इत्याहुः, अब तत्त्वं बहुश्रुतगम्यं, चतस्रो दिकुमारिका यावद् विहरन्ति, तद्यथा-रूपा १ रूपासिका 1
रुचकवान्तिचन्द्री२ सुरूपा ३ रूपकावती ४, तथैव युष्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुरंगुलवर्ज नाभिनालं कल्पयन्ति
सिकुमायुः या चिः
त्सवः स. कल्पयित्वा च विदरक-गर्ती खनन्ति खनित्वा च विदरके कल्पितां तां नाभिं निधानयन्ति, निधानयित्वा च रत्नश्च ॥३९३॥ वज्रेश्च प्राकृतत्वाद् विभक्तिव्यत्ययः पूरयन्ति पूरयित्वा च हरितालिकाभिः-दूर्वाभिः पीठं वनन्ति, कोऽर्थः -पीठं ॥
वध्वा तदुपरि हरितालिका वपन्तीत्यर्थः, वितरकखननादिकं च सर्व भगवदवयवस्याशातनानिवृत्त्यर्थं, पीठं बध्वा च त्रिदिशि पश्चिमावर्जदिक्त्रये त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति, ततस्तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतुःशा-III लकानि-भवनविशेषान् विकुर्वन्ति, ततस्तेषा चतुःशालकानां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेषां १
सिंहासनानामयमेतादृशो वर्णव्यासः प्रज्ञप्ता, सिंहासनानां सर्वो वर्णकः पूर्ववद् भणितव्यः । सम्पति सिंहासनविकुर्वपणानन्तरीयकृत्यमाह-तए णं ताओ अगमज्झवत्थब्याओ चत्तारि दिसाकुमारीओ'इत्यादि, ततस्ता रुचकमध्यवा-10 IS स्तव्याः चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिका यत्रैव भगवांस्तीर्थकरस्तीर्थकरमाता च तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं | ॥३९३॥
तीर्थकरं करतलसम्पुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिबन्ति गृहीत्वा च यत्रैव कदलीगृहं यत्रैव चतुःशालकं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति-उपवेशयन्ति निषाद्य |
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
Kee
~32
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ------------------------ -------------------------- मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Eeeee
[११४]
गाथा:
च शतपाकैः सहस्रपाकैः-शतकृत्योऽपरापरौषधिरसेन कार्षापणानां शतेन वा यत्पक्वं तच्छतपाकमेवं सहस्रपाकमपि बहु-| 1 वचनं तथाविधसुरभितैलसंग्रहार्थं तैलैरभ्यङ्गायति तैलमभ्यंजयंतीत्यर्थः, अभ्यङ्गयित्वा च सुरभिणा गन्धवर्तकेन
गन्धद्रव्याषां-उत्पलकुष्ठादीनामुर्तकेन-चूर्णपिण्डेन गन्धयुक्तगोधूमचूर्णपिण्डेन वा उद्वर्त्तयन्ति प्रक्षिततेलापनयन कुर्वन्ति उदय॑ च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाह्वोहन्ति गृहीत्वा च यत्रैव पौरस्त्यं कदलीगृहं यत्रैव चतुःशालं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति निषाद्य च त्रिभिरुदकैर्मजयंति-स्नपयंति, तान्येव त्रीणि दर्शयति-तद्यथे' त्यादिना, गंधोदकेन-कुंकुमादिमिश्रितेन पुष्पोदकेन-जात्यादिमिश्नितेन शुद्धोदकेन-केवलोदकेन, मज्जयित्वा सर्वालङ्कारविभूषितौ कुर्वन्ति, मातृ-18 पुत्राविति शेषः, कृत्वा च भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिर्गृहन्ति गृहीत्वा च यत्रैवोत्तराह|
कदलीगृह यत्रैव च चतुःशालकं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं |च सिंहासने निषादयन्ति निपाद्य च आभियोगान् देवान् शब्दयन्ति शब्दयित्वा च एवमवादिषु:-क्षिप्रमेव भो 18| देवानप्रियाः! शुद्राहिमवतो वर्षधरपर्वताद् गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरत-समानयत, ततस्ते आभियोगा देवास्ताभी रुच-161
कमध्यवास्तव्याभिश्चतसृभिर्दिवमारीमहत्तरिकाभिरेवं-अनन्तरोक्तमुक्ताः-आज्ञप्ताः सन्तः हृष्टतुष्ट इत्यादि यावद् विन-1181 येन वचनं प्रतीच्छन्ति-अङ्गीकुर्वन्ति प्रतीष्य च क्षिप्रमेव क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतात् सरसानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~33~
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ------------------- .-----.-..-....------------ मूलं [११४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११४]
गाथा:
श्रीजम्बू- ॥ संहरन्ति, ततस्ते मध्यरुचकवास्तव्याश्चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिकाः शरक-शरप्रतिकृतितीक्ष्णमुखमध्युत्पादक काष्ठविशेष |
५वक्षस्कारे द्वीपशा- कुर्वन्ति, कृत्वा च तेनैव शरकेन सह अरणि-लोकप्रसिद्धं काष्ठविशेष घटयन्ति-संयोजयन्ति, घटयित्वा च शरके- रुचकवा. न्तिचन्द्री-|| नानिं मनन्ति, मथित्वा च अग्निं पातयन्ति, पातयित्वा च अग्निं सन्धुक्षन्ति-सन्दीपयन्ति, सन्धुक्ष्य च गोशीर्ष-18 | सिङ्घमायुया चिः |चन्दनकाष्ठानि प्रस्तावात् खण्डशः कृतानीति बोध्यं, यादृशैश्चन्दनकाष्ठेरग्निरुद्दीपितः स्यात् तादृशानीतिभावः |
त्सव: मू.
११४ ॥३९४॥ || प्रक्षिपन्ति, प्रक्षिप्य च अग्निमुज्वालयन्ति उज्ज्वाल्य च प्रदेशप्रमाणानि हवनोपयोगीनीन्धनानि समिधस्तद्वपाणि |
काष्ठानि प्रक्षिपन्ति, पूर्वो हि काष्ठप्रक्षेपो युद्दीपनाय अयं च रक्षाकरणायेति विशेषः, प्रक्षिप्य च अग्निहोम |कुर्वन्ति, कृत्वा च भूते-भस्मनः कर्म-क्रिया तां कुर्वन्ति, येन प्रयोगेणेन्धनानि भस्मरूपाणि भवन्ति तथा कुर्वन्तीत्यर्थः,MS कृत्वा च जिनजनन्योः शाकिन्यादिदुष्टदेवताभ्यो दृग्दोषादिभ्यश्च रक्षाकरी पोहलिका बनन्ति, बढ़ा च नानामणिरलानां भक्ती-रचना तया विचित्रौ द्वौ पाषाणवृत्तगोलको पाषाणगोलकावित्यर्थः गृहन्ति गृहीत्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य कर्णमूले टिहिआवेतीत्यनुकरणशब्दोऽयं तेन टिट्टिआवेति-परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्तीत्यर्थः । | अनेन हि बाललीलावशादन्यत्र व्यासक्तं भगवन्तं वक्ष्यमाणाशीर्वचनश्रवणे पहुं कुर्वन्तीति भावः, तथा कृत्वा च भवतु ॥३९॥ || भगवान् पर्वतायुः २ इत्याशीर्वचनं ददतीति, ततः-उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं ता रुचकमध्यवास्तव्याश्चतस्रो दिकुमारीमहत्तरिका भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहाभिर्गृहन्ति गृहीत्वा च यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्थ
दीप अनुक्रम [२१८-२२६]
~34
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११४]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२१८
-२२६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [११४] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
जन्मभवनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च तीर्थकरमातरं शय्यायां निपादयन्ति निषाद्य च भगवन्तं तीर्थकरं मातुः पार्श्वे स्थापयन्ति, स्थापयित्वा च नातिदूरासन्नगा आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति एतासां च मध्येऽष्टावधोलोकवासिन्यो गजदन्तगिरीणामधोभवनवासिन्यः, यत्त्वेतदधिकारसूत्रे 'सएहिं २ कूडेहिं' इति पदं तदपरसकलदिकुमार्य|धिकारसूत्रपाठसंरक्षणार्थ, साधारणसूत्रपाठे हि यथासम्भवं विधिनिषेधौ समाश्रयणीयाविति, ऊर्ध्वलोकवासिन्योऽष्टौ नन्दनवने योजनपञ्चशतिककूटवासिन्यः अन्याश्च सर्वा अपि रुचकसत्ककूटेषु योजनसहस्रोचेषु मूले सहस्रयोजनविस्तारेषु शिरसि पञ्चशतविस्तारेषु वसन्ति, उक्तं षट्पञ्चाशद् दिकुमारीकृत्यमिति । अथेन्द्रकृत्यावसरः
I
तेणं काळेणं तेणं समएणं सके णामं देविंदे देवराया बज्रपाणी पुरंदरे सयकेऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणद्धलोकाद्दि
तीस विमाणावाससयसहस्साहिबई एरावणवाहणे सुरिंदे भरवंमरवत्यधरे भाइयमालमद्धे नवहेमचारुचिचचंचलकुण्डलविलिहिलमाणगंडे भासुरखोंदी पलम्बरणमाले महिद्धीए महज्जुईए महाबले महायसे महाणुभागे महासोक्ले सोहम्मे कप्पे सोहम्म सिर विमाणे सभाए सुहन्माए सकंसि सीहासणंसि से णं तत्थ बत्तीसार विमाणावास समसाइस्सीणं चउरासीए सामाणिअसाइस्सीणं तावतीसार तायतीसगाणं चढण्ं लोगपालाणं अट्ठं भग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिमाणं सचन्हं अणिभाण सत्तन्दं भणिआहिवईणं चरहं चउरासीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं भन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य माहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टितं महत्तरगतं आणाईसर सेणावचं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणदृगीयवायततीस
अथ जिन-जन्माभिषेक निमित्त इन्द्रस्य कृत्य वर्ण्यते
For P&Pase City
~35~
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], --------------------------
----- मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]]
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३९५॥
FOCORRece
वक्षस्कारे इन्द्रकृत्ये पालकविमानं म.
दीप अनुक्रम [२२७]
लतालतुडिअषणमुइंगपडपडहवाइअरवणं दिव्बाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तए णं तस्स सकारस देविदास देवरण्णो आसणं चलइ, तए णं से सके जाव आसणं चलिमें पासइ २ चा ओहिं पउंजइ पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ २ त्ता हतुट्ठचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसक्सविसप्पमाणहिअए धाराहयकर्यचकुसुमचंशुमालइअऊसविअरोमकूवे विअसिअवरकमलनयणवयणे पचलिअवरकडगतुडिअकेऊरमउडे कुण्डलहारविरावंतवच्छे पालम्बपलम्बमाणघोलतभूसणधरे ससंभमं तुरि चवलं सुरिंदे सीदासणाओ अब्भुढेइ २ चा पायपीटाओ पचोरुहइ २ ता बेरुलिअथरिहरिद्वअंजणनि उणोविअमिसिमिर्सितमणिरयणमंडिओ पाउआओ ओमुअइ २ ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ २ ता अंजलिमउलियग्नहत्थे तिस्थयराभिमुहे सत्तह पयाई अणुगच्छइ २ ता चाम जाणु अंचेइ २त्ता दाहिणं जाणुं धरणीअलंसि साहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवे. सेइ २ चा ईसिं पषुण्णमइ २ ता कडगतुडिअर्थमिआओ भुआओ साहरद २ ता करयलपरिग्गहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं बवासी- णमोखु णं अरहताणं भगवन्ताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयंसंभुद्धार्ण, पुरिमुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीआणं पुरिसबरगम्धहस्थीर्ण, लोगुप्तमाणं लोगणाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपजोमगराणं, अभयदयाणं चक्षुदयार्ण मग्गल्याण सरणदयार्ण जीवदयार्ण योहियाण, धम्मदयाणं धम्मदेसयाण धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरन्तचकवट्टीण, दीवो ताणं सरणं गई पइहा अपडिहयवरनाणदसणधराणं विअट्टछउमाणं, जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाण बुद्धाण बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं, सव्वलूणं सव्वदरिसीणं सिषमयलमरुअमणन्तमक्खयमवाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जिअभयाणं, णमोऽत्थु णं भगवओ तित्थगरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स, बंदामि णं भगवन्तं तत्थगयं
Acceaerat
taesecratsebest
॥३९५॥
~36
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],----------------...........
---------- मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]
इहगए, पासत मे भयवं| तत्थगए इहगयंतिक बन्दह णमंसह २त्ता सीहासणवरंसि पुरत्यामिमुहे सण्णिसण्णे, तए णे तस्स सकरस देविंदस्स देवरण्णो अयमेआरूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्या-उप्पण्णे खलु भो जम्बुद्दीवे वीवे भगवं तिस्थथरे तं जीयमेयं तीअपञ्चप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि णं अईपि भगवओ तित्यगरस्स जम्मणमहिमं करेमित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ २ चा हरिणेगमेसिं पायताणीयाहिवई देवं सदावेन्ति २ चा एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुणिमा! सभाए मुहम्माए मेघोषरसिअं गंभीरमहुरयरसई जोयणपरिमण्डलं सुघोस सूसर घंटं तिक्युत्तो चल्लालेमाणे २ मह्या महया सद्देणं उग्रोसेमाणे २ एवं वयाहि-आणवेइ णं भो सके देविंदे देवराया गच्छदणं भो सके देविंदे देवराया जम्बुद्दीवे २ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं तुन्भेविणं देवाणुप्पिा ! सब्बिद्धीए सबजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सम्बायरेणं सम्बविभूईए सब्बविभूसाए सबसंभमेणं सव्वणाडएहिं सोवरोहेहिं सध्यपुष्फगन्धमलालंकारचिभूसाए सव्यदिव्बतुढिअसइसण्णिणाएणं महया इद्धीए जाव रवेणं णिअयपरिआलसंपरिवुडा सयाई २ जाणविमाणवाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सकस्स जाव अंतिअं पाउभवह, तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहियई सकेणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे तुट्ट जाव एवं देवोत्ति आणाय विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता सकरस ३ अंतिआओ पडिणिक्खमइ२ त्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसिभगम्भीरमाहुरयरसहा जोअणपरिमण्डला सुघोसा घण्टा तेणेव उवागच्छइ २त्ता तं मेघोघरसिअगम्भीरमहुरयरसई जोमणपरिमण्डलं सुघोसं घण्टं तिक्खुचो उल्लालेइ, तए णं तीसे मेघोघरसिअगम्भीरमहुरयरसदाए जोअणपरिमण्डलाए सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिआए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घण्टासयसह
caesertatoes cerceneoरय
दीप अनुक्रम [२२७]
~37
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम
[२२७]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१९५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥३९६ ॥
स्साई जमगसम कणकणारावं काउं पयत्ताई हुत्या इति, तए णं सोहम्मे कप्पे पासायचमाणनिक्खुद्वावभिसहसमुंद्विअघण्टापढेंसुअसयसहस्ससंकुले जाए आवि होत्या इति, तए णं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण व देवीय य एगन्तरइपसन्तणिच मत्तविसयमुद्दमुच्छिणं सूसरपण्टारसिभ विग्लबोलपूरिभचवलपडिबोहणे कए समाणे पोसणकोउइल दिष्णकण्णएगग्गचिव माणसाणं से पायताणीआहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि निसंतपठितंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं २ देसे महया महया सणं उग्पोसेमाणे २ एवं व्यासीति इन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी बेमाणिअदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवणो इणमो वयणं हिअसुहत्थं-भाणावर णं भो सके तं चेत्र जाब अंतिभं पाउन्भवदत्ति, तप णं ते देवा देवीओ म एभम सोचा हट्ट जाव हिजआ अप्पेगइआ बन्दणवत्तिअं एवं पूरणवत्ति सकारवत्ति सम्माणपत्तिअं दंसणवत्तिअं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगमा तं जीजमे एवमादित्तिकट्टु जान पाउन्भवंतित्ति । तप णं से सके देविंदे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चैव अंतिमं पाठम्भवमाणे पासइ २ ता हट्टे पाठयं णामं भमिओगिनं देवं सहावे २ ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिभा! भणेगखम्भसयसण्णिविद्धं लीलट्ठियसाल मंजिला कलिअं ईदामिअउसभतुरगणर मगर विहगवालग किण्णरदारमथमरकुंजरवणलयपस्मलयभत्तिचित्तं संभुग्गयवहरवे आपरिगयामिरामं विबाहरजमलजुअलजंतजुत्तपित्र अबीसहस्स मालिनी रूवगसहस्सकलिभं मिसमाणं मिन्भिसमाणं चक्झोभणलेसं सुद्दफासं सस्सिरीअरूवं घण्टावलिअमडुरमणहरसरं सुहं कन्तं दरिमणिलं णिचणोवि अमिसिमिसितमणिरयणघंटिआजालपरिक्सितं जोयणसहस्सबिच्छिष्णं पचजोभणसयमुनिबद्धं सिग्धं तुरिअं जणणिव्यादि दिव्वं जाणविमाणं विव्वाहि २ ता एअमाणचिमं पचप्पिणादि ( सूत्रं ११५ )
For P&Praise City
~38~
nee
५वक्षस्कारे इन्द्रकृत्ये | पालकविमानं सू. ११५
||३९६ ॥
Lam
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
----- मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]
R| तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यत्र समयो दिक्कुमारीकृत्यानन्तरीयत्वेन विशेषणीयः शक्रो ।
नाम सौधर्माधिपतिरित्यादिव्याख्यानं कल्पसूत्रटीकादी प्रसिद्धत्वान्नात्र लिख्यते, अथ वन्दननमस्करणानन्तरं
शक्रस्य सिंहासनोपवेशने यदभूत्तदाह-'तए णं तस्स सकस्स'इत्यादि, 'ततः'सिंहासनोपवेशनानन्तरं तस्य शक्रस्य देवे१न्द्रस्य देवराज्ञः अयमेताहशो यावत्सङ्कल्पः समुदपद्यत, कोऽसावित्याह-उत्पन्नः खलु भो! जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवां-18 शस्तीर्थकरः तस्माजीतमेतदतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां देवेन्द्राणां देवराज्ञां तीर्थकराणां जन्ममहिमा कर्तुं तदा
गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमां करोमीतिकृत्वा-इतिहेतुमुद्भाव्यवं-वक्ष्यमाणं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य च हरे:-नन्द्रस्य निगम-आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी तं अथवा इन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवसं पदात्यनीकाधिपतिं देवं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमयादीत्, किमवादीदित्याह-'खिप्पामेव भो'इत्यादि, क्षिप्रमेव | भो देवानुप्रिया! सभायां सुधर्मायां मेघानामोघः-संघातो मेघौघस्तस्य रसितं-गजितं तद् गम्भीरो मधुरतरश्चर शब्दो यस्याः सा तथा तां योजनप्रमाणं परिमण्डलं-भावप्रधानत्वानिर्देशस्य पारिमाण्डल्य-वृत्तत्वं यस्याः सा तथा तां सुघोपा नाम सुस्वरां घण्टा त्रिकृत्त्व:-त्रीन् वारान् उल्लालयन् २-ताडयन् २ महता २ शब्देनोदूघोषयन् २ एवं वदआज्ञापयति भो देवाः शक्रो देवेन्द्रो देवराजा, किमित्याह-गच्छति भोः! शको देवेन्द्रो देवराजा जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमा कर्त, सामान्यतो जिनवर्ण के प्रक्रान्तेऽपि यजम्बूद्वीपनामग्रहणं तजम्बूद्वीपप्रज्ञत्यधि
Reachestsecticececec
दीप अनुक्रम [२२७]
श्रीजम्यू. ६
Jaticial
~39~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम
[२२७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृत्तिः
॥३९७॥
कारात्, तयूयमपि देवानुप्रियाः ! सर्व सर्वद्युत्या सर्वत्रलेन सर्वसमुदायेन सर्वादरेण सर्वविभूषया सर्वदिव्यत्रुटित| शब्दसन्निनादेन महत्या ऋज्या यावद्रवेण अत्राभ्याख्यातपदानि यावत्पदसंग्राह्यं च प्राग्वत् निजकपरिवारसपरिवृताः स्वकानि स्वकानि यानविमानानि प्राग्वत् वाहनानि शिविकादीन्यारूढाः सन्तोऽकालपरिहीणं-निर्वि लम्बं यथा स्यात्तथा चैवोऽवधारणे शक्रस्य यावत्करणात् देवेन्द्रस्य देवराज्ञः इति पदद्वयं ग्राह्यं अन्तिकं - समीपं प्रादुर्भवत, अथ स्वाम्यादेशानन्तरं हरिणेगमेषी यदकरोत् तदाह- 'तए णं से हरिणेगमेसी' इत्यादि, ततः स हरिणेगमेषी देवः पदात्यनीकाधिपतिः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराशा एवमुक्तः सन् हृष्ट इत्यादि यावदेवं देव इति आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य च शक्रान्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव सभायां सुधर्मायां मेघौघर सितगम्भीरमधुरतरशब्दा योजनपरिमण्डला सुघोषा घण्टा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरशब्दां योजनपरिमण्डला सुघोषां घण्टां त्रिकृत्व उल्लालयतीति, उल्हालनानन्तरं यदजायत तदाह- 'तए णं तीसे मेघोघरसि अगम्भीरम हरयर' इत्यादि, ततः उल्लालनानन्तरं तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतर शब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुघोषायां घण्टायां त्रिकृत्व उल्लालितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशत् विमानरूपा ये आवासा - देववासस्थानानि तेषां शतसहस्रेषु, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, अन्यान्येकोनानि द्वात्रिंशद् घण्टाशतसहस्राणि यमकसमकं - युगपत् कणकणारावं कर्त्तुं प्रवृत्तान्यप्यभवन, अत्रापिशब्दो भिन्नक्रमत्वात् घण्टाशतसहस्राण्यपि इत्येवं
For P&Praise Cly
~40~
वक्षस्कारे
इन्द्रकृत्ये
पालकविमानं यू. ११५
॥३९७॥
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],----------------------------
----- मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]
दीप अनुक्रम [२२७]
योजनीयः, अथ घण्टानादतो यत् प्रवृत्तं तदाह-'तए ण'मित्यादि, 'ततो' घण्टानां कणकणारावप्रवृत्तेरनन्तरं सौध-॥९ कर्मः कल्पः प्रासादानां विमानानां वा ये निष्कुटा-गम्भीरप्रदेशास्तेषु ये आपतिता:-सम्प्राप्ताः शब्दा:-शब्दवर्गणा-181 शपुद्गलास्तेभ्यः समुत्थितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतां-घण्टासम्बन्धिप्रतिशब्दानां शतसहस्राणि तैः संकुलो जातश्चाप्य
भूत, किमुक्तं भवति ?-घण्टायां महता प्रयत्लेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्मतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु ॥ विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिर उपजायत इति, एतेन द्वादश-II योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति न परतः ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छन्दश्रुतिरुपजायत इति यदुच्यते तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपप्रतिरूपशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासम्भवात् , एवं शब्दमये सौधमें कल्पे सजाते पदातिपतिर्यदकरोत् तदाह-तए णमित्यादि, ततः-शब्दव्यायनन्तरं तेषां सौधमकल्पवासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च एकान्तेन रतौ-रमणे प्रसक्ता-आसक्ता अत एव नित्यप्रमत्ता। विषयसुखेषु मूछिता-अध्युपपन्नास्ततः पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयस्तेषां सुस्वरा या पंक्तिरथन्यायेन सुघोषा घण्टा तस्याः रसितं तस्माद् विपुल:-सकलसौधर्मदेवलोककुक्षिम्भरियों बोल:-कोलाहलस्तेन, अत्र तृतीयालोपः प्राकृतत्वात् , त्वरितं-शी चपले-ससम्भ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिकालसम्भाव्यमाने घोषणे कुतूहलेन-किमि-15 दानीमुद्घोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन दत्तौ कौँ यैस्ते तथा, एकाग्रं-घोषणश्रवणैकविषयं चित्तं येषां ते तथा, एकान
JaElicati
)
~41
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], --------------------------
----- मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]
दीप अनुक्रम [२२७]
श्रीजम्बू- चित्तत्वेऽपि कदाचिन्नोपयोगः स्याच्छामस्थ्यवशादत आह-उपयुक्तमानसाः-शुश्रूषितवस्तुग्रहणपटुमनसस्ततो विशेष-18 वक्षस्कारे
द्वीपशा-18णसमासस्तेषां स पदात्यनीकाधिपतिर्देवस्तस्मिन् घण्टारवे नितरां शान्त:-अत्यन्तमन्दभूतः ततः प्रकर्षण-सर्वात्मना | इन्द्रकुले न्तिचन्द्री
शान्तः प्रशान्तः ततश्छिन्नमरूढ इत्यादाविव विशेषणसमासस्तस्मिन् सति, तत्र तत्र-महति देशे तस्मिन् २-देशैकदेशे या वृचिः
पालकविमहता महता शब्देन-तारतारस्वरेण उद्घोषयन् २ एवमवादीत्, किमवादीदित्याह-'हंत सुण मित्यादि, हन्त ! ॥३९८॥18| इति हर्षे स च स्वस्वस्वामिनाऽऽदिष्टत्वात् जगद्गुरुजन्ममहकरणार्थकप्रस्थानसमारम्भाच्च, शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौध-18
११५ मकल्पवासिनो पैमानिका देवा देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेरिदं वचनं हितं-जन्मान्तरकल्याणावहं सुख-तद्भवसम्बन्धि तदर्थमाज्ञापयति, भो देवाः! शक्रः तदेव ज्ञेयं, यत्प्राक्सूत्रे शक्रेण हरिनैगमेपिपुर उद्घोषयितव्यमादिष्टं यावत्मा-18 | दुर्भवत । अथ शक्रादेशानन्तरं यद्देव विधेयं तदाह-ततस्ते देवा देव्यश्च एनं अनन्तरोदितमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्टयावद् हर्षवशविसर्पहृदयाः अपि सम्भावनायामेकका:-केचन बन्दनं-अभिवादनं प्रशस्तकायवाङमनःप्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तदस्माभित्रिभुवनभट्टारकस्य कर्त्तव्यमित्येवंनिमित्तं एवं पूजनप्रत्ययं पूजन-गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनं एवं 'सत्कारप्रत्यय' सत्कार:-स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरणं सन्मानो-मानसप्रीतिविशेषस्तत्प्रत्ययं दर्शनं-अदृष्टपूर्वस्य जिनस्य विलोकनं तत्प्रत्ययं कुतूहलं-तत्र गतेनास्मत्प्रभुणा किं कर्तव्यमित्यात्मकं तत्प्रत्ययं, अप्येककाः शक्रस्य वचनमनुवर्तमानाः ।
INL१३९८॥ न हि प्रभुवचनमुपेक्षणीयमिति भृत्यधर्ममनुश्रयन्तः अप्येकका अन्यमन्य मित्रमनुवर्तमाना मित्रगमनानुप्रवृत्ता इत्यर्थः
eseaeeeeeeeeee
~42
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम
[२२७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [११५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
अप्येकका जीतमेतद् यत् सम्यग्दृष्टिदेवैर्जिन जन्ममहे यतनीयं, 'एवमादी 'त्यादिकमागमननिमित्तमितिकृत्वा चित्तेऽवधार्थ यावच्छन्दात् 'अकालपरिहीणं चैव सकस्स देविंदस्स देवरण्णो 'इति ग्राह्यं, अन्तिकं प्रादुर्भवन्ति, अथ शक्रस्ये| तिकर्त्तव्यमाह - 'तए ण' मित्यादि, ततः शक्रो देवेन्द्रो देवराजा तान् बहून् वैमानिकान् देवान् उपतिष्ठमानान् पश्यति दृष्ट्वा च हहतुट्ट इत्येकदेशेन सर्वोऽपि हर्षालापको ग्राह्यः, पालकनामविमानविकुर्वणाधिकारिणमाभियोगिकं देवं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवादीत्, यदवादीत्तदाह - खिप्पामेव त्ति, इदं यानविमानवर्णकं प्राग्वत्, नवरं योजनशतसहस्रविस्तीर्णमित्यत्र प्रमाणांगुलनिष्पन्नं योजनलक्षं ज्ञेयं, ननु वैक्रियप्रयोगजनितत्वेनोत्सेधांगुलनिष्पन्नत्वमप्यस्य | कुतो नेति चेन्न 'नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु' इति वचनात् अस्य प्रमाणांगुल निष्पन्नत्वं युक्तिमत् न च 'नगपुढ विविमाणाई'ति वचनं शाश्वतविमानापेक्षया न यानविमानापेक्षयेत्ति ज्ञेयं, अस्योत्सेधांगुलप्रमाणनिष्पन्नत्वे जम्बूद्वीपान्तः सुखप्रवेशनीयत्वेन नन्दीश्वरे विमानसंकोचनस्य वैयर्थ्यापत्तेः तथा श्रीस्थानाने चतुर्थाध्ययने 'चत्तारि लोगे समा पण्णत्ता, तंजहा- अपइडाणे णरए १ जम्बुद्दीवे दीवे २ पाउए जाणविमाणे ३ सबट्टसिद्धे महाविमाणे ४' इत्यत्रापि पालकविमानस्य जम्बूद्वीपादिभिः प्रमाणतः समत्वं प्रमाणांगुल निष्पन्नत्वेनैव सम्भवतीति दिक्, तथा पक्षशतयोजनोखं शीघ्रं त्वरित जयनं, अतिशयेन वेगवदित्यर्थः, निर्वाहि प्रस्तुतकार्यनिर्वहणशीलं पश्चात् पूर्वपदेन कर्मधा
For P&Pale Cly
~43~
Ky
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], --------------------------
------ मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा-12
प्रत सूत्रांक [११५]
श्रीजम्बू- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥३९९॥
दीप
रयः, एवंविधं दिव्यं यानविमानं विकुर्वस्व विकुळ च एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पय, कृतकृत्यो निवेदय इत्यर्थः । तदनु यदनु-18|| ५वक्षस्कारे तिष्ठति स्म पालकस्तदाह
जन्ममहे
यानविमानं तए णं से पालवदेवे सकोण देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ट जाव बेविअसमुग्धाएणं समोह णित्ता तहेव करे इति,
श ,११६ तस्स गं दिव्वस्स जाणविमाणस्स ति दिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ, तेसि णं पविरूवगाणं पुरओ पत्ते २ सोरणा वण्णओ जाव पविरूवा १, तरस णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे, से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाय दीविअचम्मेइ या अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते आवडपञ्चावडसेढिपसेढिसुस्थिअसोवस्थिअवशमाणपूसमाणवमच्छंडगमगरडगजारमारफुलावलीपडमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहि सउजोएहिं णाणाविहपभावण्णेहिं मणीहिं उबसोभिए २, तेसि णे मणीणं वण्णे गन्धे फासे अ भाणिअवे जहा रायप्पसेणहजे, तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिपछाघरमण्डवे अणेगसम्भसयसणिविढे वणओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पत्रमलयभत्तिचित्ते जाव सबतवणिजमए जाब पढिसवे, तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभागसि महं एगा मणिपेनिआ भट्ट जोभणाई आयामविक्खम्भेणं चत्तारि जोअणाई वाहलेणं सम्वमणिमयी वण्णओ, तीए उवरिं महं एगे सीहासणे वण्णभो, तस्मु
॥३९९॥ वरिं महं एगे विजयदूसे सम्वरयणामए यण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे, एत्य गं मई एगे कुम्भिक्के मुत्तादामे, से गं अमेहिं तदद्धभत्तष्पमाणमित्तेहिं चउहि अद्धकुम्भिकेहि मुत्तादामेहिं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते, से णं दामा तव
अनुक्रम [२२७]
aeas0000rasree
~44
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
------ मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११६]
दीप अनुक्रम [२२८]
णिजलंबूसगा सुवण्णपयरगमण्डिा णाणामणिरयणविविहहारहारउवसोभिआ समुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुब्वाइएहिं वारहिं मन्दं एइज्जमाणा २ जाव निब्बुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ जाव अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठतित्ति, तस्स गं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सपारस चउरासीए सामाणिअसाहस्सीणं चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ पुरस्थिमेणं अहण्हं अम्गमहिसीणं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिसाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीर्ण दाहिणेणं मझिमाए चदसई देवसाहस्सीणं दाहिणपञ्चस्थिमेणं वाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीर्ण पक्षस्थिमेणं सत्तण्डं अणिआहिवईणति, तए गं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसि चडाई चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण एवमाई विभासिभब्वं सूरिआभगमेणं जाब पञ्चप्पिणन्तित्ति (सूत्रं ११६)
'तए णं से पालए देवे सकेण'मित्यादि, ततः स पालको देवः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्ट | यावद् वैक्रियसमुत्पातेन समवहत्य तथैव करोति, पालकविमानं रचयतीत्यर्थः । अथ विमानस्वरूपवर्णनायाह'तस्स ण'मित्यादि इति सूत्रद्वयी व्यक्ता, अथ तद्विभागं वर्णयन्नाह-तस्स गं'इत्यादि, इदं प्राग्वद् ज्ञेयम् , नवरं मणीनां वर्णो गन्धः स्पर्शश्च भणितव्यो यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपा), अत्रापि जगतीपद्मावरवेदिकावर्णने मणिवों-18
दयो व्याख्यातास्ततोऽपि वा बोद्धव्याः, अत्र प्रेक्षागृहमण्डपवर्णनायाह-'तस्स ण'मित्यादि, यावच्छब्दग्राह्यं । 18 व्याख्या च यमकराजधानीगतसुधर्मासभाधिकारतो ज्ञेये, उपरिभागवर्णनायाह--'तस्स उल्लोए' इत्यादि, तस्योल्लोकः ।
Recenese Recene
~45
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
दीप
अनुक्रम
[२२८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
'श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४०० ॥
उपरिभागः पद्मलताभक्तिचित्रः यावत्सर्वात्मना तपनीयमयः प्रथमयावच्छब्देन अशोकलताभक्तिचित्र इत्यादिपरिग्रहः द्वितीययावच्छन्दाद् अच्छे सण्हे इत्यादिविशेषणग्रहः, अत्र च राजप्रश्नीये सूर्याभयानविमानवर्णकेऽक्षपाटकसूत्रं | दृश्यते परं बहुष्वेतत्सूत्रादर्शेषु अदृष्टत्वान्न लिखितं, अधात्र मणिपीठिकावर्णनायाह-- ' तस्स ण' मित्यादि, व्यक्तं, 'तीए उपरिं' इत्यादि एतद्व्याख्या विजयद्वारस्थप्रकण्ठकप्रासादगतसिंहासनसूत्रबदवसेया । 'ते ण'मित्यादि, इदं | सूत्रं प्राक् पद्मवरवेदिकाजालवर्णके व्याख्यातमिति ततो वोध्यं, अत्र प्रथमयावत्पदात् 'बेइजमाणा २ पलम्बमाणा २ पझंझमाणा २ ओरालेणं मणुष्णेणं मणहरेणं कण्णमण' इति संग्रहः, द्वितीययावत्पदात् 'ससिरीए' इति ग्राह्यं, सम्प्रति अत्रास्थान निवेशनप्रक्रियामाह - 'तस्स ण'मित्यादि, 'तस्य' सिंहासनस्य पालकविमानमध्यभागवर्त्तिनोऽपरोतरायां-वायव्यामुत्तरस्यां उत्तरपूर्वायां-ऐशान्यां अत्रान्तरे शक्रस्य चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां चतुरशीतिभद्रासनसहस्राणि उक्तदित्रये चतुरशीतिभद्रासन सहस्राणीत्यर्थः, पूर्वस्यां दिश्यष्टानामग्र महिषीणामष्ट भद्रासनानि, एवं दक्षिणपूवयां-अग्निकोणेऽभ्यन्तरपर्षदः सम्बन्धिनां द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासन सहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमायाः पर्षदश्चतुर्द्दशानां देवसहस्राणां चतुर्दश भद्रासन सहस्राणि दक्षिणपश्चिमायां नैर्ऋतकोणे बाह्यपर्षदः पोडशानां देवसहस्राणां पोडश भद्रासन सहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानीति, 'तए ण' मित्यादि, 'ततः' प्रथमवलयस्थापनानन्तरं द्वितीये वलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसृणां चतुरशीतानां चतुर्गुणीकृत चतुरशीतिसंख्याकानां
For P&Praise City
~46~
५वक्षस्कारे जन्ममहे यान विमानं सू. १९६
॥४०० ॥
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ----- मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११६]
दीप अनुक्रम [२२८]
आत्मरक्षकदेवसहस्राणां, षट्त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयमितानामात्मरक्षकदेवानामित्यर्थः, तावन्ति भद्रासनानि विकुर्वितानीत्यर्थः, एवमादि विभाषितव्यं-इत्यादि वक्तव्यं सूर्याभगमेन यावत्मत्यर्पयन्ति, यावत्पदसंग्रहश्चायम्-'तस्स गं || दिवस जाणविमाणस्स इमे एआरूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा णामए अइरुग्गयस्स हेमंतिअबालसूरिअस्स खाइ-15 लिंगालाण वा रतिं पञ्जलिआणं जासुमणवणस्स वा केसुअवणस्स वा पलिजायवणस्स पा सबओ समम्ता संकुसुमिअस्त, भये एआरूवे सिआ?, णो इणढे समहे, तस्स णं दिवस्स जाणविमाणस्स इत्तो इतराए चेव ४ वण्णे पण्णत्ते, गन्धो फासो अजहा मणीणं, तए णं से पालए देवे तं दिवं जाणविमाणं विउवित्ता जेणेव सके ३ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सकं ३ करयलपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्वावेइ २ ता तमाणत्ति'मिति, अत्र || व्याख्या-तस्य दिव्यस्य यानविमानस्यायमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः, स यथानामकोऽचिरोगतस्व-तत्कालमुदितस्य 18|| हेमन्तिकस्य-शिशिरकालसम्बन्धिनो वालसूर्यस्य खादिराङ्गाराणां वारित्ति'मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया रात्री प्रज्वालि.
तानां जपावनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजाता:-कल्पदुमास्तेषां वनस्य चा सर्वतः समन्तात् सम्यक् कुसुमितस्य, अत्र शिष्यः पृच्छति-भवेदेतद्रूपः स्यात्-कश्चित् , सूरिराह-नायमर्थः समर्थः, तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य इत इष्टतरक एव कान्ततरक एवेत्यादि प्राग्वद् , गन्धः स्पर्शश्च यथा प्रावणीनामुक्तस्तथेति, ननु अत्रैव पालकविमा|नवर्णके प्राग्मणीनां वर्णोदय उक्ताः पुनर्विमानवर्णकादिकथनेन पुनरुक्तिरिति चेत्, मैव, पूर्व हि अवयवभूताना
800989900
~47
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
दीप
अनुक्रम
[२२८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [११६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपक्षान्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥४०१ ॥
Joint
मणीनां वर्णादयः प्रोक्ताः सम्प्रति अवयविनो विमानस्येति नोक्तदोषः, 'तओ णं से पालए देवे' इत्यादिकमाज्ञाप्रत्यर्पणसूत्रं स्वतोऽभ्यूह्यम् । अथ शक्रकृत्यमाह -
तर से सके जाब हहिए दिव्वं जिर्णेदाभिगमणजुम सब्वालंकारविभूसिअं उत्तरवेउवि रूवं बिउडर २ ता अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं णट्टाणीएणं गन्धवाणीपण व सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुविलेणं विसोबाणेणं दुरूहइ २ ता जाव सीहासांसि पुरस्थाभिमुद्दे सण्णिसण्णेति एवं चैव सामाजिभावि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरुहित्ता पत्ते २ पुरुवत्सु महासणेसु णिसीअंति अबसेसा य देवा देवीओ न दाहिणिल्लेणं तिसोवागणं दुरुहिता तहेव जाब विसीअंति, तए णं तस्स सफस्स तंसि दुरुस्स इमे अट्टमंगलगा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिआ, तयणंतरं चणं पुण्णकलसभिंगारं दिव्या य
पडागा सचामराय दंसणरइअआलोअदरिसणिजा बाउअविजयवेजयन्ती अ समूसिभा गगणतलमणुलिहंती पुरभो महाणुपुन्नीए संपत्थिभा, तयणन्तरं छत्तभिंगारं, तयणंतरं च णं वदरामयबद्दल संटिअसुसिलिट्ठपरिपपट्टसूपइहिए विसिद्धे अणेगवरपचावण्णकुडभी सहस्सपरिमण्डि आमिरामे वाउअ विजययेजयन्ती पढागाछ साइच्छ तक लिए लुंगे गयणतलमणुलिहंत सिहरे जोअणसहस्समूसिए महइमहालए महिंदाए पुरओ महाणुपुब्बीए संपत्थिपत्ति, तयणन्तरं च णं सरूवनेवत्थपरिअच्छि असुसज्जा सवालकारविभूसिआ पथ्य अणि पथा अणिआहिवईणो जाव संपद्विआ, तयणन्तरं च णं बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ असरहिं सहं हं जाणिओगेहिं सकं देविंद देवरायं पुरओ अ मग्गओ अ अहाठ, तयणन्तरं च णं बहने सोहम्म कष्पवासी
For P&False Cinly
जिन - जन्मोत्सव अवसरे शक्र आदि इन्द्राणाम् आगमनं एवं तेषाम् कृत्याणाम् वर्णनं
~48~
वक्षस्कारे जन्ममहे
शक्रेन्द्रागमः सू.
११७
॥४०१॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----------------------
------ मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप अनुक्रम [२२९]
देवा य देवीओ अ सम्बिद्धीए जाव दुरूढा सम्माणा मग्गओ अ आय संपविआ, तए णं से सके तेणं पञ्चाणिअपरिक्खित्तेणं जाब महिंदज्झएणं पुरओ पकडिजमाणेणं चउरासीए सामाणिज जाव परिखुडे सम्बिद्धीए जाव रवेणं सोहम्मरस कप्पस्स मझमझेणं सं दिव्वं देवद्धि जाय उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले निजाणमग्गे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता जोअणसयसाहस्सीएहिं विनाहिं ओवयमाणे २ ताए उनिहाए जाव देवगईए बीईवयमाणे २ तिरियमसंखिचाणं दीवसमुदाणं मझमझेणं जेणेव गन्दीसरवरे दीये जेणेव दाहिणपुरथिमिले रइकरगपवए तेणेव उवागच्छह २त्ता एवं जा चेव सूरिआभस्स बत्तम्बया णवरं सका हिगारो बत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविदि जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगबओ तित्ययरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव टवागच्छति र त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिव्येणं जाणविमाणेणं तिक्युत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २त्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुस्थिमे दिसीमागे चतुरंगुलमसंपत्त्रं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ २'चा अहहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीपहिं गन्धवाणीएण य गट्टाणीएण य साई ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ पुरथिमिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पक्षोरुहइ, तए णं सकारस देविंदस्स देवरणो घरासीह सामाणिअसाहस्सीओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोगाणपडिरूवएणं पचोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिहेर्ण तिसोवाणपडिरूवएणं पशोरुईतित्ति । तएणं से सके देविन्दे देवराया चउरासीए सामाणिअसाहस्सीएहिं जाव सद्धि संपरिबुढे सत्रिदीए जाय दुंदुभिणिग्योसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तिस्थयरमाया य तेणेव उवागच्छाइ २त्ता आलोए चेव पणामं करेइ २त्ता भगवं तिस्थयरं तित्थयरमावरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २त्ता करयल
~49~
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ---------------------------
----- मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Tatase
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप अनुक्रम [२२९]
श्रीजम्बू-श जाव एवं वयासी--णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारण एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयत्थाऽसि, भहणं देवाणु
५वक्षस्कारे द्वीपशा- पिए! सके णामं देविन्दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करिस्सामि, संणं तुम्माहिं ण भाइब्वंतिका ओसोवणि IN जन्ममहे न्तिचन्द्रीदलयहरता तिथयरपटिरूवर्ग विउम्बइ तिथवरमाउभाए पासे ठवइ २ ता पच सके बिउबा चिम्वित्ता एगे सके भगवं
S शकेन्द्रागया वृत्तिः तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सके पिट्ठओ आयवत्तं धरेद दुवे सका उमओ पासिं चामरुक्खे करेम्ति एगे सो पुरओ
११७ ॥४०॥ यजपाणी पकदृइत्ति, तए णं से सके देविन्दे देवराया अण्णेहिं यहूहिं भवणवइवाणमन्तरजोइसवेमाणिएहि देवेहिं देवीहि अ
सद्धि संपरिखुढे सम्बिदीए जाव णाइएणं ताए उचिहाए जाच वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पत्रए जेणेष पंडगवणे जेणेष अभिसे* असिला जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ चा सीहासणवरगए पुरत्यामिमुहे सम्णिसण्णेत्ति (सूत्रं ११७)
'तए णमित्यादि, ततः स शक्र इत्यादि व्यक्तं, दिव्यं-प्रधानं जिनेन्द्रस्य भगवतोऽभिगमनाय-अभिमुखगमनाय योग्य-उचितं यादृशेन वपुषा सुरसमुदायसतिशायिश्रीर्भवति तारशेनेत्यर्थः 'सर्वालङ्कारविभूपितं' सर्वैः-17 शिरःश्रवणाचलङ्कारैविभूपित, उत्तरवैक्रियशरीरत्वात् , स्वाभाविकवैक्रियशरीरस्य तु आगमने निरलङ्कारतयैवोत्पा| दश्रवणात् , उत्तर-भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्तिकालापेक्षया चोत्तरकालभावि पक्रियरूपं विकुर्वति, विकुये ||
॥४०२॥ चाष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिःप्रत्येकं २ षोडशदेवीसहस्रपरिवारपरिवृताभिर्नाव्यानीकेन गन्धर्वानीकेन च सार्द्ध | तं विमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन २ पूर्वदिस्थेन त्रिसोपानेनारोहति, आरुह्य च यावच्छन्दात् 'जेणेव सीहासणे तेणेव की
అంటుందా
eleseseene
~50~
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],----------------------------
----- मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप अनुक्रम [२२९]
18 उवागच्छइ २त्ता' इति ग्राह्य, सिंहासने पूर्वाभिमुखः सन्निपण्ण इति । अथास्थानं सामानिकादिभिः यथा।
पूर्यते तथाऽऽह-एवं चेव' इत्यादि, व्यकं, नवरं अवशेषाश्व-आभ्यन्तरपार्षद्यादयः। अथ प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुरः | प्रस्थायिनां क्रममाह-तए णं तस्त'इत्यादि, एतव्याख्या भरतचक्रिणोऽयोध्याप्रवेशाधिकारतो ज्ञेया, 'तए ण
मित्यादि, तदनन्तरं छत्रं च भृङ्गारं च छत्रभृङ्गार समाहारादेकवद्भावः, छत्रं च 'वेरुलिअभिसंतविमलदण्ड'मित्यादि-18 18 वर्णकयुकं भरतस्यायोध्याप्रवेशाधिकारतो ज्ञेयं, भृङ्गारश्च विशिष्टवर्णकचित्रोपेतः, पूर्व च भृङ्गारस्य जलपूर्णवेन कथ-18M
नात् अयं च जलरिक्तत्वेन विवक्षित इति न पौनरुक्त्य, तदनन्तरं वज्रमयो-रलमयः तथा वृत्त-वर्तुलं लष्टं-मनोज्ञं । 8 संस्थितं-संस्थानं आकारो यस्य स तथा, तथा सुश्लिष्टः-सुश्लेषापन्नावययो मसृण इत्यर्थः परिधृष्ट इव परिघृष्टः | खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितो न तु तिर्यकपतितया । वक्रस्तत एतेषां पदद्वयश्मीलनेन कर्मधारयः, अत एव शेषध्वजेभ्यो विशिष्टः-अतिशायी, तथाऽनेकानि वराणि पञ्चवर्णानि कुडभीना-लघुपताकानां सहस्राणि तैः परिमण्डितः-अलंकृतः स चासावभिरामश्चेति, वातोन्तेत्यादिविशेषणद्वयं व्यक्तं, तथा गगनतलं-अम्बरतलमनुलिखत्-संस्पृशत् शिखरं-अग्रभागो यस्य स तथा, योजनसहस्रमुत्सृतोऽत एवाह--'महइमहालए'इति अतिशयेन महान् महेन्द्रध्वजः पुरतो यथानुपूा सम्पस्थित इति, 'तए ण'|मित्यादि, तदनन्तरं स्वरूप-स्वकर्मानुसारि नेपथ्य-वेषः परिकच्छितः-परिगृहीतो यैस्तानि तथा, सुसज्जानि
बीजम्मू.६८
~51~
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ----- मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]]
दीप
श्रीजम्यू-१॥ पूर्णसामग्रीकतया प्रगुणानि सर्वालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि पञ्चानीकाधिपतयश्च पुरतो यथानुपूर्ध्या सम्पस्थि-पक्षा न्तिचन्द्री-18 द्वापशातानि, 'तयणन्तरं च णमित्यादि, तदनन्तरं बहवः आभियोगिका देवाश्च देव्यश्च स्वकैः स्वकैः रूपैः-यथास्वकर्मो- जन्ममहे
पस्थितैरुत्तरवैक्रियस्वरूपैर्यावच्छब्दात्स्वकैः स्वकैः विभवैः-यथास्वकम्मोपस्थितैविभवः-सम्पत्तिभिः स्वकैनियोगैः-उप-18 शक्रेन्द्राग
करणैः शक्र देवेन्द्र देवराज पुरतश्च मार्गतश्च-पृष्ठतः पार्श्वतश्च उभयोः यथानुपूा-यथावृद्धक्रमेण सम्पस्थिताः, ॥४०३॥ 'तयणन्तरं च णमित्यादि, तदनन्तरं बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्यश्च सर्वा यावत्करणादिन्द्रस्य हरिनि-18
गमेषिणं पुरः स्वाज्ञप्तिविषयकः प्रागुक्क आलापको ग्राह्यः, तेन खानि २ यानविमानवाहनानि आरूढाः सन्तो | मार्गतश्च यावच्छब्दात् पुरतः पार्वतश्च शक्रस्य सम्पस्थिताः। अथ यथा शक्रः सौधर्मकल्पान्निति तथा चाह'तए णमित्यादि, ततः स शकस्तेन-प्रागुक्तस्वरूपेण पञ्चभिः संग्रामिकैरनीकैः परिक्षिप्तेन-सर्वतः परिवृतेन यावत् पूर्वोक्तः सर्वो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्राह्यः, महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेन-निर्गम्यमानेन चतुरशीत्या सामानिकसहर्यावत्करणात् 'चउहि चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' इत्यादि ग्राह्य, परिवृतः सद्धर्षा यावद्वेण यावकरणात् 'सव्वज्जुईए'इत्यादि प्रागुतं ग्राह्य, सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यंमध्येन तां दिव्यां देवद्धि यावच्छब्दाद् ॥४०॥ 'दि देवजुई दिवं देवाणुभावं' इति ग्रहः, सौधर्मकल्पवासिनं देवानामुपदर्शयन् २ यत्रैव सौधर्मकल्पस्योत्सराहो निर्या-1 णमार्गों-निर्गमनसम्बन्धी पन्धास्तत्रैवोपागच्छति, यथा वरयिता नागराणां विवाहोत्सवस्फातिदर्शनार्धं राजपथे
अनुक्रम [२२९]
Desee
~52
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५],----------------------------
---------- मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप अनुक्रम [२२९]
याति नतु नष्टरथ्यादौ तथाऽयमपि, एतेन समग्रदेवलोकाधारभूतपृथिवीप्रतिष्ठितविमाननिरुद्धमार्गत्वेनेतस्ततः सशर-18! हणाभावेन मध्यंमध्येनेति उत्तरिले णिजाणमग्गे इत्युक्तमिति ये आहुस्ते आगमसाम्मत्यं युक्तिसाङ्गत्यं च प्रष्टव्याः, | उपागत्य च योजनशतसाहनिकै-योजनलक्षप्रमाणैर्विग्रह:-क्रमैरिव गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमरूपैः, एतेन स्थावरस्वरूपस्य || | विमानस्य पदन्यासरूपाः क्रमाः कथं भवेयुरिति शङ्का निरस्ता, अवपतन् अवपतन् तयोत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरि-1
आए' इत्यादिग्रहः, देवगल्या व्यतिव्रजन २ तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपो | यत्रैव तस्यैव पृथुत्वमध्यभागे दक्षिणपूर्व-आग्नेयकोणवत्ती रतिकरपर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, इदं च स्थानांगाद्याशयेनोक्तं, अन्यथा प्रवचनसारोद्धारादिषु पठ्यमानानां पूर्वाद्यञ्जनगिरिविदिग्व्यवस्थितवापीद्वयद्वयान्तराले बहिःको-18 णयोः प्रत्यासची प्रत्येक द्वयरभावेन तिष्ठतामष्टानां रतिकरपर्वतानां मध्ये विनिगमनाविरहात् कतरो रतिकरपर्वतो दक्षिणपूर्वः स्यादिति, ननु सौधर्मादवतरतः शक्रस्य नन्दीश्वरद्वीप एवावतरणं युक्तिमत्, न पुनरसंख्येयद्वीपसमुद्रा-18 तिक्रमेण तवागमन मिति, उच्यते, निर्याणमार्गस्यासंख्याततमस्य द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितस्पेन सम्भाव्य|मानत्वात् तत्रावतरणं, ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति, अत्र दृष्टान्ताय सूत्र ||
एवं जा चेव'त्ति एवमुकरीत्या यैव सूर्याभस्य वकव्यता यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः, नवरं । अयं भेदः-शक्राधिकारी वक्तव्यः-सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् 'जाव तं दिव्य'इत्यादि, प्रायो व्यर्क, नवरमत्र
~53
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ------ मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप अनुक्रम [२२९]
श्रीजम्यू
प्रथमयावच्छब्दो दृष्टान्तविषयीकृतसूर्याभाधिकारस्यावधिसूचनार्थः, स चावधिर्विमानप्रतिसंहरणपर्यन्तो वाच्यः, द्विती- ५वक्षस्कारे द्वीपशा- ययावच्छन्दो 'दिवं देवजुई दियं दिवाणुभावं' इति पदद्वयग्राही, अस्य चायमर्थ:-दिव्यां देवद्धि-परिवारसम्पदं स्ववि- जन्ममहे न्तिचन्द्री-|| मानवजसौधर्मकल्पवासिदेवविमानानां मेरी प्रेषणात् , तथा दिव्यां देवधुति शरीराभरणादिहासेन तथा दिव्यं देवा- 101 शकेन्द्रागनभावं देवगतिहस्वताऽऽपादनेन, तथा दिव्यं यानविमानं पालकनामकं जम्बूद्वीपपरिमाणन्यून विस्तरायामकरणेन प्रति-18
मा.
११७ ॥४०४॥ संहरन् २-संक्षिपन् संक्षिपन्निति, तृतीययावच्छब्दो 'जेणेव जम्बुद्दीवे दीवे जेणेव भरहे वासे' इति ग्राहका, ननु
पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेणोत्तारः शक्रस्योक्तोऽपराभ्यां केषामुत्तार इत्याह-'तए णं सकस्स देविन्दस्स देवरणो' इत्यादि व्यक्तम् । अथ शकः किमकादित्याह-'तए णं से सके देविन्दे देवराया चउरासीए'इत्यादि, कण्ठवं, यावत्पदसं-18
ग्राह्यं तु पूर्वसूत्रानुसारेण बोध्यं, यदवादीत्तदाह-'णमुत्थु ते'इत्यादि, नमोऽस्तु तुभ्यं रत्नकुक्षिधारिके ! एवंप्रकार 18 सूत्रं यथा दिकुमार्य आहुस्तथाऽवादीदित्यर्थः, यावच्छन्दादिदं ग्राह्यम्-जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सबजग-18
जीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदेसिअवागिद्धिविभुप्पभुस्स जिणस्सणाणिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सबलोगणा-18 हस्स सबजगमङ्गलस्स णिम्ममस्स पवरकुलसमुप्पभवस्त जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स अणणीति, कियत्पर्य
18०४॥ तमित्याह-धन्याऽसि पुण्याऽसि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं देवानुप्रिये! शको नाम देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमां करिष्यामि, तन युष्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा अवस्वापिनी ददाति-सुते मेरुं नीते सुतविरहाता मा
JaEcMAR
~54~
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११७]
दीप
अनुक्रम
[२२९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [११७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
दुःखभागभूदिति दिव्यनिद्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः, दत्त्वा च तीर्थंकरस्य मेरुं नेतव्यस्य भगवतः प्रतिरूपकं - जिनसदृशं रूपं विकुर्वन्ति, अस्मासु मेरुं गतेषु जन्ममहन्यापृतिव्यग्रेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलादिनाऽपहृतनिद्रा सती | मा इयं तथा भवत्विति भगवद्रूपान्निर्विशेषं रूपं विकुर्वतीत्यर्थः, विकुर्व्य च तीर्थकरमातुः पार्श्वे स्थापयति स्थापयित्वा च पञ्च शक्रान् विकुर्वति, आत्मना पञ्चरूपो भवतीत्यर्थः, विकुर्व्य च तेषां पञ्चानां मध्ये एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं परमशुचिना सरसगोशीर्षचन्दनलिप्तेन धूपवासितेनेति शेषः करतलयो:-ऊर्ध्वाधोब्यवस्थितयोः पुढं-सम्पुढं | शुक्तिका सम्पुटमिवेत्यर्थः तेन गृह्णाति एकः शक्रः पृष्ठत आतपत्रं छत्र धरति द्वौ शकावुभयोः पार्श्वयोश्चामरोत्क्षेपं कुरुतः एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्षति - निर्गमयति, आत्मानमिति शेषः, अग्रतः प्रवर्त्तत इत्यर्थः, अत्र च सत्यपि सामानिकादिदेवपरिवारे यदिन्द्रस्य स्वयमेव पञ्चरूपविकुर्वणं तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्णसेवा लिप्सत्वेनेति । अथ यथा शक्रो विवक्षितस्थानमामोति तथा आह— 'तए णं से सके इत्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा अन्यैबहुभिर्भवनपतिधानमन्तरज्योतिष्कवैमा निकैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः सर्व यावत्करणात् 'सवज्जुईए' इत्यादि पदसङ्ग्रहः पूर्वोको ज्ञेयः, तयोत्कृष्टया यावत्करणात् 'तुरिआए' इत्यादिग्रहः व्यतिव्रजन् २ यत्रैव मन्दरपर्वतो यत्रैव च पण्डकवनं यत्रैव चाभिषेकशिला यत्रैव चाभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासन
For P&Palle Cnly
~55~
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ----- मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
वक्षस्कारे जन्ममहे देशानेन्द्राघागमः सू.११८
दीप अनुक्रम [२२९]
श्रीजम्बू- वरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्ण इति, पालकविमानं च गृहीतस्वामिकस्य स्वस्वामिनः पादचारित्वेन तमनुव्रजतां
द्वीपशा-1|| देवानामप्यनुपयोगित्वादभिषेकशिलायां यावदनुब्रजदभूदिति सम्भाव्यते । अथेशानेन्द्रावसर:न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविन्दे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिन्दे उत्तरद्धलोगाहिबई अट्ठावीसविमाणवाससयसहस्सा
हिवई अरयंबरवत्थधरे एवं जहा सके इमं णाणत्तं महाघोसा घण्टा लहुपरकमो पायत्ताणियाहिबई पुप्फओ विमाणकारी दक्षिणे ॥४०५॥ निजाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ मन्दुरे समोसरिओ जाव पजुवासइत्ति, एवं अवसिठ्ठावि इंदा भाणिअव्वा जाव
अच्चुओत्ति, इसणाणतं-चउरासीइ असीइ बावत्तरि सत्तरी अ सट्ठी अ । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥१॥एए सामाणिआणं, बचीसहावीसा वारसह चउरो सयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छञ्च सहस्सारे।१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणाचुए तिण्णि । एए विमाणाणं, इमे जाणविमाणकारी देवा, तंजा-पालय १ पुप्फे य २ सोमणसे ३ सिरिवच्छे अ ४ गंदिआवते ५। कामगमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८ विमल ९ सव्वओभरे १०॥१॥सोहम्मगाणं सर्णकुमारगाणं बंभलोअगाणं महासुफयाणं पाणवगाणं इंदाणं सुधोसा घण्टा हरिणेगमेसी पायताणीआहिबई उत्तरिला णिज्जाणभूमी दाहिणपुरथिमिले रइकरगपब्बए, ईसाणगाणं भाहिंदलतगसहस्सारअक्चुअगाण य इंदाण महाघोसा घण्टा लहुपरकमो पायत्ताणीआहिवई दक्खिणिल्ले णियाणमम्मे उत्तरपुरथिमिले रइकरगपब्बए, परिसा गं जहा जीवाभिगमे आयखखा सामाणिअचगुणा सम्बेसि जाणविमाणा सम्बेसि जोअणसयसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तेणं सविमाणष्पमाणा महिंदज्झया सब्वेसि जोमणसाहस्सिआ, सकवजा मन्दरे समोभरति जाव पञ्जुवासंतित्ति (सूत्र ११८)
Seceaerrerecederaesese
॥४०५॥
~56
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ------------------- -------------------------- मूलं [११८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११८]
गाथा:
'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले सम्भवजिनजन्मके तस्मिन् समये-दिकुमारीकृत्यानन्तरीये न तु शकाग-131 IS मनानन्तरीये सर्वेषामिन्द्राणां जिनकल्याणकेषु युगपदेव समागमनारम्भस्य जायमानत्वात्, यत्तु सूत्रे शक्रागमना
नन्तरीयमीशानेन्द्रागमनमुक्तं तत्क्रमेणैव सूत्रबन्धस्य सम्भवात् , ईशानो देवेन्द्रो देवराजा शूलपाणिर्नुपभवाहनः सुरेन्द्र |उत्तरा“लोकाधिपतिः, मेरोरुत्तरतोऽस्यैवाधिपत्यात् , अष्टाविंशतिविमानावासशतसहस्राधिपतिः अरजांसि-निर्मलानि ||
अम्बरवस्त्राणि-स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पानि वसनानि धरति यः स तथा, एवं यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रस्तथाऽयमपि, 18 इदमत्र नानात्व-विशेषः महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः पुष्पकनामा विमानकारी दक्षिणा ॥ निर्याणभूमिः उत्सरपीरस्त्यो रतिकरपर्वतः मन्दरे समवसृतः-समागतः यावत्पदात् 'भगवन्तं तिरथयरं तिक्खुत्तो आया-1 | हिणपयाहिणं करेइ २ ता वन्दइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे' इति, पर्युपास्ते । अथातिदेशेनावशिष्टानां सनत्कुमारादीन्द्राणां वक्तव्यमाह-एवं अवसिट्टाविर इत्यादि, एवं-सौधर्मेशानेन्द्ररीत्या अवशिष्टा अपि इन्द्रा वैमानिकानां भणितव्याः यावदच्युतेन्द्रः- एकादशद्वादशकल्पाधिपतिरिति, अत्र यो विशेषस्तमाह-इदं नानात्वं-भेदः, चतुरशीतिः सहस्राणि शक्रस्य अशीतिः सहस्राणीशाने
न्द्रस्य द्विसप्ततिः सहस्राणि सनत्कुमारेन्द्रस्य एवं सप्ततिर्माहेन्द्रस्य चः समुच्चये षष्टिब्रह्मेन्द्रस्य चः प्राग्वत् पञ्चाशल्लान्तिकेन्द्रस्य चत्वारिंशच्छुक्रेद्रस्य त्रिंशत्सहस्रारेन्द्रस्य विंशतिरानतप्राणतकल्पद्विकेन्द्रस्य दशारणाच्युतकल्पविकेन्द्रस्य,
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
Recene
~57
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ----------------------- -------------------------- मूलं [११८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११८]
गाथा:
श्रीजम्बू- एते संख्याप्रकाराः सामानिकाना देवानां क्रमेण दशकल्पेन्द्रसम्बन्धिनामिति, तेन 'चउरासीए सामाणि असाहस्सीण-18/५वक्षस्कारे द्वीपशा- मित्येतविशेषणस्थाने प्रतीन्द्रालापकं असीइए सामाणिअसाहस्सीणमित्यादिअभिलापो ग्राह्यः, तथा सौधर्मेन्द्रकल्पे जन्ममहे न्तिचन्द्र द्वात्रिंशल्लक्षाणि ईशाने अष्टाविंशतिर्लक्षाणि एवं सनत्कुमारे द्वादश माहेन्द्रे अष्ट ब्रह्मलोके चत्वारि तथा लान्तके 8
ईशानेन्द्राया चिः पञ्चाशत्सहस्राणि एवं शुके चत्वारिंशत्सहस्राणि चः समुच्चये सहारे षट् सहस्राणि आनतमाणतकल्पयोर्द्वयोः समु-181
द्यागमः
18|सू. ११८ १४०६॥ दितयोश्चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोस्त्रीणि शतानि एते विमानानां संख्याप्रकाराः, यानविमानविकुर्वकाश्च देवा इमे ।
वक्ष्यमाणाः शक्रादिक्रमेण, तद्यथा-पालकः १ पुष्पकः २ सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ चः समुच्चये नन्दावतः ५ कामगमः ६ प्रीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमलः ९ सर्वतोभद्र १० इति, अथ दशसु कल्पेन्द्रेषु केनचित्प्रकारेण पञ्चानां २
साम्यमाह-सौधर्मकानां-सौधर्मदेवलोकोत्पन्नानां एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, तथा सनत्कुमारकाणां ब्रह्मलोककानां महाशुक्र-18 IS कानां प्राणतकानामिन्द्राणां, बहुवचनं सर्वकालवीन्द्रापेक्षया, सुघोषा घण्टा हरिनेगमेषी पदात्यनीकाधिपतिः इति
औत्तराहा निर्याणभूमिः दक्षिणपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, तथा ईशानकानां माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतकानां च इन्द्राणां महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिः दक्षिणो निर्याणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, णमिति वाक्या- ४०६॥ लङ्कारे, पर्षदः-अभ्यन्तरमध्यवाह्यरूपाः यस्य यावद्देवदेवीप्रमाणा भवन्ति तस्य तावत्प्रमाणा यथा जीवाभिगमे तथा || ज्ञेयाः, ताश्चैवं शक्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि १२ सहस्राणि देवानां मध्यमायां १४ सहस्राणि बाह्यायां १६ सहस्राणि
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
~58~
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११८]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम [२३०
-२३५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [ ११८ ] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
ईशानेन्द्रस्याद्यायां १० सहस्राणि द्वितीयायां १२ सहस्राणि तृतीयायां १४ सहस्राणि सनत्कुमारेन्द्रस्याद्यायां ८ सहस्राणि द्वितीयस्यां १० सहस्राणि तृतीयायां १२ सहस्राणि एवं माहेन्द्रस्य क्रमेण ६ सहस्राणि ८ सहस्राणि १० सहस्राणि ब्रह्मेन्द्रस्य ४-६-८ सहस्राणि छान्तकेन्द्रस्य २-४-६ सहस्राणि शुक्रेन्द्रस्य १-२-४ सहस्राणि सहस्रारेन्द्रस्य ५०० शतानि १० शतानि २० शतानि आनतप्राणतेन्द्रस्य २ शते सार्द्धं ५ शतानि १० शतानि आरणाच्यु|तेन्द्रस्य १ शतं २ शते सार्द्धं ५०० शतानि, इमाश्च तत्तदिन्द्रवर्णके 'तिन्हं परिमाण मित्याद्यालापके यथासंङ्गधं भाव्याः, शक्रेशानयोर्देवीपर्यत्रयं जीवाभिगमादिषूकमपि श्रीमलयगिरिपादैः स्वावश्यकवृत्तौ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमध्यगतोऽयमितिलिख्य मानजिनजन्माभिषेक महग्रन्थे नोक्तमिति मया तदनुयायित्वेन नालेखि, आत्मरक्षा:-अङ्गरक्षका देवाः सर्वेषामिन्द्राणां स्वस्व सामानिकेभ्यश्चतुर्गुणाः, एते चेत्थं वर्णके अभिलाप्याः 'चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउन्हं असीई आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउन्हं बावसरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेवचं' इत्यादि, तथा यानविमानानि सर्वेषां योजनशतसहस्र विस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्वविमानप्रमाणानि इन्द्रस्य स्वस्वविमानं सौधर्मावतंसकादि तस्येव प्रमाणं पञ्चशतयोजनादिकं येषां तानि तथा, अस्थायमर्थः- आद्यकल्पद्विकविमानानामुचत्वं पचयोजनशतानि द्वितीये द्विके पटू योजनशतानि तथा तृतीये द्विके सप्त तथा चतुर्थे द्विकेऽष्टौ ततोऽप्रेतने कल्पचतुष्के विमानानामुच्चत्वं नव योजना
For P&Peale Cinly
~59~
enesestatatat
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ------------------- -------------------------- मूलं [११८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्ब-
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
[११८]
eesee
॥४०७॥
गाथा:
तानि, तथा सर्वेषा महेन्द्रध्वजाः योजनसाहनिकाः-सहस्रयोजनविस्तीर्णा शक्रवर्जा मन्दरे समवसरन्ति यावत्पर्यु-18५वक्षस्कारे पासते यावत्पदसंग्रहः प्राग्वत् । अथ भवनवासिनः--
जन्ममहे
चमराया. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिन्दे असुरराया चमरचश्चाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसडीए
| गमः सू. सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायचीसेहिं चउहिं लोगपालहिं पञ्चहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्ताहि अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबईहिं चउहिं च उसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं अण्णेहि अ जहा सके णवरं इमं णाणतं-दुमो पायत्ताणीआहिबई भोघस्सरा घण्टा विमाणं पण्णास जोअणसहस्साई महिन्दाभो पञ्चजोअणसयाई विमाणकारी आमिओगिओ देवो अवसिई तं चेव जाव मन्दरे समोसरइ पज्जुवासईति । तेणं कालेणं तेणं समएणं वली अमुरिन्दे असुरराया एवमेव णवरं सही सामाणीसाहस्सीमो चगुणा आयरक्खा महादुमो पायताणीाहिबई महामोहस्सरा घण्टा सेसं तं व परिसाओ जहा जीवाभिगमे इति । तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेब णाणत्तं छ सामाणिअसाहस्सीओ छ अग्गमहिओ घउपगुणा आयरक्खा मेघस्सरा घण्टा भहसेणो पायत्ताणीयाहिबई विमाणं पणवीसं जोअणसहस्साई महिंदज्झओ अद्धाइजाई जोअणसयाई एवमसुरिन्दवजिआणं भवणवासिईदाण, गवरं असुराण ओघस्सरा घण्टा णागाणं मेघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा विजूणं कोंच
O ॥४०७॥ स्सरा अग्गीर्ण मंजुम्सरा दिसाणं मंजुघोसा उदहीणं सुस्सरा दीवाणं महुरस्सरा बाऊणं गंदिस्सरा थणिआणं गंदिपोसा, चउसट्ठी सही सलु छच्च सहस्सा उ असुरव जाणं । सामाणिआ उ एए च उगुणा आयरक्सा ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्ताणााहिबई
टKिe
दीप अनुक्रम [२३०-२३५]
~60~
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ------------------
------------------- मलं [११९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[११९]
गाथा:
भद्दसेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति । वाणमन्तरजोइसिआ अव्वा, एवं चेव, णवरं च सारि सामाणिअसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सोलस आयरक्खसहस्सा विमाणा सहस्सं महिन्दज्झया पणवीसं जोअणसयं घण्टा दाहिणाणं मंजुस्सरा उत्तरार्ण मंजुघोसा पायताणीसाहिबई विमाणकारी अ आमिओगा देवा जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घण्टाओ मन्दरे समोसरणं जाव पज्जुवासंतित्ति (सूत्र ११९) "तेणं कालेणं तेणं समएण'मित्यादि प्राग्वत् , चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजा चमरचञ्चायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां चमरे सिंहासने चतुःषश्या सामानिकसहस्रैः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशैः चतुर्भिः लोकपालैः पञ्चभिरग्रमहिषीभिः सपरिवारा-18 Siभिःतिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चतसृभिः चतुःषष्टिभिरात्मरक्षकसहस्रः अन्यैश्चेत्यालापका-18
शेन सम्पूर्ण आलापकस्त्वयं बोध्यः-'चमरचञ्चारायहाणीवत्यहिं बहूहिँ असुरकुमारेहिं देवेहि अ देवीहि अत्ति, यथा शक्रस्तथाऽयमप्यवगम्यः, नवरमिदं नानात्वं-भेदः, दुमः पदात्यनीकाधिपतिः ओघस्वरा घण्टा यानविमानं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि विस्तारायाम महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतान्युच्चः विमानकृदाभियोगिको देवो न पुनर्वैमानिकेन्द्राणां पालकादिरिव नियतनामकः अवशिष्टं तदेव-शक्राधिकारोक्तं वाच्यं नवरं दक्षिणपश्चिमो रतिकरपर्वतः, कियहर-19 |मित्याह-यावन्मन्दरे समवसरति पर्युपास्त इति । अथ बलीन्द्रः-'तेणं कालेण'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् र समये वलिरसुरेन्द्रोऽसुरराजा एवमेवेति-चमर इव नवरं षष्टिः सामानिकसहस्राणि चतुर्गुणा आत्मरक्षाः, सामानि
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
~614
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११९]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२३६
-२३८]
वक्षस्कार [५],
मूलं [११९] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४०८||
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Econ
कसंख्यातश्चतुर्गुणसंख्याङ्काः आत्मरक्षका इत्यर्थः, महाद्रुमः पदात्यनीकाधिपतिः महौघस्वरा घण्टा 'व्याख्यातोऽधिकं प्रतिपद्यत' इति चमरचञ्चास्थाने वलिचञ्चा दाक्षिणात्यो निर्याणमार्गः उत्तरपश्चिमो रतिकरपर्वत इति, शेषं यानविमानविस्तारादिकं तदेव - चमरचञ्चाधिकारोक्तमेव, पर्षदो यथा जीवाभिगमे, इदं च सूत्रं देहलीप्रदीपन्यायेन सम्बन्धनीयं, यथा देहलीस्थो दीपोऽन्तः स्वदेहली स्थबाह्य स्थवस्तुप्रकाशनोपयोगी तथेदमप्युक्ते चमराधिकारे उच्यमाने बली| न्द्राधिकारे वक्ष्यमाणेष्वष्टसु भवनपतिषूपयोगी भवति, त्रिष्वप्यधिकारेषु पर्षदो वाच्या इत्यर्थः तथाहि-- चमर स्वाभ्यन्तरिकायां पर्षदि २४ सहस्राणि देवानां मध्यमायां २८ सहस्राणि बाह्यायां च ३२ सहस्राणि तथा बलीन्द्रस्याभ्य| तरिकायां पर्षदि २० सहस्राणि मध्यमायां २४ सहस्राणि बाह्यायां २८ सहस्राणि तथा धरणेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि ६० सहस्राणि मध्यमायां ७० सहस्राणि बाह्यायां ८० सहस्राणि भूतानन्दस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि ५० सह| स्राणि मध्यमायां ६० सहस्राणि बाह्यायां ७० सहस्राणि, अवशिष्टानां भवनवासिषोडशेन्द्राणां मध्ये ये वेणुदेवादयो दक्षिणश्रेणिपतयस्तेषां पर्षत्रयं धरणेन्द्रस्येव उत्तरश्रेण्यधिपानां वेणुदालिप्रमुखाणां भूतानन्दस्येव ज्ञेयम् । अथ धरणः'तेणं काले 'मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये घरणस्तथैव चमरवत् नवरमिदं नानात्वं-भेदः षट् सामानिकसहस्राणां षडग्रमहिष्यः चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः मेघस्वरा घण्टा भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः विमानं पञ्चविंशतियोजनसहस्राणि महेन्द्रध्वजोऽर्द्धतृतीयानि योजनशतानि, अथावशिष्टभवनवासीन्द्रवतव्यतामस्यातिदेशेनाह--' एवम
For P&False City
~62~
वक्षस्कारे जन्ममहे चमराधागमः . ११९
॥४०८||
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [११९]
+
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२३६
-२३८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [११९] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीपू. ६९
| सुरिन्द' इत्यादि, एवं- धरणेन्द्रन्यायेनासुरेन्द्रौ - चमरचलीन्द्रौ ताभ्यां वर्जितानां भवनवासीन्द्राणां भूतानन्दादीनां वक्तव्यं बोध्यं, नवरं असुराणां - असुरकुमाराणां ओघस्वरा घण्टा नागानां नागकुमाराणां मेघस्वरा घण्टा सुपर्णानां - गरुडकुमाराणां हंसस्वरा विद्युत्कुमाराणां क्रौञ्चस्वरा अग्निकुमाराणां मंजुस्वरा दिकुमाराणां मंजुघोषा उदधिकुमाराणां | सुस्वरा द्वीपकुमाराणां मधुरस्वरा वायुकुमाराणां नन्दिस्वरा स्तनितकुमाराणां नन्दिघोषा, एषामेवोक्तानुक्तसामानिकसंङ्ग्रहार्थं गाथामाह-चतुष्षष्टिश्चमरेन्द्रस्य षष्टिर्बलीन्द्रस्य खलुर्निश्चये पट् च सहस्राणि असुरवर्णानां धरणेन्द्रादीनामष्टादशभवनवासीन्द्राणां सामानिकाः चः समुच्चये तथा पुनरर्थे भिन्नक्रमे तेनैते सामानिकाः चतुर्गुणाः पुनरात्मरक्षका भवन्ति, दाक्षिणात्यानां चमरेन्द्रवर्जितानां भवनपतीन्द्राणां भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः औत्तराहाणां बलिवर्जितानां दक्षो नाम्ना पदातिपतिः यच्चात्र घण्टादिकं पूर्व स्वस्वसूत्रे उक्तमप्युक्तं तत्समुदायवाक्ये सर्वसङ्ग्रहार्थमिति । अथ व्यन्तरेन्द्रज्योतिष्केन्द्राः - 'वाणमंतर' इत्यादि, व्यन्तरेन्द्रा ज्योतिष्केन्द्राश्च नेतव्याः- शिष्यबुद्धिं प्रापणीयाः एवमेव, यथा भवनवासिनस्तथैवेत्यर्थः, नवरं चत्वारि सामानिकानां सहस्राणि चतस्रोऽग्रमहिष्यः षोडश आत्मरक्षकसहस्रा विमानानि योजन| सहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतं घण्टाश्च दाक्षिणात्यानां मनुस्वरा औत्तराहाणां मघो |षाः, पदात्यनीकाधिपतयो विमानकारिणश्च आभियोगिका देवाः, कोऽर्थः १-स्वाम्यादिष्टा हि आभियोगिका देवा घण्टावादनादिकर्मणि विमानविकुर्वणे च प्रवर्त्तन्ते न पुनर्हरिनिगमैपिवत्पालकवञ्च निर्दिष्टनामका इति, 'व्याख्या विशेषप्रति
For P&Praise City
~63~
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [4], ....------------------------------------------------- मलं [११९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशा
[११९]
न्तिचर
पादिनी तिसूत्रेऽनुक्तमपीदं बोध्यं-सर्वेषामभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां ८ सहस्राणि मध्यमाया १० सहस्राणि बाह्या- पवक्षस्कारे
यां १२ सहस्राणीति, एतेषामुलेखस्त्वयम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं काले णामं पिसाइंदे पिसायराया चाहिं सामा-|| जन्ममहे न्तचन्द्राणिअसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीपहिं सत्चहि अणीआहिवइहिं सोलसहिं चमराधाया वृत्तिः आयरक्खदेवसाहस्सीहि' 'तं चेब, एवं सधेवी'ति, व्यन्तरा इव ज्योतिष्का अपि ज्ञेयाः, सेन सामानिकादिसङ्ख्यासु न || |गम: स.
११९ ॥४०९॥1 विशेषः, घण्टासु चायं विशेष:-चन्द्राणां सुस्वरा सूर्याणां सुस्वरनि?षा, सर्वेषां च मंदरे समवरणं वाच्यं यावत्पर्युपा-1
|| सते. यावच्छन्दग्राह्य तु प्रारदर्शितं ततो ज्ञेयं, एतदुल्लेखस्त्वयं-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिंदा जोइसरायाणो 18 पत्ते पत्ते चाहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिपहिं सत्तहिं अणिआहिय
& इहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि, एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरावि' नन्वत्रोल्लेखे चन्द्राः सूर्या इत्यत्र बहुवचनं, 18 किमर्थम् ?, प्रस्तुतकर्मणि एकस्यैव सूर्यस्य चन्द्रस्य चाधिकृतत्वात् अन्यथेन्द्राणां चतुःषष्टिसयाकत्वव्याघातात् ,
उच्यते, जिनकल्याणकादिषु दश कल्पेन्द्रा विंशतिर्भवनवासीन्द्रा: द्वात्रिंशब्यन्तरेन्द्राः एते व्यक्तित: चन्द्रसूर्यो तु जात्यपेक्षया तेन चन्द्राः सूर्या असङ्ख्याता अपि समायान्ति, के नाम न कामयन्ते भुवनभट्टारकाणां दर्शनं स्वदर्शनं ४०९॥
पूषवः?, यदुक्तं शान्तिचरित्रे श्रीमुनिदेवसूरिकृते श्रीशान्तिदेवजन्ममहवर्णने-"ज्योतिष्कनायको पुष्पदन्तौ सङ्ख्यातिगाविति । हेमाद्रिमाद्रियन्ते स्म, चतुःषष्टिः सुरेश्वराः॥१॥" अथामीषां प्रस्तुतकर्मणीतिवक्तव्यतामाह
cceserved
गाथा:
दीप अनुक्रम [२३६-२३८]
~644
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५],--------------------------
----- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप अनुक्रम [२३९]
तएणं से अफखुए देविन्दे देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सहावेइ २ चा एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! महत्यं महग्धं महारिई विठलं तित्थयराभिसेअं उबट्ठवेह, तए पं ते अमिओगा देवा हहतुह जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरथिम विसीभार्ग अवकमन्ति २ ता वेडब्विअसमुग्घाएणं जाव समोहणित्ता असहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं मणिमयाणं मुषण्णरुप्पमयाणं सुवण्णमणिमवाणं रुप्पमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं अटुसहस्सं भोमिजाणं अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयंसाणं यालाणं पाईणं सुपईडगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुष्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सञ्चचंगेरीओ सन्यषडलगाई विसेसिअतराई भाणिअव्वाई, सीहासणछत्तचामरतेहासमुग्ग जाव सरिसवसमुग्गा तालिअंदा जाव अद्वसहस्सं कबुच्छुगाणं विउव्वंति विउवित्ता साहाविए विउविए अ कलसे जाव कदुच्छुए अ गिहित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोवर्ग गिण्हन्ति २त्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताई साई गिण्डंति, एवं पुक्खरोदाओ जाव भरहेरखयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टिअं च गिण्हन्ति २ ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुहिमवन्ताओ सब्बतुअरे सबपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले जाव सव्वासहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति २ ता पमहाओ दहोअगं उप्पलादीणि अ, एवं सत्यकुलपव्यएसु वट्टवेअढेसु सबमहरहेसु सव्ववासेसु सम्बचकवट्टिविजएसु वक्खारपब्बएमु अंतरणईसु विभासिज्जा जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदसणभहसालवणे सब्वतुअरे आव सिद्धत्थर अगिहन्ति, एवं णन्दणवणाओ सव्वतुअरे जाव सिद्धत्यए अ सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हन्ति, एवं सोमणसपंचगवणाओ अ सव्वतुअरे जाव सुमणसदाम ददरमलय
~65
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----------------------
---------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०
म. १२०
दीप अनुक्रम [२३९]
श्रीजम्बू- सुगन्धे य गिहन्ति २ ता एगओ मिलंति २ ता जेणेव सामी तेणेव उनागच्छन्ति २ ता महत्थं जाव तित्थयराभिसे
५वक्षस्कारे द्वीपशा- उबट्ठवेंतित्ति (सूत्र १२०) न्तिचन्द्री
जिनजन्म'तए णमित्यादि, ततः सोऽच्युतो यः प्रागभिहितो देवेन्द्रो देवराजा महान देवाधिपो महेन्द्रः चतुःषष्टावपि महे अच्युया वृति:
इन्द्रेषु लब्धप्रतिष्ठोऽत एवास्य प्रथमोऽभिषेक इति, आभियोग्यान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा च एवमवादीत्, नाभियोगः ॥४१॥ यदवादीत्तदाह-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! महार्थ महाहं विपुलं तीर्थकराभिषेकमुपस्थापयत, अत्र महार्थादिपदानि 8
प्राग्भरतराज्याधिकारे वर्णितानि, वाक्ययोजना तु सुलभा, अथ यथा ते चक्रुस्तथाऽऽह-तएण'मित्यादि, ततस्ते आभि-18
योगिका देवा इष्टतुष्टयावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन यावत्पदात् 'समो-18 ॥ हणंति'त्ति ग्राह्यं समवहत्य चाष्टसहस्र-अष्टोत्तरं सहस्रं सौवर्णिककलशानां विकुर्वन्तीति सम्बन्धः, एवं अष्टसहस्रं रूप्य
मयानां मणिमयानां सुवर्णरूप्यमयानां सुवर्णमणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानां अष्टसहस्रं भौमेयकानां । | मृन्मयानामित्यर्थः अष्टसहस्रं वन्दनकलशानां-मङ्गल्यघटानां एवं भृकाराणां आदर्शानां स्थालीनां पात्रीणां सुप्रतिष्ठ8 कानां चित्राणां रत्नकरण्डकानां वातकरकाणां-बहिश्चित्रितानां मध्ये जलशून्यानां करकाणां पुष्पचङ्गेरीणामष्टसहस्रं,
॥४१॥ 18 एवमुकन्यायेन यथा सूर्याभस्य राजप्रश्नीये इन्द्राभिषेकसमये सर्वचनेयस्तथाऽत्र वाच्याः 'अट्ठसहस्सं आभरणचङ्गेरीणं
लोमहत्वचङ्गेरीण'मिति, तथा सर्वपटलकानि वाच्यानि, तथाहि-अष्टसहस्रं पुष्पपटलकानां, इमानि वस्तूनि सूर्याभा
poeratiseoececemedeceaesesesent
~66~
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप अनुक्रम [२३९]
भिषेकोपयोगवस्तुभिः सङ्ख्ययैव तुल्यानि नतु गुणेनेत्याह-विशेषिततराणि-अतिविशिष्टानि भणितव्यानि-वाच्यानि, प्रथमकल्पीयदेवविकुर्वणातोऽच्युतकल्पदेवविकुर्वणाया अधिकतरत्वात्, तथा सिंहासनच्छत्रचामरतिलसमुद्गकयावशत्सर्षपसमुद्गकः, अत्र यावत्पदात् कोष्ठसमुद्गकादयो वाच्याः, एषां च व्याख्या प्राग्वत्, तालवृन्तानि यावत्करणात् व्यजनानीति ग्रहः, तत्र व्यजनानीति सामान्यतो वातोपकरणानि तालवृतानि तद्विशेषरूपाणि, एषामष्टसहस्रमष्टसहसमिति, अष्टसहयं धूपकडुग्छुकानामिति । अथ विकुर्वणायाः सार्थकत्वमाह-'विउधित्ता' इत्यादि, विकुर्वित्वा च । स्वाभाविकान्-देवलोके देवलोकवत् स्वयंसिद्धान् शाश्वतान् वैक्रियांश्च-अनन्तरोक्तान सौवर्णादिकान् यावच्छन्दात् । भृङ्गारादयो व्यजनान्ता ग्राह्याः, धूपकडुच्छुकांश्च सूत्रे साक्षादुपात्तान्, गृहीत्वा च यत्रैव क्षीरोदः समुद्रः तत्रैवागत्य | क्षीरोदकं-क्षीररूपमुदकं गृह्णन्ति, ननु मेरुतोऽभिषेकाङ्गभूतवस्तुग्रहणाय चलन्तस्ते देवास्तग्रहणोपयोगि वस्तुजातं 8 कलशभृङ्गरादिकं गृह्णन्तु परं तदनुपयोगि यावच्छन्दोदरप्रविष्टं सिंहासनचामरादिकं तैलसमुद्गकादिकं च कथं गृह
तीति चेदुच्यते, विकुर्वणासूत्रस्यातिदेशेन ग्रहणसूत्रस्यातिदिष्टत्वादेतत्सूत्रपाठस्यान्तर्गतत्वेऽपि ये ग्रहणोचितास्ते एव ||S 18 गृहीता इति बोध्यं, योग्यतावशादेवार्थप्रतिपत्तेः, यच्च धूपकडुच्छुकानां तब ग्रहणं तत्कलशभृङ्गारादिदेवहस्तधूपना-11 18थमिति, अन्यथा सूत्रे साक्षादुपदर्शितस्य धूपकडुच्छुकानां ग्रहणस्य नैरर्थक्यापत्तेः, अथ प्रस्तुतसूत्र-गृहीत्वा च यानि |
तत्र क्षीरोदे उत्पलानि पद्मानि यावत्सहस्रपत्राणि तानि गृहन्ति यावत्पदात् कुमुदादिग्रहः, एवमनया रीत्या पुष्क-101
~67~
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक
[१२०]
दीप अनुक्रम [२३९]
रोदात्-तृतीयसमुद्रात् सदकादिकं गृह्णन्ति, यत्तु क्षीरोदाद्विनिवृत्तैर्वारुणीवरमन्तरा मुक्त्वा पुष्करोदे जलं गृहीतं तद्वारुणी-1
|५वक्षस्कारे द्वीपशा- ॥ वरवारिणोऽग्राह्यत्वादिति सम्भाव्यते, यावच्छब्दात् समयखित्ते इति ग्राह्यं, तेन समयक्षेत्रे-मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतयोः जिनजन्मत्रिचन्द्री
| प्रस्तावात् पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कयोः मागधादीनां तीर्थानामुदकं मृत्तिकां च गृह्णन्ति, 'एवं मिति समयक्षेत्रस्थपुष्कर-13|| महे अच्युया वृतिः
ताभियोगः 18| वरद्वीपार्द्धसत्कानां गङ्गादीनां महानदीनां आदिशब्दात् सर्वमहानदीग्रहः यावत्पदात् उदकमुभयतटमृत्तिकां गृहन्ति.।
सू. १२० ॥४११॥|| क्षुद्रहिमवतः सर्वान् तुबरान्-कषायद्रव्याणि आमलकादीनि सोणि जातिभेदेन पुष्पाणि सर्वान् गन्धान्-वासादीन् ।
18| सर्वाणि माल्यानि-अधितादिभेदभिन्नानि सर्वो महौषधी:-राजहंसीप्रमुखाः सिद्धार्थकांश्च-सर्पपान् गृहन्ति २ वा च
पद्मबहाद् द्रहोदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति, एवं क्षुद्रहिमवन्यायेन सर्वक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः मध्यपद-11 लोपे कुलपर्वता हिमाचलादयस्तेषु वृत्तवैतात्येषु सर्वमहाद्रहेपु-पद्मद्रहादिषु सर्ववर्षेषु-भरतादिषु सर्वचक्रवर्तिविजयेषु
कच्छादिषु वक्षस्कारपर्वतेषु-गजदन्ताकृतिषु माल्यवदादिषु सरलाकृतिषु च चित्रकूटादिषु तथा अन्तरनदीषु-पाहावA त्यादिषु विभाषेत-वदेत् , पर्वतेषु तु तुबरादीनां द्रहेषु उत्पलादीनां कर्मक्षेत्रेषु मागधावितीर्थोदकमृदा नदीपूदकोभय
तटमृदां ग्रहणं वक्तव्यमित्यर्थः, यावत्पदात् देवकुरुपरिग्रहस्तेन कुरुद्वये चित्रविचित्रगिरियमकगिरिकाश्चनगिरिहृददश- ४११॥ केषु यथासम्भवं वस्तुजातं गृहन्ति, यावत्पदात् पुष्करवरद्धीपार्द्धस्य पूर्वापरार्द्धयोर्भरतादिस्थानेषु वस्तुग्रहो वाच्यः,४ ततो जम्बूद्वीपेऽपि तद्महस्तथैव वाच्यः, कियत्पर्यन्तमित्याह-सुदर्शने पूर्वार्धमेरौ भद्रशालवने नन्दनवने सौमनसबने |
JaEcom
~68~
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०]
दीप अनुक्रम [२३९]
18| पण्डकवने च सर्वतुवरान् गृह्णन्ति तथा तस्यैवापरार्धे अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति, ततो पातकीखण्डजम्बूद्वीप-1
गतो मेरुस्तस्य भद्रशालवने सर्वतुबरान यावत् सिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति, एवमस्यैव नन्दनवनात् सर्वतुबरान् यावत्सिथिकांश्च सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम-प्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति, एवं सौमनसवनात् सूत्रपाठे पश्चमीलोपः प्राकृतत्वात् पण्डकवनाच सर्वतुबरान यावत् सुमनोदामदर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धान, दर्दरमलयौ चन्दनोत्पत्तिखानिभूतौ पर्वतौ तेन तदुद्भवं चन्दनमपि 'तात्त्स्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति न्यायेन दर्दरमलयशब्दाभ्यामभिधीयते, ततो दर्दरमलयनामके चन्दने तयोः सुगन्धः-परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धान-वासान् गृह्णन्ति, गृहीत्वा च इतस्ततो विप्रकीर्णा आभियोग्यदेवा एकत्र मिलन्ति मिलित्वा च यत्रैव स्वामी तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च तं महाथ यावच्छब्दात् महार्य महार्ह विपुलमिति पदत्रयी तीर्थकराभिषेक तीर्थकराभिषेकयोग्यं क्षीरोदकाधुपस्करमुपस्थापयन्ति-उपनयन्ति, अच्युतेन्द्रस्य समीपस्थितं कुर्वन्तीत्यर्थः । अथाच्युतेन्द्रो यदकरोत्तदाहतए णं से अच्चुए देविन्दे दसहि सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए सायचीसपहिं पउहिं लोगपालेहि तिहिं परिसाहिं सत्ताहि अणियहिं सत्तहिं अणिआहिबईहिं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहि सद्धिं संपरिखुडे तेहिं साभाविएहिं विउविएहि अ वरकमलपट्टाणेहिं सुरनिवरवारिपडिपुण्णेहिं चन्दणकयचच्चाएहिं आविद्धकण्ठेगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहिं करयलसुकुमारपरिम्गहिराहि अहसहस्सेणं सोवण्णिआणं कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेजागं जाव सब्बोदपहिं सब्वमट्टिाहिं सञ्चतुअरेहिं जाव
Paedeseemesteseseneemergese
~69~
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप
अनुक्रम [२४०]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृचिः
॥४१२॥
Ja Eur intention
सब्बो सहिसिद्धत्यहिं सबिट्टीए जाव रखेणं महया २ तित्ययरानिसेषणं अभिसिंचंति, तए णं सामिस्स महया २ अभिसेसि वट्टमासि इंदाईआ देवा छत्तचामरघूवक अपुष्पगन्धजावहत्यगया हढतुट्ट जाय वजासूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति, एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइआ देवा आसिअसंमजिओवल तसित्तइसम्मट्ठरत्थंतरावणवीहि करेन्ति जाव गन्धवट्टिभूअंति, अप्पेग० हिरण्णवासं वासिंति एवं सुवण्णरयणवइरआभरणपत्तपुप्फफलबी अमलगन्धवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति, अप्पेगइआ हिरण्णविहिं भाईति एवं जाव चुण्णविधिं भाईति अप्पेगइआ चउन्विहं बज वायन्ति तंजावर्त १ विततं २ पर्ण ३ झुसिर ४, अप्पेगइआ चउब्विहं अं गायन्ति, तंजा-उक्खितं १ पायतं २ मन्दायईयं ३ रोइआवसाणं ४, अपेगइआ चडव्विद्दं णट्टं णञ्चन्ति, तं०—अंचि १ दुअं २ आरभडं ३ भसोलं ४, अप्पेगइआ चउब्बिहं अभिणयं अभिर्णेति, तं०-दितिअं पाडिस्सुइअं सामण्णोवणिवाइअं लोगमज्झावसाणिअं अप्पेग० बत्तीसइविहं दिव्यं णट्टविहिं उवदंसेन्ति, अप्पेगइआ उप्पयनिवयं निवयउप्पयं संकुचिञपसारिअं जाव भन्तसंभन्तणामं दिवं नविहिं उबसन्तीति अप्पेगइआ तंडवेंति अप्पेगइमा लासेन्ति अप्पेगइआ पीथेन्ति, एवं बुकारेन्ति अप्फोडेन्ति वग्गन्ति सीहणायं वदन्ति अप्पे सब्वाई करेन्ति अप्पे हयहेसिअं एवं हथिगुलुगुलाइ रहघण घणाइअं अप्पे तिण्णिवि, अप्पे० उच्छोलन्ति अप्पे० पच्छोउन्ति अप्पे तिवई छिंदन्ति पायदद्दरयं करेन्ति भूमिचवेडे दुयन्ति अप्पे महया सद्देणं रार्वेति एवं संजोगा विभासिन्या अप्पे हकारेन्ति एवं पुकारेन्ति वकारेन्ति ओवयंति उप्पयंति परिवयंति जलन्ति तवंति पथवंति गर्जति विज्जुआयंति वासिंति अप्पेगइआ देवुकलिअं करेंति एवं
०
For P&P Cy
~70~
CACACACA
वक्षस्कारे
जन्ममहे
अच्युताभियोगः
सू. १२१
॥४१२ ॥
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],-----------------...........
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
Reserse
दीप
देवकहकहगं करेंति अप्पे० दुहृदुहुगं करेंति अप्पे० विकिअभूयाई रुबाई विउन्वित्ता पणचंति एषमाइ विभासेजा जहा। विजयस्स जाव सब्बओ समन्ता आहाति परिधातित्ति । (सूत्र १२१)
'तए णं से अचुए' इत्यादि, ततः उपस्थितायामभिषेकसामन्यां सोऽच्युतो देवेन्द्रो दशभिः सामानिकसहस्रैः त्रयखिंशता त्रायखिंशकैः चतुर्भिलोकपाल तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चत्वारिंशता आत्म-18 रक्षकदेवसहस्रः साई संपरिवृतस्तैस्तद्गतदेवजनप्रसिद्धैः स्वाभाविकै क्रियश्च वरकमलप्रतिष्ठान रित्यादि सर्व प्राग्वत्, | सुकुमाल करतलपरिगृहीतैरनेकसहस्रसङ्गयाकैः कलशैरिति गम्यते, तानेव विभागतो दर्शयति-अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां 1 कलशानां यावत्पदादष्टसहस्र रौप्याणामष्टसहस्रेण मणिमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णम
[णिमयानामष्टसहस्रेण रूप्यमणिमयानामष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानामिति अष्टसहस्रेण भौमेयानां सर्वसङ्ख्यया | अष्टभिः सहस्रः चतुःषष्यधिकर्यावच्छब्दात् भृङ्गारादिपरिग्रहः सर्वोदकैः सर्वमृत्तिकाभिः सर्वतुर्वरोवच्छब्दात् पुष्पा
दिग्रहः, सर्वोषधिसिद्धार्थकः सर्वां यावद्रवेण यावच्छब्दात् सबजुईए इत्यारभ्य दुंदुहिनिग्घोसनाइअ' इत्यन्तं । । 18 ग्राह्य, महता २ तीर्थकराभिषेकेण, अब करणे तृतीया, कोऽर्थः -येनाभिषेकेण तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते तेनेत्यधैः,
अत्राभिषेकशब्देनाभिषेकोपयोगि क्षीरोदादिजलं ज्ञेयम्, अभिषिञ्चति-अभिषेकं करोतीत्यर्थः । सम्प्रत्यभिपेककारिण ॥६॥ इन्द्रादपरे इन्द्रादयो यच्चकुस्तदाह-'तए ण'मित्यादि, ततः स्वामिनोऽतिशयेन महल्यभिषेके वर्तमाने इन्द्रादिका
अनुक्रम
क9999
[२४०]
~71
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],-----------------...........
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अच्युता
[१२१]
१३॥8
दीप अनुक्रम
18 देवाः छत्रचामरकलशधूपकडुच्छुकपुष्पगन्धयावत्पदात् माल्यचूर्णादिपरिग्रहः, हस्तगताः हृष्टतुष्टयावत्पदादानन्दालापको || ५वक्षस्कारे
18 ग्राह्यः, वज्रशूलपाणयः उपलक्षणादन्यशस्त्रपाणयोऽपि भाव्याः पुरतस्तिष्ठन्ति, अयमर्थः केचन छत्रधारिणः केचन जन्ममहे न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
चामरोत्क्षेपकाः केचन कलशधारिण इत्यादि, सेवाधर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ तत्र वैरिणामभावात् , केचन | | वज्रपाणयः, केचन शूलपाणय इति, केचन छवाद्यव्यग्रपाणयः प्राञ्जलिकृतास्तिष्ठन्ति, अत्रातिदेशमाह-एवं विजया'
सू. १२१ 18|| इत्यादि, एवमुक्तप्रकारमभिषेकसूत्र विजयदेवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञेयं, यावत्पदात् 'अप्पेगहआ पंडगवणं णयोअगं
णाइमट्टि पविरलपफुसिय॑ रयरेणुविणासणं दिई सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइआ निहयरवं णहरयं भट्टरय | पसंतरयं उवसंतरय करेंति' इति ग्राह्यम् , अत्र व्याख्या प्राग्वत्, वाक्ययोजना खेवं-अपि|ढा), एककाः केचन | देवाः पण्डकवने नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात्तथा प्रविरलप्रस्पृष्टं रजोरेणुविनाशनं दिव्यं सुरभिगन्धोदकघर्ष वर्षन्ति, अप्येककाः पण्डकवनं निहतरजः नष्टरजः भ्रष्टरजः प्रशान्तरजः उपशान्तरजः कुर्वन्ति, अथ सूत्र-अप्येककाः देवाः पण्डकवनं आसिक्कसम्मार्जितोपलिप्तं तथा सिक्तानि जलेन अत एव शुचीनि सम्मृष्टानि कचरापनयेन रथ्यान्तराणिआपणवीथय इवापणवीथयो रथ्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, अयमर्थः-तत्र स्थानस्थानानीतचन्दनादिवस्तूनि । मार्गान्तरेषु तथा राशीकृतानि सन्ति यथा हट्टश्रेणिप्रतिरूपं दधति, यावत्पदात् 'पंडगवर्ण मंचाइमंचकलिअं करेंति, | अप्पेगइआ णाणाविहरागऊसिअज्झयपडागर्मडिअं करेंति, अप्पेगइआ गोसीसचंदणददरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति,
[२४०]
~72
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
दीप
18 अप्पेगइआ उवचिअवंदणकलसं अप्पेगइआ चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइआ आंसत्तोसत्त-1
| विपुलवट्टयग्धारिअमलदामकलावं करेंति, अप्पेगइआ पंचवण्णसरससुरहिमुकपुंजोवयारकलिभं करेंति, अप्पेगइआN || कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकडझंतधूवमघमघतगंधुडुआभिरामं सुगंधवरगंधियं' इति ग्राह्य, पुनः प्रकारान्तरेण देवक
त्यमाह-'अप्पेगइआ हिरण्ण'इत्यादि, अप्येककाः हिरण्यस्य-रूप्यस्य वर्ष-वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, एवं सर्वत्र योजना कार्या, नवरं सुवर्ण प्रतीतं, रतानि-कर्केतनादीनि वज्राणि-हीरकाः आभरणानि-हारादीनि पत्राणि-दमनकादीनि पुष्पाणि फलानि च प्रतीतानि बीजानि सिद्धार्थादीनि माल्यानि-प्रथितपुष्पाणि गन्धाः-वासाः वर्णों-हिङ्गला-15 दिः यावच्छब्दाद्वखमिति चूर्णानि-सुगन्धद्रव्यशोदाः, तथा अप्येककाः हिरण्य विधि-हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकार भाजय-18 || न्ति शेषदेवेभ्यो ददतीत्यर्थः, एवं यावत्पदात् सुवर्णविधि रल्लविधि इत्यादिपदानि ग्राह्याणि चूर्णविधि भाजवन्ति । अथ S| सङ्गीतविधिरूपमुत्सवमाह-'अप्पेगा चाउविहं वज' इत्यादि, अप्येककाश्चतुर्विधं वाचं वादयन्ति, तद्यथा-ततं-वीणा-18 19 | दिकं विततं-पटहादिक, श्रीहेमचन्द्रसूरिपादास्तु विततस्थाने आनद्धमाहुः, धनं-तालप्रभृतिकं शुपिरं-वंशादिकं, अप्येकIS का चतुर्विधं गेयं गायन्ति, तद्यथा-उत्क्षिप्तं-प्रथमतः समारभ्यमाणं पादात्तं-पादवृद्ध वृत्तादिचतुर्भागरूपपादवद्धमिति ASI भावः मंदायमिति-मध्यभागे मूर्च्छनादिगुणोपेततथा मन्द मन्दं घोलनात्मकं, 'रोचितावसान'मिति रोचितं-यथोचि|| तलक्षणोपेततया भावितं सत्यापितमितियावत् अवसानं यस्य तत्तथा, 'रोइअग'मिति पाठे रोचितकमित्यर्थः, स एव,
अनुक्रम
[२४०]
~73
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२१]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्मू-18 अप्येककाः चतुर्विध नाट्यं नृत्यन्ति, तद्यथा-अञ्चितं द्रुतं आरभर्ट भसोलमिति, अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, ५वक्षस्कारे द्वीपशा-|| तद्यथा-दान्तिकं प्रातिश्रुतिक सामान्यतो विनिपातिक लोकमध्यावसानिकमिति, एते नाव्यविधयोऽभिनयविधयश्च जन्ममहे न्तिचन्द्री
भरतादिसङ्गीतशास्त्रज्ञेभ्योऽवसेयाः, अप्येकका द्वात्रिंशद्विधं अष्टमाङ्गलिक्यादिकं दिव्यं नाव्यविधिमुपदर्शयन्ति, स च अच्युताया वृत्तिः
भियोगः येन क्रमेण भगवतो बर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भावितो-राजप्रश्नीयोपाङ्गे दर्शितस्तेन क्रमेणोपदयते, तत्र
मू.१२१ ॥४१४॥ | प्रारिप्सितमहानाट्यरूपमङ्गल्यवस्तुनिर्विघ्नसिद्ध्यर्थमादौ मङ्गल्यनाट्यं, तथाहि-स्वस्तिकश्रीवत्सनन्द्यावर्त्तवर्द्धमानकभद्रास
नकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमाङ्गलिक्यभक्तिचित्रं, अत्राष्टपदानां व्याख्या प्राग्वत, नवरं तेषां भत्त्या-विच्छित्त्या चित्रं-आ-18 | लेखनं तत्तदाकाराविर्भावना यत्र तत्तथा तदुपदर्शयन्तीत्यर्थः, अयमर्थः-यथा हि चित्रकर्मणि सर्वे जगद्वत्र्तिनो भावाश्चित्र|यित्वा दयन्ते तथा तेऽभिनयविषयीकृत्य नाट्येऽपि,अभिनयः-चतुर्मिराङ्गिकवाचिकसात्त्विकाहार्यभेदैः समुदितैरसमुदितैर्वाऽभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनं. प्रस्तुते चाङ्गिकेन नाट्यकर्तृणां तत्तन्मङ्गलाकारतयाऽवस्थानं हस्तादिना तत्तदाकारदर्शन | वा वाचिकेन प्रबन्धादौ तत्तन्मङ्गलशब्दोच्चारणं सभासदां मनसि रक्तिपूर्वकं तत्तन्मङ्गलस्वरूपाविर्भावनं मङ्गलनाव्यमिति १, अथ द्वितीयं नाट्यं, आवर्तप्रत्यावर्त्तश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकपुष्यमाणवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपु-1
R ॥४१४॥ प्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताभक्तिचित्रं, तत्र सृष्टिक्रमेण भ्रमभ्रमरिकादानैर्नर्त्तनमावर्तस्तद्विपरीतक्रमेण भ्रमरिकादानैर्नर्तनं प्रत्यावर्त्तः श्रेण्या-पकृत्या स्वस्तिकाः श्रेणिस्वस्तिकाः, ते चैकपङ्गिगता अपि स्युरिति
[२४०]
~74
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],----------------...........
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
दीप
अनुवृत्ताः श्रेणिस्वस्तिकाः प्रश्रेणिस्वस्तिकाः, अत्र प्रशब्दोऽनुवृत्तार्थे यथा प्रशिष्यः प्रपुत्र इत्यादौ, अयमर्थ:-मुख्यस्यै-1128
कस्य स्वस्तिकस्य प्रतिशाखं गता अन्ये स्वस्तिका इत्यर्थः, एतेन प्रथमनाट्यगतस्वस्तिकनाट्याद् भेदो दर्शितः, तदभि-8 12 नयन नत्तेनं, तथा पुण्यमाणः-पुष्टीभवन सदभिनयेन नृत्यं, यथा हि पुष्टो गच्छन् जल्पन् श्वसिति बहु बहु प्रविद्यति
दारुहस्तपायी स्वहस्तावतिमेदस्विनी चालयन् २ सभासदामुपहासपात्रं भवति तथाऽभिनयो यत्र नाट्ये तत्पुष्यमाण-12 नाट्यं, एतदेवोत्तरसूत्रकारो 'अप्पेगइआ पीणेती'ति सूत्रेण स्वयमेव वक्ष्यति, वर्द्धमानकः-स्कन्धाधिरूढः पुरुषस्तदभिनयगर्भित नाव्यं बर्द्धमानकनाव्यं, एतेन प्रथमनायगतवर्द्धमाननाव्यालेदो दर्शितः, मत्स्यानामण्डकं मरस्याण्डकं | मत्स्या हि अण्डाजायन्ते तदाकारकरणेन यज्ञर्तनं तन्मत्स्याण्डकनाट्य, एवं मकराण्डकमपि, न हि यथाकामविकु-19 बिणां देवानां किश्चिदसाध्यं नाय्येन चानभिनेतव्यं येन तदभिनयो न सम्भवतीति, मत्स्यकाण्डपाठे तु मत्स्यकाण्डं| मत्स्यवृन्द, तद्धि सजातीयैः सह मिलितमेव जलाशये चलति, समाचारित्वात् , तथा यत्र नटोऽन्यनटैः सह सङ्गतो रङ्गभूमी प्रविशति ततो वा निर्याति तन्मत्स्यकाण्डनाव्यम् , एवं मकरकाण्डपाठे मकरवृन्दं वाच्यं, तद्धि यथा विकतरूपत्वेनातीय द्रष्टुणां त्रासकृद् भवति तथा यन्नाव्यं तदाकारदर्शनेन भयानकं स्यात् तद्भयानकरसप्रधानं मकरकाण्ड नाम नाटकं, तथा जारनाटक जार:-उपपतिः स च यथा स्त्रीभिः अतिरहस्येव रक्ष्यते तद्वद्यत्र मूलवस्तुतिरोधानासत्तदि-10 न्द्रजालाविर्भावनेन सभासदा मनस्यन्यदेवावतार्यते तज्जारनामक नाट्यं, तथा मारनाटकं मार:-कामस्सदुद्दीपकं नाटक
GOR99909apradaeaasasara029009
अनुक्रम
[२४०]
श्रीजम्बू. ७०
~75
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्री- या वृचिः ॥४१५॥
[१२१]
Dececeaeeeeeeeeee
दीप
|| मारनाटकं. शकाररसप्रधानमित्यर्थः, तथा पुष्पावलिनाव्यं यत्र कुसुमापूर्णसच्छिद्रवंशशलाकादिदर्शनेनाभिनयस्सत्पुष्पा-IIS | वलिनाटकं, तथा पद्मपत्रनाम्यं यत्र पद्मपत्रेषु नृत्यन्नटस्तथाविधकरणप्रयत्नविशेषेण वायुरिव लघूभवन् न पद्मपत्रं क्लम
जन्ममहे यति नापि त्रोटयति न वक्रीकरोति तत्पद्मपत्रोपलक्षितं नाव्यं पद्मपत्रनाटक, तथा सागरतरङ्गाभिनयं नाम नाव्यं यत्र अच्युतावर्णनीयवस्तुनो वचनचातुर्यवर्णनाद्यैः सागरतरङ्गा अभिनीयन्ते अथवा यत्र तकतक झें झें किटता किटता कुकु इत्या-18| भियोगः दयस्तालोद्घट्टनार्थकवर्णा बहवोऽस्खलद्गत्या प्रोच्यन्ते तत्सागरतरङ्गनामनाटकं, एवं वसन्तादिऋतुवर्णने वासन्ती
C .१२१ लतापद्मलतावर्णनाभिनयं नाटकं, नन्वेवं सत्यभिनेतव्यवस्तूनामानन्त्येन नाट्यानामप्यानन्त्यप्रसङ्गस्तेन द्वात्रिंशत्सङ्ख्याकत्वविरोधः, उच्यते, एषा च सूत्रोक्ता सङ्ख्या, उपलक्षणाच्चान्येऽपि तत्तदभिनयकरणपूर्वक नाट्यभेदा ज्ञेयाः, एवं सर्व-| नाव्येष्वपि ज्ञेयं २, अथ तृतीयं-ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्रं, तत्र ईहामृगा-चूकाः ऋषभादयः प्रतीता नवरं रुरवश्चमराश्च मृगविशेषाः वनो-वृक्षविशेषस्तस्य लताः ३, अथ चतुर्थ-एकतोवक्रद्विधातोवक्रएकतश्चक्रवालद्विधातश्चक्रवालचक्रार्द्धचक्रवालाभिनयात्मका, एकतोवक्रं नाम नटानां ॥
४१५॥ एकस्यां दिशि धनुराकारश्रेण्या नर्तनं, अनेन श्रेणिनाट्याझेदो दर्शितः, एवं द्विधातोवक्र द्वयोः परस्पराभिमुख| दिशोः धनुराकारश्रेण्या नर्त्तनं, तथा एकतश्चक्रवालं-एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्त्तनं, एवं 8
अनुक्रम
[२४०]
~76
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
दीप अनुक्रम
18 द्विधातश्चक्रवाल-द्वयोः परस्पराभिमुखदिशो यं, तथा 'चक्रार्द्धचक्रवाल' चक्रस्य-रथाइस्थाई तद्रूपं यच्चक्रवाल18 मण्डलं तदाकारेण नर्सनं अर्द्धमण्डलाकारेणेत्यर्थः, तदभि
नयं नाम नाटक, एकतोवक्रादीनां क्रमेण स्थापना यथा- । ॥ इदं च नटानां नर्सने संस्थानविशेषप्रधानं नाम नाटकं ४, अथ पञ्चम-चन्द्रावलिप्रविभक्तिसूर्यावलिप्रविभक्तिवलयतारा1 सैकमुक्ताकनकरत्नावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकमावलिप्रविभक्तिनामकं, तत्र चन्द्राणामावलिः श्रेणिस्तस्याः प्रविभक्तिः
विच्छित्ती रचनाविशेषस्तदभिनयात्मकं, एवं सूर्यावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकं, तथा वलयादिरशान्तेषु पदेषु आवलि-1
शब्दो योज्यस्तेन वलयावलिप्रविभक्त्यादि, अयमर्थः-पतिस्थितानां रजतस्थालहस्तानां भ्रमरीपरायणानां नटानां नाव्यं, 18 एवं वलयहस्तानां वलयनाव्यं, एवं वर्तुलकहस्तगतानां तारावलिनाट्य, अनयैव युक्त्या तत्सदृशवस्तुदर्शनेन अचिन्त्य
वाद्वा वैक्रियशक्तस्तदस्तुदर्शनेन तत्तदभिनयकरणं तत्तन्नामकं नाव्यं ज्ञेयं, एतच्चावलिकाबद्धमित्यावलिकाप्रविभक्ति-18 नाम नाव्यं ५, अथ षष्ठं चन्द्रसूर्योगमनपविभक्तिकृतमुद्गमनपविभक्ति चन्द्रसूर्ययोरुद्गमनं-उदयनं तत्प्रविभक्ती
रचना तदभिनयगर्भ यथा उदये सूर्यचन्द्रयोर्मण्डलमरुणं प्राच्यां चारुणः प्रकाशस्तथा यत्राभिनीयते तदुद्गमनप्रविIN भक्ति ६, अथ सप्तम-चन्द्रसूर्यागमनाविभक्ति चन्द्रस्य सविमानस्यागमनं-आकाशादवतरणं तस्य प्रविभक्तिर्यत्र ना-1
| व्येऽभिनयेन दर्शनं, एवं सूर्यागमनाविभक्ति ७, अथाष्टमं-चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्तियुक्तमावरणप्रविभक्ति, यथा हि
[२४०]
~77
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ---------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यून्तिचन्द्री
या चिः
[१२१]
॥४१६॥
दीप अनुक्रम
Socence
चन्द्रो घनपटलादिना आत्रियते तथाऽभिनयदर्शनं चन्द्रावरणप्रविभक्ति, एवं सूर्यावरणप्रविभक्त्यपि ८, अथ नवम- ५वक्षस्कारे चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्तियुक्तमस्तमयनप्रविभक्ति यत्र सर्वतः सन्ध्यारागप्रसरणतमःप्रसरणकुमुदसङ्कोचादिना चन्द्रा- जन्ममहे स्तमयनमभिनीयते तच्चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति, एवं सूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यपि, नवरं कमलसङ्कोचोऽत्र वक्तव्यः ९, अथ
अच्युता| दशम-चन्द्रसूर्यनागयक्षभूतराक्षसगन्धर्वमहोरगमण्डलप्रविभक्तियुक्तं मण्डलप्रविभक्ति, तथा बहूनां चन्द्राणां मण्ड
भियोगः लाकारेण-चक्रवालरूपेण निदर्शनं चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति, एवं बहूनां सूर्यनागयक्षभूतराक्षसगन्धर्वमहोरगाणां मण्डलाकारेराणाभिनयनं वाच्यं, अनेन चन्द्रमण्डलसूर्यमण्डलयोश्चन्द्रावलिसूर्यावलिनाव्यतो भेदो दर्शितस्तयोराबलिकाप्रविष्टत्वात्१०, | अथैकादश-ऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयगजविलसिताभिनयरूपं द्रुतविलम्बितं नाम नाट्यं, तत्र ऋषभसिंही 18|| प्रतीतो तयोलेलितं-सलीलगतिः तथा हयगजयोर्विलसितं-मन्थरगतिः, एतेन विलम्बितगतिरुक्का उत्तरत्र मत्तपदविशे-118 षणेन द्रुतगतेक्ष्यमाणत्वात् , तथा मत्तयगजयोविलसितं-द्रुतगतिः तदभिनयरूपं गतिप्रधानं द्रुतविलम्बितं नाम नाव्यं ११, अथ द्वादश-शकटोद्धिसागरनागरमविभक्ति, शकटोद्धिः-प्रतीता तस्याः प्रविभक्तिः-सदाकारतया हस्तयोपि-18 धानं, एतत्तु नाव्ये प्रलम्बितभुजयोर्योजने प्रणामाद्यभिनये भवतीति, तथा सागरस्य-समुद्रस्य सर्वतः कल्लोलग्रसरणव- ॥१६॥ डवानलज्वालादर्शनतिमिशिलादिमत्स्य विवर्त्तनगम्भीरगर्जिताद्यभिनयनं सागरप्रविभक्ति, तथा नागराणां-नगरवासि-IN लोकानां सविवेकनेपथ्यकरणं क्रीडासचरणं वचनचातुरीदर्शनमित्याद्यभिनयो नागरप्रविभक्ति तन्नामकं नाव्य १२,
[२४०]
~78~
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२१]
दीप
अनुक्रम [२४०]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [१२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
| अथ त्रयोदशं-नन्दाचम्पाप्रविभक्तिनाम नाव्यं, नन्दा - नन्दाभिधानाः शाश्वत्यः पुष्करिण्यस्तासु देवानां जलक्रीडाजल| जकुसुमाव चयनमन्तरणमाप्लवनमित्याद्यभिनयनं नन्दाप्रविभक्ति तथा चम्पानाम महाराजधानी उपलक्षणं चैतत् तेन | कोशलाविशालादिराजधानीपरिग्रहः तासां च परिखासौधप्रासादचतुष्पदाद्यभिनयनं चम्पाप्रविभक्ति १३, अथ चतुर्दशं| मत्स्याण्डकमकराण्ड कजारमारप्रविभक्तिनाम नाव्यं, एतत्तु पूर्व व्याख्यातमेव, अत्रैषां चतुर्णामभिनयनं पृथगुक्तं तत्र तु व्यामिश्रितमिति भेदः १४, अथ पञ्चदशं कखगघङ इति कवर्गप्रविभक्तिकं तत्र ककाराकारेणाभिनयदर्शनं ककार| प्रविभक्ति, कोऽर्थः १ - तथा नाम ते नदा नृत्यन्ति यथा ककाराकारोऽभिव्यज्यते एवं खकारगकारघ कारडकारप्रविभक्तयो वाच्याः, एतच्च कवर्गप्रविभक्तिकं नाव्यं, यद्यपि लिपीनां वैचित्र्येण ककाराद्याकारवैचित्र्यात् प्रस्तुतनाट्यस्याप्यनैयत्य| प्रसङ्गस्तथापि कवर्गीय जातीयत्वेन विशेषणान्नात्र दोषः, एवं चकारप्रविभक्तिजातीयमित्यादि बोध्यं, अथवा ककारश|ब्दोद्घट्टनेन चचपुटचाचपुटादौ कंकांकिकीं इत्यादिवाचिकाभिनयस्य प्रवृत्त्या नाव्यं ककारप्रविभक्ति, एवं कादिङान्तानां शब्दानामादातृत्वेन ककारखकारगुकारधकार ङकारप्रविभक्तिकं नाट्यं, एवं चवर्गप्रविभत्यादिष्वपि वाच्यं १५, | अथ पोडशं-चछजझञप्रविभक्तिकं १६, अथ सप्तदर्श-टठडढणप्रविभक्तिकं १७, अथाष्टादशं तथदधनप्रविभक्तिकं १८, | अथैकोनविंशतितमं - पफबभमप्रविभक्तिकं १९ अथ विंशतितमं - अशोकाम्र जम्बूको शम्बपल्लवप्रविभक्तिकं अशोकादयोवृक्षविशेषास्तेषां पलवा- नवकिसलयानि ततस्ते यथा मन्दमारुतेरिता नृत्यन्ति तदभिनयात्मकं पल्लवप्रविभक्तिकं नाम
For P&Praise City
~79~
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२१]
दीप अनुक्रम
नाट्यं २०, अर्थकविंशतितम-पद्मनागाशोकचम्पकचूतवनवासन्तीकुन्दातिमुक्तकश्यामलताप्रविभक्तिक लताप्रविभक्तिकं ५वक्षस्कारे
नाम नाव्यं, इह येषां वनस्पतिकायिकानां स्कन्धप्रदेशविवक्षितोर्ध्वगतैकशाखाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं परिस्थूरं जन्ममहे दान निर्गच्छति ते लता विज्ञेयास्ते च पद्मादय इति पद्मालतादिपदानामर्थः प्राग्वत्, एता यथा मारुतेरिता नृत्यन्ति
अच्युताया वृत्तिः
भियोगः तदभिनयात्मकं लताप्रविभक्तिकनाम नाय २१, अथ द्वाविंशतितम-द्वतनाम नाव्यं, तत्र इतमिति-शीनं गीतवाद्यश-18
सू. १२१ ॥४१७॥ ब्दयोर्यमकसमकप्रपातेन पादतलशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् द्रुतं नाय २२, अथ त्रयोविंशतितम-विलम्बितं ||
नाम नाट्य, यत्र विलम्बिते-गीतशब्दे स्वरघोलनाप्रकारेण यतिभेदेन विश्रान्ते तथैव वाद्यशब्देऽपि यतितालरूपेण वाद्यIS| माने तदनुयायिना पादसयारेण नर्त्तनं तद्विलम्बितं नाम नाट्यं २३, अथ चतुर्विंशतितम-द्रुतविलम्बितं नाम नाट्यं
यथोक्तप्रकारद्वयन नर्त्तनं २४, अथ पञ्चविंशतितम-अश्चितं नाव्यं, अश्चित:-पुष्पाचलङ्कारः पूजितस्तदीयं तदभिनय-11 पूर्वकं नाव्यमप्यश्चितमुच्यते, अनेन कौशिकीवृत्तिप्रधानाहा-भिनयपूर्वकं नाट्यं सूचितं २५, अथ पद्दविंशतितमं रिम्भितं नाम नाट्य-तच मृदुपदसञ्चाररूपमिति वृद्धाः, अधवा 'रेभृङ्ग शब्दे' इत्यस्य धातोः क्तप्रत्यये रेभितं-कल
स्वरेण गीतोद्भातृत्वं, अनेन वाचिकाभिनययुक्तं भारतीवृत्तिप्रधानं नाट्यमभाणि २६, अथ सप्तविंशतितमं अश्चितरि- ४१७॥ || भितं नाम नायं-यत्रानन्तरोक्तमभिनयद्वयमवतरति तत् २७, अथाष्टाविंशतितममारभट नाम नाट्यं, आरभटा:-हा 1 सोत्साहाः सुभटास्तेषामिदमारभट, अयमर्थः-महाभटानां स्कन्धास्फालनहदयोल्वणनादिका या उद्धतवृत्तिस्तदभिनय-16
[२४०]
~80
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
दीप अनुक्रम
मिति, अनेनारभटीवृत्तिप्रधानमाङ्गिकाभिनयपूर्वकं नाट्यमुक्तं ३८, अथैकोनत्रिंशं भसोलं नाम नाव्यं, 'भस भर्त्सनदीप्योरित्यस्य ह्वादिगणस्थस्य धातोर्वभस्ति-दीप्यते इति अचि प्रत्यये भसः-शृङ्गारः पङ्गिरथन्यायेन शृङ्गाररस इत्यर्थः तं अवतीति भसोस्तं रतिभावाभिनयनेन लाति-गृहातीति भसोलो-नटस्ततो धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् भसोलं नाम नाव्यं, एतेन शृङ्गाररससात्त्विकभाषः सूचितः, इदं च सर्व व्याख्यानमुपलक्षणपरं ज्ञेयं, तेनात्र सर्वे सात्त्विका भावा अभिनयविषयीकार्याः, एतेन साचतीवृत्तिप्रधानं सात्त्विकाभिनयगम्भितं भसोलं नाम नाट्य २९, अथ त्रिंशत्तममारभटभसोलं नाम नाव्यं, इदं चानन्तरोक्ताभिनयद्वयप्रधान ज्ञेयं ३०, अथैकत्रिंशत्तम उत्पातनिपातप्रवृत्तं सकु-14 चितप्रसारित रेचकरेचितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम नाट्यं, उत्पातो-हस्तपादादीनामभिनयगत्योर्ध्वक्षेपणं तेषामेवाधाक्षेपण |६|| निपातस्ताभ्यां यत्प्रवृत्तं प्रवृत्तिमज्जातमित्यर्थः एवं हस्तपादयोरङ्गाहारार्थ सन्कोचनेन सकुचितं प्रसारणेन च प्रसारितं, हा
तथा रेचकैः-धमरिकाभिः रेचितं-निष्पन्नं, भ्रान्तो-भ्रमप्राप्तः स इव यत्राद्भुतचरित्रदर्शनेन पर्षजनः सम्भ्रान्तः18 साश्चर्यो भवति तत् भ्रान्तसम्भ्रान्तं तदुपचारानाव्यमपि भ्रान्तसम्भ्रान्तं ३१, अथ द्वात्रिंशत्तम चरमचरमनामनिव| द्धनामकं, तच सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोकभवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेकचरमबालभावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणाभिनयात्मकं भावितं, इह तु यस्य तीर्थकृतो जन्ममहं
[२४०]
eveहक
~81~
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], ----------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्ब-
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री- या वृत्तिः
भियोग:
[१२१]
॥४१८॥
दीप अनुक्रम
कुर्वस्ति तच्चरिताभिनयात्मकमुपदर्शयन्ति, यद्यष्यत्राञ्चितरिभितारभटभसोलेषु चतुएं मूलभेदेषु गृहीतेषु साभिनयना
५वक्षस्कारे व्यमात्रसङ्ग्रहः स्यात् तथापि क्वचिदेकैकेनाभिनयेन कचिदभिनयसमुदायेन कचिच्चाभिनय विशेषेणान्तरकरणात् सर्व- जन्ममहे प्रसिद्धद्वात्रिंशन्नाटकसमयाव्यवहारसंरक्षणार्थ द्वात्रिंश दा दर्शिताः। अथाभिनयशून्यमपि नाटकं भवतीति तत् दर्शयितु- अच्युतामाह- अप्पेगइआ उपय' इत्यादि, अप्येकका उत्पात:-आकाशे उल्ललनं निपातः-तस्मादवपतनं उत्पातपूर्वो निपातो
सू. १२१ यस्मिन् तदुत्पातनिपातं, एवं निपातोत्पातं, सञ्कुचितप्रसारितं प्राग्वत् , यावत्पदात् 'रिआरिमिति ग्राह्यं, तत्र रिअं. गमन रङ्गभूमेनिष्क्रमणं आरिअ-पुनस्तत्रागमनं, भ्रान्तसम्भ्रान्तं तु अनन्तरोतकत्रिंशत्तमनाटके व्याख्यातमिति ततो ग्राह्य, इदं च पूर्वोक्तचतुर्विधद्वात्रिंशद्विधनाव्येभ्यो विलक्षणं सर्वाभिनयशून्यं गात्रविक्षेपमा विवाहाभ्युदयादावुपयोगि सामान्यतो नर्त्तनं भरतादिसङ्गीतेषु नृत्तमित्युक्तं । अथोक्तमेव नाट्य प्रकारद्वयेन सङ्ग्रहीतुमाह-'अप्पेगइआ तंडति अप्पेगइआ लासेंति'त्ति, अप्येककास्ताण्डवं नाम नाटकं कुर्वन्ति, तच्चोद्धतैः करणैरङ्गहारैरभिनयैश्च निर्वत्त्य, अत एवारभटीवृत्तिप्रधान नाव्यं, अथ यथा बालस्वामिपादानां देवाः कुतूहलमुपदर्शयन्ति तथाह- अप्पेगहआ पीणें-18 ति' इत्यादि, अप्येकका देवाः पीनयन्ति-वं स्थूलीकुर्वन्ति, 'एव'मित्यप्येकका बूत्कारयन्ति-यूत्कारं कुर्वन्ति आस्फोट-IS॥४१८॥ यन्ति-उपविशन्तः पुताभ्यां भूम्यादिकमानन्ति वल्गन्ति-मल्लवद्वाहुभ्यां परस्परं संप्रलगन्ति सिंहनादं नदन्ति-कुर्व-15 न्ति अप्येककाः सर्वाणि-पीनत्वादीनि क्रमेण कुर्वन्ति, अप्येकका हयहेषितं-हेपारवं कुर्वन्ति, 'एव'मिस्वप्येककाः हस्तिगु-15
[२४०]
0s
JETAH
~82
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [५], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२१]
दीप
लुगुलायितं-गजवद् गाँज विदधाति रथघनघनायितं-रथवत् चीत्कुर्वन्ति, गुलुगुलुघनघन इत्यनुकरणशब्दौ, अप्येककाः | यहेपितादीनि त्रीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येककाः उच्छोलंति-अवतोमुखा चपेटां ददति, अप्येककाः पच्छोलंति-पृष्ठतोमुखां| चपेटां ददति, अप्येककाः त्रिपदी मल्ल इव रङ्गभूमौ त्रिपदी छिन्दन्ति, पाददईरक-पादेन भूम्यास्फोटनरूपं कुर्वन्ति, भूमिचपेटां ददति-करेण भूमिमानन्ति, अध्येककाः महता २ शब्देन रावयन्ति-शब्दं कुर्वन्ति, एवमुक्तप्रकारेण संयोगा अपि-द्वित्रिपदमेलका अपि विभाषितव्याः-भणितच्याः, कोऽर्थः केचित् उच्छोलनादिद्विकमपि कुर्वन्ति, तथा केचित् त्रिकं चतुष्कं पञ्चकं पटुं च कुर्वन्ति, अप्येककाः हकारयन्ति-हक्कां ददति एवं पूत्कुर्वन्ति थक्कारयन्ति-थकथक्कमित्येवं शब्द ॥ कुर्वन्ति अवपतन्ति-नीचैः पतन्ति उत्पतन्ति-अव भवन्ति तथा परिपतन्ति-तिर्यग्निपतन्ति ज्वलन्ति-ज्वालारूपा |
भवन्ति भास्वराग्नितां प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः, तपन्ति-मन्दाझाररूपता प्रतिपद्यन्ते, प्रतपन्ति-दीप्ताङ्गारतां प्रतिपद्यन्ते || 18| गर्जन्ति-गर्जारवं कुर्वन्ति विद्युतं कुर्वन्ति वर्षन्ति च, अत्रापि संयोगा भणितव्याः, 'अप्पे. देवानां वातस्येवोत्कलि-||
| का-भ्रमविशेषस्तां कुर्वन्ति, एवं देवानां कहकहक-प्रमोदभरजनितकोलाहलं कुर्वन्ति अपे० दुहुदुहुगं कुर्वन्ति अनु-118 |१४||करणमेतत् , अप्पे अधरलम्बनमुखज्यादाननेत्रस्फाटनादिना विकृतानि-भयानकानि भूतादिरूपाणि विकुर्वित्वा प्रन-18 188| त्यन्ति, एवमादि विभाषेत यथा विजयदेवस्य, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत् सर्वतः समन्तात् आधाति-ईपद्धार्वति ||
परिधावन्ति-प्रकर्षेण धावम्ति, यावत्करणात् अप्पेगइआ चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगइआ बंदणकलसहत्थगया अप्पेगह-181
अनुक्रम
seroecececentercercercence
[२४०]
~83~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५], -----------------------------
---------- मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वक्षस्कारे जन्ममहे अच्यूताशावादा
[१२१]
१२२
दीप अनुक्रम
श्रीजम्बू-18|आ भिंगारहत्यमया एवं एएणं अभिलावेणं आवसथालपाईवायकरगरयणकरंडगपुष्फचंगेरीजाव लोमहत्थचंगेरीपुष्फ-
द्वीपशा-18पडलगजावलोमहत्थपडलगसीहासणछत्तचामरतिल्लसमुग्गय जाव अंजणसमुग्गय हत्थगया अप्पेगइया देवा धूवकडुच्छु- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
अहत्थगया हतु जाव हियया' इति ग्राह्य, अत्र व्याख्या-अप्येककाः चेलोरक्षेप-ध्वजोच्छ्रायं कुर्वन्ति, अप्ये- 18|| ककाः वन्दनकलाहस्तगता-मङ्गल्यघटपाणयः अप्येककाः भृङ्गारहस्तगताः, एवमनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेनानम्तरव- ॥४१९॥ ॥रित्वात् प्रत्यक्षेणाभिलापेन सूत्रपाठेन अप्येककाः आदर्शहस्तगताः स्थालहस्तगताः यावपकटुच्छुकहस्तगताः ||
आधावंति परिधावतीत्यन्वयः शेष निगदसिद्धं प्रागुक्ताभिषेकाधिकारगतेन्द्रसूत्रसमानगमत्वात् । अथाभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादसूत्रमाह
तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचइ २ ता करयलपरिग्गहिरं जाव मत्थए अंजलिं कटू जपणं विजएणं बद्धावेइ २ ता ताहिं इटाहिं जाव जयजयसई पउंजति पउँजित्ता जाव पम्हल सुकुमालाए सुरभीए गन्धकासाईए गायाई लहेइ २ सा एवं जाय कापरुक्खगंपिय अलंकिय विभूसिरं करेइ २त्ता जाव णयिहिं बदसेइ २ चा अच्छेहिं सण्हेहिं स्ययामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ सामिस्स पुरओ अमंगलगे आलिहइ, जहा-"दप्पण१ भदासर्ण २ वद्धमाण ३ बरकलस ४ मच्छ ५ सिरिवरछा ६। सोस्थिक्षणम्दावत्ता ८ लिहिआ अट्ठमंगलगा ॥१॥" लिहिण करेड़ उबयारं, किंते !, पाडलमलिअचंपगसोगपुन्नागचूअमंजरिणवमालिअवउल तिलयकणवीरकुंदकुगकोरंटपञ्चदमणगवरसुरभिगन्ध
actaceaeesekseesekese
[२४०]
eseserce
॥४१९।।
68
~84~
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मल [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
गन्धिअरस फयागहराहिमकरवळपभविष्पगुफस्स दसवण्णरस कुसुमणिभरस्स तत्थ चित्तं जण्णुरसेहप्पमाणमित ओटिनिकरं करेता चन्दणभरवणवहरवेरु लिभविमलदण्डं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकंदुरानुरुमधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवष्टिं विणिमुक्त वेरुलिअमयं कडुन्छुभ पग्गहिन्तु पयएणं धूर्व दाऊण जिणवरिदस्स सत्तह पयाई ओसरिता दसंगुलि भंजलि करिन मत्थयमि पयओ अट्ठसयविसुद्धगन्धजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अस्थजुत्तेहिं संथुणइ २त्ता वार्म जाणु अंचेइ २ त्ता जाप करबपरिमाहिले मत्थर अंजलि कटु एवं वयासी-णमोऽत्यु ते सिद्धबुद्धणीरयसमणसामाहिमसमत्तसमजोगिसलगत्तणणिम्भयणीरागदोसणिमामणिसंगणीसहमाणमूरणगुणरयणसीलसागरमणंतमप्पमेय भविभधम्मवरचाउरंतचकवट्टी णमोऽधु ते अरहोतिकटु एवं बन्दइ णभंसइ २ ताणचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे जाच पज्जुवासय, एवं जहा अपचुनस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणिअणं, एवं भवणवइवाणमन्सर जोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्ते २ अभिसिंचंति, तए ण से ईसाणे देविन्ये देवराया पच ईसाणे विउबह २ त्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयर करयलसंपुढेण गिहाइ २ ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे एगे ईसाणे पिटुओ आयवर्त घरेइ दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं फरेन्ति एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिट्ठद, तप णं से सके देविन्दे देवराया आमिओगे देवे सदावेश २ ता एसोवि तह चेव अभिसेआणत्ति देइ तेऽवि तह चेव उवणेम्ति, तए णं से सके देविन्दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउहिसिं चत्ता रि धवलवसमे बिउन्वेइ सेए संखदलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिजे अमिरुवे पडिरूवे, तए णं तेसिं चउण्हं धवलयसभाणं अट्टहिं सिंगहितो अह तोमधाराओ णिग्गच्छन्ति, तए णं ताओ अट्ट सोभधाराओ उद्धं बेहासं उप्पयन्ति २ ता एगओ मिलायन्ति
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
merserwechatnekeeReserserveercer
Sce
JaElicati
~85
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
-------------------- मुलं [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Rece
[१२२]
गाथा
श्रीजम्बू- २ ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति । तए णं से सके देविन्दे देवरावा चउरासीईए सामाणिशसाहस्सीहि एअस्सवि ५वक्षस्कारे द्वीपशा- सहेब अमिसेओ भाणिअब्बो जाव णमोऽत्थु ते अरोप्ति कट्टु बन्दइ णमंसइ जाव पब्जुवासइ (सूत्रं १२२)
जन्ममहे न्तिचन्द्री'तए णमित्यादि, ततः सोऽच्युतेन्द्रः सपरिवारः स्वामिनं तेन अनन्तरोक्तस्वरूपेण महता २-अतिशयेन महता
अच्युताया वृत्तिः भिषेकेणाभिषिञ्चति, निगमनसूत्रत्त्वान्न पौनरुत्यं, अभिषिच्य च करतलपरिगृहीतं यावत्पदसजाह्य प्राग्वत् , मस्त
शीर्वाद
शेपेन्द्राभि॥४२०॥ केऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन च-पागुक्तस्वरूपेन वर्धयति-आशिषं प्रयुङ्क्ते वर्धयित्वा च ताभिर्विशिष्टगुणोपेताभिरि- कस.
ष्टाभिः-श्रोतृणां वल्लभाभिर्यावत्करणात् 'कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वग्गूहिं' इति ग्राह्य, अन्न व्याख्या च १२२ प्राग्वत्, वाग्भिर्जयश्शब्दं प्रयुते, सम्भ्रमे द्विर्वचनं जयशब्दस्य, अत्र जयेन विजयेन वर्द्धयित्वा पुनर्जयश्शब्दप्रयोगो मंगलवचने पुनरुक्तिर्न दोषायेत्यभिहितः, अथाभिषेकोत्तरकालीन कर्त्तव्यमाह-'पउंजित्ता' इत्यादि, प्रयुज्य च यावच्छब्दात् 'तप्पढमयाए' इति ग्राह्यं, अत्र व्याख्यातेष्वभिषेकोत्तरकालीनकर्तव्येषु प्रथमतया-आद्यत्वेन पक्ष्मलसुकुमारया सुरभ्या गम्धकापायिक्या-गन्धकषायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकयेति गम्यं, गात्राणि रूक्षयति, एवमुक्त प्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवालमृतं वखालङ्कारेण विभूषितं आभरणालङ्कारेण करोति, यावत्करणात् 'लूहित्ता सरसेणं ।
॥४२०॥ गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ २ ता नासानीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगधवलं 1 कणगखचिअंतकम्मं देवदूसजुअलं निअंसावेइ २ त्ता' इति ग्राह्य, अत्र व्याख्या प्राग्वत् , नवरं देवदूष्ययुगलं परि
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
JaETY
~86
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ........-----...-------------------------------------- मलं [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
धानोत्तरीयरूपं निवासयति-परिधापयतीति कृत्वा च यावरकरणात् 'सुमिणदामं पिणद्धावेइ' इति प्राचं, नाव्यविधिमुपदर्शयति उपदर्य च अच्छैः श्लक्ष्णैः रजतमयैः अच्छरसतंडुलैः भगवतः स्वामिनःपुरतोऽष्ट अष्टमङ्गलकानि आलिखति, तद्यथा-दप्पणेति पद्यं सुगम, मङ्गलालेखनोत्तरकृत्यमाह-लिहिऊण'त्ति, अनन्तरोक्तान्यष्टमङ्गलानि लिखित्वा करोत्युपचारमित्याचारभ्य कडुच्छुकग्रहणपर्यन्तं सूत्रं चक्ररलपूजाधिकारलिखितव्याख्यातो व्याख्येयं, ततः प्रयतः सन् यथा बालभट्टारकस्य धूपधूमाकुले अक्षिणी न भवतस्तथा प्रयलवान् धूपं दत्त्वा जिनवरेन्द्राय, सूत्रे षष्ठी आर्षत्वात्, अङ्गपूजार्थं प्रत्यासेदुषा मया निरुद्धो भगवदर्शनमार्गोऽतोऽहं मा परेषा दर्शनामृतपानविनकारी स्वामिति सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य दशाङ्गुलिकं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा प्रयतो-यथास्थानमुदात्तादिस्वरोच्चारेषु प्रयलवानष्टशतैः-अष्टोत्तरशतप्रमा-11 गिविशुद्धेन ग्रन्थेन-पाठेन युक्तैर्महावृत्तः-महाकाव्यैर्यद्वा महाचरित्रैरपुनरुक्त अर्थयुक्त:-चमत्कारिव्यङ्गययुक्तैः संस्तीति ||
| संस्तुत्य च वाम जानुं अञ्चति-उत्पाटयति, अश्चित्वा च यावत्पदात् 'दाहिणं जाणुंधरणिअलंसि निवाडेई' इति ग्राह्यम्,18 IN अत्र व्याख्या प्राग्वत् , करतलपरिगृहीतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवं-वक्ष्यमाणमवादीत्, यदवादीत्तदाह-'णमोऽत्थु ते | सिद्धबुद्ध' इत्यादि, नमोऽस्तु ते-तुभ्यं हे सिद्ध एवं बुद्ध इत्यादिपदानि सम्बन्धनीयानि, तत्र हे बुद्ध!-शाततत्त्व ! हे
नीरजाः!-कर्मरजोरहित ! हे श्रमण !-तपस्विन् ! हे समाहित-अनाकुलचित्त ! हे समाप्त! कृतकृत्यत्वात् अथवा 18 सम्यक् प्रकारेणाप्त ! अविसंवादिवचनत्वात् हे समयोगिन् ! कुशलमनोवाकाययोगित्वात् शल्यकर्त्तन निर्भय नीरागद्वेष |
అంతంత మరింత
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]]
श्रीजम्बू, १४
~87
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२२]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम [२४१
-२४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [५],
मूलं [ १२२] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥४२१॥
निर्मम निस्सङ्ग-निर्लेप निःशल्य मानमूरण- मानमर्दन गुणेषु रतं - उत्कृष्टं यच्छीलं ब्रह्मचर्यं तस्य सागर अनन्त अनन्त| ज्ञानात्मकत्वात् मकारोऽलाक्षणिकः एवमग्रेऽपि अप्रमेय- प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्य अशरीरजीवस्वरूपस्य छद्मस्यैः परिच्छेतुमशक्यत्वादिति अथवाऽप्रमेय भगवद्गुणानामनन्तत्वेन सङ्ख्यातुमशक्यत्वात् भव्य - मुक्तिगमनयोग्य अत्यासन्नभवसिद्धित्वात् धर्मेण - धर्मरूपेण वरेण-प्रधानेन भावचक्रत्वात् चतुरन्तेन चतुर्गत्यन्तकारिणा चक्रेण वर्त्तत इत्येवंशीलस्तस्य | सम्बोधनं हे धर्मवर चतुरन्तचक्रवर्त्तिन् ! नमोऽस्तु तुभ्यं अर्हते - जगत्पूज्याय इति कृत्वा इति संस्तुत्य वन्दते नमस्यतीत्यादि सूत्रं प्राग्वत् यच्चात्र विशेषणवर्णकस्यादौ नमोऽस्तु ते इत्युक्त्वा पुनरपि नमोऽस्तु ते इत्युक्तं तन्न पुनरुक्तये प्रत्युत ला घवाय यतो जगत्रयप्रति स्रोतश्चारिणो जगत्रयपतेस्तत्तदसाधारण के क विशेषण विभावनात् समुद्भूतप्रणामपरिणामेन हरिणा | प्रतिविशेषणं नमोऽस्तु ते इति न प्रयुक्तमिति, इमानि च सर्वाणि विशेषणानि भव्यपदवर्जीनि भाविनि भूतवदुपचारादन्य| थाऽभिषेकसमये जिनानामेतादृश विशेषणानामसम्भवादिति । अथावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह - 'एवं जहा ' इत्यादि, एवमुक्तविधिना यथाऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा प्राणतेन्द्रस्य यावदीशानेन्द्रस्यापि भणितव्यं शक्राभिषेकस्य सर्वतश्वरमत्वात् एवं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राः सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकं २ | अभिषिञ्चन्ति । अथावशिष्टशक्रस्याभिषेकावसरः- 'तरण'मित्यादि, ततः - त्रिपष्टीन्द्राभिषेकानन्तरमीशानो देवेन्द्रो देवराजा पञ्चेशानान् विकुर्वति एकः ईशानः पञ्चधा भवति, एतदेव विभजति तत्र एक ईशानो भगवन्तं तीर्थकरं कर
For P&Praise City
~88~
चक्षुस्कारे
जन्ममहे
अच्युता
शीर्वादः
शेषेन्द्राभि
कथ स. १२२
॥४२१॥
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [५], ------------------------- -------------------- मल [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२२]
गाथा
तलसम्पुटेन गृह्णाति गृहीत्वा च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः एक ईशानः पृष्ठतः आतपत्रं धरति द्वावीशानावुभयोः पार्श्वयोः चामरोक्षेपं कुरुतः एक ईशानः पुरतः शूलपाणिस्तिष्ठति-ऊर्ध्वस्थो भवति । सम्प्रत्यव्यग्रपाणिः | शक्रो यदकरोत्तदाह-'तए ण'मित्यादि, तत:-ईशानेन्द्रेण भगवतः करसम्पुटे ग्रहणानन्तरं स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा
आभियोग्यान् देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा च एषोऽपि तथैव-अच्युतेन्द्रवदभिषेकविषयकामाज्ञप्तिं ददाति तेऽप्याभि-18 योग्यास्तथैव-अच्युतेन्द्राभियोग्यदेवा इवाभिषेकवस्तूपनयन्ति, अथ शक्रः किं चकारेत्याह-तए ण'मित्यादि, ततः-18 अभिषेकसामठ्युपनयनानन्तरं स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशि चतुरो धबलवृषभान् विकुर्व-% न्ति श्वेतान् श्वेतत्वमेव द्रढयति-शङ्खस्य दल-चूर्ण विमलनिर्मल:-अत्यन्तनिर्मलो यो दधिधनो-दधिपिण्डो बद्धं दधी-18] त्यर्थः गोक्षीरफेनः प्रतीतः रजतनिकरोऽपि एतेषामिव प्रकाशो येषां ते तथा तान् , 'पासाईए'त्यादि प्राग्वत, तदनन्तरं% किमित्याह-'तए ण'मिति, ततस्तेषां चतुर्धवलवृषभानामष्टभ्यः शृङ्गेभ्योऽटी तोयधारा निर्गच्छन्ति. ततस्ता अष्टी तो-18 यधारा अचं विहायसि उत्पतन्ति-ऊर्य चलम्ति, उत्पत्य च एकतो मिलन्ति मिलित्वा च भगवतस्तीर्थकरस्य मूर्भिर निपतन्ति । अथ शक्रः किं कृतवानित्याह-तए ण' मित्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैर्यावत् सम्परिवृतस्तैः स्वाभाविकवैकुर्विककलदौर्महता तीर्थकराभिषेकेणाभिषिञ्चति इत्या| दिसूत्रोक्तोऽभिषेकविधिः शक्रस्याच्युतेन्द्रवदस्तीति लाघवमाह-एतस्यापि तथैवाभिषेको भणितव्यः, कियदन्त इत्याह
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
SADGAGeer
~89~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], ----------------------
------------------- मलं [१२२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२]
वक्षस्कारे जिनजन्ममहे कृताभिषेकजिनानयनं सू. १२३
गाथा
श्रीजम्बू-18 यावन्नमोऽस्तु तेऽहते इति कृत्वा वन्दते नमस्यति २ त्वा यावत्पर्युपास्ते इति । अथ कृतकृत्यः शक्रो भगवतो
जन्मपुरप्रापणायोपक्रमतेन्तिचन्द्री
तए ण से सके देविदे देवराया पंच सके विज्बा २ चा एगे सके भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्डइ एगे सके पिटुओ आयवत्तं या वृचिः धोरसमा भयो पासिं चामरुक्षेत्र फरेंति एगे सके वज्जपाणी पुरओ पगार, तए णं से सके चपरासीईए सामाणिअ॥४२२॥
साहस्सीहिं जाव अण्णेहि अ भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिबुडे सचिद्धीए जाव गाइअरवेणं ताए उकिट्टाए जेणेव भगवओ तित्वयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ २ ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ २ चा तित्थयरपडिरूवर्ग पडिसाहरइ २ ता ओसोवणि पडिसाहरइ २ ता एर्ग महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीलगमूले ठबेइ २त्ता एग महंसिरिदामगं सवणिज्जलंबूसगं सुवण्णपयरगमंडिअं णाणामणिरयणविविहहारहारउवसोहिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवइ खण्णं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिहीए देहमाणे २ सुहं सुहेणं अभिरममाणे चिट्ठद, तए णं से सके देविदे देवराया बेसमणं देवं सदावेइ २ ता एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुपिआ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ वचीसं सुबष्णकोडीओ बत्तीसं गंदाई बत्तीसं भद्दाई सुभगे सुभगरूवजुषणलावण्णे अ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि २ चा एअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, तए णं से बेसमणे देवे सकेणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता भए देवे सद्दावेद २त्ता एवं वदासि-खिप्पामेव भो देवाणुपिआ! बत्तीसं हिरणकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह साहरित्ता एअमाणत्तिों पचप्पिणह, लए गं ते जंभगा देवा बेसमणेणं देवेणं
दीप अनुक्रम [२४१-२४३]
॥४२२॥
~90~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [५], -----------------------
---------- मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
seREA
प्रत सूत्रांक [१२३]
एवं वृत्ता समाणा हहह जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव च भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति २ ता जेणेव वेसमणे देवे सेणेव जाव पञ्चप्पिणति, तए ण से वेसमणे देवे जेणेव सके देविंदे देवराया जाब पञ्चप्पिणा । तए ण से सको देखिंदे देवराया ३ अमिओगे देवे सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! भगवो तित्थयरस जम्मणणयरंसि सिंघाडगजावमहापहपहेसु मया र सद्देणं उम्पोसेमाणा २ एवं बदह-हंदि सुणतु भवतो बहने भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ अ जे णं देवाणुप्पिा ! तिस्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेर तस्स गं अजगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट उत्तिक घोसणं घोसेह २ चा पत्रमाणत्ति पञ्चप्पिणहत्ति, तए ण ते आमिओगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुगंति २ सा सकस देविंदस्स देवरणो अंतिआओ पडिणिक्खमंति २खिप्पामेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरसि सिंघाडग जाब एवं बयासी-हंदि सुणतु भवतो बहवे भवणवइ जाय जेणं देवाणुप्पि! तित्थयरस्स जाव फुट्टिहीतित्तिक घोसणगं घोसंति २त्ता पममाणत्ति पञ्चप्पिणंति, तए णं ते महये भवणवइयाणमंतरजोइसवेमाणिआ देवा भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिम फरेंति २ चा जेणेव गंदीसरदीवे तेणेव उवागच्छति २ ता अवाहियाओ महामहिमाओ करेंति २ जामेव दिसि पाउन्भूभा तामेव दिसिं पढिगया (सूत्र १२३)
दीप अनुक्रम [२४४]
'तए ण' मित्यादि प्राग्वत् । अथ जम्मनगरप्रापणाय सूत्रं-'तए ण'मित्यादि, ततः स शक्रः पञ्चरूपविकुर्वणानन्तरं . चतुरशीत्या सामानिकसहयोवत् सम्परिवृतः सर्वा यावन्नादितरवेन तयोत्कृष्टया दिव्यया देवगल्या व्यतिनजन् २
~91
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप
अनुक्रम
[२४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [१२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्रीया इति
॥४२३॥
यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च जन्मभवनं यत्रैव च तीर्थकरमाता तत्रैवोपागच्छतीति उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकरं मातुः पार्श्वे स्थापयति स्थापयित्वा च तीर्थकरप्रतिविम्बं प्रतिसाहरति प्रतिसंहृत्य चावस्वापिनीं प्रतिसंहरति प्रतिसंहृत्य चैकं महत् क्षोमयोः - दुकूलयोर्युगलं कुण्डलयुगलं (च) भगवतस्तीर्थकरस्योच्छीर्षकभूले स्थापयति, स्थापयित्वा च एकं महान्तं श्रीदाम्नां - शोभावद्विचित्ररत्नमालानां गण्डं-गोलं वृत्ताकारत्वात् काण्डं वा-समूहः श्रीदामगण्डं श्रीदामकाण्डं वा भगवतस्तीर्थकरस्योल्लोचे निक्षिपति अवलम्बयतीति क्रियायोगः, 'तपनीये' त्यादि पदत्रयं प्राग्वत्, नानामणिरत्नानां ये विविधहारार्द्धहारास्तैरुपशोभितः समुदाय: - परिकरो येषां ते तथा, अयमर्थः श्रीमत्यो | रत्नमालास्तथा प्रथयित्वा गोलाकारेण कृता यथा चन्द्रगोपके मध्यझुम्बनकतां प्रापिताः हारार्द्धहाराञ्च परिकरझुम्बनकताम् । उक्तस्वरूपझुम्बनकविधाने प्रयोजनमाह - 'तण्ण' मिति प्राग्वत्, भगवांस्तीर्थकरोऽनिमिषया-निर्निमिषया दृष्ट्या अत्यादरेण प्रेक्षमाणः २ सुखसुखेनाभिरममाणो - रतिं कुर्वस्तिष्ठति । अथ वैश्रमणद्वारा शक्रस्य कृत्यमाह - 'तए ण' मित्यादि, ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा वैश्रमणं उत्तर दिक्पालं देवं शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत् - क्षिप्र मेव भो देवानुप्रिय ! द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी: द्वात्रिंशतं सुवर्णकोटी: द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्तलोहासनानि द्वात्रिंशतं | भद्राणि-भद्रासनानि सुभगानि - शोभनानि सुभगयौवनलावण्यानि रूपाणि-रूपकाणि यत्र तानि तथा, सूत्रे पदव्यत्यय आर्षत्वात्, चः समुच्चये, भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवने संहर आनयेत्यर्थः संहृत्य च एनामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पय, ततः स वैश्रमणो
For P&Praise Cly
~92~
CARAZAR
वक्षस्कारे जिनजन्म
महे कृताभिषेकजि
नानयनं सू. १२३
॥४२३॥
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [५],----------------------------
---------- मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२३]
दीप अनुक्रम [२४४]
देवः शक्रेण यावत्पदात् 'देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हतुट्ठचित्तमाणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' इति ग्राह्य,
विनयेन वचनं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य च जृम्भकान् देवान् तिर्यग्लोके वैताब्यद्वितीयश्रेणिवासित्वेन तिर्यग्लोकगत। निधानादिवेदिनः शब्दयति २ त्वा चैवमवादीत् , शेषमनुवादसूत्रत्वात् सुबोधम् , अथास्मासु स्वस्थानं प्राप्तेषु निःसौ-13
न्दर्याः सौन्दर्याधिके भगवति मा दुष्टा दुष्टदृष्टिं निक्षिपन्विति तदुपायार्थमाह-'तए ण'मित्यादि, ततो-वैश्रमणेनाज्ञाप्रत्यर्पणानन्तरं स शकः ३ अभियोगान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानु-18 प्रिया! भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरे शृङ्गाटकयावन्महापधपधेषु महता २ शब्देन उद्घोषयन्तः २ एवं वदत-हन्त !
इति प्राग्वत् शृण्वन्तु भवन्तो बह्वो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाश्च देव्यश्च योऽनिर्दिष्टनामा देवानांप्रि18 या! इति सम्बोधनं भवतां मध्ये तीर्थकरस्य मातुर्वोपर्यशुभं मनः प्रधारयति-दुष्टं सङ्कल्पयति तस्य 'आर्यकमञ्ज
रिकेव' आर्यको-वनस्पतिविशेषो यो लोके आजओ इति प्रसिद्धस्तस्य मञ्जरिका इव भूर्द्धा शतधा स्फुटस्वितिकृत्वा18 इत्युक्त्वा घोषणं घोषयत, घोषयित्वा चैतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति, अथ ते यच्चक्रुस्तदाह-तए ण'मित्यादि व्यक्त 18| अनुवादसूत्रत्वात् , अथ निगमनसूत्रमाह-'तए 'मिति, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा भगवतस्तीर्थकरस्य 18
जन्ममहिमानं कुर्वन्ति, कृत्वा च सिद्धसमीहितकार्याः मङ्गलाई यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागल्या-18 साह्निकामहामहिमा:-अष्टदिननिर्वर्तनीयोत्सवविशेषान् कुर्वन्ति, बहुवचनं चात्र सौधर्मेन्द्रादिभिः प्रत्येक क्रियमाण-18|
~93~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप
अनुक्रम [२४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [ ५ ],
मूलं [१२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥४२४॥
Ja Ekemon in
त्वात्, अत्र यस्येन्द्रस्य यस्मिन् अञ्जनगिरी येषु च दधिमुखगिरिषु तल्लोकपालानां अष्टाहिकाधिकारः स प्राक् ऋभदेवनिर्वाणाधिकारे उक्त इति नात्र लिख्यते ॥
इति सातिशयधर्मदेशनारस समुल्लासविस्मयमानऐ दंयुगीननराधिपतिचक्रवर्त्तिसमान श्री अकबरसुरत्राणप्रदत्तषाण्मासिक सर्व जगज्जन्तुजाता भयप्रदानशत्रुञ्जयादिकर मोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमान युगप्रधानोपमान साम्प्रत विजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराज श्रीहीरविजयसूरीश्वपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्याय श्रीसकल चन्द्रगणिशिष्योपाध्याय श्रीशान्तिचन्द्रग णिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञतिवृत्तौ प्रमेयरत्नमञ्जूषानायां तीर्थकुजन्माभिषेकाधिकार वर्णनो नाम पञ्चमो वक्षस्कारः ॥ ५ ॥
अत्र पञ्चम वक्षस्कार: परिसमाप्तः
For P&Pase Cnly
~94~
५वक्षस्कारे
जिनजन्म
महे कृताभिषेकजि
नानयनं स्. १२३
॥४२४॥
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [६], -----------------------
----- मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
अथ षष्ठो वक्षस्कारः॥६॥
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप अनुक्रम
पृष्टं जम्बूद्वीपान्तर्वर्ति स्वरूपं, सम्प्रति तस्यैव चरमप्रदेशस्वरूपप्रश्नायाहजंधुद्दीवस्स गं भंते ! दीवस्स पदेसा लवणसमुई पुट्ठा?, इंता पुट्ठा, ते णं भंते ! कि जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुहे ?, गोभमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे, एवं लवणसमुदस्सवि पएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणिअव्वा इति । जंबुदीने गं भंते ! जीवा उदाइत्ता । २ लवणसमुद्दे पञ्चायति ?, अस्थगइआ पञ्चायति अत्यंगइआ नो पञ्चायंति, एवं लवणस्सबि जंबुद्दीवे दीवे णेअव्वमिति (सूत्र १२४) ।
वहीवस्स ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् द्वीपस्य प्रदेशा लवणसमुद्रशब्दसहचाराचरमप्रदेशा इति 18व्याख्येयं अन्यथा जम्बूद्वीपमध्यवर्तिप्रदेशानां लवणसमुद्रस्य संस्पर्शसम्भावनाया अभावात् लवणसमुद्रं स्पृष्टाः
| स्पृष्टवन्तः, कर्तरि तप्रत्ययः, अन्न काकुपाठात् प्रश्नसूत्रावगतिः, भगवानाह-हन्ता ! इति प्रत्यवधारणे । अथ सम्प्रदा-18 | यादिना द्वीपानन्तरीयाः समुद्राः समुद्रानन्तरीया द्वीपाः तेन ये यदनन्तरीयास्ते तत्संस्पर्शिन इति सुज्ञानेऽप्यस्मिन् 8 प्रष्टव्येऽर्थे यत् प्रश्नविधानं तदुत्तरसूत्रे प्रश्नवीजाधानायेति तदाह-ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा भदन्त ! किं जम्बूद्वीपो द्वीपः18 उत इति गम्यस्तेन लवणसमुद्रो वा इत्यर्थः, पृच्छतोऽयमाशयः यद्येन स्पृष्टं तत्किश्चित्तव्यपदेशं लभते किश्चित्
[२४५]
अथ षष्ठ-वक्षस्कार: आरभ्यते
~95
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [६],-----------------...........
----- मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
264
प्रत
सूत्रांक
[१२४]
दीप अनुक्रम
श्रीजम्यू-18 पुनर्न तथा, यथा तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गलिज्येष्ठवेति, तेन जम्बूद्वीपचरमप्रदेशाः लक्मसमुद्रं स्पृष्टाः कथं व्यपदेश्याः, || वक्षस्कारे
द्वीपशा- % अत्रोत्तर-गौतम ! निपातस्यावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीप एव द्वीपः जम्बूद्वीपसीमावर्तित्वात् न ||६|| न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
खलु ते लवणसमुद्रो, जम्बूद्वीपसीमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमप्राप्तत्वात् किन्तु स्वसीमागता एव लवणसमुद्रं | स्पृष्टास्तेन तटस्थतया संस्पर्शभवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गलिरिव स्वव्यपदेशं लभते, एवमुक्तरीत्या लवणसमुद्र-18||
त्पादौ मू.
१२४ ॥४२५॥
स्थापि चरमप्रदेशा जम्बूद्वीपं स्पृष्टा न जम्बूद्वीपः किन्तु लवणसमुद्रो लवणसमुद्रसीमावर्तित्वादित्यादि भणितव्यम् । अनन्तरसूत्रे जम्बूद्वीपलवणोदयोः परस्परमव्यपदेश्यता उक्का, सम्प्रति तयोरेव जीवानां परस्परमुत्पत्याधारता पृच्छयते इत्याह-'जंबुद्दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे जीवा अवद्राय २-मृत्वा २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्तिआगच्छन्ति, अत्रापि काकुपाठात् प्रभावगतिः, भगवानाह-गौतम ! अस्तीति निपातोऽत्र बह्वर्थः, सन्त्येकका जीवा येऽवद्राय २ लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति सन्त्येकका ये न प्रत्यायान्ति, जीवानां तथा तथा स्वकर्मवशतथा गतिवैचित्र्य| सम्भवात् , एवं लवणसमद्रसूत्रमपि भावनीयम् ॥ सम्प्रति प्रागुक्तानां जम्बूद्वीपमध्यवर्सिपदार्थानां सङ्ग्रहगाथामाहबंडा १ जोषण २ वासा ३ पन्वय ४ कडा ५ य तित्य ६ सेडीओ ७ । विजय दह ९सलिलाओ १० पिंडए होइ संगहणी ॥ १॥
ह ॥४२५॥ जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहिं खंडेहि केवइ खंडगणिएणं पं०,१ गो।। णला खंडसर्व संखगणिएणं पण्णते । जंयुहरीवेणं भंते ! दीये केवइयोअणगणिएणं पण्णते?, गोअमा! सत्तेव य कोडिसया णउआ छप्पण्ण सबसहरसाई। चषणवई च सह
[२४५]
~96~
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
दीप
अनुक्रम [२४६
-२४९]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
स्सा मयं दिवद्धं च गणिअपयं ॥ १ ॥ जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कति बासा पण्णत्ता !, गोजमा ! सत्तवासा, तंजहा भरहे एखए हेमar हिरण्णव हरिवासे रम्मगवासे महाविदेहे, जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता केवइआ मंदरा पापण्णत्ता के इआ चित्तकूडा केवइआ विचित्तकूडा केवइआ जमगपध्वया फेवइआ कंचणपब्वया केवइआ वक्खारा केवइआ दीहवेडा केवहा अद्धा पण्णत्ता ? गोअमा ! जंबुद्दीवे छ बासहरपब्वया एगे मंदरे पव्वए एगे चित्तकूडे एगे विचिन्तकूडे दो जमगपब्वया दो कंपन्या वीसं चक्खापव्वया चोत्तीसं दीहवेअद्धा चत्तारि वट्टवेअद्धा, एवामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे दुष्णि उत्तर पश्वयया भवतीतिमवखायंति। जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे केवइआ वासहरकूडा केवइआ क्क्खारकूडा केवइआ वेद्धकूडा केवइआ मंदरकूडा पं० १, गो० ! छप्पण्णं वासहरकूडा छण्णउई वक्खारकूडा तिणि उत्तरा बेमकूटसया नव मंदरकडा पण्णत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे चत्तारि सत्तट्ठा कूढसया भवन्तीतिमवखायं । जंबुद्दीवे दीवे भरवा
तिस्था पं० १, गो० ! तओ तित्था पं० सं०-मागहे वरदामे पभासे, जंबुद्दीवे २ एरवए वासे कति तित्था पं० १, गो० ! तो तिस्था पं० तं०- माग वरदाने पभासे, एवामेव सत्युधावरेणं जंबुद्दी० महाविदेहे वासे एगमेगे चकवट्टिविजए कति तित्था पं० १, गो० तओ तित्था पं० तं० - माग बरदामे पभासे, एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे २ एगे विउत्तरे तित्यसए भक् श्रीतिमवखार्यति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ विज्जाहरसेटीओ केवइआ आमिओगसेडीओ पं० १, गो० ! जंबुद्दीवे दीवे असही विजाहरसेडीओ अट्टसट्टी आभिओगसेढीओ पण्णचाओ, एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसे सेढिसए भवतीतमक्खायं, जंबुद्दीवे दीवे केवइआ चकवट्टिविजया केवइआओ रायहाणीओ केवइआओ तिमिसगुहाओ केवइआओ खंडप्पा
~97~
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२५ ]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२४६-२४९]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [६],
मूलं [ १२५] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥४२६॥
गुहा केवइआ कयमालया देवा केवइया गट्टमाख्या देवा के वइआ उसभकूड़ा पं० १, गो० ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चकवट्टषिजया पोती रायद्दाणीओ चोसीसं तिमिसगुहाओ चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ चोत्तीसं कयमालया देवा चोत्तीसं णट्टमालया देवा चोती उसभकूडा पथवा पं०, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केबइमा महद्दहा पं० १, गो० ! सोलस महदहा पण्णत्ता, जंबुदीवे णं भंते! दीवे केवइयाओ महाणईओ वासहर पबहाओ केवइआओ महाणईओ कुंडप्पवहाओ पण्णत्ता ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ चोदस महाणईओ वासहरपन्बहाओ छावतारं महाणईओ कुंडप्पबहाओ एवामेव सपुब्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे उतिं महाणईओ भवतीतिक्वायं । जंबुद्दीवे २ भरहेरवएस वासेसु कइ महाणइओ पं० ?, गोअमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, सं०गंगा सिंधू रत्ता रत्तवई, तत्थ णं एगमेगा महाणई चउदसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरत्थिमपचत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पे, एवामेव सपुत्रावरणं जंबुद्दीचे दीवे भरहrary वासेसु छप्पण्णं सलिलासहस्सा भवतीतिमक्खायंति, जंबुद्दीने णं भंते ! हेमवय रणवसु वासेसु कति महाणईओ पण्णत्ताओ?, गो० ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओं, संजा – रोहिता रोहिअंसा सुवण्णकूछा रूप्पकूला, तत्थ णं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समम्गा पुरत्थिमपचत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, एवामेव सपुवावरेणं जंयुद्दीचे २ हेमवय हेरण्णवसु वासेसु बारसुत्तरे सलिलासय सहस्से भवतीति मक्खायं इति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे हरिषारम्भगवा से कइ महाणईओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, संजहा— हरी हरिकंता नरकंताणारिकता, तत्थ णं एगमेगा महाणई छप्पण्णाए २ सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरत्थिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पे, एवामेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीवे २ हरिवासरम्मगवासेसु दो चवीसा सलिलासयसहस्सा भवतीतिमक्खायं, जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे महा
For P&P Cy
~98~
खण्डयोज - नादिपिण्डः स्. १२५
॥४२६ ॥
ayurg
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
विदेहे वासे कइ महाणईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! दो महाणईओ पण्णत्ताओ, वंजहा.-सीआ य सीओआ य, तत्थ णं एगमेगा महाणई पंचहि २ सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, एयामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दस सलिलासयसहस्सा चउसहि च सलिलासहस्सा भवन्तीतिमक्खायं । जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दक्खिणेणं केवड्या सलिलासयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमामिमुहा लवणसमुदं समप्पंति, ग्रो० ! एने छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिमपञ्चत्विमाभिमुहे लवणसमुदं समप्पेवित्ति, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीये मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमाभिमुहा लवणसमुई समप्येति ?, गो०! एगे ठण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिमपञ्चत्थिमाभिमुहे जाव समप्पेइ, जंबुडीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिलासयसहस्सा पुरस्थाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेंति ?, गो० ! सन्त सलिलासबसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समप्पेति, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिलासयसहस्सा पचत्विमाभिमुहा लवणसमुई समप्पेंति ?, गोअमा! सत्त सलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समप्पैति, एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीचे चोइस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवतीतिमक्खायं इति (सूत्र १२५)
'खंडा जोअण' इत्यादिसङ्ग्रहवाक्यस्य सङ्क्षिप्सत्वेन दुर्बोधत्वात् सूत्रकृदेव प्रश्नोत्तररीत्या विकृणोति, तत्र सूत्रम्-'जबु-18 दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपो भदन्त! द्वीपो भरतप्रमाण-षट्कलाधिकषड्विंशतियोजनाधिकपञ्चशतयोजनानि तदेव मात्रा-11 ||| परिमाणं येषां तानि तथा एवंविधः खण्ड:-शकलैः इत्येवंरूपेण खण्डगणितेन-खण्डसहयया कियान् प्रज्ञप्त, भगवा-1
Faccerseaserwecasseseerataesesea
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
बीजम् ७२
~99~
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------- -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
की नाह-गौतम ! नवत्यधिक खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तः, कोऽर्थः?-भरतप्रमाणैः खण्डैर्नवत्यधिकशतसङ्ख्यामिलितैर्ज-1 वक्षस्कारे
द्वीपशा-18|म्बूद्वीपः सम्पूर्णलक्षप्रमाणो भवति, तत्र दक्षिणोत्तरतः खण्डमीलना प्राक् भरताधिकारवृत्ती चिन्तितेति न पुनरुच्यते, खण्डयोजस्तिचन्दी- पशिमतस्त यद्यपि खण्डगणितविचारणासूत्रे न कृता वनमुखादिभिरेव लक्षपूर्तेरभिधानात तथापि खण्डगणितवि- ..' या वृत्तिःचारे क्रियमाणे भरतप्रमाणानि तावन्त्येव खण्डानि भवन्ति, अथ 'योजने'तिद्वारसूत्रम्-'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, जम्बू
प.१२५ द्वीपो भदन्त ! द्वीपः कियान् योजनगणितेन-समचतुरस्रयोजनप्रमाणखण्डसर्वसाया प्रज्ञप्तः१, भगवानाह-गौतम सप्त कोटिशतानि एवोऽवधारणे च उत्तरत्र सङ्ख्यासमुच्चयार्थः नवतानि-नवतिकोव्यधिकानीति व्याख्येयं प्रस्तावात्, | अन्यथा कोटिशततो द्वितीयस्थाने सत्सु लक्षादिस्थानेषु नवदशकरूपा नवतिर्ने युज्यते गणितशास्त्रविरोधात्, तथा षट्पञ्चाशच्छतसहस्राणि लक्षाणीत्यर्थः चतुर्नवतिश्च सहस्राणि शतं च यई-साई पञ्चाशदधिक योजनानामित्येताथप्रमाणं जम्बूद्वीपस्थ गणितपदं क्षेत्रमित्यर्थः, सूत्रे च योजनसङ्ख्यायाः प्रकान्तत्वात् योजनावधिरेव सह्या | निर्दिष्टा अन्यत्र तु भगवतीवृत्त्यादौ साधिकत्वं विवक्षितं, तच्चेदम्-'गाउअमेगं पण्णरस घणुस्सया तह य धणूणि || ॥ पण्णरस । सदिच अंगुलाई जंबुद्दीवस्स गणिअपयं ॥१॥" इति, इयं च व्यक्तैव १ गा० १५१५ प. ६००,
॥४२७॥ 18|| करणं चात्र-'विक्खंभपायगुणिओ अ परिरओ तस्स गणिअपर्य' इति वचनात् जम्दीपपरिधिखिलक्षषोडश। सहन द्विशतसप्तविंशतियोजनादिको जम्बूद्वीपविष्कम्भस्य लक्षरूपस्य पादेन-चतुर्थाशेन पञ्चविंशतिसहस्ररूपेण ॥
Da
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
eccha
JaEcrimil
~100
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [६], ------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
weseceserderieeeeeeeeee
| गुणितो जम्बूद्वीपगणितपदमिति, तथाहि-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिम्रो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके
योजनानां तथा गव्यूतत्रयं अष्टाविंशत्यधिक शतं धनुषां त्रयोदशाङ्गुलानि एक चा ङ्गुलं, यवादयस्तु श्रीजिन| भद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतक्षेत्रविचारसूत्रवृत्त्यादौ न विवक्षिता अतो न तद्विवक्षा क्रियते, तत्र योजनराशौ पञ्च-18
विंशतिसहस्त्रैर्गुणिते सप्तकोटिशतानि नवतिकोटयः षट्पञ्चाशलक्षाः पश्चसप्ततिः सहस्राणि भवन्ति, तथा क्रोशत्रये पञ्चशविंशतिसहस्रगुणिते जातं पञ्चसप्ततिसहस्राणि गव्यूतानां, एषां च योजनानयनार्थं चतुर्भिर्भागे हृते लब्धान्यष्टादश सहस्राणि सप्त शतानि, पश्चाशदधिकानि योजनानां, अस्मिंश्च सहस्रादिके पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि ९३ सहस्राणि | शतानि ५० अधिकानि कोट्यादिका सङ्ख्या तु सर्वत्र तथैव, तथा धनुषामष्टाविंश शतं पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुण्यते जाता द्वात्रिंशलक्षा धनुषा ३२००००० अष्टाभिश्च धनुःसहस्रैर्योजनं भवति ततो योजनानयनार्थमष्टाभिः सहस्रैर्भागे । | लब्धानि चत्वारि योजनशतानि अस्मिंश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि ९४ सहस्राणि शतं पञ्चाशदधिकं, अङ्गुलान्यपि ॥ त्रयोदश पञ्चविंशतिसहस्रैर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि लक्षाणि पञ्चविंशतिसहस्राधिकानि अङ्गुिलमपि पञ्चविंशतिसहस्रर
भ्यस्यते जातान्यर्धाङ्गुलानां पञ्चविंशतिसहस्राणि तेषामढ़ें लब्धान्यङ्कलानां द्वादश सहस्राणि पञ्चशताधिकानि तेषु । पूर्वोक्ताङ्गुलराशौ प्रक्षिप्तेषु जातोऽङ्गुलराशिस्त्रीणि लक्षाणि सप्तत्रिंशत्सहस्राणि पञ्चशताधिकानि एषां धनुरानयनाय पिण्णवत्या भागे हृते लब्धानि धनुषां पश्चत्रिंशच्छतानि पञ्चदशाधिकानि शेष पष्टिरमुलानि, अस्य धनूराशेर्गव्यूतानय
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
cene
~101
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२५]
श्रीजम्बू-18/नाय सहस्रद्वयेन भागे हते लब्धमेकं गव्यूतं शेष धनुषां पञ्चदश शतानि पञ्चदशाधिकानि, सर्वाग्रेण जातमिद-योजना-1 को
द्वीपशा- नां सप्त कोटिशतानि नवतिकोव्यधिकानि षट्पञ्चाशल्लक्षाश्चतुपर्णवतिसहस्राणि शतमेकं पञ्चाशदधिकं तथा गन्यूतमेकं खण्डयोजन्तिचन्द्री
धनुषां पञ्चदशशतानि पञ्चदशाधिकानि अङ्गलानां षष्टिरिति । गतं योजनद्वारं, अथ वर्षाणि-'जंबुद्दीने 'मित्यादिनादिपिण्डः या वृत्तिः
व्यकं । अथ पर्वतद्वार-'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि प्रश्नसूत्र व्यक्तं, उत्तरसूत्रे सङ्ख्यामीलनाय किश्चिदुच्यते-षट् वर्षधराः स. १२५ क्षुल्लहिमवदादयः एको मन्दरो मेरुः एकश्चित्रकूट: एकश्च विचित्रकूटः, एतौ च यमलजातकाविव द्वौ गिरी देवकुरुवर्तिनी, द्वौ यमकपर्वती तथैवोत्तरकुरुवर्तिनी, द्वे काञ्चनकपर्वतशते देवकुरूत्तरकुरुवर्तिहददशकोभयकूलयोः प्रत्येक दशरकाञ्चनकसद्भावात् , तथा विंशतिर्वक्षस्कारपर्वताः, तत्र गजदन्ताकारा गन्धमादनादयश्चत्वारः तथा चतुःप्रका-18 रमहाविदेहे प्रत्येक चतुष्करसद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिता यथोक्तसङ्ख्याकाः, तथा चतु
स्त्रिंशद्दीर्घवैताच्या द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतैरावतयोश्च प्रत्येकमेकैकभावात्, चत्वारो वृत्तवैताट्याः हैमवतादिषु चतुर्पु वर्षेषु । 18 एकैकभावात् , 'एवामेव सपुबावरेणं'ति प्राग्वत् , जंबूद्वीपे द्वीपे एकोनसप्तत्यधिके द्वे पर्वतशते भवतः इत्याख्यातं । 18 मयाऽन्यैश्च तीर्थकृभिः। अथ कूटानि, तत्र सूत्र-जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति वर्षधरकूटानि इत्या-14 18| दिप्रश्नसूत्र व्यक्तं, उत्तरसूत्रे षट्पञ्चाशद्वर्षधरकूटानि, तथाहि-क्षुद्रहिमवतशिखरिणोः प्रत्येकमेकादश २२ महाहिमव
॥४२८॥ द्विक्मिणोः प्रत्येकमष्टौ १६ निषधनीलवतोः प्रत्येकं नव १८ सर्वसङ्ख्यया ५६, वक्षस्कारकूटानि षण्णवतिः, तद्यथा-सर-11
eamesesence
गाथा:
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~1024
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ----------------------- -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
लवक्षस्कारेषु षोडशसु १६ प्रत्येकं चतुष्टयभावात् ६४ गजदन्ताकृतिवक्षस्कारेषु गन्धमादनसौमनसयोः सप्त १४ मा-11 ल्यवद्विद्युत्मभयोः नव १८ इति उभयमीलने यथोक्कसङ्ख्या, त्रीणि पडुत्तराणि वैताब्यकूटशतानि, तत्र भरतैरावतयोविजयानां च वैतात्येषु चतुर्विंशति प्रत्येक नवसम्भवादुक्कसङ्ख्यानयनं, वृत्तवैताब्येषु च कूटाभावः अत एव वैताव्यसूत्रे न दीर्घपदोपादानं विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वात् अत्र च व्यवच्छेद्यस्याभावादिति, मेरौ नव, तानि च नन्दन-5 वनगतानि ग्राह्याणि न भद्रशालवनगतानि दिग्रहस्ति कूटानि, तेषां भूमिप्रतिष्ठितत्वेन स्वतन्त्रकूटत्वादिति, सङ्ग्रहणिगाथायां 'पषयकूडा ये'त्यत्र चोऽनुक्कसमुच्चये तेन चतुर्विंसद् ऋषभकूटानि तथा अष्टौ जम्बूवनगतानि तावन्त्येव शा-18 ल्मलीवनगतानि भद्रशालवनगतानि च सर्वसङ्ख्ययाऽष्टपञ्चाशत्सङ्ख्याकानि ग्राह्याणि, ननु तर्हि एतद्गाथाविवरणसूत्रे | 'चत्तारि सत्तसहा कूडसया' इत्येवंरूपे सङ्ख्याविरोधः, उच्यते, एषां गिर्यनाधारकत्वेन स्वतन्त्रगिरित्वान्न कूटेषु गणना, ISI
| अयमेवाशय ऋषभकूटसाबासूत्रपृथक्करणेन सूत्रकृता स्वयमेव दर्शयिष्यते, यच्च प्राक् ऋषभकूदाधिकारे 'कहि णं | Iभंते ! जंबुद्दीवे उसभकूडे णामं पञ्चए पण्णत्ते' इति सूत्र, तच्छिलोच्चयमात्रतापरं व्याख्येयमिति सर्व सम्यकू, अथ 18|| तीर्थानि-'जंबुद्दीवे' इत्यादि,मक्षसूत्रे तीर्थानि चक्रिणां स्वस्वक्षेत्रसीमासुरसाधनार्थ महाजलावतारणस्थानानि, उत्तर-॥
सूत्रे भरते वीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मागधं पूर्वस्यां गङ्गासङ्गमे समुद्रस्य वरदाम दक्षिणस्यां प्रभासं पश्चिमायां सिंधुसंगमे समुद्रस्य एवमैरावतसूत्रमपि भावनीयं, नवरं नद्यौ चात्र रक्तारक्तवत्यौ तयोः समुद्रसङ्गमे मागधप्रभासे
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~103
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 वरदामाख्यं च तत्रत्यापेक्षया तथैव, विजयसूत्रे चायं विशेष:-विजयसत्कगङ्गादि४महानदीनां यथाई शीताशीतो- वक्षस्कारे
द्वीपक्षा- दयोः सङ्गमे मागधप्रभासाख्यानि भावनीयानि वरदामाख्यानि तेषां मध्यगतानि भाव्यानि, एवमेव पूर्वापरमीलनेन खण्डयोजन्तिचन्द्री-18
एक व्युत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातमिति । अथ श्रेणय:-'जंबहीये' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे गौतम! नादापण्ड: या चिः | अंबूद्वीपे द्वीपे अष्टषष्टिविद्याधरश्रेणयः-विद्याधरावासभूता वैताढ्यानां पूर्वापरोदध्यादिपरिच्छिन्ना आयतमेखला भवन्ति, ISI
सू. १२५ ॥४२९॥ चतुस्विंशत्यपि वैताश्येषु दक्षिणत उत्तरतश्च एकैकश्रेणिभावात. तथैवाष्टपष्टिराभियोग्यश्रेणयः, एवमेव पूर्वापरमी-18|
लनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे पत्रिंश-पत्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीत्याख्यातं । अथ विजया:-'जंबुद्दीये'त्ति प्रश्नसूत्रं व्यक्तं, उत्तरसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्विंशचक्रवर्तिविजयाः तत्र द्वात्रिंशन्महाविदेहविजया द्वे च भरतैरावते उभयोरपि चक्रवर्तिविजेतव्यक्षेत्रखण्ड रूपस्य चक्रवर्तिविजयशब्दवाच्यस्य सत्त्वात् , एवं चतुस्त्रिंशद्राजधान्यश्चतुर्विंशत्तमिम्रागुहाः प्रतिवैताब्यमेकैकसम्भवात् एवं चतुर्विंशत् खण्डप्रपातगुहाः चतुस्त्रिंशत्कृतमालका देवाः चतुस्त्रिंशन्नक्तमालका देवाश्चतुर्विंशत् ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ता, प्रतिक्षेत्र सम्भवतश्चक्रवर्तिनो दिग्विजयसूचकनामन्यासार्थमेकैकसद्भावात्, | यचात्र विजयद्वारे प्रकान्ते राजधान्यादिप्रश्नोत्तरसूत्रे तद् विजयान्तर्गतत्वेनेति । अथ इदा:-'जंबुद्दीवे २' इत्यादि प्रश्नसूत्र | ॥४२९॥
| व्यक्तं, उत्तरसूत्रे पोडश महाहदाः षट् वर्षधराणां शीताशीतादयोश्च प्रत्येकं पञ्च पञ्च । अथ सलिला:-'जंबुद्दीचे' इत्यादि, | 18|| जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो महानद्यो वर्षधरेभ्यः-'तास्थ्यात् तद्व्यपदेश' इति वर्षधरहदेभ्यः प्रवहन्ति-निर्गच्छन्तीति वर्षध-18
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~104
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
रप्रवहाः, अन्यथा कुण्डप्रभवाणामपि वर्षधरनितम्बस्थकुण्डप्रभवत्वेन वर्षधरप्रभवा इति वाच्यं स्यात् , कियत्यः कुण्डप्रभवा-वर्षधरनितम्बवर्तिकुण्डनिर्गताः प्रज्ञप्ताः?, गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश महानद्यो वर्षधरहदप्रभवा भरतगङ्गादयः प्रतिक्षेत्रं द्विद्विभावात् , कुण्डप्रभवाः षट्सप्ततिर्महानद्यः, तत्र शीताया उदीच्येष्वष्टसु विजयेषु शीतोदाया याम्येप्वष्टसु विजयेषु च एकैकभावेन षोडश गङ्गाः षोडश सिन्धवश्च तथा शीताया थाम्येष्यष्टसु विजयेषु शीतोदाया उदीच्ये-18 विष्टसु विजयेषु चैकैकभावेन षोडश रक्ता रक्तावत्यश्च, एवं चतुःषष्टिः द्वादश च प्रागुक्का अन्तर्नयः सर्वमीलने षट्स
तिरिति कुण्डप्रभवानां तु शीताशीतोदापरिवारभूतत्वेनासम्भवदपि महानदीत्वं स्वस्वविजयगतचतुर्दशसहस्रनदी18 परिवारसम्पदुपेतत्वेन भाव्यं, एवमेव सपूर्वापरेण चतुईशषट्सप्ततिरूपसङ्ख्यामीलनेन जम्बूद्वीपे नवतिर्महानद्यो भवन्ती त्या
ख्यातमिति। अधतासां चतुर्दशमहानदीना नदीपरिवारसयां समुद्रप्रवेशदिशं चाह-'जंबुद्दीवे इत्यादि व्यक्तं, नवरं यद् भरतैरावतयोयुगपद्महणं तत्समानक्षेत्रत्वात् , भरते गङ्गा पूर्वलवणसमुद्रं सिन्धुः पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, 18 ऐरावते च रक्ता पूर्वसमुद्रं रक्तावत्यपरसमुद्रं च, तथा 'जंबुद्दीवेत्ति निगदसिद्धं, नवरं हैमवतहरण्यवतयोः समानयुमिक्षेत्रत्वेन सहोक्तिः, हैमवते रोहिता पूर्व लवणं रोहितांशा पश्चिमं हिरण्यवते सुवर्णकूला पूर्व लवणं रूप्यकूला ||81 पश्चिम एवमेव पूर्वापरमीलनेन जम्बूद्वीपे हैमवतहरण्यवतयोः क्षेत्रयोर्द्वादशसहस्रोत्तरं नदीशतसहस्रं भवत्येवमाख्यातं, अत्र शतसहस्रशब्दसाहचर्यादग्रसङ्ख्यायां द्वादशोत्तराणीत्यत्र सहस्राणि प्रतीयन्ते, अन्यथा (द्वादशाधिकत्वे अर्ध-)
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
99990000a0asa99900
~105
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 पट्पञ्चाशत्सहस्राणां चतुर्गुणने सङ्ख्याशास्त्रबाधः स्यात् , दृश्यते च शब्दसाहचर्यादर्थप्रतिपत्तिर्यथा रामलक्ष्मणावित्यत्र | रामशब्देन दाशरथिर्लक्ष्मणशब्दसाहचर्यात् प्रतीयते न तु रेणुकासुत इति, तथा 'जंबुद्दीये' इत्यादि, सुबोध, द्वयोर्पयोः
वक्षस्कारे न्तिचन्दी
सहोतो हेतुः प्राग्वदेव, हरीति-हरिसलिला पूर्वार्णवगा हरिवर्षे हरिकान्ता चापरार्णवगा रम्यके नरकान्ता पूर्वार्णवगानादिपिण्डः या वृत्तिः
नारीकान्ता चापरार्णवगा सर्वसङ्ख्यया जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्षरम्यकवर्षयोद्धे चतुर्विंशतिसहस्राधिके सलिलाशतसहस्रे भवत सू. १२५ ॥४३०॥ 12 इति, षट्पञ्चाशत्सहस्राणां चतुर्गुणने एतावत एव लाभात्, अत्रापि सहनपरतया व्याख्यानं प्राग्वत् , तथा जंबुद्दीवे' इत्या-1
|दि व्यक, नवरं शीता शीतोदा चेत्यत्र चकारी द्वयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाओं तेन समपरिवारस्वादिकं ग्राह्य, समुद्रप्रवेशः। शीतायाः पूर्वस्यां शीतोदायास्त्वपरस्यामिति, 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रित्यत्र द्वादशान्तरनद्योऽधिका ग्राह्याः, महा-AS विदेहनदीत्वाविशेषात् , शेषाः कुण्डमभवनद्यश्च शीताशीतोदापरिवारनदीष्वन्तर्गता इति न सूत्रकृता सूत्रे पृथग विवृताः। अथ मेरुतो दक्षिणस्यां कियत्यो नद्य इत्याह-'जंबुद्दीवे दीवे मंदरपवय' इत्यादि व्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे एकं पण्णवतिसहस्राधिकं सलिलाशतसहने, तथाहि-भरते गङ्गायाः सिन्धोश्च चतुर्दश २ सहस्राणि हैमवते रोहिताया रोहितांशायाश्चाटाविंशतिरष्टाविंशतिः सहस्राणि हरिवर्षे हरिसलिलाया हरिकान्तायाश्च षट्पञ्चाशत् २ सहस्राणि सर्वमीलने यथोक्तसङ्ख्या।।
॥४३०॥ अथ मेरुत उत्तरवर्तिनीनां सङ्ख्या प्रश्नयितुमाह-'जंबुद्दी' इत्यादि व्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे सर्वसङ्ख्या दक्षिणसूत्रबद् भाव-18 नीया, वर्षाणां नदीनां च नामसु विशेषः स्वयं बोध्यः, ननु मेरुतो दक्षिणोत्तरनदीसङ्ख्यामीलने सपरिवारे उत्तरदक्षिणप्र-IMS
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~106~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------- -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
वहे शीताशीतोदे कथं न मीलिते ?, उच्यते, प्रश्नसूत्रं हि मेरुतो दक्षिणोत्तरदिग्भागवर्तिपूर्वापरसमुद्रप्रवेशरूपविशिष्टार्थ-18 विषयकं तेन न मेरुतः शुद्धपूर्वापरसमुद्रप्रवेशिन्योरनयोर्निर्वचनसूत्रेऽन्तर्भावः, यधाप्रश्नं निर्वचनदानस्य शिष्टव्य-13 |वहारात् । अथ पूर्वाभिमुखाः कियत्यो लवणोदं प्रविशन्तीत्याह-'जंबुद्दीचे दी' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्यो नद्यः पूर्वाभिमुखं लवणोदं प्रविशन्ति-कियत्यः पूर्वसमुद्रप्रवेशिन्य इत्यर्थः, इदं च प्रश्नसूत्रं केवलं नदीनां पूर्वदिग्मा
मित्वरूपप्रष्टच्यविषयकं तेन पूर्वस्मात् प्रश्नसूत्राद्विभिद्यते, उत्तरसूत्रे सप्त नदीलक्षाणि अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि यावत् A समुपसर्पन्ति, तद्यथा-पूर्वसूत्रे मेरुतो दक्षिणदिग्वर्तिनीनामेकं षण्णवतिसहस्राधिकं लक्षमुक्तं, तदर्ड पूर्वाब्धिगामीत्या
गतान्यष्टानवतिः सहस्राणि एवमुदीच्यनदीनामप्यष्टानवतिः सहस्राणि शीतापरिकरनद्यश्च ५ लक्षाणि द्वात्रिंशरसह. स्राणि च सर्वपिण्डे यथोक्तं मानं । अथ पश्चिमाब्धिगामिनीनां सङ्ख्याप्रश्नार्थमाह-जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, इदं चान|न्तरसूत्रवद्वाच्य, समवायोजनायाः परस्परं निर्विशेषत्वात् , सम्प्रति सर्वसरित्सङ्कलनामाह-एवामेव सपुचावरेण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे पूर्वाधिगामिनीनामपराब्धिगामिनीनां च नदीनां संयोजने चतुर्दश लक्षाणि पटपञ्चाशत्सहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं, ननु इयं सर्वसरित्सङ्ख्या केवलपरिकरनदीनां महानदीसहितानां वा तासां?,18 8 उच्यते, महानदीसहितानामिति सम्भाव्यते, सम्भावनाबीजं तु कच्छविजयगतसिन्धुनदीवर्णनाधिकारे प्रवेशे च 'सर्व-18
सङ्ख्यया आत्मना सह चतुर्दशभिर्नदीसहस्त्रैः समन्विता भवती"ति श्रीमलयगिरिकृतवृहतक्षेत्रविचारवृत्त्यादिवचन
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~107~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------- -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२५]
गाथा:
श्रीजम्बू-8 मिति, श्रीरत्नशैखरसूरयस्तु स्वक्षेत्रसमासे "अडसयरि महणईभो बारस अंतरणईज सेसाओ । परिअरणईओं चउदसव को द्वीपशा- लक्खा छप्पण्णसहसा य ॥१॥"त्ति महानदीनां पृथग्गणनं चक्रुरिति तत्त्वं तु बहुश्रुतगम्यं, नन्वत्र प्रत्येकमष्टाविं- खण्डयोज
शतिसहस्रनदीपरिवारा द्वादशान्तरनद्यः सर्वनदीसङ्कलनायां कथं न गणिताः', उच्यते, इयं सर्वसरित्सङ्ख्या चतुर्दश- नादिपिण्डः या वृचिः
लक्षादिलक्षणा श्रीरलशेखरसूरिभिः स्वोपज्ञक्षेत्रसमासवृत्ती तथा प्रतिमहानदिपरिवारमीलने स्वस्वक्षेत्रविचारसूत्रे श्रीजि-1 सू. १२५ ॥४३॥ नभद्रगणिक्षमाश्रमणादिसूत्रकारैः श्रीमलयगिर्यादिभिर्वृत्तिकारश्चान्तरनदीपरिवारासङ्ग्रहेणैवोक्ता, श्रीहरिभद्रसूरि-ग
| भिस्तु 'खण्डा जोअणे'त्यादिगाथायाः सङ्घहण्यां चतुरशीतिप्रमाणा कुरुनदीरनन्तर्भाव्य तत्स्थाने इमा एव द्वादश न-81 दीः चतुर्दशभिः२ नदीसहस्रः सह निक्षिष्य यथोक्तसङ्ख्या पृरिता, तद्यथा-"चउदससहस्सगुणिआ अडतीस णईउ विजयममिल्ला । सीआणईइ णिवटंति सीओआएवि एमेव ॥१॥" कैश्चित्तु य एव विजयगतयोगङ्गासिन्थ्योः रक्तारक्तवत्योर्वा अष्टाविंशतिसहस्रनदीलक्षणः परिवारः स एवासन्नतयोपचारेणान्तरनदीनां परिवारतयोक्त इत्यतोऽवसीयते | | यदन्तरनदीपरिवारमाश्रित्य मतवैचित्र्यदर्शनादिना केनापि हेतुना प्रस्तुतसूत्रकारेणापि सर्वनदीसङ्कलनायां ता न | गणिता इति, अत्रापि तत्वं बहुश्रुतगम्यमेव, यदि चान्तरनदीपरिवारनदीसङ्कलनापि क्रियते तदा जम्बूद्वीपे द्विनवति
॥४३॥ सहस्राधिकाः सप्तदश लक्षा नदीनां भवन्ति, यदुक्तम्-"सुत्ते चउदसलक्खा छप्पण्णसहस्स जंबुदीवम्मि । हुंति उ | सत्तर लक्खा बाणवाइसहस्स सलिलाओ॥१॥" इति, एतेषां जम्बद्धीपप्रज्ञप्त्युक्तार्थानां पिण्डके-मीलके विषयभूते।
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
~108~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ -------------------------- मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
गाथा:
।इयं सहणी गाथा भवतीति । अथ जम्बूद्वीपण्यासस्य लक्षप्रमाणताप्रतीत्यर्थ दक्षिणोत्तराभ्यां क्षेत्रयोजनसर्वाग्रमीलनं । जिज्ञासूनामुपकाराय दयते, यथा१ भरतक्षेत्रप्रमाणं ५२६ योजन कला ६ ७ महाविदेहक्षेत्रप्रमाणं ३३६८४ योजन कला ४ २ क्षुलहिमाचलपर्वतप्र० १०५२ योजन कला १२८नीलवस्पर्वतप्रमाणं १३८४२ योजन कला २
३ हैमवतक्षेत्रप्र० २१०५ योजन कला ५ ९रम्यकक्षेत्रप्रमाणं ८४२१ योजन कला १ 18|| ४ वृद्धहिमाचलपर्वतप्र० ४२१० योजन कला १० १० रुक्मिपर्वतप्रमाणं ४२१० योजन कला १०
५ हरिवर्षक्षेत्रनमाणं ८४२१ योजन कला १ ११ हैरण्यवतक्षेत्रप्रमाणं २१०५ योजन कला ५ ६ निषधपर्वतप्रमाणं १६८४२ योजन कला २ १२ शिखरिपर्वतप्रमाणं १०५२ योजन कला १२
१३ ऐरवतक्षेत्रप्रमाण ५२६ योजन कला ६ ९९९९६ योजन कला ७६ दक्षिणोत्तरतः सर्वमीलने १००००० लक्षयोजनसर्वाग्रं, अत्र दक्षिणजगतीमूलविष्कम्भो भरतप्रमाणे उत्तरजगतीसत्कश्च ऐरावतेऽन्तर्भावनीय इति । पूर्वतः पश्चिमतश्चैवं सर्वाग्रमीलनं
औत्तराहं शीतावनमुखं २९२२ योजन ,विजयपोडशकं ३५४०६ योजन अन्तरनदीपटू ७५० योजन
Fatherserserceseeeeeeeeeee
aeratraoragarma90009009900
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
JaitarNI
~109.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [६], ------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१२५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
"
खण्डयोज
श्रीजम्बू-II वक्षस्काराष्टकं ४००० योजन मेरुभद्रशालवनं ५४००० योजन औत्तराहं शीता ( तोदा) मुखवनं २९२२ योजना वक्षस्कारे
पिशा- १००००० अत्र सर्वायं लक्षयोजनप्रमाणं, अत्रापि जगतीसत्कमूलविष्कम्भः स्वस्वदिग्गतमुखवनेऽन्तभावनीय इति । IEL न्तिचन्द्री-10
नादिपिण्डया वृत्ति: इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐंदीयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकव्यरसर
मू. १२५ त्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुञ्जयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयु॥४३२॥
गमधानोपमानसम्प्रतिविजयमानश्रीमत्तपोगच्छाधिराजश्रीहीरविजयसरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायधीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमञ्जूषानाम्न्यां जम्बूद्वीपगतपदार्थसङ्ग्रहव
नो नाम षष्ठो वक्षस्कारः ॥६॥
गाथा:
दीप अनुक्रम [२४६-२४९]
Sa9a90000000000000039a9aas
।॥४३२॥
अत्र षष्ठ-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
~110~
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मुलं [१२६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
अथ सप्तमवक्षस्कारः॥७॥
प्रत सूत्रांक [१२६]
westaeesece
गाथा
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
जम्बूद्वीपे च ज्योतिष्काश्चरन्तीति तदधिकारः सम्प्रतिपाद्यते, तत्र प्रस्तावनार्थमिदं चन्द्रादिसङ्ख्याप्रश्नसूत्रम्जंबुद्दी भते ! दीये कइ चंदा पभासिसु पभासंति पभासिस्संति कइ सूरिआ तवइंसु तति तविस्संति फेवइया णक्यता जोगं जोइंसु जोति जोइस्संति केवइआ महग्गहा चार चरिमु चरति चरिस्संति केवइआओ तारागणकोडाफोडीओ सोभिंसु सोभंति सोभिस्संति ?, गोभमा! दो चंदा पभासिसु ३ दो सूरिआ तवईसु ३ छप्पणं णक्वत्ता जोगं जोईसु ३ छावत्तर महमगहसयं चार परिसु ३ एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवेसहस्साई । णव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीण ।।१।। ति (सूत्र१२६)
'जंबुद्दीवेण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भगवन! द्वीपे कति चन्द्राःप्रभासितवन्त:-प्रकाशनीयं वस्तु उयोतितवन्तःप्रभास-8 यन्ति-उद्योतयन्ति प्रभासयिष्यन्ति-उद्योतयिष्यन्ति, उद्योतनामकर्मोदयाचन्द्रमण्डलाना, अनुष्णप्रकाशो हि जने उन्योत इति व्यवयिते तेन तथा प्रश्नः, अनादिनिधनेयं जगत्स्थितिरिति जानतः शिष्यस्य कालत्रयनिर्देशेन प्रश्नः प्रष्ट व्यं तु चन्द्रादिसङ्ख्या, तथा कति सूर्यास्तापितवन्तः-आत्मव्यतिरिक्तवस्तुनि तापं जनितवन्तः, एवं तापयन्ति तापयिष्यन्ति, आतपनामकर्मोदयाद्रविमण्डलानामुष्णः प्रकाशस्ताप इति लोके व्यवहियते तेन तथा प्रश्नोक्तिः, तथा कियन्ति
अथ सप्तम-वक्षस्कारः आरभ्यते
...अथ चन्द्रादि संख्या-विषयक प्रश्नं आरभ्यते
~111
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१२६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२६]
गाथा
श्रीजम्बू- नक्षत्राणि योग-स्वयं नियतमण्डलचारित्वेऽप्यनियतानेकमण्डलचारिभिर्निजमण्डलक्षेत्रमागतैनहैः सह सम्बन्धं युक्तव- वक्षस्कारे द्वीपशा- न्ति-प्राप्तवन्ति युञ्जन्ति-प्राप्नुवन्ति योक्ष्यन्ति-प्राप्स्यन्ति, तथा कियन्तो महाग्रहा:-अङ्गारकादयश्चारं-मण्डलक्षेत्रपरि- चन्द्रादः न्तचन्द्री- भ्रमि चरितवन्तः-अनुभूतवन्तः चरन्ति-अनुभवन्ति चरिष्यन्ति-अनुभविष्यन्ति, यद्यपि समयक्षेत्रवर्तिनां सर्वेषामपि
संख्याः या वृत्तिः 18
ज्योतिष्काणां गतिश्चार इत्यभिधीयते तथाप्यन्यव्यपदेशविशेषाभावेन वक्रातिचारादिभिर्गतिविशेषैर्गतिमत्त्वेन चैषां ॥४३॥ सामान्यगतिशब्देन प्रश्नः, तथा कियत्यस्तारागणकोटाकोव्यः शोभितवन्तः-शोभांधृतवन्त्यः शोभन्ते शोभिष्यन्ते, एषां च |
चन्द्रादिसूत्रोक्तकारणाभावेन बहुलपक्षादी भास्वरत्वमात्रेण शोभमानत्वादिस्थं प्रश्नाभिलापः, अन सूत्रेऽनुक्तोऽपि वा-13 शब्दो विकल्पद्योतनार्थ प्रतिप्रश्नं बोध्या, भगवानाह-गौतम ! द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते प्रभासिष्येते च, जम्बूद्वीपे क्षेत्रे सूर्याक्रान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्र शेषयोर्दिशोश्चन्द्राभ्यां प्रकाश्यमानत्वात्, प्रश्नसूत्रे च प्रभासितवन्त इत्यादौ यो बहुवचनेन निर्देशः स प्रश्नरीतिर्वहुवचनेनैव भवतीति ज्ञापनार्थः, एकाद्यन्यतरनिर्णयस्य तु सिद्धान्तोत्तर-19
काले सम्भवः, एवं सूर्यसूत्रेऽपि भावनीयं, तथा द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ ३ जम्बूद्वीपक्षेत्रमिति शेषः, अस्मिन्नेव क्षेत्रे | 8| चन्द्राकान्ताभ्यां दिग्भ्यामन्यत्र शेषयोदिशोः सूर्याभ्यां ताप्यमानत्वात् , तथा षट्पञ्चाशनक्षत्राणि एकैकस्य चन्द्रस्य ॥४३३॥ प्रत्येकमष्टाविंशतिनक्षत्रपरिवारात योगं युक्तवन्तीत्यादि प्राग्वत्, तथा षट्सप्तत-षट्सप्तत्युत्तरं महाग्रहशतं एकैकस्य चन्द्रस्य प्रत्येकमष्टाशीतेनहाणां परिवारभावात चार चरितवदित्यादि, तथा पद्येन तारामानमाह-तारागणकोटाकोटी
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
JaEcont
~112~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मुलं [१२६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२६]
गाथा
merseas
नामेकं लक्षं त्रयस्त्रिंशच्च सहस्राणि नव च शतानि पञ्चाशानि-पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, प्रतिचन्द्रं तारागणकोटाको-ISH दीनां षट्षष्टिसहस्रनवशताधिकपासप्ततेलभ्यमानत्वादिति । अथ प्रथमोद्दिष्टमपि चन्द्रमुपेक्ष्य बहुवक्तव्यत्वात् प्रथम सूर्यप्ररूपणामाह, तत्रेमानि पञ्चदशानुयोगद्वाराणि-मण्डलसङ्ख्या १ मण्डलक्षेत्रं २ मण्डलान्तरं ३ बिम्बायामविष्क-1, म्भादि ४ मेरुमण्डलक्षेत्रयोरबाधा ५ मण्डलायामादिवृद्धिहानी ६ मुहर्तगतिः ७ दिनरात्रिवृद्धिहानी ८ तापक्षेत्रसंस्थानादि ९ दूरासन्नादिदर्शने लोकप्रतीत्युपपत्तिः १. चारक्षेत्रेऽतीतादिप्रश्नः ११ तत्रैव क्रियाप्रश्नः १२ | ऊर्ध्वादिदिक्षु प्रकाशयोजनसङ्ख्या १३ मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योतिष्कस्वरूपं १४ इन्द्रायभावे स्थितिप्रकल्पः १५॥ तत्र || मण्डलसङ्ख्यायामादिसूत्रम्
कद णं भंते ! सूरमंडला पण्णता', गोअमा! एगे चउरासीए मंडलसए पण्णत्ते इति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइ भोगाहित्ता केवइआ सूरमंडला पण्णता ?, गोभमा ! जंबुद्दीचे २ असीअं जोअणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पण्णही सूरमंडला पण्णता, वणे णं भंते ! समुदे केवइ ओगाहिता केवहा सूरमंडला पण्णता ?, गोअमा! लवणे समुदे तिणि तीसे जोअगसए ओगाहिता एत्थ णं एगूणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे लवणे अ समुद्दे एगे चुलसीए सूरमंडलसए भवंतीतिमक्खायंति १ (सूत्र १२७) सव्वभंतराओ णं भंते! सूरमंडलाओ केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडले पं०१, गोयमा! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्यबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते २ (सूत्रं १२८) सूरमंडलस्स णं भंते ! सूरमंडलस्स य केवइयं
989009099292029
दीप अनुक्रम [२५०-२५१]
सूर्यमण्डल-आदि विषयक प्रश्नानि
~113
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],----------------
---------------------- मल [१२७-१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
See
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [१२७-१३०
अथाहाए अंतरे पाणले १, गौणमा ! दो जोषणाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ (सूत्र १२९) सूरमंडले ण भंते ! केवइ आयामवि
वक्षस्कारे द्वीपशाक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइ बाहलेणं पण्णते?, गोमा ! अडयालीसं एगसद्विभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तं ति
सूर्यमण्डन्तिचन्द्रीगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउवीस एगसहिभाए जोअणस्स बाहलेणं पण्णत्ते इति ४ ( सूत्र १३०)
लादि सू. या वृचिः
१२७-१३० 'कह ण' मित्यादि, कति भदन्त ! सूर्ययोदक्षिणोत्तरायणे कुर्वतोर्निजबिम्बप्रमाणचक्रवालविष्कम्भानि प्रतिदिन॥४३॥ भ्रमिक्षेत्रलक्षणानि मण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, मण्डलत्वं चैषां मण्डलसहशत्वात् न तु तात्त्विक, मण्डलप्रथमक्षणे यद् व्याप्तं
18|क्षेत्रं तत्समभेण्येव यदि पुरःक्षेत्रं व्याप्नुयात् तदा तात्त्विकी मण्डलता स्यात् तथा च सति पूर्वमण्डलादुसरमण्डलस्य
योजनद्वयमन्तरं न स्यादिति, भगवानाह-गौतम ! एक चतुरशीतं-चतुरशी त्यधिक मण्डलशतं प्रज्ञप्तं, यथा चैभि-18 चारक्षेत्रपूरणं तथा अनन्तरद्वारे प्ररूपयिष्यते। अर्थतान्येव क्षेत्रविभागेन द्विधा विभज्योक्तसङ्गयां पुनः प्रायति-जंब-12 दीवेत्ति जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे कियक्षेत्रमवगाध कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रशतानि ?, गौतम ! जम्बूद्वीपे । अशीत-अशोत्यधिक योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तथा लवणे भदन्त ! समुद्र कियद-18 वगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! लवणे समुद्रे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि सूत्रेऽल्पत्वाद
॥४३४॥ III विवक्षितानप्यष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागान अवगाह्यात्रान्तरे एकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डल शतं प्रज्ञप्तं, अब पञ्चपष्ट्या |
मण्डलैरेकोनाशीत्यधिकं योजनशतं नव चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्यन्ते, जम्बूद्वीपेऽवगाहक्षेत्रं चाशीत्यधिक योजनशतं ।
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]]
~114~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------
---------------------- मलं [१२७-१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७-१३०]
तेन शेषा द्वापञ्चाशद्भागाः षट्षष्टितमस्य मण्डलस्य बोध्याः अल्पत्वाच्चात्र न विवक्षिताः, अत्र च पञ्चषष्टिमण्डलाना विषयविभागष्यवस्थायां सङ्ग्रहणीवृत्त्याद्युक्तोऽयं वृद्धसम्प्रदायः-मेरोरेकतो निषधमूर्द्धनि त्रिषष्टिमण्डलानि हरिवर्षजी|वाकोव्यां च दे द्वितीयपायें नीलवन्मूर्ध्नि त्रिषष्टिः रम्यकजीवाकोव्यां च द्वे इति, एवमेव सपूवरेण पश्चषष्टकोनविं'।
शत्यधिकशतमण्डलमीलनेन जम्बूद्वीपे लवणे च समुद्रे एकं चतुरशीतं सूर्यमण्डलशतं भवतीत्याख्यातं मया चान्यैस्तीर्थ| कृद्भिः । गतं मण्डलसवाद्वारम् , अथ मण्डलक्षेत्रद्वार, तत्र सूत्र-'सबभतराओ ण'मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरात्-प्रथमात् ।
सूर्यमण्डलात् भदन्त ! कियत्या अबाधया-कियता अन्तरेण सर्वबाह्य-सर्वेभ्यः परं यतोऽनन्तरं नैकमपीत्यर्थः सूर्यम-31 Aण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! दशोत्तराणि पञ्च योजनशतानि अबाधया-अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपया सर्ववाह्य सूर्यमण्डलं
प्रज्ञप्तम् , अत्रानुक्ता अपि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 'ससिरविणो लवणमि अ जोअण सय तिणि तीस अहिआई'-18॥ इति वचनादधिका ग्राह्याः, अन्यथोक्तसङ्ख्याङ्कानां मण्डलानामनवकाशात्, कथमेतदवसीयते १, उच्यते-सर्वसङ्ख्यया || चतुरशीत्यधिक मण्डलशतं, एकैकस्य च मण्डलस्य विष्कम्भोऽष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, ततश्चतुरशीत्यधिक शतमष्टाचत्वारिंशता गुण्यते, जातान्यष्टाशीतिः शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, एतेषां योजनानयनाथमेकषष्ट्या भागो हियते, हृते च लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकं योजनशतं १४४, शेषमवतिष्ठतेऽष्टचत्वारिंशत् , चतुरशीत्यधिकशतसङ्ख्यानां च मण्डलानामपान्तरालानि त्र्यशीत्यधिकशतसङ्ख्यानि, सर्वत्रापि ह्यपान्तरालानि रूपोनानि भवन्ति तथा च प्रती
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]]
~115
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७],----------------
---------------------- मलं [१२७-१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७-१३०
श्रीजम्बू-१ तमेतत् चतसृणामङ्गुलीनामपान्तरालानि त्रीणीति, एकैकं मण्डलान्तरालं च द्वियोजनाप्रमाण, ततस्त्र्यशीत्यधिक शतं वृक्षस्कारे द्वीपशा-द्विकेन गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि पट्पष्ट यधिकानि ३६६, पूर्वोक्तं च चतुश्चत्वारिंशं शतमत्र प्रक्षिप्यते, ततो।। न्तिचन्द्री
लादि मू. जातानि पश्चशतानि दशोत्तराणि योजनानि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, अनेन च मण्डलक्षेत्रस्य प्रमाणम-ISI या चिः
भिहितं, मण्डलक्षेत्रं नाम सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यपर्यवसानैव्याप्तमाकाशं, तच्चक्रवालविष्कम्भतोऽપાછા
वसेयम्। उक्तं मण्डलक्षेत्रद्वारम् , अथ मण्डलान्तरद्वारम्-'सूरमंडल' इत्यादि, भगवन् ! सूर्यमण्डलस्य सूर्यमण्डलस्य च कियदवाधया-अव्यवधानेनान्तरं प्रज्ञप्तम् !, गौतम ! द्वे योजने अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् , अन्तरशब्देन च विशेषोऽप्युच्यते इति तन्निवृत्त्यर्थमबाधयेत्युक्तं, कोऽर्थः-पूर्वस्मादपरं मण्डलं कियद्दूरे इत्यर्थः, अत्र यथा योजनद्वयमुपपद्यते तथाऽनन्तरमेव मण्डलसङ्ख्याद्वारे दर्शितम् । गतं मण्डलान्तरद्वारं, अथ बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम्-'सूरम-18|
डले ण'मित्यादि, सूर्यमण्डलं णमिति प्राग्वत् भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कियद्वाहत्येन-18 18 उच्चत्वेन प्रज्ञप्तं ?, गौतम ! अष्टचत्वारिंशदागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञप्तं, अयमर्थः-एकयोजनस्पैकष-18 |ष्टिभागाः कल्प्यन्ते तद्रूपा येऽष्टचत्वारिंशद्भागास्तावत्प्रमाणावस्यायामविष्कम्भावित्यर्थः, तत्रिगुणं सविशेष-सा-18 धिकं परिक्षेपेण, अष्टचत्वारिंशत्रिगुणिता द्वे योजने द्वाविंशतिरेकषष्टिभागा अधिका योजनस्येत्यर्थः, चतुर्विंशतिरे
दीप अनुक्रम [२५२-२५५]]
॥४३५॥
~116
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२७
-१३०]
दीप
अनुक्रम
[२५२
-२५५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१९२७-१३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Ja inte
| कषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन, विमान विष्कम्भस्यार्द्धभागेनोच्चत्वात् । गतं चिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम्, अथ मेरुमण्डलयोरबाधाद्वारं तत्रादिसूत्रम्
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पश्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वमंतरे सूरमंडले पण्णत्ते ?, गोअमा ! चोआलीसं जोअणसहस्साई अडय वीसे जोअणसए अवाहाए सव्वम्भंवरे सूरमंडले पण्णत्ते, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पब्वयरस केव भवाहाए सव्वतराणंतरे सूरमंडले पण्णते ?, गो० ! चोआलीसं जोअणसहस्साइं अट्ठ य वावीसे जोभणसए अडवालीसं च एगसद्विभागे जो अगस्त अवाहा अध्भंवराणंतरे सूरमंडले पं०, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्त के बइआए अवाहाए अनंतरतचे सूरमंडले पण्णत्ते, ? गो० ! चोआलीसं जोभणसहस्साई अट्ठ य पणवीसे ओअणसए पणतीसं च एगसडिभागे जोअणरस अबाहाए अब्भंतरतचे सूरमंडले पण्णत्ते इति, एवं खलु एतेणं उबारणं णिक्खममाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडल संक्रममाणे २ दो दो जोभणाई अडयालीसं च एगसहिभाए जोअणस्स एगभेगे मंडले अवाहावुडि अभिवद्धेमाणे २ सव्व बाहिरं मंडलं वसंकमित्ता चारं चरइति, जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पब्वयरल केदइआए अवाहाए सव्ववाहिरे सूरमंडले पं० १, गो० ! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिष्णि अतीसे जोअणसए अवाहाए सब्ववाहिरे सूरमंडले पं०, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सब्ववाहिराणंतरे सूरमंडले पण्णचे ?, गोअमा ! पणयालीस जोअणसहस्साइं तिणि अ सत्तावीसे जोअणसए तेरस य एगसट्टिभाए जोर्गेणस्स भवाहाए बाहिराणंतरे सूरमंडले पण्णत्ते, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंद
For P&Peale City
~ 117 ~
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३१]
Scene
दीप
श्रीजम्यूरस्स पव्ययस्स केवइयाए अथाहाए बाहिरतचे सूरमंहले पण्णत्ते ।, गो.! पणयालीसं जोमणसहस्साई तिणि अचवीसे जो
hअक्षस्कारे द्वीपशा- भणसए छत्रीस च एगसद्विभाए जोअणस्स भवाहाए बाहिरतच्चे सूरमंडले पण्णत्ते, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए मेरुमण्डन्तिचन्द्री- तयाणतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोअण्णाई अडयालीसं च एगसद्विभाए जोयणस्स एगमेगे लाबाधा या वृत्तिः मंडले अवाहावुद्धि णिबुद्धेमाणे २ सयभंतर मंडलं उक्संकमित्ता चार चरइ ५ (सूत्र १३१)
सू.१३१ ॥४३६॥ जंबुदीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या समाधया सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं
प्रज्ञप्तम्, गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं 1 सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, अत्रोपपत्तिः-मन्दरात् जम्बूद्वीपविष्कम्भः पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, इदं हि मण्डलं
जगतीतो द्वीपदिशि अशीत्यधिकयोजनशतोपसङ्कमे भवति, तेन ४५००० योजनरूपाद् द्वीपविष्कम्भादियति १८० 18 योजनरूपे शोधिते जातं यथोक्तं मानं, एतच्च चक्रवालविष्कम्भेन भवति तेनापरसूर्यसर्वाभ्यन्तरमण्डलस्याप्यनेनैव ॥
करणेनैतावत्येवाबाधा बोद्धव्या, एतेन यदन्यत्र क्षेत्रसमासटीकादो मेरुमवधीकृत्य सामान्यतो मण्डलक्षेत्राबाधापरिमा-1 णद्वारं पृथक् प्ररूपितं तदनेनैव गतार्थ, अस्यैवाभ्यन्तरतो मण्डलक्षेत्रस्य सीमाकारित्वात् , अथ प्रतिमण्डलं सूर्यस्य दूर
| ॥४३६॥ दूरगमनादबाधापरिमाणमनियतमित्याह-'जंबुद्दीये ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य कियत्या | अबाधया सर्वाभ्यन्तरादनन्तरं-निरन्तरतया जायमानत्वात् द्वितीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुश्चत्वारिंश-MS
अनुक्रम [२५६]
~118~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],----------------..........
----- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३१]
Hद्योजनसहस्राणि अष्ट च योजनशतानि द्वाविंशत्यधिकानि अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्थाबाधया सर्वा
भ्यन्तरानन्तरं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्त, पूर्वस्माद्यदत्राधिकं तद्विम्बविष्कम्भादन्तरमानाच समाधेयं, अथ तृतीयमण्डलं पृच्छमाह-जंबुद्दीवेण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'अभंतरं तच मिति अभ्यन्तरतृतीयं, अनेन बाह्यतृतीयमण्डलस्य व्यवच्छेदः, | उत्तरसूत्रे चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्याबाधया अभ्यन्तरतृतीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु द्वितीयमण्डलाबाधापरिमाणे ४४८२२ योजन १६ इत्येवंरूपे प्रस्तुतमण्डलसत्के सान्तरविम्बविष्कम्भे प्रक्षिप्ते जातं यथोक्तं मानम् , एवं प्रतिमण्डलमबाधावृद्धावानीयमानायां मा भूद | ग्रन्थगौरवं तेन तजिज्ञासूनां योधकमतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः एतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्क्रामन्-लवणाभिमुख मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरात्-विवक्षितात् पूर्वस्मात् मण्डलात् तदनन्तरं-विवक्षितमुत्तरमण्डल सङ्क्रामन् २ द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अवाधाया वृद्धिमभिवर्द्धयन् २ सर्वबाह्यमण्डलमुपक्रम्य चारं चरति, पञ्चात्रातिदेशरु-18
चिरपि सूत्रकृमण्डलत्रयाभिव्यक्तिमदर्शयत् तत्प्रथम ध्रुवाइदर्शनार्थं द्वितीयं मण्डलाभिवृद्धिदर्शनार्थ तृतीयं पुनस्तद-18 18भ्यासार्थमिति । अथ पश्चानुपूर्ण्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलादारभ्य मेरुमण्डलयोरबाधां पृच्छन्नाह-जंयुहीये'त्ति 18 जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डल प्रज्ञतम्, गौतम ! पचचत्वारिं-18
Recemercedeseseekeeseeese
दीप
अनुक्रम [२५६]
JaEcribeo
~119~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
----------- मूलं [१३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३१]
दीप अनुक्रम [२५६]
श्रीजम्बू- शद्योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि त्रिंशदधिकानि अबाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तं, तत्र मन्दरात् पञ्च- वक्षस्कारे द्वीपशा-18/ चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि जगती ततो लवणे त्रीणि शतानि त्रिंशदधिकानि, तथा द्वितीयमण्डलपृच्छा-'जंबुद्दीवे'त्ति ||
मेरुमण्डन्तिचन्द्री
लाबाधा प्रश्नसूत्रे बाह्यानन्तरं-पश्चानुपूर्व्या द्वितीयमित्यर्थः, उत्तरसूत्रे पञ्च चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथैव जगती ततस्त्रिंशद-18
सू.१३१ पाधिकत्रिशतयोजनातिक्रमे यत्सूरमण्डलमुक्तं तस्मादन्तरमाने बिम्ब विष्कम्भमाने च शोधिते जातं यथोक्तं मानमिति,181 ॥४३७॥ अथ तृतीयं-'जंबुद्दीये'त्ति व्यकं, नवरं उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि च शतानि चतुर्विशत्यधिकानि
पड्विंशतिं च एकषष्टिभागान योजनस्येति, अत्र पूर्वमण्डलाङ्कात् सान्तरमण्डलविष्कम्भयोजने २१ शोधिते जातं
यथोक्तं मानं, पूर्वमण्डलाको धुवाङ्कस्तत्र सबिम्पविष्कम्भोऽन्तरविष्कम्भः शोध्यस्तत उपपद्यते यथोक्तं मानं, उक्ताव-18 । शिष्टेषु मण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमे-2
कैकमण्डलमोचनरूपेण प्रविशन् जम्बूद्वीपमिति गम्यं, सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सामन् २ढे वे
योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् मण्डले अबाधावृद्धि निवर्धयन् २ इदं समवायाङ्गवृत्त्य-15 INI नुसारेणोक्तं यथा वृद्धेरभावो निवृद्धिः निशब्दस्याभावार्थत्वात् निवरा कन्येत्यादिवत तां कुर्वन् , निवृद्धयन २ इदं ।
स्थानावृत्त्यनुसारि, सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्त्यादौ तु निवेष्टयन २ इत्युक्तमस्ति, अत्र सर्वत्रापि हापयन २ इत्यर्थः, सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरतीति, गतमवाधाद्वारम् । अथ मण्डलायामादिवृजिहानिद्वारम्
~120
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
gesekeckeweceo
जंयुरी दीवे सबभतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खमेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ?, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई उच पत्ताले जोअणसए आयामचिक्खंभेणं तिष्णि य जोअणसयसहस्साई पण्णरस व जोअणसहस्साई एगणणतई प ओभणाई किंचिविसेसाहिआई परिक्षेवणं, अग्भंतराणतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्षण पण्णत्ते ?, गोमा? णवणउई जोअणसहस्साई छच्च पणयाले जोअणसए पणतीसं च एगसहिभाए मोअगस्स आयाम विक्खंभेणं तिणि जोमणसयसहस्साई पण्णस्स य जोअण सहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोअणसय परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अम्मतरतचे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं प०१, गो० ! गवणउई जोअणसहस्साई छश्च एकावण्णे जोअणसए णव य एगसविभाए जोअणस्स आयामविक्वंभेणं तिष्णि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसय परिक्षेवणं, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तथाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं उबसंकममाणे २ पंच २ जोभणाई पणतीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिवर्तमाणे २ अट्ठारस २ जोअणाई परिरयबुद्धि अभिवद्धेमाणे २ सम्बबाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार परइ सम्बवाहिरए ण भंते! सूरमंडले फेवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पण्णते', गो! एर्ग जोयणसयसहस्सं छच सट्टे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोअणसवसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई विणि अ पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवणं, बाहिराणंतरेण भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पण्णत्ते', गोअमा! एगं जोअणसयसहस्सं छच चउपण्णे जोअणसए छन्वीसं च एगसद्विभागे जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई कोण्णि य सत्ताणउए जोअणसए परिक्खेवेणंति, बाहिरतथे णं भंते ! सूरमंडले केबइअं आयामविक्खंभेणं
~121
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३२]
200308
दीप अनुक्रम [२५७]
श्रीजम्बू केवइ परिक्खेवेणं पर्णते ?, गोएग जोमणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोअणसए बावणं च एगसहिभाए जोमणस्स आ- शवक्षस्कारे द्वीपशा
यामविक्खंभेणं तिणि जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोणि अ अउणासीए जोअणसए परिक्सवेणं, एवं खलु एएणं । मण्डलान्तिचन्द्रीस्वाएणं पविसमाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे २पंच पंच जोभणाई पणतीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स
यामादि या वृत्तिः एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धि णिबुद्धेमाणे २ अवारस २ जोअणाई परिरयवृद्धि णिव्वुलेमाणे २ सयभंसरं मंडळ वसंकमित्ता
सू.१३२ ॥४३८॥ चार चरइ ६ (सूत्र १३२)
'जंबुद्दी' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियच्च परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं ?, गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि आयामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि 8| योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च योजनसहस्राण्येकोननवतिं च योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, तत्रायाम|| विष्कभयोरुत्पत्तिरेव-जम्बूद्वीपविष्कम्भावुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमशीत्यधिकयोजनशतशोधने यथोक्तं मानं, तद्यथाजम्बूद्वीपमानं १००००० अस्मादशीत्यधिकयोजनशते १८० द्विगुणित ३६. शोधिते सति जातं ९९६४० इति, परिक्षेपस्त्वस्यैव राशेः 'विक्खम्भवग्गदहगुणे' त्यादिकरणवशादानेतव्यः, ग्रन्थविस्तरभयानानोपन्यस्यते, यदिवा यदेकतो ॥३८॥ जम्बूद्वीपविष्कम्भादशीत्यधिक योजनशतं यच्चापरतोऽपि तेषां त्रयाणां शतानां षष्टयधिकानां ३६० परिरयः एकादश शतान्यष्टत्रिंशदधिकानि ११३८, एतानि जम्बूद्वीपपरिरयात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्त परिक्षेपमानं भवति, अथ
Daen
e
~122
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----------- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
18 द्वितीयमण्डले तत्पृच्छा-'अभंतराण'मित्यादि, अन्वययोजना सुगमा, तात्पर्यार्थस्त्वयम्-सर्वाभ्यन्तरानन्तरं च-द्वितीयं । 18| सूर्यमण्डलमायामविष्कम्भाभ्यां नवनवति योजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पश्चत्रिंशतं ||
चैकषष्टिभागान् योजनस्य ९९६४५३१, तथाहि-एकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरानन्तरं मंण्डलं सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्ट
चत्वारिंशत्सङ्ख्यानेकषष्टिभागान् द्वे च योजने अपान्तराले विमुच्य स्थितमपरतोऽपि, ततः पञ्च योजनानि पञ्चत्रि18 शञ्चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्वमण्डलविष्कम्भादस्य मण्डलस्य विष्कम्भे वर्धन्ते, अस्य च सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलस्य
परिक्षेपस्त्रीणि शतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राण्येकं च शतं सप्तोत्तरं योजनानां ३१५१०७, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पश्च योजनानि पञ्चत्रिंश चैकषष्टिभागा योजनस्य वर्धन्ते, पञ्चानां च योजनानां पञ्चत्रिंशत्सवकभागाधिकानां परिरयः सप्तदश योजनानि अष्टविंशश्चैकषष्टिभागाः समधिकाः योजनस्य परं व्यवहारतो विवक्ष्यन्ते || परिपूर्णानि अष्टादश योजनानि, तानि पूर्वमण्डलपरिक्षेपे यदाधिकानि प्रक्षिप्यन्ते तदा यथोक्तं द्वितीयमण्डलपरिमाणं स्यात्। अथ तृतीयमण्डले तत्पृच्छा-'अभंतरतच्चे णमित्यादि व्यक्तं, नवरमुत्तरसूत्रे नवनवतिं योजनसहस्राणि पट् च
एकपश्चाशानि योजनशतानि नव कषष्टिभागान योजनस्याभ्यन्तरतृतीयाख्यं मण्डलमायामविष्कम्भेण, अत्रोपपत्ति:1 पूर्वमण्डलायामविष्कम्भे ९९६४५ योजन। इत्येवंरूपे एतन्मण्डलवृद्धौ ५ योजन प्रक्षिप्तायां यथोक्तं मानं भव
ति, परिक्षेपेण च त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिक योजनशतं, तत्रोपपत्ति:
Raeesesesesen
जौलम्बू
~123
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
---------- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या इतिः
[१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
श्रीज-18 पूर्वमण्डलपरिक्षेप ३१५१०७ योजनरूपे प्रागुक्तयुक्त्याऽऽनीते अष्टादश १८ योजनरूपायां वृद्धौ प्रक्षिप्तायां यथोक्त मान || वक्षस्कारे द्वीपशा-1 भवति, अत्रोक्तातिरिक्तमण्डलायामादिपरिज्ञानाय लाघवार्थमतिदेशमाह-'एवं खलु एतेण' मित्यादि, एवमुक्तरी-181
मण्डलान्तिचन्द्री-18 त्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोक्तप्रकारेण निष्कामयन् २ सूर्यस्तदनन्तरात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ पञ्च पञ्च
यामादि
स. १३२ योजनानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्यैकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिमभिवर्द्धयन् २ तथा उक्तरीत्यैवाष्टाद-13 ॥४३९॥ ॥ श योजनानि परिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन २ सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति । अथ प्रकारान्तरेण प्रस्तुतविचारपरि-181
ज्ञानाय पश्चानुपूयों पृच्छन्नाह-सवबाहिरए' इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्त, उत्तरसूत्रे एक योजनलक्ष पपष्ट चधिकानि | योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां, उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लक्षं उभयोः पार्थयोश्च प्रत्येक त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजन|शतानि लवणान्तरमतिक्रम्य परतो वर्तमानत्वादस्य इदमेव मानं, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि त्रीणि 18 च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति किश्चिदूनानि परिक्षेपेण भवन्ति, किश्चिदूनत्वं ।
चात्र परिक्षेपकरणेन स्वयं बोध्यं, संवादश्चात्र विष्कम्भायाममाने लक्षोपरि यानि षष्ट चधिकानि षटू योजनशतान्युक्कानि तस्य परिरयमानीय तस्य च जम्बूद्वीपपरिरये प्रक्षेपणाद् भवति । अथ द्वितीयमण्डले तत्पृच्छा-'बाहिराणंतरे 8४३९॥
भंते ! सूरमंडले' इत्यादि प्रश्नः प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! एक योजनलक्षं पटू चतुःपञ्चाशानि योजनशतानि षड्-॥8॥ I|| विंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, संवदति चेदं सर्वबाह्यमण्डलविष्कम्भात् पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभा
~124
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३२]
दीप अनुक्रम [२५७]
गाधिकपञ्चयोजनेषु शोधितेष्विति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे च सप्तनवतियोजनशते परिक्षेपेण, कथमुपपद्यते चेदिति वदामः, पूर्वमण्डलपरिरयादष्टादशयोजनशोधने सुस्थमिति । अथ तृतीयमण्डले तत्यूछा-'बाहि-181 रतचे णमित्यादि प्रश्नः पूर्ववत्, उत्तरसूत्रे बाह्यतृतीयं एक योजनलक्ष षट् चाष्टाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वाप-181 चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, युक्तिश्चात्र-अनन्तरपूर्वमण्डलात् पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकप-18 चयोजन वियोजने साधु भवति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे चैकोनाशीते योजनशते परिक्षेपेण, पूर्व-18 मण्डलपरिधेरष्टादशयोजनशोधने यथोक्तं प्रस्तुतमण्डलस्य परिधिमान, अत्रातिदेशमाह-एवं खलु एएण'मित्यादि, प्राग्वद्वाच्यं, व्याख्यातार्थत्वात् । गतमायामविष्कम्भादिवृद्धिहानिद्वारम्, अनेनैव क्रमेण द्वयोः सूर्ययोः परस्परमबाधाद्वारमप्यभ्यन्तरवाह्यमण्डलादिष्ववसेयम् । सम्प्रति मुहूर्त्तगतिद्वारमू
जया णे भंते ! सूरिए सबभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइ खेतं गच्छइ ?, गो० ! पंच पञ्च जोमणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए एगूणतीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोमणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहिं जोअणसएहिं एगवीसाए अ जोअणस्स सद्विभारहिं सूरिए चक्लुप्फासं हवमागच्छइत्ति, से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरससि सन्यमंतराणंतरं मंडलं नवसंकमित्ता चार चरइत्ति, जया गं भंते | सूरिए अभंतराणंतरं मंडलं उबसंकमिसा चारं चरति तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइभ
Jhannel
| अथ सूर्यादि मण्डल-विषयक मुहुर्तगति: प्रदर्श्यते
~125
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
---------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे मुहूर्त्तगति
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४४॥
[१३३]
खेत्तं गच्छइ ?, गोअमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए सीआलीसं च सहिभागे जोअणस्स एगमेगेणं मुहुनेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणासीए जोअणसए सत्तावण्णाए अ सद्विभाएहिं जोमणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्लुप्फासं हवमागच्छइ, से णिक्खममाणे सुरिए दोच्चंसि अहोरसि अभंतरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते ! सूरिए अभंतरतचं मंडलं उबसंकमिचा चार चरह नया एगमेगेणं मुहुनेणं केवइ खेत्तं गच्छा, गोत्रमा ! पंच पंच जोमणसहस्साई दोणि अ यात्रणे जोभणसए पंच य सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया गं इहगयरस मणुसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं छण्णउइए जोज
हिं तेत्तीसाए सट्ठिभागेहिं जोमणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहिं चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, एवं खलु एतेणं सवाएणं णिक्यममाणे सूरिए तयाणतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस २ सहिभागे जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवडेमाणे अभिवुढेमाणे चुलसीई २ सआई जोभणाई पुरिसच्छायं णिवुद्धमाणे २ सव्वबाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ । जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं परइ तया गं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवदर्भ खेतं गच्छइ ?, गोभमा | पंच पंच जोमणसहस्साई तिणि अ पंचुत्तरे जोमणसए पण्णरस य सद्विभाए जोमणस्स एगमेगेणं मुहुचेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगतीसाए जोअणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एात्तीसेहिं जोअणसएहिं तीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सूरिए चक्खुष्कासं हव्वमागच्छइत्ति, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे, से सूरिए दोचे छम्मासे अयमाणे पढमंसि अहोरससि बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते! सूरिए
eecenesedesee
दीप अनुक्रम [२५८]
॥४४॥
Jatrial
~126~
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [१३३]
दीप
अनुक्रम
[२५८]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
बाहिरातरं मंडल उवसंकभित्ता चारं चरइ तथा णं एगमेगेणं मुदुचेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ?, गोअमा ! पंच पंच जोभणसहस्साइं तिणि अ चउरुत्तरे जोअणसए सत्तावण्णं च सहिभाए जोजणस्स एगमेगेणं मुटुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहायरस मणुसरस एगत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं णवहि अ सोलमुत्तरेहिं जोअणसएहिं इगुणालीसाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स सद्विभागं च एगसद्धिधा छेता सङ्घीय चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्ष्फासं हव्वमागच्छ इत्ति से पविसमाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरतनं मंडलं तवसंकमित्ता चारं चरड़, जया णं भंते! सूरिए बाहिरतश्चं मंडल उनसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ?, गोअमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउरुत्तरे जोअणसट इगुणालीसं च सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तथा णं इहगयस्स मणुयस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स सहभाग च एगसद्विधा छेत्ता तेवीसाए चुण्णिआभाएहिं सूरिए चक्खुत्फासं हन्त्रमागच्छइत्ति, एवं खलु एएणं उबाएणं पविसमाणे सूरिए तयातराओ मंडलाओ तयानंतर मंडल संक्रममाणे २ अट्ठारस २ सहिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई निवडेमाणे २ सातिरेगाई पंचासीति २ जोअणाई पुरिसच्छायं अभिवर्द्धमाणे २ सङ्घभंतरं मंढलं उवसंकमिता चारं चरइ, एस णं दो छम्मासे, एस णं दोघस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइचे संबच्छरे, एस णं आइचस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते, ( सूत्रं १३३ )
'जया णं भंते ! सूरिए सङ्घच्यंतरं' इत्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति इति तदा एकैकेन मुहूर्त्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, गौतम ! पच पश्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशे योजनशते एकोनत्रिंशतं
~ 127 ~
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- च पष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमिदमुपपद्यते चेत, उच्यते, इह सर्वमपि मण्डलमेकेनाहोरात्रेण पाण्यभूस्कार द्वीपशा- द्वाभ्या सूर्याभ्या परिसमाप्यते, प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्रौ भवतः, द्वयोश्चाहोरात्रयोः षष्टिर्मुहू
महतंगतिः न्तिचन्द्रीRSस्तितो मण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भागे हते यल्लभ्यते तन्मुहुर्तगतिप्रमाणं, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयस्त्रीणि लक्षा-18
सू.१३३ या चि:
|णि पञ्चदश सहस्राण्येकोननवत्यधिकानि योजनानां ३१५०८९, एतेषां षष्टचा भागे हते लब्धं यथोकं मुहर्तगतिप्र-18] ॥४४१॥ || माणं ५२५१३५, अथ विनयावजितमनस्केन प्रज्ञापकेनापृच्छतोऽपि विनेयस्य किश्चिदधिकं प्रज्ञापनीयमित्याह, यत्त-13॥
| दोर्नित्याभिसम्बन्धादनुक्तमपि यच्छब्दगर्मितवाक्यमत्रावतारणीयं तेन यदा सूर्यः एकेन मुहूर्तेन इयत् ५२५१ ३० प्रमाणं गच्छति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलसङ्क्रमणकाले इहगतस्य मनुष्यस्य अत्र जातावेकवचनं ततोऽयमर्थः-इहगतानां | भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्राभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां-त्रिषष्टयधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेक-13 |विंशत्या च योजनस्य षष्टिभागेरुदयमानः सूर्यश्चक्षुःस्पर्श-चक्षुर्विषयं हवं-शीघ्रमागच्छति, अब च स्पर्शशब्दो ने|न्द्रियार्थसन्निकर्षपरचक्षुषोऽमाप्यकारित्वेन तदसंभावादिति, कात्रोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते. इह दिवसस्यार्द्धन याव-|| न्मानं क्षेत्र व्याप्यते सावति व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते, स एव लोके उदयमान इति व्यवहियते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले ॥४४१॥ दिवसप्रमाणमष्टादश मुहूर्तास्तेपाम नव मुहर्ताः एककस्मिंश्च मुहूर्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरन् पञ्च योजनसहमाणि द्वे च योजनशते एकपञ्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य गच्छति, एतावन्मुहूर्तगतिपरिमाणं |
~128~
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
नवभिर्मुहूतैर्गुण्यते ततो भवति यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमिति, एवं सर्वेष्वपि मण्डलेषु स्वस्खमुहूर्तगतौ ॥ IS| स्वस्वदिवसार्द्धगतमुहर्तराशिना गुणितायां दृष्टिपथप्राप्तता भवति, दृष्टिपथप्राप्तता चक्षुःस्पर्शः पुरुषच्छाया इत्येकार्थाः, 18 सा च पूर्वतोऽपरतश्च समप्रमाणैव भवतीति द्विगुणिता तापक्षेत्रमुदयास्तान्तरमित्यादिपर्यायाः, इदं च सर्वबाह्यानन्त-14
रमण्डलात् पश्चानुपूर्व्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततम, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि यशीत्यधिकशत| तमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवसोऽयमेव च सूर्यसंवत्सरस्य पर्यन्तदिवस उत्तरायणपर्यवसानकत्वात् संवत्सरस्पेति । अथ नवसंवत्सरप्रारम्भप्रकारप्रज्ञापनाय सूत्रं प्रारभ्यते-से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथाभ्यन्तरान्मण्डलानिकामन् ।
जम्बूद्वीपान्तःप्रवेशेऽशीत्यधिकयोजनशतप्रमाणे क्षेत्रे चरमाकाशप्रदेशस्पर्शनानन्तरं द्वितीयसमये द्वितीयमण्डलाभिमुखं | 1 सर्पन्नित्यर्थः, सूर्यो नवं-आगामिकालभाविनं संवत्सरमयमानः २-आददानः प्रथमेऽहोराने सर्वाभ्यन्तरानन्तरं
मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्याद्यः संवत्सरस्यापि च दक्षिणायनादिकत्वात् संवत्सरस्थ, 1 अत्र चाधिकारे समवायाङ्गसूर्यप्रज्ञप्तिचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रादर्श प्रस्तुतसूत्रादर्शेषु च अयमाणे २ इत्यस्य स्थाने अयमीणे
॥ इति पाठो दृश्यते तेन यदि स समूलस्तदा आर्षत्वादिहेतुना साधुरेव, अयमाणे इति तु लक्षणसिद्धः, अर्थस्तूभयत्रापि ||8| | स एवेति, अथात्र गतिप्रश्नाय सूत्रम्-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सर्वोभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं दक्षिणायनापेक्ष-18 या आद्यं मण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत्क्षेत्रं गच्छति', गौतम ! पञ्च पश्च योजनसहस्राणि ।
deseener
~129~
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
9
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- द्वे चैकपञ्चाशे योजनशते सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते वक्षस्कारे
द्वीपशा- अस्मैिश्च मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरं व्यवहारतः परिपूर्ण निश्चय-18 मुहर्तगतिः न्तिचन्द्रमा मतेन तु किञ्चिदूनं ३१५१०७, ततोस्य प्रागुकयुक्तिवशात् षष्टचा भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहर्तगतिप्रमाणं| या चिः
1५२५१४४, अथवा पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः पूर्णान्यष्टादशयोजनानि वर्धन्ते नि॥४४२ श्चयमतेन तु किञ्चिदूनानि, अष्टादशानां योजनानां षष्टया भागे लब्धा अष्टादश षष्टिभागा योजनस्य ते प्राक्तनमण्ड-18
लगतमुहर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तं तत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणमिति, अत्रापि दृष्टिप-18
थप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-यदा अभ्यन्तरद्वितीये भण्डले सूर्यश्चरति तदा इहगतस्य मनुष्यस्य-जातानेकवचनमि॥ त्यत्र गतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहरेकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन, सूत्रे तृतीयार्थे सप्तमी प्राकृत-13 IS त्वात् , सक्षपञ्चाशता च पष्टिभागैर्योजनस्य षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा-एकपष्टिखण्डान् कृत्वा एकषष्टिधा गुणयि
|स्वेत्यर्थः, तस्य सत्कैरेकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः-भागभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरानन्तरे । द्वितीये मण्डले दिवसप्रमाणं द्वाभ्यामेकपष्टिभागाभ्यां हीना अष्टादश मुहूर्तास्तेषाम. नव मुहर्ता एकेनैकषष्टिभागेन ||nen
हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणाथै नवापि मुहूर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते, तेभ्य एकषष्टिभागोऽपनीयते, ततः शेषा । जाता एकषष्टिभागाः पञ्च शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि ५४८, प्रस्तुतमण्डले मुहूर्तगतिः ५२५१ योजन ४ अर्य च
seesesesesedeoeseseeeeese
~130
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----------------------------
----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
राशिः पष्टिच्छेद इति योजनराशिं षष्टया गुणयित्वा सवर्ण्यते जातं ३१५१०७, अयमेव राशिः करणविभावनायां मलयगिरीयक्षेत्रसमासवृत्ती च परिधिराशिरिति कृत्वा दर्शितो लाघवात् भाग्यराशिलब्धस्य भाजकराशिना गुणने मूलराशेरेव लाभात्, एष राशिः पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते जाताः सप्तदश कोट्यः पविंशतिर्लक्षाः अष्ट-18
सप्ततिः सहस्राणि पट् शतानि षट्त्रिंशदधिकानि १७२६७८६३६, अयं च राशिर्भागभागात्मकत्वान्न योजनानि प्रयच्छतीति Kएकषष्टेः षष्टथा गुणिताया यावान् राशिर्भवति तेन भागो ह्रियते, इयं च गणितप्रक्रिया लाघवार्थिका, अन्यथाऽस्य
राशेरेकषष्टया भागे हते पष्टिभागा लभ्यन्ते तेषां च षष्टया भागे हृते योजनानि भवन्तीति गौरवं स्यात्, एकषष्टयां |च पध्या गुणितायां पत्रिंशच्छतानि षष्यधिकानि ३६६०, तैर्भागे हते आगतं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेको-18
नाशीत्यधिक योजनानां ४७१७९, शेष ३४९६, छेदराशेः षष्ट्याऽपवर्त्तना क्रियते जाता एकषष्टिः ६१ तया शेषरा18||शेर्भागो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशत् पष्टिभागाः, एकोनविंशतिश्चैकस्य पष्टिभागस्य सत्काः एकषष्टिभागाः। अथा-181
भ्यन्तरतृतीयमण्डलस्य चार पिपृच्छिषुराद्यसूत्र सूत्रयति-से णिक्खममाणे सरिए दोचंसि' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् | सूर्यो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रस्तुतायनापेक्षया द्वितीयमण्डल इत्यर्थः अभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसङ्काम्य चारं चरति तदा । एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह-गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च द्विपञ्चाशद्योजनशते पञ्चदश षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति,इदं च प्रस्तुतमण्डलपरिरयस्य पट्या भजने संवादमादते, तदा च इह
~131
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[१३३]
ee
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू-18 गतस्य मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता योजनसहनैः षण्णवत्या च योजनैस्त्रयस्त्रिंशता च पष्टिभागैर्योजनस्य पष्टिभागं चैकं वक्षस्कारे द्वीपशा-18 एकषष्टिधा छित्त्वा द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्यां सूर्यश्चक्षुःस्पर्श हवं-शीघ्रमागच्छति, तथाहि-अत्र मण्डले दिनप्रमाणम-18 मुहर्तगतिः या चिः
सू.१३३ I8वादश मुहूर्ताश्चतुर्भिरेकषष्टिभागहीनास्तेपामढ़े च नव द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकर-18
णार्थ नवापि मुहर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते तेभ्यश्च द्वावेकपष्टिभागावपनीयेते शेषाः पश्च शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि ॥४४३18/५४७, प्रस्तुतमण्डले मुहुर्तगतिः ५२५२३५ इत्येवंरूपां योजनराशिं षष्ट्या गुणयित्वा सवर्ण्यते जातं ३१५१२५,
अयमेव राशिरन्यैः परिधिराशित्वेन निरूपितः, अस्य च सप्तचत्वारिंशदधिकपञ्चशतैर्गुणने जाताः सप्तदश कोव्यस्त्रयोविंशतिः शतसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषां पष्टिगुणितया एकषष्ट्या ३६६० भागे हृते आगतानि सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि ४७०९६, शेषं विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तराणि २०१५,छेदराशेः षयाऽपवर्तनाया जाता एकषष्टिः तया शेषराशेर्भजने लब्धात्रयस्त्रिंशत् षष्टिभागाः। शेषौ च । दावेकस्य पष्टिभागस्य सत्काबेकषष्टिभागी ६, इति।सम्प्रति चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-एवं खलु एतेणं उवाएण' मित्यादि, एवं मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्तत्तद्बहिर्मण्डलाभिमुखगमनरूपेण ॥४४३॥ निष्कामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण सङ्क्रामन् २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तेन मुहूर्तगतौ अष्टादश २षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान निश्चयतः किञ्चिदू
~132
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
e
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
नान् अभिवर्द्धयमानः चतुरशीति २ योजनानि शीतानि-किश्चिन्यूनानि पुरिसच्छायमिति-पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततोऽयमर्थः-तस्या निवर्द्धयन् २-हापयन् २, कोऽर्थः -पूर्व २ मण्डलसत्कपुरुषच्छायातो बाह्यवाह्यमण्डलपुरुषच्छाया किञ्चिन्यूनैश्चतुर| शीत्या योजनहींना इत्यर्थः, सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति, यच्चात्रोक्तं ८४ योजनानि किश्चिन्यूनानि उत्तरोत्तरमण्डलसत्कपुरुषच्छायायां हीयन्ते इति तत्स्थूलत उक्तं, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यं-व्यशीतियोजनानि योविंश-18| तिश्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधाच्छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद् भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविपये हानौ ध्रवं, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातु|| मिष्यते तत्तन्मण्डलसङ्ख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां | पञ्चमे त्रिभियावत् सर्वबाह्यमण्डले व्यशीताधिकशतेन गुणयित्वा ध्वराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते सति यद्भवति तेन ||
हीना पूर्वमण्डलसरकदृष्टिपथप्राप्तता तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातव्या, अथ त्र्यशीतियोजनादिकस्य । 19 भवराशेः कथमुपपत्तिः, उच्यते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणे सप्तचत्वारिंशरसहस्राणि द्वे शते त्रिषष्ट्य-18॥ 1धिक योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ४७२६३ १४, एतच्च नवमुहूर्तगम्यं तत एकस्मिन् मुहू कषष्टिभागे |
किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहर्ता एकपट्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि ५४९ तैर्भागे हृते
raeseenerateseseenewesesesec
~133
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------------
----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
श्रीजम्बू- लब्धानि षडशीतिर्योजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्यैकषष्टिधाच्छिन्नस्य चतुर्विंशतिर्भागाः ८६ वक्षस्कारे द्वीपशा- इदं च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले एकस्य मुहूत्तैकषष्टिभागस्य गम्यं, अथ द्वितीयमण्डलपरिरयवृद्ध्यङ्कभजनाद्यल्लभ्यते मुहूर्तगतिः तचन्द्री मुह कषष्टिभागेन तच्छोधनार्थमुपक्रम्यते, पूर्वपूर्वमण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादशाष्टा-15 स. १२३ या वृत्तिः
ग दश योजनानि व्यवहारतः परिपूर्णानि वर्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहूर्त॥४४॥ गतिपरिमाणचिन्ताया प्रतिमुहूर्त्तमष्टादश २ षष्टिभागा योजनस्य वर्धन्ते, प्रतिमुहूर्तकषष्टिभागं चाष्टादशैकस्य षष्टि
भागस्य सत्का एकपष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीयमण्डले नवमुहरेकेन मुहकपष्टिभागेनोनर्यावत् क्षेत्र || व्याप्यते तावति स्थितः सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति ततो नव मुहूर्त्ता एकपल्या गुण्यन्ते जातान्यष्टानवतिशतानि चतु:-1 षष्टयधिकानि ९८६४, तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकपष्टचा भागो हियते लब्धमेकपष्ट यधिक शतं पष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशत् पष्टिभागस्य सरका एकपष्टिभागाः १६१४३, तत्र विंशत्यधिकेन पष्टिभागशतेन उग्धे द्वे योजने अवशेषा एकचत्वारिंशत् षष्टिभागाः एकस्य च पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशत्यष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागा इत्येवंरूपं प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्च |||meen | षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माच्छोध्यन्ते, शोधिते च तस्मिन् स्थिता-1 |नि व्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः ८३
दीप अनुक्रम [२५८]
ececee
909aereasasraea0099909aenerae
Sesese
~134
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
दीप
अनुक्रम
[२५८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
बीजम्बू, ७५
Ja Ecuar inb
|| एतावच्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगत दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाद् द्वितीयमण्डलगत पथप्राप्त तापरिमाणे हीनं स्यात्, | एतच्चोत्तरोत्तरमण्डलदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ ध्रुवं अत एव ध्रुवराशिरित्युच्यते, ततो द्वितीयस्मान्मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डले एप एव ध्रुवराशिरेकस्य पष्टिभागस्य सत्कैः पट्त्रिंशता भागभागैः सहितो यावान् राशिः स्यात्, | तथाहि त्र्यशीतियजनानि चतुर्विंशतिः पष्टिभागा योजनस्य सप्तदश च पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा इति तावान् द्वितीयमण्डलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्रासतापरिमाणं, चतुर्थमण्डले स एव ध्रुवराशिद्वसप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थ हि मण्डलं तृतीयमण्डलापेक्षया द्वितीयं ततः चटूत्रिंशद् द्वाभ्यां गुणिता द्विसप्ततिः स्यात् तथा सहितख्यशीत्यादिको राशिः ८३ २४५१ इत्येवंस्वरूपो जातः, अर्थ च तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राष्ठतापरिमाणाच्छोध्यते ततो यथावस्थितं तुर्यमण्डले दृक्पथप्राप्तिमानं, तश्चेदम्सप्तचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्का दशैकषष्टि| भागाः, सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया व्यशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्तिजिज्ञासा तदा पत्रिंशत् | द्व्यशीत्यधिकशतेन गुण्यते जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२ ततः षष्टिभागानयनार्थमेकपष्ट्या भागे लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां पञ्चविंशतिरवशिष्टाः एतद् ध्रुवराशी प्रक्षिप्यते जातं पञ्चाशीतियजनानि एका| दश पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पडेकषष्टिभागाः ८५६०६, इह पत्रिंशत एवमुत्पत्तिः- पूर्वस्मात् २
|
For P&Pase Cnly
~135~
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्बू- मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां २ मुहू कषष्टिभागाभ्या हीनः स्यात्, प्रतिमुहूर्त्तकषष्टिभागं चाष्टादशवक्षस्कारे न्तिचन्द्री
एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा हीयन्ते, ततः उभयमीलने पत्रिंशत् स्युः, ते चाष्टादश भागाः कलया न्यूना मुहूत्तेगतिः या वृत्तिः
लभ्यन्ते न परिपूर्णाः परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशी
त्यधिकशततममण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागाव्यन्ति, एतदपि व्यवहारत उक्तं ॥४४५॥
परमार्थतः पुनः किञ्चिदधिकमपि त्रुट्यदवसेयम्, ततोऽमी अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पञ्चाशीति|| योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ८५ इति जातं सर्वबाह्य॥ मण्डलानन्तरार्वाक्तनद्वितीयमण्डलगतदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योज-18 || नानां एकोनचत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१९१६३६ इत्येवंरूपा-1
च्छोध्यते ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाने स्वयमेव वक्ष्यति, तत एवं पुरुष-18| || च्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केचिन्मण्डलेषु चतुरशीतिं किञ्चिन्यूनानि उपरितनेषु मण्डलेवधिका-18
॥४४५॥ न्यधिकतराणि उक्तप्रकारेणाभिवर्द्धयन् २ तावदवसेयो यावत्सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, तत्र तु पञ्चाशीति प योजनानि साधिकानि हापयतीत्यर्थः, साधिकव्यशीतिचतुरशीतिपञ्चाशीतियोजनानां सम्भवेऽपि सूत्रे यच्चतुरशीति
ग्रहणं तद् देहलीप्रदीपन्यायेनोभयपार्श्ववर्तिन्योख्यशीतिपञ्चाशीत्योहणार्थमिति । अथोक्त एवं मण्डलक्षेत्रे पश्चानु
seeesesesesesese
~136~
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
पूर्व्या सूर्यस्य मुहूर्तगत्याद्याह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सवबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति', गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि पश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चदश षष्टिभागान् योजनस्य ५३०५६५ एकैकेन मुहर्तेन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिम्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षट्या भक्ते लब्धं | यथोक्तमत्र मण्डले मुहर्तगतिपरिमाणमिति, अत्र टिपधप्राप्ततापरिमाणमाह-तदा' सर्वबाह्यमण्डलधारचरणकाले इह
गतस्य मनुष्यस्येति प्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहरष्टभिश्चैकत्रिंशदधिकैयोजनशतैत्रिंशता च पष्टिभागैयोजनस्य ११८18|३१३: सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमहर्चप्रमाणो, 18 दिवसस्याङ्केन यावन्मान क्षेत्र व्याप्यते तावति स्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहूर्तानामः षट।
मुहूर्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणं पञ्चयोजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य ५३०५१५ तत् पडिर्गुण्यते, दिवसार्द्धगुणिताया एव मुहूर्तगतेदृष्टिपथप्राप्तताकरणत्वात्, ततो यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, यद्यप्युपान्त्यमण्डलदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् पञ्चाशीतिर्योजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः इत्येवंराशौ शोधिते इदमुपपद्यते एतच्च प्राग भावितं तथापि प्रस्तुतमण्डलस्योत्तरायणगतमण्डलानामवधिभूतत्वेनान्यमण्डलकरणनिरपेक्षतया करणान्तरमकारि, इदं च
JaEartG
~137
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्य- 18 सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलात् पूर्वानुपूळ गण्यमानं व्यशीत्यधिकशततमं, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि वक्षस्कारे
यशीत्यधिकशततमस्तेनाय दक्षिणायनस्य चरमो दिवस इत्यादभिधातुमाह-एस णं पढमे छम्मासे एस ण'मित्या-18 मुहूर्तगति। न्तिचन्द्री-18 दि, एप च दक्षिणायनसत्कव्यशीत्यधिकशतदिनरूपो राशिः प्रथमः षण्मास:-अयनरूपः कालविशेषा, पटूसङ्ख्याङ्काः या वृत्तिः
मासाः पिण्डीभूता यति व्युत्पत्तेरिदं समाधेयं, अन्यथा प्रथमः षण्मास इत्येकवचनानुपपत्तिरिति, अथवा पाच्यादि ॥४४६॥ गणान्तः पाठात् स्त्रीत्वाभावे अदन्तद्विगुत्वेऽपि न डीप्रत्ययस्तेनैव तत्प्रथमं षण्मासं आपत्वात् पुंस्त्वं, एतच्च प्रथमस्य प-13
पमासस्य दक्षिणायनरूपस्य पर्यवसानं, अथ सर्ववाह्यमण्डलचारानन्तरं सूर्यो द्वितीयं षण्मासं प्रामुवन् गृह्णन् इत्यर्थः प्रथमे अहोराने उत्तरायणस्येति गम्यं, वाह्यानन्तरं पश्चानुपूा द्वितीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, अधात्र गत्यादिप्रश्नार्थ सूत्रमाह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यानन्तरमाक्तनं द्वितीय मण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा भगवन् ! एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह-गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि च । चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहत्तेन गच्छति ५३०४१४, तथाहि-अस्मिन मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानां ३१८२९७ ततोऽस्य ||
१९०११
॥४४६॥ षष्टया भागे हृते लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणं, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-तदा इहगतस्य मनु-18 प्यस्येति प्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहत्रैः षोडशाधिका नवभिश्च योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य
~138~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
---------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
| एक च पष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सरकै पट्या चूर्णिकाभागैः ३१९१६३० सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि
अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहूर्त्तकपष्टिभागाभ्यामधिकः तेषां चाढ़ें पहश IS मुहूर्ताः एकेन मुहकपष्टिभागेनाभ्यधिकास्ततः सवर्णनार्थ षडपि मुहर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते तत एकः पष्टिभागस्तत्रा
धिकः प्रक्षिप्यते, ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्टयधिकानि एकषष्टिभागानां ३६७, ततः प्रस्तुतमण्डले यत्परि-1 माणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके ३१८२९७, इदं च योजनराशिं षष्टया गुणयित्वा सव|णिता मुहर्तगतिरिति यथा व्यवहियते तथा प्रागुक्तम् , एतदेभित्रिभिः शतैः सप्तषष्टयाऽधिकैगुण्यते जाता एकादश ||81 K कोटयोऽष्टषष्टिलक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि नव शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४९९९, एतस्य एकपष्टया गुणितया A|पष्टया ३६६० भागो हियते लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि ३१९१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंश|तिशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३९ न चातो योजनान्यायान्ति ततः पष्टिभागानयनाथेमेकषष्टया भागो हियते लब्धा एकोनचत्वारिंशत् पष्टिभागाः ३९ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ।। अथ तृतीयं । मण्डलं-से पविसमाणे' इत्यादि, अथ प्रविशन्-जम्बूद्वीपाभिमुखं चरन् सूर्यः द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरायणसत्के इत्यर्थः बाह्यतृतीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति, तदा किमित्याह-'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यतृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा एककेन मुहन कियत क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह-गौतम! पञ्च पञ्च योजनसह
~139~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],----------------............
----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
श्रीजम्यू-1 साणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य ५३०४। एकैकेन मुहर्तन ॥ अनुस्कार पागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८-18
मुहूर्तगतिः न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
२७९ अस्य च षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणं, अधात्र दृष्टिपथप्राप्तता-तदा इहगतस्य
मनुष्यस्य एकाधिकात्रिंशता सहस्रैरेकोनपञ्चाशता च पष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविं18| शत्या चूर्णिकाभागैः ३२००१४४ ३ सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहर्चप्रमाण-10 IS चतुमिहत्तैकषष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्ध षटू मुहूर्ता द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यामधिकास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थ
षडपि मुहूर्ता एकपष्ट या गुण्यंते गुणयित्वा च तत्र द्वावेकपष्टिभागी प्रक्षिप्येते ततो जातानि त्रीणि शतानि अष्टषष्टयधिकानि एकपष्टिभागानां ३६८, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७९ एतत् त्रिभिः शतैः अष्टपष्ट वधिकैर्गुण्यते जाता एकादश कोटयः एकसप्ततिः शतसहस्राणि पटुिंशतिः सहस्राणि षट् शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२, अस्य एकषष्टचा | गुणितया षष्टया ३६६० भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१शेष त्रीणि सहस्राणि द्वादशो-18|॥४४७॥
तराणि ३०१२ तेषां पष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकोनपञ्चाशत् षष्टिभागाः १. एकस्य पष्टि-18| भागस्य सत्कास्त्रयोविंशतिश्चूर्णिकाभागाः ३३ इति, समवायोजे तु त्रयस्त्रिंशसमवाये 'जया णं सूरिए बाहिराणंतरतचं
~140
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------------
----- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
३ मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तथा णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खुफास |
हबमागच्छइत्ति एतद्वृत्तौ च इह तु यदुक्कं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्यूनास्तत्र सातिरेकयोजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षि
तेति सम्भाव्यते इति, अथात्रापि चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्केन प्रकारेण खलु-निश्चि-15 र तमेतेनोपायेन-शनैः२ तत्तदनन्तराभ्यन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् तदन-18
न्तरं मण्डलं सङ्कामन् २ एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र द्वितीया पूर्ववत् मुहूर्चगतिपरिमाणे अष्टादश २ षष्टि-18 K भागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किञ्चिदूनान निवर्द्धयन् २ हापयन्नित्यर्थः, पूर्वमण्डलात् अभ्यन्त
राभ्यन्तरमण्डलस्य परिरयमधिकृत्याष्टादशयोजनहीनत्वात् , पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया पूर्ववत् , ततोऽयमर्थःपुरुपच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां नवभिः षष्टिभागैः षष्टया च चूर्णिकाभागैः सातिरेकाणि-समधिकानि पश्चाशीति | योजनान्यभिवर्द्धयन् २ प्रथमद्वितीयादिषु कतिपयेषु मण्डलेषु इयं वृद्धिज्ञेया सर्वमण्डलापेक्षया तु येनैव क्रमेण || सर्वाभ्यन्तरागमण्डलासरतो दृष्टिपथप्राप्ततां हापयन्निर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्ववाह्यान्मण्डलादकतनेषु दृष्टिपथप्राप्तताम-18 भिवर्द्धयन् प्रविशति, तत्र सर्ववाह्यमण्डलादाक्तनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् सर्ववाद्ये मण्डले पञ्चाशीति योजनानि नव षष्टिभागान् योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधा भित्त्वा तस्य सत्कान् पष्टिभागान् हाप-16 यति, एतच्च मागेव भावितं तस्मात् सर्ववाह्यादाक्तने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमा-1
~141
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
बापशा-1
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [२५८]
|णेऽभिवर्द्धयति तच्च ध्रुवं, ततोर्वाक्तनेषु मण्डलेषु यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्यते तृतीयमण्डलादारभ्य 18| वक्षस्कारे तत्तन्मण्डलसङ्ख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्धमण्डलचिन्तायां द्वाभ्यां एवं यावत् । मुहूर्त्तगतिः
सर्वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां दुयशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिया वृत्तिः
ना सहितं पूर्वश्मण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र मण्डले द्रष्टव्यं, यथा तृतीये मण्डले षट्त्रिंशदेकेन गुण्यते, ॥४४८॥
श'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता पत्रिंशदेव सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं-पञ्चाशीतियोजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागाः ८५ एतेन पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं एकत्रिंशत् सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामे कोनचत्वारिंशदेकपष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकपष्टिभागाः ३१९१६ इत्येवंरूपसहितं क्रियते कृते च तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति तच्च प्रागेव प्रदर्शितं, चतुर्थे मण्डले पत्रिंशद् द्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय | शेषेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राधतापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरि
माणं भवति-द्वात्रिंशत्सहस्राणि षडशीत्यधिकानि योजनानामष्टपञ्चाशत् पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सरकाः ॥४४८॥ 1 एकादर्शकपष्टिभागाः ३२०८६ ५४१ एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताप-18
रिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा पत्रिंशदू ब्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य यशी
~142
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
----- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
medies
त्यधिकशततमत्वात् , ततो जातानि पञ्चषष्टिः शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ६५५२, तेषामेकषष्टचा भागे हते लब्धं । सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां शेषाः पञ्चविंशतिः३.६१, एतत्पञ्चाशीतिर्योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टि-18 भागस्य सत्काः पष्टिरेकपष्टिभागाः ८५०६४ इत्येवरूपाद ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् ध्यशीतियोजनानि 18 द्वाविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह षट्त्रिंशदेकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते, एतच्च प्रागेवोपदर्शितं, तच्च कलाया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशीत्यधिकशतत-8 ममण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा लभ्यन्ते ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते ततो जातमिद-18
व्यशीतियोजनानि त्रयोविंशतिःषष्टिभागाः योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः ८३३१ ४ एतेन सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिक यो|| जनानां सप्तपञ्चाशत् पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः ४७१७९३४. इत्येवंरूपसहितं क्रियते ततो यथोकं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ठतापरिमाणं भवति, तच्च सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्टयधिके योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ४७२६३३५ एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु । मण्डलेषु सातिरेकाणि पञ्चाशीति २ योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीति २पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि ध्यशीति योजनानि 18 अभिवर्द्धयन २ तावद् वक्तव्यो यावत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलं सर्वबाह्या
299990000000000
दीप अनुक्रम [२५८]
aae390
~143
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----------- मूलं [१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
मानं सू.
[१३३]
॥४४९॥
दीप अनुक्रम [२५८]
नन्तरात् मण्डलात् पश्चानुपूर्व्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततम, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि त्र्यशीत्यधिक- अवक्षस्कारे | शततमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवस इत्याद्यभिधातुमाह-एसणं दोचे छम्मासे' इत्यादि, एष द्वितीयः पण्मासः-18 दिनरात्रिप्रागुक्तयुक्त्या अयनविशेषो ज्ञातव्यः, एतत् द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानं त्र्यशीत्यधिकशततमाहोरात्रत्वात् , एपमान
१३४ आदित्यः संवत्सर:-आदित्यचारोपलक्षितः संवत्सर इति, इत्यनेन नक्षत्रादिसंवत्सरच्युदासः, एतच्चादित्यस्य संवत्सरस्य 8 पर्यवसानं चरमायनचरमदिवसत्वात् इति समाप्तं मुहर्तगतिद्वारम्, तत्सम्बद्धाच दृष्टिपथवक्तव्यताऽपि ॥ अथाष्टमं| दिनरात्रिवृद्धिहानिद्वारं निरूप्यते
जया णं भंते ! सूरिए सबभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया ण केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गोमा ! तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उनोसए अट्ठारसमुहुरो विवसे भवइ जहण्णिा दुवालसमुहत्ता राई भवर से णिक्खममाणे सूरिए णवं । संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरसि अभंतराणंतर मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार घरद तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गो०! तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि अ एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति, से णिक्खममाणे सूरिए दो
॥४४९॥ चंसि अहोरसि जाव चारं घरइ तया ण केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ, गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवह पाहि एगहिभागगुहुरोहिं ऊणे दुवालसाहुत्ता राई भवइ चाहिं एगसहिभागनुहुत्तेहिं अहिअत्ति, एवं खलु एएणं उवा
अथ दिन-रात्रि वृद्धि-हानि प्ररुप्यते
~144
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],----------------..........
----- मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप
एणं निक्खमाणे सूरिए तगाणंतराओ मैडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं मंडले विवसखित्तस्स निम्बुद्धेगाणे २ रवणिखिस्स अभिवद्धेमाणे २ सबवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइति, जया णं सूरिए सबभतराओ मंडलाओ सबबाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार चरइ तथा णं सबभतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिअसणं तिणि छावढे एगसद्विभागगुहुत्तसए दिवसखेत्तरस निम्बुद्धत्ता रयणिखेत्तस्स अमिबुद्धत्ता चार चरइत्ति, जया गं भंते ! सूरिए सव्ववाहिर मंडलं उपसंकमित्ता चार परइ तया गं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ?, गोअमा! तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उफोसिआ अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुते दिवसे भवइत्ति, एस णं पढमे छम्मासे एस णे पढमस्स छम्मासस्स पजवसाणे । से 4बिसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढ़मंसि अहोरत्तैसि वाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरा, जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ?, गो० ! अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिनागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमूहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमूहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोमंसि अहोर तसि पाहिरतवं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, जया णं भंते | सूरिए वाहिरतचं मंडलं उपसंकमित्ता चार परद तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालियां राई भवइ, गो० ! तया णं अट्ठारसमहुत्ता राई भवइ चाहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए इति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए त. याणतराओ मंडलाओ तयाणतर मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसठिमागमुहुत्तेहिं एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे २ दिवसखेत्तरस अभियुद्धेमाणे २ सय्यम्भंतर मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइत्ति, जया गं भंते ! सूरिए सव्वयाहिराओ मंडलाओ
अनुक्रम [२५९]
JaEcarhter
~145
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---------------------------
------ मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप
सध्वम्भतरं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ तयाण सबवाहिरं मंडलं पणिहाय एगेण तेसीएणं राइविभसएणं तिणि वक्षस्कारे द्वीपशा-| छाबछे एगसद्विभागमुहुत्तसए रयणिवेत्तरस णिव्वुद्धत्ता दिवसखे तस्स अभिववेत्ता चार चरइ, एस ण दोगे छम्मासे दिनरात्रिन्तिचन्द्री- एस णे तुमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एसणं आइचे संवच्छरे एस णं आइनस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पाणते ८ (सूर्य १३४)
मानं स. या वृत्तिः
'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा को महान् आलयो-18 ॥४५॥ व्याप्यक्षेत्ररूपः आश्रयो यस्यासौ किमहालयः कियानित्यर्थः दिवसो भवति, किंमहाळया-कियती रात्रिर्भवति ?, भग
पानाह-गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठा प्राप्त:-उत्तमावस्था प्राप्तः आदित्यसंवत्सरसत्कषट्पष्टवधिकत्रिशतदिवसमध्ये यतो॥ नापरः कश्चिदधिक इत्यर्थः अत एवोत्कर्षका उत्कृष्ट इत्यर्थः अष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति, यत्र मण्डले याव-| प्रमाणो दिवसस्तत्र तदपेक्षया अ (शेषा) होरात्रप्रमाणा रात्रिरिति जपन्यिका द्वादशमुहर्ता रात्रिः, सर्वस्मिन् क्षेत्रे || | काले वाऽहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तसङ्ग्याकत्यस्य नैयत्यात् , ननु यदा भरतेऽष्टादशमुहर्त्तप्रमाणो दिवसस्तदा विदेहेषु जघ-18
न्या द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिसहि द्वादशमुहूर्तेभ्यः परं रात्रेरतिक्रान्तत्वेन षट् मुहूर्तान यावत्केन कालेन भाव्यं ?, एवं |भरतेऽपि वाच्यम् , उच्यते, अन्न षड्रमुहुर्तगम्यक्षेत्रेऽवशिष्टे सति तत्र सूर्यस्योदयमानत्वेन दिवसेनेति, तश्च सूर्योदया-181 ॥४५॥
स्तान्तरविचारणेन सन्मण्डलगतदृष्टिपथप्राप्तताविचारणेन च सूपपन्नं, आह-एवं सति सूर्योदयास्तमयने अनियते आ४ पन्ने, भवतु नाम, न चैतदनार्षम् , यदुक्तम्-"जह जह समए समए पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओवि
अनुक्रम [२५९]
~146~
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----------------------------
------ मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप
नियमा जायइ रयणीइ भावत्थो ॥१॥ एवं च सइ नराणं उदयत्थमणाई होतऽनिययाई । सइ देसकालभेए | कस्सइ किंची य दिस्सए नियमा ॥२॥ सइ चेव य निदिडो रुद्द मुहुत्तो कमेण सबेसि। केसिंचीदाणिपिअ विसयपमाणो रवी जेसि ॥३॥" ति [ यथा यथा समये समये पुरतः संचरति भास्करी गगने तथा तधेतोऽपि नियमात् जायते रजनीति भावार्थः ॥१॥ एवं च सति नराणामुदयास्तमयने अनियते भवतः। सति देशकालभेदे कस्यापि किंचियवहार्यते नियमात् ॥ २ ॥ सकृदेव च निर्दिष्टो रुद्रमुहूर्तः क्रमेण सर्वेषाम् । केषाश्चिदिदानीमपि च || | विषयममाणो रविर्येषां भवति ॥ ३॥1 यत्त सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ती सूर्यमण्डलसंस्थित्यधिकारे समचतुरस्त्रसंस्थि-18
तिवर्णनायां युगादी एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां एकश्चन्द्रो दक्षिणापरस्यां द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां द्वितीयः चन्द्रः81 | उत्तरपूर्वस्यामित्युक्त तत्तु दक्षिणादिभागेषु मूलोदयापेक्षया इति बोध्यं, अयं च सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्वसंवत्सरस्य चरमो 8|| दिवस इति वक्तुमाह-से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सरमयमानः-प्रामुवन्नाददान | इत्यर्थः, प्रथमे अहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति इति, अथ दिनरात्रिवृक्षपवृज्यर्थमाह
'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा भगवन् ! कि1 महालयः-किंप्रमाणो दिवसः किंमहालया-किंप्रमाणारात्रिः, भगवानाह-गौतम! तदा अष्टादशमुहर्चप्रमाणो द्वाभ्यां
महत्काष्टिभागाभ्यामूनो दिवसो भवति, अत्र सूत्रे प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, द्वादशमुहत्तेप्रमाणा द्वाभ्यां मुहरेक
अनुक्रम [२५९]
Betcence
~147
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप
श्रीजम्बू- पष्टिभागाभ्यामधिका रात्रिर्भवति, अनोपपत्तियथा-अष्टादशमुहूर्ते दिवसे द्वादश ध्रुवमुहूर्ताः षट् चरमुहूर्ताः, ते च वक्षस्कार द्वीपशा- मण्डलानां ध्यशीत्यधिकशतेन वर्धन्ते चापवर्द्धन्ते, ततोऽत्र त्रैराशिकावतार:-यदि मण्डलानां यशीत्यधिकशतेन षट् । दिनरात्रिMR मुहूर्ताः वर्द्धन्ते चापवर्द्धन्ते तदा एकेन मण्डलेन किं वर्द्धते चापवर्द्धते ?, स्थापना यथा १८३ । ६।१ अत्रान्त्यरा-1||
मानं सू. या वृत्तिः
१३४ शिना एककलक्षणेन मध्यराशिः पटलक्षणो गुण्यते, गुणिते च 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति पडेव स्थितास्ते चादिरा।।४५१॥ शिना भज्यन्ते अल्पत्वाद् भागं न प्रयच्छन्तीति भाज्यभाजकराश्योखि केणापवर्त्तना कार्या, जात उपरितनो राशि-18
|र्द्विकरूपः अधस्तन एकषष्टिरूपः आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य अतो दिवसेऽपवर्तेते रात्री च बर्द्धते इति,
एवमग्रेऽपि करणभावना कार्या । अथाग्रेतनमण्डलगते दिनरात्रिवृद्धिहानी पृच्छन्नाह-से णिक्खममाणे' इत्यादि, 8 अथ निष्कामन् सूर्यो दक्षिणायनसत्के द्वितीये अहोरात्रे अत्र यावच्छब्दाद् 'अम्भंतरतचं मंडल उपसंकमित्ता' इति
ज्ञेयं, सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयं मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा किंप्रमाणो दिवसः किंप्रमाणा रात्रिर्भवति,101 गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्यामित्येवं चतुर्भिर्मुहूत्तै-16 कपष्टिभागैरूनो दिवसो भवति द्वादशमुहर्ता उक्तप्रकारेणैव चतुर्भिमहत्तैकषष्टिभागैरधिका रात्रिर्भवति, उक्तातिरिक्त-18|| ॥४५॥ मण्डलेष्वतिदेशमाह-'एवं खलु एएण' मित्यादि, एवं मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलु-निश्चितमेतेन-अनन्तरोकेनोपायेन-8 प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसत्कमुहू कषष्टिभागद्वयवृद्धिहानिरूपेण निष्कामन-दक्षिणाभिमुखं गच्छन् सूर्यस्तदनन्तरा
अनुक्रम [२५९]
~148~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ------ मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
18 मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं सङ्ग्रामन् द्वौ द्वौ मुह कषष्टिभागावेककस्मिन् मण्डले दिवसक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् २-हापयन २||
रजनिक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्द्धयन् २, कोऽर्थः ?-मुहर्सेकषष्टिभागवयगम्यं क्षेत्रं दिवसक्षेत्रे हापयन् तावदेव रजनिक्षेत्रे 18 अभिवर्द्धयनिति सर्वबाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति, प्रतिमण्डलं भागद्वयहानिवृद्धी उक्ते, असर्वमण्डलेषु भागानां
हानिवृद्धिसर्वाग्रं वक्तुमाह-'जया ण' मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादित्यत्र यवलोपे पञ्चमी वक्तव्या, तेन । | सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमारभ्य सर्ववाह्यमण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य 8
ततः परस्माद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः एकेन व्यशीतेन-व्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवाना-अहोरात्राणां शतेन त्रीणि । षट्पष्टानि-पट्पष्ट चधिकानि मुहू कषष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्याभिवर्य कोऽर्थः१-पट्पष्टयधिकत्रिशतमुहर्तकपष्टिभाग-18|
र्यावन्मानं क्षेत्रं गम्यते तावन्मानं क्षेत्रं हापयित्वा इत्यर्थः, तावदेव क्षेत्रं रजनिक्षेत्रस्याभिवचारं चरति, अयमर्थ:दक्षिणायनसत्कव्यशीत्यधिकमण्डलेषु प्रत्येक हीयमानभागद्वयस्य व्यशील्यधिकशतगुणनेन षट्पष्टयधिकत्रिशतराशिरुपप-18 यत इति तावदेव रजनिक्षेत्रे वर्द्धते इत्यर्थः, एतदेव पश्चानुपूर्व्या पृच्छति-'जया ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्त-॥र रसूत्रे गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता-प्रकृष्टावस्था प्राप्ता अत एवोत्कर्षिका-उत्कृष्टा, यतो नान्या प्रकर्षवती रात्रिरि| त्यर्थः, अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति तदा त्रिंशन्मुहुर्तसङ्ख्यापूरणाय जघन्यको द्वादशमुहर्सप्रमाणो दिवसो भवति, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्य चरम इत्यादि प्रज्ञापनार्थमाह-एस ण' मित्यादि, एतच्च प्रा
~149~
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप अनुक्रम [२५९]
श्रीजम्बू- गुतार्थम् , अथात्र द्वितीय मण्डलं पृच्छन्नाह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्ववाह्यानन्तरं द्वितीय मण्डल-13 ध्यक्षस्कारे द्वीपशा-18 मुपसङ्कम्य चार चरति तदा किंप्रमाणो दिवसो भवति, किंप्रमाणा रात्रिर्भवति ?, गौतम ! अष्टादशमुहर्ता द्वाभ्यां || दिनरात्रिन्तिचन्द्री-18 महरौंकषष्टिभागाभ्यामूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूत्तों द्वाभ्यां मुहूत्तैकषष्टिभागाभ्यामधिको दिवसो भवति, भागयो- मान स. या वृत्तिः
१३४ ॥ नाधिकत्वकरणयुक्तिः प्राग्वत्, अथ तृतीयमण्डलप्रश्नायाह-से पविसमाणे' त्ति प्राग्वत्, प्रश्नसूत्रमपि तथैव, उत्तर॥४५२॥18 सूत्रे गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्ता द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसरकाभ्यां इत्येवं चतुर्भि:-चतुः
IS सङ्ख्याकैर्मुहूत्र्तकषष्टिभागैरूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूर्त्तश्च तथैव चतुर्भिर्मुहू कषष्टिभागैरधिको दिवसो भवति, उक्ता॥तिरिक्तेषु मण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एवं-मण्डलत्रयदर्शितरीत्या एतेनानन्तरोक्तेनोपायेन प्रतिमण्डलं दि-15
वसरात्रिसत्कमुहूकषष्टिभागद्वयवृद्धिहानिरूपेण प्रविशन् जम्बूदीपे मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २ द्वौ द्वौ मुहूसेकषष्टिभागौ एकैकस्मिन् मण्डले रजनिक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् २ दिवसक्षेत्रस्य तावेपाभिवर्द्धयन २ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चारं चरति, अत्रापि सर्वमण्डलेषु भागानां हानिवृद्धिसर्वानं निर्दिश-12
४५२॥ माह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्ववाह्यात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्क्रम्य चार चरति तदा सर्वबाह्य मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य तदाक्तनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः एकेन व्यशीत्यधिकेन रानिन्दिवशतेन त्रीणि
~150
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------------
------- मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
षट्पष्ट्यधिकानि मुहूकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निवय २ दिवसक्षेत्रस्य तान्येवाभिव_ २ चारं चरति एष चाहोरात्र उत्तरायणस्य चरम इत्यादि निगमयन्नाह-एस ण मित्यादि प्राग्वत् ॥ अथ नवमं तापक्षेत्रद्वार
प्रत सूत्रांक [१३४]
दीप
अनुक्रम [२५९]
जया णं भंते ! सूरिए सम्बन्भतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिआ तावखित्तसंठिई पण्णता ?, गो! उद्धी. मुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिआ तावखेत्तसंठिई पण्णत्ता अंतो संकुआ बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं बिहुला अंतो अंकमुहसंठिआ बाहिं सगडुद्धीमुहसंठिआ उत्तरपासे णं तीसे दो बाहाओ अवहिआओ हवंति पणयालीसं २ जोअणसहस्साई आयामेणं, दुवे अणं तीसे बाहाओ अणवद्विआओ हवंति, जहा-सव्वन्भंतरिआ चेव वाहा सव्ववाहिरिआ चेव बाहा, तीसे सव्वम्भंतरिआ बाहा मंदरपव्ययंतेणं णवजोअणसहस्साई चत्तारि छलसीए जोअणसए णव य दसभाए जोमणस्स परिक्खेवेणं, एस णं भंते ! परिक्खेवबिसेसे कओ आहिएति वएना?, गोमा! जे णं मदरस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे आहिपति वदेना, तीसे गं सव्ववाहिरिशा बाहा लवणसमुईतेणं चउष्णवई जोअणसहस्साई अट्ठसट्टे जोअण. सए चत्तारि अ दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, सेणं भंते! परिक्खेवविसेसे कभो आहिएति वएज्जा ?, गो०! जे गं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसभागे हीरमाणे एस पं परिक्खेवविसेसे आहिएत्ति वएज्जा इति । तया गं भंते ! तावखित्ते केवो आयामेणं 40, गो० अट्टहत्चरिं जोअणसहस्साई तिण्णि अ तेतीसे जोमणसय जोमणस्स तिभागं च आयामेणं पण्णते, मेस्स मझयारे जाव य लवणस्स रुंदछन्भागो । तावायामो एसो सगडुद्धीसंठिो नियमा ॥ १॥" तया
Jatni
अथ तापक्षेत्र द्वारम् प्ररुप्यते
~151
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः
90sae
[१३५]
॥४५३॥
गाथा
18 वक्षस्कार गंभंते ! किंसंठिा अंधकारसंठिई पण्णता, गोअमा! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिआ अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुभा बाहिं वित्थडा सं चेव जाव तीसे गं सम्वन्भंतरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोअणसहस्साई तिष्णि अ चपीसे जोअण
तापक्षेत्र
सू.१३५ सए छच दसभाए जोमणस्स परिक्खेयेणति, से णं भंते! परिक्खेवषिसेसे कओ आहिएतिवएजा, गो०! जे णं मंदरस्स पब्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविससे आहिएति वएजा, तीसे पं सम्पबाहिरिआ बाहा लवणसमुईतेणं तेसट्ठी जोअणसहस्साई दोणि य पणयाले जोअणसए छच्च दसभाए जोमणस परिक्खेवेणं, से ण भंते ! परिक्खेवविसेसे को आहिएतिवएज्जा, गो० ! जेणं जंबुद्दीवस्स परिक्खेये तं परिक्खेवं दोहिंगुणेत्ता जाव तं चेव तया ण भंते ! अधयारे केवइए आयामेणं पं०१, गो.! अट्ठहत्तर जोअणसहस्साई तिणि अ तेतीसे जोअणसए तिभागं च आयामेण पं० । जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडल उपसंकमिशा चार चरइ तया णं किंसंठिआ ताबक्खित्तसंठिई पं०१, गो०? उद्धीमुहकलंचुआपुष्फसंठाणसंठिआ पण्णत्ता, तं चेव सव्यं अव्वं णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुल्चवणिों पमाणं तं तावखित्तसंठिईए अव्वं, जं ताव खित्तसंठिईए पुलवणि पमाणं तं अंधयारसंठिईए अब्धति (सूत्र १३५)
'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति तदा किंसंस्थिता-किंसंस्थाना ॥५३॥ तापक्षेत्रस्य-सूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डस्य संस्थिति:-व्यवस्था प्रज्ञप्ता, सूर्यातपस्य किं संस्थानमितियावत्, भगवानाहगौतम! अवमुख अधोमुखत्वे तस्य वक्ष्यमाणाकारासम्भवात् यत् कलम्बुकापुष्प-नालिकापुष्पं तसंस्थानसंस्थिता
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~152
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------------- ------------------- मूलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, इदमेव संस्थानं विशिनष्टि-अन्तः-मेरुदिशि सङ्कुचिता बहिः-लवणदिशि विस्तृता, 9 तथा अन्त: मेरुदिशि वृत्ता-अर्द्धवलयाकारा सर्वतो वृत्तमेरुगतान् त्रीन् द्वौ वा दशभागान् अभिव्याप्यास्या व्यवस्थितत्वात् , बहिः-लवणदिशि पृथुला-मुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्टयति-अन्तर्मेरुदिशि अङ्क:पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूप आसनबन्धस्तस्य मुखं-अग्रभागोऽर्द्धवलयाकारस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, बहिः-लवणदिशि शकटस्योद्धिःप्रतीता तस्याः मुख-यतःप्रभृति निश्रेणिकाया फलकानि बध्यन्ते तच्चातिविस्तृतं भवति तत्संस्थाना, अन्तर्बहिर्भागौ प्रतीत्य यथाक्रम सङ्कुचिता विस्तृता इति भावः आदर्शान्तरे तु 'बाहिं सोथिअमुहसंठि-10
आ' पाठस्तत्र स्वस्तिकः प्रतीतस्तस्य मुखं-अग्रभागस्तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, अथास्याः 18|| आयाममाह-'उभओपासे ण' मित्यादि, उभयपार्थेन-मन्दरस्योभयोः पार्श्वयोः तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्वि-1|| 18 धाव्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन द्वे चाहे-द्वे द्वे पायें अवस्थिते-अवृद्धिहानिस्वभावे सर्वमण्डलेष्वपि नियतपरि
माणे भवतः, अयमर्थ-एका भरतस्थसूर्यकृता दक्षिणपाचे द्वितीया ऐरवतस्थसूर्यकृता उत्तरपाय इति द्विप्रकारा, सा || च पञ्चचत्वारिंशतं २ योजनसहस्राणि आयामेन, मध्यवर्तिनो मेरोरारभ्य द्वयोर्दक्षिणोत्तरभागयोः पञ्चचत्वारिंशता यो-18 | जनसहर्व्यवहिते जम्बूद्वीपपर्यन्ते व्यवस्थितत्वात् , एवं पूर्वापरभागयोरपि, यदा तत्र सूयौं तदाऽयमायामो चोध्या, एतच्च सूत्रं जम्बूद्वीपगतायाममपेक्ष्य बोध्यं, लवणसमुद्रे तु त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~153
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ........-----...-------------------------------------- मलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
epen
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
श्रीजम्बू- एकश्च त्रिभागो योजनस्येति, एतच्च एकत्र पिण्डितं अष्टासप्ततिः सहस्राणि योजनानां त्रीणि शतानि इत्यादिकं सूत्रकृ- वक्षस्कारे द्वीपशा-18 दो वक्ष्यति तत्र सोपपत्तिकं निगदिष्यत् तेनात्र पुनरुकभिया नोक्तं। सम्प्रत्यनवस्थित बाहास्वरूपमाह-'दुवे अण' मि-hel तापक्षेत्र न्तिचन्द्री
त्यादि, तस्याः-एकैकस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेः द्वे च बाहे अनवस्थिते-अनियतपरिमाणे भवतः, प्रतिमण्डलं यथायोगं हीय-18 या वृचिः
मानवर्द्धमानपरिमाणत्वात् , तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या चैवशन्दी प्रत्येकमनवस्थितस्वभावद्योतनाथौं, तत्र या ॥४५४॥ | मेरुपाय विष्कम्भमधिकृत्य पाहा सा सर्वाभ्यन्तरा या तु लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तमधिकृत्य थाहा सा सर्वचाह्या,
आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तव्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततयेति, साम्प्रतं सर्वाभ्यन्तरापरिमाणं निर्दिशति-18 । तीसे ण'मित्यादि, तस्या-एकैकस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा थाहा मेरुगिरिसमीपे नव योजनसहस्राणि चत्वा
रि षडशीत्यधिकानि योजनशतानि नव च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपत्यर्थं प्रश्नमाह-एस ण'मि.
त्यादि, एषः-अनन्तरोक्तप्रमाणः परिक्षेपविशेषो-मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात् एवंप्रमाण आख्यातो नोनोs|| धिको वा इति वदेत् , भगवानाह-गौतम ! यो मन्दरस्य परिक्षेपस्तं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा-दशभिर्विभज्य 1 एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-दशभिर्भागे हियमाणे सति एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, अयमर्थ:- ॥४५॥
मेरुणा प्रतिहन्यमानः सूर्यातपो मेरुपरिधि परिक्षिप्य स्थित इति मेरुसमीपेऽभ्यन्तरतापक्षेत्रविष्कम्भचिन्ता, अथैवं A सति सत्रयोविंशतिषट्शताधिकैकत्रिंशत्सहस्रयोजनमानः सर्वोऽपि मेरुपरिधिरस्य तापक्षेत्रस्य विष्कम्भतामापयेत इति।
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~154
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------- ---------------------- मूलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
चेत् , न, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो दीप्तलेश्याकरवाज्जम्बूद्वीपचक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तचक्रवालक्षेत्रा- ॥५॥ 1 नुसारेण त्रीन दशभागान् प्रकाशयति दशभागानां त्रयाणां मीलने यावत् प्रमाण क्षेत्र तावत्तापयतीत्यर्थः, ननु तहि |
मेरुपरिधेत्रिगुणीकरणं किमर्थं दशभागानां त्रिधागुणनेनैव चरितार्थत्वात् , सत्यं, विनेयानां सुखावबोधाय, भगवतीवृत्तौ तु श्रीअभयदेवसूरिपादा दशभागलब्धं त्रिगुणं चक्रुरिति, अथ दशभिर्भागे को हेतुरिति चेत्, उच्यते, जम्बू-15 द्वीपचक्रवालक्षेत्रस्य त्रयो भागा मेरुदक्षिणपार्षे त्रयस्तस्यैवोत्तरपार्श्वे द्वौ भागौ पूर्वतो द्वौ चापरतः सर्वमीलने दश, तत्र भरतगतः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चरन् श्रीन भागान दाक्षिणात्यान प्रकाशयति, तदानीं च श्रीनौत्तराहाम् ऐरवतगतः तदा द्वौ भागौ पूर्वतो रजनी द्वौ चापरतोऽपि, यथा यथा क्रमेण दाक्षिणात्य औत्तराहो वा सूर्यः सञ्चरति तथा तथा तयोः प्रत्येक तापक्षेत्रमप्रतो वर्द्धते पृष्ठतच हीयते, एवं क्रमेण सञ्चरणशीले तापक्षेत्रे यंदैकः सूर्यः पूर्वस्यां परोऽपरस्यां
वर्त्तते तदा पूर्वपश्चिमदिशोः प्रत्येकं त्रीन् भागांस्तापक्षेत्रं द्वौ भागौ दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येक रजनीति, अथ गणितकर्मवि18 धानं, तत्र मेरुव्यासः १०००० एषां च वर्गों दश कोट्यः १०००००००० ततो दशभिर्गुणने जातं कोटिशतं । 18||१००००००००० अस्य वर्गमूलानयने लब्धान्येकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ३१६२३ 18 एष राशिखिभिर्गुण्यते जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि अष्टौ शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि ७४८६९ एषां दशभिर्भागे 18 लब्धानि नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य । अथ सर्वबाह्यबाहापरि
ewewerserseaseemeneweseaercercereasa
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
sersesed
Jantictart-1
~155
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------- --------------------- मूलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३५]
सू.१३५
गाथा
श्रीजम्यू-18|माणमाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वबाह्या लवणसमुद्रस्यान्ते-समीपे चतुर्नवति योजनसह-18| वक्षस्कार द्वीपशा
तापक्षेत्रं K माणि अष्टौ च षष्ट्याधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपादकसूत्रमाह-'से णं
भंते ! परिक्खे।' इत्यादि, स भदन्त ! परिक्षेपविशेषोऽनन्तरोक्तो य इति गम्यं कुत आख्यात इति गौतमो वदेद्,181 या वृतिः
वदति भगवानाह-गौतम ! यो जम्बूद्वीपपरिक्षेपस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्चित्त्वा-दशभिविभज्य इदमेव 81 ॥४५५॥ पर्यायेणाह-दशभिर्भागे हियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यातो मयाऽन्यैश्चाप्तैरिति वदेत् स्वशिष्येभ्यः, इदमुक्तं भवति-18
तापक्षेत्रस्य परमविष्कम्भः प्रतिपिपादयिषितव्यः, स च जम्बूद्वीपपर्यन्त इति तत्परिधिः स्थाप्यः योजन ३१६२२७ काक्रोश ३ धनूंषि १२८ अं१३ अर्द्धालं १ एतावता च योजनमेकं किश्चिदनमिति व्यवहारतः पूर्ण विवक्ष्यते-सांश-1
राशितो निरंशराशेगणितस्य सुकरत्वात् , ततो जातं ३१६२२८, एतत् त्रिगुणं क्रियते जातानि नव लक्षाणि अष्टचत्वारिंशरसहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि ९४८६८४, एषां दशभिर्भजने लब्धानि चतुर्नवतिर्योजनसहस्राणि अष्टौ शतानि अष्टपष्ट धधिकानि चत्वारश्च दशभागायोजनस्य, अनापि त्रिगुणकरणादौ युक्तिः प्राग्वत् , नम्वन्यत्र 'रविणो | उदयत्थंतरचउणवइसहस्स पणसय छवीसा। बायाल सहिभागा ककडसंकंतिदिअहमि ॥१॥ इत्युक्तं, अत्रोदयास्तान्तरं ॥४५५॥ प्रकाशक्षेत्रं तापक्षेत्रमित्येकार्थाः तत्र भेदे कि निबन्धनमिति चेत्, उच्यते, सर्वाभ्यन्तरमण्डलवर्ती सूयों मन्दरदिशि जम्बूद्वीपस्य पूर्वतोऽपरतश्चाशीत्यधिक शतं योजनानामवगाव चार चरति तेनाशीत्यधिकशतयोजनानि द्विगुणानि ३६०
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~156~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मुलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
अस्य वर्गदशगुणवर्गमूलानयने जातानि ११३८ एतञ्च द्वीपपरिधितः ३१६२२७ रूपात् शोध्यते ततः स्थित
३१५०८९, अस्य दशभिर्भागे आगतं ३१५०८ अवशिष्टभागाः, अनयोरंशच्छेदयोः षडिर्गुणने जातं ४, अथास्य श्रीराशेस्त्रिगुणने सम्पद्यते यथोकराशिः, तथाहि-९४५२६४ इदं च सूक्ष्मेक्षिकया दर्शितं, न चैतत् स्वमत्युत्प्रेक्षितमिति
भाव्यं, श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृतसूर्यमंडलविचारेऽत्य सुविचारितत्वात् , प्रस्तुते च स्थूलनयाश्रयणेन द्वीपपर्यन्तमात्रविव-10 पक्षणेन सूत्रोक्तं प्रमाण सम्पद्यते, द्वीपोदधिपरिधेरेव सर्वत्राप्यागमे दशांशकल्पनादिश्रवणात्, अनेन परिधितः परतो
लवणोदषड्भागं यावत् प्राप्यमाणे तापक्षेत्रे तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण तत्र विष्कम्भसम्भवात् परमविष्कम्भस्तत्र कथ
नीय इति निरस्त, अयमेव चतुर्नवतिसहस्रपञ्चशतादियोजनादिको राशिबहुबहुश्रुतैः प्रमाणीकृतः करणसंवादित्वात्, ॥8| तथाहि-स्वस्वमण्डलपरिधिः षष्टया भक्को मुहूर्तगतिं प्रयच्छति, सा च दिवसार्द्धगतमुहूर्तराशिना गुणिता चक्षुःस्पर्श IS
सा चोदयतः सूर्यस्याग्रतो यावानस्तमयतश्च पृष्ठतोऽपि तावानिति द्विगुणितः सन् तापक्षेत्रं भवति, एतच्च चक्षुःस्पर्शद्वारे । सुव्यक्तं निरूपितमस्ति, इदं च तापक्षेत्रकरणं सर्वबाह्यमण्डलसत्कतापक्षेत्रबाह्यबाहानिरूपणे विभावयिष्यत इति ना-1 त्रोदाहियते, यदुक्तं चेत् दशभागान प्रकाशयति इति, तत्र भागः षण्मुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणः, कथं ?, सर्वा-1ST भ्यन्तरे मण्डले चरति सूयें दिवसोऽष्टादशमुहूर्तमानः नवमुहूर्ताक्रमणीये च क्षेत्रे स्थितः सूर्यो दृश्यो भवति तत एता-1 वत्प्रमाणं सूर्यात् प्राक् तापक्षेत्रं तावञ्च अपरतोऽपि, इत्थं चाष्टादशमुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणमेकस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं,
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
2980
~157.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
श्रीजम्बू- तच किल दशभागत्रयात्मकं ततो भवत्येकस्मिन् दशभागे षण्मुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणतेति । सम्प्रति सामस्त्येनाला- वक्षस्कारे
द्वीपशा-|| मतस्तापक्षेत्रपरिमाणं पिच्छिषुराह-'तया णमित्यादि, यदा भगवन् ! एतावांस्तापक्षेत्रपरमविष्कम्भ इति गम्यं IIMa न्तिचन्द्री
| तदा भगवस्तापक्षेत्र सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम | अष्टसप्ततिं योजनया वृत्तिः
| सहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि योजनस्यैकस्य त्रिभागं च यावदायामेन प्रज्ञप्त, पञ्चचत्वारिंश॥४५६॥ योजनसहस्राणि द्वीपगतानि, यखिंशयोजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि उपरि च योजन-18
त्रिभागयुक्तानि लवणगतानि, द्वयोः सङ्कलने यथोक्तं मानं, इदं च दक्षिणोत्तरत आयामपरिमाणमवस्थितं न कापि मण्डलचारे विपरिवतेति, एनसेवार्थ सामरत्येन द्रढयति-'मेरुस्स मझयारे' इत्यादि, इह मेरुणा सूर्यप्रकाशः प्रतिहन्यत इत्येकेषां मतं नेत्यपरेषां, तत्राद्यानां मते इयं सम्मतिरूपा गाथा, तस्मिन् पक्षे एवं व्याख्येया-करणं कारो मध्ये कारो मध्यकारः-मध्ये करणं मेरोस्तस्मिन् सति, कोऽर्थः-चक्रवालक्षेत्रत्वात्तापक्षेत्रस्य मेरु मध्ये कृत्वा यावल्लवणस्य रुंदस्य-नि-18 देशस्य भावप्रधानत्वाद्वन्दताया:-विस्तारस्य षड्भाग:-षष्ठो भागः एतावत्प्रमाणः तापस्य-तापक्षेत्रस्यायामः, तत्र मेरोरा-3 रभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथा लवणविस्तारो द्वे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशद्योजनानि एको योजनविभाग इति रूपः तत उभयमीलने यथोक्तप्रमाणः, MS एष च नियमात् शकटोद्धिसंस्थितः, शकटोद्धिसंस्थानोऽन्तः सङ्कुचितो बहिर्विस्तृत इति, अथ येषां मेरुणा न सूर्य-19
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
~158~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------------- -------------------- मुलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
प्रकाशः प्रतिहन्यते इति मतं तेषामर्थान्तरसूचनायेयं गाथा तत्पक्षे चैवं व्याख्येया, मेरोर्मध्यभागो-मन्दरार्धे यावच्च 8 लवणरुन्दतापभागः एतेन मन्दरार्धसत्कपञ्चयोजनसहस्राणि पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जायते च ध्यशीतिसहस्रयोजनानि | त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि एकश्च योजनविभागः ८३३३३३, अनेन च मन्दरगतकन्दरादीनामप्यन्तः प्रकाशः स्यादिति लभ्यते, यत्त्वस्मिन् व्याख्याने श्रीमलयगिरिपादः सूर्यप्रज्ञसिवृत्ती "युक्तं चैतत् सम्भावनया तापक्षे-18 त्रायामपरिमाणमन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पंचचत्वारिंशद्योजनसहस्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिनिष्का-8 मति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्ववाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा सर्वधा मन्दरसमीपे । प्रकाशो न प्रामोति, अथ च तदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेणाविशेष परिमाणमये वक्ष्यते, तस्मात्पादलिससूरिव्या| ख्यानमभ्युपगन्तव्यमिती"युक्तं, तत्र तत्रभवस्पादानां गम्भीरमाशयं न विद्या, बाह्यमण्डलस्थेऽपि सूर्ये इयत्ममा- ॥णस्य तापक्षेत्रायामस्यावस्थितत्वेन प्रतिपादनात्, उक्ता सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः, सम्प्रति प्रकाशपृष्ठल-11 नत्वेन तद्विपर्ययभूतत्वेन च सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽन्धकारसंस्थितिं पृच्छति-'तया णं भन्ते !'इत्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलचरणकाले कर्कसंक्रान्तिदिने किंसंस्थाना अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता ?, यद्यपि प्रकाशतमसोः सहावस्थायित्व
| विरोधात् समानकालीनत्वासंभवः तथापि अवशिष्टेषु चतुर्पु जम्बूद्वीपचक्रवालदशभागेषु सम्भावनया पृच्छत आशश्रीजान, ७७॥ यानोक्तविरोधः, ननु आलोकाभावरूपस्य तमसः संस्थानासंभवेन कुतस्तत्पृच्छीचितीमंचति, उच्यते, नीलं शीतं ।
दीप अनुक्रम
eteroelwere
EASEARCecenesesentence
[२६०
-२६२]
~159
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------------------------------------------- मुलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]]
श्रीजम्बू द्वीपशा-
B8%9a%e0
न्तिचन्द्रीया चिः
॥४५७॥
गाथा
बहलं तम इत्यादिपुद्गलधर्माणामभ्रान्तसार्वजनीनव्यवहारसिद्धत्वेनास्य पौद्गलिकत्वे सिद्धे संस्थानस्यापि सिद्धेः, || वक्षस्कारे यथा चास्य पौगलिकत्वं तथाऽन्यत्र पूर्वाचार्यैः सुचर्चितत्वान्नात्र विस्तरभिया चर्च्यते इति, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृतेत्यादि तदेव-तापक्षेत्रसंस्थित्यधिकारोक्कमेव ॥ |ग्राहा, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत्तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरिका बाहा मन्दरपर्वतान्ते षड़ योजनसहस्राणि ।
त्रीणि चतुर्विशत्यधिकानि योजनशतानि षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपत्तिं सूत्रकृदेवाह-से ण| मिति, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे यो मेरुपरिक्षेपः स त्रयोविंशतिषट्शताधिकैकत्रिंशद्योजनसहस्रमानस्तं परिक्षेपं || ॥ द्वाभ्यां गुणयित्वा, सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थे सूर्ये तापक्षेत्रसत्कानां त्रयाणां भागानामपान्तराले रजनिक्षेत्रस्य दशभागद्य२ मानत्वात् दशभिर्विभज्य-दशभिर्भागे ह्रियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यात' इति वदेदेतद्भगवन् ! गौतमः स्वशिष्येभ्यः, तथाहि-३१६२३ एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि त्रिषष्टिसहस्राणि द्वे शते पट्रचत्वारिंशदधिके ६३२४६ | एषां दशभिर्भागे लब्धं यथोक्मानं । अथ बाहामाह--'तीसे ग'मित्यादि, तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्यबाहा पूर्व
॥४५७॥ | तोऽपरतश्च परमविष्कम्भो लवणसमुद्रान्ते त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि द्धे च पंचचत्वारिंशदधिके योजनशते पट् च दश
भागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, अत्रोपपत्तिं सूत्रकृदेवाह-से 'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं जम्बूद्वीपपरिक्षेपः ३१६२२८18 गत परिक्षेपं प्रागुक्तहेतुना द्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिर्भागे हियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत्, अथास्था
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
%awasnasasa
ece
~160
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ------------------
-------------------- मूलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
18 अवस्थितबाहामाह--'तया ण'मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले अन्धकार कियदायामेन प्रज्ञप्तम १. गौतम!
अष्टसप्ततिं योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि योजनत्रिभागं चैक, अवस्थिततापक्षेत्रसंस्थित्यायाम इवायमपि बोध्यः, तेन मन्दरार्द्धसत्कपंचसहस्रयोजनान्यधिकानि मन्तव्यानि सूर्यप्रकाशाभाववति क्षेत्रे स्वत एवान्धकारप्रसरणात् , कन्दरादौ तथा प्रत्यक्षदर्शनात् , सूत्रेऽविवक्षितान्यपि व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति दर्शितानि । अथ पश्चानुपूर्ध्या तापक्षेत्रसंस्थितिं पृच्छति-'जया ण'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्ववाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं ॥
चरति तदा किंसंस्थानसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, गौतम! ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ता, 18| तदेव-अभ्यन्तरमण्डलगततापक्षेत्रसंस्थितिसत्कमेव सर्वमवस्थितानवस्थितबाहादिकं नेतव्यं, नवरमिदं नानात्व-विशेषः | यदन्धकारसंस्थितेः पूर्व-सर्वाभ्यन्तरमंडलगततापक्षेत्रसस्थितिप्रकरणे वर्णितं ६३२४५ इत्येवंरूपं प्रमाणं तत्तापक्षेत्र-18 संस्थितेः प्रमाणं नेतन्यं, द्वीपपरिधिदशभागसत्कभागद्वयप्रमाणत्वात् , यत्तापक्षेत्रसंस्थितेः पूर्ववर्णितम् ९४८६८.५ इत्येवंरूपं प्रमाण तदन्धकारसंस्थितेनेंतव्यं द्वीपपरिधिदशभागसत्कभागत्रयप्रमाणत्वात् , यदव तापक्षेत्रस्याल्पत्वं तमस-18 श्वानपत्वं तत्र मंदलेश्याकत्वं हेतुरिति, एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽभ्यन्तरवाहाविष्कम्भे यत्तापक्षेत्रपरिमाणं ९४८६
इत्येवंरूपं तदत्रान्धकारसंस्थितेयं, यच्च तत्रैव विष्कम्भेऽन्धकारसंस्थितेः ६३२४६ इत्येवं तापक्षेत्रस्यात्र मन्तव्यं, ननु इदं सर्वबाह्यमंडलसत्कतापक्षेत्रप्ररूपणं, यदि तन्मंडलपरिधौ ३१८३१५ रूपे षष्टिभके लब्धा ५३०५ रूपा मुहूर्त
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
Sec
ecenese
~161
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मुलं [१३५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
गाथा
श्रीजम्प- गतिः तदा च सर्वजघन्यो दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणोऽतो द्वादशभिः सा गुण्यते तथा च कृते ६३६६३ इत्येवंरूपो| अक्षस्कारे द्वीपशा-18 राशिः स्यात् , यदिवोक्तपरिधिर्द्विगुणितो दशभिर्भज्यते तदाप्ययमेव राशिविधाकरणरीतिलब्धस्तत्किमेतस्मात् सूत्रो- दूरादिदर्शन्तिचन्द्री-18|तराशिविभिद्यते?, उच्यते, सूत्रकारेण द्वीपपरिध्यपेक्षयैव करणरीतेदयमानत्वान्नात्र दोषः, अभ्यन्तरमण्डले परिधि-18|| नं क्षेत्रगया वृचिः या नव्यनीक्रियते तथा बाह्यमंडले नाधिकीक्रियते तत्र विवक्षैव हेतुरिति ॥ सम्पति सूर्याधिकारादेतत्सम्बन्धिनं मादा कि
या मू. ॥४५॥ दूरासन्नादिदर्शनरूपं विचारं वक्तुं दशमं द्वारमाह
१३६-२३८ जम्बुद्दीवेणं भन्ते । दीये सूरिआ उगमणमुहुर्तसि दूरे अमूले अदीसंति मज्झतिअमुहत्तंसि मूले अदूरेअदीसंति अस्थमणमुहत्वंसि दूरे अ मूले अदीसंति?, हंता गो०! तं चेव जाव दीसंति, जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! सूरिआ उग्गमणमुहुर्ससि अ मझंतिअमुहुर्तसि अ अस्थमणमुहुत्तसि अ सम्वस्थ समा उच्चत्ते गं ?, हंता तं व जाव उच्चत्तेणं, जइ भन्ते! जम्बुद्दीये दीये सूरिआ उग्गमणमुहुर्तसि अ मा० अत्य० सपथ समा अवरोण, कम्हा णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुर्गसि दूरे अमूले अदीसति०, गोयमा ! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुरासि दूरे अमूले अदीसंति इति लेसाहितावेणं मझं तिअमुहुर्ससि मूले अदूरे अ दीसंति लेसापडि. घाएणं अस्थमणमुहुतंसि दूरे अ मूले अदीसंति, एवं खलु गोअमा! तं चेव जाव दीसंति १० (सूत्र १३६) जम्बुद्दीदे गं भन्ते !
४५८॥ दीवे सूरिआ कि तीअं खेले गच्छति पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति अणागय खेर गच्छन्ति', गो०! णो तीअं खेसं गच्छन्ति पडुप्पणं खेत्तं गच्छन्ति णो अणागयं सेवं गच्छन्तित्ति, तं भन्ते! किं पुढं गच्छन्ति जाव नियमा छहिसिंति, एवं ओमासेंति, तं भन्ते !
दीप अनुक्रम [२६०-२६२]
| अथ सूर्यस्य दूर-आसन्नादि दर्शनरूपं वक्तव्यता लिख्यते
~162~
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], -------------------
---------------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३६-१३८]
किं पुटु ओभासेंति एवं आहारपयाई अम्बाई पुट्ठोगाढमणतरअणुमहादिविसयाणुपुब्बी व जाव णिमा छदिसिं, एवं उजोॲति तवेंति पभासेंति ११ (सूत्र १३७) जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दीवे सुरिआणं किं तीते खित्ते किरिआ काइपडप्पण्णे० अणागए०१, गो! णो तीए खिन्ते किरिआ कज्जा पडुप्पण्णे कजइ णो अणागए, सा भन्ते। किं पुट्ठा कजइ.१, गोअमा! पुढा० णो अणापुट्ठा कजइ जाव णिभमा छदिसि (सूत्रं १३८)
जम्बूद्वीपे द्वीपे भदन्त ! सूर्यो उद्गमनमुहूर्त-उदयोपलक्षिते मुहत्ते एवमस्तमनमुहूर्ते, सूत्रे यकारलोप आर्षत्वात् , दूरे च-द्रष्टुस्थानापेक्षया विप्रकृष्टे मूले च-द्रष्ट्रप्रतीत्यपेक्षया आसन्ने दृश्यते, द्रष्टारो हि स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशता योज-18 नसहौः समधिकैर्व्यवहितमुद्गमनास्तमनयोः सूर्य पश्यन्ति, आसन्नं पुनर्मन्यन्ते, विप्रकृष्टं सन्तमपि न प्रतिपद्यन्ते,18 |'मध्यान्तिकमुहूर्त इति मध्यो-मध्यमोऽस्तो-विभागो गमनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्तस्यास्ति स मध्या-18 Sन्तिकः स चासी मुहर्सश्चेति मध्यान्तिको-मध्याहमुहूर्त इत्यर्थः, तत्र मूले चासने देशे द्रष्ट्रस्थानापेक्षया दूरे च-वि-R
प्रकृष्टे देशे द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते, द्रष्टा हि मध्याहे उदयास्तमयनदर्शनापेक्षया आसन्नं रविं पश्यति, योजन|| शताष्टकेनैव तदाऽस्य व्यवहितस्वात् मन्यते पुनरुदयास्तमयनप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितं इति, अत्र सर्वत्र काका प्र18|| भोऽवसेयः, अत्र भगवानाह--तदेव यद्भवताऽनन्तरमेव प्रश्नविषयीकृतं तत्तथैवेत्यर्थः यावद् श्यते इति, अत्र चर्म
दशां जायमाना प्रतीतिमो ज्ञानदशां प्रतीत्या सह विसंवदत्विति संवादाय पुनगाँतमः पृच्छति-'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि। | जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे उद्गमनमुहूत्ते च मध्यान्तिकमुहूत्रं च अस्तमयनमुहर्ने च अत्र चशब्दा वाशब्दार्थाः सूर्यो
0000000000000000
दीप
अनुक्रम [२६३-२६५]]
BRECResercenesent
~163
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७],--------------------
----------------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३६-१३८]
दीप
श्रीजम्बू- सर्वत्र-उक्तकालेषु समौ उच्चत्वेन, अत्रापि काकुपाठात् प्रश्नावगतिः, भगवानाह-तदेव यद्भवता मां प्रति पृष्टं 8 अक्षस्कारे
द्वीपशा- यावदुश्चत्येनेति, सर्वत्र-उद्गमनमुहर्तादिषु समौ समन्यवधानावुच्चलेन समभूतलापेक्षयाऽष्टौ योजनशतानीतिकृत्या, दूरादिदर्शन्तिचन्द्री
न हि सती जनप्रतीतिं वयमपलपाम इति भगवदुक्तमेवानुवदन्नत्र विप्रतिपत्तिबीजं प्रष्टुमाह-'जइ णमित्यादि, नं क्षेत्रगया वृत्ति: प्रश्नसूत्रं स्पष्ट, उत्तरसूत्रे गौतम! लेश्यायाः-सूर्यमंडलगततेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वादुद्गमनदेशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः
मादिः कि
या मू. ॥४५९॥ उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्यते, लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन स्वभावेन दूरस्थोऽपि सूर्य आसन्नप्रतीति जन- १२-१३८
यति, एवमस्तमयनमुहूत्र्तेऽपि व्याख्येय, द्वयोः समगमकत्वात् , मध्यान्तिकमुहूर्ते तु लेश्याया अभितापेन-प्रतापेन, | सर्वतस्तेजःप्रतापेनेत्यर्थः, मूले च दूरे च दृश्येते, मध्याहे ह्यासन्नोऽपि सूर्यस्तीव्रतेजसा दुर्दर्शयेन दूरप्रतीतिं जनयति.IS
एवमेवासन्नत्वेन दीप्तलेश्याकरवं दिनवृद्धिधर्मादयो भावा दूरतरत्वेन मन्दलेश्याकत्वं दिनहानिशीतादयश्च वाच्याः, I उद्गमनास्तमयनादीनि च ज्योतिष्काणां गतिप्रवृत्ततया जायन्ते इति तेषां गमनप्रश्नायैकादशं द्वारमाह-'जम्बुदीचे ण
मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यो किमतीतं-गतिविषयीकृतं क्षेत्रं गच्छत:-अतिक्रामतः उत प्रत्युत्पन्न-वर्तमान
गतिविषयीक्रियमाणं उत अनागतं-गतिविषयीकरिष्यमाणं, एतेन इह च यदाकाशखण्डं सूर्यः स्वतेजसा व्यामोति ५९॥ ॥8॥ तत्क्षेत्रमुच्यते तेनास्यातीतेत्यादिव्यवहारविषयत्वं नोपपद्यते अनादिनिधनत्वादिति शङ्का निरस्ता, भगवानाह-गीतमा
नोशब्दस्य निषेधार्थत्वान्नातीतं क्षेत्रं गच्छतः, अतीतक्रियाविषयीकृते वर्तमानक्रियाया एवासम्भवात, प्रत्युत्पन्नं गच्छत्तः
अनुक्रम [२६३-२६५]]
90909999999
~164
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७],--------------------
---------------------- मलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३६-१३८]
20293
वर्तमानक्रियाविषये वर्तमानक्रियायाः सम्भवात् , नो अनागतं अनागतक्रियाविषयेऽपि तदसम्भवात् , अत्र प्रस्तावाद । 18 गतिविषयं क्षेत्र कीटक स्यादिति प्रष्टुमाह--'तंभन्ते ! किं पुढे'इत्यादि, अत्र यावत्पदसंग्रहोऽयं पुढं गच्छति, गोभमा! पुढे ||
गच्छंति, णो अपुढे गच्छन्ति, तं भन्ते! किं ओगाढं गच्छन्ति अणोगाढं गच्छन्ति ?, गोअमा! ओगाढं गच्छन्ति, णो | अणोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते! किं अणंतरोगाढं गच्छन्ति, परंपरोगाढं गच्छन्ति ?, गोमा अणंतरोगाढं गच्छन्ति णो परंपरोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते! किं अणुं गच्छति बायरं गच्छंति ?, गोअमा! अणुंपि गच्छंति बायरंपि गच्छंति, |तं भन्ते ! किं उद्धं गच्छंति अहे गच्छंति तिरियं गच्छन्ति?, गोअमा! उद्धपि गच्छन्ति तिरिपि गच्छन्ति अहेवि
गच्छन्ति, तं भन्ते । किं आई गच्छंति माझे गच्छंति पजवसाणे गच्छंति?, गोअमा! आइंपि गच्छति मग्झेवि 18 गच्छति पजवसाणेवि गच्छंति, तं भन्ते ! किं सविसयं गच्छति, अविसयं गच्छति ?, गोअमा! सविसयं गच्छति,
णो अविसयं गच्छति, तं भन्ते! किं आणुपुर्षि गच्छंति अणाणुपुर्षि गच्छंति', गो०! आणुपुर्वि गच्छंति णो अणा-16
पुर्वि गच्छंति,तं भन्ते ! किंएगदिसिं गच्छंति छद्दिसिं गच्छंति ?, गो०! नियमा छद्दिसिं गच्छति'त्ति, अत्र व्याख्या-8 ||| तद् भदन्त ! क्षेत्रं किं स्पृष्ट-सूर्यबिम्बेन सह स्पर्शमागतं गच्छतः-अतिक्रामतः उतास्पृष्टं, अत्र पृच्छकस्यायमाशयः
गम्यमानं हि क्षेत्रं किञ्चित्स्पृष्टमतिक्रम्यते यथाऽपवरकक्षेत्रं किंचिच्चास्पृष्टं यथा देहलीक्षेत्रमतोऽत्र का प्रकार इति, भगवानाह-स्पृष्टं गच्छतः नास्पृष्टं, अत्र सूर्यबिम्बेन सह स्पर्शनं सूर्यविम्बावगाहक्षेत्राबहिरपि सम्भवति स्पर्शनाया अवगाहना
दीप
अनुक्रम [२६३-२६५]]
~165
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७],--------------------
---------------------- मलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या चिः
[१३६-१३८]
श्रीजम्बू- तोऽधिकविषयत्वात् , ततः प्रश्नयति-तद्भदन्त ! स्पृष्टं क्षेत्र अवगाढं-सूर्यबिम्घनाश्रयीकृतं अधिष्ठितमित्यर्थः उतानवगाद|8| वक्षस्कारे द्वीपशा- तेनानाश्रयीकृतं नाधिष्ठितमित्यर्थः, भगवानाह--गौतम ! अवगाद क्षेत्रं गच्छतः नानवगाद, आश्रितस्यैव त्यजनयो- दरादिदशन्तिचन्द्री- गात्, अथ यद्भदन्त ! अवगाद तदनन्तरावगाढं-अव्यवधानेनाश्रयीकृतं उत परम्परावगाद-व्यवधानेनाश्रयीकृतं ,
ISन क्षेत्रग
मादिः क्रिभगवानाह-गौतम! अनन्तरावगादं न पुनः परम्परावगाढं, किमुक्तं भवति?-यस्मिन्नाकाशखण्डे यो मण्डलावयवोऽ-8 ४६०॥ व्यवधानेनावगाढः स मण्डलावयवस्तमेवाकाशखण्डं गच्छति न पुनरपरमण्डलावयवावगाढं तस्य व्यवहितत्वेन परम्प- १३६-१३८
रावगाढत्वात् , तच्चाल्पमनल्पमपि स्यादित्याह-तद्भदन्त ! अणुं गच्छतः बादरं वा?, गौतम! अण्वपि सर्वाभ्यन्तरIAS मण्डलक्षेत्रापेक्षया बादरमपि सर्वबाह्यमण्डलक्षेत्रापेक्षया, तत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण गमनसम्भवात् , गमनं च ऊवधिस्तिर्यग्गतित्रयेऽपि सम्भवेदिति प्रश्नयति-तद्भदन्त ! क्षेत्रमूर्ध्वमस्तिर्यग्वा गच्छतः?, गौतम! ऊर्ध्वमपि तिर्यगष्यधोऽपि, ऊ धस्तिर्यक्त्वं च योजनैकषष्टिभागरूपचतुर्विंशतिभागप्रमाणोत्सेधापेक्षया द्रष्टव्यं, अन्यथा 'जाव नियमा छद्दिसिं' इति चरमसूत्रेण सह विरोधः स्यात्, इदं च व्याख्यानं प्रज्ञापनोपाङ्गगतैकादशभाषापदाष्टाविंशतितमाहारप
दगतोोधस्तियग्विषयकनिर्वचनसूत्रच्याख्यानुसारेण कृतमिति बोध्यं, गमनं च क्रिया सा च पहुसामयिकत्वाप्रिका-131॥४६०॥ 18 लनिर्वर्तनीया स्यादित्यादिमध्यादिप्रश्नः, तद्भदन्त ! किमादौ गच्छतः किं मध्ये उत पर्यवसाने वा ?, भगवानाह
गीतम! पष्टिमुहूर्तप्रमाणस्य मण्डलसंक्रमकालस्यादावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽपि वा गच्छतः, उक्तमकारत्रयेण मंडल-11
टse
दीप अनुक्रम [२६३-२६५]]
Se0a
~166~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------
---------------------- मलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३६-१३८]
meroese
दीप
कालसमापनात्, अथ तदन्त ! स्वविषयं-स्वोचितं क्षेत्रं गच्छतः उत अविषयं वा स्वानुचितमित्यर्थः, गौतम!18 स्वविषयं स्पृष्टावगाढनिरन्तरावगाढस्वरूपं गच्छतः न अविषयं-अस्पृष्टानवगाढपरम्परावगाडक्षेत्राणां गमनायोग्यत्वात् ,
तद्भदन्त ! आनुपूर्व्या-क्रमेण यथासन्नं गच्छतः उत अनानुपूर्व्या-क्रमणानासन्नमित्यर्थः, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे, 18 ॥ गौतम! आनुपूर्ध्या गच्छतः नानानुपूर्ध्या व्यवस्थाहानेः, प्रागुक्तमेव दिमश्नं व्यक्त्या आह-तदन्त ! किमेक-18
दिग्विषयक क्षेत्रं गच्छतः यावत् षदिग्विषयक ?, गौतम! नियमात् पड्दिशि, तत्र पूर्वादिषु तिर्यदिक्षु उदितः। सन् स्फुटमेव गच्छन् दृश्यते, ऊर्ध्वाधोदिग्गमनं च यथोपपद्यते तथा प्राग्दर्शितं । सम्प्रत्येतदतिदेशेनावभासनादिसूत्राण्याह-एवं ओभासेंति'इत्यादि, 'एव'मिति गमनसूत्रप्रकारेण अवभासयतः-ईषदुद्योतयतः, यथा स्थूरतरमेव || रश्यते, तमेव प्रकारमीपदर्शयति-तमदन्त ! क्षेत्रं स्पृष्टं-सूर्यस्तेजसा व्याप्त अवभासयतः उतास्पृष्टं ?, भगवानाह--|| स्पृष्ट नास्पृष्टं, दीपादिभास्वरद्रव्याणां प्रभाया गृहादिस्पर्शपूर्वकमेवावभासकत्वदर्शनात् , एवं-स्पृष्टपदरीत्या आहारपदानि-चतुर्थोपाङ्गगताष्टाविंशतितमपदे आहारग्रहणविषयकानि पदानि-द्वाराणि नेतब्यानि, तद्यथा--'पुट्ठो'इत्यादि, प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रं, ततोऽवगाढसूत्रं ततोऽणुबादरसूत्रं तत अवधिःप्रभृतिसूत्र, तत आई इति उपलक्षणमेतत् आदिमध्यावसानसूत्रं ततो विषयसूत्र तदनन्तरमानुपूर्वीसूत्र, ततो यावत् नियमात् षड्दिशीति सूत्र, अत्र यथासम्भवं विपक्षसूत्राण्युपलक्षणाद् ज्ञेयानि, अत्र चोर्धादिदिग्भावना सूत्रकृत् स्वयमेव वक्ष्यति, एवमुद्द्योतयतो-भृशं
अनुक्रम [२६३-२६५]]
~167~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------
---------------------- मूलं [१३६-१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३६-१३८
दीप
श्रीजम्यू- प्रकाशयतः यथा स्थूलमेव दृश्यते, तापयतः-अपनीतशीतं कुरुतः, यथा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते तथा कुरुतः, वक्षस्कारे
द्वीपशा- न्तिचन्द्री
प्रभासयतः-अतितापयोगादविशेषतोऽपनीतशीतं कुरुतो यथा सूक्ष्मतरं दृश्यते, उक्तमेवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेण दुरादिदशे
४प्रश्नयितुं द्वादशद्वारमाह-'जम्बहीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे द्वयोः सूर्ययोः किमतीते क्षेत्रे-पूर्वोक्त-॥ न धनगया वृतिः 18 स्वरूपे क्रिया-अवभासनादिका क्रियते, कर्मकर्तरिप्रयोगोऽयं तेन भवतीत्यर्थः, प्रत्युत्पन्ने अनागते वा?, भगवानाह-8
मादिः कि
1 या मू. ॥४६१॥18 गौतम! नोऽतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते, प्रत्युत्पन्ने क्रियते, नो अनागते, व्याख्यानं प्राग्वत्, सा क्रिया भगवन् ! किं १३६-२३८
18| स्पृष्टा क्रियते उतास्पृष्टा क्रियते ?, गौतम! स्पृष्टा तेजसा स्पर्शनं स्पृष्टं भावे क्तप्रत्ययविधानात् तद्योगाद्या सा स्पृष्टा 8| उच्यते, कोऽर्थः?-सूर्यतेजसा क्षेत्रस्पर्शनेऽवभासनमुद्योतनं तापनं प्रभासनं चेत्यादिका क्रिया स्यादिति, अथवा स्पृष्टात्स्पर्शनादिति पञ्चमीपरतया व्याख्येयं न अस्पृष्टात् क्रियते, अत्र यावत्पदात् आहारपदानि ग्राह्याणि, तत्रेयं सूत्रपद्धतिःसे णं भन्ते ! किं ओगाढा अणोगाढा?, ओगाढा णो अणोगाढा, अत्रापि भावे क्तप्रत्ययविधानादवगाढं-अवगाहनं क्षेत्रे तेजःपुद्गलानामवस्थानं तद्योगाद्या साऽवगाढा क्रिया, एममनन्तरावगाढपरम्परावगाढसूत्रं, 'सा णं भन्ते ! अणू किजइ बायरा किजइ, गोअमा! अणूवि बायरावित्ति, सा क्रिया अवभासनादिका किमणुवो बादरा वा क्रियते ?, गौतम! अणुरपि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया बादराऽपि-सर्वबाह्यमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया,
| ॥४६शा ऊर्ध्वाधस्तिर्यसूत्रविभावनां सूत्रकृदनन्तरमेव करिष्यति, साणं भन्ते ! किं आई किजइ मझे किजद पजवसाणेश
अनुक्रम [२६३-२६५]]
~168
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------
------------- मूलं [१३६-१३८]
(१८)
प्रत सूत्रांक [१३६-१३८]
किजइ, गोमा ! आईपि किज्जइ मझेवि किजइ पज्जवसाणेवि किज्जइ'त्ति गमनसूत्र इवात्रापि भावना, एवं विषयसूत्रमानुपूर्वीसूत्रं षड्दिक्सूत्रं च ज्ञेयमिति । अथ त्रयोदशद्वारमाह
जम्बुरीवे गं भन्ते! दीवे सूरि केवइ खेत्तं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिची , गोअमा! एग जोअणसयं उद्धं तवयन्ति अट्ठारससयजोषणाई अहे तवयन्ति सीआलीसं जोअणसहस्साई दोणि अ तेवढे जोअणसए एगवीसं च सद्विभाए जोअणस्स तिरिर्थ तवयन्तित्ति १३ (सूत्र १३९) । अंतो गं भन्ते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरिअगहगणणक्यत्ततारारूवा णं भन्ते! देवा किं उद्धोववष्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववष्णगा चारदिईआ गइरइआ गइसमावण्णगा?, गोमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्ययस्स जे चन्दिमसूरिभ जाव ताराहवे ते गं देवा णो उद्घोषवष्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोक्वण्णमा चारोववष्णगा णो चारट्टिईआ गइरइआ गइसमावण्णगा उद्धीमुहकलंबुभापुप्फसंठाणसंठिएहिं जोअणसाहस्सिएहिं तानखेत्तेहि साहस्सिाहिं वेउविआहिं बाहिराहिं परिसाहिं महयायणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुपवाइअरवेणं दिव्याई भोगभोगाई भुंजमाणा महया उकिद्विसीहणायबोलकलकलरवेणं अच्छ पध्वयराव पवाहिणावत्तमण्डलचारै मेरं अणुपरिभटुंति १४ (सूर्य १४०)
'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्र व्यक्त, उत्तरसूत्रे गौतम! ऊर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः, स्वविमानस्योपरि योजनशतप्रमाणस्वैव तापक्षेत्रस्य भावात् , अष्टादशशतयोजनान्यधस्तापयतः, कथं ?, सूर्याभ्यामष्टासु योजनशतेवधोगतेषु भूतलं, तस्माच योजनसहने अधोमामाः स्युस्तांश्च यावत्तापनात, सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि इत्यादि प्रमाणं क्षेत्र
RelatestracreANEERecentcercercedeces
दीप
अनुक्रम [२६३-२६५]
~169~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूल [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३९-१४०]
श्रीजम्बू- तिर्यक् तापयतः, एतच्च सर्वोत्कृष्टदिवसचक्षुःस्पर्शापेक्षया बोध्यं, तिर्यदिक्कथनेन पूर्वपश्चिमयोरेवेदं ग्राह्यं, उत्तरतस्तु वक्षस्कारे द्वीपशा-1 १८० न्यून ४५ योजनसहस्राणि याम्यतः पुनीपे १८० योजनानि, लवणे तु योजनानि ३३ सहस्राणि ३ शतानि ।
ऊर्ध्वादित्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागयुतानीति ॥ अथ मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योतिष्कस्वरूपं प्रष्टुं चतुर्दशद्वारमाह-'अंतो णं शो
तापः ऊया वृत्तिः
भन्ते' इत्यादि, अन्तर्मध्ये भदन्त ! मानुषोत्तरस्य मनुष्येभ्य उत्तरः-अग्रवर्ती एनमवधीकृत्य मनुष्याणामुत्पत्तिविपत्ति- वादि स. ॥४६॥18| सिद्धिसम्पत्तिप्रभृतिभावात् अथवा मनुष्याणामुत्तरो-विद्यादिशक्त्यभावेऽनुलंपनीयो मानुषोत्तरस्तस्य पर्वतस्य ये चन्द्र-18 १३९-१४०
सूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपज्योतिष्काः ते भदन्त ! अत्रैकस्मिन्नेव प्रश्ने यद्भदन्तेति भगवत्सम्बोधनं पुनश्चके तत्पृच्छ-18 IS कस्य भगवन्नामोच्चारेऽतिप्रीतिमत्त्वात् देवाः किमोपपन्नाः-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्ध्व अवेयकानु
तरविमानेषूपपन्ना:-उत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः कल्पोपपन्ना:-सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः विमानेषु-ज्योतिःसम्बन्धिषु IA उपपन्नाः चारो-मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना-आश्रितवन्तः उत चारस्य-यथोक्तस्वरूपस्य स्थिति:-अभावो येषां
ते चारस्थितिका अपगतचारा इत्यर्थः गतौ रतिः-आसक्तिः प्रीतिर्येषां ते गतिरतिकाः, अनेन गतौ रतिमात्रमुक्त, । सम्प्रति साक्षाद् गति प्रश्नयति-गतिसमापन्ना-गतियुक्ताः?, भगवानाह--गौतम! अन्तर्मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्र- ॥४६२॥ R सूर्यग्रहणनक्षत्रतारारूपज्योतिष्कास्ते देवा नोवोपपन्नाः नो कल्पोपपन्नाः विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः नो चारस्थितिकाः
अत एवं गतिरतिकाः गतिसमायुक्ताः, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थितैरिति प्राग्वत्, योजनसाहसिक:-अनेकयो
दीप
अनुक्रम [२६६-२६७]
~170
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३९
-१४०]
दीप
अनुक्रम
[२६६
-२६७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१३९-१४०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू. ७८
जनसहस्रप्रमाणैस्तापक्षेत्रः, अत्रेत्थंभावे तृतीया, तेनेत्थंभूतैस्तैर्मरु परिवर्तन्त इति क्रियायोगः कोऽर्थः १ - उक्त स्वरू पाणि तापक्षेत्राणि कुर्वन्तो जम्बूद्वीपगतं मेरुं परितो भ्रमन्ति, तापक्षेत्रविशेषणं चन्द्रसूर्याणामेव नतु नक्षत्रादीनां, यथासम्भवं विशेषणानां नियोज्यत्वात्, अथैतान् साधारण्येन विशेषयन्नाह — साहस्रिकाभिः अनेकसहस्र सङ्ख्याकाभिः वैकुर्विकाभिः - विकुर्वितनानारूपधारिणी भिर्बाह्याभिः - आभियोगिक कर्मकारिणीभिः, नाट्यगानवादनादिकर्मप्रवणत्वात् न तु तृतीयपर्षद्रूपाभिः पर्षद्भिः देवसमूहरूपाभिः कर्तृभूताभिः, बहुवचनं चात्र नाव्यादिगणापेक्षया, महता प्रकारेणाहतानि भृशं ताडितानि नाये गीते वादित्रे च-वादनरूपे त्रिविधेऽपि सङ्गीते इत्यर्थः, तन्त्रीतलतालरूपत्रुटितानि शेषं प्राग्वत्, तथा स्वभावतो गतिरतिकैः बाह्यपर्षदन्तर्गतवेगेन गच्छत्सु विमानेषूत्कृष्टो यः सिंहनादो मुच्यते यौ च बोलकलकली क्रियेते, तत्र बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूरकरणं, कलकलश्च व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण महता २ समुद्ररयभूतमिव कुर्वाणा मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह -अच्छं-अती निर्मलं जाम्बूनदमयत्वात् रलबहुलत्वाच्च पर्वतराजं - पर्वतेन्द्रं 'प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलचार' मिति प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एवं मेरुर्भवति यस्मिन्नवर्त्तने-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिणः आवत येषां मण्डलानां तानि तथा तेषु यथा चारो भवति तथा क्रियाविशेषणं तेन प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलं चारं यथा स्यात्तथा
For P&Praise City
~ 171~
Sestre
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -------------------
---------------------- मल [१३९-१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३९-१४०]
कीजम्बू
द्वीपशा-1 न्तिचन्द्रीया वृत्ति ॥४६॥
दीप
मेरु परिवर्तन्ते इति योज्यं, अयमर्थ:-चन्द्रादयः सर्वेऽपि समयक्षेत्रवर्त्तिनो मेरुं परितः प्रदक्षिणावर्त्तमंडल चारेण | वक्षस्कारे
सूर्येन्द्रच्यभ्रमन्तीति । अथ पञ्चदशम द्वारमाह
वे स्थितिः तेसिणं भन्ते! देवाणं जाहे ईदे चुए भवइ से कह मियाणि पकरेंति ?, गो! ताहे चत्तारि पंच या सामाणिभा देवा तं ठाणं उब- विरहादिच संपजिचा गं विहरति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववष्णे भवइ । इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइ कालं उववाएणं विरहिए', गो०! जह- सू.१४१ पणेणं एगं समयं उकोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए । बहिआ णं भन्ते! माणुसुत्तरस्स पवयस्स जे चंदिम जाव तारारूवातं चेव अवं णाण विमाणोववष्णगा णो चारोववणगा चारठिईआ णो गइरहआ णो गइसमावण्णगा पशिगसंठाणसंठिएहिं जोअणसयसाहस्सिएहिं तावखित्तेहिं सबसाहस्सिाहिं वेउब्विआर्हि वाहिराहि परिसाहिं महयाहयणट्ट जाच भुंजमाणा सुहलेसा मन्दलेसा मन्दासक्लेसा चित्रांतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडाविव ठाणठिआ सव्यओ समन्ता ते पएसे ओभासंति उज्जोवेति पभासेन्तित्ति । तेसि णं भन्ते! देवाणं जाहे इंदे चुए से कह मियाणि पकरेन्ति जाव जहणणं एवं समयं कोसेणं छम्मासा इति १५ (सूत्रं १४१)
'तेसि ण'मित्यादि, तेषां भदन्त ! ज्योतिष्कदेवानां यदा इन्द्रश्यवते तदा ते देवा इदानी-इन्द्रविरहकाले कथं ॥४६॥ प्रकुर्वन्ति ?, भगवानाह-गौतम! तदा चत्वारः पश्च वा सामानिका देवाः संभूय एकबुद्धितया भूखेत्यर्थः तत्स्थानंइन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्ति-तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, कियन्तं कालमिति चेदत आह-यावदन्यस्तत्र इन्द्र
Berreices
अनुक्रम [२६६-२६७]
We
~172
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
---------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१४१]
Secrscreecene
दीप
उपपन्नः--उत्पन्नो भवति । इदानीमिन्द्रविरहकालं प्रश्नयनाह-'इंदठ्ठाणे ण'मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन-इन्द्रोत्पादेन बिरहितं प्रज्ञप्तम् !, भगवानाह-गौतम! जघन्येनैकं समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान यावत्ततः परमवश्यमन्यस्येन्द्रस्योत्पादसम्भवात् इति । सम्प्रति समयक्षेत्रबहिर्वसिज्योतिष्काणां स्वरूपं पृच्छति'बहिआ णमित्यादि, बहिस्ताद् भगवन् ! मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रादयो देवास्ते किमूवोपपन्ना इत्यादि प्रश्न
सूत्रं प्राग्वत् , निर्वचनसूत्रे तु नोोपपन्नाः, नापि कल्पोपपन्नाः, किन्तु विमानोपपन्नाः तथा नो चारोपपन्नाः नो 18|चारयुक्ताः, किन्तु चारस्थितिकाः, अत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापनकाः, पकेष्टकासंस्थानसंस्थितयोजनश-16 18 तसाहनिकैस्तापक्षेत्रैस्तान् प्रदेशान् अवभासयन्तीत्यादिक्रियायोगः, पक्केष्टकासंस्थानं चात्र यथा पक्केष्टका आयामतो 8 दीर्घा भवति विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च, तेषामपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्वतिनां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राणि आयाम-18 || तोऽनेकयोजनलक्षप्रमाणानि विष्कम्भत एकलक्षयोजनप्रमाणानि, इयमत्र भावना-मानुषोत्तरपर्वतात् योजनलक्षा-18||
| तिक्रमे करणविभावनोक्तकरणानुसारेण प्रथमा चन्द्रसूर्यपतिस्ततो योजनलक्षातिक्रमे द्वितीया पंक्तिस्तेन प्रथमपं18क्तिगतचन्द्रसूर्याणामेतावांस्तापक्षेत्रस्यायामः विस्तारश्च, एकसूर्यादपरः सूर्यो लक्षयोजनातिक्रमे तेन लक्षयोजनप्रमाणः,
इयं च भावना प्रथमपंत्यपेक्षया बोद्धव्या, एवमग्रेऽपि भाव्यं, 'सयसाहस्सिएहि इत्यादि प्राग्वत्, कथंभूता इत्याह18 सुखलेश्याः, एतच्च विशेषणं चन्द्रान प्रति, तेन ते नातिशीततेजसः मनुष्यलोके इव शीतकालादौ न एकान्ततः शीतर
अनुक्रम [२६८]
~173
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
न्तिचन्द्री
[१४१]
दीप
श्रीजम्यू-18 मय इत्यर्थः, मन्दलेश्या एतच्च सूर्यान् प्रति, तेन ते नात्युष्णतेजसः मनुष्यलोके इव निदाघसमये न एकान्तत उष्ण- अक्षरकारे द्वीपशा-18| रश्मय इत्यर्थः, एतदेव च्याचष्टे-मन्दातपलेश्या-मन्दा-नात्युष्णस्वभावा आतपरूपा लेश्या-रश्मिसंघातो येषां ते तथा, सूर्यन्द्रच्यतथा च चित्रान्तरलेश्या:-चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य चित्रमन्तरं सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात,
वे स्थितिः या वृत्तिः
विरहादिच 18चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मिस्थात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् , काभिरवभासयन्तीत्याह-अन्योऽन्यसमवगाढाभि:- सू.१४१ ॥४६॥8 परस्परं संश्लिष्टाभिर्लेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराचन्द्रसू
र्याणां च सूचीपंक्त्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पश्चाशद्योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभामिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभामिश्राश्चन्द्रप्रभाः, इत्थं चन्द्रसूर्यप्रभाणां मिश्रीभावः एषां स्थिरत्वदृष्टान्तेन द्योतयति-कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिता:-सदैवैकत्र स्थाने स्थिताः, सर्वतः समन्तात्, तान् प्रदेशान्-स्वस्वप्रत्यासन्नान् अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्तीत्यादि प्राग्वत्। एपामपीन्द्राभावे व्यवस्थां प्रश्रयन्नाद-तेसि णं भन्ते ! | देवाण'मित्यादि प्राग्वत् । इति कृता पञ्चदशानुयोगद्वारैः सूर्यप्ररूपणा, अथ चन्द्रवक्तव्यमाह-तत्र सप्तानुयोगद्वा-11
P ॥४६॥ राणि, मण्डलसङ्ग्यामरूपणा १ मण्डलक्षेत्रप्ररूपणा २ प्रतिमण्डलमन्तरप्ररूपणा ३ मण्डलायामादिमानं ४ मन्दरम-18 धिकृत्य प्रथमादिमण्डलाबाधा ५ सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलायामादि मुहूर्त्तगतिः। तत्रादौ मण्डलसङ्ख्यामरूपणां पृच्छति
अनुक्रम [२६८]
ecenecenecenerce
~174.
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------
---------------------- मल [१४२-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SRee
प्रत
सूत्रांक
[१४२-१४५]]
कइणं भन्ते! चंदमण्डला पं०१, गो० ! पण्णरस चंदमण्डला पण्णता! जम्बुद्दीचे गं भन्ते ! दीवे केवइ ओगाहित्ता केवइआ चन्दमण्डला पं०१, गो०! जम्बुद्दीवे २ असीय जोअणसयं ओगाहित्वा पंच चंदमण्डला पण्णत्ता, लवणे णे भन्ते ! पुच्छा, गो०! लवणे णं समुदे तिणि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं दस चंदमण्डला पण्णत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं जम्बुद्दीवे दी। लवणे व समुदे पण्णरस चंदमण्डला भवन्तीतिमक्खायं १. (सूत्रं१४२)। सबभतराओ णं भन्ते ! चंदमंडलाओ णं केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पं०१, गोजमा! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमंडले पण्णते २ (सूत्र १४३) चंदमंडलस्स णं भन्ते! चंदमंडलस्स केवइआए अवाहाए अंतरे पं०१, गो.! पणतीसं २ जोअणाई तीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए चंदमंडलस्स चंदमंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ (सूत्रं १४४) चंदमंडले णं भन्ते! केवइ आयामविखंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइ बाहलेणं पण्णत्ते ?, गोभमा ! छप्पणं एगसद्धिभाए जोअणस्स आयामविक्खम्भेणं वं तिगुणं सविसेस परिक्खेवणं अट्ठावीसं च एगसहिभाए जोमणस्स पाहणं ४ (सूत्र १४५)
कति भदन्त ! चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि । अथैषां मध्ये || 8 कति द्वीपे कति लवणे इति व्यक्त्यर्थ पृच्छति-जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे कियदवगाध कियन्ति चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञ
सानि?, गौतम ! जम्बूद्वीपे २ अशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य पञ्च चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अथ लवणसमुद्रे भदन्त ! प्रश्नः, गौतम! लवणसमुद्रे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्रान्तरे दश चन्द्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि,
दीप
अनुक्रम [२६९-२७२]
~175
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७],--------------------
---------------------- मलं [१४२-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
द्वीपशा
[१४२-१४५]]
Brea daeseseeeeeestaes
श्रीजम्बू- एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे पञ्चदश चन्द्रमण्डलानि भवन्तीति आख्यातमिति । अथ मण्डलक्षेत्रप्र- ७वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
रूपणां प्रश्नयनाह-सवन्भंतराओ ण'मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरादू भदन्त! चन्द्रमण्डलात् कियत्या अबाधया सर्ववाहां चन्द्रस्य या वृत्तिः
चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं ?, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यान्तैर्यध्याप्तमाकाशं तन्मण्डलक्षेत्रं, मण्डले क्षेत्रतत्र च चक्रवालतया विष्कम्भः पञ्च योजनशतानि दशोत्तराणि अष्टचत्वारिंशञ्चैकपष्टिभागा योजनस्य ५१०४६ इदं
मवाधाऽऽ ॥४६५॥ च व्याख्यातोऽधिकं बोध्यं, तथाहि-चन्द्रस्य मण्डलानि पञ्चदश चन्द्रबिम्बस्य च विष्कम्भः एकषष्टिभागात्मक-२२-२४५
IS योजनस्य षट्पश्चाशद्भागाः तेन ते ५६ पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते जातं ८४० तत एतेषां योजनानयनार्थ एकषष्ट्या भागे IS हृते लब्धानि त्रयोदश योजनानि शेपाः सप्तचत्वारिंशत् , तथा पञ्चदशानां मण्डलानामन्तराणि चतुर्दश, एकैकस्या-18
न्तरस प्रमाण पञ्चविंशयोजनानि त्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिभागस्य सप्तधाच्छिन्नस्य सत्का18 चत्वारो भागाः, ततः पश्चत्रिंशचतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि योजनशतानि नवत्यधिकानि येऽपि च त्रिंशदेक-18
पष्टिभागास्तेऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि विंशत्यधिकानि, अयं च राशिरेकषष्टिभागात्मकस्तेन एकपष्टया भागो हियते लब्धानि षट् योजनानि, एषु पूर्वराशौ प्रक्षिप्तेषु जातानि ४९५ योजनानि, शेषाश्चतुःपञ्चाशदे- ४६५॥ कषष्टिभागास्तिष्ठन्ति, ये च एकस्यैकपष्टिभागस्य सत्काश्चत्वारः सप्तभागास्तेऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यन्ते जाताः षट्प-11 चाशत् तेषां सप्तभिर्भागे हृते लब्धा अष्टावेकषष्टिभागास्तेऽनन्तरोक्तचतुःपञ्चाशति प्रक्षिप्यन्ते जाता द्वाषष्टिः ६२/
दीप
अनुक्रम [२६९-२७२]
~176~
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------
---------------------- मल [१४२-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४२-१४५]]
तत्रैकाष्टिभागैर्योजनं लब्धं तच्च योजनराशौ प्रक्षिप्यते एकश्चैकपष्टिभागः शेषः ४९७ योजनक, इदं च मण्डला-19 ISन्तरक्षेत्र, योऽपि च बिम्बक्षेत्रराशिस्त्रयोदशयोजनसप्तचत्वारिंशदेकषष्टिभागात्मकः सोऽपि मण्डलान्तरराशौ प्रक्षिप्यते | || जातं योजनानि ५१०, यश्च पूर्वोद्धरितः एकः एकषष्टिभागः स सप्तचत्वारिंशति प्रक्षिप्यते जातं ४८ एकषष्टिभागार,
ननु पञ्चदशसु मण्डलेषु चतुर्दशान्तरालसम्भवाचतुर्दशभिर्भजन युक्तिमत्, सप्तचरवारो भागा इति कथं सङ्गच्छते?, उच्यते, मण्डलान्तरक्षेत्रराशेः ४९७१ मण्डलान्तरैश्चतुर्दशभिर्भजने लब्धानि ३५ योजनानि, उद्धरितस्य योजनराशेरेकषष्टया गुणने मूलराशिसत्कैकषष्टिभागप्रक्षेपे च जातं ४२८ एषां चतुर्दशभिर्भजने आगतोऽशराशिः ३० शेषा
अष्टौ तेषां चतुर्दशभिर्भागाप्राप्ती लापवार्थ द्वाभ्यामपवर्त्तने जातं भाज्यभाजकराश्योः ४ इति सुस्थं ॥ सम्प्रति मण्ड-1) पलान्तरप्ररूपणाप्रश्नमाह- चंदमंडलस्स ण'मित्यादि, चन्द्रमण्डलस्य भगन्त! चन्द्रमण्डलस्य कियत्या अबाधया
अन्तरं प्रज्ञप्तम्, गौतम! पञ्चत्रिंशत्पञ्चत्रिंशद्योजनानि त्रिंशञ्चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकपष्टिभार्ग सप्तधा छित्त्वा चतुरचूर्णिकाभागान् , एतच्च चन्द्रमण्डलस्य २ अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्त, अत्र सप्त चत्वारश्चर्णिका यथा | समायान्ति तथाऽनन्तरं व्याख्यातं, सम्पति मण्डलायामादिमानद्वारम्-'चन्दमण्डले णं भन्ते! केवइयं आयाम'। इत्यादि, चन्द्रमण्डलं भगवन्! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कियद्वाहल्येन-उच्चैस्त्वेन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! षट्पञ्चाशतमेकषष्टिभागान योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, एकस्य योजनस्य एकपष्टिभागीकृतस्य यावत्प्रमाणा भागा-18
दीप
अनुक्रम [२६९-२७२]
~177
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७],-------------------
--------------------- मूलं [१४२-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४२-१४५]
वक्षस्कारे श्रीजम्मू- स्तावत्प्रमाणषट्पञ्चाशदूभागप्रमाणमित्यर्थः, तत्रिगुणं सविशेष-साधिकं परिक्षेपेण करणरीत्या द्वे योजने पश्चपश्चा-181
प्रथमादिद्वीपशा- शद्भागाः साधिका इत्यर्थः, अष्टाविंशतिमेकपष्टिभागान् योजनस्य वाहल्येन । अथ मन्दरमधिकृत्य प्रथमादिम-18
मण्डलान्तिचन्द्री-18 ण्डलाबाधाप्रश्नमाह
बाधाम. या वृत्तिः
१४६ 11४६६॥
जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए आवाहाए सबभंतरए चन्दमंडले पण्णत्ते?, गोअमा! चोआलीस जोअणसहस्साइं अह य बीसे जोअणसए अबाहाए सम्बन्भन्तरे चन्दमंडले पण्णत्ते, जम्बुद्दीवे.२ मन्दरस्स पव्ययस्स केवइयाए अबाहाए अभंतराणन्तरे चन्दमंडले पण्णते?, गो०! चोआलीसं जोअणसहस्साई अट्ट व छप्पण्णे जोअणसए पणवीसं च एगसद्विभाए जोभणस्स एगद्विभार्ग च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए अबाहाए अभंवराणन्तरे चन्दमंडले पण्णत्ते, जम्बुद्दीचे दीये मन्दरस्स पव्ययस्स केवइआए अबाहाए अभंतरतचे मंडले पं०?, गो०! चोआलीसं जोअणसहस्साई भट्ट य वाणउए जोभणसए एगावण्णं च एगसहिभाए जोमणस्स एगट्ठिभागं च सत्तहा छेता एगं चुण्णिाभाग अबाहाए अभंतरसचे मैडले पणते, एवं' खल एएणं उपाएणं णिक्खममाणे चंदे तयाणन्तरामो मंडलाओ तयाणम्तर मंडल संफममाणे २ छत्तीस छत्तीस जोभणाई पण
S वीसं चं एगद्विभाए जोअणस्स एगद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मंडले अवाहाए बुद्धि अभिवद्धेमाणे
४६६॥ २ सम्बबाहिर मंडलं उबसंकमित्ता चार चरइ । जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयरस केवइआए अवाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पं०१, पणयालीसं जोमणसहस्साई तिणि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सम्बबाहिरए चंदमंडले ५०, जम्बुरीवे दीवे मन्दरस्स
दीप
अनुक्रम [२६९-२७२]
~178~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ------------------------
------ मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
aone
प्रत सूत्रांक [१४६]
पब्वयस्स केवइआए अवाहाए बाहिराणन्तरे चंदमंचले पण्णते?, गो०! पणयालीसं जोमणसहस्साई दोणि अ तेणउए जोभणसए पणतीसं च एगसहिभाए जोअणस्स एगहिभागं च सत्तहा छेत्ता तिष्णि चुण्णिाभाए अबाहार बाहिराणन्तरे चंदमंडले पण्णत्ते, जम्बुहीवे दी मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमहले पं०१, गो०! पणयालीसं जोअणसहस्साई दोण्णि अ सत्तावण्णे जोमणसए णव य एगद्विभाए जोअणस्स एगहिभाग घ सत्तहा छेत्ता छ घुण्णिाभाए भवाहाए बाहिरतचे चंदर्मडले पं० । एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणन्तराभो मंडलाओ तयाणंतर मंडल संकममाणे २ छत्तीसं २जोत्रणाई पणवीसं च एगसद्विभाए जोमणस्स एगद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मंडले अथाहाए बुदि णिज्युहेमाणे २ सधभतरं मंडलं उक्संकमित्ता चार चरइ ५ (सूत्रं १४६) 'जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, जम्बूद्वीपे २ भगवन् ! मन्दरस्थ पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्त', गौतम! चतुश्चत्वारिंशयोजनसहस्राणि अष्ट च चिंशत्यधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्वाभ्यन्तरं चन्द्रम-18 |ण्डल प्रज्ञप्तमिति, उपपत्तिस्तु प्राकू सूर्यवक्तव्यतायां दर्शिता, द्वितीयमण्डलाबाधा प्रश्नयज्ञाह-'जम्बुहीवे २' इत्यादि, जम्बूद्वीपे २ भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्टौ च षट्पञ्चाशदधिकानि योजनशतानि पञ्चविंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा चतुरश्चणिकाभागान् अबाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं
दीप अनुक्रम [२७३]
se
Jatichanel
~179
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---------------------------
----- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Sect
प्रत सूत्रांक [१४६]]
श्रीजम्यू-18 प्रज्ञप्त, अनोपपत्तिः प्रागुक्तेऽभ्यन्तरमण्डलगतराशौ मण्डलान्तरक्षेत्रमण्डलविष्कम्भराश्योः प्रक्षेपे जायते, तथाहि-18 ७वक्षस्कारे द्वीपशा-18 ४४८२० रूपः पूर्वमण्डलयोजनराशिः, अस्मिन् मण्डलान्तरक्षेत्रयोजनानि ३५, तथाऽन्तरसत्कत्रिंशदेकषष्टिभा-18
प्रथमादि
मण्डलान्तिचन्द्री- गानां मण्डलविष्कम्भसत्कषट्पञ्चाशदेकषष्टिभागानां च परस्परमीलने जातं ८६ एकपष्टया भागे चागतं योजनमेकं या वृतिः
बाधा सू. तञ्च पूर्वोक्तायां पञ्चत्रिंशति प्रक्षिप्यते जाता षट्त्रिंशद्योजनानां शेषाः पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागाश्चत्वारश्चूर्णिकाभागा
१४६ ॥४६॥ 18 इति, अथ तृतीयं-'जम्बुद्दीवे २' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे द्वितीयमण्डलसत्कराशी ३६ योजनानि २५
8| एकपष्टिभागाश्चत्वारश्चर्णिकाभागा इत्यस्य प्रक्षेपे जातं यथोक्तं, अथ चतुर्थाविमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खल'इत्यादि,
एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोपायेन-प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्कामन्-लवणाभिमुख मण्डलानि कुर्वन् चन्द्रस्तदनन्तराद्-विवक्षितात्पूर्वस्मान्मण्डलाद्विवक्षितमुत्तरमण्डलं संक्रामन् २ पत्रिंशद्योजनानि,
अत्र योजनसंख्यागतवीप्सा भागसंख्यापदेष्वपि ग्राह्या, तेन पञ्चविंशति २ एकषष्टिभागान् योजनस्य एकं चैकपष्टिIN भार्ग सप्तधा छित्त्वा चतुरश्चर्णिकाभागान् एकैकस्मिन् मण्डले अबाधाया वृद्धि अभिवर्द्धयन् २ सर्ववाह्यमण्डलमु
पसंक्रम्य चारं चरति, अथ पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलान्मण्डलाबाधा पृच्छमाह-'जम्बुद्दीये'त्ति, ४६७॥ जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्ववाद्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं ?, गौतम! पश्चचत्वारिंशयोजनसहस्राणि त्रीणि च त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्वबाह्यं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ,
दीप अनुक्रम [२७३]
~180
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वि
eAdaesex
प्रत सूत्रांक [१४६]
अथ द्वितीयमण्डलं पृच्छन्नाह-'जम्बुद्दीये इत्यादि, जम्बूद्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्तं ?, गौतम! पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च विनवत्यधिके योजनशते पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागान योजनस्य एकं चैकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा त्रीश्चूर्णिकाभागानबाधया सर्ववाह्यानन्तरं द्वितीय
चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्त, सर्वबाह्यमण्डलराशेः षट्त्रिंशद्योजनानि पञ्चविंशतिश्च योजनैकषष्टिभागा एकस्यैकषष्टिभागस्य | सरकाश्चत्वारः सप्तभागाः पात्यन्ते जायते यथोक्तराशिः, अथ तृतीयमण्डलपृच्छा-'जम्बुद्दीवे 'इत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, | उत्तरसूत्रे पश्चचत्वारिंशयोजनसहस्राणि द्वे च सप्तपञ्चाशदधिके योजनशते नव च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकच एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा षट् चूर्णिकाभागान् अबाधया बाह्यतृतीयं चन्द्रमण्डलं प्रज्ञप्त, उपपत्तिस्तु बाह्यद्वि-18 तीयमण्डलराशेस्तमेव षट्त्रिंशद्योजनादिकं राशिं पातयित्वा यथोक्तं मानमानेतव्यं । अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि व्यक्तम्, नवरं अबाधायाः वृद्धिं निवर्द्धयन् २ हापयन् २ इत्यर्थः ॥ अथ सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलायामाद्याहसबभतरे गं भन्ते! चंदमंडले केवइभ आयामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवेणं पणत्ते?, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई छचचत्ताले जोमणसए आयामविक्खम्भेणं तिणि अजोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई अउणाणउतिं च जोअणाई किंधिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पं०, अब्भन्तराणतरे सा चेव पुच्छा, गो०! णवणउई जोअणसहस्साई सत्त व बारसुत्तरे अण्णसए
दीप अनुक्रम [२७३]
JaEcine
~181
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---------------------------
------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
।
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्ति:
मण्डलायामादि रु. १४७
सूत्रांक
[१४७]
॥४६८॥
एगावणं च एगहिभागे जोमणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एग चुण्णिाभार्ग आयामविक्खम्भेणं तिणि अजोयणसयसहस्साई पन्नर सहस्साई तिणि अ एगूणवीसे जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं, अन्भन्तरतशे णं जाव पं०१, गो०! णवणउई जोमणसहस्साई सत्त य पचासीए जोअणसए इगतालीसं च एगविभाए जोअणस्स एगहिमागं च सत्तहा छेत्ता दोणि अ चुण्गिभाभाए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई पंच य गुणापण्ये जोअणसए किंचिवि. सेसाहिए परिक्खेवेणंति, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे जाव संकममाणे २ बावत्तरि २ जोअणाई एगावणं च एगट्टिभाए जोअणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुण्णिाभागं एगमेगे मंडले विक्खम्भवुद्धिं अभिवद्धेमाणे २ दो दो तीसाई जोमणसयाई परिरयबुद्धि अभिवद्धेमाणे २ सबबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ । सब्वयाहिरए णे भन्ते । चन्दनडले केवइ आयामविक्खम्भेणं केवाइ परिक्वे णं , पण्णत्ते?, गो०! एग जोवणसयसहस बसहे जोअणसए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोसणसवसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिणि अ पगरसुत्तरे जोअणसए परिक्वेवेणं, बाहिराणन्तरे पुच्छा, गो०! एगं जोअणयसहस्सं पश्च सत्तासीए जो अणसए णव य एगद्विभाए जोअणस्स एगहिभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं तिष्णि अ जोअणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई पंचासीई च जोभणाई परिक्लेवेणं, बाहिरतचे गं भन्ते! चन्दमण्डले० पं०१, गो०। एग जोअणसयसहस्सं पंच य यउदमुत्तरे जोअणलए एगूणवीसं च एगसहिभाए जोभणस्स एगद्विभार्ग च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं तिणि अ जोभणसयसहस्साई सत्तरस सहस्साई अह य पणपणे जोअणसए परिक्खेवेणं, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चन्दे जाव संकममाणे २ बावत्तरि २ जोभणाई
B0000292990sa
दीप अनुक्रम [२७४]
eceneemerce
॥४६८॥
~182
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
एगायण च एगविभाए जोमणस्स एगविभागं च सत्तहा छेत्ता एग चुण्णिाभागं एगमेगे मण्डले विक्खम्भवुद्धिं णिन्वुद्धमाणे २ दो दो तीसाई जोअणसयाई परिरवबुद्धि, णिवुद्धेमाणे २ सयभंतरं मंडलं उचसंकमित्ता चार परइ ६ (सूत्रं १४७)
सर्वाभ्यन्तरं भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! नवनवति योजन। सहस्राणि षट् च चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि च योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्रा-18
ण्येकोननवतिं च योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्त, उपपत्तिस्तूभयत्रापि सूर्यमण्डलाधिकारे दर्शिता, अथ द्वितीयं-'अम्भतराणन्तरे'इत्यादि, अभ्यन्तरानन्तरे सैव पृच्छा या सर्वाभ्यन्तरे मण्डले, उत्तरसूत्रे-गौतम! नव-18 नवति योजनसहस्राणि सप्त च द्वादशोत्तराणि योजनशतानि एकपञ्चाशतं च एकपष्टिभागान् योजनस्य एक चैकष-10 ष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा एकं चूर्णिकाभागमायामविष्कम्भाभ्यां, तथाहि-एकतश्चन्द्रमा द्वितीये मण्डले संक्रामन् पतिशद्योजनानि पश्चविंशतिं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकस्य चैकषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्कान् चतुरो भागान् | | विमुच्य संक्रामति अपरतोऽपि तावन्त्येव योजनानि विमुच्य संक्रामति उभयमीलने जातं द्वासप्ततिर्योजनानि एक-11 1 पञ्चाशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य एकषष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य सत्क एको भागो द्वितीयमण्डले विष्कम्भाया-१
मचिंतायामधिकरवेन प्राप्यत इति, तच्च पूर्वमण्डलराशौ प्रक्षिप्यते जायते यथोक्तं द्वितीयमण्डलायामविष्कम्भमानं, 13 त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण द्वितीय मण्डलं
9000000000000
दीप अनुक्रम [२७४]
MARAese
~183
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------------
----- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
श्रीजम्यू- प्रज्ञप्त, उपपत्तिस्तु प्रथममण्डलपरिरये द्वासप्ततियोजनादीनां परिरये त्रिंशदधिकद्वियोजनशतरूपे प्रक्षिके सति यथोक्ता अक्षस्कारे
द्वीपशा- मानं, अथ तृतीयं-'अभंतरतचे ण'मित्यादि, अभ्यासरतृतीये चन्द्रमण्डले यावत्पदात् 'चन्दमण्डले केवाइ माया-18 न्तिचन्द्री- मविक्खम्भेणं केवाइ परिक्खेवेण'मिति ग्राह्य, उत्तरसूत्रे गौतम ! नवनवति योजनसहस्राणि सप्त च पश्चाशीत्यधिकानि
यामादि
सू.१४७ या त्ति योजनशतानि एकचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा द्वौ च चूर्णिकाभागा-1 ॥४६९॥ थायामविष्कम्भाभ्यां, अथ द्वितीयमण्डलगतराशी द्वासप्तति योजनान्येकपश्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकंच
चूर्णिकाभागं प्रक्षिप्य यथोक्तं मानमानेतव्यं, त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्राणि पञ्च चैकोनपश्चाशदधि18 कानि योजनशतानि किचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इह पूर्वमण्डलपरिरयराशी द्वे योजनशते त्रिंशदधिके प्रक्षिप्योपप-15
त्तिः कार्या, अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु इत्यादि, पूर्ववत् , निष्कामेश्चन्द्रो यावत्पदात् 'तयाणन्तराओ TS मंडलाओ तयाणन्तरं मण्डल मितिग्राह्य, संक्रामन् २ द्वासप्तति २ योजनानि योजनसंख्यापदगतावीप्सा भागसंख्या
पदेष्वपि ग्राह्या, तेनैकपञ्चाशतं एकपञ्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभागं सप्तधा छित्त्वा एकमेक चूर्णिकाभागमेकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिमभिवर्धयन् २ दे दे त्रिंशदधिके योजनशते परिरयवृद्धिमभिवयन् ॥६॥ २ सर्वपाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं परतीति । सम्प्रति पश्चानुपूर्व्या पृच्छति-'सव्ववाहिरए ण'मित्यादि, सर्वबाह्यं भदन्त ! चन्द्रमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्, गौतम! एक योजनलक्ष षटू षष्टानि
~184
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
पष्टयधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्या, उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लक्षं उभयोः प्रत्येकं त्रीणि योजनशतानि त्रिंश-S दधिकानि उभयमीलने योजनानां षट् शतानि षष्ट्यधिकानीति, त्रीणि च योजनलक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि परिक्षेपेण, अत्रोपपत्तिः जम्बूद्वीपपरिधी षष्ट्यधिकषट्शतपरिधी प्रक्षिप्ते भवति यथोकं |मानं, अथ द्वितीयं 'बाहिराणन्तर'मित्यादि, बाह्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमित्यर्थः पृच्छति प्रश्नालापकस्तथैव, उसरसूत्रे 10 गौतम! एक योजनलक्षं पञ्च सप्ताशीत्यधिकानि योजनशतानि नव चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकं च एकषष्टिभाग सप्तधा छित्त्वा पट् चूर्णिकाभागान् आयामविष्कम्भाभ्यां, अत्रोपपत्तिः पूर्वराशे सप्तति योजनान्येकपञ्चाशतं चैक-16
पष्टिभागान् योजनस्य एकस्य च एकपष्टिभागस्य सप्तधा छिन्नस्य एक भागमपनीय कर्तव्या, बीणि योजनलक्षाणि | 18| अष्टादश सहस्राणि पश्चाशीतिं योजनानि परिक्षेपेण, सर्वबाह्यमण्डलपरिधेट्टै शते त्रिंशदधिके योजनानामपनयने यथोक्त
मानं, अथ तृतीयं 'बाहिरतचे ण'मित्यादि, बाह्यतृतीयं भदन्त ! चन्द्रमण्डलं यावच्छब्दात सर्व प्रश्नसूत्रं ज्ञेयं, उत्तर-18 18 सूत्रे-गौतम! एकं योजनलक्षं पञ्च चतुर्दशोत्तराणि योजनशतानि एकोनविंशतिं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एक चैक
पष्टिभागं सप्तधा छिरवा पश्च यूर्णिकाभागान् आयामविष्कम्भाभ्यां, अब सङ्गतिस्तु द्वितीयमण्डलराशेः द्वासप्तति| योजनादिकं राशिमपनीय कार्या, त्रीणि योजनलक्षाणि सप्तदश सहस्राणि अष्ट च पञ्चपञ्चाशदधिकानि योजनशतानि | परिक्षेपेण, उपपत्तिस्तु पूर्वराशेढे शते त्रिंशदधिके अपनीय कार्या, अथ चतुर्थादिमण्डलेष्वतिदेशमाह-एवं खलु'।
~185
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -------------------------
------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
दीप अनुक्रम [२७४]
श्रीजम्बू-1 इत्यादि, पूर्ववत् , प्रविशंश्चन्द्रो यावत्पदात् 'तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डल'मिति ग्राह्य, संक्रामन् २18 द्वीपशा
द्वासप्तति २ योजनानि एकपञ्चाशतमेकपंचाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्य एक एकषष्टिभागं च सप्तधा छिस्वा एक-18| चन्द्रमुहर्चन्तिचन्द्री-18|| मेकं चर्णिकाभागमेकैकस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिं निवर्तयन् २ हापयन् २ इत्यर्थः द्वे द्वे त्रिंशदधिके योजनशते | गतिः सू. या वृत्तिः
परिरयवृद्धिं निवर्द्धयन् २ हापयन् हापयन्नित्यर्थः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति ॥ अथ मुहूर्तगतिमरूपणा- १४८ ॥४७०॥
जया णं भन्ते! चन्दे सबभन्तरमण्डलं उबसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुतेणं केवा खेत्तं गच्छइ १, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई तेवचरि च जोअणाई सत्तत्चरिं च चोआले भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहि. सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहि सएहि छेत्ता इति, तया ण इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहि जोभणपहिं एगवीसाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स चन्दे चक्फास हत्यमागछ । जया पं भन्ते! चन्दे भन्भन्तराणन्तर मण्डल उपसंकमित्ता चार चरख जाव केवइ खेत्तं गच्छही, गोलपंच जोअणसहस्साई सत्तत्तरिं च जोअणाई छत्तीसं च चोअत्तरे भागसए गच्छद, मण्डल तेरसहिं सहस्सेहिं जाव छेत्ता, जया णं भन्ते! चन्दे अश्मंतरतचं मण्डलं उपसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं महत्तेणं केवइ खेसं गच्छद ?, गो०! पंच जोअणसहस्साई असीई च जोअणाई तेरस य भागसहस्साई तिष्णि अ एगूणवीसे भागसए
॥४७॥ गच्छद मण्डलं तेरसहिं जाव छेत्ता इति । एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चन्दे तयाणन्तराओ जाव संकममाणे २ तिण्णि २जोभणाई छण्णजईप पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुतगई अभिवढेमाणे २ सयबाहिर मण्डलं असंकमित्ता चार
| अथ मुहूर्तगति: प्ररुपणा क्रियते
~186
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],----------------...........
----- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप
चरम, जया णं भन्ते! चन्दे सब्ववाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छद ?, गो.! पंच जोमणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसय अउणत्तरं च णउए भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहि भागसहस्सेहिं सत्चहि अ जाव छेत्ता इति, तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कातीसाए जोअणसहस्सेहिं अहि अ एगत्तीसेहिं जोअणसपदि चन्दे चक्खुप्कासं हवमागच्छइ, जया णं भन्ते! बाहिराणन्तरं पुच्छा, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई एक च एकवीसं जोमणसयं एकारस य सट्टे भागसहस्से गच्छद मण्डलं तेरसहिं जाव छेत्ता, जया गं भंते ! बाहिरतचं पुच्छा, गोअमा! पंच जोअणसहस्साई एगं च अठ्ठारसुत्तर जोअणसयं चोदस य पंचुत्तरे भागसए गच्छइ मंडलं तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहिं पणवीसेहिं सरहिं छेत्ता, एवं खलु एएणं उवाएणं जाव संकममाणे २ तिणि २ जोअणाई छण्णउतिं च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुत्तगई णिबुद्धेमाणे २ सव्वम्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ (सूत्र १४८)
'जया ण'मित्यादि, पूर्ववत् , भदन्त ! चन्द्रः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति !, भगवानाह-गौतम! पंच योजनसहस्राणि त्रिसप्ततिं च योजनानि सप्तसप्ततिं च चतुश्चत्वारिंशदधिकानि भागशतानि गच्छति, कस्य सत्का भागा इत्याह-मण्डलं प्रक्रमात् सर्वाभ्यन्तरं त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिश्च शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागैश्छित्त्वा-विभज्यैतत् पंचसहस्रयोजनादिकं गतिपरिमाणमानेतव्यं, तथाहि-प्रथमतः सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिः योजन ३१५०८९ रूपो द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं १९५३४५६९,
अनुक्रम [२७५]
~187
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप
श्रीजम्बू-१ अस्य राशेः त्रयोदशभिः सहस्त्रैः सप्तभिः शतैः पंचविंशत्यधिकैर्भागे हते लब्धानि पंच योजनसहस्राणि त्रिसप्तत्यधि- वक्षस्कारे द्वीपशा- कानि अंशाच सप्तसप्ततिशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ५०७३ 24 ननु यदि मण्डलपरिधिस्त्रयोदशसहस्रादि- चन्द्रमहत्त न्तिचन्द्रीया पृत्तिः केन भाजकेन रशिना भाज्यस्तहि किमित्येकविंशत्यधिकाभ्यां द्वाभ्यां शताभ्यां मण्डलपरिधिर्गुण्यते ?, उच्यते, चन्द्र
१४८ स्य मण्डलपूरणकालो द्वापष्टिर्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सत्कास्त्रयोविंशतिरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागा:, अस्य च भावना र ॥४७॥ चन्द्रस्य मुहूर्तभागगत्यवसरे विधास्यते, मुहूर्तानां सवर्णनार्थमेकविंशत्यधिकशतद्वयन गुणने त्रयोविंशत्यंशप्रक्षेपे च ।
जातं १३७२५, अतः समभागानयनार्थ मण्डलस्याप्येकविंशत्यधिकशतद्वयेन गुणनं सङ्गतमेवेति, अयं भावः-यथा ॥ सूर्यः षष्ट्या मुहूर्तमण्डलं समापयति शीघ्रगतित्वात् लघुबिमानगामित्वाञ्च तथा चन्द्रो द्वाषष्ट्या मुहूर्तेखयोविंश| त्येकविंशत्यधिकशतद्वयभागमण्डलं पूरयति मन्दगतित्वाद् गुरुविमानगामित्वाचा, तेन भण्डलपूर्तिकालेन मण्डलपरि-18॥ अधिक्तः सन मुहूर्तगतिं प्रयच्छतीति सर्वसम्मतं, आह-एकविंशत्यधिकशतद्वयभागकरणे किं बीजमिति चेद्, उच्यते, ॥३॥ 8|| मण्डलकालानयने अस्यैष छेदकराशेः समानयनात्, मण्डलकालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैः || अष्टषष्ट्यधिकः सकलयुगवर्तिभिः अर्धमण्डलैरष्टादश शसानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्या
॥४७॥ मर्द्धमण्डलाभ्यामेकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लम्यन्ते, राशित्रयस्थापना-१७१८१८३०२ जत्राम्येन ||राशिना द्विकलक्षणेन मध्यस्य राशेः १८३० रूपस्य गुणने जातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि ३१६० तेषा
अनुक्रम [२७५]
cee
~188
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ------------
---------------------- मूलं [१४८]
(१८)
8306003
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
माथेन राशिना १७६८ रूपेण भागे हुते लब्धे द्वे रात्रिन्दिवे, शेष तिष्ठति चतुर्विंशत्यधिकं शतं १२४ तत एक
स्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्त्ता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छतानि विंशत्यधिकानि ३७२० तेषां11 AS सप्तदर्शभिः शतैः अष्टपष्ट्यधिकैर्भागे हृते लब्धौ मुहूत्तौं, शेषाः १८४, अथ छेद्यच्छेदकराश्योरष्टकेनापर्त्तने जातः IS छेद्यो राशिस्त्रयोविंशतिः छेदकराशिरेकविंशत्यधिकशतद्वयरूप इति । अथास्य दृष्टिपथप्राप्ततामाह--'तया णं इहग-18
यस्स इत्यादि, तदा इहगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्रैर्द्धाभ्यां च त्रिपष्ट धधिकाभ्यां योजनशताभ्या| मेकविंशत्या च षष्टिभागोंजनस्य चन्द्रः चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति, अत्रोपपत्तिः सूर्याधिकारे दर्शितापि किश्चिद्वि
शेषाधानाय दयते, यथा सूर्यस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डले जम्बूद्वीपचक्रवालपरिधेर्दशभागीकृतस्य दश त्रिभागान् यावत्ता॥ पक्षेत्र तथास्यापि प्रकाशक्षेत्र तावदेव पूर्वतोऽपरतश्च तस्याटें चक्षुःपथप्राप्ततापरिमाणमायाति, यत्तु षष्टिभागीकृत-18
योजनसस्कैकविंशतिभागाधिकत्वं तत्तु सम्प्रदायगम्यं, अन्यथा चन्द्राधिकारे साधिकद्वापष्टिमुहर्तप्रमाणमण्डलपूर्तिकालस्य छेदराशित्वेन भणनात् सूर्याधिकारे वाच्यस्य षष्टिमुहूर्तप्रमाणमण्डलपूर्तिकालरूपस्य छेदराशेरनुपपद्यमा
नत्वात् । अथ द्वितीयमण्डले मुहर्तगतिमाह-'जया णमित्यादि, यदा भदन्त ! चन्द्रः अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय |६|| मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति यावत्पदात् 'तया णं एगमेगेणं महत्तेण'मिति गम्यते, कियत् क्षेत्रं गच्छति', गौतम !
पश्च योजनसहस्राणि सप्तसप्ततिं च योजनानि षट्त्रिंशतं च चतुःसप्तत्यधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयो
दीप
अनुक्रम
[२७५]]
~189
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
न्तिचन्द्री-18
गतिः मू.
सूत्रांक
या चिः
[१४८]
दीप
श्रीजम्यू- दशभिः सहस्रः यावत्पदात् 'सत्तहि अपणवीसेहिं सएहि मिति ग्राह्य, छित्त्वा-विभज्य, एतत् सूत्र प्राग्भावितार्थमिति नेह ७वक्षस्कारे द्वपिशा- पुनरुच्यते, अत्रोपपत्तिः द्वितीयचन्द्रमण्डले परिरयपरिमाणं ३१५३१९ एतत् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां
चन्द्रमुहूर्तगुण्यते जातं ६९५८५४९९ एषां त्रयोदशभिः सहौः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागे लब्धानि पञ्च योजनसहस्राणि |
१४८ सप्तत्यधिकानि ५०७७, शेषं पत्रिंशच्छतानि चतुःसप्त त्यधिकानि भागानां १३७२५१७५, अथ तृतीयं 'जया ण'॥४७२॥
मित्यादि, यदा भदन्त! चन्द्रः अभ्यन्तरतृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्त्तन कियत् क्षेत्र गच्छति ?, गौतम! पश्च योजनसहस्राणि अशीतिं च योजनानि त्रयोदश च भागसहस्राणि त्रीणि च एकोनत्रिंशदधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिः सहवैरित्यादि पूर्ववत्, अत्रोपपत्तिर्यथा-अत्र मण्डले परिरयः
३१५५४९ एतद्द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ६९७३६३२९, एषां प्रयोदशभिः सहस्रः सप्तभिः 19 शतैः पञ्चविंशत्यधिकैर्भागे हृते लब्धानि पञ्च सहस्राण्यशीत्यधिकानि ५०८०, शेषं त्रयोदश सहस्राणि त्रीणि शता
ग्यकोनत्रिंशदधिकानि भागानां 1३३६ । अथ चतुर्थादिमण्डलेवतिदेशमाह-एवं खलु एएण'मित्यादि, पूर्ववत् , | निष्क्रामन् चन्द्रस्तदनन्तरात् यावतशब्दात् मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २ त्रीणि २ योजनानि पण्णवति च
पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतान्येकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमभिवर्द्धयन् २ सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, || | कथमेतदवसीयत इति चेत्, उच्यते, प्रतिचन्द्रमण्डलं परिरयवृद्धि शते त्रिंशदधिके २३०, अस्य च त्रयोदशस
अनुक्रम [२७५]
~190
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप
HS हस्रादिकेन राशिना भागे हृते लब्धानि त्रीणि योजनानि शेष षण्णवतिः पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि ३ ११७५५ । अथ 81
| पश्चानुपूर्ध्या पृच्छति-'जया ण'मित्यादि, यदा भदन्त ! चन्द्रः सर्ववाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन । R|| मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति', गौतम। पञ्च योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतमेकोनसप्ततिं च ॥ नवत्यधिकानि भागशतानि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्भागसहस्रः सप्तभिश्च यावच्छब्दात् पञ्चविंशत्यधिक शतथि-। भज्य, अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिरयपरिमाणं ३१८३१५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ७०३४७६१५ एषां त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः वातैः पञ्चविंशत्यधिकांगे हृते लब्धानि ५१२५ शेष भागा, |११३३५, अथात्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततामाह-'तया णमिति, तदा-सर्वबाह्यमण्डलचरणकाले इहगतानां मनुष्याणा
| मेकत्रिंशता योजनसहरैः अष्टभिश्चैकत्रिंशदधिकैः योजनशतैश्चन्द्रश्चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति, अत्र सूर्याधिकारोक्तं 18'तीसाए सविभाए'इत्यधिक मन्तव्यं, उपपत्तिस्तु प्राग्वत्, अथ द्वितीयं मण्डलं-'जया ण'मित्यादि, यदा भदन्त ! 18 सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमित्यादि प्रश्नः प्राग्वत्, गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि एकं चैकविंशत्यधिकं योजनशतं 18 18| एकादश च पश्यधिकानि भागसहस्राणि गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिर्यावत्पदात् सहस्रः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्य-181
पिकः छित्त्वा, अनोपपत्तिः-अत्र. मण्डले परिरयः ३१८०८५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ७०२९६७८५ एषां १३७२५ एभिर्भागे हृते लब्ध ५१२१ शेष । अथ तृतीयं-'जया ण'मित्यादि,
20090amasasaa000000
अनुक्रम [२७५]
~191~
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ---------------------------
------ मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप अनुक्रम [२७५]
श्रीजम्म्-18 प्रश्नः प्राग्वत्, गौतम ! पञ्च योजनसहयाण्येकं चाष्टादशाधिक योजनशतं चतुर्दश च पश्चाधिकानि भागशतानि वक्षस्कारे
द्वीपशा-18 गच्छति, मण्डलं त्रयोदशभिः सहनैः सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैः छित्त्वा, अत्रोपपत्तिः-अत्र मण्डले परिरयप्रमाणं चन्द्रमुहत्तन्तिचन्द्री
३१७८५५ एतद् द्वाभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां गुण्यते जातं ७०२४५९५५ एषां १३७२५ एभिर्भागे हृते गाता या चिः
१४८ 18 लब्धं ५११८ शेष भागा । अथ चतुर्थादिमण्डलेवतिदेशमाह-एवं खलु' इत्यादि, एतेनोपायेन यावच्छब्दात् 1४७३॥
'पविसमाणे चन्दे तयाणन्तराओ मण्डलाओ तयणन्तरं मण्डल'मिति ग्राह्य, संक्रामन् २ त्रीणि योजनानि पण्णवति । च पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगति निवर्द्धयन २ सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङ्कम्य चार चरति, उपपत्तिः पूर्ववत्, अत्र सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यचन्द्रमण्डलयोदृष्टिपथप्राप्तता दर्शिता, शेषमण्डलेषु तु सा अत्र अन्थे चन्द्रप्रज्ञप्तिवृहतक्षेत्रसमासवृत्त्यादिषु च पूर्वैः क्वापि न दर्शिता तेनात्र न दर्यत इति । अथ नक्षत्राधिकारः,
तत्राष्टी द्वाराणि यथा मण्डलसङ्ख्याप्ररूपणा १ मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा २ अभ्यन्तरादिमण्डलास्थायिनामष्टाविंशतेन|| क्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा ३ नक्षत्रविमानानामायामादिनिरूपणं ४ नक्षत्रमण्डलानां मेरुतोऽवाधानिरूपर्ण ५ तेपा-IS-॥४७३॥ || मेवायामादिनिरूपणं ६ मुहर्तगतिप्रमाणनिरूपणं ७ नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलैः समवतारनिरूपणं ८। तत्रादौ मण्ड-IN लसङ्ख्यामरूपणाप्रश्नमाह
~192
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७],----------------...........
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
कइणं भंते ! णक्खत्तमण्डला पं०१, गोअमा! अठ्ठ णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता १ । जम्बुद्दीचे दीवे केवइ ओगाहित्ता केवइआ णक्खत्तमंडला पण्णता?, गोममा ! जम्बुद्दीवे दीवे असीअं जोअणसयं ओगाहेत्ता एत्थ णं दो णक्खत्तमंडला पण्णता, लवणे णं समुद्र केवइ ओगाहेत्ता केवहा णक्खत्तमंडला पण्णचा?, गो०! लवणे णं समुद्र तिणि तीसे जोभणसए ओगाहित्ता एत्थ ण छ णक्खत्तमंडला पण्णत्ता, एवामेव सपुज्वावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे लवणसमुदे अठु णवत्तमंडला भवंतीतिमक्खायमिति २ । सयभंतराओ णं भंते! णक्खत्तमंडलाओ केतइआए अवाहाए सब्बबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णते?, गोभमा ! पंचसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सब्बबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते इति, णक्खत्तमंडलस्स णं भन्ते । णक्खत्तमंडलस्स य एस णं केवइआएं अवाहाए अंतरे पण्णते?, गोभमा! दो जोषणाई णक्खत्तमंडलस्सै य णखत्तमंडलस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ३ । णक्खत्तमंडले णं भंते! केवइ आयामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवणं केवइ बाहल्लेणं पण्णत्ते ?, गो०! गाउअं आयामविक्खम्भेणं तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं अद्धगाउ बाहलेणं पण्णते ४ । जम्बुद्दीवे गं भन्ते! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्वर्भतरे णक्वत्तमंडले पण्णन्ते ?, गोअमा! चोयालीसं जोअणसहस्साई अट्ठ य वीसे जोअणसए अबाहाए सम्वन्तरे णवत्तमंडले पण्णते इति, जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पठ्वयस्स केवइए अबाहाए सव्ववाहिरए णक्सत्तमंडले पण्णत्ते , गोअमा! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिष्णि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पण्णत्ते इति ५ । सव्वभंतरे णक्खत्तमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवणं पं० १, गो.! णवणउति जोअणसहस्साई छचचत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोमणसयसहस्साई पण्णरस सहस्साई एगूणणवति च जोमणाई किंचिबिसेसाहिए परि
Jation
अथ नक्षत्र-मण्डलस्य संख्यादि प्ररुपणा क्रियते
~193
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७],------------------..........
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक
न्तिचन्द्रीया वृचिः ॥७ ॥
[१४९]
Bre
दीप अनुक्रम [२७६]
क्खेवेणं पण्णते. सम्बवाहिरए गं भंते! णक्खत्तमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवहा परिक्षेवेणं पण्णचे, गोअमा। एगं 18|| रकारे जोमणसयसहस्सं छच्च सढे जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ जोअणसयसहस्साई अवारस य सहस्साई तिणि अ पण्णर- नक्षत्रमसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवणं, जया ण भंते! णक्खत्वे सबभंतरमंडलं स्वसंकमित्ता चार घरइ तथा गं एगमेगेणं मुहुत्तेणं 1ण्डलादि केवइ खेत्तं गच्छद ?, गोभमा! पंच जोअणसहस्साई दोषण य पणढे जोअणसए अट्ठारस य भागसहस्से दोणि अ तेवढे
र.१४९ भागसए गच्छद मंडलं एकवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सडेहिं सपहिं छेचा । जया जे भंते ! णक्खसे सम्बबाहिर मंडलं अवसंकमित्ता चारं घरइ तया गं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ, गोयमा! पंच जोअणसहस्साई तिणि अ एगूणवीसे जोअणसए सोलस य भागसहस्सेहिं तिष्णि अ पण्डे भागसए गच्छइ, मंडलं एगवीसाए भागसहस्सेहिं णवहि अ सहेहिं सपहि छेत्ता, एते णं भंते! अट्ठ णक्खत्तमंडला कतिहिं चंदमंडलेहिं समोअरंति !, गोभमा ! अहिं चंदमंडलेहि समोअरंति, तंजहापढमे चंदमंडले ततिए छहे सत्तमे अठुमे दसमे इकारसमे पण्णरसमे चंदमंडले, एगमेगेणं भन्ते! मुहुत्तेणं केवहभाई भागसयाई गच्छद?, गो. जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरद तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स सत्तरस अट्ठे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणडइए अ सएहि छेत्ता इति । एगमेगेणं भन्ते! मुहुत्तेणं सूरिए केवइआई भागसवाई गच्छद, गोभमा ! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स २ मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारसतीसे भागसए गच्छद, मंडलं सयसहस्सेहिं अठ्ठाणउतीए अ सहि IS४७४॥ छेत्ता, एगमेगेण भंते ! मुहुतेणं णक्खत्ते केवइआई भागसयाई गच्छइ!, गो०! जं जं मंडलं नवसंकमित्ता चार चरह तस्स तस्स मंडलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छह मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणचईए अ सएहिं छेत्ता । (सूत्र १४९)
~194
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
'कइणं भन्ते!'इत्यादि, कति भदन्त ! नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! अष्ट नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अष्टाविंशतेरपि नक्षत्राणां प्रतिनियतस्वस्वमण्डलेष्वेतावत्स्वेव सञ्चरणात् , यथा चैतेषु सञ्चरणं तथा निरूपयिष्यति, एतदेव क्षेत्रविभा-2 गेन प्रश्नयति-जम्बूद्वीपे द्वीपे कियत्क्षेत्रमवगाह्य कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतंअशीत्यधिक योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे द्वे नक्षत्रमण्डले प्रज्ञप्ते, लवणसमुद्रे कियदवगाह्य कियन्ति नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञधानि?, गौतम ! लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे षट् नक्षत्रमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, अत्रोपसं-14] हारवाक्येनोक्तसङ्ख्यां मीलयति-एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे चाष्टौ नक्षत्रमण्डलानि भवन्ति इत्याख्यातं, मकारोऽत्रागमिकः । अथ मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा-'सबभन्तरा इत्यादि, सर्वाभ्यन्तरादू भदन्त ! नक्षत्रमण्डलात् किय-15
त्या अवाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, गौतम! पञ्चदशोत्सराणि योजनशतान्यबाधया सर्ववाद्यं नक्षत्रमण्डलं प्रजMS, इदं च सूर्य नक्षत्र जात्यपेक्षया बोद्धव्यं, अन्यथा सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थायिनामभिजिदादिद्वादशनक्षत्राणामवस्थितम-13|| ISण्डलकत्वेन सर्वेबाह्यमण्डलस्यैवाभावात् , तेनायमर्थः सम्पन्न:-सर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमण्डलजातीयात् सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल-13
जातीयं इयत्या अवाधया प्रज्ञप्तमिति बोध्यं । अथाभ्यन्तरादिमण्डलस्थायिनामष्टाविंशतेनक्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा-1 |'णक्खत्त' इत्यादि, नक्षत्रमण्डलस्य-नक्षत्रविमानस्य नक्षत्रविमानस्य च भदन्त ! कियत्या अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ।, गौत
मा। योजने नक्षत्रविमानस्य नक्षत्रविमानस्य चाबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, अयमर्थ:-अष्टास्वपि मण्डलेषु यत्र २ मण्डले यावश्रीज, ८-16
emesticercersect
09009968920929
~195
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
ति नक्षत्राणां विमानानि तेषामन्तरबोधकमिदं सूत्र, यथा अभिजिनक्षत्रविमानस्य श्रवणनक्षत्रविमानख च परस्परमम्तरं श्रीजम्बू
को 1 योजने, न तु नक्षत्रसत्कसर्वाभ्यन्तरादिमण्डलानामन्तरसूचक, अन्यथा नक्षत्रमण्डलानां वक्ष्यमाणचन्द्रमण्डलसमव- नक्षत्रमन्तिचन्द्री-18 तारसूत्रेण सह विरोधात् । अथ नक्षत्रविमानानामायामादिप्ररूपणा-'णक्खत्त' इत्यादि, नक्षत्रमण्डलं भदन्त ! किय-18 ण्डलादि या वृत्तिः दायामविष्कम्भाभ्यां कियत् परिक्षेपेण फियद्भाहल्येन-उच्चैस्त्वेन प्रज्ञप्तम्, गौतम! गन्यूतमायामविष्कम्भाभ्यां तत्रि-18 स. १४९ ॥४५॥
|| गुणं सविशेष परिक्षेपेण अर्द्धकोशं बाहल्येन प्रज्ञप्तमिति । सम्प्रत्येषामेव मेरुमधिकृत्याबाधाप्ररूपणा-'जम्बुद्दीवेत्ति 18 जम्बूद्वीपे भदन्त द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डल प्रज्ञप्तम्, गौतम! चतश्चत्वा-18
रिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट च विंशत्यधिकानि योजनशतान्यबाधया सर्वाभ्यन्तरं नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम्, उपपत्तिस्तु 18 सूर्याधिकारे निरूपिता, अथ बाह्यमण्डलाबाधां पृच्छति-'जम्बुद्दीवे'त्ति, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य 8 18|| कियत्या अबाधया सर्वेबाह्य नक्षत्रमण्डलं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! पंचचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि श्रीणि च त्रिंशदधिकानि || 18|| योजनशतान्ययाधया सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल प्रज्ञप्तम् , उपपत्तिस्तु प्राग्वत् । अथ एतेषामेवायामादिनिरूपणम्-'सबम-18 वन्तरेण मित्यादि, प्राग्वत्, अथ सर्वबाह्यमण्डलं पृच्छति-सत्वबाहिरए'इत्यादि, प्राग्बत् , मध्यमेषु षट्सु मंडलेषु तुर
४७५॥ चन्द्रमंडलानुसारेणायामविष्कम्भपरिक्षेपाः परिभाव्याः, अष्टावपि नक्षत्रमंडलानि चन्द्रमंडले समवतरन्तीति भणिष्य18| माणत्वात् । अथ मुहूर्तगतिद्वारम्-'जया प'मित्यादि, यदा भदन्त ! नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरमंडलमुपसङ्गम्य चार चरति
~196~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
तदैकेन महतेन कियत्क्षेत्रं गच्छति ?, नक्षत्रमित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनं, अन्यथाऽभ्यन्तरमंडलगतिचिन्तायां द्वाद-181 18|शानामपि नक्षत्राणां संग्रहाय बहुवचनस्यौचित्यात्, गौतम! पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च पश्चात्यधिके योजनशते ||
अष्टादश च भागसहस्राणि द्वे च विषष्ट्यधिकभागशते गच्छति, मंडलमेकविंशत्या भागसहस्रैर्नवभिक्ष पश्यधिक शतैः | छित्त्वा इति, अनोपपत्ति:-इह नक्षत्रमंडलकाल एकोनषष्टिर्मुहर्ताः एकस्य च मुहर्तस्य सप्तषष्ट्यधिकत्रिशतभागानां! | त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणीति ५९३, अयं च नक्षत्राणां मुहर्तभागो गत्यवसरे भावयिष्यते, इदानीमेतदनुसारेण । | मुहूर्तगतिचिन्त्यते-तत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहर्ताः तेषु उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाता एकोनपष्टिी-1 हर्तानां, ततः सवर्णनाथ त्रिभिः शतैः सप्तपष्याऽधिकैः गुणयित्वा उपरितनानि त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते । जातान्येकविंशतिसहस्राणि नव शतानि पश्यधिकानि २१९६०, अयं च प्रतिमंडल परिधेः छेदकराशिः, तत्र सर्वाभ्य-॥ न्तरमंडलपरिधिः ३१५०८९, अयं च योजनात्मको राशि गात्मकेन राशिना भजनार्थ त्रिभिः सप्तपष्ट-वधिकैः शतैः ३६७ गुण्यते, जातं ११५६३७६६३, अस्य राशेरेकविंशत्या सहौः नवभिः शतैः पष्टयधिकैर्भागे हुते लब्धानि १२६५ शेष ११३६३ भागाः, एतावती सर्वाभ्यन्तरमंडलेऽभिजिदादीनां बादशनक्षत्राणां मुहूर्सगतिः । अथ 3 बाह्ये नक्षत्रमंडले मुहूर्तगतिं पृच्छति-'जया ण'मित्यादि, बदा भदन्त ! नक्षत्रं सर्वबाह्यं मण्डलं उपसङ्खम्ब चार चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति?, अत्राप्येकवचनं प्राग्वत्, गौतम! पन योजनसहस्राणि त्रीणि 3
Soccesea
~197
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
म.१४९
[१४९]
श्रीजन- चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशतानि पोडश च भागसहस्राणि त्रीणि च पञ्चषष्टयधिकानि भागशतानि गच्छति मण्ड- वक्षस्कारे द्वीपशा- लमेकविंशत्या भागसहस्रनेवभिश्च षष्टयधिकैः शतैः छित्त्वा इति, अत्रोपपत्ति:-अत्र मण्डले परिधिः ३१८३१५, अयं नक्षत्रमन्तिचन्द्री-18 त्रिभिः सप्तषष्टयधिकैः शतैः ३६७ गुण्यते जातं ११६८२१६०५, अस्य राशेरेकविंशत्या सहस्रनवभिः शतैः षष्टयधिकैः ।।
ण्डलादि या वृत्तिः |भागे लब्धानि ५३१९ योजनानि शेष १३६४ भागाः, एतावती सर्वबाह्ये नक्षत्रमण्डले मृगशीर्षप्रभृतीनामष्टानां नक्ष॥४७६॥
बाणां मुहूर्त्तगतिः, उक्ता तावत् सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलवर्तिनां नक्षत्राणां मुहर्तगतिः, अथ नक्षत्रतारकाणामवस्थितमण्डलकत्वेन प्रतिनियतगतिकत्वेन चावशिष्टेषु षट्सु मण्डलेषु मुहूर्त्तगतिपरिज्ञानं दुष्करमिति तत्कारणभूतं मण्ड| लपरिज्ञानं कर्तुं नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमण्डलेषु समवतारप्रश्नमाह-'एते ण'मित्यादि, एतानि भदन्त! अष्टौ नक्षत्र-3 मण्डलानि कतिषु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति-अन्तर्भवन्ति, चन्द्र नक्षत्राणां साधारणमण्डलानि कानीत्यर्थः, भगवा-18 नाह-गौतमाष्टासु चन्द्रमण्डलेषु समवतरन्ति, तद्यथा-प्रथमे चन्द्रमण्डले प्रथम नक्षत्रमण्डलं, चारक्षेत्रसञ्चारिणा
मनवस्थितचारिणां च सर्वेषां ज्योतिष्काणां जम्बूद्वीपेऽशीत्यधिकयोजनशतमवगायैव मण्डलप्रवर्त्तनात्, तृतीये चन्द्रमभण्डले द्वितीय, एते च दे जम्बूदीपे, षष्ठे लवणे भाविनि चन्द्रमण्डले तृतीय, तत्रैव भाविनि सप्तमे चतुर्थं अष्टमे पञ्चमै || m७६॥
दशमे पाठ एकादशे सप्तमं पश्चदशेऽष्टम शेषाणि तु द्वितीयादीनि सप्त चन्द्रमण्डलानि नक्षत्रैविरहितानि, तत्र प्रथमे । शचन्द्रमण्डले द्वादश नक्षत्राणि, तद्यथा-अभिजिच्छ्रवणो धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी -
80808
दीप अनुक्रम [२७६]
SECORE
RC
Jaitarina
~198~
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
----- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी स्वातिश्च, द्वितीये पुनर्वसु मघा च, तृतीये कृत्तिका, चतुर्थे रोहिणी चित्रा च, पञ्चमे विशाखा षष्ठे अनुराधा सप्तमे ज्येष्ठा अष्टमे मृगशिरः आर्द्रा पुष्यः अश्लेषा मूलो हस्तश्च, पूर्वाषाढोतरापाढयोढ़े द्वे तारे अभ्यन्तरतो देदे बाह्यत इति, एवं स्वस्वमण्डलावतारसत्कचन्द्रमण्डलपरिध्यनुसारेण प्रागुक्तरीत्या | द्वितीयादीनामपि नक्षत्रमण्डलानां मुहूर्त्तगतिः परिभावनीया, उक्ता प्रतिमण्डलं चन्द्रादीनां योजनात्मिका मुहूर्तगतिः, अथ तेषामेव प्रतिमण्डलं भागात्मिका मुहूर्तगतिं प्रश्नयति-'एगमेगे ण'मित्यादि, एकैकेन भगवन् ! मुहूर्तेन चन्द्रः कियन्ति भागशतानि गच्छति', गौतम! यद्यन्मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परि-1 क्षेपस्य सप्तदश शतान्यष्टषष्टिभागैरधिकानि गच्छति, मण्डलपरिक्षेपमेकेन लक्षेणाष्टनवत्या च शतैः छित्त्वा-विभज्य, इयमत्र भावना-इह प्रथमतश्चन्द्रस्य मंडलकालो निरूपणीयस्तदनन्तरं तदनुसारेण मुहूर्तगतिपरिमाणं भावनीयं, तत्र। | मंडलकालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिक-यदि सप्तदशभिः शतैरष्टपथ्यधिकैः सकलयुगवर्तिभिरर्द्धमंडलैश्चन्द्रद्वयापेक्षया तु || पूर्णमंडलैरष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमंडलाभ्यामेकेन मण्डलेनेति भावः कति रात्रिन्दिवानि लभ्यन्ते', राशित्रयस्थापना-१७६८। १८३० । २। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशे॥ गुणनं जातानि पशिषछतानि पट्यधिकानि ३६६० तेषामादिराशिना भागहरणं लन्धे । रात्रिन्दिवे शेष तिष्ठति चतुर्विशत्यधिकं शतं १२४ तत्रैकस्मिन् रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ता इति तस्य त्रिंशता गुणने जातानि सप्तत्रिंशच्छ
JEinmartihel
~199~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
श्रीज- तानि विशवधिकानि ३७२० तेषां सप्तदशभिः शतैः अष्टपश्यधिकैर्भागे हते लग्धौ द्वौ मुहूतौं, ततः छेद्यच्छेदकरा- अक्षस्कारे
द्वीपशा-1 श्योरष्टकेनापवर्त्तना जातः छेद्यो राशिस्त्रयोविंशतिः छेदकराशिद्धे शते एकविंशत्यधिके आगतं मुहूर्तस्यैकविंशत्यधि- न्तिचन्द्री
नक्षत्रमया इचिः
कशतद्वयभागाखयोविंशतिः २१, एतावता कालेन द्वे अर्जे मंडले परिपूर्णे चरति, किमुक्तं भवति?-एतावता || ण्डलादि
कालेन परिपूर्णमेक मंडलं चन्द्रश्चरति । तदेवं चन्द्रमण्डलकालप्ररूपणा, अथैतदनुसारेण मुहूर्तगतिः, तत्र ये द्वे रात्रि- स. ॥४७७॥ |न्दिवे ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिर्मुहूर्ताः ६० उपरितनयोईयोः क्षेपे जाता द्वापष्टिः, एषा
सवर्णनार्थ द्वाभ्यां शताभ्यामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा चोपरितनांशत्रयोविंशतिः प्रक्षिप्यते, जातानि 1 त्रयोदश सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति, एतदेकमण्डलकालगतमुहूर्तसत्कैकविंशत्यधिकशतद्वयभागानो
परिमाणं, ततखैराशिककरणं, यदि त्रयोदशमिः सह। सप्तभिः शतैः पञ्चविंशत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशतद्वयभागानां मंडलभागा एक शतसहस्रमष्टानयतिशतानि लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे !, राशित्रयस्थापना १३७२५ । १०९८०. इहाथो राशिमुहर्तगतकविंशत्यधिकशतद्वयभागस्वरूपसतः सवर्णनार्थमन्स्यो राशिरेकलक्षणो द्वाभ्यां 18 शताभ्यामेकविंशत्यधिकाम्यां गुण्यसे, जाते वे शते एकविंशत्यधिके २२१, ताभ्यां मध्यो राशिगुण्यते, जाते हे कोव्यौ । विचत्वारिंशलक्षाः पञ्चपष्टिः सहस्राण्यष्टौ शतानि २४३६५८००, तेषां त्रयोदशभिः सहलीः सप्तमिः शतैः पञ्चविंश-18 स्वपिकांगो नियते, लब्धानि सहदश शतान्यधपधिकानि १७१८, एतावतो भानान् यत्र तत्र का मण्डले चन्द्रो
॥४७७॥
~200
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
॥ मुहूसेन गछति, अयमय:-इलाष्टाविंशत्या नक्षत्रै स्वगत्या स्वस्वकालपरिमाणेम क्रमको यावत् क्षेत्र बुच्या व्याप्यमान |
सम्भाव्यते तावदेकमर्द्धमाडलमुपकरप्यते, एतावत्प्रमाणमेव द्वितीयमद्धमण्डल द्वितीयाष्टाविंशतिनक्षत्रसत्कतत्तद्राAR| गजमित मिस्येवंप्रमाणबुद्धिपरिकल्पितमेकमण्डल श्छेदो ज्ञातव्यः एक खझ परिपूर्णानि चाष्टानवतिशतानि, कथमेतस्योत्प-18
त्तिरिति चेत्, उच्यते, इह त्रिविधानि नक्षत्राणि, तपथा-समक्षेत्राण्यर्द्धक्षेत्राणि वर्धक्षेत्राणि च, इह यावत्प्रमाणे क्षेत्रम-18 | होरात्रेण गम्यते सूर्येण तावत्प्रमाणे पन्द्रेण सह योग यानि नक्षत्राणि गच्छन्ति तानि समक्षेत्राणि, सम-अहोरात्र-18 प्रमित क्षेत्र येषां तानि समक्षेत्राणीति व्युत्पत्ती, तानि च पञ्चदश, तद्यथा--प्रवणं धमिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्वि-18 नी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मया पूर्वाफाल्गुनी हस्त: चित्रा अनुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति, तथा यानि अर्द्धमहोरात्र-18 प्रमित्तस्य क्षेत्रस्य चन्द्रेण सहयोगमश्चक्ते तान्यर्द्धक्षेत्राणि, अर्ध-अर्द्धप्रमाण क्षेत्रं येषां ताम्यर्द्धक्षेत्राणीति व्युत्पत्तिभावात्, तानि च षट्, तद्यथा-शतभिषक भरणी आद्रो अश्लेषा स्वातिज्येष्ठेति, तथा द्वितीयमई यत्र तत् घई सार्द्ध मित्यर्थः,
बई-ग.नाधिक क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोग्य येषां तानि ब्यक्षेत्राणि, ताम्यपि षट्, तद्यथा-उत्तरभद्रपदोत्तर18 फल्गुनी उत्तराषाढा रोहिणी पुनर्वसु विशाखा चेति, तत्रेह सीमापरिमाणचिन्तायामहोरात्रः सप्तपष्टिभागीकृतः परिक18| रुप्यते इति समक्षेत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते, अर्द्धक्षेत्राणां त्रयसिंकदर्डबर्द्धक्षेत्राणां शतमेकमाई।
च, अभिजिन्नक्षत्रस्वैकविंशतिः सवपष्टिभागाः, समक्षेत्राणि नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तपष्टिः पञ्चदशभिर्गुणयतेआतं
Descacauseszaesesedcacaesesear
~ 2014
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
भीजम्बू- सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अर्द्धक्षेत्राणि षडिति सा स्त्रयस्त्रिंशत् पडूभिर्गुण्यते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, बार्द्धक्षे- वक्षस्कारे द्वीपशा-18 त्राण्यपि पटू ततः शतमेकमर्द्ध च पडिर्गुणितं जातानि षट् शतानि ध्युत्तराणि ६०३, अभिजिन्नक्षवैकविंशतिः, सर्वसं-18
नक्षत्रमन्तिचन्द्री
ण्डलादि या वृचिः Kषया जाताग्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावद्भागपरिमाणमेकमर्द्धमंडलमेतावदेव द्वितीयमपीति
म.१४९ | त्रिंशदधिकाम्यष्टादश शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पत्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि ३६६०, एकैकस्मिन्नहोराने किल ॥४७८ त्रिंशन्मुहूर्ता इति प्रत्येकमेतेषु षष्ट-वधिकषट्त्रिंशच्छतसङ्ख्येषु भागेषु त्रिंशदूभागकल्पनायां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेक
|| शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि १०९८००, तदेवं मंडलच्छेदपरिमाणमभिहितं, ननु यानि नक्षत्राणि यन्मण्डलस्था-18 यीनि तेषां तन्मंडलेषु चन्द्रादियोगयोग्यमंडलभागस्थापनं युक्तिमत् न तु सर्वेष्वपि मंडलेषु सर्वेषां भागकल्पनमिति
चेत , उच्यते, नहि नक्षत्राणां चन्द्रादिभियोगो नियते दिने नियते देशे नियतवेलायामेव भवति किन्स्यनियतदिनादौ । || तेन तत्तन्मंडलेषु तत्तन्नक्षत्रसम्बन्धिसीमाविष्कम्भे चन्द्रादिप्राप्तौ सत्यां योगः सम्पद्यत इति, मंडलच्छेदश्च सीमावि-18|
कम्भादौ सप्तयोजनः, अथ सूर्यस्य भागात्मिकां गतिं प्रश्नयन्नाह-एगमेगे णं भन्ते !'इत्यादि, एकैकेन भगवन् ! 8 मुहूर्तेन सूर्यः कियन्ति भागशतानि गच्छति?, गौतम! यद्यन्मण्डलमुपसङ्कम्य चारं चरति तस्य तस्य मंडलसम्बन्धिनः४७el
परिक्षेपस्याष्टादश भागशतानि विशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रणाष्टानवत्या च शतैः छिया, कथमेतदव-18 ॥सीयत इति चेत्, उच्यते, राशिककरणात्, तथाहि-पष्टया मुहूतैरेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मंडलभागाना|S
Secenea
~202
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Rememener
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
लभ्यन्ते ततः एकेन महउँन कति भागान लभामहे, राशित्रयस्थापना-६० । १०९८००।१ अत्रान्त्येन राशिना18 एककलक्षणेन मध्यस्य राशेर्गुणनं, जातः स तावानेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात्, ततस्तस्यायेन राशिना पष्टिलक्षणेन भागो हियते, लब्धान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३०, एतावतो भागान् मण्डलस्य सूर्य एकै| केन मुहूर्तेन गच्छति, अथ नक्षत्राणां भागात्मिकां गतिं प्रश्नयन्नाह-एगमेगे णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगर्म, उत्तरसूत्रे तु गौतम! यद्यदात्मीयमात्मीयं प्रतिनियतं मण्डलमुपसङ्गम्य चारं चरति तस्य तस्यात्मीयस्य मण्डलस्य सम्बन्धिनः परिक्षेपस्य-परिधेरष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि गच्छति, मण्डलं शतसहस्रेणाष्टनवत्या च शतैः छित्त्वा, || इहापि प्रथमतो मण्डलकालो निरूपणीयस्ततस्तदनुसारेणैव मुहूर्तगतिपरिमाणभावना, तत्र मण्डलकालप्रमाणचिन्तायां | 18 इदं त्रैराशिक-यद्यष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिकैः सकलयुगवर्तिभिरर्धमण्डलैर्वितीयाष्टाविंशतिनक्षत्रापेक्षया तु पूर्ण
मण्डलैरित्यर्थः अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानां लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यामर्द्धमण्डलाभ्यामेकेन परिपूर्णेन 18 मण्डलेनेति भावः किं उभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१८३५। १८३०१२ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि |
पत्रिंशच्छतानि पश्यधिकानि १६६०, तत आयेन राशिना १८३५ लक्षणेन भागहरणं लब्धमेकं रात्रिन्दिवं १,18 शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि १८२५, ततो मुहू नयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि | चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चाशदधिकानि ५४७५०, तेषामष्टादशभिः शतैः पञ्चत्रिंशदधिर्भागे हते लब्धा 8
~203
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
भीज-पाएकोनविशन्मा२९, तत शेषलेवच्छेदकराश्योः पचनापकतना जास परितनों राशिस्त्रीणि शतानि सप्तोत्त- व्यवस्कारे न्तिचन्द्री
राणि ३०७ छेदकराशिस्त्रीणि शतानि सतपट्यधिकानि ३६७, सत आगतमेकं रात्रिन्दिक्मेकस्य च रात्रिन्दिवस्यै- नक्षत्रमMEIN कोनत्रिंशन्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्त्तव सप्तपश्यपिकत्रिशतभागानां त्रीणि शतानि सशोत्तराणि १२९ ३६४ । इदानी-1 |ण्डलादि 18||मेतदनुसारेण मुहूसंगतिपरिमाणं चिन्त्यते, तत्र रात्रिन्दिवे त्रिंशन्मुहूर्ताः ३० तेषु उपरितमा एकोनविंशम्मुहुर्ताः।
सू.१४९ ॥४७॥ प्रक्षिप्यम्ते जाता एकोनषष्टिर्मुहूर्तानां ततः सा सवर्णनार्थ त्रिभिः शतैः षष्टश्वविकैगुण्यते, गुणवित्वा चोपरितनानि त्रीणि
शतानि सप्तोसराणि प्रक्षिप्यन्ते जातान्येकविंशतिः सहस्राणि नव शतानि षष्ट-वधिकानि २१९१०. ततखैराशिक-15 यदि मुहूर्त्तगतसप्तषष्ट-वधिकत्रिशतभागानामेकविंशत्या सहः नवभिः शतैः षष्टयधिकैरेके शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि ।। मण्डलभागानां लभ्यन्ते तत एकेन मुहूर्तेन किं लभामहे १, राशित्रयस्थापना-२१९६० । १०९८००।१ अनायो ।
राशिर्मुहर्तगतसप्तपष्टवधिकत्रिशतभागसपस्ततोऽन्त्योऽपि राशिस्विभिः शतः सप्तपष्ट वधिकैर्गुण्यते जातानि त्रीण्येच 31 18| शतानि सप्तपष्ट यधिकानि ३६७ तैर्मध्यो राशि ण्यते जाताश्चतन्त्रः कोटयो द्वे लक्षे षण्णवतिः सहस्राणि षट् शतानि 13
४०२५६१००, तेषामान राशिना एकविंशतिसहवाणि नव शतानि पटवविकानिइत्येवंरूपेण भागो हियते, लब्धा-IS४७९॥ न्यष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि १८३५, एतावती भागाला प्रतिमुहर्त गच्छति, इदं च भागात्मक गति| विचारणं चन्द्रादित्रयस्य क्योत्तर गतिशीलत्वे समयोजन, तथाहि-सभ्यो नक्षत्राणि शीमगतीनि, मण्डलयोक्तभागी-RI
~204
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [२७६]
कृतस्य पञ्चत्रिंशवधिकाटादशशतभागानामेकैकलिन कुर्ते आक्रमणात् , तेभ्यो मन्दगतयः सूर्याः, एकैकलिन् मुह त्रिंशदधिकाष्टादशभागानामाकमणात्, तेभ्यश्च मन्दनतयः एकैकलिन मुहूर्ते अष्टपटवधिकसप्तशतभागानामा-18 क्रमणात्, ग्रहास्तु वक्रानुवकादिगतिभाक्तोऽनियतातिकास्तेन न तेषां मण्डलादिचिन्ता नापि गतिमरुपणा, तार-IMS काणामध्यवस्थितमण्डलकत्वाचन्द्रादिभिः सह योगाभावचिन्तनाचन मण्डलादिप्ररूपणा कृता । सम्पति सूर्यखोदू-18॥ || गमनास्लमयने अधिकृत्य बहवो मिथ्याभिनिविष्टबुद्धयो विप्रतिपक्षास्तेन तद्विप्रतिपत्तिमपाकर्तुं प्रश्नमाह
जम्बुद्दीवेणं भंते! दीवे सूरिआ उदीणपाईणमुम्गच्छ पाईणदाहिणमाग/ति १ पाइणदाहिणमुरगाछ दाहिणपडीणमागच्छति २ दाहिणपडीणमुगच्छ पढीणउदीणमागच्छति ३ पडीणजदीणमुग्गच्छ उदीणपाइणमागच्छंति ४१, हंता गोभमा! जहा पंचमसए पढमे उसे जाव पथि उस्सप्पिणी अवदिए ण तत्थ काले पं० समणापसो!, इसा जन्चुरीवपण्णती सूरपण्णती वत्थुसमासेणं सम्पत्ता भवइ ।। जम्बुरीपे गं भंते! दीवे चंदिमा उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छति जहा सूरवत्सम्वया जहा पंचमसयस दसमे उद्देसे जाव अपट्ठिए ण तत्य काले पण्णते समणाउसो !, इसा जम्बुहरीवपण्णत्ती वत्थुसमासेणं सम्मत्ता भवइ । (सूर्व १५०)
'जम्बुद्दीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त । द्वीपे द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् , उदीचीनप्राचीनं उदगेय | 8 उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वादुदीचीनप्राचीन, अत्र स्वार्थे इन् प्रत्ययः,
~205
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
श्रीजम्बू-1|| दिगन्तरं क्षेत्रदिगपक्षयोत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे इत्यर्थः, अत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, उद्गत्य-पूर्व विदेहापेक्ष- वक्षस्कारे द्वीपशा- योदयं प्राप्य प्राचीनदक्षिणे दिगन्तरे प्रागदक्षिणस्यामाग्नेयकोणे इत्यर्थः आगच्छतः क्रमेणैवास्तं यात इत्यर्थः, इह चोद्- यादरा न्तिचन्द्री
शान्यादागमनमस्तमयनं च द्रष्ट्रलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि-येषामदृश्यो सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां, ते तयोरुदयं व्यवहरन्ति, INTERE या वृत्तिः
येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ तौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्तीत्यनियतावुदयास्तमयाविति, अत्र काकुपाठात् प्रश्नोऽव- सू. १५० ॥४८॥ गन्तव्यः, ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्रागदक्षिणस्यामुद्गत्य दक्षिणप्रतीच्यामागच्छतस्तत्रापि दक्षिणप्रतीच्यामपर विदेहापे
क्षयोद्गत्य प्रतीचीनोदीचीने-वायव्यकोणे आगच्छतस्तत्रापि च वायव्यामरावतादिक्षेत्रापेक्षयोनत्योदीचीनप्रतीचीने-18 ईशानकोणे आगच्छतः, एवं सामान्यतः सूर्ययोरुदयविधिः, विशेषतः पुनरेवं-यदैकः सूर्यः आग्नेयकोणे उद्गच्छति | तन्त्रोद्गतश्च भरतादीनि मेरुदक्षिणदिग्वत्तीनि क्षेत्राणि प्रकाशयति तदा परोऽपि वायव्यकोणे उद्गतो मेरूत्तरदिग्भावी-18/ न्यैरावतादीनि क्षेत्राणि प्रकाशयति, भारतश्च सूर्यो मण्डलधाम्या भ्रमन् नैतकोणे उद्गतः सन्नपरमहाविदेहान् प्रकाशयति, ऐरावतस्तु ऐशान्यामुद्गतः पूर्व विदेहान् प्रकाशयति, ततः एष पूर्वविदेहप्रकाशको दक्षिणपूर्वस्यां भरता| दिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अपरविदेहप्रकाशकस्त्वपरोत्तरस्यामैरवतादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति, अत्रैशाम्यादिदि-18॥४८॥ व्यवहारो मेरुतो बोध्यः, अन्यथा भरतादिजनानां स्वस्वसूर्योदयदिशि पूर्वदिक्वे आग्नेयादिकोणव्यवहारानुपपत्तेरिति, एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-हन्तेत्यव्ययमभ्युपगमार्थे तेन हे गौतम! इत्यमेव यथा त्वं प्रश्नयसि तथैवेत्यर्थः, अनेन
~206~
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
e28000
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम
च सूर्यस्य तिर्यदिक्षु गतिरुक्ता, न तु 'तत्थ रवी दसजोअण'इत्यादिगाथोक्तस्वस्थानादूचं नाप्यधः, तेन ये मन्यन्ते । 'सूर्यः पश्चिमसमुद्र प्रविश्य पातालेन गत्वा पुनः पूर्वेसमुद्रे उदेती'त्यादि, तम्मतं निषिद्धमिति । अथ सूत्रकृद् ग्रन्थगौरवभयादतिदेशवाक्यमाह-यथा पञ्चमशते प्रथमे उद्देशके तथा भणितव्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-यावत् णेवत्थि | उस्सप्पिणी नेवऽस्थि ओसप्पिणी अवढिए णं तत्थ काले पण्णत्ते' इति सूत्र, तद्यथा-'जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे | दाहिणद्धे दिवसे भवइ तया णं उत्तरद्धेवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरद्धे दिवसे भवइ तया णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स। पवयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं राई भवइ, हंता गोअमा! जया णं जम्युद्दीषे दीवे दाहिणद्धे दिवसे जाय राई भवइ.15 जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयस्स पुरथिमेणं दिवसे भवइ तया णं पञ्चस्थिमेणवि दिवसे भवइ, जया णं पञ्चत्थिमे णं दिवसे भवइ तथा णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवइ, हन्ता! गोअमा! जया णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पचयस्स पुरथिमेणं दिवसे जाव राई भवइ, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे । दीवे दाहिणद्धे उकोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरद्धेवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं उत्तरढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पुरथिमपञ्चत्थिमेणं जहणिया ||६| दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, हन्ता गोअमा! जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे जाव दुवालसमुहुत्ता राई भवद । जया ण भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स पुरस्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जाव तया णं जम्बुद्दीवे ||
[२७७]]
भीजम्मू.
~207~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
श्रीजम्ब-18/२ दाहिणणं जाव राई भवइ, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं वनस्कार
द्वीपशा- उत्त० अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ जया णं उत्तरद्धे अट्ठार. भवइ तया णं जम्बुद्दीवे २ मंदर० पुरथिमेणं 8 सूर्यादेरीन्तिचन्द्री-18 सातिरेगा दुवालसमुहत्ता राई भवइ, हता! गोअमा! जया णं जम्बुद्दीवे २ जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्ब- शान्यादाया पानाहीवे २ मंदरस्त पुरथिमेणं अहारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं पच्चस्थि०, जया णं पञ्चत्थिमेणं तया णं | बुद्गमादिः १८ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स० उत्तरदाहिणेणं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं एतेणं कमेणं ऊसारेअर्व, सत्तरस-1
Kा मुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगतेरसमुहुत्ता राई सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहुत्ता
राई सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा चोद्दसमुहुत्ता राई पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुप्ता राई पण्णरसमु
हुत्ताणतरे दिवसे साइरेगपण्णरसमुहुत्ता राई चोद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरे18 गसोलसमुहत्ता राई भवइ तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगसत्तरसमुहुत्ता राई, ॥जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्सरद्धेवि, जया णं उत्तरद्धे 18 तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरथिमपञ्चत्थिमेणं उक्कोसिआ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ?, हता! गोअमा! एवं 18 चेव उच्चारअर्व जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्बुद्दीवे २ मंदरपुरस्थिमेणं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ
॥४८॥ तया णं पचत्थिमेणवि. जया णं पञ्चस्थिमेणवि० तया पं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिआ अहा-181
~208~
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
18 रसमुहुत्ता राई भवइ ?, हंता गोअमा! जाव राई भवइ, जया णं भंते ! जम्बुद्दीये २ दाहिणद्धे वासाणं पढमे समए ।
पडिवजा तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया णं उत्तरद्धे वासाणं पढमे समए पडिवज्जई 18 तया णं जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स पुरथिमपञ्चस्थिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयसि वासाणं पढमे समए पडिवजह?, 18ता गोअमा! जया णं भंते ! जम्बुद्दीवे २ दाहिणजे वासाणं पढमे समए पडिवजाइ तहेब जाव पडिवज्जइ, जया 18 भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तथा ण पञ्चत्थिमेणऽवि वासाणं 18
पढमे समए, जया णं पञ्चत्थिमेणं वासाणं पढमे समए तया णं जाव मंदरस्स पबयस्स उत्तरदाहिणणं अणंतरपच्छाकडसमयसि वासाणं पढ़मे समए पडिवण्णे भवइ, हंता! गोअमा! जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरत्थि| मेणं एवं चेव सर्व उच्चारेअब जाव पडिवण्णे भवइ, एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं तहा आवलि
आएवि भणिअपो, आणापाणूवि थोवेणवि लवेणवि मुहुत्तेणवि अहोरत्तेणवि पक्खेणवि मासेणवि उऊणवि, एएसिं सधेसिं जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणिवो, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीचे २ हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, जहेच वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताणवि गिम्हाणवि भाणिअबो, जाव उत्तर०, एवं एए तिण्णिवि, एतेसि तीसं। आलावगा भाणिवा, जया णं भंते! जम्बुद्दीवे २ मंदरस्स दाहिणद्धे पढमे अयणे पडिवज्जा तया णं उत्तरद्धे वि पढमे अयणे पडिवजइ जहा समएणं अभिलायो तहेच अयणेणवि भाणिअबो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे
Soteesesese
दीप अनुक्रम [२७७]
Geeo
Dese
~209
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
श्रीजम्बूH8 अयणे पडिवण्णे भवइ, जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेणवि भाणिअबो जुएणवि वाससएणवि वाससह-18
सातवक्षस्कार द्वीपशा-8 स्सेणवि वाससयसहस्सेणवि पुवंगेणवि पुणवि तुडिअंगेणवि तुडिएणवि, एवं पुवे २ तुडिए २ अडडे २ अववे 28 सूर्यादेरीन्तिचन्द्री- हहए २ उप्पले २ पउमे २ णलिणे २ अत्थणि उरे २ अउए २णउए अ२ पउए अ२ चूलिए अ२ सीसपहेलिए अ || शान्यादाया वृचिः पलिओवमेणवि सागरोवमेणवि भाणिअबो, जया णं भन्ते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणब्रे पढमा ओसप्पिणी पडिवजह ॥४८२॥ । तया णं उत्तरद्धेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ, जया णं उत्तरद्धे पढमा तया णं जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुर-18
म.१५० धिमपञ्चधिमेणं-वधि ओसप्पिणी णेवत्थि उस्सप्पिणी अवहिए तत्व काले पण्णते समणाउसो!, हंता गोअमा! तं चेव उच्चारेअब जाव समणाउसो!, जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्सप्पिणीएवि भाणिअयो'त्ति || अत्र व्याख्या-अथोक्तक्षेत्रविभागानुसारेण दिवसरात्रिविभागमाह-यदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मेरुतो दक्षिणाढ़ेंदक्षिणभागे दिवसो भवति तदोत्तराद्धेऽपि दिवसो भवति, एकस्य सूर्यस्यैकदिशि मण्डल चारेऽपरस्य सूर्यस्य तत्सम्मुखीनायामेवापरस्यां दिशि मण्डलचारसम्भवात् , इह यद्यपि यथा दक्षिणाढ़े तथोत्तरार्द्ध इत्युकं तथापि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोध्यं, अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् , यतो यदि दक्षिणाः उत्तरार्द्धं च समग्र एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत?, अर्द्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात् , इतश्च दक्षिणा दिशब्देन ॥४८॥ दक्षिणादिभागमात्रमवसेयं, नत्वर्द्ध, तदा च जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च रात्रिर्भवति, तत्रैक
~210~
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------------
----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
| स्यापि सूर्यस्याभावात् , इत्येवं काक्का प्रश्ने कृते भगवानाह-'हता! गोअमेत्यादि, यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणा | SI दिवसो यावद्रात्रिर्भवतीत्यन्तं प्रत्युच्चारणीयं । क्षेत्रपरावृत्त्या दिवसरात्रिविभागं पृच्छन्नाह-यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे 8 द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वेण दिवसो भवति तदा पश्चिमायामपि दिवसो भवति, प्रागुक्तयुक्तरेव, यदा च पश्चिमायां दिवसस्तदा मेरोदक्षिणोत्तरयो रात्रिः, प्रश्नसूत्रं चैतत् , 'हंता! गोअमे' त्यादि उत्तरसूत्रं तथैव, उक्तः सामान्यतो दिव-18
सरात्रिविभागः, सम्प्रति तमेव विशेषत आह-यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्दै उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो | SI । भवतीत्यादिक सूत्रं प्रायो निगदसिद्धं, तथापि किञ्चिदेतद्वृत्त्यादिगतं लिख्यते-इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिक मण्ड
लशतं भवति, तन किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डलानि भवन्ति, एकोनविंशत्यधिक च शतं तेषां लवणसमुद्रमध्ये भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा सूर्यो भवति तदाऽष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति, यदा सर्ववाद्ये मण्डले सूर्यो भवति तदा सर्वजघन्यो द्वादशमुहत्तों दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहसंकषष्टि-18 भागाभ्यां दिनस्य वृद्धौ ध्यशीत्यधिकशततममण्डले षट् मुहर्ता वर्धन्त इत्येवमष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति, अत एव । द्वादशमुहूर्सा रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्य, 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे'त्ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले 181
सूर्यो भवति तदा मुहूर्तकपष्टिभागद्वयहीनोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहत्तोदिवसादनम्तरोऽष्टादश-181 8 मुहूर्तानन्तर इति व्यपदिष्टः, 'सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राईत्ति तदा द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमु-18
दीप अनुक्रम [२७७]
BASE
J
Ecmaar.in
~211
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्प
द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया चिः ४८३॥
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
हुर्ता रात्रिर्भवति, यावता भागेन दिनं हीयते तावता रात्रिर्वद्धते, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्येति, एवं एएणं कमेण ति वक्षस्कारे
एवमित्युपसंहारे एतेनानन्तरोक्तेनोपायेन 'जया णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे' इत्येतेनेत्यर्थः, 'ऊसारेअवंति सूर्यादेरी| दिनमानं इस्वीकार्य, तदेव दर्शयति-'सत्तरसे त्यादि, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलादारभ्यैकत्रिंशत्तममण्डला ||
शान्यादा| यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूत्तों दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहर्ता च रात्रिरिति, 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे'त्ति
We बुद्गमादिः मुहूत्कषष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहर्सप्रमाणो दिवसोऽयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलाडें भवति, एवमनन्तर-18 त्वमन्यत्राप्यूह्यं, 'सातिरेगतेरसमुहुत्ता राइ'त्ति मुहूर्त्तकपष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वं, एवं सर्वत्र, 'सोलसमुहुत्ते दिवसे'त्ति, द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले पोडशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे'त्ति द्विनवतितममण्डलार्दै वर्त-18 |माने सूर्ये योदसमुहत्ते दिवसे ति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले 'तेरसमुहुने दिवसे'त्ति सार्द्धद्विपश्चाशदुत्तरशततमे मण्डले 'बारसमुहुत्ते दिवसे'त्ति त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्ये इत्यर्थः ! कालाधिकारादिदमाह-'जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे २ दाहिणद्धे वासाण'मित्यादि, 'वासाण'मिति चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य सम्बन्धी प्रथम:-आद्यः समयःक्षणः प्रतिपद्यते, सम्पद्यते भवतीत्यर्थः, तदोत्तरार्द्धऽपि वर्षाणां प्रथमः समयो भवति, समकालनैयत्येन दक्षिणाः | ॥४८३॥ उत्तरार्द्धं च सूर्ययोश्चारभावात् , यदा चोत्तरार्द्ध वर्षाकालस्य प्रथमः समयः तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य | पूर्वापरयोर्दिशोरनन्तरपुरस्कृते समये अनन्तरो-निर्व्यवधानो दक्षिणावर्षाप्रथमतापेक्षया स चातीतोऽपि स्थादत
~212~
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
---------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
आह-पुरस्कृतः-पुरोवर्ती भविष्यन्नित्यर्थः समयः प्रतीतः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तत्र, तथा अनन्तरं पश्चातकृते समये पूर्वोपरविदेवांप्रथमसमयापेक्षया योऽनन्तरः पश्चात्कृत:-अतीतः समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वाकालप्रथमसमयो भवतीति, इह यस्मिन् समये दक्षिणाढ़ें उत्तरार्द्धं च वर्षाकालस्य प्रथमः समयः तदनन्तरे अग्रेतने द्वितीये ॥ समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमः समयो भवतीत्येतावन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोः वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चानाविनि समये दक्षिणोत्तरार्द्धयोः वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तत्किमर्थमस्योपादानं ?, उच्यते, इह कमोरक्रमाभ्यां अभिहितोऽर्थः प्रपञ्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्ते-18 षामनुग्रहायैतदुक्तमित्यदोषः। 'एवं जहा समएण'मित्यादि, एवं यथा समयेन वर्षाणामभिलापो भणितस्तथा आव|लिकाया अपि भणितव्यः, स चैवं-'जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवज्जइ तया णं उत्तरद्धेवि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, जया णं उत्तरद्धे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ तया, णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पवयस्स पुरथिमपञ्चधिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, तया णं जम्बुद्दीये दीवे मन्दरस्स पथयस्स पुरत्धिमपञ्चस्थिमेणं अणंतरपुरेक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडियजइ ?, हंता गोअमा! जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवजइ तहेब जाव पडिवज्जइ, जया णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पबयस्स पुरथिमेण वासाणं पढमा आवलिआ पडि
Crocercener
~2134
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
----- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा- न्तिचन्द्री या वृत्तिः
सूत्रांक
[१५०]
1४८४॥
वजइ, जया णं पञ्चस्थिमेणं पढमा आवलिआ पडिवजइ, तया णं जम्बुद्दीवे २ मन्दरस्स पषयस्स उत्तरदाहिणणं वक्षस्कारे अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिआ पडिवण्णा भवइ?, हता! गोअमे त्यादि, तदेवोच्चारणीयमित्यर्थः, सूर्यादेरीएवं आनप्राणादिपदेष्वपि, आवलिकाद्यर्थस्तु प्राग्वत्, 'हेमंताणं'ति शीतकालचतुर्मासानां, 'गिम्हाण'ति ग्रीष्माणां शान्यादा || चतुर्मासानां, 'पढमे अयणे'ति दक्षिणायनं श्रावणादित्वात् संवत्सरस्य 'जुएणवि'ति युगं पंचसंवत्सरमानं, अत्र
बुद्गमादिः च युगेन सहेत्यतिदेशकरणात् युगस्यापि दक्षिणोत्तरयोः पूर्वसमये प्रतिपत्तिः प्रागपरयोस्तु तदनन्तरे पुरोवर्तिनि समये प्रतिपत्तिः, ज्योतिष्करण्डे तु-सावणबहुलपडिवए बालवकरणे अभीइणक्खत्ते । सबत्थ पढमसमए जुगस्स || आई विआणाहि ॥१॥" इत्यस्या गाथाया व्याख्याने सर्वत्र भरते ऐरवते महाविदेहेषु च श्रावणमासे बहुलपक्षे-131 कृष्णपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालवकरणे अभिजिन्नक्षत्रे प्रथमसमये युगस्यादि विजानीहीतीदं वाचनान्तरं ज्ञेयं, यतो ज्योतिष्करण्डसूत्रकर्ता आचार्यों वालभ्यः एष भगवत्यादिसूत्रादर्शस्तु माथुरवाचनानुगत इति न किञ्चिदनुचितं, युक्त्या-18 नुकूल्यं तु न युगपत्प्रतिपत्तिसमये सम्भावयामः, तथाहि-सबे कालविसेसा सूरपमाणेण हुंति नायब्वा' इति वच-S
दीप अनुक्रम [२७७]
000000
॥४८॥ १ मारापक्षतिधिकरणादीनां सर्वेषामप्यनन्तरतया भवनाद तत्तत्क्षेत्रविवक्षया समस्परावृत्या मासादीनां भवनं सर्वत्र पोसवेव मासाविषु गुगादिरितिम कोऽपि || वाचनान्तरताहेतुः, चन्द्र कर्मसंवत्सराणां प्रतिवर्ष समादिपर्यवसानते न स्वः किंतु युगाद्यन्तयोरेवेति वचनप्रयोजनं ज्ञायते ॥
॥
~2144
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ------ मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
नाद् यदि सूर्यचारविशेषेण कालविशेषप्रतिपत्तिर्दक्षिणोत्तरयोराद्यसमये प्रागपरयोरुत्तरसमये तर्हि दक्षिणोत्तरप्रतिपत्ति-11 समये पूर्वकालस्यापर्यवसानं वाच्यं, पूर्वापरविदेहापेक्षयाऽस्त्येव तदिति चेत् सूर्ययोश्चीर्णचरणं अपरं वा सूर्यद्वयं वाच्यं, ॥ ययोश्चारविशेषाद्दक्षिणोत्तरप्रतिपत्तिसमयापेक्षयोत्तरसमये पूर्वापरयोः कालविशेषप्रतिपत्तिरित्यादिको भूयान् परवचनावकाश इत्यलं प्रसङ्गेन, 'पुचंगेणवित्ति पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणं "पुवेणवित्ति पूर्व-पूर्वाश्रमेव चतुरशीति
वर्षलक्षगुणित, एवं चतुरशीतिवर्षलक्षगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति, चतुर्णवत्यधिक चाङ्कशतमन्तिमे स्थाने भवतीति, 18|| 'पढमा ओस्सप्पिणीति अवसर्पिण्या: प्रथमो विभागः प्रथमाऽवसर्पिणी, 'जया णं भन्ते! दाहिणद्धे पढमा ओस-10
प्पिणी पडिवजाइ तया णं उत्तरद्धेवि,' इत्यादि व्यक्तं, नवरं नैवास्त्यवसर्पिणी नैवास्त्युत्सर्पिणी, कुत इत्याह-अवस्थितः-सर्वथा एकस्वरूपस्तत्र कालः प्रज्ञप्तः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, अथ प्रस्तुताधिकारमुपसंहरनाह-'इचेसा| जम्बुद्दीये' इत्यादि, इत्येषा-अनन्सरोकस्वरूपा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः-आद्यद्वीपस्य यथावस्थितस्वरूपनिरूपिका ग्रन्थपद्धतिस्तस्यामस्मिन्नुपाङ्गे इत्यर्थः, सूत्रे च विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , सूर्यप्रज्ञप्ति:-सूर्याधिकारप्रतिबद्धा पदपद्धतिर्वस्तूनां-मण्डलसङ्ख्यादीनां समास:-सूर्यप्रज्ञप्त्यादिमहामन्यापेक्षया संक्षेपस्तेन समाप्ता भवति । अथ चन्द्रवक्तव्यप्रक्षमाह-'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे चन्द्रावुदीचीनप्राचीनदिग्भागे उद्गत्य प्राचीनदक्षिणदि-| ग्भागे आगच्छतः इत्यादि यथा सूरवक्तव्यता तथा चन्द्रवकन्यता, यथा वाशब्दोऽत्र गम्यः पञ्चमशतस्य दशमे उद्दे
~215
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------------------------------- ---------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
संवत्सर
सूत्रांक
[१५०]
दीप अनुक्रम [२७७]
श्रीजम्य-18| शके चन्द्रनानि, कियत्पर्यन्तं सूत्रं ग्राह्यमित्याह-यावदवस्थितः तत्र कालः प्रज्ञप्तः हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! इति, 8 वक्षस्कारे
अत्राप्युपसंजिहीर्घराह-इसा'इत्यादि, व्याख्यानं पूर्ववत्, परं सूर्यप्रज्ञप्तिस्थाने चन्द्रप्रज्ञप्तिर्वाच्या ॥ एतेषां ज्योति-181 न्तिचन्द्री
भेदा:सू. या वृत्तिः काणां चारविशेषात् संवत्सरविशेषाः प्रवर्त्तन्त इति तबेदप्रश्नमाह- .
१५१ ॥४८॥
कति णं भन्ते ! संवच्छरा पण्णता?, गो०! पंच संवच्छरा पं०, तं०-णक्खत्तसंवच्छरे जुगसंवच्छरे पमाणसंबच्छरे लक्खणसंवाछरे सणिच्छरसंवच्छरे । णक्खत्तसंवच्छरे णं भन्ते! कइविहे पण्णत्ते ?, गोअमा! दुवालसविहे पं०, २०साबणे भद्दवए आसोए जाव आसाढे, अं वा बिहप्फई महग्गहे दुवालसहि संघच्छरेहिं सवणक्वत्तमंडलं समाणेइ सेत्तं णक्यत्तसंवच्छरे । जुगसंबच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोअमा! पंचविहे पं०, तंजहा-चंदे चंदे अभिवद्धिए चंदे अभिबद्धिए चेवेति, पढमस्स णं भन्ते ! चन्दसंवच्छरस्स कइ पचा पण्णता?, गो० चोवीसं पव्वा पण्णता, वितिअस्स भन्ते ! चन्दसंबच्छरस्स कइ पवा पण्णत्ता, गो०! चउब्बीसं पवा पण्णता, एवं पुच्छा ततिभस्स, गो०! छब्बीसं पन्ना ५०, च उत्थस्स चन्दसंवच्छरस्स चोवीसं पब्वा, पंचमस्स णं अहिवद्धिअस्स छब्बीस पव्वा य पण्णसा, एवामेव समुज्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुए एगे चउब्बीसे पपसय पण्णत्ते, सेसं जुगसंवच्छरे । पमाणसंवरछरे णं भन्ते ! कतिबिहे पण्णते?, गोभमा!
॥४८५॥ पंचविहे पणते, तंजहा-णक्खत्ते चन्दे उऊ आइचे अमिवद्धिए, सेत्तं पमाणसंवच्छरे इति । लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णते?, गोभमा ! पंच विहे पण्णत्ते, तंजहा—समयं नक्खत्ता जोगं जोति समयं उऊं परिणामति । णभुण्ह णाइसीभो वहूदओ
अथ संवत्सराणां नक्षत्र-संवत्सर आदि पञ्चभेदानाम् प्ररुपणा क्रियते
~216
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----------------
.-----.-..-...------------ मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
होइ णक्खत्ते ॥१॥ ससि समगपुण्णमासि जोपती विसमचारिणक्खता । कडुओ बहुदओ आ तमाहु संबच्छरं चन्दं ॥२॥ विसमं पवालिणो परिणमन्ति अणुऊसु दिति पुष्कफलं । वासं न सम्म वासइ तमाहु संवच्छर कर्म ॥३॥ पुढविदगाणं च रस पुप्फफलाणं च देव आइयो । अपेणवि वासेणं सम्म निष्फजए सरसं ॥ ४॥ आइचतेअतविआ खणलब दिवसा उक परिणमन्ति । परेड अणिण्णयले तमाद अभिवद्धिों जाण ॥ ५॥ सणिच्छरसंवच्छरे णं भन्ते! कतिविहे पण्णते?, गोअमा! अट्ठाविसहविहे पण्णते, तंजहा-अभिई सवणे धणिट्ठा सथमिसया दो अ होति भवया । रेवइ अस्सिणि भरणी कत्तिअ तह रोहिणी चेव ॥१॥ जाव उत्तराओ आसाटाओ जं वा सणिच्चरे महगहे तीसाए संवच्छरेहि सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाइ सेत्तं सणिचरसंवच्छरे (सूत्रं १५१)।
तत्र नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रश्चारं चरन् यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्र-1 पर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो मासः, यदिवा चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्र, स च द्वादशगुणो नक्षत्रसंवत्सरः, तथा युगसंवत्सरः पञ्चसंवत्सरात्मक युगं तदेकदेशभूतो वक्ष्यमाणलक्षणश्च-13
न्द्रादियुगपूरकत्वाद्युगसंवत्सरः, प्रमाण-परिमाणं दिवसादीनां तेनोपलक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाण2| संवत्सरः, स एव लक्षणानां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः, यावता कालेन शनैश्चरो नक्षत्रमेकमथवा
द्वादशापि राशीन् भुते स शनैश्चरसंवत्सर इति । नामनिरुक्तमुक्त्वाऽथैतेषां भेदानाह-'णक्खत्त'इत्यादि, नक्षत्र
न
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~217
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
१५१
गाथा:
श्रीजम्यू- संवत्सरो भगवन् ! कतिविधः प्रज्ञप्त?, गौतम! द्वादश विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रावणः भाद्रपदः आश्विनः यावत्प- वक्षस्कारे द्वीपशा- दात् कार्तिकादिसंग्रहः, द्वादश आषाढः, अयं भावः-इह एकः समस्तनक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसं
संवत्सरन्तिचन्द्रीवत्सरः, ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादशसमस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावणभाद्रपदादिनामानस्तेऽप्यवयवे समुदा
भेदाः सू. या वृत्तिः
योपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः, ततः श्रावणादिद्वादशविधो नक्षत्रसंवत्सरः, वा इति पक्षान्तरसूचने, अथवा बृहस्पति॥४८॥ महामहो द्वादशभिः संवत्सरः योगमधिकृत्य यत्सर्वं नक्षत्रमण्डलमभिजिदादीन्यष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिसमापयति
तावान् कालविशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। अथ द्वितीयः 'जुगसंवच्छरे' इत्यादि, प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे गौतम! युगसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तथाहि-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्धितश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्च, चन्द्रे भवश्चान्द्रः, युगादौ ।
श्रावणमासे बहुलपक्षप्रतिपदः आरभ्य यावत्पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मासः, एकपूर्णिमासीपरा1 वर्तश्चान्द्रो मास इतियावत् , अथवा चन्द्रनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः, स च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरः,
चन्द्रमासनिष्पनत्वादिति, द्वितीयतुर्यावप्येवं व्युत्पत्तितोऽवगन्तव्यौ, तृतीयस्तु युगसंवत्सरोऽभिवड़ितो नाम मुख्यतलखयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरो द्वादश चन्द्रमासप्रमाणः संवत्सर उपजायते, कियता कालेन सम्भवतीत्युच्यते-॥ ॥४८॥ ॥ इह युगं चन्द्रचन्द्राभिवद्धितचन्द्राभिवद्धितरूपपञ्चसंवत्सरात्मक सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि ||
पंच वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमासश्चैकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिर्भागा दिनस्य ।
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~218~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चान्द्रमासोऽधिको लभ्यते, सच यथा लभ्यते तथा 81 18 पूर्वाचार्यप्रदर्शितेयं करणगाथा "चंदस्स जो बिसेसो आइच्चस्स य हविज मासस्स । तीसइगुणिओ संतो हवा हु अहि18 मासगो इको ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-आदित्यसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चन्द्रस्य-चन्द्रमासस्य यो भवति
विश्लेषः, इह विश्लेषे कृते सति यदवशिष्यते तदप्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् साईत्रिंशदहोरात्ररूपाचन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशच द्वापष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते ततः स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वापष्टिभागेन न्यूनं तच दिन त्रिंशता गुण्यते जातानि विंशदिनानि एकश्च द्वापष्टिभागविंशता गुणितो जाताः त्रिंशद् द्वापष्टिभागास्ते त्रिंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशदिनानि द्वात्रिंशव द्वापष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमास इति भवति सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मा-N सातिक्रमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्ठिः ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशम्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्तं च-"सट्ठीए अइआए हवा हु अहिमासगो जुगद्धमि। बावीसे पचसए हवइ अ बीओ जुगंतमि ॥१॥" अस्याप्यक्षरगमनिका-एकस्मिन् युगे-अनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणां-पक्षाणां षष्ठौ अतीतायां-पष्ठिसङ्ग्येषु पक्षेष्व
तिक्रान्तेषु इत्यर्थः एतस्मिन् अवसरे युगाढ़ें-युगाप्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति, द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशे-18 कीजम्बू. ८२ द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽतिकान्ते युगस्यान्ते-युगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिक
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
EtResentaeseser
~219~
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
श्रीजम्ब-18 मासः पञ्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवर्छि तसंवत्सरौ, यद्यपि सूर्यवर्षपंचकात्मके युगे चन्द्रमासद्वयवन्नक्षत्रमासाधिक्यसम्भ-19 वक्षस्कारे
द्वीपशा-1| वस्तथापि नक्षत्रमासस्य लोके व्यवहाराविषयत्वात् , कोऽर्थः-यथा चन्द्रमासो लोके विशेषतो यवनादिभिश्च व्यवहि-8 संवत्सरन्तिचन्द्री
यते तथा न नक्षत्रमास इति, एतेषां च नक्षत्रादिसंवत्सराणां मासदिनमानानयनादि प्रमाणसंवत्सराधिकारे वक्ष्यते । भद या वृत्तिः
| एते च चन्द्रादयः पञ्च युगसंवत्सराः पर्वभिः पूर्यन्ते इति तानि कति प्रतिवर्ष भवन्तीति पृच्छन्नाह-'पढमस्स ण'- १५१ ॥४८७॥
मित्यादि, प्रथमस्य-युगादी प्रवृत्तस्य भगवन् ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि-पक्षरूपाणि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम! चतुर्वि|| शतिः पर्वाणि, द्वादशमासात्मके(कत्वेनास्य प्रतिमासं पर्वद्वयसम्भवात् , द्वितीयस्य चतुर्थस्य च प्रश्नसूत्रे एवमेव, I 18|| अभिवर्धितसंवत्सरसूत्रे षड्राविंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदश चन्द्रमासात्मके(कत्वे)न प्रतिमासं पर्वद्वयसम्भवात् , एवम
न्योऽभिवद्धितोऽपि, सर्वानमाह-एवमेष पूर्वापरमीलनेन चतुविशं पर्वशतं भवतीत्याख्यातम् । अथ तृतीयः- पमाणसंवच्छरे' इत्यादि, प्रमाणसंवत्सरः कतिविधः प्रज्ञप्तः, गौतम ! पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नाक्षत्रं चान्द्रः ऋतुसंवत्सरः
आदित्यः अभिवर्धितश्च, अत्र नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धिताख्याः स्वरूपतः प्रागभिहिताः, ऋतवो-लोकप्रसिद्धा वसन्तादयः । 18 तद्व्यवहारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, ग्रन्थान्तरे चास्य नाम सावनसंवत्सरः कर्मसंवत्सर इ(च)ति, आदित्यचारेण ।
S४८७॥ दक्षिणोत्तरायणाभ्यां निष्पन्नः आदित्यसंवत्सरः। प्रमाणप्रधानत्वादस्य संवत्सरस्य प्रमाणमेवाभिधीयते, तस्य च मास-18 प्रमाणाधीनत्वादादी मासप्रमाणं, तथाहि-इह किल चन्द्रचन्द्राभिर्वर्द्धितचन्द्राभिवतिनामकसंवत्सरपंचकप्रमाणे युगे
Area
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~220
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
18| अहोरात्रराशिविंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो भवति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यते, इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं !
वाऽयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मक युगे च पंच दक्षिणायनानि पंच चोत्तरायणानि इति सर्वसङ्ख्यया दशायनानि, ततरुयशीत्यधिकं दिनशतं दशकेन गुण्यते इत्यागच्छति यथोक्को दिनराशिः, एवंप्रमाण दिनराशि स्थापयित्वा नक्षत्र-1 चन्द्रऋत्वादिमासानां दिनानयनार्थ यथाक्रम सप्तपष्ट चेकषष्टिषष्टिद्वापष्टिलक्षणैर्भागहारैर्भाग हरेत , ततो यथोक्तं नक्षत्रादि-18 मासचतुष्कगतदिनपरिमाणमागच्छति, तथाहि-युगदिनराशि १८३० रूपः, अस्य सप्तपष्टिर्युगे मासा इति सप्तषष्टया 8
भागो हियते, यह तन्नक्षत्रमासमान, तथाऽस्यैव युगदिनराशेः १८३० रूपख एकषष्टियुगे ऋतुमासा इति एकपष्टया || |भागहरणे लग्धं ऋतुमासमानं, तथा युगे सूर्यमासाः षष्टिरिति ध्रुवराशेः १८३० रूपस्य पष्ट या भागहारे यल्लब्धं तत्सू-| शर्यमासमान, तथाऽभिवर्द्धिते वर्षे तृतीये पंचमे वा त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति तद्वर्ष द्वादशभागीक्रियते तत एकैको ।
भागोऽभिवतिमास इत्युच्यते, इह किलाभिवतिसंवत्सरस्य त्रयोदशचन्द्रमासमानस्य दिनप्रमाणं ध्यशीत्यधिकानि । त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापष्टिभागाः, कथमिति चेत्, उच्यते-चन्द्रमासमानं दिन २९३३ एतद्रूपं त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि सप्तसप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि दिनानां, षोडशोत्तराणि चत्वारि शतानि चांशाना ते च दिनस्य । द्वाषष्टिभागास्ततो दिनानयनार्थ द्वाषष्टया भागो हियते, लब्धानि षड् दिनानि, तानि च पूर्वोक्तदिनेषु मील्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि व्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागाः, ततो वर्षे द्वादश मासा (इति मासा) नयनाय
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~221
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५१]
गाथा:
श्रीजम्व- द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च द्वादशानां भागं न प्रयच्छन्ति अक्षरकारे द्वीपशा- ॥ तेन यदि एकादश चतुश्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागमीलनार्थं द्वाषष्ट या गुण्यन्ते तदा पूर्णो राशिन त्रुयति शेषस्य विद्य-18|| संवत्सरन्तिचन्द्री- मानत्वात्, तेन सूक्ष्मेक्षिका द्विगुणीकृतया द्वाषष्टया चतुर्विंशत्यधिकशतरूपया एकादश गुण्यन्ते जातं १३६४ चतु- भेदाः म. या वृत्तिः
श्वत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा अपि सवर्णनार्थ द्विगुणी क्रियन्ते कृत्वा च मूलराशी प्रक्षिप्यन्ते जातं १४५२, एषां द्वादછતા शभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां, एतावदभिवद्धितमासप्रमाणं, एतेषां क्रमेणाक
| स्थापना यथा-इदं च नाक्षत्रादिमासमान, वर्षे द्वादश मासा इति द्वादशगुणं स्वस्ववर्षमानं जनयन्ति, स्थापना यथा
दिन, २७ २९ ३० ३० ३१ दिन ३२७ २५४ ३६० ३६६ ३८३ भाग, २१ ३२ . ३० १२१ भाग ५१ . १२ . ० ४४
. ६२ ६२ . ६० १२४ . ६७ ६७ . . ६२
• नक्षत्रः चन्द्रः ऋतुः सूर्यः अभिव. नाक्षत्रादिसंवत्सरमानं, स एष प्रमाणसंवत्सर इति निगमनवाक्यं, एषां च मध्ये ऋतुमासऋतुसंवत्सरावेव लोकैः ४८॥ पुत्रवृद्धिकलान्तरवृत्यादिषु व्यवहियेते, निरंशकत्वेन सुबोधत्वात् , यदाह-"कम्मो निरंसयाए मासो ववहारकारगो
Sceaeeeeeeeeeeesese
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~222
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], --------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
लोए । सेसार संसयाए ववहारे दुकरा घेत्तुं ॥१॥" अत्र व्याख्या-आदित्यादिसंवत्सरमासानां मध्ये कर्मसंवत्सर-18 सम्बन्धी मासो निरंशतया पूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणतया लोकव्यवहारकारकः स्यात् , शेषास्तु सूर्यादयो व्यवहारे ग्रहीतुं । दुष्कराः सांशतया न व्यवहारपथमवतरन्तीति, निरंशता चैवं-पष्टिः पलानि घटिका ते च द्वे मुहूर्तः ते च त्रिंशद
होरात्रः ते च पञ्चदश पक्षः तौ द्वौ मासः ते च द्वादश संवत्सर इति, शाखवेदिभिस्तु सर्वेऽपि मासाः स्वस्वकार्येषु 18 नियोजिताः, तथाहि-अत्र नक्षत्रमासप्रयोजनं सम्प्रदायगम्यं । "वैशाखे श्रावणे मार्गे, पौधे फाल्गुन एव हि । कुर्वीत
वास्तुप्रारम्भ, न तु शेषेषु सप्तम् ॥१॥” इत्यादौ चन्द्रमासस्य प्रयोजन, ऋतुमासस्य तु पूर्वमुक्त, 'जीवे सिंहस्थे । धन्विमीनस्थितेऽकें, विष्णी निद्राणे चाधिमासे न लग्नं' इत्यादौ तु सूर्यमासाभिवतिमासयोरिति, पूर्व नक्षत्रसंवत्स-1 रादयः स्वरूपतो निरूपिताः अत्र तु दिनमानानयनादिप्रमाणकरणेन विशेषेण निरूपिता इति न पौनरुक्त्यं विभाव्यम् , निशीथभाष्यकाराशयेन 'नक्षत्रचन्द्रर्तुसूर्याभिवर्द्धितरूपकं मासपञ्चकं तद्द्वादशगुणः संवत्सर' इति संवत्सरप-18 अकमेव युक्तिमत् , अन्यथा उद्देशाधिकारे नक्षत्रसंवत्सरोद्देशकरणं युगसंवत्सराधिकारे चन्द्राभिवर्द्धितयोरुद्देशकरणं पुनः प्रमाणसंवत्सराधिकारे तेषामेव प्रमाणकरणमित्यादिकं गुरवे गौरवाय भवति, यत्तु स्थानानचन्द्रप्रज्ञस्यादावत्र | चोपाङ्गे इत्थं संवत्सरपञ्चकवर्णनं तद् बहुश्रुतगम्यम्, अथ लक्षणसंवत्सरप्रश्नमाह-लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते । इत्यादि, लक्षणसंवत्सरो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः, गौतम! पंचविधः प्रज्ञप्तः, नक्षत्रादिभेदात्, तद्यथा-समकं
coercedeseseseseseemesesement
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
eeseener
ceo
~223
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
गाथा:
| समतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि योग-कार्तिकीपूर्णिमास्यादितिथिभिः सह सम्बन्धं योजयन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः, इदमुक्तं | वक्षस्कारे
| भवति-यानि नक्षत्राणि यासु तिथिपूत्सर्गतो भवन्ति-यथा कार्तिक्या कृत्तिकास्तानि तास्वेव यत्र भवन्ति, यथोक्तम्- संवत्सरन्तिचन्द्री- "जेट्ठो वच्चइ मूलेण, सावणो धणिवाहिं । अद्दासु अ मग्गसिरो, सेसा नक्खत्तनामिआ मास ॥१॥"त्ति, तथा यत्र
भेदा: म. या चिः18
समतयैव ऋतवः परिणमन्ति न विषमतया, कार्तिक्या अनन्तरं हेमन्त ः पौव्याः अनन्तरं शिशिरतुरित्येवमवत-18 ॥४८॥ रन्तीति भावः, यश्च संवत्सरो नात्युष्णः नातिशीतः तथा च बहूदकः स च भवति लक्षणतो निष्पन्न इति नक्षत्रचा
रलक्षणलक्षितत्वात् नक्षत्रसंवत्सर इति, अत्र गाथाच्छन्दसि प्रथमार्द्ध मात्राया आधिक्यमण्यार्षत्वादस्य न दुष्टं, न । ह्यार्षाणि छन्दांसि सर्वाणि व्यक्त्या वक्तुं शक्यानि, किश्च यथादर्शनमनुसतव्यानि, एवमन्यत्रापि ज्ञेयमिति । अथ चन्द्रः'ससि समग'इत्यादि, विभक्तिलोपात् शशिना समकं योगमुपगतानि विषमचारीणि-मासविसदृशनामकानि नक्षत्राणि
तां तां पौर्णमासीं-मासान्ततिथिं योजयन्ति-परिसमापयन्ति यस्मिन्निति गम्यं, यश्च कटुक:-शीतासपरोगादिदोषब-18 18| हुलतया परिणामदारुणो बहूदकः, चस्स दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , तमाहुमहर्षयश्चान्द्र-चन्द्रसम्बन्धिनं चन्द्रानुरोधात् ||
तत्र मासानां परिसमाप्तेः, न माससदृशनामकनक्षत्रानुरोधतः। अथ कर्माख्या-'विसम'मित्यादि, यस्मिन् संवत्सरे ॥४८९॥ वनस्पतयो विषम-विषमकालं प्रवालिनः परिणमन्ति-प्रवाला:-पल्लवायुरास्तधुकतया परिणमन्ति, तथा अनृतुष्वपिस्वस्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं च फलं च ददति, अकाले पल्लवान् अकाले पुष्पफलानि दधते इत्यर्थः तथा वर्ष-वृष्टिं न ॥
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~224
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
See
गाथा:
सम्यगू वर्षति-करोति मेघ इति तमाहुः-संवत्सरं कर्माख्यं । अथ सौर:-'पुढविइत्यादि, पृथिव्या उदकस्य च तथा पुष्पाणां फलानां च रसमादित्यः-आदित्यसंवत्सरो ददाति, तथा अल्पेनापि-स्तोकेनापि वर्षेण-वृध्या शस्य निष्पद्यतेअन्तर्भूतण्यर्थत्वात् शस्यं निष्पादयति, किमुक्तं भवति?-यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसम्पर्कादतीव सरसा || भवति उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमति पुष्पानां च-मधूकादिसम्बन्धिनां फलानां च-आम्रफलादीनां । रसः प्रचुरो भवति, स्तोकेनापि वर्षेण धान्यं सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तमादित्यसंवत्सरं पूर्वर्षय उपदिशन्ति । अथाभिवर्द्धित:-'आइच'इत्यादि, यस्मिन् संवत्सरे क्षणलवदिवसा ऋतव आदित्यतेजसा कृत्वा अतीवतप्ताः परिणमन्ति, यश्च | सर्वाण्यपि निम्नस्थानानि स्थलानि च जलेन पूरयति तं संवत्सरं जानीहि यथा तं संवत्सरमभिवर्द्धितमाहुः पूर्वर्षय ६इति । सम्प्रति शनैश्चरसंवत्सरप्रश्नमाह-सणिच्छर'इत्यादि, शनैश्चरसंवत्सरो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः?, गौतम! १ 18 अष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अभिजिच्छनैश्चरसंवत्सरः श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः धनिष्ठाशनैश्चरसंवत्सरः शतभिप-1 18| क्शनैश्चरसंवत्सरः पूर्वभद्रपदाश०सं० उत्तरभद्रपदाशनैश्चरसंवत्सरः रेवतीशनैश्चरसं० अश्विनीशनैश्चरसंवत्सरः भरणी-18
शनैश्चरसंवत्सरः कृत्तिकाशनैश्चरसंवत्सरः रोहिणीश०सं० यावत्पदात् मृगशिरःशनैश्चरसंवत्सर इत्यादि ग्राह्य, अन्ते चोत्तराषाढाशनैश्चरसंवत्सरः, तत्र यस्मिन् संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सोऽभिजिच्छनैश्वरसंवत्सरः श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं सर्वत्र भावनीयं, अथवा शनै
2909200amarapasa990seases
Recen
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
~225
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१५१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
श्रीजम्यू- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४९॥
गाथा:
वरो महाग्रहस्त्रिंशता संवत्सरैः सर्वनक्षत्रमण्डलमभिजिदादिकं समापयति एतावान् काल विशेषः त्रिंशद्वर्षप्रमाणः अनै-18 वक्षस्कारे श्वरसंवत्सर इति । उक्ताः संवत्सराः, अर्थतेषु कति मासा भवन्तीति पृच्छन्नाह
मासपक्षाएगमेगस्स ण भन्ते ! संबच्छरस्म कइ मासा पण्णत्ता?, गोअमा ! दुवालस मासा पण्णत्ता, तेसि ण दुविहा' णामधेना पं०40- दिनामानि लोइआ लोउत्तरिआ य, तत्थ लोइआ णामा इमे, तं०-सावणे भद्दवए जाव आसाढे, लोउत्तरिआ णामा इमे, जहा-अमिणं दिए
म.१५२ पइ अ, विजए पीइवद्धणे । सेअंसे य सिये चेक, सिसिरे अ सहेमवं ॥ १ ॥णवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे । एकारसे निदाहे अ, वणविरोहे अ बारसमे ॥ २ ॥ एगमेगस्स गं भन्ते! मासस्स कति पक्खा पण्णता ?, गोभमा ! दो पक्खा पण्णत्ता, तं०-बहुलपक्खे अ सुक्कपक्खे अ। एगमेगस्स णं भन्ते ! पक्खस्स कह दिवसा पण्णता ?, गोमा ! पण्णरस दिवसा पण्णता, तं०-पडिवादिवसे बितिआदिवसे जाव पण्णरसीदिवसे, एतेसि गं भंते ! पणरसण्हं दिवसाणं कइ णामधेजा पण्णता?, गोअमा! पण्णरस नामधेजा पण्णत्ता, तं०--पुष्वंगे सिद्धमणोरमे अ तत्तो मपोरहे चेव । जसभरे म जसधरे छठे सहकामसमिद्धे अ॥१॥ इंदमुद्धाभिसित्ते अ सोमणस धणंजए अ बोद्धव्वे ।। अत्यसिद्धे अभिजाए अचसणे सर्वजए चेव॥२॥ अग्गिवेसे उसमे दिवसाणं होंति णामधेजा ॥ एवेसि णं भंते! पण्परसहं दिवसाप कति तिही पणचा १, गो०1 यण्णरस तिही पण्णता, सं०-नंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्षे पक्वास पंचमी । पुणरवि पदे भरे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी।
॥1॥४९॥ पुणरवि गंदे भदे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी, एवं ते तिगुणा तिहीओ सवेसि दिवसाणंति । एगमेगस्स पं अंते! पक्सस्स कह गईओ पण्पत्ताओ?, गोअमा! पण्णस्स गईयो पग्मत्ताओ, सं०-परिवाराई जाव पण्णरसीराई, एश्रामिणं
दीप अनुक्रम [२७८-२८४]
अथ संवत्सरस्य मास-पक्ष-दिनानाम् नामानि प्रदर्श्यते
~226
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
भंते ! पण्णरसण्हं राईणं कइ णामधेचा पण्णचा?, गो०! पण्णरस नामभेजा पण्णता, तंजहा- उत्तमा य मुणक्खता, एलावा जसोहरा । सोमणसा चेव तहा, सिरिसंभूआ य बोद्धव्वा ॥१॥ विमया य वेजयन्ति जयंति अपराजिआ य इच्छा य । समाहारा चेव तहा तेआ य तहा अईतेआ ॥ २ ॥ देवाणंदा णिरई रयणीणं णामधिज्जाई ॥ एयासि णं भंते ! पण्णरसण्हं राईणं का तिही पं०?, गो०! पण्णरस तिही पं०, तं०-उग्गबई भोगवई जसबई सबसिद्धा सुहणामा, पुणरवि उध्यवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा, एवं तिगुणा एते तिहीओ सव्येसिं राईणं, एगमेगस्स णं भंते ! अहोरत्तस्स कइ मुहुत्ता पण्णता?, गोअमा ! तीस मुहुत्ता पं०, तं०-रुद्दे सेए मिचे वाउ सुबीए तहेव अमिचंदे । माहिद बलव मे बहुसये पेव ईसाणे ॥१॥ तढे अभाविअप्पा वेसमणे वारुणे अ आणंदे । बिजए अ वीससेणे पायावर्षे उसमे अ॥ २ ॥ गंधच अग्गिवेसे सयवसहे आय व अममे अ । अणवं भोमे वसहे सवढे रक्खसे चेव ॥३॥ (सूत्र १५२)
एकैकस्य भदन्त ! संवत्सरस्य कति मासाः प्रज्ञप्ता, गौतम! द्वादश मासाः प्रज्ञताः, तेषां द्विविधानि नामधेयानि ||
प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-लौकिकानि लोकोत्तराणि च, तत्र लोकः-प्रवचनबाह्यो जनस्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्सम्बन्धीनि लौकि18|| कानि लोकः मागुक्त एव तस्मात्सम्यग्ज्ञानादिगुणयुक्तत्वेन उत्तरा:-प्रधानाः छोकोत्सरा:-जैनास्तेषु प्रसिद्धत्वेन तत्स|म्बम्धीनि लोकोत्तराणि, अत्र वृद्धि विधानस्य वैकल्पिकत्वेन यथाश्रुतरूपसिद्धिः, तब लीफिकानि नामान्यमूनि, तद्यथाश्रावणो भाद्रपदः यावत्करणात् आश्वयुजः कार्तिको मार्गशीर्षः पौधे मापः फाल्गुबत्रः वैशाखो ज्येष्ठ आषाढ इति,
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
88esesese
~227
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ .-----.-..-....------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
श्रीजम्मू-18|| लोकोत्तराणि नामान्यमूनि, तद्यथा-प्रथमः श्रावणोऽभिनन्दितो द्वितीयः प्रतिष्ठितस्तृतीयो विजयः चतुर्थः प्रीतिवर्जनः ॥ध्यक्षस्कारे द्वीपशा-18 पञ्चमः श्रेयान् षष्ठः शिवः सप्तमः शिशिरः अष्टमः हिमवान् , सूत्रे च पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमवता 8
स
मासपक्षा
दिनामानि न्तिचन्द्री- सह शिशिर इत्यागतं शिशिरः हिमांश्चेति नवमो बसन्तमासः दशमः कुसुमसम्भवः एकादशो निदाघः द्वादशो वन-1181 या चिः
सू.१५२ विरोह इति, अन सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्ती अभिनन्दितस्थाने अभिनन्दः वनविरोहस्थाने तु वनविरोधी इति । अथ प्रतिमासं || ॥४९॥ कति पक्षा इति प्रश्नयन्नाह-एगमेगस्स इत्यादि, एकैकस्य भदन्त! मासस्य कति पक्षाः प्रज्ञप्ता:?, गौतम! द्वौ पक्षौ8
प्रज्ञप्ती, तद्यथा-कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धकारबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः ॥ शुक्लपक्षो यत्र स एव चन्द्रविमानमावृत्तं मुञ्चति तेन ज्योत्स्नाधवलिततया शुक्ल: पक्षः स शुक्लपक्षः, द्वौ चकारी तुल्य-12 ताद्योतनार्थ तेन द्वावपि पक्षौ सदृशतिथिनामको सदृशसङ्ख्याको भवत इति । अथानयोदिवससङ्ख्यां पृच्छन्नाचष्टे'एगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य पक्षस्य कृष्णशुक्लान्यतरस्य भदन्त ! कति दिवसाः प्रज्ञप्ताः?, यद्यपि दिवसशब्दोs-1 होरात्रे रूढस्तथापि सूर्यप्रकाशवतः कालविशेषस्यात्र ग्रहणं, रात्रिविभागप्रश्नसूत्रस्याने विधास्यमानत्वात् , गीतम! पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, एतच्च कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यं, तत्रैव पूर्णाना पश्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात्तद्यधा-प्रतिप-10 दिवसः प्रतिपद्यते पक्षस्याद्यतया इति प्रतिपत् प्रथमो दिवस इत्यर्थः, तथा द्वितीया द्वितीयो दिवसो यावत्करणात् तृतीया । तृतीयो दिवस इत्यादिग्रहः अन्ते पञ्चदशी पञ्चदशो दिवसः, एतेषां भदन्त ! पञ्चदशानां दिवसानां कति ! नामधेयानि
दीप अनुक्रम [२८५
॥४९१
-२९८]
~228
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
प्रज्ञप्तानि?, गौतम ! पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-प्रथमः पूर्वाङ्गो द्वितीयः सिद्धमनोरमस्तृतीयः मनोहरः
चतुर्थी यशोभद्रः पामो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्तोऽष्टमः सौमनसो नवमो धनञ्जयः। । दशमोऽर्थसिद्धः एकादशोऽभिजातो द्वादशोऽत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्म पञ्चदश उपशम इति दिव18 सानां भवन्ति नामधेयानि इति। सम्प्रत्येषां दिवसानां पञ्चदश तिथीः पिपृच्छिषुराह-एतेसि ण'मित्यादि, एतेषा-अन-15
न्तरोक्तानां पञ्चदशानां दिवसानां भदन्त! कति तिथयः प्रज्ञप्ताः?, गौतम! पञ्चदश तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दो ॥३|| भद्रो जयस्तुच्छोऽन्यत्र रिक्तः पूर्णः, अत्र तिथिशब्दस्य पुंसि निर्दिष्टतया नन्दादिशब्दानामपि पुंसि निर्देशः, ज्योति| करण्डकसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्यादी तु नन्दा भद्रा जया इत्यादिखीलिङ्गनिर्देशन संस्कारो दृश्यते, सच पूर्णः पञ्चदश तिथ्या-1 | मकस्य पक्षस्य पञ्चमी इति रूढः, एतेन पञ्चमीतः परेषां षष्ट्यादितिथीना नन्दादिक्रमेणैव पुनरावृत्तिर्दर्शिता, तथैव ॥
सूत्रे आह-पुनरपि नन्दः भद्रः जयः तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य दशमी, अनेन द्वितीया आवृत्तिः पर्यवसिता, पुनरपि । 18 नन्दः भद्रः जयः तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य पञ्चदशी, उक्कमर्थं निगमयति-एवमुक्तरीत्या आवृत्तित्रयरूपया एते अन-IN पन्तरोक्ता नन्दाद्याः पंच त्रिगुणाः पञ्चदशसंख्याकास्तिथयः सर्वेषां-पश्चदशानामपि दिवसानां भवन्ति, एताश्च दिव-18
सतिथय उच्यन्ते, आह-दिवसतिथ्योः कः प्रतिविशेषो येन तिथिप्रश्नसूत्रस्य पृथग्विधान?, उच्यते, सूर्यचारकृतो | दिवसः स च प्रत्यक्षसिद्ध एव, चन्द्रचारकृता तिथिः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, पूर्वपूर्णिमापर्यवसानं प्रारभ्य द्वाप
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
~229~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
श्रीजम्बू-18|ष्टिभागीकृतस्य चन्द्रमण्डलस्य सदानावरणीयौ द्वौ भागौ वर्जयित्वा शेषस्य पष्टिभागात्मकस्य चतुर्भागात्मकः पंचदशो वक्षस्कारे
द्वीपशा- भागो यावता कालेन ध्रुवराहुविमानेन आवृतो भवति अमावास्यान्ते च स एव प्रकटितो भवति तावान् कालविशे- मासपक्षान्तिचन्द्रीपस्तिथिः। अथ रात्रिवक्तव्यप्रश्नमाह--'एगमेगस्स'इत्यादि, एकैकस्य भदन्त ! पक्षस्य कति रात्रयोऽनन्तरोक्कदिव
दिनामानि या वृत्तिः
स्.१५२ 15 सानामेव परमांशरूपाः प्रज्ञप्ताः१, गौतम! पञ्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपद्रात्रिः यावरकरणाद् द्वितीयादिरा॥४९२॥ त्रिपरिग्रहः, एवं पंचदशीराविरिति । 'एआसि ण'मित्यादि, प्रश्नसूत्र सुगम, उत्तरसूत्रे गौतम! पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञ-IST
प्लानि, तद्यथा-उत्तमा प्रतिपन्नात्रिः सुनक्षत्रा द्वितीयारात्रिः एलापत्या तृतीया यशोधरा चतुर्थी सौमनसा पञ्चमी 18| श्रीसम्भूता षष्ठी विजया सप्तमी वैजयन्ती अष्टमी जयन्ती नवमी अपराजिता दशमी इच्छा एकादशी समाहारा द्वादशी ||
तेजास्त्रयोदशी अतितेजाश्चतुर्दशी देवानन्दा पंचदशी निरत्यपि पंचदश्या नामान्तरं, इमानि रजनीनां नामधेयानि ।। Ka यथा अहोरात्राणां दिवसरात्रिविभागेन संज्ञान्तराणि कथितानि तथा दिवसतिधिसंज्ञान्तराणि प्रागुक्कानि, अथ
रात्रितिथिसंज्ञान्तराणि प्रश्नयनाह-एतासि इत्यादि, एतासां भदन्त ! पञ्चदशानां रात्रीणां कति तिथयः प्रज्ञप्ता || गौतम! पश्च तिथयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती नन्दातिथिरात्रिः, द्वितीया भोगवती भद्रातिथिरात्रिः तृतीया ॥४९२।।
यशोमती 'जयातिथिरात्रिः चतुर्थी सर्वसिद्धा तुच्छातिथिरात्रिः, पञ्चमी शुभनामा पूर्णतिथिरात्रिः, पुनरपि पाठी M उप्रवती नन्दातिथिरात्रिः भोगवती भद्रातिथिः सप्तमी रात्रिः यशोमती जयातिश्विरष्टमी रात्रिः सर्वसिद्धा तुच्छा-1
दीप अनुक्रम [२८५
-२९८]
~230
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ ------------------------- मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
गाथा:
तिथिर्नवमी रात्रिः शुभनामा पूर्णातिथिदशमी रात्रिः, पुनरपि उग्रवती नन्दातिथिरकादशी रात्रिः भोगवती भद्रा|| तिथिर्वादशी रात्रिः यशोमती जयातिथिस्त्रयोदशी रात्रिः सर्वसिद्धा तुच्छा तिथिश्चतुर्दशी रात्रिः शुभनामा पूर्णातिथिः
पञ्चदशी रात्रिरिति, यथा नन्दादिपञ्चतिथीनां त्रिरावृत्त्या पंचदश (दिन) तिथयो भवन्ति तथोग्रवतीप्रभृतीनां त्रिरावृत्त्या पंचदश रात्रितिथयो भवन्तीति । अथैकस्याहोरात्रस्य मुहूर्त्तानि गणयितुं पृच्छति-'एगमेगस्स ण'मित्यादि, एकैकस्य | | भदन्त! अहोरात्रस्य कति मुहर्ताः प्रज्ञप्ताः?, गौतम! त्रिंशन्मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमो रुद्रः द्वितीयः श्रेयान् । तृतीयो मित्रः चतुर्थो वायुः पंचमः सुपीता पष्ठोऽभिचन्द्रः सप्तमो माहेन्द्रः अष्टमो बलवान् नवमो ब्रह्मा दशमो बहु| सत्यः एकादश ऐशानः द्वादशस्त्वष्टा त्रयोदशो भावितात्मा चतुर्दशो वैश्रमणः पंचदशो वारुणः षोडश आनन्दः। इस सप्तदशो विजयः अष्टादशो विश्वसेनः एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः विंशतितम उपशमः एकविंशतितमो गन्धर्षः।
द्वाविंशतितमोऽग्निवेश्यः त्रयोविंशतितमः शतवृषभः चतुर्विशतितमः आतपवान् पंचविंशतितमोऽममः षड्विंशति-18 | तम ऋणवान् सप्तविंशतितमो भौमः अष्टाविंशतितमो वृषभः एकोनत्रिंशत्तमः सर्वार्थः त्रिंशत्तमो राक्षसः॥ अथ तिथिप्रतिबद्धत्वात्करणानां तत्स्वरूपप्रश्नमाहकति णं भन्ते। करणा पण्णत्ता, गोअमा! एकारस करणा पण्णचा, तंजहा-बवं बालवं कोलवं थीविलोमण गराइ वणिज विट्ठी सउणी चउप्पयं नागं कित्युग्धं, एतेसिणं भन्ते ! एकारसहं करणाणं कति करणा चरा कति करणा थिरा पण्णचा?,
Hassa98390000000000000200
दीप अनुक्रम [२८५-२९८]
श्रीजम्यू.८३
अथ 'करण संबंधी वक्तव्यता प्रस्तूयते
~231
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -----------------------
------ मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत सूत्रांक [१५३]
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४९३॥
00000000
वक्षस्कारे करणाधि| काररसू.
१५३
दीप अनुक्रम [२९९]
मो! सत्त करणा परा पत्तारि करणा चिरा पण्णता, तंजहा-बवं बालवं कोलवं चिविलोअणं गरादि वणिज विट्टी, एते
सत्त करणा चरा, बत्तारिकरणा विरा पं० सं०-सउणी चउप्पयं णार्ग किंस्थुग्ध, एते णं चत्तारि करणा थिरा पण्णता, एते भन्ते ! परा थिरावा कया भवन्ति', गोलमा! सुकपक्खस्स पडिवाए राओ थवे करणे भवइ, वितियाए दिवा बालवे करणे भवह, रामो कोलवे करणे भवइ, ततिआए दिया थीविलोअणं करणं भवइ, राओ गराइ करणं भवइ, पउत्थीए विषा वणिज राओ विट्ठी, पंचमीए दिवा बवं राओ बालवं, छवीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, सप्तमीए दिवा गराइराभो वणिक अटमीए दिवा थिट्री रामो बवं नवमीए दिवा बालवं राओ कोलवं दसमीए दिया धीविलोअणं राओ गराई एकारसीए दिवा वणिज रामो विट्ठी पारसीए दिया बवं राजो बालवं तेरसीए दिया कोलवं राओ थीविलोअणं चउसीए दिवा गराति करणं राओ वणिजे पुण्णिमाए दिवा विट्ठीकरणं राओ ववं करणं भवइ, बहुलपक्खस्स पडिवाए दिवा बालवं राओ कोलवं वितिआए दिवा थीविलोमण रामओ गरादि ततिआए दिवा वणिज राओ विट्ठी चउत्थीए दिवा बर्व राओ बालवं पंचमीए दिवा कोलवं रामो थीविलोअणं छडीए दिवा गराई राओ वणि सत्तमीए विवा विट्ठी राओ वर्ष अहमीए विवा बालब रामओ कोलप णवमीए दिषा वीविलोभण रामओ गराई दसमीए दिवा वणि रामओ विट्ठी एकारसीए दिवा पर्व राओ वालवं पारसीए दिया कोलवं रामो थीविलोअणं तेरसीए दिवा गराई रामओ वणिज्नं पउहसीए दिवा विठ्ठी राओ सउणी अमावासाए दिवा चउप्पर्य राओ णार्ग सुक्पक्खस्स पाडिवए दिवा कित्थुग्धं करणं भवइ (सूत्र १५३) • 'कति णं भन्ते !'इत्यादि, कति भदन्त ! करणानि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! एकादश करणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वर्ष
elsea
॥४९३॥
~232
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
----- मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५३]
दीप अनुक्रम [२९९]
IR बालवं कौलवं स्त्रीविलोचनं अन्यत्रास्य स्थाने तैतिलमिति गरादि अन्यत्र गरं वणिजं विष्टिः शकुनिः चतुष्पदं नागं किंस्तु-1M 8||ममिति। एतेषां च चरस्थिरत्वादिव्यक्तिप्रश्नमाह- एतेसि 'इत्यादि, एतेषां भदन्त ! एकादशानां करणानां मध्ये कत्ति ||
करणानि चराणि कति करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि !, चकारोऽत्र गम्यः, भगवानाह-गौतम ! सप्त करणानि पराणि || |२| अनियततिथिभावित्वात् चत्वारि करणानि स्थिराणि नियततिथिभावित्वात् , तद्यथा-ववादीनि सूत्रोकानि ज्ञेयानि,
एतानि सप्त करणानि चराणि इत्येतन्निगमनवाक्यं, चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-शकुन्यादीनि सूत्रोकानि, एतानि चत्वारि करणानि स्थिराणि प्रज्ञप्तानि इति तु निगमनवाक्यं, प्रारम्भकनिगमनवाक्यस्यभेदेन नात्र || पुनरुक्तिः ॥ एतेषां स्थाननियम मटुमाह-एतेसि 'मित्यादि, सर्व चैतन्निगदसिद्धम्, नवरं विनरात्रिविभागेन 18 रायस्पृथकधन तत्करणानां तिथ्यर्द्धप्रमाणत्वात्, कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ शकुनिः अमावास्यायां दिवा चतुष्पदं रात्री नाग18
शुक्लपक्षपतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं चेति चत्वारि स्थिराणि, आवेव तिथिषु भवन्तीत्यर्थः। अथ यद्यपि सर्वस्यापि कालस्य सदा परिवर्तनस्वभावत्वेनाद्यन्ताभावाद्वक्ष्यमाणसूत्रारम्भोऽनुपपन्नस्तथाप्यस्त्येव कालविशेषस्थाद्यन्तविचारः अतीतः। |पूर्वः संवत्सरः सम्प्रतिपन्नश्चोत्तरः संवत्सर इत्यादिव्यवहारस्याध्यक्षसिद्धत्वात्, तेन कालविशेषाणामादिं पृच्छति
किमाइआ णं भन्ते ! संवच्छरा किमाइआ अयणा किमाइ उऊ किमाइआ मासा किमाइमा पक्या किमाइमा अहोरचा किमाइआ मुहुचा किमाइआ करणा किमाइआ णक्वत्ता पण्णचा?, गोमा ! चंदाइमा संवच्छरा दक्षिणाइया अयणा पाउसाइआ
एeersesesesesesesesesesesent
~233
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४९॥
[१५४]
दीप अनुक्रम [३००
उऊ सावणाइमा मासा बहुलाइमा पक्खा दिवसाइआ अहोरत्ता रोदाइआ मुहुत्ता बालवाइा करणा अभिजिआइआ
वक्षस्कारे णक्खत्ता पण्णता समणाउसो! इति । पंचसंवच्छरिए णं भन्ते! जुगे केवडा अयणा केवइआ एक एवं मासा पसा अहो
संवत्सरारत्ता केवइआ महत्ता पण्णत्ता', गो! पंचसंवच्छरिए णं जुगे दस अयणा वीसं उऊ सही मासा एगे यीसुत्तरे पक्षसए अट्ठा
द्यायधिरसतीसा अहोरत्तसया चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्सा णब सया पण्णत्ता (सूत्रं १५४) 'किमाइआ ण'मित्यादि, कश्चन्द्रादिपंचकान्तवर्ती आदिः-प्रथमो येषां ते किमादिकाः संवत्सराः, इदं च प्रश्नसूत्र
१५४ चन्द्रादिसंवत्सरापेक्षया शेयं, अन्यथा परिपूर्णसूर्यसंवत्सरपंचकात्मकस्य युगस्य कः आदिः कश्चरम इति प्रश्नावकाशोऽपि न स्यात्, किं-दक्षिणोत्तरायणयोरन्यतरदादिर्ययोस्ते किमादिके अयने, बहुवचनं च सूत्रे प्राकृतत्वात् , कः प्रावृडादीनामन्यतर आदी येषां ते किमादिकाः ऋतवः, कः श्रावणादिमध्यवर्ती आदिर्येषां ते किमादिका मासाः, एवं किमादिको पक्षौ किमादिका अहोरात्राः किमादिकानि करणानि किमादिकानि नक्षत्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नसूत्र, |भगवानाह-गौतम! चन्द्र आदिर्येषां ते चन्द्रादिकाः संवत्सराः, चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धित चन्द्राभिवद्धितनामकसंवत्सरपं| चकात्मकस्य युगस्य प्रवृत्ती प्रथमतोऽस्यैव प्रवर्त्तनात्, न त्वभिवर्द्धितस्य, तस्य युगे त्रिंशन्मासातिक्रमे सद्भावादिति, ननु युगस्यादी वर्तमानत्वात् चन्द्रसंवत्सरः संवत्सराणामादिरुक्तस्तहि युगस्यादित्वं कथं ?, उच्यते, युगे प्रतिपद्य
IA ॥४९४॥ शमाने सर्वे कालविशेषाः सुषमसुषमादयः प्रतिपद्यन्ते युगे पर्यवस्यति ते पर्यवस्पन्ति, अन्यच्च सकलज्योतिश्चारमूलस्या
~2344
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७],-----------------...........
------ मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
दीप अनुक्रम [३००]
शसूर्यदक्षिणायनस्य चन्द्रोत्तरायणस्य च युगपत् प्रवृत्तिर्युगस्यादावेव सोऽपि चन्द्रायणस्याभिजिद्योगप्रथमसमय एव सूरा
यणस्य तु पुष्यस्य त्रयोविंशती सप्तपष्टिभागेषु व्यतीतेषु तेन सिद्धं युगस्यादित्वमिति, तथा दक्षिणायन-संवत्सरस्य प्रथमे पण्मासास्तदादिर्ययोस्ते तथा, आदित्वं चास्य युगप्रारम्भे प्रथमतः प्रवृत्तत्वात् , एतच्च सूर्यायनापेक्षं वचनं, चन्द्राय-11 नापेक्षया तु उत्तरायणस्यादिता वक्तव्या स्यात्, युगारम्भे चन्द्रस्योत्तरायणप्रवृत्तत्त्वात् , प्रावृऋतु:-आषाढश्रावण
रूपमासद्वयात्मक आदिर्येषां ते प्रावृडादिका ऋतवः, युगादौ ऋत्वेकदेशस्य श्रावणमासस्य प्रवर्त्तमानत्वात् , एवं श्रावIणादिका मासाः प्रागुक्तहेतोरेव, बहुलपक्षादिको पक्षी श्रावणबहुलपक्ष एव युगादिप्रवृत्तेः, दिवसादिका अहोरात्राः,18
| मेरुतो दक्षिणोत्तरयोः सूर्योदय एव युगप्रतिपत्तेः, भरतैरवतापेक्षया इदं वचनं, विदेहापेक्षया तु रात्रौ तत्प्रवृत्तेः, तथा | रुद्रखिंशतो मुहर्तानां मध्ये प्रथमः स आदिर्येषां ते तथा प्रातस्तस्यैव प्रवृत्तेः, तथा बालवादिकानि करणानि, बहुलप्रतिपद्दिवसे तस्यैव सम्भवात् , तथाऽभिजिदादिकानि नक्षत्राणि, तत एवारभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्त्तमानत्वात्, तथाहि-उत्तराषाढानक्षत्रचरमसमयपाश्चात्ये युगस्यान्तः ततोऽभिनवयुगस्यादिनक्षत्रमभिजिदेवेति, हे श्रमण! हे आयु-1
मन् !, अन्ते च सम्बोधनं शिष्यस्य पुनः प्रश्नविषयकोद्यमविधापनार्थ अत एवोल्लसन्मना युगे युगेऽयनादिप्रमाणं 8. पृच्छति-पंचसंयच्छरिए णं भन्ते ! जगे' इत्यादि, पञ्च संवत्सरा सौरा मानमस्येति पञ्चसंवत्सरिकं युगं, अनेन नोत्तर-18
सूत्रेण दश अयना इत्यादिकेन विरोधः, चन्द्रसंवत्सरोपयोगिनां चन्द्रायणानां तु चतुर्विंशदधिकशतस्य सम्भवात् , तत्र
000000000000000000000soney
ॐeo8Keeceaer
~235
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------------
----- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
वक्षस्कारे नक्षत्राधिकार:सू.
सूत्रांक
[१५४]
दीप अनुक्रम [३००
श्रीजम्बू- मदन्त ! कत्ययनानि प्रज्ञप्तानि?, कियन्त ऋतवः, एवमिति सौत्रं पदं एवं सर्वत्र योजना कार्येत्यर्थाभिव्यञ्जकं, सेन
द्वीपश-कियन्तो मासाः पक्षाः अहोरात्राः कियन्तो मुहूर्ता प्रज्ञताः!, भगवानाह-गौतम! पञ्चसंवत्सरिके युगे दश अयनानि, न्तिचन्द्रीया चिः
प्रतिवर्षमयनद्वयसम्भवात् , एवं त्रिंशतवः प्रत्ययनं ऋतुत्रयसम्भवात् , अत्र सूर्यसंवत्सरषष्ठांश एकपष्टिदिनमानः सूर्य
ऋतुरेव, न तु ऋतुसंवत्सरषष्ठांशः पष्ठिदिनप्रमाणो लौकिकर्तुः, तथा च सति पष्टिर्मासा इत्युत्तरसूत्र विरुणद्धि, तथा ४९५॥ पष्टिर्मासाः सौराः प्रतिऋतु मासद्वयसम्भवात् , एकविंशत्युत्तरं पक्षशतं, प्रतिमासं पक्षद्वयसम्भवात् , अष्टादश शतानि ।
त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणां प्रत्ययनं १८३ अहोरात्रास्ते च दशगुणाः १८३०, मुहूर्ताश्च चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि नव च 18 शतानि प्रत्यहोरात्रं त्रिंशन्मुहूर्ता इति युगाहोरात्राणां १८३० सङ्ख्याङ्कानां त्रिंशता गुणने उकसङ्ख्यासम्भवात् ।।
सकं चन्द्रसूर्यादीनां गत्यादिस्वरूपम् , अथ योगादीन दशार्थान् विवक्षुरिगाथामाहजोगा १ देवय २ तारण ३ गोत्त ४ संठाण ५ चंद्रविजोगा ६ । कुल ७ पुण्णिम अवमंसा य ८ सण्णिवाए ९ अणेता य १० ॥११॥ कति ण भन्ते! णक्खत्ता पं०१, गो! अट्ठावीसं णक्खत्ता पं०, ०-अभिई १ सवणो २ पणिहा ३ सवमिसया ४ पुषभदवया ५ उत्तरभदवया ६ रेवई ७ अस्सिणी ८ भरणी ९ कत्तिा १० रोहिणी ११ मिअसिर १२ अदा १३ पुणवसू १४ पूसो १५ अस्सेसा १६ मघा १७ पुवफग्गुणि ९८ उत्तरफग्गुणि १९ हत्थो २० चित्ता २१ साई २२ विसाहा २३ अणुशहा २४ जिट्ठा २५ मूलं २६ पुषासाढा २७ उत्तरासाढा २८ इति । (सूत्र १५५)
॥४९५॥
JEcri
योग एवं करणस्य नामानि प्रदर्श्यते
~236~
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ........-----...-------------------------------------- मलं [१५५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५५]
गाथा
हा 'जोगो देवय' इत्यादि, योगोऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणा किं नक्षत्रं चन्द्रेण सह दक्षिणयोगि किं नक्षत्रमुत्तरयोगि इत्यादिको
दिग्योगः १ देवताः-नक्षत्रदेवताः २ ताराग्रं-नक्षत्राणां तारापरिमाणं ३ गोत्राणि नक्षत्राणां ४ संस्थानानि नक्षत्राणा ॥1५ चन्द्ररवियोगो-नक्षत्राणां चन्द्रेण रविणा च सह योगः ६, कुलानि-कुलसंझकानि नक्षत्राणि उपलक्षणावुपकुलानि
कुलोपकुलानि च ७ कति पूर्णिमाः कति अमावास्याश्च ८ सन्निपातः-एतासामेव पूर्णिमामावास्यानां परस्परापेक्षया नक्षत्राणां सम्बन्धः ९, चः समुच्चये, नेता-मासस्य परिसमापकत्रिचतुरादिनक्षत्रगणः १०, चः समुच्चये, छायाद्वारं तु नेतृद्वारानुयायित्वेन न पृथक्कृतमिति ॥ अथ चन्द्रस्य नक्षत्रैः सह दक्षिणादिदिग्योगो भवति तेन प्रथमतो नक्षत्रपरिपाटीमाह-'कति णं भन्ते !' इत्यादि, अत्र शब्दसंस्कारा इमे, अभिजित् १ श्रवणः२ धमिष्ठा ३ शतभिषक् ४ पूर्वभद्रपदा ५ उत्तरभद्रपदा ६ रेवती ७ अश्विनीट भरणी ९ कृत्तिका १० रोहिणी ११ मृगशिरः १२ आो १३ पुनर्वसु १४ पुष्यः १५ अश्लेषा १६ मघा १७ पूर्वाफाल्गुनी १८ उत्तराफाल्गुनी १९ हस्तः २० चित्रा २१ स्वातिः २२ विशाखा २३ अनुराधा २४ ज्येष्ठा २५ मूलं २६ पूर्वाषाढा २७ उत्तराषाढा २६, अयं च नक्षत्रावलिकाक्रमोऽश्विन्यादिकं कृत्तिकादिकं या लौकिकं क्रममुलल्य यजिनप्रवचने दर्शितः स युगादौ चन्द्रेण सहाभिजिद्योगस्य प्रथम प्रवृत्तत्वात् , न चात्र बहि मूलोऽभंतरे अभिई' इति वचनादभिजितः सर्वतोऽभ्यन्तरस्थायित्वेन नक्षत्रावलिकाक्रमेण पूर्वमुपन्यास इति वाच्यं, नक्षत्रक्रमनियमे चन्द्रयोगक्रमस्यैव कारणत्वात् न तु सर्वाभ्यन्तरादिमण्डलस्थायित्वस्य अन्यथा षष्ठादिमण्ड
Deaseseaceaesesescenceaeaccess
Sereceneseseseseseseseseisersesed
दीप अनुक्रम [३०१-३०२]
~237
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१५५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५५]]
तरानु-
दक्षिणादि
श्रीजम्य- द्वीपशा- न्तिचन्द्री- या वृत्तिः ॥४९॥
१५६
गाथा
लस्थायिनां कृत्तिकादीनां भरण्यनन्तरमुपन्यासो न स्यात् , अथ यद्यभिजितः प्रारभ्य नक्षत्रावलिकाक्रमः क्रियते तहिर सप्तविंशतिनक्षत्राणामिव कथमस्य व्यवहारासिद्धत्वं', उच्यते, अस्य चन्द्रेण सह योगकालस्यास्पीयस्त्वेन नक्षत्रान्तरानुप्रविष्टतया विवक्षणात्, यदुक्तं समवायाङ्गे सप्तविंशतितमे समवाये-"जम्बुद्दीवे दीवे अभिईवजेहिं सत्तावीसाए णक्ख- योगाधिताहिं सैववहारे वट्टई" एतद्भुत्तिर्यथा-"जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादी अभिजिजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैः व्यवहारः कारः मू. प्रवर्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढाचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति," ॥ अथ प्रथमोद्दिष्टं योगद्वारमाह
एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्यत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणेणं जो जोएंति कयरे णक्खता जे गं सया चंदरस उत्तरेणं जो जोएंति कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेणवि पमपि जोगं जोएंति कयरे णखत्ता जेणं चंदस्स दाक्षिणपि पमपि जो जोएंति कयरे णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स पमई जो जोएंति', गो! एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तरथ जे ते णक्खत्ता जे गं सवा चंदस्स दाहिणेणं जो जोएंति ते गं छ, तंजहा-संठाण १ अह २ पुस्सो ३ ऽसिलेस ४ हत्यो ५ सहेव मूलो अ६ । बाहिरओ बाहिरमंडलस्स छप्पेत णक्सत्ता ॥ १॥ तत्थ पंजे ते णक्यता जे ण सया चन्दस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ते गं बारस, तं०-अभिई सवणो पणिवा सयमिसया पुचभवया उत्तरभदवया रेवइ अस्सिणी भरणी
| ॥४९६॥ पुषाफग्गुणी खत्तराफग्गुणी साई, तरथ गंजे ते नक्सत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणोवि उत्तरमोवि पमपि जोग जोएंति ते णं सत्त, तंजहा-कत्तिा, रोहिणी पुणवसू मघा चित्ता विसाहा अणुराहा, तत्व णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणमोवि पम.
दीप अनुक्रम [३०१-३०२]
000000
ReceA
~238~
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५६]
गाथा
Decemeseseseseeeeeeeeees
दपि जोगं जोएंति, ताओ णं दुवे आसाढाओ सञ्चबाहिरए मंडले जोगं जोअसु वा ३, तत्य गंजे से णक्खत्ते जेणं सया चन्दस्स पमह जोएइ सा गं एगा जेट्ठा इति । (सूत्रं १५६)
'एतेसि ण'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! अष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये कतराणि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनका दक्षिणस्यां दिशि व्यवस्थितानि योग योजयन्ति ?-सम्बन्धं कुर्वन्ति १ तथा कतराणि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्योत्तरस्यां १|| दिशि व्यवस्थितानि योगं योजयन्ति २ तथा कतराणि नक्षत्राणि यानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामप्युत्तरस्यामपि प्रमईमपिनक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनरूपं योग योजयन्ति, केषां नक्षत्रविमानानां मध्येन चन्द्रो गच्छतीत्यर्थः ३ तथा कतराणि नक्षत्राणि थानि चन्द्रस्य दक्षिणस्यामपि प्रमईमपि योग योजयन्ति ४ तथा कतरनक्षत्रं यत् सदा चन्द्रस्य प्रमई योग योजयति ? ५, भगवानाह-गौतम ! एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां दिग्विचारं घूम इति शेषः, तत्र यानि तानीति भाषामात्रे नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणस्यां योग योजयन्ति तानि षट्, तद्यथा-संस्थानमृगशिरः १ आो २ पुष्यः ३ अश्लेषा ४ हस्तः ५ तथैव मूलश्च ६ बहिस्तात् बाह्यमण्डलस्य-चंद्रसत्कपश्चदशमण्डलस्य भवन्ति, कोऽर्थः?-समग्रचारक्षेत्रप्रान्तवर्तित्वादिमानि दक्षिणदिग्व्यवस्थायीनि चंद्रश्च द्वीपतो मण्डलेषु चरन् २ तेषामुत्तरस्थायीति दक्षिणदिग्योगः, ननु 'बहि मूलोऽभंतरे अभिई' इति वचनात् मूलस्यैव बहिश्वरत्वं तधाऽभिजित एवाभ्यन्तरचरत्वं तर्हि कथमत्र पडित्युक्तानि, वक्ष्यमाणेऽनन्तरसूत्रे च द्वादशाभ्यन्तरत इति वक्ष्यते ?, उच्यते, मृगशिर
दीप अनुक्रम [३०३-३०५]
~239~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५६]
द्वीपशा
कार:सू. १५६
गाथा
श्रीजम्बू-18 आदीनो षण्णां समानेऽपि वहिश्चारित्वे मूलस्यैव सर्वतो बहिश्चरत्वं, तेन बहिमूलो इत्युक्तं, तथा अनभ्वरोत्तरसूत्रे वक्ष्यमा-18वक्षस्कारे न्तिचन्द्री
णानां द्वादशानामप्यभ्यन्तरमण्डलचारित्वे समानेऽपि अभिजित एव सर्वतोऽभ्यन्तरवर्तित्वात् 'अभंतरे अभिई इति,81 या वृत्तिः
तत्र यानि तानीति प्राग्वत् नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्योत्तरस्यां योग योजयन्ति तानि द्वादश, तद्यथा-अभिजित्यागाच
श्रवणो धनिष्ठा शतमिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी स्वातिः, यदा 11४९७॥ तैः सह चंद्रस्य योगस्तदा स्वभावाञ्चन्द्रः शेषेष्वेव मण्डलेषु स्यात्, यथा च भिक्षमण्डलस्थायिना चन्द्रेण सह भिन्न-1
मण्डलस्थायिनक्षत्राणां योगस्तथा मण्डलविभागकरणाधिकारे प्रतिपादितं, यतः सदैवतान्युत्तरदिगपस्थितान्येव चन्द्रेण सह योगमायान्तीति, यत्तु समवायाङ्क 'अभिजिआइआ णं णव णक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, अभिई सवणो जाव भरणी' इत्युक्त तनवमसमवायानुरोधेनाभिजिन्नक्षत्रमादौ कृत्वा निरन्तरयोगित्वेन नवानामेव विवक्षिसत्वात्, उत्तरयोगिनामपि पूर्वफाल्गुन्युत्तरफाल्गुनीस्वातीनां कृत्तिकारोहिणीमृगशिरःप्रमुखनक्षत्रयोगानन्तरमेव योगसम्भवात् , तत्र यानि तानि नक्षत्राणि यानि सदा चन्द्रस्य दक्षिणेनापि उत्तरेणापि प्रमईमपि योग योजयन्ति अपिः सर्वत्र परस्परसमुच्चयार्थः तानि सप्त, तद्यथा-कृत्तिका रोहिणी पुनर्वसु मघा चित्रा विशाखा अनुराधा, एतेषां च ॥ विधापि योग इत्यर्थः, यत्तु स्थानानेऽष्टमाध्ययने समवायाङ्गेऽष्टमसमवाये च-'अ णक्खत्ता चंदेण सद्धिं पमई जोग । जोएंति कत्तिा रोहिणी पुनबसु महा चित्ता विसाहा अणुराहा जेवा" इति, तत्राष्टसख्यानुरोधेनैकस्यैव प्रमर्दयोगस्य
दीप अनुक्रम [३०३-३०५]
~240
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१५६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५६]
गाथा
Receceseseeeee Tecemeseccces
। विवक्षितत्वेन ज्येष्ठापि सङ्गृहीता, यत्तु लोकश्रीटीकाकृता उभययोगीतिपदं व्याख्यानयता एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि
चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते कदाचिझेदमपि उपयान्तीति, तच्च वक्ष्यमाणज्येष्ठासूत्रेण सह विरोधीति न प्रमाणं, तथा तत्र ये ते नक्षत्रे सदा चन्द्रस्य दक्षिणतोऽपि प्रमर्दमपि च योगं योजयतस्ते द्वे आषादे-पूर्वाषाढोत्तराषाढारूपे, ते हि प्रत्येक चतुस्तारे, तत्र दे द्वे तारे सर्ववाह्यस्य पञ्चदशस्य मण्डलस्याभ्यन्तरतो दे द्वे बहिः, ततो ये द्वे द्वे तारे | अभ्यन्तरतस्तयोर्मध्येन चन्द्रो गच्छति इति तदपेक्षया प्रमर्दै योगं युंक्त इत्युच्यते, ये तु दे दे तारे बहिस्ते चन्द्रस्य ।
पञ्चदशेऽपि मण्डले चारं चरतः सदा दक्षिणदिग्ब्यवस्थिते ततस्तदपेक्षया दक्षिणेन योगं युंक इत्युक्त, अनेन पाषाशाढाद्वयमपि प्रमर्दयोगिनक्षत्रगणमध्ये कथं नोक्तमिति वदतो निरासः, अनयोर्दक्षिणदिग्योगविशिष्टप्रमर्दयोगस्य सम्भ-15
वादिति, सम्प्रत्येतयोरेव प्रमर्दयोगभावनार्थ किञ्चिदाह-ते च नक्षत्रे सदा सर्वबाह्ये मण्डले व्यवस्थिते चन्द्रेण सह सह योगमयुक्तां युंक्तो योश्यते इति, तथा यत्तन्नक्षत्रं यत् सदा चन्द्रस्य प्रमर्द-प्रमर्दरूपं योगं युनकि एका सा ज्येष्ठा । अथ देवताद्वारमाह
एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्खताणं अमिई णक्खत्ते किंदेवयाए पष्णते?, गो०! बम्हदेवया पण्णत्ते, सपणे णक्षत्ते विण्हु8. देवयाए पण्णते, धणिट्ठा वसुदेवया पण्णता, एए णं कमेणं अश्या अणुपरिवाडी इमाओ देवयाओ-वम्हा विण्हु वसू वरुणे अय
अभिवद्धी पूसे आसे जमे अग्गी पयायई सोमे रहे अदिती वहस्सई सप्पे पिउ भगे अजम सविआ तहा बाउ इंदुग्गी मित्तो इंदे
दीप अनुक्रम [३०३-३०५]
Cersearceaeseseeeeeedcenses
अथ अष्टाविंशति-नक्षत्राण्या: देवताया: नामानि प्रदर्श्यते
~241
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], ------------------- ------------------------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
सूत्रांक
दीपशा
[१५७-१५८]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥४९८॥
गाथा:
नि आत विस्सा य, एवं णक्खत्ताणं एआ परिवाडी अवा जाव उत्तरासाढा किदेवया पण्णता ?, गोभमा ! विस्सदेवया पण्णत्ता वक्षस्कारे (सूत्रं १५७) एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्खताण अभिईणक्खत्ते कतितारे पण्णचे, गोअमा! तितारे पं०, एवं अव्वा जस्स नक्षत्रदेवाः 'जाओ ताराओ, इमं च तं तारगं-तिगतिगपंचगसयदुग दुगवत्तीसगतिगं तह तिगं च । छप्पंचगतिगएकगपंचगतिग IR तारागुं स. छक्कागं चेव ॥१॥ सत्तगदुगदुग पंचग एकेकग पंच चउतिनं चेव । एकारसग चउकं चउकी चेव तारगं ॥२॥ इति (सूत्र १५८) 'एतेसि ण'मित्यादि, एतेषामष्टाविंशतेनक्षत्राणां मध्ये भदन्त ! अभिजिन्नक्षत्र को देवताऽस्येति किंदेवताक प्रज्ञसम्?, अत्र बहुव्रीही कः प्रत्ययः, देवता चात्र स्वामी अधिप इतियावत् यत् तुष्ट्या नक्षत्रं तुष्टं भवति अतुध्या चातुष्टं, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, ननु नक्षत्राण्येव देवरूपाणि तर्हि किं तेषु देवानामाधिपत्यं ?, उच्यते, पूर्वभवार्जिततपस्तारतम्येन तत्फलस्यापि तारतम्यदर्शनात्, मनुष्येष्विव देवेष्वपि सेव्यसेवकभावस्य स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् , यदाह-"सक्कस्स देविंदस्स | देवरण्णो सोमस्स महारण्णो इमे देवा आणाउववायवयणणिद्देसे चिठंति, तंजहा-सोमकाइआ सोमदेवकाइआ विजु-IS कुमारा विज्जुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउकुमारीओ चंदा सूरा गहा णक्खत्ता तारारूवा जे आवण्णे तहप्पगारा सधे ते तब्भत्तिआ तब्भारिआ सकस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारणो आणावयणणिद्देसे चिढ़-18 ॥४९॥ ती"ति, भगवानाह-गौतम ब्रह्मदेवताकं प्रज्ञप्तम् , अत्राशयज्ञो गुरुः सूत्रेऽदृश्यमानत्वात् गूढान्यपि शिष्यप्रश्नानि निर्वचनसूत्रेणैव समाधत्ते, श्रवणं नक्षत्रं विष्णुदेवताकं प्रज्ञप्त, धनिष्ठा वसुदेवता प्रज्ञप्ता, एतेनोकवक्ष्यमाणेन क्रमेण नेतव्या
दीप
अनुक्रम [३०६-३०९]
~242
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७-१५८]
गाथा:
पाठ प्रापणीया भणितव्या इत्यर्थः अनुपरिपाटि-अभिजिदादिनक्षत्रपरिपाट्यनुसारेण देवतानाम्नामावलिका, इमाश्च ||६| हा देवतास्ता:-ब्रह्मा १ विष्णुः२ वसुः ३ वरुणः४ अजः ५ अभिवृद्धिः ६ अन्यत्राहिय्भ इति, पूषा-पूषनामको देवो न || || तु सूर्यपर्यायतेन रेवत्येव पौष्णमिति प्रसिद्धं, अश्वनामको देवविशेषः ८ यमः ९ अग्निः १० प्रजापतिरिति ब्रह्मना-18 ||मको देवा, अयं च ब्रह्मणः पर्यायान् सहते, तेन ब्राहयामित्यादि प्रसिद्धम् ११ सोम:-चन्द्रस्तेन सौम्यं चान्द्रमसमि-18
त्यादि प्रसिद्धम् १२ रुद्रः-शिवस्तेन रौद्री कालिनीति प्रसिद्धं १३ अदितिः देव विशेषः १४ बृहस्पतिः प्रसिद्धः १५ || सर्पः १६ पितृनामा १७ भगनामा देवविशेषः १८ अर्यमा-अर्यमनामको देवविशेषः १९ सविता-सूर्यः २० त्वष्टा| त्वष्ट्रनामको देवस्तेन त्वाष्ट्री चित्रा इति प्रसिद्धं २१ वायुः २२ इन्द्राग्नी २१ तेन विशाखा द्विदेवतमिति प्रसिद्ध, || | मित्रो-मित्रनामको देवः २४ इन्द्रः २५ नैर्ऋत:-राक्षसस्तेन मूल: आस्रप इति प्रसिद्ध २६ आपो-जलनामा देवस्तेन |
पूर्वाषाढा तोयमिति प्रसिद्धं २७ विश्वे देवाखयोदश २८, सूत्रालापकान्तस्थितश्चकारः समुच्चये, एवमभिजित्सूत्रद|र्शितप्रश्नोत्तररीत्या नक्षत्राणां देवा इत्यधिकारतो गम्यम् । एतया-ब्रह्मविष्णुवरुणादिरूपया परिपाट्या न तु परतीर्थि
कप्रयुक्तअश्वयमदहनकमलजादिरूपया नेतच्या-परिसमाप्तिं प्रापणीया यावदुत्तराषाढा किंदेवता प्रज्ञप्ता, गौतम
|| विश्वदेवता प्रज्ञलेति । अथ तारासयाद्वारमाह-एतेसिण'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येs-181 श्रीनम्बू४
भिजिन्नक्षत्रं कति तारा अस्येति कतितारं प्रशप्तम् ।, भगवानाह-गौतम! तिनस्तारा अस्येति त्रितारं प्रज्ञतम्, तारा-18
Befoerseseseseseesebedeseeee
दीप
अनुक्रम [३०६-३०९]
~2434
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७-१५८]
गाथा:
श्रीजम्बू-श्चात्रा -13 चात्र ज्योतिष्कविमानानि, अधिकारान्नक्षत्रजातीयज्योतिष्कानां विमानानीत्यर्थः, न तु पञ्चमजातीयज्योतिष्कास्तारकाः, वक्षस्कारे
नहिं तासां द्वित्रादिविमानैरेकं नक्षत्रमिति व्यवहारः सम्यक्, अन्यजातीयेन समुदायेनान्यजातीयः समुदायीति विरो-नक्षत्रदेवाः न्तिचन्द्री- 1 धात्, विरोधश्चात्र नक्षत्राणां विमानानि महान्ति तारकाणां च विमानानि लघूनि, तथा जम्बूद्वीपे एकशशिनस्तारकाणां ISI
तारागुंस. या इचिः
||१५७-२५८ कोटाकोटीनां षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततिश्चेति या सख्या साऽप्यतिशयीत नक्षत्रसङ्ग्ख्या चाष्टाविं॥४९॥ शतिरूपा मूलत एव समुच्छियेत, ननु तर्हि एतेषां विमानानां केऽधिपाः', उच्यते, अभिजिदादिर्नक्षत्र एव, यथा
कश्चित् महर्द्धिको गृहद्वयादिपतिर्भवति, एवममिजिन्नक्षत्रन्यायेन नेतव्या यस्य नक्षत्रस्य यावत्यस्तारा, इदं च तत्ता-181 राम्र-तारासङ्ख्यापरिमाणं, यथा त्रिकमभिजितः १ त्रिकं श्रवणस्य २ पश्चकं धनिष्ठायाः ३ शतं शतभिषजः ४ द्विकं || पूर्वभद्रपदायाः ५ द्विकमुत्तरभद्रपदायाः ६ द्वात्रिंशद्रेवत्याः ७ त्रिकमश्विन्याः ८ तथा त्रिकं भरण्याः ९, चः समुच्चये, षट् कृत्तिकायाः १० पञ्चकं रोहिण्याः ११ त्रिकं मृगशिरस:१२ एक आर्द्रायाः १३ पञ्चकं पुनर्वस्वोः, यदन्यत्र चतुष्कमाहुस्तन्मतान्तरं १४ त्रिकं पुष्यस्य १५ षटुमश्लेषायाः १६ चैवेति समुच्चये सप्तकं मघायाः १७ द्विकं पूर्वफाल्गुन्याः १८ द्विकमुत्तरफाल्गुन्याः १९ पञ्चकं हस्तस्य २० एकश्चित्रायाः२१ एककः खातेः २२ पश्च विशाखायाः २३ ॥४९९॥ चत्वारः अनुराधायाः २४ त्रिकं ज्येष्ठायाः २५ चैवशब्दः पूर्ववत् एकादशकं मूलस्य २६ चतुष्कं पूर्वाषाढायाः २७ चतुष्कमुत्तराषाढायाः २८ चैवेति तथैव ताराममिति, तारासङ्ख्याकथनप्रयोजनं च यन्नक्षत्रं यावत्तारासंख्यापरि
दीप
eseceaeoccccccccee
अनुक्रम [३०६-३०९]
~244
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ------------------- ------------------------- मूलं [१५७-१५८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५७-१५८]
0000000000000000
" माणकं भवति तत्संख्याकां तिथिं शुभकार्ये वर्जयेत्, शतभिषग्रेवत्योस्तु क्रमेण शतस्य द्वात्रिंशतब तिथिभिर्भागे।
हते यदवशिष्ट तत्प्रमाणा तिथिवर्जनीयेति । अथ गोत्रद्वारम्-इह नक्षत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसम्भवः, यस इदं गोत्रस्य। स्वरूपं लोके प्रसिद्धिमुपागमत्-प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानस्तदपत्यसन्तानो गोत्रं, यथा गर्गस्यापत्यसन्तानो गर्गाभिधानो || गोत्रमिति, न चैवस्वरूपं नक्षत्राणां गोत्रं सम्भवति, तेषामौषपातिकत्वात्, तत इत्थं गोत्रसम्भवो द्रष्टव्यो-यस्मिन्नक्षत्रे शुभैरशुभैवों ग्रहः समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रम शुभमशुभं वा भवति तत्तस्य गोत्र, ततः प्रश्नोपपत्तिः, तत्सूत्रम्एतेसि णं भन्ते ! अट्ठावीसाए णक्खताण अभिई गक्खत्ते किंगोत्ते पं०१, गो०। मोगालायणसगोते, गाधा-मोग्गलायण १ संखायणे २ अ तह अग्गभाव ३ कण्णिले ४ । ततो अ जाउकण्णे ५ वर्णजए ६ चेव बोद्धव्वे ॥ १॥ पुस्सायणे ७ अ अस्सायणे अ८ भगवेसे ९ अ अग्गिवेसे १० अ । गोअम ११ भारहाए १२ लोहिये १३ व वासिढे १४ ॥२॥ ओमज्जायण १५ मंडब्बायणे १६ अ पिंगायणे १७ अ गोवल्ले १८ । कासव १९ कोसिय २० दम्मा २१ य चामरच्छाय २२ सुंगा य २३ ।। ३ ॥ गोवलावण २४ तेगिच्छायणे २५ अ कच्चायणे २६ हवाइ मूले। ततो समझिायण २७ बग्यायो गोत्ताई २८॥४॥ एतेसि णं भन्ते! अट्ठावीसाए णक्वत्ताणं अमिईणक्खत्ते किसंठिए पष्णते?, गोत्रमा! गोसीसावलिसंठिए पं०, गाहा-गोसीसावलि १ काहार २ सउणि ३ पुप्फोबयार ४ वावी य ५-६ । णावा ७ आसक्खंधग ८ भग ९एरघरए १० असगडुद्धी ११ ॥१।। मिगसीसावलि १२ रुहिरबिंदु १३ तुल्ल १४ वद्धमाणग १५ पडागा १६ । पागारे १७ पलिके १८
गाथा:
FO393009390008092000000000000
दीप
अनुक्रम [३०६-३०९]
अथ अष्टाविंशति-नक्षत्राण्या: गोत्राणि-नामानि प्रदर्श्यते
~245
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१५९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५९]
गाथा:
श्रीजम्बू-18 १९ हत्थे २० मुहफुल्लए २१ चेव ॥ २॥ खोलग २२ दामणि २३ एगावली २४ अ गयदंत २५ विच्छुअअले व २६ । गय- वक्षस्कारे द्वीपशा- विकमे २७ अ तत्तों सीहनिसीही अ २८ संठाणा ॥३॥ (सूत्र १५९)
नक्षत्रगोन्तिचन्द्री- 'एतेसि ण' मित्यादि, एतेषामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये भदन्त! अभिजिन्नक्षत्रं किंगोत्रं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! मौद्ग
संस्थाने या वृत्तिः
म.१५९ ल्यायनैः-मौद्गल्यगोत्रीयैः सगोत्रं-समानगोत्रं मौद्गल्यायनगोत्रमित्यर्थः, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, अथाऽभिजितः प्रारभ्य। ॥५०॥ लाघवार्थमत्र गाथा इति, ताश्चेमा:-'मोग्गलायण'मित्यादि, मौद्गल्यायनं १ सात्यायनं २ तथा अग्रभाव ३
| 'कण्णिल'मित्यत्र पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कण्णिलायनमिति गाह्यं ४, ततश्च जातुकर्ण ५ धनञ्जय ६६ हाचैवशन्दः समुच्चये बोद्धव्यम् पुष्यायनं ७ चः समुच्चये आश्वायनं च ८ भार्गवेशं च ९ अग्निवेश्यं च १० गौतम
११ भारद्वाज १२ लौहित्य चैवेति अत्रापि पूर्ववदुपचारे लौहित्यायनं १३ वासिष्टं ,१४ अवमज्जायनं १५ माण्ड४ व्यायनं च १६ पिङ्गायनं च १७ गोवल्लमित्यत्रापि पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् गोवल्लायनं १८ काश्यपं १९४ 18 कौशिकं २० दार्भायनं २१ चामरच्छायनं २२ शुङ्गायनं २३ त्रिवेषु णकारलोपः प्राकृतशैलीप्रभवो गाथावन्धानुलो॥ म्याय, गोलव्यायनं २४ चिकित्सायनं २५ कात्यायनं भवति मूले २६ ततश्च वझियायणनामक वाचव्यायनं २७ च्यामा-III ५००॥ 8| पत्यं २८ चेति गोत्राणि । अथ संस्थानद्वारम्-'एतेसि ण मित्यादि, एतेषा भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां अभिजि-॥8॥
नक्षत्रं कस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, प्रज्ञप्तम्, गौतम! गोशीर्ष तस्यावली-तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिस्त
दीप अनुक्रम
-३१८]
~246
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- ------------------------- मूलं [१५९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५९]
गाथा:
समसंस्थानं प्रज्ञप्तम् , एवं शेषनक्षत्रसंस्थानानि ज्ञेयानि, तानीमानि-अभिजितो गौशीर्षावलिसंस्थानं श्रवणस्य कासारसंस्थानं धनिष्ठायाः शकुनिपजरसंस्थानं शतभिषजः पुष्पोपचारसंस्थानं पूर्वभद्रपदायाः अर्द्धवापीसंस्थानं उत्तरभद्र-18 पदाया अप्यर्द्धवापीसंस्थानं एतदर्द्धवापीद्वयमीलनेन परिपूर्णा वापी भवति तेन सूत्रे वापीत्युक्तं, अतः संस्थानानां न | संख्यान्यूनता विचारणीया, रेवत्या नौसंस्थानं, अश्विन्याः अश्वस्कन्धसंस्थानं, भरण्याः भगसंस्थान, कृत्तिकायाः
क्षुराधारसंस्थानं, रोहिण्याः शकटोद्धिसंस्थानं, मृगशिरसः मृगशीर्षसंस्थान, आर्द्राया रुधिरबिन्दुसंस्थान, पुनर्वस्वोः तुला। संस्थानं, पुष्यस्य सुप्रतिष्ठितबर्द्धमानकसंस्थानं, अश्लेषायाः पताकासंस्थान, मघायाः प्राकारसंस्थान, पूर्वफल्गुन्या
|| अद्धेपल्या संस्थानं उत्तरफल्गुन्या अप्यर्द्धपल्या संस्थानं, अत्रापि अर्द्धपल्याङ्कद्धयमीलनेन परिपूर्णः पल्ययो भवति 18| तेन संख्यान्यूनता न, हस्तस्य हस्तसंस्थान, चित्रायाः मुखमण्डनसुवर्णपुष्पसंस्थान, स्वातेः कीलकसंस्थानं, विशाखायाः॥5॥
दामनि:-पशुरजुसंस्थानं, अनुराधाया एकावलिसंस्थान, ज्येष्ठायाः गजदन्तसंस्थानं मूलस्य वृश्चिकलांगूलसंस्थान, पूर्वो-IIS पाढायाः गजविक्रमसंस्थान, उत्तराषाढायाः सिंहनिषीदनसंस्थानं इति संस्थानानि । अथ चन्द्ररवियोगद्वारम्
एतेसि णं भन्ते! अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं अमिणक्खचे कतिमुहत्ते चन्देण सविंजोग जोपइ ?, गोभमा ! णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्चहिभाए मुटुत्तस्स चन्देण सद्धिं जोगं जोपइ, एवं इमाहिं गाहाहिं अणुगन्त-अनिइस्स चन्दजोगो सत्ताढिखंडिओ अहोरत्तो । ते टुति णव मुहुत्ता सत्तावीस कलाओ अ॥१॥ सयमिसया भरणीभी अहा अस्सेस साइजेडा य । एते उण्ण
SO9960909900000
दीप अनुक्रम
-३१८]
~2474
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू-18
प्रत सूत्रांक [१६०]
द्वीपशा
Dectsesed
॥५०१॥
गाथा:
क्खता पण्णरसमुदुत्तसंजोगा ॥२॥ तिण्णेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एए छण्णक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ७वक्षस्कारे
॥ ३ ॥ अवसेसा णवत्ता पण्णरसवि हुंति तीसइ हुत्ता । चन्दंमि एस जोगो णक्खत्ताणं मुंणेअव्वो ॥४॥ एतेसि णं भन्ते ! नक्षत्रन्तिचन्द्री- अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्यत्ते कति अहोरत्ते सूरेण सद्धिं जोगं जोएइ, गो०! चत्तारि अहोरसे छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि न्द्रसूर्ययोया चिः जोगं जोएड, एवं इमाहि गाहाहि अव्व-अभिई छच मुहुत्ते चत्तारि अ केवले अहोरते। सूरेण समं गच्छा पत्तो सेसाण वो- गकाला पछामि ॥१॥ सयभिसया भरणीओ अहा अस्सेस साइ जेट्ठा य । वञ्चति मुहुत्ते इकवीस छच्चेवऽहोरचे ॥२॥ तिण्णेच
सू.१६. उत्तराई पुणध्वसू रोहिणी बिसाहा य । वच्चंति मुहुत्ते तिणि चेव वीसं अहोरत्ते ॥ ३॥ अवसेसा णक्खता पण्णरसवि सूरस
हगया जंति । बारस चेव मुढचे तेरस य समे अहोरत्ते ॥ ४ ॥ (सूत्र १६०)। __ 'एतेसि ण'मित्यादि, एतेषां च भदन्त ! अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्र कति महान चन्द्रेण सा । योग योजयति?, सम्बन्धं करोतीत्यर्थः, गौतम! नव मुहूर्त्तान् एकस्य च मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिं सप्तषष्टिभागान चन्द्रेण सार्द्ध योग योजयति, कथमेतदवसीयते !, उच्यते, इहाभिजिन्नक्षत्रं सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्यकविंशतिभागान् ।
चन्द्रेण सह योगमुपैति, ते च एकविंशतिरपि भागा मुहूर्त्तगतभागकरणार्थ अहोरात्रे त्रिंशन्मुहर्ता इति त्रिंशता गुण्य- ..... इन्ते जातानि पटू शतानि त्रिंशदधिकानि ६५० एषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा नव मुहर्ता एकस्य मुहर्तस्य सप्तविंशतिः॥ " 1 सप्तषष्टिभागा ९४ अयं च सर्वजघन्यः चन्द्रस्य नक्षत्रयोगकालः, यत्तु श्रीअभयदेयसूरिपादैः समवाया) नवमस
दीप अनुक्रम
[३१९
-३२८]
~248
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
गाथा:
मवाये वृत्ती नव मुहर्त्तान् चतुर्विंशतिं च द्वापष्टिभागानेकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिधा छिन्नस्य षट्षष्टिभागान् | MR यावदस्य चन्द्रयोग उक्तस्तत्तु पूर्णिमाऽमावास्यापरिसमाप्तिकालभाविनक्षत्रपरिज्ञानोपाये उक्कात् पटूपष्टिसंहाः पञ्च || 18|च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिच्छिन्नस्यैकः सप्तषष्टिभाग इत्येवंरूपाद प्रवरावोर्नक्षत्रशोधनाधिकारे।
सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः दुःशोधा इति सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः सवर्णनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते जातं १६७४ एषां सप्लषया भागे हते आगतं २४, एव'मिति यथाऽभिजित एकविंशतिभागेभ्यः समधिकनवमहर्तरूपो योगकाल ||| आनीतस्तथाप्रकारेणेत्यर्थः, इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिगोथाभिरवगन्तव्यं, चन्द्रयोगकालमानमिति गम्य, तद्यथा-अभिजि-||
तश्चन्द्रयोगः सप्तपष्टिखण्डीकृतोऽहोरात्रः कल्प्यते, ते पूर्वोक्ता एकविंशतिभागाः पूर्वोक्तेन करणेन नव मुहर्ताः सप्तविं-॥ 1 शतिश्च कला भवन्ति, तथा शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्ठा, चः समुच्चये, एतानि पटु नक्षत्राणि पश्चदश |
मुहर्त्तान् यावत् चन्द्रेण सह संयोगः-सम्बन्धो येषां तानि तथा, तद्यथा-एतेषां षण्णामपि नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टि-18 । खण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कान् सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशद्भागान् यावञ्चन्द्रेण सह योगो भवति ततो मुहर्तगतसप्तषष्टिभा
गकरणार्थं वयविंशत् त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि नव शतानि नवतानि-नवत्यधिकानि ९९० यदपि चाई तदपि 8 त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिभागास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातः पूर्वराशिः | सहस्रं पश्चोत्तरं १००५, अस्य सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ता इति, तथा तिन उत्तरा:-उत्तरफल्गुनी उ-8
eacReserenesesesesese
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
ese
~249~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६०]
गाथा:
श्रीजम्प-11त्तरापाढा उत्तरभद्रपदा इत्येवंरूपाः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा, चः समुचये, एतानि एवकारस्य भिन्नकमत्वादेतान्येवेति |8|| वक्षस्कारे द्वीपशा-18| योज्यं, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , षट् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशतं मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह संयोगो येषां तानि | नक्षत्रूचन्तिचन्द्री-18 तथा, तद्यथा-अत्रापि पण्णां नक्षत्राणां प्रत्येक सप्तपष्टिखण्डीकृतस्याहोरात्रस्य सत्कानां भागानां शतमेकमेकस्य च भाग-RI
न्द्रसूर्ययो
गकाल शाच स्यार्द्ध चन्द्रेण सह योगस्तत्रैषां भागानां मुहूर्तगतभागकरणार्थ शतं प्रथमतस्त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रीणि सहस्राणि ॥५०॥ पञ्चदशोत्तराणि ३०१५ एतेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता इति, तथा अवशेषाणि-उक्तातिरि
कानि नक्षत्राणि श्रवणो धनिष्ठा पूर्वभद्रपदा रेवती अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघा पूर्वाफाल्गुनी हस्तश्चित्रा नुराधा मूलः पूर्वाषाढा इति पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्तानीति-त्रिंशन्मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमथुवते, तद्यथा-एषां पञ्चदशानां नक्षत्राणां चन्द्रेण सह सम्पूर्णमहोरात्रं यावद्योगस्ततो मुहूर्तगतभागकरणार्थं सप्तषष्टिः त्रिंशता गुण्यते जाते द्वे सहस्र दशोत्तरे २०१० एषां च सप्तषष्ट्या भागे हुते लब्धात्रिंशन्मुहूर्ता इति, चन्द्रे-चन्द्रविषये एष:
अनन्तरोक्तो योगो नक्षत्राणां ज्ञातव्य इति, 'एतानि चाभिजिदर्जानि क्रमेणार्द्धक्षेत्रब्यर्द्धक्षेत्रसमक्षेत्रसंज्ञकानि सिद्धान्ते IS रूढानि, एषां किल चिरन्तनज्योतिःशास्त्रेष्वेवं भुक्तिरासीत् नतु यथाऽधुना सर्वाण्यप्येकदिनभोगानी'ति श्रीमदावश्य- ५०२॥ 18| कबृहदृत्तिटिप्पनके, एषां चोपयोगः "दुन्नि उ दिवद्धखिते दन्भमथा पुत्तला उ कायवा। समखित्तंमि अ इको अवद्ध1 खित्ते न कायवो ॥१॥” इत्यादि । उक्तश्चन्द्रयोगः, अथ रवियोगः- एतेसि णं भन्ते!' इत्यादि, एतेषां भदन्त !
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
poeceneheaereaeesecache
~250
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
गाथा:
IS अष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये अभिजिन्नक्षत्रं कति अहोरात्रान् सूर्येण सार्द्ध योग योजयति ?, गौतम ! चतुरोऽहोरात्रान
षट् च मुहूर्तान, सूर्येण सार्द्ध योग योजयति, कथमिति चेत्, उच्यते, यन्नक्षत्रमहोरात्रस्य यावतः सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सह समवतिष्ठते तन्नक्षत्रं तावत: एकविंशत्यादीनित्यर्थः पञ्चभागान्-रात्रिन्दिवस्य पञ्चमांशरूपान् , तैः पञ्चभिरेक रात्रिन्दिवं भवतीत्यर्थः, सूर्येण समं व्रजति, इदमत्र हृदयं-यस्य नक्षत्रस्य यावंतः सप्तपष्टिभागाश्चन्द्रयोगयोग्यास्ते पञ्च-1॥
भिर्भज्यन्ते, लब्धं तत्पञ्चमभागात्मकमहोरात्रं, शेष त्रिंशता गुणयित्वा पञ्चभिर्भज्यते लब्धं मुहूर्ताः, उक्तंच-" रिक्खं 87 Rell जावइए वच्चइ चन्देण भागसत्तही। तं पणभागे राईदिअस्स सूरेण तावइए ॥१॥"त्ति, तद्यथा-अभिजिन्नक्षत्रमेक
विंशति सप्तपष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्तते ततः एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तनमवसेयम्, एक-131 विंशतेश्च पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाश्चत्वारोऽहोरात्राः, एकः पञ्चमभागोऽवतिष्ठते स मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यते
जाताविंशत्तस्याः पञ्चभिर्भागे हते लब्धाः पट मुहर्ता इति, एवमभिजिच्यायेन शेषनक्षत्राणां सूर्ययोगकालप्ररूपणं हा 8 इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिर्नेतव्यं, तत्राभिजिन्नक्षत्रं षण्मुहूर्तान् चतुरश्च केवलान्-परिपूर्णान् अहोरात्रान् सूर्येण सम !!
गच्छति, अत्रोपपत्तिः प्रथमत एव कृता, अथ ऊर्ध्व शेषाणां नक्षत्राणां सूर्येण समं योगान् कालपरिमाणमधिकृत्ये|ति गम्यं वक्ष्यामि, तथाहि-शतभिषक् भरणी आर्द्रा अश्लेषा स्वातिः ज्येष्ठा चेत्येतानि षट् नक्षत्राणि प्रत्येक सूर्येण | समं ब्रजन्ति मुहूर्तानेकविंशति पटू चाहोरानानिति, तद्यथा-एतानि नक्षत्राणि चन्द्रेण समं सार्द्धान् त्रयस्त्रिंशत्-18
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
~251
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१६०
न
गकालः
गाथा:
बीजम्-18 संख्यान सप्तषष्टिभागान् ब्रजन्ति, तत एतावतः पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजन्तीति प्रत्येक प्रागुक्तकरण-18
वक्षस्कारे 8 प्रामाण्यात् त्रयस्त्रिंशतश्च पञ्चभिर्भागे लब्धाः षट् अहोरात्राः शेषाः सा खयः पञ्चभागास्ते सवर्णनाया जाताः सप्त
8 ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जाते वे शते दशोत्तरे २१० तेषां परिपूर्णमुहूर्तानयनाय दशभिर्भागो हियते लब्धा 8 या वृधिः एकविंशतिर्मुहूर्ता इति, तथा तिन उत्तराः-उत्तरभद्रपदा उत्तरफाल्गुनी उत्तराषाढा इत्वेवंरूपाः पुनर्वसू रोहिणी वि
सू. १६० ॥५०॥ शाखा च एतानि षट् नक्षत्राणि सूर्येण समं ब्रजन्ति मुहूर्तान् त्रीण्येव विंशतिं चाहोरात्रानिति, तद्यथा-एतानि षट् ।
नक्षत्राणि चन्द्रेण समं सप्तषष्टिभागानां शतमेकमेकस्य च भागस्या मेकं प्रत्येकं व्रजन्ति, ततः एतावतः पञ्चभागाशनहोरात्रस्य सूर्येण समं ब्रजनमवगन्तव्यम् , तेन शतस्य पञ्चभिर्भागे हुते लब्धा विंशतिरहोरात्राः, यद तत् त्रिंशता
गुण्यते जातास्त्रिंशत् तस्या दशभिर्भागे हृते लब्धास्त्रयो मुहूर्ता इति, तथा अवशेषाणि-श्रवणधनिष्ठापूर्वभद्रपदारेवत्यश्विनीकृत्तिकामृगशिरःपुष्यमघापूर्वफल्गुनीहस्तचित्राअनुराधामूलपूर्वाषाढारूपाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि सूर्येण सहगतानि यान्ति द्वादशैव मुहूर्तान् त्रयोदश च समान्-परिपूर्णानहोरात्रानिति, तद्यथा-एतानि परिपूर्णान् सप्तपष्टिभागान् । चन्द्रेण समं ब्रजन्ति, ततः सूर्येण सह तानि पञ्चभागान् अहोरात्रस्य सप्तषष्टिसंख्यान गच्छन्ति, सप्तषष्टेच पञ्चभि-15
॥५०॥ भांगे हते लब्धास्त्रयोदश अहोरात्राः शेषौ द्वौ भागौ तौ त्रिंशता गुण्येते जाता षष्टिः तस्याः पञ्चभिर्भागे हते लब्धा द्वादश मुहूर्ता इति, अत्र च प्रसङ्गसङ्गत्या सूर्ययोगदर्शनतश्चन्द्रयोगपरिमाणं यथा जायते तथा दर्यते ज्योतिष्कर-ग
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
Resisesesecacacae
~252
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६०] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
गाथा:
ण्डोक्तं-'णक्खत्तसूरजोगो मुहुत्तरासीकओ अ पञ्चगुणा । सत्तट्ठीऍ विभत्तो लदो चन्दस्स सो जोगो॥१॥' नक्षत्राणाअवादीनां यः सर्येण सह योगः स मुहूर्तराशीक्रियते कृत्वा च पञ्चभिर्गुण्यते ततः सप्तपट्या भागे हते सति यल्लब्ध । स चन्द्रस्य योगः, इयमत्र भावना-कोऽपि शिष्यः पृच्छति, यत्र सूर्यः षट् दिवसान एकविंशतिं च मुहूर्तान् अवति-|| छते तत्र चन्द्रः कियन्तं कालं तिष्ठतीति, तत्र मुहूर्तराशिकरणार्थ षट् दिवसास्त्रिंशता गुप्यन्ते गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं सहस्रं १००५, तस्य
सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धाः पश्चदश मुहतोंः, एतावान क्षेत्राणां प्रत्येकं चन्द्रेण समं योगः, एवं समक्षेत्राणां व्यर्द्धक्षे॥ वाणामभिजितश्च चन्द्रेण समं योगो ज्ञेय इति । अथ कुलद्वारम्
कति णं भन्ते! कुला कति उपकुला कति कुलोवकुला पण्णता?, गो०! बारस कुला वारस उपकुला चत्तारि कुलोचकुला पण्णता, चारस कुला, तंजहा-धणिट्ठाकुलं १ उत्तरभदवयाकुलं । अस्सिणीकुल ३ कत्तियाकुल ४ मिगसिरकुलं ५ पुस्मो कुल ६ मघाकुलं ७ उत्तरफागुणीकुलं ८ चित्ताकुलं ९ विसाहाकुलं १० मूलो कुलं ११ उत्तरासाटाकुलं १२ । मासाणं परिणामा होति कुला उवकुला उ हेडिमगा। होति पुण कुलोवकुला अभीभिसय अह अणुराहा ॥ १॥ वारस उनकुला तं०-सवणो अवकुलं १ पुष्षभदवया उवकुलं रेवई उवकुलं भरणीउबकुलं रोहिणीउवकुलं पुणबसू उवकुलं अस्सेसा उपकुलं पुब्वफग्गुणी उवकुलं हत्थो उवकुलं साई उपकुलं जेहा उपकुलं पुव्वासाढा उवकुलं । चत्तारि कुलोवकुला, तंजहा-अभिई कुलोचकुला सथमिसया कुलोवकुला
दीप अनुक्रम [३१९-३२८]
JaEartTRI
'कुल-उपकुल-कुलोपकुल' प्ररुपणा
~253
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- .-----.-..-...------------ मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
acroececee
ध्यक्षस्कारे कुलादिपूर्णिमामावासासू १६१
॥९०४॥
अहा कुलोबकुला अणुराहा कुलोवकुला | कति णं भन्ते ! पुणिमाओ कति अमावासाओ पण्णत्ताओ?, गोअमा! वारस पुण्णिमाओ वारस अमावासाओ पं०, ०-साविट्ठी पोडवई आसोई कत्तिगी मम्गसिरी पोसी माही फग्गुणी चेत्ती वइसाही जेवामूली आसादी, साविहिणि भन्ते! पुणिमासि कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ?, गो०! तिणि णक्खत्ता जोगं जोएंति, सं०-अभिई सवणो धणिवा ३। पोहवईणि भंते ! पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति ?, गोमा ! तिणि णक्खत्ता जोएंति, तं०-सथमिसया पुब्वभवया उत्तरभदयया, अस्सोइणि भंते! पुण्णिम कति णक्खत्ता जोगं जोएंति १, गोभमा! दो जोएंति सं०-रेवई अस्सिणी अ, कत्तिइण्णं दो-भरणी कत्तिा य, मग्गसिरिणं दो-रोहिणी मगासिरं च, पोर्सि तिण्णि-अद्दा पुणबसू पुस्सो, माधिof दो-अस्सेसा मघा य, फग्गुणि णं दो-पुवाफग्गुणी य उत्तराफरगुणी य, चेत्तिण्णं दो-हत्थो चित्ता य, बिसाहिण दो-साई विसाहा च, जेट्टामूलिण्णं तिण्णि-अणुराहा जेट्ठा मूलो, आसाढिणं दो-पुब्वासाढा उत्तरासादा । साविट्टिणं भन्ते ! पुणिमं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएर कुलोवकुलं जोएइ ?, गो०! कुल वा जोएइ उवकुलं वा जोपइ कुलोचकुलं वा जोपड, कुलं जोएमाणे धणिहा णक्खत्ते जोएइ उपकुलं जोएमाणे सवणे णखत्ते जोएइ कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ, साविठ्ठीपणं पुण्णिमासि णं कुलं वा जोएइ जाव कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुता कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविही पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तब्वं सिआ, पोद्दवदिण्णं भंते ! पुणिमं किं कुलं जोएइ ३ पुच्छा, गो! कुलं वा उपकुलं या कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरभद्दवया णक्खत्ते जोएइ उ० पुखभदयया० कुलोव० सयभिसया० णक्यत्ते जोपड, पोढवइण्णं पुणिम कुलं वा जोण्ड जाव कुलोवकुलं बा जोएड कुलेण वा जुत्ता जाव कुलोबकुलेण वा जुत्ता पोहबई पुण्णमासी
ece6SE
॥५०४॥
~254
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
जुत्तत्तिवत्त सिया, अस्सोइण्णं भन्ते! पुच्छा, गोकुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ णो लब्भइ कुलोवकुलं, कुल जोएमाणे अस्सिणीणखत्ते जोएइ उबकुलं जोएमाणे रेवइणक्खत्ते जोरइ, अस्सोइण्णं पुष्णिम कुलं वा जोएइ उबकुलं वा जोएइ कुलेण का जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्तिवत्तव्वं सिआ, कत्तिइण्णं भंते! पुण्णिमं किं कुलं ३ पुच्छा, गो! कुलं वा जोएइ उपकुलं वा जोएर णो कुलोबकुलं जोपद, कुलं जोएमाणे कतिभाणक्खत्ते जोएइ उव० भरणी कत्तिइण्णं जाव बत्तव्यं, मग्गसिरिणं भंते ! पुणिर्म किं कुलं तं चेव दो जोएर णो भवइ कुलोवलं, कुलं जोएमाणे मग्गसिरणक्खत्ते जोएन उ० रोहिणी मग्गसिरणं पुणिमं जाव वत्तवं सिआ इति । एवं सेसिआभोऽवि जाय आसादि, पोसिं जेवामूलिं च कुलं वा उ० कुलोवकुलं या, सेसिआणं कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं ण भण्णइ । साविद्विष्णं भते! अमावासं कति णक्खता जोएंति ?, गो! दो णक्सत्ता जोयंति, तं०-अस्सेसा य महा य, पोहबइण्णं भंते ! अमावासं कति णवत्ता जोएंति ?, गोअमा! दो पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी अ, अस्सोइण्णं भंते ! दो-हत्थे चिसा य, कतिइण्णं दो-साई विसाहा य, मग्गसिरिणं तिण्णि-अणुराहा जेट्ठा मूलो अ, पोसिणि दो-पुब्बासाढा उत्तरासाढा, माहिणं तिष्णि-अभिई सत्रणो धणिडा, फग्गुणि तिण्णि-सयभिसया पुत्रभवया उत्तरभद्दवया, चेत्तिण्णं दो-रेवई अस्सिणी अ, वइसाहिणं दो-भरणी कत्तिा य, जेट्टामूलि दो-रोहिणी मग्गसिरं च, आसाढिपणं तिण्णि-अद्दा पुणब्वसू पुस्सो इति । साविहिष्णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवकुल जोएइ, गो०! कुलं वा जोइए आपकुलं या जोएइणो लम्भइ कुलोवकुलं, कुलंजोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उपकुलंजोएमाणे अरसेसाणक्खत्ते जोएइ, साविद्विगं अमावासं कुल वा जोएइ उपकुलं या जोएइ, कुलेग वा जुत्ता उबकुलेग वा जुत्ता साविट्ठीअमावासा जुत्तत्ति
2020393020302000
श्रीजम्मू. ८५
~255
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------ ---------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
992e0ae
श्रीजम्बू- वत्तव्यं सिजा, पौढवईण्ण भंते! अमावास तं चेव दो जोएइ कुलं वा जोएड सबकुलं०, कुलं जोएमाणे उत्तराफरगुणीणक्खत्ते वक्षस्कारे
जोएर उन० पुरुषाफरगुणी, पोहवइणं अमावासं जाय बत्तन्वं सिआ, मग्गसिरिणं तं व कुलं मूले णक्खत्ते जोएड उ० जेट्ठा कुलादिपून्तिचन्द्री
कुलोबकुल अणुराहा जाव जुत्तत्तिवत्तव्यं सिआ, एवं माहीए फग्गुणीए आसाढीए कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं या, अवसेसिआण र्णिमामाया वृत्तिः कुलं वा उपकुलं वा जोएइ ।। जया णं भन्ते ! साविट्टी पुणिमा भवइ तया णं माही अमावासा भवइ ?, जया णं भन्ते ! माही
हवासाःम. ।।५०५।।
पुणिमा भवइ तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ ?, हता! गो०! जया साविट्ठी तं चैव वत्तव, जया णं भन्ते ! पोट्ठबई पुणिमा भवइ तया णं फरगुणी अमावासा भवइ जया णं फग्गुणी पुणिमा भवइ तथा णं पोट्ठबई अमावासा भवद, हता! गोभमा ! तंव, एवं एतेणं अभिलावेणं इमामो पुणिमाओ अमावासाओ अत्राओ-अस्सिणी पुणिमा चेत्ती अमावासा कत्तिगी पुण्णिमा वइसाही अमावासा मम्गसिरी पुण्णिमा जेट्ठामूली अमावासा पोसी पुण्णिमा आसाढी अमावासा (सूत्र १६१) 'कति णं भन्ते ! कुला'इत्यादि, कति भदन्त ! कुलानि-कुलसंज्ञकानि नक्षत्राणि तथा कति उपकुलानि तथा कति कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि?, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशःप्राकृतत्वात् , भगवानाह-गौतम! द्वादश कुलानि द्वादश उपकुलानि चत्वारि |
कुलोपकुलानि प्रज्ञप्तानि, तत्र द्वादश कुलानि, तद्यथा-धनिष्ठा कुलं उत्तरभद्रपदा कुलं अश्विनी कुलं कृत्तिका कुलं ॥५०५॥ 18 मृगशिरः कुलं पुष्यः कुलं मघा कुलं उत्तरफल्गुनी कुलं चित्रा कुलं विशाखा कुलं मूल: कुलं उत्तराषाढा कुलं, अथ किं कुला
दीनां लक्षणं ?, उच्यते-मासानां परिणामानि-परिसमापकानि भवन्ति कुलानि, कोऽर्थः ?-इह यैर्नक्षत्रैः प्रायो मासानां ||
~256
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ---------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
! परिसमाप्तय उपजायन्ते माससदृशनामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि, तद्यथा-श्राविष्ठो मासः प्रायः
श्रविष्ठया धनिष्ठापरपर्यायया परिसमाप्तिमुपैति भाद्रपदः उत्तरभद्रपदया अश्वयुक् अश्विन्या इति, अविष्ठादीनि प्रायो 18मासपरिसमापकानि माससह शनामानि, प्रायोग्रहणादुपकुलादिभिरपि नक्षत्रैमासपरिसमाप्तिर्जायते इत्यसूचि, कुला
|नामधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि उपकुलानि कुलानां समीपमुपकुलं तत्र वतन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुप18| कुलानीति व्युत्पत्तेः, यानि कुलानामुपकुलानां चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि, अभिजिदादीनि द्वादशोपकलानि. 18| तद्यथा-श्रवणः उपकुलं पूर्वभद्रपदा उपकुलं रेवती उपकुलं भरणी उपकुलं रोहिणी उपकुल. पुनर्वसू उपकुलं अश्लेषा | 18| उपकुलं पूर्वाफाल्गुनी उपकुलं हस्तः उपकुलं स्वातिः उपकुलं ज्येष्ठा उपकुलं पूर्वाषाढा उपकुलं, चत्वारि कुलोपकुलानि 18 तद्यथा-अभिजित् कुलोपकुलं शतभिषक् कुलोपकुलं आर्द्रा कुलोपकुलं अनुराधा कुलोपकुलं, कुलादिसंज्ञाप्रयोजनं तु
'पुर्वेषु जाता दातारः, संग्रामे स्थायिनां जयः। अन्येषु त्वन्यसेवार्ता, यायिनां च सदा जयः ॥१॥ इत्यादि । अथ R पूर्णिमामावास्याद्वारम्-'कति णं भन्ते !'इत्यादि, कति भदन्त ! पूर्णिमा:-परिस्फुटषोडशकलाकचन्द्रोपेतकालवि-18 | शेषरूपाः, पूर्णेन चन्द्रेण निर्वृत्ता इति व्युत्पत्तेः 'भावादिमः' (श्रीसिद्ध० ६-४-२१) इतीममत्यये रूपसिद्धिः, तथा 18 | कति अमावास्या:-एककालावच्छेदेनैकस्मिन्नक्षत्रे चन्द्रसूर्यावस्थानाधारकालविशेषरूपाः, अमा-सह चन्द्रसूयौं बसतो-18 ऽस्यामिति व्युत्पत्तेः, औणादिकेऽप्रत्यये स्त्रीलिङ्गे डीप्रत्यये च रूपसिद्धिः, प्रज्ञप्ताः, गौतम! जातिभेदमधिकृत्य द्वादश
~257
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- ---------------------------- मल [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू- ॥ पूर्णिमाः द्वादश अमावास्याः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-श्रविष्ठा-धनिष्ठा तस्यां भवा श्राविष्ठी-श्रावणमासभाविनी प्रौष्ठपदा-18 वक्षस्कारे
द्वीपशा-उत्तरभद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदी-भाद्रपदभाविनी अश्वयुग-अश्विनी तस्यां भवा आश्वयुजी-आश्विनेयमासभाविनी, कुलादिपून्तिचन्द्री- एवं कार्तिकी मार्गशीपी पौषी माघी फाल्गुनी चैत्री वैशाखी ज्येष्ठामूली आषाढी इति, प्रश्नसूत्रे पूर्णिमामावास्ययो- र्णिमामाया वृत्तिः अदेन निर्देशेऽपि उत्तरसूत्रे यदभेदेन निर्देशस्तन्नामैक्यदर्शनार्थ, तेनामावास्या अपि श्राविष्ठी प्रौष्ठपदी आश्वयु जी इत्या
10 वाखाः मू.
१६१ ॥५०६॥ दिभिर्व्यपदेश्याः, ननु आविष्ठी पूर्णिमा अविष्ठायोगाद्भवति, अमावास्या तु श्राविष्ठी न तथा, अत्या अश्लेषामघा
योगस्य भणिष्यमाणत्वात् , उच्यते, श्राविष्ठी पूर्णिमा अस्वेति श्राविष्ठः-श्रावणमास: तस्येयं श्राविष्ठी श्रावणमासभा-10 विनीत्यर्थः, एवं प्रौष्ठपद्यादिप्यमावास्यासु वाच्यं । सम्प्रति यैनक्षत्रैरेकैका पौर्णिमासी परिसमाप्यते तानि पिपृच्छिषुराह'सावहिणं भन्ते !' इत्यादि, श्राविष्ठी पौर्णमासी भदन्त ! कति नक्षत्राणि योगं योजयन्ति-योगं कुर्वन्ति ?, कति नक्ष-18 बाणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! त्रीणि नक्षत्राणि योग योजयन्ति, त्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्ति, तद्यथा-अभिजित् श्रवणो धनिष्ठा, इह श्रवणधनिष्ठारूपे द्वे एव नक्षत्रे श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयतः, पञ्चस्वपि युगभाविनीषु पूर्णिमासु काप्यभिजितः परिसमापकादर्शनात्, केवलम-RIMEn भिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्तं, किच-सामान्यत इदं श्राविष्ठीसमापकनक्षत्रदर्शन ज्ञेयं, पञ्चस्वपि श्राविष्ठीषु पूर्णिमासु का पूर्णिमा किं नक्षत्रं कियत्सु मुहूर्तेषु कियत्सु भागेषु कि यत्सु प्रतिभागेषु च गतेषु ।
Oceae
~258~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
गम्येषु च परिसमापयतीति सूक्ष्मेक्षिकादर्शनार्थ स्विदं प्रवचनप्रसिद्ध करणं भावनीयं-'नाउमिह अमावासं जइ इच्छसि कमि होइ रिक्खंमि! | अवहारं ठावेज्जा तत्तिअरूवेहिं संगुणिए ॥१॥ याममावास्यामिह युगे ज्ञातुमिच्छसि यथा | कस्मिनक्षत्रे वर्तमाना परिसमाप्ता भवतीति, यावद्रूपैर्यावत्यो अमावस्या अतिक्रान्तास्तावत्या सङ्ख्यया इत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपमवधार्यते-प्रथमतया स्थाप्यते इत्यवधार्यो-ध्रुवराशिः तमवधार्यराशिं पट्टिकादौ स्थापयित्वा सङ्गणयेत्र | अथ किंप्रमाणोऽसावधार्यराशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्थमाह-'छावट्ठी य मुहुत्ता बिसद्विभागा य पंच पडिपुण्णा ।। बासट्ठिभागसत्तदिगो अ एक्को हवाइ भागो ॥२॥ षट्पष्टिमुहर्ता एकस्य च मुहर्तस्य पञ्च परिपूर्णा द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टितमो भाग इत्येतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथमेतावत्प्रमाणस्योत्पत्तिरिति |चेत्, उच्यते, इह यदि चतुर्विंशत्यधिकेत पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्यायाः लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं 1 लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-१२४ । ५।२ अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकलक्षणो गुण्यते |
जाता दश तेषां च चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योर्द्वि केनापवर्तना जात उपरितनश्छेद्यो ।
राशिः पञ्चकरूपोऽधस्तनो द्वापष्टिरूपः लब्धाः पञ्च द्वापष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टा18 दशभिस्त्रिंशदधिकः शतैः सप्तषष्टिभागरूपैः गुण्यन्ते जातानि एकनवतिः शतानि पश्चाशदधिकानि ९१५०, छेदरा
शिरपि द्वापष्टिप्रमाणः सप्तपश्या गुण्यते जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, उपरितनराशिM
eese
~259~
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू- नयनाय भूयस्त्रिंशता गुण्यते, जाते द्वे लक्षे चतुःसप्ततिसहस्राणि पचं शतानि २७४५००, तेषा चतुष्पंचाशदधि- वक्षस्कारे
द्वीपशा- कैकचत्वारिंशच्छतैर्भागहरणं लब्धाः षट्षष्टिर्मुहूर्ताः ६६ शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि ३३६ । कुलादिपून्तिचन्द्री
र्णिमामाततो द्वापष्टिभागानयनाथै तानि षष्ट्या गुण्यन्ते जातानि विंशतिसहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि २०८३२, या वृचिः
वाखा:मू. तेषामनन्तरोक्तच्छेदराशिना ४१५४ भागो हियते लब्धाः पंच द्वापष्टिभागाः ५ शेषास्तिष्ठन्ति द्वापष्टिः ततश्चास्या ५०७॥ द्वाषष्टया अपवर्तना क्रियते जात एकः छेदराशेरपि द्वाषष्टयाऽपवर्त्तनाया जाता सवषष्टिः, तत आगतं षट्षष्टिर्मुहूर्ता
एकस्य च मुहर्तस्य पंच परिपूर्णा द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधार्य-181 | राशिप्रमाणं, सम्प्रति शेषविधिमाह-एअमवहाररासिं इच्छअमावाससंगुणं कुज्जा । णक्खत्ताणं इत्तो सोहणगविहिं। || निसामेह ॥ ३॥ एनं-अनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिच्छामावास्यासंगुण-याममावास्यां ज्ञातुमिच्छति तत्संगुणितं ॥3॥ कुर्यात्, अत ऊध्वं च नक्षत्राणि शोधनीयानि ततोऽत ऊर्च नक्षत्राणां शोधनकविधि-शोधनप्रकारं वक्ष्यमाणं निशा-१ मयत-आकर्णयत । तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-'बावीसं च मुहुत्ता छायालीसं बिसविभागा य । एवं पुणव-19
IR५०७॥ ॥ सुस्स य सोहेअब हवइ पुण्णं ॥४॥' द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः एतत्-18
एतावत्प्रमाणं पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति शोद्धव्यं, कधमेवंप्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्, उच्यते, | यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एक पर्वातिकम्य कति पर्यायास्तेनैकेन पर्वणा
eace
~260
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
39009829202
लभ्यन्ते , राशित्रयस्थापना १२४-५-१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते जाताः पश्चैव, ISI 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्च चतुर्विंशत्यधिकशतभागा, ततो नक्षत्रानयनाय एतेऽष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागरूपैर्गुणयितव्या इति गुणकाररा| शिच्छेदराश्योर्द्विकेनापवर्त्तना जातो गुणकारराशिः नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ९१५ छेदराशिषिष्टिः, तत्र पञ्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यंते जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ४५७५ छेदराशिपष्टिलक्षणः सप्तषष्ट या गुण्यते जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि ४१५४, तथा पुष्यस्य त्रयोविंशतिभागाः प्राक्त-10 नयुगधरमपर्वणि सूर्येण सह योगमायान्ति ते द्वाषष्टया गुण्यन्ते जातानि चतुर्दश शतानि पइविंशत्यधिकानि १४२६, तानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चचत्वारिंशत्प्रमाणात् शोध्यन्ते, शेष तिष्ठति एकत्रिंशच्छतानि एकोनपश्चाशद-10 धिकानि ३१४९,एतानि मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि |९४४७० तेषां छेदराशिना चतुष्पञ्चाशदधिकचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहुर्ताः शेष तिष्ठ-18 ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि ३०८२, एतानि द्वापष्टिभागानयनाथं द्वाषट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं एक-1, नवतिसहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि १९१०८४, तेषां छेदराशिना ४१५४ भागो हियते लब्धाः षट्चत्वारिंशत् मुहूत्र्तस्य है। द्वापष्टिभागाः एषा पुनर्वसुनक्षत्रशोधनकनिष्पत्तिः। अथ शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-बावत्तरं सर्य फग्गुणीण बाणउ-181
~261
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Tara
श्रीजम्बू- वे बिसाहासु । चत्तारि अ बायाला सोज्झा तह उत्तरासाढा ॥५॥' द्वासप्ततं-द्वासप्तत्यधिकं शतं फल्गुनीनां- वक्षस्कारे द्वीपशा- उत्तरफल्गुनीनां शोध्यं, किमुक्तं भवति?-द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीनि उत्तरफल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि कुलादिपून्तिचन्द्र- शोध्यन्ते, एवमुत्तरत्रापि भावार्थो भावनीयः, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वे शते विनवत्य-18-णमामाया वृत्तिः |धिक २९२, अथानन्तरमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राण्यधिकृत्य शोध्यानि-चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि ४४२ ॥४॥
| वाखाः स्. ५०८॥ 'ए पुणवसुस्स य बिसद्विभागसहिअं तु सोहणगं । एत्तो अभिईआई बीअं बोच्छामि सोहणगं ॥६॥ एतद्-अन
स्तरोत शोधनकं सकलमपि पुनर्वसुसस्कद्वापष्टिभागसहितमवसेयं, एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविंशतिर्महास्ते 21 | सर्वेऽपि उत्तरस्मिन् २ शोधनके अन्तःप्रविष्टा वर्तन्ते न तु द्वापष्टिभागास्ततो यत् यत् शोधनकं शोध्यते तत्र तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः उपरितनाः शोधनीया इति, एतच्च पुनर्वसुप्रभृति उत्तराषाढापर्यन्तं प्रथम
शोधनकं, अत ऊर्ध्वमभिजितमादिं कृत्वा द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि, तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-'अभिइस्स नवर ॥|| मुहुत्ता बिसद्विभागा य होति चउवीसं । छावट्ठी य समत्ता भागा सत्तहिछे अकया ॥७॥ इगुण? पोडक्या तिसु चेष
नयोत्तरेसु रोहिणिआ। तिसु णवणवएसु भवे पुणवसू फग्गुणी ओ अ॥८॥ पंचेव इगुणवन्नं सयाई इगुणत्तराई ॥५०८॥ छच्चेव । सोज्झाणि विसाहासु मूले सत्तेव चोआला ॥९॥ अट्ठसय इगूणवीसा सोहणगं उत्तराण साढाणं । चउबीस र खलु भागा छावडी चुण्णिआओ अ॥१०॥' अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकं नव मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सत्का
~262
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्चतुर्विंशतिषिष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपष्टिच्छेदकृताः परिपूर्णाः षट्षष्टिभागाः, तथा एकोनषष्ट-एकोन-11 षष्ट्यधिकं शतं प्रोष्ठपदानां-उत्तरभद्रपदानां शोधनकं, किमुक्तं भवति -एकोनषष्यधिकेन शतेनोत्तरभद्रपदापर्यन्तानि | नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावनीयं, तवा त्रिषु नवोत्तरेषु रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धयन्ति, तथा त्रिषु नवनवतेषु-1 नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्र ज्ञातं शुक्ष्यति, तथा एकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राच्यफाल्गुन्युत्तरफल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, तथा विशाखासु-विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु एकोनसप्तत्यधिकानि | षट् शतानि ६६९ शोध्यानि, मूलपर्यन्ते नक्षत्र जाते सप्त शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि ७४४ शोध्यानि, उत्तराषाढा-18 नां-उत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोधनकै अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि ८१९, सर्वेष्यपि च शोधनकेषु उपरि १ अभिजितो नक्षत्रस्य सम्बन्धिनो मुहर्तस्य द्वापष्टिभागाश्चतुर्विंशतिः पट्षष्टिश्च चूर्णिकाभागा एकस्य द्वापष्टिभागस्य | | सप्तपष्टिभागाः शोधनीयाः, 'एआई सोहइत्ता जं सेसं तं हवइ णक्खत्तं । इत्थं करेइ उडवइ सूरेण समं अमावास ४॥ ११॥ एतानि-अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्र, एतस्मिंश्च
नक्षत्रे करोति सूर्येण समं उडुपतिरमावास्यामिति करणगाथासमूहाक्षरार्थः, भावना त्वियं-केनापि पृच्छयते-युगस्यादी | 18 प्रथमा अमावास्या केन नक्षत्रेणोपेता समाप्तिमुपैतीति ?, तत्र पूर्वोदितस्वरूपोऽवधार्यराशिः पट्पष्टिर्मुराः पञ्च द्वाप-1 18ष्टिभागाः एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपधिभाग इत्येवंरूपो भियते, धृत्वा चैकेन गुण्यते, प्रथमायाः अमावा
ceoececen
~263
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्प-118| स्थायाः पृष्टत्वात्, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः, ततस्तस्माद् द्वाविंशतिर्मुहुर्ताः एकस्य च || वक्षस्कारे द्वापशा-18 मुहर्तस्य षट्चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा इत्येवंरूपं पुनर्वसु शोध्यते, तत्र षट्पष्टिमुहूर्तेभ्यो द्वाविंशतिर्मुहर्ता शुद्धाः स्थिताः181
|कुलादिपून्तिचन्द्रीया वृत्तिः | पश्चात् चतुश्चत्वारिंशत् ४४, तेभ्य एकं मुहूर्तमपकृष्य तस्य द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते कृत्वा च ते द्वापष्टिभागराशिमध्ये 8 णिमामा
बाखाः. प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिः तेभ्यः षट्चत्वारिंशच्छुद्धाः शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः, त्रिचत्वारिंशतो मुहूर्तेभ्यखिंयाता मुहूर्तः ॥
१६१ ॥५०९॥18 पुष्यः शुद्धः, पश्चात् त्रयोदश मुहूर्ताः, अश्लेषानक्षत्रं चार्द्धक्षेत्रमिति पञ्चदशमुहूर्त्तप्रमाण, तत इदमागत-अश्लेषानक्षत्रस्यै-18
कस्मिन् मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिधाच्छिन्नस्य पट्पष्टि| भागेषु शेषेषु प्रथमामावास्यासमाप्तिमुपगच्छतीति, एवं सर्वास्वप्यमावास्यासु करणं भावनीयम् । अत्र पूर्णिमाप्रक्रमे
यदमावास्याकरणमुक्त तत्करणगाथानुरोधेन युगादावमावस्यायाः प्राथम्येन क्रमप्राप्तत्वेन च। अथ प्रस्तुतं पूर्णिमाकरणं | 'इच्छापुण्णिमगुणिओ अवहारो सोऽस्थ होइ काययो । तं चेव य सोहणगं अभिईआई तु काय ॥१॥ सुझं मि अ || सोहणगे जं सेसं तं हवेज णक्खतं । तस्थ य करेइ उडुवइ पडिपुण्णं पुणिमं विमलं ॥२॥ यथा पूर्वममावास्या| चन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानार्थमवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि-पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधी ईप्सितपूर्णिमासीगुणिता-यां ॥५०९॥ | पूर्णमासी ज्ञातुमिच्छसि तत्सङ्ख्यया गुणितः कर्तव्यः, गुणिते च सति तदेव-पूर्वोक्त शोधनकं कर्तव्यं, केवलमभिजिदा| दिकं न तु पुनर्वसुप्रभृतिकं, शुद्धे च शोधनके यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवेन्नक्षत्रं पौर्णमासीयुक्तं, तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति
emes@mercedeoes
~264
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [ १६१] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Ja Ecum
उडुपतिः- चन्द्रमाः परिपूर्णां पूर्णमासी विमलामिति करणगाथाद्वयाक्षरार्थः, भावना खियं—- कोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा पौर्णमासी कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे समाप्तिमुपगच्छतीति तत्र षट्षष्टिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्यैकः सप्तषष्टिभाग इत्येवंरूपोऽवधार्यराशिप्रियते, स प्रथमायां पौर्णमास्यां किल पृष्ठमित्येकेन गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवति ततस्तस्मादभिजितो नव मुहर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोधनकं शोधनीयम्, तत्र च षट्षष्टेर्नव मुहूर्त्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् तेभ्यः एको मुहत्तों गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतः ते च द्वाषष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिभागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् त्रिचत्वारिंशत्तेभ्यः एकं रूपमादाय सप्तषष्टिभागीक्रियते ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागेकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते जाता अष्टषष्टिभागास्तेभ्यः पट्षष्टिः शुद्धाः स्थितौ पश्चाद् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहूर्त्तेः श्रवणः शुद्धः स्थिताः पश्चान्महूर्त्ताः षड्विंशतिः, तत इदमागतं. धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनविंशतिसंख्येषु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चष| ष्टिसंख्येषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा पौर्णमासी समाप्तिमियति, एवं पञ्चानां युगभाविनीनां श्राविष्धीनां पूर्णिमानां | कचित् श्रवणेन कचिद् धनिष्ठया च परिसमाप्तिर्भावनीया । तथा प्रोष्ठपदीमिति-भाद्रपदीं भदन्त ! पौर्णमासी कति नक्षत्राणि योगं योजयन्ति १, भगवानाह - गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि योजयन्ति, तद्यथा - शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तर
For P&Pase Cly
~265~
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- .-----.-..-...------------ मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू- द्वीपशा- न्तिचन्द्री
या वृत्तिः
।५१०॥
भद्रपदा, आसां पञ्चानामपि युगभाविनीनामुक्तनक्षत्राणां मध्ये अन्यतरेण परिसमापनात्, आश्वयुजी भदन्त ! पौर्ण- वक्षस्कारे मासी कति नक्षत्राणि योजयन्ति ?, गौतम! द्वे योजयतः-रेवती अश्विनी च, इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि कांचिदाश्व- कुलादिपू
र्णिमामायुजी पौर्णमासी परिसमापयति परं तत्पौष्ठपदीमपि, लोके च प्रौष्ठपद्यामेव तस्य प्राधान्यं तन्नाम्ना तस्याः अभिधा-IN
वासासू. नाद् अतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः, अतो वे समापयत इत्युक्तं, आसां बहीनां युगभाविनीनामुकनक्षत्रयोर्मध्येऽ-श
१६१ न्यतरेण परिसमापनात्, तथा कार्तिकी पौर्णमासी द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-भरणी कृत्तिका च, इहाप्यश्विनीनक्षत्रं कांचित् । कार्तिकी पौर्णमासी परिसमायति परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधान मितीह न विवक्षितमित्यदोषः, अतोऽत्रापि दे इत्युक्तं, आसां बहीनां युगभाविनीनां उक्तनक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात् , तथा मार्गशीषी पौर्णमासी द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-रोहिणी मृगशिरश्च, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां उत्कनक्षत्रयोर्मध्येऽभ्यतरेण परिसमापनात् , तथा पौषी | पौर्णमासी बीणि नक्षत्राणि, तद्यथा-आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च, आसां युगमध्येऽधिकमाससम्भवेन षण्णामपि युगभाविनीनां । | उक्तनक्षत्राणां मध्येऽन्यतरेण परिसमापनात्, तथा माघी पौर्णमासी द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-अश्लेशा मघा चशब्दात् पूर्वफ
गुनीपुष्यी ग्राह्यौ, तेनासा युगभाविनीनां पञ्चानामपि मध्ये काश्चिदश्लेषा काश्चिम्मघा काशित पूर्वफल्गुनी कांचिपुष्यश्च ||| ॥५१०॥ परिसमापयति, तथा फाल्गुनी पौर्णमासी द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-पूर्वफल्गुनी उत्तर फल्गुनी च, आसां पंचानामपि युगभावि-19 नीनां उक्तयोर्नक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा चैत्री पौर्णमासी द्वे नक्षत्रे, तद्यथा-हस्तः चित्रा च, आसां 3
~266~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
पंचानामपि युगभाविनीनामुक्तयोर्नक्षत्रयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात् , तथा वैशाखी दे, तद्यथा-स्वातिविशाखा च-11 8|| शब्दादनुराधा, इदं हि अनुराधानक्षत्रं विशाखातः परं, विशाखा चास्यां पूर्णिमास्यां प्रधाना ततः परस्यामेव पौर्ण-10
मास्यां तत्साक्षादुपात्तं नेहेति अतो द्वे इत्युकं, आसां बहीना युगभाविनीनां उक्तनक्षत्रयोमध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा ज्येष्ठामूली पौर्णमासी त्रीणि, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलं च, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां उक्तनक्षत्राणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा आषाढी पौर्णमासी द्वे, तद्यथा-पूर्वाषाढा उत्तराषाढा च, आसां युगान्ते अधिकमाससम्भवेन पण्णामपि युगभाविनीनां उक्तनक्षयोर्मध्येऽन्यतरेण समापनात् । सम्प्रति कुलद्वारप्रतिपादनेन स्वतः सिद्धा-18 मपि कुलादियोजना मन्दमतिशिष्यवोधनाय प्रश्नयन्नाह-साविटिण्ण'मित्यादि, श्राविष्ठी भदन्त ! किं कुलं युनक्ति। || उपकुलं युनकि कुलोपकुलं युनक्ति', भगवानाह-गौतम! कुलं वा युनक्ति वाशब्दः समुचये ततः कुलमपि युनक्की-18 र त्यर्थः, एवमुपकुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जत् धनिष्ठानक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुल (तया) प्रसिद्धस्य सतः श्राविष्ट्या
पौर्णमास्यां भावात् , उपकुलं युञ्जत् श्रवणनक्षत्रं युनक्ति, कुलोषकुलं युञ्जत् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां शाविष्ठयां पूर्णिमास्यां द्वादशमुहूत्रेषु किञ्चित्समधिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः श्रवणसहचरत्वात् स्वयमपि
तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्तित्वात् तदपि तां परिसमापयति इति विवक्षितत्वाधुनतीत्युक्त, सम्प्रत्युपसंहारमाहIT यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः श्राविष्ठयाः पौर्णमास्या योजनाऽस्ति ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं ।
eseoeseseseseiserceeeeee
Reatiserserserverestseeratacasses
श्रीजम्बू, ८६
म
~267
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू-18वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्तीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्ता सती AS वक्षस्कारे द्वीपशा- श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । तथा 'पोहबदिण्णं भन्ते ! इत्यादि, ISI कुलादिपून्तिचन्द्री-18
॥ | पौष्ठपदी पौर्णमासी भदन्त! किं कुलं वा युनक्तीत्यादि पृच्छा, गौतम! कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा युनक्ति, या वृत्तिः
वास्याः सू. || तत्र कुलं युञ्जत् उत्तरभद्रपदानक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् पूर्वभद्रपदानक्षत्रं युनक्ति, कुलोपकुलं युद्धत् शत-18
१६१ ॥५१॥ भिषक् नक्षत्रं युनक्ति, उपसंहारमाह-यत एवं त्रिभिरपि कुलादिभिः प्रौष्ठपद्याः पौर्णमास्याः योजनाऽस्ति ततः प्रौष्ठ-18
पदी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्तीति वक्तव्यं स्यात् इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्ता सती प्रौष्ठपदी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेन वा युक्ता युक्तेति वक्तव्यं स्यात् इति । तथा 'अस्सोइण्ण मिति आश्वयुञ्जी भदन्तेति पृच्छा, गौतम ! कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति
नो लभते कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् अश्विनीनक्षत्रं युनक्ति, उपकुलं युञ्जत् रेवतीनक्षत्रं युनक्ति, उपसंहारमाह|| यत एवं द्वाभ्यां कुलादिभ्यां आश्वयुज्याः पौर्णमास्या योजनास्ति तत आश्वयुजी पौर्णमासी कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनतीति वक्तव्यं स्यात्-इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात् , यदिवा कुलेन वा उपकुलेन वा युक्ता सती ॥५११॥
आश्वयुजी पौर्णमासी युक्तति वक्तव्यं स्यात् इति, तथा कार्तिकी भदन्त ! पौर्णमासी किं कुलमित्यादि पृच्छा, 18|गौतम! कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति न कुलोपकुलं युनक्ति, तत्र कुलं युञ्जत् कृत्तिकानक्षत्रं युनक्ति उपकुलं
Saeseaeeseee
~268~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
युञ्जत् भरणीनक्षत्रं युनक्ति कार्तिकीमित्याद्युपसंहारवाक्यं प्राग्वत् इति, मार्गशीर्षी भदन्त ! पौर्णमासी किकुलं तदे-॥! ॥ वेति द्वे युक्तः, कोऽर्थः १-कुलमुपकुलं वा युनक्ति न भवति कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् मृगशिरो नक्षत्रं युनक्ति,
उपकुलं युञ्जत् रोहिणी, मार्गशीषी पौर्णमासीमित्याद्युपसंहारवाक्यं प्राग्वत्, अथ लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं सेसिआओ'इत्यादि, एवं शेषिका अपि-पौष्याद्यास्तावद्वक्तव्याः यावदापाढीपूर्णिमा इत्यर्थः, पौषी ज्येष्ठामूली च पूर्णिमा
कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा युनक्ति कुलोपकुलं वा युनकि, शेषिकायां-माध्यादीनां कुलं वा युनक्ति उपकुलं वा ४ युनक्ति, कुलोपकुलं न भण्यते, तदभावादिति । अथामावास्याः-'साविटिपणं इत्यादि, श्राविष्ठीं-श्रावणमासभाविनी 18 अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?-यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य श्राविष्ठीं अमावास्यां परिसमापयन्ति ?, भगवानाह-18
गौतम! द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा-अश्लेषा मघा, इह व्यवहारनयमतेन यस्मिनक्षत्रे पौर्णमासी भवति तत आरभ्यातिने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे अमावास्या भवति, यस्मिंश्च नक्षत्रे अमावास्या तत आरभ्य परतः पश्चदशे चतुदेशे वा नक्षत्रे पौर्णमासी, तत्र श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां चोक्ता ततोऽमावास्यायामष्यस्यां अश्लेषा मघा चोक्ता, लोके च तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानायामपि प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतो अमावास्याऽभूत् ततः सकलोऽप्यहोरात्रोऽमावास्येति व्यवहियते, ततो मघानक्षत्रमप्येवं व्यवहारतोऽमावास्यायां प्राप्यते इति न कश्चिद्विरोधः, परमार्थतः पुनरिमाममावास्यां इमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-पुनर्वम्
Receneerserseraesestestinentatreese
~269
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
वक्षस्कार [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
मूलं [ १६१ ] + गाथा:
श्रीजम्बूद्वीपशातिचन्द्री या वृत्तिः
॥५१२॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Ja Ecutor in
| पुष्योऽश्लेषा च अस्यां पञ्चानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, करणं चात्र प्रागुक्तं, तथा प्रोष्ठपद भदन्त ! अमावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, गौतम! द्वे नक्षत्रे युंक्तः, तद्यथा - पूर्वफल्गुनी उत्तरफल्गुनी चशब्दान्मघा ग्राह्या, अस्यास्तु भाद्रपदपूर्णिमावर्चिशतभिषको व्यवहारतोऽपि करणरीत्या निश्चयतश्चार्वाग्गणने पंचदशत्वात्, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनाच करणं च पूर्ववत्, | तथा आश्वयुजीममावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति ?, गौतम ! द्वे नक्षत्रे युक्तः, तद्यथा - हस्तश्चित्रा च इदमपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु आश्वयुजीममावास्यां त्रीणि नक्षत्राणि समापयन्ति, तद्यथा-उत्तरफल्गुनी हस्तश्चित्रा च यच पूर्वमाश्वयुज्यां पूर्णिमायामुत्तरभद्रपदा प्रागुक्तहेतोर्न विवक्षिता परं निश्चयतः सा आयातीति तस्याः पंचदशत्वादुत्तरफल्गुन्यत्र गृहीता, आसां च पंचानां युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात् भावना प्राग्वत्, तथा | कार्तिक अमावास्यां द्वे नक्षत्रे युंक्तः, तद्यथा-स्वातिर्विशाखा च एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु त्रीणि स्वातिविशाखा चित्रा च, अस्यामपि पूर्णिमायां अश्विन्यनुरोधेन चित्रोक्ता, आसां पंचानामपि युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां | मध्येऽन्यतरेण समापनादिति, तथा मार्गशीषां त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-अनुराधा ज्येष्ठा मूलश्च, एतदपि व्यवहारतो निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि नक्षत्राणि अमावास्या परिसमापयन्ति, तद्यथा - विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा च आसां पंचानां युगभाविनीनां नक्षत्रत्रयाणां मध्येऽन्यतरेण समापनात्, तथा पौषीममावास्यां द्वे नक्षत्रे युक्त:- पूर्वा
For P&Pase Cnly
~270~
७वक्षस्कारे कुलादिपूर्णिमामा
वास्या: सू. १६१
॥५१२॥
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
eseseenese C6CaeseseDPPR
पाढा उत्तराषाढा च, एतदपि व्यवहारत उक्तं निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि परिसमापयन्ति, तद्यथा-मूलं पूर्वाषाढा उत्तराषाढाच, आसां युगमध्येऽधिकमाससम्भवेन पण्णामपीत्यादि पूर्ववत्, तथा माघीममावास्यां त्रीणि-अभिजित् श्रव| णो धनिष्ठा, एतत्पूर्णिमावर्तिभ्यामश्लेषामघाभ्यामभिजितः षोडशत्वेन व्यवहारातीतत्वेऽपि श्रवणसम्बद्धत्वात् पंचदशत्वं | समाधेयम्, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतः पुनस्त्रीणि उत्तराषाढा अभिजित् श्रवणश्च, आसां पंचानामपीत्यादि पूर्ववत्, ॥ तथा फल्गुनीं त्रीणि तद्यथा-शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा. एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्त्रीणि तद्यथा-धनिष्ठा १ शतभिषक् पूर्वभद्रपदाच, आसां पंचानामपीत्यादि तथैव, तथा चैत्री द्वे नक्षत्रे-रेवती आश्विनी च, एतदपि व्यवहारतः || निश्चयतस्तु त्रीणि तद्यथा-पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा रेवती च, आसामपीत्यादि तथैव, तथा (वैशाखी द्वे नक्षत्रेभरणी कृत्तिका च, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु त्रीणि तद्यथा-रेवती अश्विनी भरणी च, आसामपीत्यादि तथैव) ज्येष्ठामूली द्वे-रोहिणी मृगशिरश्च, एतदपि व्यवहारतः निश्चयतस्तु इमे द्वे नक्षत्रे-रोहिणी कृत्तिका च, आसामपीत्यादि | पूर्ववत्, तथा आषाढी त्रीणि नक्षत्राणि-आर्द्रा पुनर्वसू पुण्यः, एतदपि व्यवहारतः परमार्थतस्तु इमानि त्रीणि नक्षत्राणि| मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसू च, आसां युगान्तेऽधिकमाससम्भवेन पपणामपि [पश्चानां] तथैवेति, अत्र सर्वत्र नक्षत्रगणना-1 | मध्ये यत्राभिजिदन्तर्भवति तत्र न गण्यं, स्तोककालत्वात् , यत उक्तं समवाया-"जम्बुद्दीवे २ अभिईवजेहिं सत्ता-18 वीसाए णक्खत्तेहिं संववहारो वट्टइत्ति । अथामावास्थासु कुलादियोजनाप्रश्नमाह-'साविठिण्ण'मित्यादि, श्राविष्ठी
Janam
~271
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू- भदन्त ! अमावास्यां किं कुलं युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं युनक्ति ?, भगवानाह-गौतम! कुलं वा युनक्ति । वक्षस्कारे
द्वीपथा- उपकुलं वा युनक्ति वाशब्दः समुच्चये, नो लभते कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् श्राविष्ठीममावास्यां मघानक्षत्रं युनकि, कुलादिषन्तिचन्द्रीएतच प्रागुक्तयुक्त्या व्यवहारत उक्तं परमार्थतः पुनः कुलं युञ्जत् पुष्य नक्षत्रं युनक्तीति, एतच्च प्रागेवोक्तम्, एवमु-18
र्णिमामाया चिः
वाखा:सू. पत्तरसूत्रमपि व्यवहारमधिकृत्य यथायोगं परिभावनीयमिति, उपकुलं युञ्जत् अश्लेषानक्षत्र युनक्ति, अथोपसंहारमाह-18
१६१ ॥५१३॥ । यत उक्तप्रकारेण द्वाभ्यां कुलाभ्यां श्राविष्ठया अमावास्यायाश्चन्द्रयोगः समस्ति, न तु कुलोपकुलेन, ततः श्राविष्ठीम-18
मावास्यां कुलमपि युनक्ति उपकुलमपि युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् , यदिवा कुलेन वा युक्का उपकुलेन वा युक्ता सती
श्राविष्टी अमावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात्, तथा प्रौष्ठपदी भदन्त ! अमावास्यामित्यादि तदेव प्रश्नसूत्रं, उत्तरसूत्रे द्वे | कुलोपकुले युक्तः नो युनक्ति कुलोपकुलं, तत्र कुलं युञ्जत् उत्तरफल्गुनीनक्षत्रं युनक्ति उपकुलं युञ्जत् पूर्वफल्गुनी-13
नक्षत्र युनक्ति, उपसंहारसूत्र तथैव, मार्गशीर्षी तदेव प्रश्नसूत्रं किं कुल जोएईत्यादि, तत्र कुलं युंजत् मूलनक्षत्रं युनक्ति ॥७॥ उपकुलं युंजत् ज्येष्ठानक्षत्रं कुलोपकुलं युंजत् अनुराधानक्षत्रं युनक्ति, यावत्करणादुपसंहारसूत्रं युक्तेति वक्तव्यं स्यात्,
एवं माध्याः फाल्गुन्याः आषाव्याश्च कुलं वा उपकुलं वा कुलोपकुलं वा, अवशेषिकाणां कुलं वा उपकुलं वा युनतीति ॥५१३॥ 18| वाच्यम् । अथ सन्निपातद्वारम्-तत्र सन्निपातो नाम पूर्णिमानक्षत्रात् अमावास्यायाममावास्यानक्षत्राथ पूर्णिमायां । A नक्षत्रस्य नियमेन सम्बन्धस्तस्य सूत्रम्-'जया णं भन्ते'इत्यादि, यदा भदन्त ! श्राविष्ठी-श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा
~272
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------------- -------------------------- मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
|| भवति तदा तस्या अक्तिनी अमावास्या माघी--मघानक्षत्रयुक्ता भवति यदा तु माघी-मघानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा || भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्ठी-श्रविष्ठायुक्ता भवतीति, काका प्रश्नः, भगवानाह-हन्तेति भवति, तत्र ||
गौतम! यदा श्राविष्ठीत्यादि तदेव वक्तव्यं, प्रश्नेन समानोत्तरत्वात् , अयमर्थ:-इह व्यवहारनयमतेन यस्मिन्नक्षत्रे पौर्ण९ मासी भवति तत आरभ्य अतिने पंचदशे चतुर्दशे वा नक्षत्रे नियमतोऽमावास्या, ततो यदा श्राविष्ठी-श्रविष्ठा-1
नक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अक्किनी अमावास्या माघी-मघानक्षत्रयुक्ता भवति, श्रविष्ठानक्षत्रादारभ्य मघा-IKI
नक्षत्रस्य पूर्व चतुर्दशत्वात् , अत्र सूर्यप्रज्ञप्सिचन्द्रप्रज्ञप्सिवृत्त्योस्तु मघानक्षत्रादारभ्य अविष्ठानक्षत्रस्य पञ्चदशस्यादिति || ॥ पाठस्तेनात्र विचार्य, एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा भदन्त! माघी-मघानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा
श्राविष्ठी-श्रविष्ठानक्षत्रयुक्ता पाश्चात्या अमावास्या भवति, मघानक्षत्रादारभ्य पूर्व श्रविष्ठानक्षत्रस्य पंचदशत्वात् , इदं च माघमासमधिकृत्य भावनीयं, यदा भदन्त! प्रौष्ठपदी-उत्तरभद्रपदायुक्का पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमा-18
वास्या उत्तरफल्गुनीनक्षत्रयुक्ता भवति, उत्तरभद्रपदात् आरभ्य पूर्वमुत्तरफल्गुनीनक्षत्रस्य पञ्चदशत्वात्, एतच भाग-18 ॥ पदमासमधिकृत्यावसेयं, यदा चोत्तरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अमावास्या प्रौष्ठपदी-उत्तरभद्रपदो-18
पेता भवति, उत्तरफल्गुनीमारभ्य पूर्वमुत्तरभद्गपदानक्षत्रस्य चतुर्दशत्वात् , इदं च फाल्गुनमासमधिकृत्योक्तं, एवमेते॥ नाभिलापेन इमाः पूर्णिमा अमावास्याश्च नेतव्याः, यदा आश्विनी अश्विनीनक्षत्रोपेता भवति तदा पाश्चात्यानन्तरा
~273~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- .-----.-..-...------------ मूलं [१६१] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
| अमावास्या चैत्री-चित्रानक्षयुक्ता भवति, अश्विन्या आरभ्य पूर्व चित्रानक्षत्रस्य पश्चदशत्वात्, एतच्च व्यवहारनय-18 | वक्षस्कारे द्वीपशा- मधिकृत्योक्तमवसेयं निश्चयत एकस्वामप्यश्वयुग्मासभाविन्याममावास्यायां चित्रानक्षत्रासम्भवात् , एतच प्रागेव दर्शितं,8 कुलादिपून्तिचन्द्री-यदा च चैत्री-चित्रानक्षोपेता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या आश्विनी-अश्विनीनक्षत्रयुक्ता भवति,
र्णिमामाया वृत्तिः एतदपि व्यवहारतः निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासभाविन्याममावास्यायां अश्विनीनक्षत्रस्यासम्भवात्, एतदपि सूत्र-18
| वास्या सू. ५१ माश्विनचैत्रमासावधिकृत्य प्रवृत्त, यदा च कार्चिकी-कृत्तिकानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा वैशाखी-विशाखा
|| नक्षत्रयुक्का अमावास्या भवति, कृत्तिकातोर्याक् विशाखायाः पञ्चदशत्वात् , यदा वैशाखी-विशाखानक्षत्रयुक्ता पौर्ण-12 मासी भवति तदा ततोऽनन्तरा पाश्चात्याऽमावास्या कार्तिकी-कृत्तिकानक्षत्रोपेता भवति, विशाखातः पूर्व कृत्तिकायाः चतुर्दशत्वात् , एतच्च कार्तिकवैशाखमासावधिकृत्योकं, यदा च मार्गशीर्षी-मृगशिरोयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा ॥
ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठामूलनक्षत्रोपेता अमावास्या, यदा ज्येष्ठामूली पौर्णमासी तदा मार्गशीर्षी अमावास्या, एतच मार्ग18 शीर्षज्येष्ठमासावधिकृत्य भावनीयं, यदा पौषी-पुष्यनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी तदा आषाढी-पूर्वाषाढानक्षत्रयुक्ता अमा
वास्या भवति, यदा पूर्वाषाढानक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पुष्यनक्षत्रयुक्ता अमावास्या भवति, एतच्च पौषापाढमासावधिकृत्योकं, उक्कानि मासार्द्धमासपरिसमापकानि नक्षत्राणि । सम्प्रति स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया मासपरिसमापक नक्षत्रवृन्दमाह, तत्र प्रथमतो वर्षाकालाहोरात्रपरिसमापकनक्षत्रसूत्रम्
R५१४॥
| अथ वर्षाकाळ-अहोरात्र-आदि परिसमापनक नक्षत्रसूत्रम् प्ररुप्यते
~2744
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ------------------
-------------------- मुलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
बासाणं पढम मास कति णक्खता ऐति ?, गो०! चत्तारि णक्खत्ता गेति, तं०-उत्तरासाढा अभिई सवणो धणिष्टा, उत्तराबादा चउद्दस अहोरते णेइ, अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ, सवणो अट्ठहोरते णेइ धणिवा एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि चतरंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स गं मासस्स चरिमदिवसे दो पदा चत्तारि अ अंगुला पोरिसी भवइ । वासाणं भन्ते! दो मासं कह णक्षता मेंति ?, गो०! चत्तारि-धनिट्ठा सयभिसया पुवभक्या उत्तराभरक्या, पणिहा गं चउद्दस अहोरते णेइ सयभिसया सत्त अहोरते णेइ पुधाभदवया अट्ठ अहोरत्ते गेइ उत्तराभवया एगं, तंसि च णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियहर, तरस मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अट्ठ य अंगुला पोरिसी भवः । वासाणं भन्ते ! तइ मास कइ णक्खत्ता ऐति ?, गो०! तिणि णवत्ता ऐति तं०-उत्तरभदवया रेवई अस्सिणी, उत्तरभवया पदस राईदिए णेइ रेवई पण्णरस अस्सिणी एगं, तंसि च णं मासंसि दुबालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्न चरिमे दिक्ते लेहटाई तिणि पयाई पोरिसी भवइ । वासाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति प्रणवत्ता णेति', गो! सिण्णि-अस्सिणी भरणी कत्तिा , अस्सिणी चउरस भरणी पन्नरस कत्तिआ एर्ग, तसिं च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टा, तस्स णं मासस्स चरमे दिवसे विणि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमन्ताणं भन्ते ! पढम मासं कति णक्वत्ता मेंति ?, गो०! तिण्णि-कत्तिा रोहिणी मिगसिरं, कत्तिा चउद्दस रोहिणी पण्णरस मिगसिरं एर्ग अहोरतं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अह य अंगुलाई पोरिसी भवइ, हेमंताणं भन्ते! दो मासं कति णक्यत्ता गति, गोअमा! चत्वारि णक्खचा ऐति, तंजहा
escena
~275
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशा-18 न्तिचन्द्रीया चिः ।।५१५॥
वक्षस्कारे माससमापकनक्षत्रवृन्दं स.
१६२
मिअसिरं अहा पुणव्वसू पुस्सो, मिअसिरं चउहस राइंदिआई णेइ अहा अट्ठ णेइ पुणव्वसू सत्त राइंदिआई पुस्सो एग राइंदिअं णेइ, तया णं चउबीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टर, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे संसि च णं दिवसंसि लेहहाई चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ, हेमन्ताण भंते ! तचं मासं कति णक्खत्ता ऐति ?, गोअमा! तिषिण-पुस्सो असिलेसा महा, पुस्लो चोइस राइंदिआई णेइ असिलेसा पण्णरस महा एक, तया णं वीसंगुलपोरिसीए छावाए सूरिए अणुपरिअट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिष्णि पयाई अटुंगुलाई पोरिसी भवइ । हेमंताण भन्ते ! चउत्थं मास कति णक्वत्ता गति', गोजमा! तिणि ण, तं०-महा पुन्वाफल्गुणी उत्तरफागुणी, महा चउस राइविभाई णेइ पुण्याफागुणी पण्णरस राईदिआई इ उत्तराफग्गुणी एर्ग राईदिलं गेइ, तया णं सोलसंगुळपोरिसीए छायाए सूरिए अशुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पथाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवद । गिम्हाणं भन्ते ! पढम मासं कति णक्खचा ऐति ?, गोअमा! तिणि णक्खत्ता गति-उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता, उत्तराफरगुणी चउद्दस राइविभाई णेइ हत्थो पण्णरस राइंदिआई द चिसा एवं राइंदिइ, तयाणे दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिभइह तस्सणं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहवाई तिष्णि पयाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते ! दोचं मासं कति णक्षत्ता णेति , गोअमा! तिण्णि णक्खत्ता ति, तं०-चित्ता साई दिसाहा, चित्ता चउद्दस राइंदिआई णेइ साई पण्णरस गइंदिआई णेइ विसाहा एग राइंदिरं गेइ, तया णं अहंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि चणं दिवसंसि दो पयाई अहंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं मन्ते तचं मासं कति णक्सत्ता ऐति', गो०! चत्तारि णक्खता
9338
५१५॥
~276
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Breecorseenet Seceaee
ति, तंजहा-विसाहाऽणुराहा जेवा मूलो, चिसाहा बहस राईदिआई गेइ अणुराहा अट्ट राइदिआई णेइ जेट्ठा सत्त राईदिआई णेइ मूलो एक राइंदिरं, तया णं चतरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअर, तस्स ण मासस्स जे से चरिमे दिवसे संसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारि अ अंगुलाई पोरिसी भवइ । गिम्हाणं भन्ते! चउत्थं मास कति णक्खत्ता ऐति ?, गोभमा ! सिण्णि णक्खत्ता ऐति, त०-मूलो पुण्यासाढा उत्तरासाढा, मूलो चउद्दस राइंदिआई णेइ पुब्वासाढा पण्णरस राइंदिआई गेइ उत्तरासाढा एग राइंदिणेइ, तया णं बट्टाए समच उरंससंठाणसंठिआए णग्गोहपरिमण्डलाए सकायमणुरंगिआए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ, तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई दो पयाई पोरिसी भवइ । एतेसि गं पुववण्णिआणं पयाणं इमा संगहणी, तं०-जोगो देवयतारग्गगोंत्तसंठाण चन्दरविजोगो । कुलपुण्णिमभवमंसा जेआ छाया व बोद्धव्वा ॥ १॥ (सूत्रं १६२)
वर्षाणां-वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथममासं-श्रावणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति ?, द्विकर्मकत्वादस्य समाप्तिमिति गम्यते, कोऽर्थः-वक्ष्यमाणसङ्ग्यायस्वस्वदिनेषु इमानि नक्षत्राणि यदा अस्तमयन्ति तदा श्रावणमासेऽहोरावसमाप्तिरित्यर्थः, तेनैतानि रात्रिपरिसमापकत्वाद्रात्रिनक्षत्राण्युच्यन्ते, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजिच्छ्रवणो धनिष्ठा च, तत्रोत्तरापाढा | | प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रान्नयति, ततः श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्राक्षयति,
sekse
~277
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
HO
श्रीजम्यू-1 एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्यैकोनत्रिंशदहोरात्रा गतास्ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्र वक्षस्कारे
द्वीपशा- I धनिष्ठानक्षत्रं नयति, एवं श्रावणमास चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, अस्य च नेतृद्वारस्य प्रयोजनं रात्रिज्ञानादौ "ज नेइ । माससमान्तिचन्द्री
पकनक्षत्रजया रत्तिं णक्खत्तं तंमि णहचउभागे। संपत्ते विरमेजा सज्झायपओसकालम्मि ॥१॥" इत्यादौ, तदनुरोधेन च या वृत्तिः
वृन्दं स. | दिनमानज्ञानायाह-तस्मिंश्च श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसङ्कान्स्या तथा कथश्च-17 ॥५१६॥
नापि परावर्त्तते यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्तेषु चतुरङ्गलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति, अन चायं विशेष:-यस्यां सङ्क्रान्तौ यावद्दिनरात्रिमानं तच्चतुर्थोऽशः पौरुषी यामः प्रहर इतियावत्, आषाढपूर्णिमायां च द्विपदप्रमाणा पौरुषी |
तस्यां च श्रावणसरकचतुरङ्गलप्रक्षेपे चतुरङ्गुलाधिका पौरुषी भवति, माने मेयोपचारादभेदनिर्देशः, तेन चतुरङ्गुलाधि18| कपीरुष्या छाययेति विशेषणविशेष्यभावः, एतदेवाह-तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे वे पदे चत्वारि चाकुलानि पौरुषी
भवति, अथ द्वितीय मासं पृच्छति-'बासाण'मित्यादि, वर्षाणां-वर्षाकालस्य भदन्त ! द्वितीय भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति', अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद् भावनीयः, गौतम! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा उत्तरभद्रपदा च, तत्र धनिष्ठा आद्यान चतुर्दश अहोरात्रान् नयति तदनन्तरं शतभिपक् सप्ताहोरा-ISIRan त्रान् नयति ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वभद्रपदा नयति तदनन्तरमेकमहोरात्रमुत्तरभद्रपदा नयति, एवमेनं भाद्रपदमार्स || चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिंश्च मासेऽष्टाङ्गुलपौरुष्या-अष्टाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते, अत्र भावा
~278~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------- -------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
|र्थः प्राग्वद् भावनीयः, एतदेवाह-तस्य भाद्रपदमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे अष्ट चाङ्गुलानि पौरुषी भवति, अथ तृतीयं । पृच्छति-'वासाणं भन्ते 'त्ति, इत्यादि, वर्षाणां भदन्त ! तृतीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति?, गौतम! श्रीणि नक्षत्राणिउत्तरभद्रपदा रेवती अश्विनी च, तत्रोत्तरभद्रपदा चतुर्दश रात्रिन्दिवान् नयति. रेवती पञ्चदश रात्रिन्दिवान् नयति. | अश्विनी एक रात्रिन्दिवं नयति, एवं तृतीय मासं त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिंश्च मासे द्वादशाङ्गलपौरुष्या-द्वाद-18 शाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे रेखा-1
पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति, किमुक्तं भवति -परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी IS भवति, अथ चतुर्थ पृच्छत्ति-'वासाण'मित्यादि, वर्षाणां-वर्षाकालस्य भदन्त! चतुर्थ कार्तिकलक्षणं मार्स कति नक्ष
त्राणि नयन्ति?, गौतम! त्रीणि-अश्विनी भरणी कृत्तिका च, तत्राश्विनी चतुर्दशाहोरात्रान् भरणी पञ्चदशाहोरात्रान् कृत्तिका एकमहोरात्रं नयति, तस्मिंश्च मासे षोडशांगुलपौरुष्या-पोडशांगुलाधिकपीरुष्या छायया सूर्योऽनुपरायत्तेते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य परमे दिवसे त्रीणि पदानि चत्वारि चांगुलानि पौरुषी भवति । गतो वर्षा-1 कालः। अथ हेमन्तकालं पृच्छति-हेमन्ताण'मित्यादि, हेमन्तानां-हेमन्तकालस्य भदन्त! प्रथम भार्गशीर्षलक्षणं मासं || कति नक्षत्राणि नयन्ति, गौतम! त्रीणि न०-कृत्तिका रोहिणी मृगशिरश्च, तत्र कृत्तिका चतुर्दशाहोरात्रान् रोहिणी || पश्चदशाहोरात्रान् मृगशिर एकमहोरात्रं नयति, तस्मिंश्च मासे विंशत्यनुलपौरुष्या-विंशत्यगुलाधिकपीरुप्या छायया |
yaera0a80300938090020302
easeseeक
CateRee
श्रीजम्बू, 2018
~279
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू- सूर्योऽनुपरावर्त्तते, भावार्थः पूर्ववत्, एतदेवाह-तस्य मासस्य यश्चरमो दिवसस्तस्मिन् दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट वक्षस्कार चांगुलानि पौरुषी भवतीति, अथ द्वितीयं पृच्छति–हेमन्ताणं भन्ते !'इत्यादि, हेमन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीयं पौष
माससमान्तिचन्द्री-1
पकनक्षत्रया वृत्तिः
नामक मास कति नक्षत्राणि नयन्ति?, गौतम! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसू पुण्यश्च, तत्र
मृगशिरश्चतुर्दश रानिन्दिवानयति, आर्द्रा अष्टौ नय, पुनर्वसू सप्त रात्रिन्दिवान, पुष्यः एक रात्रिन्दिवं नयति, १६२ ॥५१७॥
। तदा चतुर्विंशत्यकुलपौरुष्या-चतुर्विंशत्यमुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते, भावार्थः पूर्ववत् , तस्य मासस्य ।
चरमे दिवसे रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा तत्स्थानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति, किमुक्तं भवति ?-परिपूर्णानि चत्वारि । 18| पदानि पौरुषी भवति, अथ तृतीयं पृच्छति-'हेमन्ताण मित्यादि, एतत् सुगर्म, अथ चतुर्थं पृच्छति-हेमन्ताणं भन्ते !
चउत्थं'इत्यादि, सुगम। अतीतो हेमन्तः, अथ ग्रीष्मं पृच्छति-गिम्हाणं भन्ते! पढम इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते ।। || दो'इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते! तचं मासं'इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते! चउत्थं इत्यादि, चत्वार्यपि इमानि । 18 ग्रीष्मकालसूत्राणि सुबोधानि, प्रायः प्राक्तनसूत्रानुसारित्वात्, नवरं तस्मिंश्चापाढे मासे प्रकाश्यवस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया | 8|| समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यगोधपरिमण्डलया उपलक्ष-11
181॥५१७॥ णमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया, आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो। | दिवसस्य चतुर्भागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे
~280
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत् प्रकाश्य वस्तु यत्संस्थानं भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते, तत उक्तम्-वृत्तस्य IS वृत्तया इत्यादि, एतदेवाह-स्वकायमनुरङ्गिन्या' खस्य-वकीयस्य छायानिवन्धनस्थ वस्तुनः कायः-शरीरं स्वकायस्त18 मनुरज्यते-अनुकार विदधातीत्येवंशीला अनुरङ्गिनी 'द्विषड्ग्रहे'त्यादिना' (श्रीसिद्ध५-२-४० युजरञ्जद्विप०) घिनप्र
त्ययस्तया स्वकायमनुरङ्गिन्या छायया सूर्योऽनु-प्रतिदिवसं परावर्त्तते, एतदुक्तं भवति-आषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य। 1 प्रतिदिवसमन्यान्यमण्डलसङ्कान्त्या तथा कथंचनापि सूर्यः परावर्त्तते यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्भा
गेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया भवतीति, शेषं सुगम, इदं च पौरुषीप्रमाणं व्यवहारत उक्तं, निश्चयतः साडैत्रिंशताऽहोरात्रैश्चतुरंगुला वृद्धिर्हानिर्वा वेदितव्या, तथा च निश्चयतः पौरुषीप्रमाणप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वा|चार्यप्रसिद्धाः करणगाथा:-'पये पण्णरसगुणे तिहिसहिए पोरिसीइ आणयणे । छलसीअसियविभत्ते जं लद्धं तं विआ-18 णाहि ॥१॥जह होइ विसमलद्धं दक्षिणमयणं ठविज नायचं । अह हवइ समं लद्धं नायब उत्तरं अयणं ॥२॥ अयणगए तिहिरासी चउरगुणे पबपायभइयंमि । जं लद्धमंगुलाणि य खयवुड्डी पोरिसीए उ ॥३॥ दक्षिणवुही दुपया अंगुलाणं तु होइ नायबा । उत्तरअयणे हाणी कायबा चउहि पायाहिं ॥४॥ सावणबहुलपडिवया दुपया पुण पोरिसी धुवा होइ। चत्तारि अंगुलाई मासेणं वद्धए तत्तो॥५॥इकत्तीसइभागा तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि । दक्खिणअयणे वुद्धी जाव य चत्तारि उ पयाई॥६॥ उत्तरअयणे हाणी चरहिं पायाहिं जाव दो पाया । एवं तु पोरिसीए
etstatisticateeccentre
~281
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ------------------
-------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू
बुद्धिखया हुंति नायथा ॥७॥ वुहीं वा हाणी वा जावइआ पोरिसीइ दिट्ठा उ । तत्तो दिवसगएणं जं लद्धं ते खु अय-18
वक्षस्कारे द्वीपशा
णगयं ॥८॥' अत्र व्याख्या-युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्यां तिथौ पोरुपीपरिमाणं ज्ञातुमिच्यते ततः पूर्वं युगादित 81 न्तिचन्द्री- आरभ्य यानि पर्वाणि अतिक्रान्तानि तानि थ्रियन्ते धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेः याः पकनक्षत्रया वृत्तिः प्रागतिक्रान्तास्तिथयस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते कृत्वा च पडशीत्यधिकेन शतेन तेषां भागो हियते, इहकस्मिन् अयने न्दं ग. ॥५१८॥
ध्यशीत्यधिकमण्डल शतपरिमाणे चन्द्रनिष्पादिताना तिथीनां पडशीत्यधिक शतं भवति ततस्तेन भागे हते यल्लन्छ तति- १६२ जानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः, तत्र यदि लब्धं विषमं भवति यथा एककस्त्रिकः पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यतवर्ति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यं, अथ भवति लब्धं समं यथा द्विकश्चतुष्कः पट्कः अष्टको दशको वा तदा तत्पर्यन्तवति । उत्तरायणमवसेयं, तदेवमुक्तो दक्षिणोत्तरायणपरिज्ञानोपायः, सम्पति षडशीत्यधिकेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते यदिवास भागासम्भवेन यच्छेषं तिष्ठति तद्गतविधिमाह-'अयणगए' इत्यादि, यः पूर्व भागे हते भागासम्भवे वा शेषीभूतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते स चतुर्भिर्गुण्यते गुणयित्वा च 'पर्वपादेन' युगमध्ये यानि सङ्ख्यया पर्वाणि चतुर्विंशत्यधिकशतस-या
बानि तेषां पादेन-चतुर्थेनांशेनैकत्रिंशता इत्यर्थः, (भागो हियते) तया भागे हृते यल्लब्धं तान्यङ्गुलानि चकारादा-|| IS लांशाच पौरुष्याः क्षयवृब्योज्ञातव्यानि, दक्षिणायने पद्धवराशेरुपरि वृद्धी उत्तरायणे पदभ्रवराशेः क्षये ज्ञातव्यानीत्यर्थः
अथैवंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य कथमुत्पत्तिरिति, उच्यते, यदि पडशीत्यधिकेन चतुर्विशत्यालानि क्षये वृद्धी
~282
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वा प्राप्यन्ते ततः एकस्यां तिथी का वृद्धिः क्षयो वा, राशित्रयस्थापना १८६।२४।१ अवान्त्येन राशिना एककल-1 क्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेव, 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति वचनात् , तत। | आधेन राशिना पडशीत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते ततः छेद्यच्छेद-19 कराश्योः षटकेनापवर्त्तना जात उपरितनो राशिश्चतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत् लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिशद्भागाः क्षये वृद्धी वेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशद् भागहार इति, इह यादग्धं तान्यङ्गुलानि क्षये वृद्धौ वा | ज्ञातव्यानीत्युकं, तत्र कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ कस्मिन् वा अयने किंप्रमाणध्रुवराशौ क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह-'दक्षिणबुही इत्यादि, दक्षिणायने द्विपदात्-पदद्वयस्योपरि अंगुलानां वृद्धिर्ज्ञातव्या, उत्तरायणे चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गलानां हानिः, तत्र युगमध्ये प्रथम संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तनिरूपयति-19 'सावणे'त्यादि, गाथाद्वयं, युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासबहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा-पदद्वयप्रमाणा ध्रुवार भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथि क्रमेण तावदर्द्धते यावन्मासेन-सूर्यमासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकत्रिंशतिथिभिरित्यर्थः चत्वारि अङ्गलानि वर्धन्ते, कथमेतदवसीयते?-यथा मासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्यत आह-'एकतीसे'त्यादि, यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशदागा वर्द्धन्ते, एतच प्रागेव भावितं, परिपूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेन सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्र
Recenesesents
~283
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------------------------------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूमाणेन एकविंशतिथ्यात्मकेनेत्युक्तं, तदेवमुक्ता वृद्धिः, सम्प्रति हानिमाह-'उत्तरे'त्यादि, युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघ- वक्षस्कारे
माससमाद्वीपशा-18 मासे बहुलपक्षे सप्तम्या आरभ्य चतुर्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशद्भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुन्तिचन्द्री-18|त्तरायणपर्यन्ते द्वौ पादौ पौरुषीति । एष प्रथमसंवत्सरगतो विधिः, द्वितीये संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे त्रयोद-15
पकनक्षत्र
वृन्दं मू. या चिः |
18 शीमादी कृत्वा वृद्धिः, माघमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीमादिं कृत्वा क्षयः, तृतीये संवत्सरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धेश १६२ ॥५१९॥ रादिः माघमासे बहुल पक्षे प्रतिपत् क्षयस्यादिः, चतुर्थे संवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहु
लपक्षे त्रयोदशी क्षयस्यादिः, पश्चमे संवत्सरे श्रावणे मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी वृद्धेरादिः, माघमासे शुक्लपक्षे दशमी क्षय-12
स्यादिः, एतच करणगाथानुपात्तमपि पूर्वाचार्यप्रदर्शितव्याख्यानादवसितं । सम्प्रत्युपसंहारमाह-एवं तु'इत्यादि, ॥२॥ एवमुक्केन प्रकारेण पौरुष्यां-पौरुषीविषये वृद्धिक्षयौ यथाक्रम दक्षिणायनेषत्तरायणेषु वेदितथ्यी, तदेवमक्षरार्थमधिकृत्य ||
व्याख्याताः करणगाथाः। सम्प्रत्यस्य करणस्य भावना क्रियते, कोऽपि पृच्छति-युगादितः आरभ्य पञ्चाशीतितमे ॥ पर्वणि पश्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति?, तत्र चतुरशीतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्टमिति पञ्च,॥ चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि द्वादश शतानि षष्ट्यधिकानि १२६० एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते || जातानि १२६५ तेषां षडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाः षट्, आगतं षट् अयनान्यतिक्रान्तानि सप्तममयनं वर्त्तते, तद्गतं च शेषमेकोनपञ्चाशदधिकं शतं तिष्ठति १४९ ततश्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि
~2840
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
-------------------- मुलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
|| ५९५ तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धाः एकोनविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशांगुलानि पाद इत्येकोनविंशतेः॥॥ द्वादशभिः, पदं लब्धं, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्तांगुलानि, पष्ठं चायनमुत्तरायणं तद् गतं सप्तमं तु दक्षिणायनं वर्तते, ISI ततः पदमेकं सप्त चांगुलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशी प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि पदानि सप्तांगुलानि, ये च सप्त एक-18 त्रिंशद्भागाः शेषीभूता वर्तन्ते तान् यवान् कुर्मः, तत्राष्टौ यवा अंगुले इति ते सप्ताष्टभिर्गुण्यन्ते जातानि पट्पञ्चाशत् | ५६ तथा एकत्रिंशता भागे हते लब्ध एको यवः शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, आगतं पश्चाशीतितमे पर्वणि पक्षम्यां त्रीणि पदानि सप्तांगुलानि एको यवः एकस्य च ययस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद्धागा इत्येतावती || पौरुपीति, तथा अपरः कोऽपि पृच्छति-सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी ?, तत्र पण्णवतिधियते, | तस्याश्चाधस्तात्पच, पण्णवतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि १४४० तेषां मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते जातानि चतुर्दश शतानि पश्चचत्वारिंशदधिकानि १४४५, तेषां पडशीत्यधिकेन शतेन भागो,
हियते लब्धानि सप्त अयनानि शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं १४३ तश्चतुर्भिर्गुण्यते जातानि पञ्च शतानि द्विस॥ सत्यधिकानि ५७२ तेषामेकत्रिंशता भागो हियते लब्धान्यष्टादशांगुलानि १८ तेषां मध्ये द्वादशभिरंगुलैः पदमिति
लब्धमेकं पदं षट् अंगुलानि उपरि चांशा उद्धरिताश्चतुर्दश १४ ते यवानयनार्थमष्टभिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतं 8 K११२ तस्यैकत्रिंशता भागे हृते लब्धासयो यवाः शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशदागा, सप्त चायना-1
SeeR6EGEGErector
389
~285
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६२] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बुद्वीपशान्तिचन्द्री या वृचिः
॥५२०॥
अन्यतिक्रान्तानि अष्टमं चायनमुत्तरायणं उत्तरायणे च पदचतुष्टयेरूपाद् ध्रुवराशेर्हानिर्वतव्या तत एकं पदं सप्तांगुलानि त्रयो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात् पात्यते, शेषं तिष्ठति द्वे पदे चरवा गुलानि चत्वारो यवाः एकस्य च यवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागाः, एतावती युगे आदित आरभ्य सप्तनवतितमे |पर्वणि पञ्चम्यां तिथी पौरुषीति, एवं सर्वत्र भावनीयं । सम्प्रति पौरुषी परिमाणतोऽयनगत परिमाणज्ञापनार्थमियं करणगाथा- 'बुड्डी वे' त्यादि, पौरुष्यां यावती वृद्धिर्हानिर्वा दृष्टा ततः सकाशादिवसगतेन प्रवर्त्तमानेन च त्रैराशिककरणानुसारेण यलब्धं तत् अयनगतं - अयनस्य तावत्प्रमाणं गतं वेदितव्यं, एष करणगाथाक्षरार्थः, भावना वियम्-तत्र दक्षि णायने पदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गुलानि वृद्धी दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति किं गतं दक्षिणायनस्य १, अत्र त्रैराशि| ककर्मावतारो - यदि चतुर्भिरकुलस्य एकत्रिंशद्धा गैरेका तिथिर्लभ्यते ततश्चतुर्भिरंगुलैः कति तिथीर्लभामहे ?, राशित्रयस्थापना- १ । ११४ अत्रान्त्यो राशिरंगुलरूप एकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जातं चतुर्विंशत्यधिकं १२४ शतं | तेन मध्यो राशिर्गुण्यते जातं तदेव चतुर्विंशत्यधिकं शतं १२४ तस्य चतुष्करूपेणादिराशिना भागो हियते लब्धा एकत्रिंशतिथयः आगतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरंगुला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पदचतुटयादङ्गलाष्टकहीनं पौरुष्यामुपलभ्य कोऽपि पृच्छति किं गतमुत्तरायणस्य ?, अत्रापि त्रैराशिक - यदि चतुर्भिरंगुलस्य एकत्रिंशद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते ततोऽष्टभिरंगुलैहींनैः कति तिथयो लभ्यन्ते ?, राशित्रयस्थापना है। शट । अत्रान्त्यो
For P&Pase Cnly
~286~
७वक्षस्कारे
माससमापकनक्षत्र
इन्दं स्.
१६२
॥५२०॥
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------------- --------------------- मूलं [१६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
zaesea
राशिरेकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिंशता गुण्यते जाते द्वे शते अष्टचत्वारिंशदधिके २४८ ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो 51 | गुण्यते जाते ते एव द्वे शते अपचत्वारिंशदधिके २४८ तयोराधन राशिना चतुष्करूपेण भागहरणं लब्धा द्वापष्टिः
६२, आगतमुत्तरायणे द्वाषष्टितमायां तिथौ अष्टावंगुलानि पौरुष्या हीनानीति । अथोपसंहारवाक्यमाह-एतेसि ण'हा मित्यादि, एतेषामनन्तरोक्तानां पूर्ववर्णितानां पदानामियं-वक्ष्यमाणा संग्रहणीगाथा, तद्यथा-'जोगो देवय तारग्ग'
इत्यादि, प्राग्व्याख्यातस्वरूपा, अस्या निगमनार्थ पुनरुपन्यासस्तेन न पुनरुक्तिर्भावनीयेति, यत्तु पूर्वमुद्देशसमये सन्निपातद्वारं सूत्रे साक्षादुपात्तं सम्प्रति च छायाद्वारं तद्विचित्रत्वात् सूत्रकाराणां प्रवृत्तेः, पूर्णिमामावास्याद्वारे सन्निपात
द्वारमन्तीवितं छायाद्वारं च नेतृद्वारानुयोग्यपि भिन्नस्वरूपतया पृथक्त्वेन विवक्षितमिति ध्येयम् । अथास्मिन्नेचा-11 18धिकारे पोडशभिद्वारैरर्थान्तरप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह
हिदि ससिपरिवारो मन्दरध्वाधा तहेव लोगते । धरणितलाओं अवाधा अंतो बाहिं च उद्धमुहे ॥ १॥ संठाणं च पमाणं वहति सीहगई इद्धिमन्ता य । सारंतरऽग्गमहिसी तुद्धिा पहु ठिई अ अप्पचहू ॥२॥ अस्थि णं भन्ते ! चंदिमसूरिमाणं हिडिपि तारारूवा अणुपि तुलावि समेवि तारारूवा अणुपि तुल्लावि उपिपि तारारुवा अणुपि तुलावि, हता!
गोव उच्चारेभवं, से केणतुणं भन्ते ! एवं धुषह-अस्थि गं० जहा जहा णं तेसिं देवाणं तवनियमभचेराणि ऊसिआई भवसि तहा वहा ण तेसिणं देवाण एवं पण्णायए तंजहा-अणुते वा तुलत्ते वा, जहा जहा गं तेसि देवाणं तवनियममंभराणि णो कसिआइ भवंति सहा तहा
स्कटलर
~287
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------- --------------------------- मल [१६२R-१६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
भा
श्रीजम्म् गं तेसिं देवाणं एवं (णो) पण्णायए, तं० अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा (सूत्र १६२) एगमेगस्स णं भन्ते ! चन्दस्स केवइआ महम्गहा परिवारो 18वक्षस्कारे केवइआ गक्खत्ता परिवारो केवइया तारागणकोडाकोडीओ पण्णताओ?, गो० अवासीइ महग्गहा परिवारो अट्ठावीसं णक्खत्ता
अणुत्वादिन्तिचन्द्री
परिवारः या कृतिः परिवारो छावहिसहस्साई णव सया पण्णत्तरा तारागणकोडाकोडीजो पण्णता (सूत्र १६३) मन्दरस्स णं भन्ते! पवयस्स केवइआए
अबाधाम्. अबाहाए जोइसं चार चरइ ?, गो० इकारसहिं इकवीसेहिं जोअणसएहिं अबाहाए जोइसं चार चरइ, लोगताओणं भन्ते ! केवइ
१६२-१६४ ॥५२॥
आए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते?, गो. एकारस एकारसेहिं जोअणसएहि अवाहाए जोइसे पण्णत्ते। धरणितलाओ णं भन्ते !, सत्तहिं
उएहिं जोमणसएहिं जोइसे चार चरइत्ति, एवं सूरविमाणे अट्ठहिं सपहि, चंदविमाणे अहिं असीएहिं, उवरिले तारारूवे नवहिं जोअणसएहिं चार चरइ । जोइसस्स णं भन्ते! हेडिल्लाओ तलाओ केवइआए अबाहाए सूरविमाणे चार चरइ ?, गो. वसहि जोअणेहिं अबाहाए चारं चरइ, एवं चन्दविमाणे गउईए जोअणेहिं चार चरइ, उवरिल्ले तारारूवे वसुत्तरे जोभणसए चार चरइ, सूरविमाणाओ चन्दविमाणे असीईए जोमणेहिं चार चरह, सूरविमाणाओ जोअणसए उबरिले तारारुवे चार चरइ, चन्दविमाणाओ वीसाए जोअणेहिं उवरिले णं तारारूवे चारं चरइ (सूत्र १६४)
अधः चन्द्रसूर्ययोस्तारामण्डलं उपलक्षणात् समपंको उपरि च अणुं समं वेत्यादि वक्तव्यं १, शशिपरिवारो वक्तव्यः | ॥५२॥ 8२ ज्योतिश्चक्रस्य मन्दरतोऽबाधा वक्तव्या ३ तथैव लोकान्तज्योतिश्चक्रयोरबाधा ४ धरणितलात् ज्योतिश्चक्रस्याबाधा
५ किश्च-नक्षत्रमन्तः-चारक्षेत्रस्याभ्यन्तरे किं बहिः किं चोर्ध्व किश्चाधश्चरतीति वक्तव्यं ६ ज्योतिष्कविमानानां संस्थान ।
O
JAI
.अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू. १६२' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १६२R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~288
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः)
मूलं [ १६२२ - १६४ ] + गाथा:
वक्षस्कार [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
वक्तव्यं ७ एषामेव प्रमाणं वक्तव्यं ८ चन्द्रादीनां विमानानि कियन्तो वहन्तीति वक्तव्यं ९ एषां मध्ये के शीघ्रग| तयः के मन्दगतय इति वक्तव्यं १०, एषां मध्ये केऽल्पर्द्धयो महर्द्धयश्चेति वक्तव्यं ११ ताराणां परस्परमन्तरं वक्तव्यं १२ अग्रमहिष्यो वक्तव्याः १३, तुटिकेन - अभ्यन्तरपर्यत्सत्कस्त्रीजनेन सह प्रभुः - भोगं कर्तुं समर्थश्चन्द्रादिर्नवा इति वक्तव्यं १४ स्थितिरायुषो वक्तव्या १५ ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वं वक्तव्यं १६ इति । अथ प्रथमं द्वारं पिपृच्छिपुराह'अस्थि ण' मित्यादि, अस्त्येतद् भगवन् ! चन्द्रसूर्याणां देवानां 'हिद्विपि 'त्ति क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूप: तारा विमानाधिष्ठातारो देवा द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि हीना अपि भवन्ति केचित्तुल्या अपि-सदृशा अपि भवन्ति, अधिकत्वं तु स्वस्वेन्द्रेभ्यः परिवारदेवानां न सम्भवतीति न पृष्टं, तथा समेऽपीति चन्द्रादिविमानैः क्षेत्रा| पेक्षया समाः- समश्रेणिस्थिता अपि तारारूपाः- तारा विमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवा| दिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि केचित्तुल्या अपि भवन्ति तथा चन्द्रादिविमानानां क्षेत्रापेक्षया उपरि- उपरिस्थितास्तारारूपा:- ताराविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोsपि केचित्तुल्या अपि भवन्ति, अत्र काकुपाठात् प्रश्नावगमः, एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह - गौतम! हन्तेति यदेव पृष्टं तत्सर्वं तथैवास्ति अतस्तदेवोच्चारणीयं, अत्रार्थे हेतुप्रश्नायाह-अथ केनार्थेन भगवन्नेवमुच्यते- 'अस्थि ण'मित्यादिना तदेव सूत्रमनुस्मरणीयं, अत्रोत्तरमाह-यथा यथा तेषां तारारूपविमानाधिष्ठातॄणां देवानां प्राग्भवे सपोनियमब्रह्मचर्याण्यु
For P&Praise Cinly
~289~
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------- -------------------------- मल [१६२R-१६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू- च्छ्रितानि-उत्कटानि भवन्ति, तत्र तपः-अनशनादि द्वादशविध नियमः-शौचादिः ब्रह्मचर्य-मैथुनविरतिः, अत्र च वक्षस्कारे द्वीपशा-IN| शेपन तानामनुपदर्शनमुत्कटप्रतधारिणां ज्योतिष्केषु उत्पादासम्भवात् , चितानीत्युपलक्षणं तेन यथा यथा अनुदि- अणूत्यादिन्तिचन्द्री-18| तानीत्यपि बोध्यं, अन्यथोत्तरसूबे वक्ष्यमाणमणुत्वं नोपपद्येत, यच्छन्दगभितवाक्यस्य तच्छन्दगम्भितवाक्यसापे-
परिवार
अप या वृचिः
क्षत्वादुत्तरवाक्यमाह तथा तथा तेषां देवानामेवं प्रज्ञायते-ज्ञायते इति, तद्यथा-अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा, न चैतद-1| १६२-२६८ ॥५२२।। नुचितं, दृश्यते हि मनुष्यलोकेऽपि केचिजन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्राम्भारा राजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञा सह
तुल्यविभवा इति, अत्र व्यतिरेकमाह-यथा यथा तेषां देवानां-ताराविमानाधिष्ठातणां प्राग्भवार्जितान्युच्छ्रितानि तपो| नियमब्रह्मचर्याणि न भवेयुस्तथा तथा तेषां देवानां नो एवं प्रज्ञायते-अणुत्वं वा तुल्यत्वं वा, अभियोगिककर्मोदयेना-18 तिनिकृष्टत्वात् , अयमर्थ:-अकामनिर्जरादियोगाद्देवत्वमाप्तावपि देवर्ल्डरलाभेन चन्द्रसूर्येभ्यो द्युतिविभवाद्यपेक्षयाऽणुत्वमपि न सम्भवेत् , कुतस्तमा तेषां तैस्सह तुल्यत्वमिति । अथ द्वितीयं द्वारं प्रश्नयति-'एगमेगस्स णं भन्ते !'इत्यादि, एकैकस्य भदन्त ! चन्द्रस्य कियन्तो महाग्रहाः परिवार तथा कियन्ति नक्षत्राणि परिवारः तधा कियत्यस्तारागणकोटाकोव्यः परिवारभूताः प्रज्ञप्ताः, भगवानाह-गौतम! अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवारोऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि परिवार: षट्प-
1 am टिसहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि तारागणकोटाकोटीनां परिवारभूतानि प्रज्ञप्तानि, यद्यप्यत्र एते चन्द्रस्यैव परिवारतयोक्तास्तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेते एव परिवारतयाऽवगन्तव्याः, समवायाङ्गे जीवाभिगमसूत्रवृत्त्यादी तथा.
Recene
Justice
अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू० १६२' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १६२R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~290
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], --------------------- -------------------------- मल [१६२R-१६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
दर्शनात् , अथ तृतीयं द्वारं पृच्छति-'मन्दरस्स णं भन्ते' इत्यादि, मन्दरस्य भदन्त ! पर्वतस्य कियत्याऽवाधया-अपान्तरालेन ज्योतिश्चकं चार चरति ?, भगवानाह-गौतम! जगत्स्वभावात् एकादशभिरेकविंशत्यधिको जनशतरित्येवंरूपयाऽबाधया ज्योतिष चारं चरति, किमुक्तं भवति?-मेरुतश्चक्रवालेनैकविंशत्यधिकान्येकादशयोजनशतानि मुक्त्वा चलं ज्योतिश्चक्रं तारारूपं चारं चरति, प्रक्रमाज्जम्बूद्वीपगतमवसेब, अन्यथा लवणसमुद्रादिज्योतिश्चक्रस्य मेरुतो दूरवतित्वेन उक्तप्रमाणासम्भवः, पूर्व तु सूर्यचन्द्रवक्तव्यताधिकारे अबाधाद्वारे सूर्यचन्द्रयोरेव मेरुतोऽबाधा उक्ता साम्प्रतं । | तारापटलस्यैति न पूर्वापरविरोध इति । अथ स्थिरं ज्योतिश्चक्रमलोकतः कियत्या अबाधया अर्वाक् अवतिष्ठत इति पिपृ-15 च्छिषुश्चतुर्थ द्वारमाह- लोगन्ताओ 'मित्यादि, लोकान्ततो-अलोकादितोऽर्वाक् कियत्या अबाधया प्रक्रमात् स्थिरं ।। ज्योतिश्चक्र प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! जगत्स्वभावात् एकादशभिरेकादशाधिकोजनशतैरबाधया ज्योतिष प्रज्ञप्त, ।। प्रक्रमात स्थिर बोध्यम्, चरज्योतिश्चक्रस्य तत्राभावादिति । अथ पञ्चमं द्वारं पृच्छति-धरणितलाओं णं भन्ते'118 इत्यनेन तत्सूत्रैकदेशेन परिपूर्ण प्रश्नसूत्रं बोध्यं, तच 'धरणितलाओ णं भन्ते ! उद्धं उप्पइत्ता केवइआए अबाहाए । | हिडिले जोइसे चारं चरइ, गोअमा!' इत्यन्त, वस्त्वेकदेशस्य वस्तुस्कन्धस्मारकत्वनियमात्, तत्रायमर्थ:-धरणित| लात-समयप्रसिद्धात् समभूतलभूभागा मुत्पत्य कियत्याऽवाधया अधस्तनं ज्योतिष तारापटलं चार चरति', भगवा-18 नाह-गौतम! सप्तभिर्नवतैः-नवत्यधिकयोंजनशतैरित्येवंरूपया अबाधया अधस्तनं ज्योतिश्चक्र चारं चरति, अथ सूयर्यादि
testseeo
tartar
IIS
~291
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------------------
------------------------- मल [१६२R-१६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू- विषयमबाधास्वरूपं संक्षिप्य भगवान् स्वयमेवाह-'एवं सूरविमाणे अहहिं सएहिं चन्द'इत्यादि, एवमुक्तन्यायेन यथावक्षस्कारे द्वीपशा-18| समभूमिभागादधस्तनं ज्योतिश्चक्रं नवत्यधिकसप्तयोजनशतैस्तथा समभूमिभागादेव सूर्यविमानमष्टभिर्योजनशतश्चन्द्रवि-18
अणुत्वादिन्तिचन्द्री-18 | मानमशीत्यधिकरष्टभिर्योजनशतैः उपरितनं तारारूपं नवभिर्योजनशतैश्चारं चरति । अथ ज्योतिश्चक्रचारक्षेत्रापेक्षया ।
परिवार या वृचिः
अबाधासू. अबाधाप्रश्नमाह-'जोइसस्स ण'मित्यादि, ज्योतिश्चक्रस्य दशोत्तरयोजनशतवाहल्यस्याधस्तनात् तलात् कियत्या अबा॥५२३|| धया सर्यविमानं चार घरति ?, गौतम! दशभियोजनैरित्येवंरूपया अवाधया सूर्यविमानं चारं चरति, अत्र च सूत्रे ||
समभूभागादू नवत्यधिकसप्तयोजनातिक्रमेण ज्योतिश्चक्रबाहल्यमूलभूत आकाशप्रदेशप्रतरः सोऽवधिमन्तव्यः, एवं चन्द्रादिसूत्रेऽपि, एवं चन्द्रविमानं नवत्या योजनैरित्येवंरूपया अबाधया चारं चरति, तथोपरितनं तारारूपं दशाधिके 18 योजनशते ज्योतिश्चक्रवाहल्यप्रान्ते इत्यर्थः चार चरति, अथ गतार्थमपि शिष्यव्युत्पादनाय सूर्यादीनां परस्परमन्तरं सूत्रकृदाह-सूरबिमाणाओ'इत्यादि, सूर्यविमानात् चन्द्रविमानं अशीत्या योजनैश्चारं चरति, सूर्यविमानात् योजन-1 शतेऽतिक्रान्ते उपरितनं तारापटलं चारं चरति, चन्द्रविमानात् विंशत्या योजनैरुपरितनं तारापटलं चार चरति, अत्र
॥५२३॥ सूचामात्रत्वात् सूत्रेऽनुक्तापि ग्रहाणां नक्षत्राणां च क्षेत्रविभागव्यवस्था मतान्तराश्रिता संग्रहणिवृत्त्यादौ दर्शिता लि
ख्यते-'शतानि सप्त गत्वोचं, योजनानां भुवस्तलात् । नवतिं च स्थितास्ताराः, सर्वाधस्तान्नभस्तले ॥१॥ तारकापट18 लाद् गत्वा, योजनानि दशोपरि । सुराणां पटलं तस्मादशीति शीतरोचिषाम् ।। २ ॥ चत्वारि तु ततो गत्वा, नक्षत्र-161
eseeeeeeeeeee
~292
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------- -------------------------- मल [१६२R-१६४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
पटलं स्थितम् । गरवा ततोऽपि चत्वारि, बुधाना पटलं भवेत् ॥३॥ शुक्राणां च गुरूणां च, भीमाना मन्दसंज्ञिनाम् । त्रीणि त्रीणि च गत्योर्ष, क्रमेण पटलं स्थितम् ॥ ४॥ इति ॥ अथ षष्ठं द्वारं पृच्छमाह
जम्मुदीचे णं दीये अठ्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते सबभतरिहं चार चरइ?, कयरे णक्यते सव्यवाहिर चार चरइ ?, कयरे सम्वहिडिर्ष चार चरइ, कयरे सब्बरवरिहं चार चरह, गो०! अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरं चार चरड, मलो सब्बबाहिर चारं चरइ, भरणी सव्वहिडिल्लगं साई सव्वुवरिलगं चारं चरइ । चन्दविमाणे णं भन्ते! किंसंठिए पण्णते?, गो०! अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए सम्बफालिआमए अन्भुग्गयमुसिए एवं सब्वाइं अव्वाई, चन्दविमाणे णं भन्ते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं बाहलेग, गो०छप्पणं खलु भाए विच्छिण्णं चन्दमंडलं होइ । अट्ठावीसं भाए बाहवं तस्स पोद्वयं ॥ १॥ अडयालीसं भाए विच्छिणं सूरमण्डलं होइ । चउवीसं खलु भाए वाहतं तस्स बोद्धव्वं ॥२॥ दो कोसे अ गहाणं णक्खत्ताणं तु हबइ तस्सद्धं । तस्सद्धं ताराणं तस्सद्धं चेव बाहहं ॥ ३॥ (सूत्रं १६५)
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपेऽष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्ये कतरन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तर-सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वा-18 भ्यन्तरः तं, अनेन द्वितीयादिमण्डलचारव्युदासः, चार चरति ?, तथा कतरन्नक्षत्रं सर्वबाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलि-8 काया बहिवारं परति-भ्रमति, तथा कतरन्नक्षत्रं सर्वेभ्योऽधस्तनं चारं चरति, तथा कतरनक्षत्रं सर्वेषां नक्षत्राणामु-|| परितनं चारं चरति, सर्वेभ्यो नक्षत्रेभ्य उपरिचारीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! अभिजिन्नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति,
Eeeeeeeeeeee
Jatrika
~293
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------------ -------------------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
भीजम्बू-18
यद्यपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारीण्यभिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि तथापीदं शेषैकादशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशिवक्षस्कारे द्वीपशा-18|| स्थितं सत् चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्युक्तं, तथा मूलो-मूलनक्षत्रं सर्वबाह्यं चार चरति, यद्यपि पञ्चदशमण्ड- अभ्यन्तरन्तिचन्द्री-|8|| लादहिचारीणि मृगशिरःप्रतीनि पडू नक्षत्राणि पूर्वाषाढोत्तरापाढयोश्चतुर्णा तारकाणां मध्ये दे द्वे च तारे उक्तानि संस्थानविया वृतिः
॥8॥ तथाप्येतदपरवहिश्चारिनक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिवारीत्युक्तं, तथा भरणीनक्षत्रं सर्वाधस्तनं
चार चरति, तथा स्वातिनक्षत्रं सर्वोपरितनं चारं चरति, अयं भावः-दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो 8/नक्षत्राणा क्षेत्रविभागश्चतुर्योजनप्रमाणस्तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः क्रमेणाधस्तनोपरितनभागी ज्ञेयो, हरिभद्रसूरयस्तु "अध-18
स्तने ज्योतिष्कतले भरण्यादिकं नक्षत्रमुपरितने च ज्योतिष्कतले स्वात्यादिकमस्तीत्याहु"रिति । अथ सप्तमं द्वारं पृच्छति-8 I'चन्दविमाणे ण'मित्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त! किंसंस्थितं-किंसंस्थानं प्रज्ञप्तम्, गौतम! उत्तानीकृतार्द्धकपित्थ-18
फलसंस्थानसंस्थितं सर्वस्फटिकमयं 'अभ्युद्गतोत्सृत'मित्यनेन विजयद्वारपुरस्थप्रकण्ठकगतमासादवर्णकः सर्वोऽपि | विमानप्रकरणात् क्लीवेकवचनपूर्वको वाच्यः, एवं चन्द्रविमानन्यायेन सर्वाणि सूर्यादिज्योतिष्कविमानानि नेतव्यानि || संस्थाननैयत्यबुद्धिं प्रापणीयानि, ननु यदि सर्वाण्यपि ज्योतिष्कविमानान्यीकृतकपित्याकाराणि ततश्चन्द्रसूर्यविमाना- ५२२॥ न्यतिस्थूलत्वादुदयकालेऽस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिभ्रमन्ति कस्मात्तथाविधानानि नोपलभ्यन्ते ?, यस्तु शिरस उपरि वर्तमानानां तेषामधस्थायिजनेषु वर्तुलतया प्रतिभासः अर्द्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागा
~294
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
३ दर्शनतो व लतया दृश्यमानत्वात् सोऽपि न सम्यग्भावमश्चति पूर्णवृत्तस्यापि तथा दर्शनात् , उच्यते, इहाईकपिस्थाकाराणि न सामस्त्येन विमानानि प्रतिपत्तव्यानि किन्तु विमानानां पीठानि, तेषा पीठानामुपरि चन्द्रादीनां प्रासादास्ते च प्रासादास्तथा कथंचनापि व्यवस्थिता यथा पीठः सह भूयान् वरील आकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते ततो न कश्चिद्दोषः । अथाष्टमं द्वारं पृच्छति-'चन्दविमाणे ण'मित्यादि, चन्द्रविमानं णमिति प्राग्वत्, भदन्त! कियदायामविष्कम्भेन कियाहल्येन-उच्चस्त्वेन प्रज्ञप्तं ?, उपलक्षणात् सूर्यादि-18 विमानमपि प्रश्चितं द्रष्टव्य, अन पद्येनोत्तरसूत्रमाह-गौतम! खल्वितिपदं निश्चयेऽलङ्कारे वा षट्पञ्चाशदेकषष्टिभागान् । योजनस्य विस्तीर्ण चन्दमण्डलं भवति, अयमर्थ:-एकस्य प्रमाणांगुलयोजनखैकषष्टिभागीकृतस्य षट्पञ्चाशता भागैः समु-18 | दितावत्प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणोऽस्य विस्तार इत्यर्थः, वृत्तवस्तुनः सहशायामविष्कम्भरथात्, एवमेवोत्तरसूत्र, 31
तेनायामोऽपि तावानेव, परिक्षेपस्तु स्वयमभ्युह्यः, वृत्तस्य सविशेषत्रिगुणः परिधिरिति प्रसिद्धेः, बाहल्यं चाष्टाविंश|| तिभागान् यावत्तस्य बोद्धव्यं, षट्पञ्चाशदागानामढे एतावत एव लाभात्, सर्वेषामपि ज्योतिष्क(काणां)विमानानां | KRI (नि) स्वस्वव्यासप्रमाणात् अर्द्धप्रमाणवाहल्यानीति वचनात् , तथा अष्टचत्वारिंशतं भागान् विस्तीर्ण सूर्यमण्डलं भवति,
चत्वारिंशद्(चतुर्विशति)भागान् यावद् बाहल्यं तस्य बोद्धव्यं, तथा द्वौ कोशौ च ग्रहाणां तदेवार्द्ध योजनमित्यर्थः ४ तथा नक्षत्राणां तु भवति तस्थाई-एक कोशमित्यर्थः, तस्याई क्रोशार्द्धमित्यर्थः ताराणां विमानानि विस्तीर्णानि,
Secemeseseselesedeseserveese
~295
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- -------------------------- मूलं [१६५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे चन्द्रादिविमानवा
१६६
श्रीजम्मू-1 ग्रहादिविमानाना मध्ये यस्य यो व्यासस्तस्य तदर्द्ध बाहल्यं भवति, यथा क्रोशद्वयस्थाई क्रोशो ग्रहविमानवाहल्यं, द्वीपशा
क्रोशाई नक्षत्रविमानबाहल्यं, क्रोशतुर्याशस्ताराविमानबाहल्यमिति, एतच्चोत्कृष्टस्थितिकतारादेवविमानमाश्रित्यो, न्तिचन्द्री
यत्पुनर्जघन्यस्थितिकतारादेवविमानं तस्यायामविष्कम्भपरिमाणं पञ्चधनुःशतानि उच्चत्वपरिमाणमर्द्धतृतीयानि धनु:या वृचिः
| शतानीति तत्त्वार्थभाष्ये । अथ नवमं द्वारं प्रश्नविषयीकुर्वन्नाह॥५२५॥
चन्दविमाणेणं भन्ते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहति ?, गोअमा! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंतीति । चन्दविमाणस्स गं पुरथिमे णं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं चिरलठ्ठपउठ्ठवट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंबिअमुहाणं रतुप्पलपत्तमउयसूमालतालुजीहाणं महुगुलिअपिंगलक्खाणं पीवरवरोरुपडिपुण्णबिउलखंधाणं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्यवरवण्णकेसरसडोवसोहिआणं ऊसिअसुनमियसुजायअप्फोडिअलंगूलाणं बइरामयणक्खाणं बइरामयदाढाणं वइरामयदन्ताणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुआणं तवणिजोत्तगसुजोइआणं कामगमार्ण पीइगमाण मणोगमार्ण मणोरमाणं अमिमगईर्ण अमिभवलवीरिअपुरिसकारपरकमाणं मह्या अप्फोडिअसीहणायबोलकलकलरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंवर विसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारीणं पुरथिमिल्छ बाहं वहति । चंद्रविमाणसणं दाहिणणं सेआणं सुभगाणं सुष्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुअलसुडिअपीवरवरचइरसोंडवट्टिअदित्तसुरत्तपउमप्पगासाणं अम्भुषणयमुहाणं तबणिजविसालकण्णचंचलचलंतविमलुज्जलाणं महुवष्णभिसंतणिद्धपत्तलनिम्मलतिवष्णमणिरवणलो
eece@seemesesesesesese
esesestaeseseseseseseseser
॥५२५॥
BE
अथ चन्द्रादि विमान-वाहका: प्रदर्श्यते
~296~
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------ .-----.-..-...------------ मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
भणाणं अम्भुगायमउलमल्लिाधवलसरिससंठिअणिवणदढकसिणफालिआमयसुजायदन्तमुसलोक्सोमिआणं कंचणकोसीपविद्वदन्तगविमलमणिरयणरुइलपेरंतचित्तरूवगविराइआणं तवणिजविसालतिलगष्पमुहपरिमण्डिआणं नानामणिरयणमुद्धगेविजबद्धगलयवरभूसणाणं बेरुलिअविचित्तदण्डनिम्मलवइरामयतिक्खलहअंकुसकुंभजुअलयंत्तरोडिआणं तवणिजसुबद्धकच्छप्पिअबल्लुद्धराणं विमलघणमण्डलवइरामयलालाललियतालणं णाणामणिरयणघण्टपासगरजतामयबद्धलज्जुलंबिअघंटाजुअलगहुरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवाहि असुजायलक्षणपसस्थरमणिज्जवालगत्तपरिपुंछणाणं उवचिअपडिपुण्णकुम्मचलणलहुविकमाणं अंकमयणक्याणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुभाणं तवणिजजोत्तगसुजोइआण कामगमाणं पीइगमाण मणोगमाणं मणोरमाण अमिमगईणं अमिभवलपीरिअपुरिसकारपरकमाणं महयागंभीरगुलगुलाइतरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता पत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूबधारीणं देवाणं दक्खिणिलं वाई परिवहंतित्ति । चन्दविमाणस्स गं पञ्चत्यिमेणं सेआणं सुभगाणं सुष्पमाणं चलचवलककुहसालीणं घणनिचिअसुबद्धलक्खणुग्णयईसिआणयवसभोहाणं चंकमिअललिअपुलिअचलचवलगविअगईणं सन्नतपासाथ संगतपासाणं सुजायपासाणं पीवरवाहिजसुसंठिअकडीणं ओलंबपलंबलक्षणपमाणजुत्तरमणिजवालगण्डाणं समखुरवालिधाणाणं समलिहिअसिंगतिक्खग्गसंगवाणं तणुसहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं उवचिअर्मसलविसालपटिपुष्णसंधपएससुंदराणं हलिअभिसंतकडक्पसुनिरिक्खणाणं जुत्तपमाणपहाणलक्षणपसत्थरमणिजगग्गरगल्लसोभिआणं घरघरगसुसहबद्धकंठपरिमण्डिआणं णाणामणिकणगरयणघण्टिवेगरिछगसुक्यमालिआणं वरघण्टागलयमालुजलसिरिधराणं पउमुप्पलसगलसुरभिमालाविभूसिआणं बहरखुराण विविहविक्खुराणं फालिआमयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुआणं तवणिजजोत्तगसुजोइआर्ण कामगमाणं पीइंगमाणं
Desesex
~297
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- ---------------------------- मल [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू-8 द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः
वक्षस्कारे चन्द्रादिविमानवाहकाः सू.
॥५२६॥
मणोगमाणं मणोरमाणं अमिअगईणं अभिभबलवीरिअपुरिसकारपरकमाणं महयागजिमगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेण पूरता अंबरं दिसाओ अ सोभयंती चत्तारि देवसाहस्सीओ वसहरूवधारीणं देवाणं पञ्चस्थिमिलं वाई परिवहतित्ति । चन्दविमाणस्स गं उत्तरेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलमडलमल्लिअच्छाणं चंचुचिअललिअपुलिअचलचवलचंचलगईणं लंघणवम्गणधावणधोरणतिवइजाणसिक्खिअगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं सन्नयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं पीवरवट्टिअसुसंठिअकडीणं ओलम्बपलंबलक्खणपमाणजुत्तरमणिजबालपुच्छाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छविहराणं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्यविच्छिण्णकेसरवालिहराणं ललंतथासगललाङवरभूसणाणं मुहमण्डगओचूलगचामरथासगपरिमण्डिअकडीणं तवणिजखुराणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुआर्ण तवणिज जोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं जाव मणोरमाणं अमिअगईणं अमिअबलवीरिअपुरिसकारपरकमाणं मयाबहेसिअकिलकिलाइअरवेणं मणहरेण पूरेता अंबरं दिसाओ अ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हय. रूवधारीणं देवाणं उत्तरिहं बाहं परिवहतित्ति । गाहा--सोलसदेवसहस्सा हवंति चंदेसु चेव सूरेसु । अद्वेव सहस्साई एककमी गहविमाणे ॥ १॥ बचारि सहस्साई णक्खत्तंमि अहवति इक्केि । दो चेव सहस्साई तारारूवेकमेकमि ॥२॥ एवं सूरविमाणाण जाव तारारूवविमाणाणं, णवरं एस देवसंघाएत्ति ( सूत्रं १६६)।
Creatmortem
॥५२६॥
चन्द्रविमानं भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ?, गौतम! षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, एकैकस्यां दिशि ] चतुश्चतुःसहस्राणां सद्भावातू, इयमत्र भावना-इह चन्द्रादीनां विमानानि तथा जगत्स्वभावात् निरालम्बनानि वहमा-18||
~298~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
A नान्यवतिष्ठन्ते, केवलं ये आभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयाना वा | देवानां निजमहिमातिशयदर्शनार्थमात्मानं बहुमन्यमानाः प्रमोदभृतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थित्वा २ केचित् ॥ सिंहरूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचिदुपभरूपाणि केचित्तुरङ्गमरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुप-1 पन्नं, तथाहि-यथेह कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां ।
वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य सम्मत इति निजमाहात्म्यातिशयदर्शनार्थं सर्वमपि स्वोचितं कर्म || 18|| प्रमुदितः करोति तथा आभियोगिका अपि देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाज: समानजातीयानां हीनजाती-||
यानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि बहाम इत्येवं निजमाहत्म्या-18| तिशयदर्शनार्थमात्मानं बहुमन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्तीति । अथैषामेव षोडशसहस्राणां व्यक्ति& माह-'चन्दविमाण' इत्यादि, चन्द्र विमानस्य पूर्वस्यां-बद्यपि जङ्गमस्वभावेन ज्योतिष्काणां सूर्योदयाङ्कितैव पूर्वा न संभवति ।
चारानुसारेण परापरदिक्परावर्तसम्भवात् तथापि जिगमिषितदिशं गच्छतोऽभिमुखा दिक् पूर्वेति व्यवहियते, यथा । क्षुतदिक, सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि पौरस्त्यां वाहां-पूर्वपार्यं वहन्तीति सम्बन्धः, तेषामेव विशे-18 पायाह-'सेआण'मित्यादि, श्वेताना-श्वेतवर्णानां तथा सुभगाना-सौभाग्यवतां जनप्रियाणामित्यर्थः, तथा सुप्रभाणां-|| | सुष्ठ-शोभना प्रभा-दीप्तिर्येषां ते तथा तेषां, तथा शद्धतलं-शंखमध्यभागो विमलनिर्मल:-अत्यन्तनिर्मलो यो दधि-18
~299
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू- घनः-स्त्यानीकृतं दधि गोक्षीरफेनः प्रसिद्धः, रजतनिकरो-रूप्यराशिस्तेषामिव प्रकाश:-तेजःप्रसारो येषा ते तथा तेषां, 8वक्षस्कारे द्वीपशा-1 तथा स्थिरी-दृढौ लष्टौ-कान्तौ प्रकोष्ठको-कलाचिके येषां ते तथा, तथा वृत्ताः-वर्तुलाः पीवराः-पुष्टाः सुश्लिष्टाः-18 चन्द्रादिन्तिचन्द्री
अविवराः विशिष्टा:-तीक्ष्णा भेदिका या दंष्ट्रास्ताभिषिडम्बितं-विवृतं मुखं येषां ते तथा, प्रायो हि सिंहणातीया || विमानवाया वृचिः 18 दादाभित्तिमुखा एव भवन्तीति, अथवा विडम्वितं-धातूनामनेकार्थत्वात् शोभितं मुखं येषां ते तथा, ततः
हकाःम्.
१६६ ॥५२७॥ कर्मधारयस्तेषां, तथा रक्तोत्पलपत्रबत् मृदुसुकुमाले-अतिकोमले तालुजिहे येषां ते तथा तेषां, तथा मधुगु
|टिका-घनीभूतक्षौद्रपिण्डस्तद्वत्पिङ्गले अक्षिणी येषां ते तथा तेषां, प्रायो हि हिंञजीवानां चढूंषि पीतवर्णानीति, तथा पीवरे-उपचिते वरे-प्रधाने ऊरू-जंघे येषां ते तथा, परिपूर्णः अत एव विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते तथा, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां, तथा मृदवो विशदा:-स्पष्टाः सूक्ष्मा:-प्रतलाः लक्षणैः प्रशस्ताः वरवर्णाःप्रधानवणोंः या केसरसटा:-स्कन्धकेसरच्छटास्ताभिरुपशोभितानां तथा उच्छ्रितं-ऊध्वीकृतं सुनमितं-मुष्ठ अधोमुखी-18 कृतं सुजातं-शोभनतया जातमास्फोटितं च-भूमावास्फालितं लागुलं यैस्तथा तेषां, तथा वनमयनखानां तैलादित्वाद् द्वित्त्वं वज्रमयदंष्ट्राणां वज्रमयदंताना, त्रयाणामध्यवयवानामभङ्गुरत्वोपदर्शनार्थ वज्रोपमानं, तथा तपनीयमय जिह्वानां ॥५२७॥ तथा तपनीयमयतालुकानां तथा तपनीयं योर्क प्रतीतं सुयोजितं येषु ते तथा तेषां कामेन-खेच्छया गमो-गमनं । येषां ते तथा तेषां, यत्र जिगमिषन्ति तत्र गच्छन्तीत्यर्थः, अत्र 'युवर्णवृहवशरणगमृद्ह' (श्रीसिद्ध०५-३-२८७)
Reseace
~300
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
इत्यनेनाल्प्रत्ययः, तथा प्रीति:-चित्तोलासस्तेन गमो-गमनं येषां ते तथा तेषां, तथा मनोवद् गमो-गमनं वेगवत्त्वेन येषां ते तथा तेषां, तथा मनोरमाणां मनोहराणां तथा अमितगतीनां-बहुतरगतीनामित्यर्थः, तथा अमितबलेत्यादिपदानि प्राग्वत् , तथा महता आस्फोटितसिंहनादबोलकलकलरवेण मधुरेण मनोहरेण पूरयन्ति-शब्दाद्वैतं विदधाना|नि अम्बर-नभोमण्डलं दिशश्च-पूर्वाधाः शोभयन्ति-शोभयमानानीति विशेषणद्वयं सहस्राणीति विशेष्येण सह योज्यं । | अथ द्वितीयवाहावाहकानाह-चंदविमाण' इत्यादि, चन्द्रविमानस्य दक्षिणस्या-जिगमिपितदिशो दक्षिणे पार्षे गजरूप-IN धारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि दाक्षिणात्यां बाहां परिवहन्तीत्यन्वयः, एषां विशेषणायाह-'सेआण'मित्यादि । विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, तथा वनमयं कुम्भयुगलं येषां ते तथा सुस्थिता-सुसंस्थाना पीवरा-पुष्टा बरा वज्रमयी।
शुण्डा वर्तिता-वृत्ता पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् तस्यां दीप्तानि सुरक्तानि यानि पद्मानि-बिन्दुजालरूपाणि तेशं प्रका|| शो-व्यक्तभावो येषां ते तथा, पालकाप्यशास्त्रे हि तारुण्ये हस्तिदेहे जायमाना रक्तविन्दवः पद्मानीति व्यवड़ियन्ते । | इति, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां, तथा अभ्युनतमुखानां पुरत उन्नतत्वात् तथा तपनीयमयावन्तररुणत्वेन विशाली| इतरजीवकर्णापेक्षया विस्तीरें चञ्चलौ-सहजचापल्ययुक्तौ अत एव चलन्तौ-इतस्ततो दोलायमानौ विमली-आगन्तुक-1॥ मलरहितौ उज्वली-भद्रजातीयहस्त्यवयवत्वेन बहिः वेतवणों करें येषां ते तथा तेषां, अत्र पदव्यत्ययः प्राग्वत्, तथा मधुवर्णे-क्षौद्रसदृशे 'भिसंति'त्ति भासमाने स्निग्धे पत्रले-पक्ष्मवती निर्मले छायादिदोषरहिते त्रिवर्णे-रक्तपी
LARKS
~ 301
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------ -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्व तश्वेतवर्णाश्रये मणिरत्नमये लोचने येषां ते तथा तेषां, तथा अभ्युद्गतानि-अत्युन्नतानि मुकुलमल्लिकेव-कोरकावस्थ- ७वक्षस्कारे द्वीपशा-IN विचकिलकुसुमवद् धवलानि तथा सदृशं-समं संस्थानं येषां तानि तथा, निर्बणानि-प्रणवर्जितानि दृढानि कृत्स्नस्फ- चन्द्रादिन्तिचन्द्री- टिकमयानि-सर्वात्मना स्फटिकमयानीत्यर्थः सुजातानि-जन्मदोषरहितानि दन्तमुसलानि तैरुपशोभिताना, तथा
Kा विमानवाया वृत्तिः
सहकाः सू. विमलमणिरत्नमयानि रुचिराणि पर्यन्तचित्ररूपकाणि अर्थात् कोशीमुखवतीनीत्यर्थः तैर्विराजिता या काश्चनकोशी १६६ पोलिकेति प्रसिद्धा तस्यां प्रविष्टा दन्ताना-अग्रदन्ता येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तथा तपनीयम| यानि विशालानि तिलकप्रमुखाणि यानि मुखाभरणानि आदिशब्दादनशुण्डिकाचामरादिपरिग्रहस्तैः परिमण्डिताना,
तथा नानामणिरलमयो मूर्द्धा येषां ते तथा अवेयेन सह बद्धानि गलकवरभूषणानि-कण्ठाभरणानि घण्टादीनि येषां ॥ |ते तथा, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां, तथा कुम्भयुगलान्तरे-कुम्भद्वयमध्ये उदिता-उदयं प्राप्तः तत्र स्थित इत्यर्थः, तथा वैडूर्यमयो विचित्रदण्डो यस्मिन् स तथा, निर्मलवजमयस्तीक्ष्णो लष्टो-मनोहरोऽशो येषां ते तथा तेषां, तथा तपनीयमयी सुबद्धा कक्षा-हृदयरज्जुर्येषा ते तथा, दर्पिता-सञ्जातदोस्ते तथा, बलोद्धरा-बलोत्कटास्ते तथा, ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलने २ कर्मधारयस्तेषां, तथा विमलं तथा घनं मण्डलं यस्य तत् तथा, वज्रमयलालाभिललित-९
॥५२८॥ श्रुतिसुखं ताडनं यस्य तत् तथा, नानामणिरत्नमय्यः पार्श्वगा:--पार्श्ववर्तिन्यो घण्टा अर्थालघुघण्टा यस्य तत् तथा एवंविधं रजतमयी तिर्यग्बद्धा या रजुस्तस्यां लम्बितं यद् घण्टायुगलं तस्य यो मधुरस्वरः तेन मनोहराणां, तथा
S9929892e
~302
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ---------------------- -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
आलीनं-सुश्लिष्टं निर्भरभरकेशत्वात् प्रमाणयुक्त-चरणावधि लम्बमानत्वात् वर्तितं-वर्तुलं सुजाता-लक्षणप्रशस्ता रमराणीया-मनोहरा वाला यस्य तत् एवंविधं गात्रपरिपुञ्छनं-पुच्छं येषां ते तथा तेषां, तिर्यचो हि पुच्छेनैव गात्रं प्रमाणयन्तीति, तथा उपचिता-मांसलाः परिपूर्णाः-पूर्णावयवास्तथा कूर्मवदुन्नताश्चरणास्तैर्ल घुलाघवोपेतः-शीघ्रतर इत्यर्थः विक्रमः-पादविक्षेपो येषां ते तथा तेषां, तथा अङ्करत्नमयनखानां तवणिज्जजीहाणमित्यादि नव पदानि प्राग्वत् , महता-बहुव्यापिना गम्भीर:-अतिमन्द्रो गुलुगुलायितरवो-हितशब्दस्तेन मधुरेण मनोहरेण अम्बरं पूरयन्ति दिशश्च शोभयन्तीत्यादि प्राग्वत् । अथ तृतीयवाहावाहकानाह-'चन्दबिमाणस्स ण'मित्यादि, चन्द्रविमानस्य पश्चिमायांजिगमिपितदिशः पृष्ठभागे वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि पश्चिमां बाहां परिवहन्तीत्यर्थः, श्वेताना सुभगानामित्यादि प्राग्वत्, चलचपलं-इतस्ततो दोलायमानत्वेनास्थिरत्वादतिचपलं ककुदं-अंसकूट तेन शालिनाशोभायमानानां तथा घनवद्-अयोधनवनिचिताना-निर्भरभृतशरीराणामत एव सुबद्धाना-अश्लथानां लक्षणोन्नतानाप्रशस्तलक्षणानां तथा ईषदानतं-किञ्चिन्ननभावमुपागतं वृषभौष्ठ-वृषभौ-प्रधानी लक्षणोपेतत्वेनौष्ठौ यत्र तत्, समर्थ
विशेषणेन विशेष्यं लभ्यत इति मुखं येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदचतुष्टयकर्मधारयस्तेषां, तथा चंक्रमितं-कुटिल18 गमनं ललितं-बिलासबद्गमनं पुलितं-गतिविशेषः स याफाशक्रमणरूपः एषरूपा चलचपला-अत्यन्तचपला गर्विता H गतिर्येषां ते तथा सन्नतपार्थानां अधोऽधःपार्थचोरवनतत्वात् तथा सङ्गतपार्थाना-देहप्रमाणोचितपाश्चानां तथा
Sasasacassage
JaEcim
~303
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
See
श्रीजम्बू- ॥ सजातपार्थाना-सुनिष्पन्नपार्थानां तथा पीवरा-पुष्टा वर्जिता-वृत्ता सुसंस्थिता-सुसंस्थाना कटिर्येषा ते तथा तेषा, तथा| वक्षस्कारे
द्वीपशा- अवलम्बानि-अवलंबनस्थानानि तेषु प्रालम्बानि-लम्बायमानानि लक्षणैः प्रमाणेन च यथोचितेन युक्तानि रमणीयानि | चन्द्रादिन्तिचन्द्रीवालगण्डानि-चामराणि येषां ते तथा तेषां, तथा समा:-परस्परं सदृशाः खुराः प्रतीताः वालिधानं-पुण्ठं च येषां ते
विमानवाया वृत्तिः
तथा तेषां, तथा 'समलिखितानि' समानि-परस्परं सदृशानि लिखितानीवोत्कीर्णानीवेत्यर्थः तीक्ष्णाग्राणि सङ्गतानि॥५२९॥ यथोचितप्रमाणानि शृङ्गाणि येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , तथा तनुसूक्ष्माणि-अत्यन्तसूक्ष्माणि सुजा
शानि-सनिष्पनानि सिग्धानि लोमानि तेषां या छविस्तां धरन्ति ते तथा, उपचित:-पुष्टोऽत एव मांसलो विशालो || | पूर्वहनसमर्थत्वात् परिपूर्णोऽव्यङ्गत्वात् यः स्कन्धप्रदेशस्तेन सुन्दराणां, तथा वैडूर्यमयानि 'भिसंतकडक्ख'त्ति भास-|| मानकटाक्षाणि-शोभमानार्द्धप्रेक्षितानि सुनिरीक्षणानि-सुलोचनानि येषां ते तथा तेषां, तथा युक्तप्रमाणो-यथोचितमानोपेतः प्रधानलक्षणः प्रतीतः प्रशस्तरमणीय:-अतिरमणीयो गग्गरक:-परिधान विशेषो लोकप्रसिद्धस्तेन शोभितगलानां पदव्यत्ययः प्राग्वत्, तथा घरघरका:-कण्ठाभरविशेषः सुशब्दा बद्धा यत्र स चासौ कण्ठश्च तेन परिमण्डि-181
ताना, तथा नानाप्रकारमणिकनकरत्नमय्यो या घण्टिका:-क्षुद्रघण्टाः किङ्किण्य इत्यर्थस्तासां वैकक्षिकास्तिर्यग्वक्षसि स्था- 18॥५२९॥ ॥ पितत्वेन सुकृताः-सुष्टु रचिता मालिका:-श्रेणयो येषां ते तथा तेषां, तथा वरघण्टिका:-उक्तघंटिकातो विशिष्टतरत्वेन
प्रधानघण्टा गले येषां ते वरघण्टागलकाः तथा मालया उज्ज्वलास्ते तथा ततः परद्वयकर्मधारयस्तेषा, तथा पुष्पा
~304
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- .-----.-..-...------------ मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SONGaner
Doesses
Iलपरमेव विशेषेणाह-पद्मानि-सूर्यविकासीनि उत्पलानि-चन्द्रविकासीनि सकलानि-अखण्डितानि सुरभीणि तेषां
मालास्ताभिर्विभूषितानां पदव्यत्ययः प्राग्वत् , तथा बज्ररत्नमयाः खुराः प्रतीता येषां ते तथा तेषां विविधाः मणिकनकादिमयस्येन नानाप्रकारा विखुरा-उक्तखुरेभ्य ऊध्र्ववर्तित्वेन विकृष्टाः खुरा येषां ते तथा तेषां, तथा स्फटिकमयदन्तानां तथा तपनीयमयजिह्वानां तथा तपनीयमयतालुकानां तथा तपनीययोक्रके सुयोजितानां तथा 'कामगमाण'मित्यादिपट पदानि प्राग्वत्, महता-गम्भीरेण गर्जितरवेण-भाङ्कारशब्दरूपेणेत्यादि प्राग्वदिति । अथ चतर्थनाहावाहकानाहचन्द्रविमाणस्स णमित्यादि, चन्द्रविमानस्योत्तरस्यां जिगमिपितदिश उत्तरपार्थे वामपार्षे इत्यर्थः, हयरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि उत्सरां बाहां परिवहन्तीति सम्बन्धः, श्वेतानामित्यादि प्राग्वत्, तथा तरो-वेगो बलं वातथा मलि मलिधारणे' ततश्च तरोधारको वेगादिधारको हायन:-संवत्सरो येषां ते तरोमल्लिहायना यौवनवन्त इत्यर्थः अतस्तेषां वरतुरामाणामित्यादियोगः, तथा हरिमेलको-वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकुलं-कुडजल तथा मलिका-विवकिलस्तदक्षिणी येषां ते तथा तेषां शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, तथा 'चंचुचिय'त्ति प्राकृतत्वेन चंचुरितं-कुटिलगमनं अथवा चंचुःशकचंचुस्तद्वदक्रतयेत्यर्थे। उचित-उच्चताकरणं पादस्योच्चितं वा--उत्पादनं पादस्यैव चंचूचितं च तत् ललितं च-वि-10 लासय गतिः पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्धः एवंरूपा तथा चलयतीति चलो-बायुः कम्पनत्वात् तद्वचपलचञ्चलाअतीवचपला गतिर्येषां ते तथा तेषां, तथा लंघनंग देरतिक्रमणं वल्गनं-उस्कूईनं धावन-शीघ्रमृजुगमनं धोरण-गति-18
esesesese
Sestee
~305
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- ---------------------------- मल [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
१६६
श्रीजम्य-18चातुर्य विपदी-भूमी पदवयन्यासः जयिनीव-गमनान्तरजयवती जविनी था-वेगवती शिक्षिता-अभ्यस्ता गतिस्ते | अक्षस्कारे द्वीपशा-8 तथा तेषां, तथा ललन्ति-दोलायमानानि 'लाम'त्ति प्राकृतत्वाद्रम्याणि गललातानि-कण्ठे न्यस्तानि वरभूषणानि येषां चन्द्रादि18ते तथा तेषां, तथा सन्नतपार्थानामित्यादि पञ्च पदानि प्राग्वत् , नवरं वालमधानानि पुच्छानि वालपुच्छान्यर्थाच्चामरा
विमानवाया चिः
हका:सू. णीत्यर्थः, तथा 'तणुसुहुमे'त्ति पदं प्राग्वत् तथा मृद्धी विशदा-उज्ज्वला अथवा परसरमसम्मिलिता प्रतिरोमकूपमेकैकस॥५३०॥ भवात् सूक्ष्मा-तन्बी लक्षणप्रशस्ता विस्तीर्णा या केसरपालि:-स्कन्धकेशश्रेणिस्ता धरंति ये ते तथा तेषां, तथा ललन्त:
| सुवद्धत्वेन सुशोभाका ये स्थासका-दर्पणाकारा आभरण विशेरास्त एव ललाटवरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, तथा मुखमण्डकं च-मुखाभरणं अवचूलाश्च-प्रलम्बमानगुच्छाः चामराणि च स्थासकाश्च प्रतीता एषां द्वन्द्वस्तत एते यथास्थाने नियोजिता येषां सन्ति ते तथा, अभ्रादित्वादप्रत्यये रूपसिद्धिः, परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा, ततः पदद्वयकर्मधारयस्तेषां, तथा तपनीयखुराणां तथा तपनीयजिह्वानामित्यादि नव पदानि प्राग्वत्, तथा महता-बहुव्यापिना यहेषितरूपो यः किलकिलायितरवः-सानन्दशब्दस्तेनेत्यादि प्राग्वत् , एषु च चतुर्वपि विमानवाहावाहकसिंहादिवर्णकसूत्रेषु कियन्ति पदानि प्रस्तुतोपाङ्गसूत्रादर्शगतपाठा(न)नुसारीण्यपि श्रीजीवाभिगमोपाङ्गसूत्रादर्शपाठानुसारेण व्याख्या- ॥५३०॥ तानि, न च तत्र वाचनाभेदात पाठभेदः सम्भवतीति वाच्यं, यतः श्रीमलयगिरिपादैर्जीयाभिगमवृत्तावेव “कचित् सिंहादीनां वर्णनं दृश्यते तद्बहुषु पुस्तकेषु न दृष्टमित्युपेक्षितं, अवश्यं चेत्तद्व्याख्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपटीका
करायलय eseeeee
~306~
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ----------------------- .-----.-..-...------------ मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तव्याख्यानस्य कृतत्वादि"त्यतिदेशविषयीकृतत्वेन द्वयोः सूत्रयोः सदृशपाठकत्वमेव | सम्भाव्यत इति, यत्तु जीवाभिगमपाठदृष्टान्यपि 'मिअमाइअपीणरइअपासाण'मित्यादिपदानि न व्याख्यातानि तत् |प्रस्तुतसूत्रे सर्वथा अदृष्टत्वात् , यानि च पदानि प्रस्तुतसूत्रादर्शपाठे दृष्टानि सान्येव जीवाभिगमपाठानुसारेण सङ्गतपाठी-113 कृत्य व्याख्यातानीत्यर्थः । अथ चन्द्रवक्तव्यस्य सूर्यादिवक्तव्यविषयेऽतिदेशे चन्द्रादीनां सिंहादिसङ्ख्यासंग्रहणिगाथे चाह गाहा-"सोलस देवसहस्सा"इत्यादि, अन्न सङ्गतिप्राधान्याद् व्याख्यानस्य दृश्यमानप्रस्तुतसूत्रादर्शषु पुरःस्थितोऽपि प्रथम एवं सूरषिमाणाण'मित्याद्यालापको व्याख्येयो, यथा एवं-चन्द्रविमानवाहकानुसारेण सूर्यविमानानामपि वाहका वर्णनीयाः यावत्तारारूपाणामपि विमानवाहका वर्णनीयाः यावत्पदाद् अहविमानानां नक्षत्रविमानानां च विमानवाहका 18 वर्णनीयाः, नवरं एष देवसंघातः, अयमर्थः-सर्वेषां ज्योतिष्काणां विमानवाहकवर्णनसूत्र सममेव तेषां सङ्ख्याभेदस्तु | व्याख्यास्यमानगाथाभ्यामवगन्तव्यः, ते चेमे वक्ष्यमाणे गाहा इति-गाथे-'सोलसे'त्यादि, षोडशदेवसहस्राणि भवन्ति चन्द्रविमाने पैवेति समुच्चये तथा सूर्यविमानेऽपि पोडश देवसहस्राणि, बहुवचनं चात्र प्राकृतत्वात्, तथा अष्टी देव-1 सहस्राण्ये कैकस्मिन् ग्रहविमाने तथा चत्वारि सहस्राणि नक्षत्रे चैकैकस्मिन् भवन्ति, तथा द्वे चैव सहने तारारूपविमाने एकैकस्मिन्निति । अथ दशमद्वारप्रश्नमाह
एतेसि णं भन्ते! चंदिमसूरिअगहगणनक्खत्ततारारूवाणं कयरे सब्बसिग्घगई कयरे सबसिग्धतराए चेन?, गोअमा! चन्देहितो
00000000000dney
900000
अथ चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्काणाम् शीघ्र-शीघतरगत्य: वर्ण्यते
~307~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६७-१६९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥५३१॥
सूरा सव्वसिग्घगई सूरेहिंतो गहा सिग्धगई गोहिंतो णक्खत्ता सिग्धगई णक्खत्तेहिंतो तारारूवा सिग्धगई, सब्बप्पाई चंदा सव्वसिग्धगई तारारूवा इति (सूत्रं १६७ ) । एतेसि णं भन्ते । चंदिमसूरिअगहणक्खतारायाणं कयरे सव्वमहिदिआ कयरे सव्यप्पडिआ ?, गो० ! तारारूबेहिंतो णक्खत्ता महिद्धिआ णक्खतेहिंतो गहा महिदिआ गद्देहिंतो सूरिआ महिडिओ सुरेहिंतो चन्द्रा महिद्धि सम्वपिद्धि तारावा सव्वमहिद्धि चन्दा (सूत्रं १६८) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे ताराए अ ताराए म केवइए अबाछाए अंतरे पण्णत्ते ?, गोअमा। दुबिहे बापाइए अ निव्वाघाइए अ, निव्वाधाइए जगेणं पंचधणुसवाई उकोसेणं दो गाऊआई, वाघाइए जहणेणं दोण्णि छाबडे जोअणसए उकोसेणं वारस जोअणसहस्साइं दोणि अ बायाले जोअणसर तारारूवरस २ अबाहाए अंतरे पणते (सूत्रं १६९ ) ।
'एतेसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त । चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरः 'सर्वशीघ्रगतिः' सर्वेभ्यश्चन्द्रादि| भ्यश्चरज्योतिष्केभ्यः शीघ्रगतिः, इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया, कतरश्च सर्वशीघ्रगतितरकः, अत्र द्वयोः प्रकृष्टे तरप्, | इदं च सर्वबाह्य मण्डलापेक्षयोक्तं, अभ्यन्तरमण्डलापेक्षया सर्वबाह्यमण्डलस्य गतिप्रकर्षस्य सुप्रसिद्धत्वात्, प्रज्ञप्त इति गम्यं भगवानाह - गौतम ! चन्द्रेभ्यः सूर्याः सर्वशीघ्रगतयः, सूर्येभ्यः ग्रहाः शीघ्रगतयः, ग्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीघ्रगतीनि, नक्षत्रेभ्यस्तारारूपाणि शीघ्रगतीनि, मुहूर्त्तगतौ विचार्यमाणायां परेषां परेषां गतिप्रकर्षस्यागमसिद्धत्वात्, अत एव सर्वेभ्योऽल्पा- मन्दा गतिर्येषां ते तथा एवंविधाश्चन्द्रास्तथा सर्वेभ्यः शीघ्रगतीनि तारारूपाणीति । अथैकादशद्वारं
For P&Praise City
~308~
७वक्षस्कारे
ज्योतिष्क
गतिऋद्धिवारान्त
राणि सू. १६७-१६९
||५३१॥
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------------
----------------------- मूलं [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रशयति एतेसि 'मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे सर्वमहर्दिकाः कतरे च चकारोऽत्र गम्यः सर्वाल्पर्धिकाः १, भगवानाह-गौतम! तारारूपेभ्यो नक्षत्राणि महर्दिकानि नक्षत्रेभ्यो ग्रहा महर्द्धिकाः डेश्यः सूर्या महर्द्धिकाः सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः, अत एव सर्वाल्पर्धिकास्तारारूपाः सर्वमहर्द्धि काश्चन्द्राः, इयमत्र
भावना-गतिविचारणायां ये येभ्यः शीघा उक्तास्ते तेभ्यः ऋद्धिविचारणायामुत्क्रमतो महर्द्धि का ज्ञेया इति । अथ द्वादशIS द्वारप्रश्नमाह-'जम्बुद्दीये ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे तारायास्तारायाश्च कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवाISना-गौतम! द्विविध-व्याघातिक नियोंघातिकं च, तत्र व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तत्र भवं व्याघातिकं, निया
पातिक व्यापातिकान्निर्गतं स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यन्नियाघातिक तज्जघन्यतः पञ्चधनुःशतानि उत्कृष्टतो वे गव्यूते, ॥ एतच जगत्स्वाभाव्यादेवावगन्तव्यं, यच व्याघातिक तज्जघन्यतो वे योजनशते षषष्ट्यधिके, एतच्च निषधकूटादिकम-18॥ पापेक्ष्य वेदितव्यं, तथाहि-निषधपर्वतः स्वभावतोऽप्युञ्चेश्चत्वारि योजनशतानि तस्य चोपरि पञ्चयोजनशतोच्चानि कूटानि |
तानि च मूले पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि उपरि अर्द्धतृतीये द्वे योजनशते तेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाजगत्स्वाभाच्यादष्टावष्टौं योजनान्यबाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति ततो जघन्यतो व्याघातिकमन्तरं द्वे योजनशते षट्पश्यधिके भवतः, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, एतच्च मेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, तथाहि-मेरौ दशयोजनसहस्राणि मेरोश्चोभयतोऽबाधया
JaERY
~309~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूल [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्ब- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया चिः
वक्षस्कारे अग्रमहिप्यो गुहाच स्थितिःसू. I १६७-१७०
।।५३२॥
एकादशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि, ततः सर्वसङ्ख्यामीलने भवन्ति द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके, एवं तारारूपस्य तारारूपस्य अन्तरं प्रज्ञप्तमिति । अथ त्रयोदशं द्वारं प्रश्नयनाह-.
चन्दस्स णं भंते ! जोइसिदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोत्रमा ! चत्तारि अग्गमहिसीभो पण्णताओ, तं.चन्दपमा दोसिणामा अधिमाली पर्भकरा, तओणं एगमेगा देवी चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवारो पण्णत्तो, पभू णं ताओ एग- भेगा देवी अ देवीसहस्स बिउधित्तए, एवामेव सपुछावरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेत्तं तुडिए । पहू ण भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुहिएणं सद्धिं महयाहयणगीभवाइअ जाव दिवाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए?, गोअमा! णो इणले समढे, से केणद्वेणं जाव विहरित्तए ?, गो.! चंदस्स णं जोइसिंदस्स. चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे वइरामएमु गोलबट्टसमुग्गएम थहूईओ जिणसकहाओ सन्निखिताओ चिट्ठति ताओ ण चंदस्स अण्णेसि च यहूर्ण देवाण य देवीण य अपणिजाओ जाव पजुबासणिजाओ, से तेणवेणं गोयमा । णो पभूत्ति, पभू ण चंदे सभाए सुहम्माए चउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं एवं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए केवलं परिभारिद्धीए, णो चेव णं मेहुणवत्ति, विजया १ वैजयंती २ जयंती ३ अपराजिआ ४ सव्वेसिं गहाईणं एआओ भग्गमहिसीओ, छावत्तरस्तवी गहसयरस एआओ अग्गम हिसीओ वत्तव्याओ, इमाहि गाहाहिंति-इंगाला १ विआलए २ खोहिके ३ सणिच्छरे चेव । आहुणिए ५ पाहुणिए ६ कगगसणामा य पंचेव ११ ॥१॥ सोमे १२ सहिए १३ आसणेय १४ कजोवए १५ अ
॥५३२॥
लय
चन्द्रादि ज्योतिष्काणाम् अग्रमहिष्यायाः वर्णनं क्रियते
~310~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], ------------------- -------------------------- मूलं [१६८R+१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
कब्बुरए १६ । अयकरए १७ दुंदुभए संखसनामेवि तिण्णेव ॥२शा एवं भागियध्वं जाव भावके उस्स अगमहिसीओति॥ (सूत्र१६८. चंदविमाणे णं भंते! देवाणं केवइअं कालं ठिई पण्णता?, गो०! जहण्णेणं च उभागपलिओवर्म उक्कोसेणं पलिओवर्म वाससयसहस्समभहि, चंदविमाणे गं देवीणं जपणेणं पउभागपलिओत्रमं उ. अद्धपलियोवमं पण्णासाए वाससहस्से हिममहि अं, सूरविमाणे देवाणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं पलिभोषमं याससहस्समभहियं, सूरविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम उकोसेणं अद्धपलिओयम पंचहि वाससएहिं अब्भहियं गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उकोसेगं पलिओवर्म गह विमाणे देवीणं जहण्णेणं च उभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवर्म, णक्ख त्तविमाणे देवाणं जहणणं चउभागपलिओवर्म उकोसेणं अपलिणोवमं णक्खत्तविमाणे देवीण जहाणेणं चउब्भागपलिओधर्म उकोसेणं साहिअं चउम्भागपलिओवर्म, ताराविमाणे देवाणं जहण्णणं अट्ठभागपलिओचमै उकोसेणं चउम्भागपालिओवमं ताराविमाणदेवीणं जहणेणं अहभागपलिओवमं सकोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवर्म (सूत्र १७०)
'चन्दस्स णमित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, उत्तरसूत्रे चतस्रोऽयमहिष्यः, तद्यथा-चन्द्रप्रभा 'दोसिणाम'त्ति ज्योत्स्नाभा || 18 अचिमाली प्रभङ्करा, ततश्च-चतुःसङ्ख्याकथनानन्तरं परिवारो वक्तव्य इत्यर्थः एकैकस्या देव्याश्चत्वारि २ देवीसहस्राणि
परिवारः प्रज्ञप्तः, किमुक्तं भवति ?-एकैका अनमहिपी चतुर्णा २ देवीसहस्राणां पट्टराज्ञी, अब विकुर्वणासामथ्र्यमाहप्रभुः समथों णमिति वाक्यालङ्कारे 'ताओ'त्ति बचनब्यत्ययात् सा इत्थंभूता अग्रमहिषी परिचारणावसरे तथा
esese
Bene
अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धेः स्खलनत्वात् 'सू० १६८' इति द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १६८R' इति सूत्रक्रम निर्दिष्टं
~311
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], -------------------- --------------------- मूलं [१६८R+१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू-१९ विधां ज्योतिष्कराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्यान्यमात्मसमानरूपं देवीसहस्रं विकुर्वितुं, स्वाभाविकानि पुनरेवं-उक्तप्रकारे- वक्षस्कारे द्वीपशा- णव, सपूर्वापरमीलनेन षोडशदेवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, चतस्रोऽयमहिष्य एकैका चात्मना सह चतुश्चतुर्द-18अग्रमहिन्तिचन्द्री- वीसहस्रपरिवारा, ततः सर्वसङ्कलने भवन्ति षोडश देवीसहस्राणि, इह यथा चमरेन्द्रादितुडिकवक्तव्यताधिकारे स्वस्व
प्यो ग्रहाच या वृत्तिः परिवारसङ्ग्यानुसारेण विकुर्वणीयसङ्ख्या उक्ता तथैव जीवाभिगमादौ चन्द्रदेवानामपि चतुःचतुःसहस्रस्वपरिवारानुसारेण |
| थितिः सू.
१७० ॥५३३॥ चतुश्चतुर्देवीसहस्रविकुर्वणा दृश्यते अत्र तु न तथेति मतान्तरमवसेयं प्रस्तुतसूत्रादर्शलेखकवैगुण्यं वा ज्ञेयमिति, 8
'सेत्तं तुडिए'इति, तदेतत् चन्द्रदेवस्य तुटिक-अन्तःपुरं, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-"तुटिकमन्तःपुरमुपदिश्यते" इति । अथ चतुर्दशं द्वारं प्रश्नयति-पडू ण'मित्यादि, प्रभुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिपेन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंसके विमाने | चन्द्रायां राजधान्यां सुधर्मायां सभायां तुटिकेनेति-अन्तःपुरेण सार्द्ध 'महया इत्यादि प्राग्वत् विहसमित्यम्बयः, अत्र काकुपाठात् प्रश्नसूत्रमवगन्तव्यं, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यावत्करणात् णो पभू चंदे जोइसिंदे जोइसराया चन्दव.सए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं महयाहयगीअवाइअणट्ट जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे' इति ग्राह्यं विहर्तुमिति, अत्रोत्तरसूत्रमाह-गौतम! ११५३३॥
चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य चन्द्रावतंसके विमाने चन्द्रायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां माणवकनानि चैत्यस्तम्भे-चैत्यवित् पूज्यः स्तम्भः चैत्यस्तम्भस्तस्मिन् वज्रमयेषु गोलवद्वृत्तेषु समुद्केषु-सम्पुटरूपभाण्डेषु बढ्यो जिनसकथा-जिन
Generah0900999
~312
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१६८R+१७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
सक्थीनि सन्निक्षिप्ताः - स्थापितास्तिष्ठन्ति ताश्च णमिति प्राग्वत् चन्द्रस्य अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चार्चनीयाश्चन्दनादिना यावत्करणाद् वन्दनीयाः स्तुतिभिर्नमस्यनीयाः प्रणामतः पूजनीयाः पुष्पैः सत्कारणीया वस्त्रादिभिः | सन्माननीयाः प्रतिपत्तिविशेषैरिति ग्राह्यं, पर्युपासनीयाः कल्याणामित्यादिबुद्ध्या, अथ तेनार्थेन एवमुच्यते - गौतम ! न प्रभुरिति, जिनेष्विव जिनसक्थिष्वपि तेषां बहुमानपरत्वेनाशातनाभीरुत्वादिदि, अथैवं सति कल्पातीतदेवानामिवास्यापि अप्रविचारता उत नेत्याशङ्कामपाकर्तुमाह-'पभू ण' मिति, प्रभुश्चन्द्रसभायां सुधर्मायां चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः | एवमित्युक्तप्रकारेण यावत्करणात् चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिरित्यादिकः सर्वोऽप्यालापको वाच्यः, दिव्यान् भोगा ये भोगाः - शब्दादयस्तान् भुञ्जानो विहर्त्तुमिति, अत्रैव विशेषमाह- केवलं नवरं परिवारः - परिकरस्तस्य ऋद्धि:| सम्पत्तत्तया, एते सर्वेऽपि मम परिचारकाः अहं चैषां स्वामीत्येवं निजस्फातिविशेषदर्शनाभिप्रायेणेति भावः, नैव च मैथुनप्रत्ययं सुरतनिमित्तं यथा भवत्येवं भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्तुं प्रभुरिति । अथ प्रस्तुतोपाङ्गादर्शेष्वदृष्टमपि जीवाभिगमाद्युपाङ्गादर्शष्टष्टं सूर्याग्रमहिषीवक्तव्यमुपदर्श्यते, 'सूरस्स जोइसरण्णो कर अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ?, | गोअमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पं० तंजहा-सूरम्पभा आयवाभा अचिमालि पभंकरा एवं अवसेसं जहा चन्दस्स णवरं सूरवडेंसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसी'ति व्यक्तम् । अथ ग्रहादीनामग्र महिषीवतव्यमाह-'विजया' इत्यादि, ग्रहादीनामादिशब्दात् नक्षत्रतारकापरिग्रहः सर्वेषामपि विजया वैजयन्तीत्यादिचतुर्भिर्नामभिरेवाग्रमहिष्यो ज्ञेयाः,
For P&Praise Cinly
~313~
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूलं [१६८R+१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
Iકરેખા
erpenteeeeee
उक्तमेव विशिष्य आह-'छायत्तर'इत्यादि, षट्सप्तत्यधिकस्य ग्रहशतस्यापि जम्बूद्वीपवर्तिचन्द्रद्वयपरिवारभूतानां वक्षस्कारे ग्रहाणां द्विगुणिताया अष्टाशीतेरित्यर्थः, एता-अनन्तरोक्ता विजयाद्या अग्रमहिष्यो वक्तव्याः इमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गा- अग्रमाह
यो ग्रहाथ थाभिरुक्तनामभिः इति गम्यं, इदं च ग्रहशतस्य विशेषणं बोध्य, अत्र सूत्रादर्श प्रथमदृष्टमपि नक्षत्रदैवतसूत्रमुपेक्ष्य । क्रमप्राधान्याद् व्याख्यानस्येति प्रथममष्टाशीतिमहनामसूत्रं व्याख्यायते-'इंगालए'इत्यादि, अङ्गारकः १ विकालकः २ | लोहिताङ्क: ३ दानेश्वरः ४ आधुनिकः५ प्राधुनिकः ६ कनकेन सह एकदेशेन समान नाम येषां ते कनकसमाननामानस्ते । पञ्चैव प्रागुक्तसङ्ख्यापरिपाच्या योजनीयाः, तद्यथा-कणः ७ कणकः ८ कणकणकः ९ कणवितानकः १० कणसन्तानकः ११ 'सोमे'त्यादि सोमः १२ सहितः १३ आश्वासनः १४ कार्योपगः १५ कर्बुरकः १६ अजकरकः १७ दुन्दुभकः |१८ शंखसमाननामानो नाम्नि शंखशब्दाङ्किता इत्यर्थः ते त्रयः, तद्यथा-शंखः १९ शंखनाभः२० शंखवर्णाभ: २१ एवं उक्केन प्रकारेण भणितव्यं, प्रत्येकमग्रमहिषीसंख्याकथनाय अष्टाशीतेग्रहाणां नामसंग्राहकगाथाकदम्बकमिति शेषः, यावत् भावकेतोर्महस्याग्रमहिष्यः, यावत्करणात् इदं द्रष्टव्यं-तिण्णेव कंसनामा णीले रुप्पि अहवंति चत्तारि । भाव| तिलपुष्फवण्णे दग दगवण्णे य कायर्वधे य॥३॥ इंदम्गिधूमकेऊ हरिपिंगलए बुहे अ सुके अ । बहस्सइराहु अगत्थी ॥५३४॥ माणवगे कामफासे अ॥४॥ धुरए पमुहे वियडे विसंधि कप्पे तहा पयल्ले य । जडियालए य अरुणे अग्गिलकाले महाकाले ॥५| सोस्थिअ सोवत्थिअए बद्धमाणग तहा पलंबे अ । णिचालोए णिचुज्जोए सयंपभे चेव ओभासे ॥६॥ सेयं
~3144
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], --------------------- ------------------------ मूलं [१६८R+१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
seeeeee
8 करखेमकर आभंकर पभंकरे अणायचो । अरए विरए अतहा असोग तह वीतसोगे य ॥७॥ विमल वितत्थ विवत्थे || | विसाल तह साल सुबए चेव । अनियट्टी एगजडी अ होइ चिजडी य बोद्धवे ॥८॥ कर करिअ राय अग्गल बोद्धचे पुष्फ|भावकेऊ अ । अट्ठासीई गहा खलु णायवा आणुपुबीए॥९॥अत्र व्याख्या-कंसशब्दोपलक्षितं नाम येषां ते कंसनामानः ते त्रय एव, तद्यथा-कंसः २२ कंसनाभः २३ कंसवर्णाभः २४ नीले रुप्ये च शब्दे विषयभूते द्विद्विनामसंभवात् सर्वसंख्यया भवन्ति चत्वारस्तद्यथा-नीलः २५. नीलावभासः २६ रुप्पी २७ रुप्यावभासः २८ भास इति नामद्वयोप
लक्षणं तद्यथा-भस्म २९ भस्मराशिः ३० तिलः ३१ तिलपुष्पवर्णः ३३ दकः ३३ दकवर्णः ३४ कायः ३५ वन्ध्यः P३६ चः समुच्चये इंद्राग्निः ३७ धूमकेतुः ३८ हरिः ३९ पिङ्गलकः ४० बुधः ४१ तथैव, एवमग्रेऽपि, शुक्रः ४२ बृह
| स्पतिः ४३ राहुः ४४ अगस्तिः ४५ माणवकः ४६ कामस्पर्शः ४७ धुरकः ४८ प्रमुखः ४९ विकटः ५० विसन्धिकल्पः M५१ तथा प्रकल्पः ५२ जटालः ५३ अरुणः ५४ अग्निः ५५ कालः ५६ महाकालः ५७ स्वस्तिकः ५८ सीवस्तिकः ५९
वर्धमानकः ६० तथा प्रलम्बः ६१ नित्यालोकः ६२ नित्योद्योतः ६३ स्वयंप्रभः ६४ अवभासः ६५ श्रेयस्करः ६६ | क्षेमङ्करः ६७ आभङ्करः ६८ प्रभङ्करः ६९ षोडव्यः अरजाः ७० बिरजाः ७१ तथा अशोकः ७२ तथा वीतशोकः ७३ विमलः ७४ विततः ७५ विवस्त्रः ७६ विशालः ७७ शालः ७८ सुव्रतः ७९ अनिवृत्तिः ८० एकजटी ८१ भवति द्विजटी ८२ योद्धव्यः करः ८३ करिकः ८४ राजा ८५ अर्गलः ८६ बोद्धव्यः पुष्पकेतुः ८७ भावकेतुः ८८ इति अष्टा
sentent
श्रीजम्मू
~315
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------- ----------------------- मूलं [१६८R+१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
यावृत्तिः
श्रीजम्प-18शीतिम्रहाः खलु ज्ञातव्या आनुपूर्येति । अथ 'सवेसिं गहाईण मित्यादिपदेन सूचिताना नक्षत्राणामधिदैवतद्वारा नाम-18 वक्षस्कार द्वीपशा-8 प्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह
नक्षत्राधिन्तिचन्द्रीबह्या विष्ट अ बसू वरुणे अय बुड्ढी पूस आस जमे । अग्गि पयावइ सोमे रुदे अदिती वहस्सई सप्पे ॥१॥ पिउ भर्गअजमसवि
छातारः 18|| आ रहा पाऊ तहेव इंदग्गी । मित्ते इंदे निरुई आऊ विस्सा य बोडवे ॥२॥ इति (सूत्र १७१)
स स.१७१ ॥५३५॥ ब्रह्मा अभिजित् १ विष्णुः श्रवणः २ वसुर्धनिष्ठा ३ वरुणः शतभिषक् ४ अजः पूर्वभाद्रपदा ५ वृद्धिरित्यत्र पदैकदेशे
पदसमुदायोपचारात् अभिवृद्धिरुत्तरभाद्रपदा ६ अभ्यत्राहिर्बुध इति, पूषा रेवती ७ अश्वोऽश्विनी ८ यमो भरणि ९
अग्निः कृत्तिका १० प्रजापती रोहिणी ११ सोमो मृगशिरः १२ रुद्र आर्द्रा १३ अदितिः पुनर्वसुः १४ बृहस्पतिः पुष्यः 10१५ सर्पोऽश्लेषा १६ पिता मघा १७ भगःपूर्वफाल्गुनी १८ अर्यमा उत्तराफाल्गुनी १९ सविता हस्तः २० त्वष्टा चित्रा | 10२१ वायुः स्वातिः २२ इंद्राग्नी विशाखा २३ मित्रोऽनुराधा २४ इन्द्रो ज्येष्ठा २५ नितिर्मूलं २६ आपः पूर्वाषाढा ४२७ विश्वे उत्तराषाढा २८ चेति नक्षत्राणि बोद्धव्यानि, ननु स्वस्वामिभावसम्बन्धप्रतिपादकभावमन्तरेण कथं देव18|| तानामभिर्नक्षत्रनामानि संपोरन् ?, उच्यते, अधिष्ठातरि अधिष्ठेयस्योपचारात् भवति, एतेषां चाष्टाविंशतेरपि नक्ष-18॥५३५।। 18 त्राणां विजयादिनामभिरेव पूर्वोक्ताश्चतस्रोऽयमहिष्यो वक्तव्या इति । तारकाणां च सपश्चसप्ततिसहस्राधिकषट्पष्टिको-18
टाकोटीप्रमाणत्वेन बहुसंख्याकतया नामव्यवहारस्यासंव्यवहार्यत्वेन चोपेक्षा, परमेषामप्येता एव चतम्रोऽयमहिष्यो |
अथ नक्षत्राणां अधिदेवताया: नामानि दर्श्यते
~316
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [७], -----------------------------
------ मूलं [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
| बोध्या इति । अथ पञ्चदर्श द्वार प्रश्नविषयीकर्तुमाह-'चन्दविमाणे णं भंते !' इत्यादि, प्रायः सुगम, नवरं चतुर्भागप-11 ल्योपमस्थिति:-चतुर्भागमात्रं पल्योपमं चतुर्भागपस्योपममिति विशेषणसमासः पल्योपमचतुर्भाग इत्यर्थः प्राकृतत्वात् पूरणप्रत्ययलोपः, एवमग्रेऽष्टभागपल्योपमादावपि बोध्यं, चन्द्रविमाने हि चन्द्रदेवः सामानिकाच आत्मरक्षकादयश्च परिवसन्ति तेन चन्द्रसामानिकापेक्षया उत्कृष्टमायुर्योध्यं, तेषामेवोत्कृष्टायुःसंभवात् , जघन्य चात्मरक्षकादिदेवा-18 पेक्षयेति, एवं सूर्यविमानादिसूनेष्वपि भाव्यम् । अथ सूर्यायुःसूत्रम्-'सूरविमाणे इत्यादि, व्यक्तं, अथ ग्रहादीनां स्थितिसूत्राणि 'गहविमाणे' इत्यादि, एतानि त्रीण्यपि सूत्राणि निगदसिद्धानीति । पोडशं द्वारं पृच्छति
एतेसि ण भन्ते! चंदिमसूरिअगहणक्यत्ततारारूवाणं कवरे२ हिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुला वा विसेसाहिआ बा ?, गो०! चंदिमसू. रिआ दुचे तुल्ला सम्वत्थोवा णक्खत्ता संखेजगुणा गहा संखेनगुणा तारारूवा संखेजगुणा इति (सूत्र. १७२) जम्बुद्दीवेणं भन्ते ! दीवे जहण्णपए वा नकोसपए वा केवइआ तित्थयरा सम्वग्गेण पं०१, गो०! जहण्णपए चत्वारि उकोसपए चोत्तीसं तित्ययरा सम्वग्गेणं पण्णत्ता । जम्बुद्दीये भंते ! दीवे केवइआ जहष्णपए वा उकोसपए वा चकवट्टी सनग्गेण पं०?, गो.! जहण्णपदे चत्तारि उकोसपदे तीसं चकयट्टी सबग्गेणं पण्णता इति, बलदेवा तत्तिा चेव जत्तिा चकवट्टी, वासुदेवावि तत्तिया चेवत्ति । जम्बुद्दीवे दीवे केवइआ निहिरयणा सबग्गेण पं०१, गो.! तिष्णि छलुत्तरा णिहिरयणसया सम्बग्गेणं पं०, जम्बुद्दीवे २ केवइआ णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हग्यमागच्छंति ?, गोक! जहष्णपए छत्तीसं उकोसपए दोण्णि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए
SHRES eckceere
~317~
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥५३६॥
हलमागच्छति, जम्बुदरीये २ केवइमा पंचिंदिअरयणसया सव्वम्गेणं पण्णचा', गो०! दो दसुत्तरा पचिंदिअरयणसया सब्वग्गणं पण्णत्ता, जम्बुहरीवे २ जहष्णपदे वा उच्छोसपदे वा केवइआ पंचिंदिअरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति ?, गो०! जहण्णपए
शिवक्षस्कारे
चन्द्राबअट्ठावीसं पक्कोसपए दोणि दसुत्तरा पंचिदिअरयणसया परिभोगत्ताए हब्बमागच्छंति, जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दीवे केवइआ एगिदि
ल्पबहुतं अरयणसया सव्वग्गेणं पं०१, गो०! दो दसुत्तरा एनिदिअरयणसया सव्वग्गेणं पं०, जम्बुद्दीवे णे भन्ते ! दीवे केवइमा एगिदि
जिनादिभरयणसया परिभोगत्ताए हम्वमागच्छन्ति', गो०! जहण्णपए अट्ठावीसं उकोसेणं दोणि दसुत्तरा एनिदिअरयणसया परिभोगत्ताए हलमागच्छंति (सूत्र १७३)
१७२-१७३ 'एतेसिण'मित्यादि, एतेषां-अनन्तरोक्तानां प्रत्यक्षप्रमाणगोचराणां वा भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽल्पा:-स्तोकाः वा विकल्पसमुच्चयार्थे कतरे कतरेभ्यो बहुका वा कतरे कतरेभ्यस्तुल्या वा, अत्र विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, कतरे कतरेभ्यो विशेषा वेति, गौतम ! चन्द्रसूर्या एते द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसङ्ख्याकत्वात् , शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सर्वेऽपि स्तोकाः, तेभ्यो नक्षत्राणि सङ्-18| ख्येयगुणानि अष्टाविंशतिगुणत्वात् , 'तेभ्योऽपि ग्रहाः सख्येयगुणाः सातिरेकत्रिगुणत्वात्, तेभ्योऽपि तारारूपाणि || ५३६॥ सङ्ख्येयगुणानि प्रभूतकोटाकोटीगुणत्वादिति, व्याख्यातं षोडशमल्पबहुत्वद्वारं, तेन सम्पूर्ण संग्रहणीगाथाद्धयच्या-1 ख्यानमिति । अथ जम्बूद्वीपे जघन्योत्कृष्टपदाभ्यां तीर्थकरान् पिपृच्छिषुराह-'जम्बुद्दीवेणं भन्ते! दीवे जहण्णपए'
~318~
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -------------------
--------------------- मल [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
1 इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे जघन्यपदे सर्वस्तोके स्थाने वा उत्कृष्टपदे सर्वोत्कृष्ट स्थाने वा विचार्यमाणे इति शेषः
कियन्तस्तीर्थकराः सर्वाग्रेण-सर्वसंख्यया केवलिदृष्टमात्रया इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः, गौतम! जघन्यपदे चत्वारः प्राप्यन्ते, तथाहि-जम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहे शीतामहानद्या विभागीकृते दक्षिणोत्तरदिग्भागयोरेकैकस्य सद्भावात् द्वौ अपरविदेहेऽपि शीतोदया महानद्या द्विभागीकृते तथैव द्वौ जिनेन्द्री मिलिताश्चत्वारः, भरतैरावतयोस्तु एकान्तसुषमादावभाव एव, उत्कृष्टपदे चतुस्त्रिंशत्तीर्थकराः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ताः, तथाहि-महाविदेहे प्रतिविजयं भरतैरावतयोश्चैकैकस्य सम्भव इति । सर्वमीलने चतुस्त्रिंशत्, एषां हि भगवतां स्वस्वक्षेत्रवर्तिभिश्चक्रिभिरर्द्धचक्रिभिश्च सहानवस्थानलक्षणविरोधासम्भवात्,
एतच्च विहरमानजिनापेक्षया बोय, न तु जन्मापेक्षया, तच्चिन्तायां तूत्कृष्टपदे चतुर्विंशतस्तीर्थकराणामसम्भवादिति ।। IS अथात्रैव जघन्योत्कृष्टपदाभ्यां चक्रिणः पृच्छति-'जम्बुद्दीवे'इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे कियन्तो जघन्यपदे |
वा उत्कृष्टपदे वा चक्रवर्तिनः प्रज्ञप्ता:, भगवानाह-गौतम! जघन्यपदे चत्वारः उपपत्तिस्तु तीर्थराणामिव, उत्कृ-II IS टपदे त्रिंशश्चक्रवर्तिनः सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ता, कथमिति चेत्, उच्यते, द्वात्रिंशद्विजयेषु वासुदेवस्वामिकान्यतरविजयच
तुष्कवर्जितविजयसरकाऽष्टाविंशतिः भरतैरावतयोस्तु द्वाविति पूर्वापरमीलितात्रिंशत्, यदा महाविदेहे उस्कृष्टपदेडधाविंशतिश्चक्रिणः प्राप्यन्ते तदा नियमाच्चतुर्णामर्द्धचक्रिणां सम्भवेन तन्निरुद्धक्षेत्रेषु चक्रिणामसम्भवात् , चक्रिणामड़चक्रिणां च सहानवस्थानलक्षणविरोधादिति, अथात्र तथैव बलदेवानर्द्धचक्रिणश्चाह-बलदेवा तत्तिा ' इत्यादि, बलदेवा
~319~
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ----------------------
--------------------- मल [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू-१६ अपि तावन्त एवोत्कृष्टपदे जघन्यपदे च यावन्तश्चक्रवर्तिनः, वासुदेवा अपि तावन्त एव बलदेवंसहचारित्वात् , कोऽर्थः ?- वक्षस्कारे
द्वीपशा- ॥ यदा चक्रवर्तिनः उत्कृष्टपदे त्रिंशद् तदा अवश्यं बलदेववासुदेवा जघन्यपदे चत्वारः तेषां चतुर्णामवश्यं भावात्, चन्द्राबन्तिचन्द्री
ल्पबहुत्वं शायदा च बलदेवा वासुदेवा उत्कृष्टपदे त्रिंशत् तदा चक्रिणो जघन्यपदे चत्वारः तेषामपि चतुर्णामवश्यं भावात् , या चिः
जिनादितेनैतेषां परस्परं सहानवस्थानलक्षणविरोधभावेनान्यतराश्रितक्षेत्रे तदन्यतरस्याभाव इति । अथैते निधिपतयो
संख्या मू. ॥५३७॥18॥ भवन्तीति जम्यूद्वीपे निधिसन्ख्या प्रष्टुमाह-'जम्बुद्दीचे दीये' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति निधिरलानि-IS | १७२-१७३
| उत्कृष्टनिधानानि यानि गङ्गादिनदीमुखस्थानि चक्रवर्ती हस्तगतपरिपूर्णषट्खण्डदिग्विजयव्यावृत्तोऽष्टमतपःकरणा-18| 18 नन्तरं स्वसाकरोति तानि सर्वाग्रेण-सर्वसत्यया प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि पडुत्तराणि निधिरत्न
शतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि, तपथा-नवसयाकानि निधानानि चतुर्विंशता गुण्यन्त इति यथोक्तसङ्कवेति, इयं । |च सत्तामाश्रित्य प्ररूपणा कृता, अथ निधिपतीनां कति निधानानि विवक्षितकाले भोग्यानि भवन्तीति प्रश्न-18| माह-'जम्बुद्दीचे दीवे'इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे कियन्ति निधिरजशतानि परिभोग्यतया उत्पन्ने प्रयोजने चक्रवर्तिभियापार्यमाणत्वेन हयमिति-शीनं चक्रवर्त्यभिलापोत्पत्त्यनन्तरं निर्विलम्बमित्यर्थः आगच्छन्ति ?, भगवानाह-गौतम! | ५३७॥ जघन्यपदे षट्त्रिंशत् जघन्यपदभाविनां चक्रवर्त्तिनां नवनिधानानि चतुर्गुणितानि यथोक्तसञ्जयाप्रदानीति, उत्कृष्टपदे तु द्वे सप्तत्यधिके निधिरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमागच्छतः, उत्कृष्टपदभाविनां चक्रिणां त्रिंशतो नव नव निधानानि ।
3293838090sage
~320
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [७], --------------------------------------------------------- मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
भवन्तीति नव त्रिंशता गुण्यन्त इत्युपपद्यते यथोक्तसंख्येति । अथ जम्बूद्वीपवर्तिचक्रवर्तिरनसंख्या पिपृच्छिषुराह-18 181'जम्युहीये'त्ति, जम्बूद्वीपे २ भदन्त ! कियन्ति पञ्चेन्द्रियरत्नानि-सेनापत्यादीनि सप्त तेषां शतानि सर्वाग्रेण प्रज्ञ-18
सानि?, भगवानाह-गौतम! द्वे दशोत्तरे पश्शेन्द्रियरत्नशते सर्वाग्रेण प्रज्ञप्ते, तद्यथा-उत्कृष्टपदभाविनां त्रिंशतश्चक्रिणां प्रत्येक सप्तपञ्चन्द्रियरत्नसद्भावेन सप्तसंख्या त्रिंशता गुण्यते भवति यथोक्तं मानं, ननु निधिसर्वाग्रपृच्छायां ॥ चतुर्विंशता गुणनं पञ्चेन्द्रियरक्षसर्वाप्रपृच्छायां तु किमिति त्रिंशता गुणनं १, उच्यते, चतुर्यु वासुदेवविजयेषु तदा
तेषामनुपलम्भात्, निधीनां तु नियतभावत्वेन सर्वदाऽप्युपलब्धेः, तेन रनसर्वानसूत्रे रत्नपरिभोगसूत्रे च न कश्चित् है| संख्याकृतो विशेष इति, अथ रत्नपरिभोगप्रश्नसूत्रमाह-'जम्बुहीवे इत्यादि, प्रायो व्याख्यातत्वाद व्यक, अथैकेन्द्रि-1
यरलानि प्रश्नयितुमाह-'जम्बुद्दीवे'त्ति व्यक्तं, नवरं एकेन्द्रियरत्नानि चक्रिणां चक्रादीनि तेषां शतानीति । अथैकेन्द्रियरलपरिभोगसूत्रं पृच्छमाह-'जम्बुद्दी' त्ति व्यक्तं ॥ अथ जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भादीनि पृच्छन्नाह
जम्मुदीवे गं भन्ते ! दीवे केवइ आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइ उबेहेणं केवइ उद्धं उच्चत्तेणं केवइ सबग्गेणं पं०१, गो० ! जम्बुदीये २ एग जोषणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोअणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि अ सत्तावीसे जोअणसए तिष्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहि परिक्खेवणं पं०, एग जोअणसहरसं उबेहेणं णवणउति जोअणसहस्साई साइरेगाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगं जोअणसयसहस्सं सवमोणं पण्णत्ते । (सूत्रं १७४)
Ganga9092003035
अथ जम्बूद्वीपस्य आयाम-विष्कंभ आदि प्रदर्श्यते
~321
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------
--------------------- मूलं [१७४-१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
eatened
भीजम्बूजम्बरीवेज भन्ते । दीये कि सासए असासए', गोअमा! सिम सासए सिअ असासए, से फेणद्वेणं भन्ते! एवं वुधइ-सिन
वक्षस्कारे सासए सिअ असासए, गो०! दवढयाए सासए वणपजवेहिं गंधक रस०फासपजवेहिं असासए, से तेणतुणं गो०! एवं युवा न्तिचन्द्री
द्वीपोद्वेधासिम सासए सिभ असासए । जम्बुद्दीवे गं भन्ते! दीवे कालो केबचिरं होइ?, गोअमा। ण कयाविणासि ण कयावि
दि शाश्वया वृत्तिः णत्यि ण कयापि ण भविस्सइ, भुषि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे णिइए सासए अन्बए भवहिए णिचे जम्बुद्दीवे दीवे पण्णते
| तत्वादि इति (सूत्र १७५) जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दीवे किं पुढविपरिणाम आउपरिणामे जीवपरिणामे पोग्गलपरिणामे ?, गोभमा ! ५३८॥
परिणामा-- पुढविपरिणामेवि आउपरिणामेवि जीवपरिणामेवि पुग्गलपरिणामेवि । जम्बुद्दीवेणं भन्ते ! दीवे सव्वपाणा सध्वजीवा सबभूभा
दिसू. सव्वसत्ता पुढविकाइअत्ताए आउकाइअत्ताए तेउकाइअत्तार वाउकाइअचाए वणस्सइकाइअत्ताए उनवण्णपुब्बा ?, हंता गो!
(१७४-१७६ असई अदुवा अर्णवखुत्तो (सूत्रं १७६)।
'जम्बुद्दीये'त्ति, अत्र सूत्रे विष्कम्भायामपरिक्षेपाः प्राग्व्याख्याताः, पुनः प्रश्नविषयीकरणं तु उद्वेषादिक्षेत्रधर्मप्रश्नक-18 इ रणप्रस्तावाद्विस्मरणशीलविनेयजनस्मरणरूपोपकारायेति, तेन उद्वेधादिसूत्रे जम्बूद्वीपं द्वीपं अत्र द्वीपशब्दस्य क्लीयत्व-IK ३ निर्देशः क्लीवेऽपि वर्तमानत्वात् कियदुद्वेधेन-उण्डत्वेन भूमिप्रविष्टत्वेनेत्यर्थः कियदूर्वोच्चत्वेन-भूनिर्गतोच्चत्वेनेत्यर्थः ।
॥५३दा IS|| कियञ्च सर्वाग्रेण-उण्डत्वोच्चत्वमीलनेन प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! विष्कम्भायामपरिक्षेपविषयं निर्वचनसूत्रं प्राग्वत्
| उद्वेधादिनिर्वचनसूत्रे तु एकं योजनसहनमुद्वेधेन सातिरेकाणि नवनवति योजनसहत्राणि ऊर्बोच्चत्वेन सातिरेक योज-गई
~322
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------
--------------------- मूलं [१७४-१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
दएesese
HS नशतसहस्र सर्वाग्रेण प्रज्ञतम्, ननु ऊण्डत्वब्यवहारो जलाशयादौ उच्चत्वव्यवहारस्तु पर्वतविमानादौ प्रसिद्धः द्वीपे ।
तु स किं, व्यवहाराविषयत्वादिति, उच्यते, समभूतलादारभ्य रत्नप्रभायामधः सहनयोजनानि यावद् गमनेऽधोग्रा
मविजयादिषु जम्बूद्वीपव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वेनोण्डत्वच्यवहारः सुप्रसिद्ध एव, तथा जम्बूद्वीपोत्पन्नानां तीर्थकृतां AS जम्बूद्वीपमेरोः पण्डगवनेऽभिषेकशिलायामभिषिच्यमानत्वात् जम्बूद्वीपव्यपदेशपूर्वकमभिषेकस्य जायमानत्वेनोचत्व|व्यवहारोऽप्यागमे सुप्रसिद्ध एवेति । अथास्यैव शाश्वतभावादिकं प्रश्नयनाह-'जम्बहीवे ण'मित्यादि, इदं च यथा प्राक॥ | पद्मवरवेदिकाधिकारे व्याख्यातं तधाऽत्र जम्बूद्वीपव्यपदेशेन बोध्यमिति, एवं च शाश्वताशाश्वतो पटो निरन्वयविनश्वरो दृष्टः किमसावपि तद्वत् उत नेत्याह-'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, इदमपि प्राक् पद्मवरवेदिकाधिकारे व्याख्यातमिति । अथ किंपरिणामोऽसौ द्वीप इति पिपृच्छिषुराह-'जम्बुद्दीवेणं भन्ते !'इत्यादि, जम्बूद्वीपो भदन्त! द्वीपः किं
पृथिवीपरिणामः-पृथिवीपिण्डमयः किमप्परिणाम:-जलपिण्डमयः, एतादृशौ च स्कन्धावचित्तरजःस्कन्धादिवदजीवप18|| रिणामावपि भवत इत्याशङ्कयाह-किं जीवपरिणामः-जीवमयः, घटादिरजीवपरिणामोऽपि भवतीत्याशङ्कचाह-किं पुद्ग-1 |लपरिणाम:-पुद्गलस्कन्धनिष्पन्नः केवलपुद्गलपिण्डमय इत्यधः, तेजसस्त्वेकान्तसुषमादावनुत्पन्नत्वेन एकान्तदुप-18
मादौ तु विध्वस्तत्वेन जम्बूद्वीपेऽस्य तत्परिणामेऽङ्गीक्रियमाणे कादाचित्कत्वप्रसङ्गः बायोस्त्वतिचलत्वेन तत्परिणामे ४द्वीपस्यापि चलत्वापत्तिरिति तयोः स्वत एव सन्देहाविषयत्वेन न प्रश्चसूत्रे उपन्यासः, भगवानाह-गौतम! पृथिवी
eseces
JaE
~323
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], -------------------
--------------------- मूलं [१७४-१७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मू-18 परिणामोऽपि पर्वतादिमत्त्वात् अप्परिणामोऽपि नदीहूदादिमत्त्वात् जीवपरिणामोऽपि मुखवनादिषु वनस्पत्यादिम-18|वक्षस्कारे
पिशावात् , यद्यपि स्वसमये पृथिव्यपकायपरिणामत्वग्रहणेनैव जीवपरिणामत्वं सिद्ध तथापि लोके तयोर्जीवस्वस्याव्यव-18 द्वीपनामन्तिचन्द्री-1
हेतुः उपमाTI8||हारात् पृथग्ग्रहणं, वनस्पत्यादीनां तु जीवत्वव्यवहारः स्वपरसम्मत इति, पुद्गलपरिणामोऽपि मूर्तत्वस्य प्रत्यक्षसि-॥8॥
संहार: सू. द्वत्वातू, कोऽर्थः -जम्बूद्वीपो हि स्कन्धरूपः पदार्थः, स चावयवैः समुदितैरेव भवति, समुदायरूपत्वात् समुदायिन ||8|४-१७८ ॥५३९॥ इति । अथ यदि चार्य जीवपरिणामस्तहि सर्वे जीवा अनोत्पन्नपूर्वा उत नेत्याशङ्कयाह-'जम्बुद्दीवेणं भन्ते !'इत्यादि,
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्व प्राणा:-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सर्वे जीवा:-पञ्चेन्द्रियाः सर्वे भूता:-तरवः सर्वे सत्त्वाः-पृधि
व्यप्तेजोवायुकायिकाः, अनेन च सांव्यवहारिकराशिविषयक एवायं प्रश्नः, अनादिनिगोदनिर्गतानामेव प्राणजीवादि1 रूपविशेषपर्यायप्रतिपत्तेः, पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया तेजस्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया
उपपन्नपूर्वाः-उत्पन्नपूर्वाः, भगवानाह-हंता गोअमा!' एवं गौतम! यथैव प्रश्नसूत्रं तथैव प्रत्युच्चारणीयं पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पतिकायिकतया उपपन्नपूर्वाः कालक्रमेण संसारस्थानादित्वात्, न पुनः सर्वे प्राणादयो जीववि| शेषा युगपदुत्पन्नाः सकलजीवानामेककालं जम्बूद्वीपे पृथिव्यादिभावेनोपादे सकलदेवनारकादिभेदाभावप्रसक्तेः, न ||॥५३९।। चैितदस्ति, तथा जगत्स्वभावादिति, कियन्तो वारानुत्पन्ना इत्याह-असकृद्-अनेकशः अथवा अनन्तकृत्वः-अनन्त-12 वारान् संसारस्यानादित्वादिति । अथ जम्बूद्वीपतिनानो व्युत्पत्तिनिमितं जिज्ञासिषुः पृच्छति
Jature
, अत्र मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धः स्खलनत्वात् शिर्षक-स्थाने 'सू०१७७-१७८' मुद्रितं, तत् अशुद्धं, अत्र सू० १७४-१७६' एव वर्तते
~324
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------
--------------------- मूलं [१७७-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
se
से केणद्वेणं भन्ते! एवं बुबइ जम्बुद्दीवे २१, गो०! जम्युरीवे गं दीये तत्थ २ देसे सहि २ बहवे जम्बूरुक्खा जम्बूवणा जम्बूव
संवा णिचं कुसुमिआ जाव पिंटिममंजरिव.सगधरा सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति, जम्मूप सुदसणाए अणाढिएणामं देवे महिदीए जाब पलिओबमटिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं बुच्चइ जम्बुद्दीवे दीवे इति । (सूत्र १७७) तए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णयरीए माणिभहे चेइए बहूर्ण समणाणं बहूर्ण समणीणं बहूणं सावयाणं बहूर्ण सावियाणं बहूर्ण देवाणं यहूर्ण देवीणं मजागए एवमाइक्खा एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परुवेइ जम्बूदीवपण्णत्ती णामत्ति अजो! अजायणे अटुं च ऐवं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो २ उवदंसेइत्तिवेमि (सूत्रं १७८)॥ इति श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रं समाप्तम् ॥ प्रथाम०४१४६ ॥ 'से केणटेणं भन्ते ! एवं बुबह-जम्बुद्दीवे दीवे इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त। एषमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीपः, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे २ तत्र तत्र देशे तस्य देशस्य २ तत्र तत्र प्रदेशे बहवो जम्बूवृक्षाः एकैकरूपाः विरल| स्थितत्वात् तथा बहूनि जम्बूवनानि-जम्बूवृक्षा एवं समूहभावेन स्थिताः अविरलस्थितत्वात् 'एकजातीयतरुसमूहो वन मिति वचनात् , तथा बहवो जम्बूवनखण्डा:-जम्बूवृक्षसमूहा एव विजातीयतरुमिश्रिताः, 'अनेकजातीयतरुसमूहो। वनखण्ड' इति वचनात् , तत्रापि जम्बूवृक्षाणामेव प्राधान्य मिति प्रस्तुते वर्णकसाफल्यं, अन्यथा अपरवृक्षाणां वनखण्डैनिमित्तभूतैर्जम्बूद्वीपपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेऽसाङ्गत्यात् , ते च कथंभूता इत्याह-नित्यं-सर्वकालं कुसुमिताः यावत्पदात् 'णिश्चं ||३||
माइया णिचं लवइमा णिचं थवइआ जाव णिचं कुसुमिअमाइअलवइअथवइभगुलइअगोच्छइअजमलिअजुवलिअशविणमिअसुविभत्त' इति ग्राह्यम् , एतद्व्याख्यानं प्राग्वनखण्डवर्णके कृतमिति ततो ज्ञेयं, उक्तवर्णकोपेताश्च वृक्षाः
cccceeeeeeeeee
~325
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [७], ------------------------------------------------- मूल [१७७-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
थीजम्मू-15 श्रिया अतीव उपशोभमानास्तिष्ठन्ति, इदं च नित्यकुसुमितत्वादिक जम्बूवृक्षाणामुत्तरकुरुक्षेत्रापेक्षया बोध्य, अन्यथैपो वक्षस्कारे द्वीपशा- प्रावृट्कालभाविपुष्पफलोदयवत्त्वेन प्रत्यक्षबाधात् , एतेन च जम्बूवृक्षबहुलो द्वीपो जम्बूद्वीप इत्यावेदितं भवति, अथवा
द्वीपनामविचन्द्रीजम्ब्बा सुदर्शनाभिधानायामनादृतनामा-पूर्व जम्बूवृक्षाधिकारे व्याख्यातनामा देवो महर्द्धिको यावत्करणात् 'महज्जु
हेतु: उपथा वृत्ति:
संहारः सू. ईए'इत्यादि ग्राह्य, पल्योपमस्थितिकः परिवसति, अथ तेनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-स्वाधिपत्यनाहतनामदेवाश्रय॥५४॥ भूतया जम्बोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीप इति, सूत्रैकदेशो ह्यपरं सूत्रैकदेशे स्मारयतीति 'अदुत्तरं च णं जम्बुद्दीवस्स Iसासए णामधेज्जे पण्णत्ते जण्ण कयाइ ण आसी ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ जाव णिचे' इति ज्ञेयम् ,
जीवाभिगमादर्श तथादर्शनात्, एतेन किमाकारभावप्रत्यवतारो जम्बूद्वीप इति चतुर्थः प्रश्नो नियूंढ इति । अथ प्रस्तुततीर्थद्वादशाङ्गीसूत्रसंसूत्रणाविश्वकर्मा श्रीसुधर्मस्वामी स्वस्मिन् गुरुत्वाभिमान परिजिहीर्घः प्रस्तुतग्रन्धनामोपदर्श-III |नपूर्वकं निगमनवाक्यमाह-तए ण'मित्यादि, शाश्वतत्वाच्छाश्वतनामकत्वाच सद्पोऽयं जम्बूद्वीपरूपो भावः, सन्तं हि || भावं नापलपन्ति वीतरागास्ततः श्रमणो भगवान् महावीरो मिथिलायां नगर्या माणिभद्रे चैत्ये बहूनां श्रमणानां बहूनां | श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूनां श्राविकाणां बहूनां देवानां बहूनां देवीनां मध्यगतो न पुनरेकान्ते एकतरस्य कस्य-18 |चित् पुरतः एवं-यथोक्तमुक्तानुसारेणेत्यर्थः आख्याति-प्रथमतो वाच्यमात्रकथनेन एवं भाषते-विशेषवचनकथनतः एवं प्रज्ञापयति-व्यकपर्यायवचनतः एवं प्ररूपयत्युपपत्तितः, आख्येवस्याभिधानमाह-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम षष्ठो
~326
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], --------------------
--------------------- मूलं [१७७-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Seceneseisenelessessedes
पाङ्गमिति शेषः, एतच्च ग्रन्थाग्रेण साधिकैकचत्वारिंशच्छतश्लोकमानं, यत्तु श्रीमलयगिरिपादैः सूर्यप्रज्ञप्तिटीकायां द्वितीयमाभृतप्राभृते 'एवामेव सपुबावरेणं जम्बुद्दीवे दीवे चउद्दस सलिलासयसहस्साई छप्पण्णं च सलिलासहस्साई भवंती. | तिमक्खाय'मित्यंतं श्लोकसहनचतुष्टयमानमुक्तं, ज्योतिष्काधिकारसूत्रमीलनेन च सप्तचत्वारिंशच्छताधिकमपि, तत्तु यावत्पदसंग्रहेण जन्माधिकारबृहद्वाचनाप्रक्षेपेण च तावत्परिमाणं सम्भाव्यत इति बोध्यं । अत्र गुणान् विभावयन्नाह| 'अजो अज्झयणे अठं च हेउं च पसिणं च'इत्यादि, आरात्-सर्वपापाद् दूरं यातः आर्य:-श्रीवर्द्धमानस्वामी अत एव || सर्वसावद्यवर्जकत्वेन 'सावयं निरर्थकं तुच्छार्थकं च न बेवादिति वक्तृप्रामाण्येन वचनप्रामाण्यमावेदितं भवति, अथवा श्रीसुधर्मस्वामिसम्बोधनं श्रीजम्बूस्वामिनं प्रति हे आर्य ! इति, अध्ययने-प्रस्तुतजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनामके स्वतन्त्राध्ययने । न तु शखपरिज्ञादिवत् श्रुतस्कन्धाद्यन्तर्गते अर्थ च चाः परस्परं समुच्चयार्थाः हेतुं च प्रशं च कारणं च व्याकरणं च। | भूयो भूयो-विस्मरणशीलश्रोत्रनुग्रहार्थ वारंवारं प्रकाशनेन अथवा प्रतिवस्तु नामार्थादिप्रकाशनेनोपदर्शयतीति सम्बन्धः, अनेन गुरुषारतन्यमभिहितं, तत्रार्थो जम्बूद्वीपादिपदानामन्वर्थः, स यथा 'से केणद्वेणं भन्ते! एवं वुच्चह-जम्बुद्दीवे दीवे', गोअमा! जम्बुद्दीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे जम्बूरुक्खा जम्बूवणा जम्बूवणसंडा णिचं कुसुमिआ जाव पिंडिममंजरिवडेंसगधरा सिरीए अईव २ उवसोभेमाणा चिदंति, जम्यूए अ सुदंसणाए अणाढिए णाम देवे॥ महिदीए जाव पलिभोवमडिईए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोअमा! एवं वुच्चा-जम्बुद्दीवे २' इति, तथा हेतु:-निमित्तं स []
toticeseseseoes
JaEcI
~327
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१७७-१७८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
जम्बूदीपशावचन्द्रीFs वृचि:
५४१॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Ja Eben
यथा 'पभू णं भन्ते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चन्दवडेंसर विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं महयाहयणकृगी अवाइअ जाव दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए १, गोअमा! णो इणट्टे समट्टे' इत्यत्राभिधातव्यार्थस्य 'से केणद्वेणं जाव चिहरित्तए ?, गोअमा! चन्दस्स जोइसिंदस्स० चन्दवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइअखंभे बइरामएस गोलबट्टसमुग्गएसु बहूईओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिति, ताओ णं चन्दस्स अन्नेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य अञ्चणिजाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ, से तेणड्डेणं गोअमा ! णो पभूति, इदं सूत्रं हेतुप्रतिपादकम्, तथा प्रश्नः- शिष्यपृष्टस्यार्थस्य प्रतिपादनरूपः, यथा लोकेऽप्युच्यते-अनेन प्रश्नानि सम्यक् कथितानि, अन्यथा सर्वथा सर्वभावविदो भगवतः प्रष्टव्यार्थाभावेन कुतः प्रश्नसम्भव इति, यथा- 'कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे केमहालय णं भन्ते । जम्बुद्दीवे दीवे किंसंठिए णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे किमायारभावप| डोआरे णं भम्ते ! जम्बुद्दीले दीवे पण्णत्ते ?, गोअमा ! अयण्णं जम्बुद्दीवे दीवे समदीवसमुद्दाणं समम्भंतरए सचखुडाए वट्टे तेल्लापूअसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णिआसंठाणसंठिए वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एवं जोअणसयस हस्स | आयामविक्खंभेणं तिष्णि जोअणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साइं दोणि अ सत्तावीसे जोअणसए तिष्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुस तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहिअं परिक्लेवेणं पण्णत्ते' इति, तथा करण - अपवादो विशेषवचन मितियावत्, तच नवरंपद्गभित सूत्रवाच्यं, यथा-'कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासे पण्णत्ते ?,
For P&Pase City
~328~
७वक्षस्कारे द्वीपनाम
हेतुः उप
संहारः सू. १७७-१७८
॥५४१||
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [७],
मूलं [१७७-१७८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Ja Ebene
गोभमा ! सिहरिस्त उत्तरेणं उत्तरलवणसमुद्दस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुद्दस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स | पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे एरवए णामं वासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जच्चैव वत्तवया भरहस्स सच्चैव सबा निरवसेसा अवा सभोअवणा सणिक्खमणा सपरिणिबाणा' इत्यतिदेशसूत्रे णवरं एरावओ चक्कवट्टी देवे एरावए । से तेणद्वेणं एरावए वासे' इति, तथा व्याकरणं-अपृष्टोत्तररूपं, तद्यथा— जया णं भन्ते ! सूरिए सवन्तरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेतं गच्छइ १, गोअमा! पंच पंच जोअणसहस्साई दोण्णि अ एगावण्णे जोअणसए एगूणतीसं च सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ' इत्यन्तसूत्रे 'तया णं इहगयस्स | मणूसस्स सीभालीसाए जोअणसहस्सेहिं दोहि अ तेवद्वेहिं जोयणसएहिं एगवीसाए अ जोअणस्स सद्विभागेहिं सूरिए चक्ष्फासं हवमागच्छइ' इत्येवंरूपेण सूत्रेण सूर्यस्य चक्षुःपथप्राप्तता शिष्येणापृष्टापि परोपकारैकप्रवृत्तेन भगवता स्वयं व्याकृतेति, इति ब्रवीमीति सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति ब्रूते अहमिति ब्रवीमि कोऽर्थः १-गुरुसम्प्रदायागतमिदं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिनामकमध्ययनं नतु मया स्वबुद्ध्योत्प्रेक्षितमिति, उपदर्शयतीत्यत्र वर्त्तमान निर्देशस्त्रिकाल भावि ध्वर्हत्सु जम्बूद्वीपप्रज्ञभ्युपाङ्ग विषय कार्थप्रणेतृत्वरूपविधिदर्शनार्थं, अत्र च ग्रन्थपर्यवसाने श्रीमन्महावीरनामकथनं चरममङ्गलमिति ॥
For P&Praise Cnly
अत्र सप्तम वक्षस्कार: परिसमाप्तः
~329~
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [७], ---------------------
------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
cene
श्रीजम्बू द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
8 वक्षस्कारे
द्वीपनामहेतु: उपसंहारःसू. १७७-१७८
इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकन्चरसुरत्राणप्रदत्तषाण्मासिकसवेंजन्तुजाताभयदानशत्रुजपादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिवहुमानयुगप्रधानोपमानसाम्पतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती रखमषानामयां ज्योतिष्काधिकारवर्णनो नाम सप्तमो वक्षस्कारः समासः, तत्समाप्तौ च
समाप्तेयं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्गवृत्तिः॥
॥५४२||
208030003003020306e0000
॥५४२॥
आगमसूत्र-१८ [उपांगसूत्र-७] 'जम्बदवीपप्रज्ञप्ति' परिसमाप्त:
~330
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], -----------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रशस्तिः । श्रेयाश्रीप्रतिभूप्रभूततपसा यो मोहराज रिपुं, दध्वंसे सहसा नितो गतमलं ज्ञानं च यः केवलम् । यो जुष्टश्च सदा त्रिविष्टपसदा वृन्दैस्तथा तथ्यवार, यस्तीर्थाधिपतिः श्रियं स ददतां श्रीवीरदेवः सताम् ॥१॥
अर्हत्स्विवात्र निखिलेषु गणाधिपेषु, वामेयदेव इव यो विदितो जगत्याम् । भादेयतामदधदद्भुतलब्धिधाम, श्रीगौतमोऽस्तु सम (मम) पूरितसिद्धिकामः ॥२॥ यं पञ्चमं प्रथमतोऽपि रतोपयेमे, श्रीवीरपट्टपटुलक्ष्मिसरोरुहाक्षी। रुद्राङ्कितेषु गणभृत्सु सुधर्मनामा, भूयादयं सुभगतानिधिरिष्टसिद्ध्यै ॥ ३॥ तस्य प्रभोः स्थविरवृन्दपरम्परायां, तत्तल्लसत्कुलगणावलिसम्भवायाम् ।। आतः क्रमाद् चटगणेन्द्रतपस्विसूरेः, श्रीमांस्तपागण इति प्रथितः पृथिव्याम् ॥४॥ पद्मावतीवचनतोऽभ्युदयं विभाव्य, यत्सूरये स्तवनसप्तशती स्वकीयाम् ।
सूरिर्जिनप्रभ उपप्रददे प्रथायै, सोऽयं सतां तपगणो न कथं प्रशस्वः ॥५॥ तत्रानेके बभूवुःसुविहितगुरवः श्रीजगचन्द्रमुख्याः, दोषायां वा दिवा वा सदसि रहसि वा स्वक्रियास्वेकभावाः।
~331
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः
59909
आदिकोडेरियोषीं चिकिलभरगता दुष्प्रमादावमन्ना, येरुद्दधे वितन्द्रैः स्वपरहितकृते सस्क्रिया सक्रिया 2018|| प्रशस्तिा,
अदुष्यं वैदुष्यं चरणगुणवैदुष्यसहितं, प्रमादाद्वैमुख्य प्रवचन विधेः सरकथकता।
गुणीयो यस्येत्थं न खलदुर्वाक्यविषयः, क्रमादासीदस्मिन् परमगुरुरानन्दविमलः ॥७॥ अन्तर्वाद्यमिति द्विधापि कुमतं श्रद्धावतां स्वागतं, निःश्रद्धैस्तु यथाशयं प्रकटितं विच्छिन्दतोऽस्य प्रभोः। बाह्यध्वान्तविभेदिनो दिनमणेः साम्यं न रम्यं न वा, ध्वान्तद्वैतभिदोऽपि मन्दिरमणेः संरक्षतोऽधस्तमः॥८॥
स्वगच्छे स्वसिंश्च प्रथयति तरां स्म प्रथमतस्तथा साधोश्चर्या ध्रुवसमय एंव प्रभुरसी । यथा सैतत्पट्टाधिपतिपुरुषे संयतगणे, क्रमाद्गुर्ची गुीं प्रजनितयशस्काऽनुववृते ॥९॥ तत्पभूषणमणिः सुगुरुप्तधर्मबीजप्रवर्द्धनपटुर्भरतक्षमायाम्। सूरीश्वरो विजयदानगुरुर्बभूव, के वादिनो विजयदा न बभूवुरस्य ? ॥१०॥ नालीकनीरनिधिनिर्जरसिन्धुसेवां, चक्रुश्चतुर्मुखचतुर्भुजचन्द्रचूडाः। यस्य प्रतापपरितापभृतो न भीता, एते जडाश्रयिण इत्यपधादतोऽपि ॥ ११॥
॥५४३॥ तत्प गुरुहीरहीरविजयो विधाजयामासिवान , जाग्रद्भाग्यनिधिः प्रियागमविधिश्चारित्रिणां चावधिः। यं सम्प्राप्य जगत्रयैकसुभगं मुक्तो मियो मत्सरः, श्रीवाग्भ्यामिव दीर्घकालजनितो ज्ञानक्रियाभ्यामपि ॥ १२॥
eseroesearcestroestaeser
~332
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], -------------------------
-------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
Detaceaeesesecaceae
सौभाग्यं यस्य नाम्रो नृपसदसि गुणिवादितायां प्रसिद्धेः, सौभाग्य देशनाया अकबरनृपतिः पादयोः पादुका । सौभाग्यं यस्य पाणेरुपपदविजयः सेनसूरीश्वरोऽसौ, सौभाग्यं दर्शनस्य त्वहमहमिकया स्वान्यलोकोपपातः ॥१३॥ इदानीं तत्पट्टे गुरुविजयसेनो विजयते, कलौ काले मूर्तः सुविहितजनाचारनिचयः। विरेजे राजन्वान् शशधरगणो येन विभुना, गुणग्रामो यस्माद् भवति विनयेनैव सुभगः॥१४॥ खलास्तेजोराशिं चरणगुणराशिं सुविहिता, विनेयाश्चिद्राशिं प्रतिवचनराशिं कुमतिनः । कविः की राशिं वरविनयराशिं च गुरवो, विदुः स्थाने जाने शुचिसुकृतराशिं पुनरमुम् ॥१५॥
गुरोरस्य श्रुत्वा श्रवणमधुरं चारु चरितं, स्वगन्धर्वोद्गीतं शुचिगुणगणोपार्जनभवम् ।। चमत्कारोत्कर्षात् ससलिलसहस्रानिमिषद्दक्, पटक्केदक्लेशं सुबहु सहते गिर्यसहनः ॥१६॥ तेषां गणे गुणवतां धुरि गण्यमानः, श्रीवाचकः सकलचन्द्रगुरुर्बभूव ।। मेधाविषु प्रथमतः प्रथमानकीर्तिः, स्फूर्तिर्यदीयकविकर्मणि सुप्रसिद्धा ॥१७॥ पुनः पुनः संस्मृतिमीयुषीणां, प्रतिक्रियेयं यदुपक्रियाणाम् ।
पुनः पुनर्लोचनसान्द्रभावः, पुनः पुनर्निःश्वसनस्वभावः ॥ १८॥ तेषां शिष्याणुनेयं गुरुजनविहितानुग्रहादेव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः स्वपरहितकृते शान्तिचन्द्रेण चके।
203929000000000000
0
00000
~333
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
-------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
भीजम्बू द्वीपशा
प्रशस्तिः .
न्तिचन्द्री-18
या वृचिः
Se0a09000ese
1५४४॥
वर्षे श्रीविक्रमाद्विधुशरशरभूवक्रधात्री १६५१ प्रमाणे, राज्ये प्राज्ये श्रिया श्रीअकबरनृपतेः पुण्यकारुण्यसिन्धोः १९
अस्योपाङ्गस्य गाम्भीर्यान्मदीयमतिमान्यतः। सम्प्रदायव्यपायाच्च, पूर्ववृत्तिनिवृत्तितः ॥२०॥ विरुद्धमागमादिभ्यो, यदन्न लिखितं मया। धीलोचनैस्तदालोच्य, शोध्यं सानुग्रहमयि ॥ २१॥ युग्मम् ॥ तुष्यन्तु साधवः सर्वे, मा रुच्यन्तु खला मयि । नमस्करोमि निःशेषान् , प्रीत्या भीत्या क्रमादिमान् ॥ २२॥ गम्भीरमिदमुपाङ्गं यथामति विवृण्वता विशदमतिना । यदवापि मया कुशलं कुशलमतिस्तेन भवतु जनः ॥२३॥
अये यावलीलौकसि नभसि नक्षत्र कुसुमनजं राज्ञः श्यामाभिगमसमये पूरिततरम् ।
मृजाकारः सूर्यः करबहुकरेणापनयति, धुवा तावद्भूयादियमखिललोकैः परिचिता ॥ २५॥ अथ शोधनसमयगता पुरोऽनुसन्धीयते प्रशस्तिरियम् । तपगणसाम्राज्यरमा श्रयति श्रीविजयसेनगुरौ ॥ २६ ॥ यत्सौभाग्यमनुत्तरं गुणगणो येषां वचोगोचरातीतः कोऽप्यभवत् पुरापि विनयाधारः (सदा) पूजितः । हित्वा येन पतिवरावदपरान् यानेव सच्चातुरीयुक्ताचार्यपदव्युदाररचिता सौयश्रियेऽशिनियत् ॥ २७ ॥ यद्रूपं मदनं सदा विमदनं निर्माति रम्यश्रिया, यत्कीर्तिश्च पदातिकं वितनुते कान्त्या निशानायकम् । चित्रं सश्चिनुते च चेतसि सतां यद्देशनावाक् सुधादेश्या शासनदीप्तिकृच्च सतपो यद् ध्यानमत्यद्भुतम् ॥२८॥
ते श्रीअकबरमहीधरदत्तमान-विख्यातिमद्विजयसेनगणाधिपानाम् ।
weeeeeee
॥५४४॥
हिएeae
~3344
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
-------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
नन्दन्ति पट्टयुवराजपदं दधानाः, श्रीसूरयो विजयदेवयतिप्रधानाः ॥२९॥ श्रीविजयसेनसूरी-श्वरगणनायकनिदेशकरणचणाः।
चत्वारोऽस्या वृत्तेः शुद्धिकृते सङ्गता निपुणाः॥३०॥ तथाहिश्रीसूरेविजयादिदानसुगुरोः श्रीहीरसूरेरपि, प्राप्ता वाङ्मयतत्त्वमद्भुततरं ये सम्प्रदायागतम् । ये जैनागमसिन्धुतारणविधी सत्कर्णधारायिता, ये ख्याताः क्षितिमण्डले च गणितग्रन्थज्ञरेखाभूतः॥३१॥
लुम्पाकमुख्यकुमतैकतमःप्रपञ्चे, रोचिष्णुचण्डरुचयः प्रतिभासमानाः।
श्रीवाचका विमलहवराभिधानास्तेऽत्रादिमा गुणगणेषु कृतावधानाः ॥ १२॥ तथा-ये संविद्यधुरन्धराः समभवन्नावालकालादपि, प्रज्ञावत्स्वपि ये च बन्धुरतराः प्रापुः प्रसिद्धि पराम् । श्रीवीरे गणधारिगीतम इव श्रीहीरसूरी गुरी, ये राजद्विनयास्तदातनसुधाभानोः पटुर्वावसुधाम् ॥३॥
सत्तलक्षणविशालजिनागमादिशास्त्रावगाहनकलाकुशलाद्वितीयाः ।
श्रीसोमयुगविजयवाचकनामधेयास्ते सद्गुणैरपि परैर्भुवमप्रमेयाः ॥ ३४ ॥ || किच-ये वैरङ्गिकतादिकवरगुणः सम्पाप्तसद्गौरवाः, सर्वादेवगिरः कलावपि युगे साम्नायजैनागमाः।
जजुः श्रीवरवानरर्षिविबुधास्तच्छिष्यमुख्याश्च ये, किं तन्मूर्तिरिवापरेत्यभिमतास्तैस्तैर्गुणैर्धीमताम् ॥ ३५ ॥
~335.
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ----------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SRecenteces
प्रशस्तिः.
श्रीजम्बू
प्रज्ञागुणगुरुगेहं परिभाषितभूरिशासवरतत्त्वाः । श्रीआनन्दविजयविबुधपुङ्गवास्ते तृतीयास्तु ॥३६॥ न्तिचन्द्रीद्वपिशा-18 अपि च-येऽद्वैतस्मृतयः कुशाग्रधिषणाः सलक्षणाम्भोधराश्छन्दोऽलंकृतिकाव्यवाङ्मयमहाभ्यास शं विश्नुताः।
सिद्धान्तोपनिषत्प्रकाशनपरा विज्ञावतंसायितास्तत्तन्नूतनशास्त्रशुद्धिकरणे पारीणतां संश्रिताः ॥ ३७॥ या वृत्तिः
श्रीकल्याणविजयवरवाचकशिध्येषु मुख्यतां प्राप्ताः । श्रीलाभविजयविबुधास्ते तुर्या इह बहृद्युक्ताः ॥ २८॥ ॥५४५॥ एतेषां प्रतिभाविशेषविलसत्तीथे प्रथामागते, नानाशाखविचारचारुसलिलापूर्णे चतुर्णामपि।
स्नाता वाचकवाच्यदूषणमलान्मुक्ता सुवर्णाशिता, सत्यश्रीरजनिष्ठ शिष्टजनताकाम्यैव वृत्तिः कनी ॥ ३९ ॥ श्रीमद्विक्रमभूपतोऽम्बरंगुणमाखपडदाक्षायणीमाणेशाङ्कितवत्सरे (१६६०)ऽतिरुचिरे पुष्येन्दुभूवासरे।। राधे शुद्धतिथी तथा रसमिते श्रीराजधन्ये पुरे, पाचे श्रीविजयादिसेनसुगुरोः शुद्धा समग्राऽभवत् ॥४०॥
श्रीशान्तिचन्द्राभिधवाचकेन्द्रशिष्येष्वनेकेषु मणीयमानाः।
ध्वस्तान्तरध्वान्तजिनेन्द्रचन्द्रराद्धान्तरम्यस्मृतिलब्धमानाः॥४१॥ अस्थामनेकशी लिखनशुद्धिगणनादिविधिषु साहाय्यम् । गुरुभक्ताः कृतवन्तः श्रीमन्तसेजचन्द्रबुधाः ॥ ४२ ॥ देवादिन्द्रातिथितां गतेविदंवृत्तिसूत्रधारेषु । तन्मन्निनिजमनीपाविशेषमिव वीक्षितुं व्यक्तम् ॥ ४॥ तेषामन्तिपदामखिलशिष्यसमुदायमुण्यतां दधताम् । गुरुकार्ये धुर्याणां पण्डितवररलचन्द्राणाम् ॥ ४४॥
Receneraceaeeeeeesesed
secretatsteceser
॥५४५||
~336~
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [--1, -------------------------
------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीतपगणपूर्वागिरिसूरैः श्रीविजयसेनसूरिवरैः । निजहस्तेन वितीर्णा प्रवर्तनायै प्रसादपरैः ॥ ४५ ॥ बहुभिश्च सम्मतेयं कृता तदा विदितसमयतत्त्वार्थैः । श्रीविजयदेवसूरिश्रीवाचकमुख्यगीतार्थैः ॥ ४६॥ रसानीच प्रमेयानि, नानाशाखखनीनि चेत् । भूयांसि लिप्सवो यूयं, विज्ञरलवणिग्वराः॥४७॥ श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेरुपाङ्गस्य सविस्तरा । प्रमेयरत्नमञ्जूषा, वृत्तिरेषा तदेक्ष्यताम् ॥४८॥ युग्मम् । श्रीशान्तिचन्द्रवाचकशिष्यवरो विबुधरनचन्द्रगणिः । अस्या बहादर्शानलीलिखद् भक्तियुक्तमनाः॥४९॥ वाच्यमाना श्रूयमाणा, गीतार्थैः श्रावकोत्तमैः । शोध्यमाना लेख्यमाना, जीयासुस्ते चिरं भुवि ॥५०॥
तच्छिष्यो धनचन्द्रः स्फुरदुरुधीलिंपिकलाविधिवितन्द्रः । अकरोत्प्रथमादर्श सूत्रार्थविवेचने चतुरः ॥५१॥ इति श्रीशान्तिचन्द्रगणिवाचकविरचितायाः प्रमेयरत्नमंजूषानाच्याः श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तेः प्रशस्तिः सम्पूर्णा ॥
censesenteresttaesentaeratiserseces
भाग
25
जंबूद्वीप-उवंगसूत्र [७/३] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) ।
~337
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
01
02
03
04
05
06
07
08
09
10
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग - १ श्रुतस्क्न्ध-१, अध्ययन- १,२
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग - १ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१
भाग-२
| आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति.
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३
श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १ से ४
स्थान- ५ से १० संपूर्ण
भाग-१ शतक- १ से ६
भाग-२ शतक- ७ से ११
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति.
आगम-७,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति.
भाग-३ शतक- १२ से २०
भाग-४ शतक - २१ से ४१ संपूर्ण
11
12
13
14
15
16
17
| आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति-३ - अतर्गत ] सूत्र - १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण
18
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५
19
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२
20
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ पूर्ण
21
| आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम-११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति.
| आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति.
आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति ३ अतर्गत सूत्र- १ से १३८
~ 338~
कुलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
५१४
३८४
५२२
५३८
३८४
३१४
४८०
४८८
४२६
५१४
३३६
६१०
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम
आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम १८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति वक्षस्कार- १ एवं २.
आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग - २ मूलं एवं वृत्ति वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग- ३ मूलं एवं वृत्ति वक्षस्कार- ५ से ७.
आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंद्लवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया
आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, ब्रुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, निर्युक्ति- १ से ५२१
निर्युक्ति- ५२२ से९५१
निर्युक्ति - ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण ]
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग - ३ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ आगम ४१/१ ओघनिर्युक्ति मूलं एवं वृत्ति.
निर्युक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३ [ अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण
आगम ४१/२ पिंडनिर्युक्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग -१, अध्ययन- १ से ५
आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१
आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६
आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति.
आगम ४५ अनुयोगद्वार् मूलं एवं वृत्ति.
कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
~339~
कुलपृष्ठ
६१४
३७६
४२६
३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
४६४
४२६
४७२
३७६
५९०
५२२
४८२
४६६
५२८
५६०
३९४
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
आगम [18/3] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांगसूत्र-७/३)” [मूलं एवं शांतिचंद्र विहिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त:
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-25
~340
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਰਿਸ
ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ
ਗਲ
ਲਾ ਲੈ
ਕ
ਸ
ਸ
ਸ
ਹਸ ਨੂੰ
वाचना शताब्दी वर्ष
ਅਜ ਦਾ ਵੀ ਹੈ ਸਸ , ਬਲ ਰਿਸ਼
- 341
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि ।
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायजर
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751
~342.
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
8 पालिताणा
HOHORE
~3434
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________ म आजम __ मूल सशाधकालमा पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आगम आगम आगम आगम आगम आगम 18 "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति: [3] आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी _ [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आजम आजम आगम आगम आगम -344