Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर निर्वाण
स्मारिका १८७५
D) SEO
परस्परोपजीवानाम
128 4
CATCH
TWOL
018231
HEX TUSAXILJAN HAN
M
5 & 194HOL
जस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर २५00 वाँ निर्वाण
Jain Education Internati
कालोपन मागमिति नगा
Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव
वीर निर्वाण स्मारिका
१९७५
सम्पादक मण्डल :
डॉ० नरेन्द्र भानावत डॉ० मूलचन्द सेठिया
प्रधान सम्पादक:
भंवरलाल पोल्याका जैनानाचार्य, साहित्य शास्त्री
श्री विनयसागर
श्री केवल चन्द ठोलिया
प्रबन्ध सम्पादक: श्री कपूरचन्द पाटनी श्री पन्नालाल बांठिया
मुद्रक : अजन्ता प्रिण्टर्स घी वालों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर-302003
मूल्य : चार रूपया डाक व्यय अतिरिक्त
प्रकाशक: श्री सम्पतकुमार गधईया
प्रधान मन्त्री
राज० प्रान्तीय भ० महावीर २५००वां निर्वाणा महोत्सव महासमिति
ज य पुर
www.jainefibrary.org
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
१. भगवान महावीर के २५०० वें परिनिर्वाण महोत्सव पर स्वीकृत योजनाएं
(श्र) श्री महावीर जी क्षेत्र पर निर्माणधीन योजनाएं :
:
(१) महावीर स्तूप (२) नेत्र चिकित्सालय
(३) आधुनिक भोजनशाला
(४) प्रवचन हाल
(५) अधिक उत्तम आवास व्यवस्था के लिए कुछ और कमरे ।
( श्रा) साहित्य प्रकाशन :
(१) महावीर काव्य माला
(२) भगवान महावीर, जैन दर्शन, महावीर वाणी आदि के रूप में छोटे-छोटे ट्रेवों का प्रकाशन ।
२. क्षेत्र द्वारा प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण साहित्य
(१) राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूची- भाग १ से ५ तक । ( २ ) Jain Granth Bhandars in Rajasthan - Dr KC. Kasliwal (३) राजस्थान जैन संत । व्यक्तित्व एवं कृतित्व
- डा० कस्तूरचंद कासलीवाल मूल्य १२.०० (४) महाकवि दौलतराम कासलीवाल । व्यक्तित्व एवं कृतित्व
( ५ ) वचन दूतम (संस्कृत काव्य ) पं० मूलचंद शास्त्री, ( ६ ) तीर्थ कर वर्धमान - पं० पदमचंद शास्त्री, (७) प्रद्युम्न चरित --
( 5 ) जिरणदत्त चरित -
( 2 ) हिन्दी पद संग्रह
फोन नं० ७३२०२
- डा० कस्तूरचंद कासलीवाल मूल्य १५.००
मूल्य ७.०० मूल्य ८.००
मूल्य ८.००
मूल्य ६.०० मूल्य ६.००
श्री दिगम्बर जैन प्र० क्षेत्र श्री महावीरजी महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाइवे जयपुर-३
-30.00
मंत्री
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
0000000000000000000000000000000000000000<
N
विश्ववंद्य
भगवान महावीर
GE}}
विश्व जिनका २५०० वां निर्वाण वर्ष मना रहा है
>000000000000000
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन् 1974 नवम्बर में भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी का कार्यकम प्रारम्भ हुआ । अब 1975 का नवम्बर सामने है । एक वर्ष का समय समाप्ति पर है, किन्तु कार्यक्रम सम्पन्नता नहीं चाहता है। जिस वार्षिक कार्यक्रम की पृष्ठभूमि तैयार करने में कई वर्षों का समय लगा उस कार्यक्रम की सम्पूर्ति एक वर्ष में कैसे हो सकती है ? हमारे सामने करणीय काम इतने हैं कि जब तक वे पूरे नहीं होते हैं, हम निर्वाण-शताब्दी का समापन नहीं कर सकते ।
पिछले वर्ष भगवान महावीर का नाम अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज तक एक दिव्य पुरुष के रूप में उभर आया है । यह शताब्दी वर्ष की विशेष उपलब्धि है। इसमें हमारे देश की केन्द्र और राज्य सरकारों तथा जैन और अजैन संस्थानों ने खुलकर भाग लिया । भगवान महावीर को महावीर के रूप में प्रस्तुत करने में इन सबका योग रहा है ।
राजस्थान सरकार और राजस्थान की जनता ने भगवान महावीर के प्रति जैसी श्रद्धांजलि अर्पित की है, वह अन्यान्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय है। राजस्थान प्रान्तीय महावीर-निर्वाण महासमिति अपने दायित्व के प्रति काफी जागरूक रही है । वह स्मारिका के रूप में एक और श्रद्धांजलि समर्पित करना चाहती है। स्मारिका भगवान महावीर के दर्शन को स्मति में लाने का माध्यम बने, इस दृष्टि से उसमें विशेष सामग्री का समाचयन आवश्यक है।
राजस्थान सरकार, निर्वाण-समितियों और जनता द्वारा किए गए सभी कार्यों की अवगति स्मारिका के माध्यम से देश की जनता तक पहुँच सकती है । भगवान महावीर जीवन के प्रशस्तीकरण में प्रेरणास्रोत हैं । उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है-उनके दर्शन को जीवन-व्यवहार में उतारना । निरिण-समितियां भी इस विषय में जागरूक रहकर अपने देश के नैतिक और चारित्रिक स्तर को उन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगी, ऐसा विश्वास है।
प्राचार्य तुलसी
ग्रीन-हाउस, सी-स्कीम, जयपुर (राजस्थान) 16 अक्टूबर 1975
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुख्य मंत्री राजस्थान
- जयपुर CHIEF MINISTER OF RAJASTHAN
JAIPUR
संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव महासमिति द्वारा 'वीर निर्वाण स्मारिका' का प्रकाशन किया जा रहा है।
इस वर्ष देश में भगवान महावीर का 26 सौं वां निर्वाण वर्ष मनाया जा रहा है। राज्य सरकार ने भी राज्य स्तर पर इस दिशा में अनेक कदम उठाये हैं। इनके मूल में भावना यही रही है कि विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से भगवान महावीर के सिद्धान्तों का अधिकाधिक प्रसार व प्रचार हो सके । आज देश जिस ऐतिहासिक दौर से गुजर रहा है उसमें हमें राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने और राष्ट्र में अनुशासन, मर्यादा व कर्तव्यपालन की प्रेरणा जगाने के लिये भगवान महावीर के सिद्धान्तों से प्रादर्श ग्रहण करना होगा।
मैं आशा करता हूं कि आपकी वृहद् स्मारिका इस दिशा में उपयोगी प्रकाशन सिद्ध होगी।
मैं आपके प्रकाशन की सफलता चाहता हूं।
(हरिदेव जोशी)
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृषि तथा सिंचाई मंत्री
भारत सरकार नई दिल्ली-110001
MINISTER OF AGRICULTURE & IRRIGATION
GOVERNMENT OF INDIA
NEW DELHI-110001
नई दिल्ली, दिनांक 18 अक्तूबर, 1975
महावीर जी के 2500 वें परि-निर्वाण वर्ष के उपलक्ष में निर्वाण महोत्सव महा-समिति द्वारा दीपावली को एक स्मारिका प्रकाशित की जा रही है, यह ज्ञात हुआ।
। आशा है, स्मारिका में महावीर जी के सिद्धान्तों, आदेशों और उपदेशों की समुचित जानकारी होगी।
... स्मारिका उपयोगी सिद्ध हो ।
(जगजाबन राम)
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
रक्षा उत्पादन मंत्री, भारत MINISTER OF DEFENCE PRODUCTION, INDIA
नई दिल्ली अक्टूबर 07, 1975
सन्देश
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि राजस्थान प्रा० भगवान महावीर 2500वां परिनिर्वाण महासमिति भगवान महावीर के निरिण वर्ष के अवसर पर एक स्मारिका प्रकाशित करने की योजना बनाई है । अहिंसा के प्रवर्तक भगवान महावीर भारतीय चिंतन एवं वेदान्त के एक उज्ज्वल नक्षत्र के समान दैदीप्यमान थे। उन्होंने मानव जाति को कर्तव्यपथ पर अग्रसर होने का जो दिव्य संदेश दिया उससे मानव जाति सदैव कृतज्ञ रहेगी। मुझे आशा है कि स्मारिका में भगवान महावीर के उपदेशों तथा सिद्धान्तों पर उपयोगी लेखादि संकलित किये जायेंगे जिससे मानव जाति को प्रेरणा एवं मार्गदर्शन मिल सके ।
प्रायोजन की सफलता के लिये हार्दिक शुभ कामनाएं।
(रामविकास निधी)
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुख्य मंत्री मध्य प्रदेश
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राजस्थान भगवान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव समिति ने निर्वाण महोत्सव के अन्तिम दिन एक वृहत स्मारिका प्रकाशित करने का निश्चय किया है। भगवान महावीर एक युग पुरुष थे। उन्होंने मानवता को “जियो और जीने दो" का सिद्धान्त दिया और मानव कल्याण के लिए सत्य और अहिंसा के सिद्धान्त के पालन पर बल दिया। मैं आशा करता हूं कि सभी लोग भगवान महावीर द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर देश के चहुँमुखी विकास और देश में . सुख एवं शांति स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योग देंगे।
. स्मारिका में भगवान महावीर के संपूर्ण जीवन की झांकी और जनता के लिये उनके उपदेशों की पूर्ण जानकारी संकलित होगी, ऐसी मुझे आशा है।
मैं स्मारिका के सफल प्रकाशन की हृदय से कामना करता हूं।
(प्रकाशचन्द सेठी)
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
BABUBHAI JASHBHAI PATEL Chief Minister,
General Administration, Finance, Planning, Industrial Policy, Capital Project, Sachivalaya, Gandhinagar, (Gujarat State) Date : 26-10-1975.
भाई श्री
राजस्थान प्रांतिय भगवान महावीर 2500 निर्वाण महोत्सव महासमिति इस वर्ष के अन्तिम दिन दिपावली पर स्मारिका प्रसिद्ध कर रहा है वह बड़े हर्ष और गर्वकी बात है, आपको इस कार्य में सफलता मिले यही शुभेच्छा.
भवदीय, (बाबूभाई पटेल)
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
CHIEF MINISTER, HARYANA
CHANDIGARH
सन्देश
भारत की धरती ऋषियों-मुनियों तथा अवतारों की धरती है। महापुरुषों ने जहां यात्मिक-शांति का मार्ग दिखलाया वहां मानव-मात्र के कल्याण-कार्यों के करने पर बल दिया।
भगवान् महाबीर स्वामी अहिंसा तथा क्षमा के अवतार थे। उनका जीवन दर्शन विश्व में भाई-चारे व मैत्री और प्रेम की भावना फैलाने के लिए एक प्रकाश-पुज का काम कर रहा है। सदियों से हर मनुस्य उन के उपदेशों से आध्यात्मिक शान्ति व अहिंसा की प्रेरणा प्राप्त करता रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके अहिंसा के दिखाए हुए मार्ग को अपनाकर हो देश के लिए आजादी प्राप्त की।
भगवान् महावीर स्वामी जी के पच्चीसवें निर्वाण शताब्दी वर्ष में उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि हम उन के दिखाए हुए रास्ते पर चलें और विश्व में नफरत, वैर-विरोध तथा ऊंच-नीच के वातावरण को खत्म कर प्रेम, अहिंसा तथा भ्रातृभावों का प्रसार करें। मैं आप की स्मारिका के प्रकाशन की सफलता की कामना करता हूं।
मंगल-कामनाओं सहित,
(बंसीलाल)
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान उच्च न्यायालय
जोधपुर
दिनांक 14-10-75
मा० मुख्य न्यायमूर्ति
प्रकाश नारायण सिंहल प्रिय श्री पाटनीजी,
वीर-निर्वाण-स्मारिका-हेतु आप ने मेरा सन्देश चाहा जिसके लिए हार्दिक धन्यवाद।
आपके इस पुनीत कार्य के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद देते हुए स्मारिका के सफल सम्पादन के लिए हार्दिक शुभकामनायें प्रेषित हैं। मैं पाशा करता हूँ कि यह स्मारिका अहिंसा एवं विश्वमैत्री के महानतम सिद्धान्तों के प्रणेता एवं प्रतिपादक भगवान महावीर के पावन सन्देश के व्यापक प्रचार एवं प्रसार द्वारा जन साधारण को इन सिद्धान्तों को सही अर्थ में समझकर जीवन में उतारने की प्रेरणा एवं स्फूति देगी।
भवदीय शुभेच्छ (प्रकाश नारायण सिंहल)
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यक्ष राजस्थान विधानसभा
जयपुर दिनांक 15 अक्टूबर, 1975
प्रिय श्री पाटनीजी,
___ मुझे यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि आगामी दीपावली के शुभ अवसर पर राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महोत्सव महासमिति भगवान महावीर पर एक बृहत् स्मारिका का प्रकाशन करने जा रही है जिसमें भगवान महावीर की जीवनी व उनके बताये गये आदर्शों का दिग्दर्शन होगा।
। यदि हम तनिक भी किसी महान प्रात्मा की ओर दृष्टि डालें तो हमें ज्ञात होगा कि वे किसी एक समाज विशेष या एक देश की धरोहर नहीं होते बल्कि वे सारे विश्व तथा मानव मात्र के हितैषी होते हैं-उसी प्रकार भगवान महावीर ने भी जाति पांति, ऊंच नीच व छोटे बड़े का भेदभाव भुलाकर सबको समान दृष्टि से देखा और सबको अपने उपदेश से लाभ पहुँचाया। भगवान महावीर सत्य और अहिंसा के पुजारी थेवास्तव में देखा जाय तो हम महापुरुषों को भूलते जा रहे हैं सिर्फ औपचारिकता के नाते उनके जन्म दिवस व निर्वाण दिवस पर उनकी याद कर लेते हैं - दरअसल हम हमारे महान् पुरुषों के बताये गये मार्गों से भटक गये हैं और यही कारण है कि आज समाज व देश में अशांति व अहिंसा का वातावरण पनप रहा है-- सही माने में भगवान महावीर का निर्वाण महोत्सव मनाना तो तभी सार्थक होगा कि जब हम उनके बताये गये मार्गों-आदर्शों पर चलें उनका अनुसरण करें। मुझे खुशी है कि इस स्मारिका से समाज व पाठकों के हृदयों में एक बार पुनः भगवान महावीर के बताये गये मार्गो-प्रादर्शों के प्रति सजग होने का मौका मिलेगा । अन्त में मैं आपके इस प्रयास एवं स्मारिका की सफलता की कामना चाहता हूं।
आपका, (रामकिशोर व्यास)
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्देश
वित्त मंत्री, राजस्थान, जयपुर
अक्टूबर 16, 1975
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि अहिंसा के सन्देशवाहक, स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रणेता भगवान महावीर के 2600 वें निर्वारण महोत्सव के समापन समारोह के उपलक्ष में पूरे वर्ष में जो लोकहित के कार्य हुए है उनकी सम्पूर्ण जानकारी हेतु एक वृहद स्मारिका का प्रकाशन राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव महा समिति द्वारा किया जा रहा है ।
इस अवसर पर मैं अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं ।
( चन्दनमल बंद )
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
वितसिंह राठौड़, शिक्षा मंत्री,
अ० शा ० पत्र संख्या 968 | शि० मं० 1 75,
जयपुर राजस्थान
दिनांक 4 अक्टूबर, 75 1
श्रीमान् पाटनी साहब,
मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि आप भगवान महावीर 2600वां निर्वाण महोत्सव के शुभावसर पर वीर निर्वाण स्मारिका का प्रकाशन करने जा रहे हैं। यह भी हर्ष का विषय है कि आप इस पत्रिका में भगवान महावीर के विचारों एवं सिद्धान्तों पर काफी विस्तार में विवेचन देंगे ।
स्मारिका की सफलता के लिये मैं अपनी शुभ कामनाएं भेजता हूं ।
आपका सद्भावी, ( खेतसिंह राठौड )
स्वास्थ्य मंत्री राजस्थान, जयपुर
जयपुर, दिनांक 22 / 23 अक्टूबर, 1975
सन्देश
भगवान महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण वर्ष के अवसर पर राजस्थान प्रा० भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव महासमिति ने भगवान महावीर के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जो एक स्मारिका प्रकाशित करने का निश्चय किया है वह एक सराहनीय कदम है ।
इस स्मारिका के लिए मेरी ओर से शुभकामनाएं स्वीकार करें।
भवदीय,
( मोहन छंगाणी )
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिवचरण माथुर, कृषि एवं खाद्य मंत्री ।
संदेश
मुझे जानकर हार्दिक प्रसन्नता है कि राजस्थान प्रान्तीय 'भगवान महावीर 2500 निर्वाण महोत्सव महासमिति' द्वारा इस परि - निर्वाण वर्ष में आयोजित समारोह तथा भगवान महावीर द्वारा बताये गये अहिसा एवं पवित्र जीवन दर्शन के सिद्धान्तों एवं संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक बृहत स्मारिका प्रकाशित की जा रही है ।
जयपुर राजस्थान
दिनांक 17 अक्टूबर, 1975
वर्तमान समय में देश की सांस्कृतिक धरोहर एवं रचनात्मक मूल्यों के महत्व को दृष्टि में रखते हुए, मुझे प्राशा है कि "यह स्मारिका" देश के युवा, बाल एवं वृद्ध सभी वर्ग को सदाचार, अनुशासन एवं राष्ट्रीय एकता व सुदृढ़ता बनाये रखने की भावना के अनुरूप आचरण करने की दिशा में सबल प्रेरणा देगी :
स्मारिका के सफल प्रकाशन हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ ।
सद्भावी,
( शिवचरण माथुर )
रामनारायण चौधरी सहकारिता मंत्री
जयपुर राजस्थान
9 अक्टूबर, 1975
सन्देश
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि राजस्थान में भगवान महावीर की 25 सौ वो निर्वाण महोत्सव के अन्तर्गत 'वीर निर्वारण स्मारिका' का प्रकाशन किया जा रहा है ।
भगवान महावीर का सन्देश जन-जन तक पहुँचाने के लिये विभिन्न स्तरों पर प्रयास किये जा रहे हैं । आाज के सन्दर्भ में भगवान महावीर के सन्देश विशेष महत्व रखते हैं । ग्रहिंसा, भाईचारा, विश्ववन्धुत्व और प्राणी मात्र पर दया यादि लोकोपयोगी शिक्षाओं का ग्रहण कर हम अपने जीवन को समुन्नत बना सकते हैं ।
मैं आशा करता हूं कि आपके द्वारा प्रकाशित की जाने वाली स्मारिका भगवान महावीर के सन्देशों को जन साधारण तक पहुँचाने के प्रयास में सफल होगी। मैं आपके इस प्रयास की सफलता की कामना करता हूं ।
( रामनारायण चौधरी ) सहकारिता मन्त्री, राजस्थान सरकार, जयपुर
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमला बेनीवाल राज्य मन्त्री जनसम्पर्क एवं आयुर्वेद विभाग, राजस्थान, जयपुर
सन्दे
श
अक्टूबर, 1975
प्रसन्नता है कि महावीर स्वामी के 2500वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर वीर निर्वाण स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है ।
भगवान महावीर द्वारा बताये गये सत्य-अहिंसा और अपरिग्रह के मार्ग पर चलकर आज सही मायने में शान्ति प्राप्त की जा सकती है। इस सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है कि महावीर स्वामी के आदर्शों को जीवन में पूरी तरह अपनाया जाए।
आशा है, वीर निर्वाण स्मारिका में आम आदमी की जानकारी के लिए महावीर स्वामी के उपदेशों का विस्तृत रूप में उल्लेख किया जावेगा।. .
... .. . शुभकामनाओं सहित,
(कमला बेनीवाल)
BIJOY SINGH NAHAR MLA.
48, Indian Mirror Street Calcutta-13 श्रमण भगवान महावीर के 2500 निर्वाण वर्ष का उत्सव हर देश में मनाया जा रहा है। राजस्थान प्रन्तिय महोत्सव महासमिति "वीर निर्वाण स्मारिका" प्रकाशित कर रही है जानकर खुसी हुई।
- आज के समस्यामय देश में, भगवान महावीर की जीवन साधना एवं वाणी का प्रचार होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन आचरण वैज्ञानिक है। आत्मा को निर्जरा करने में --मानव जीवन शुद्ध रखने में समाज व्यवस्था सुनियंत्रित रखने में--हिंसा, शोषण, अनाचार का पर्णतया लोप करने में-महावीर का उपदेश ही कार्यकारी हो सकता है। अहिंसा, अपरिग्रह के पर्ण प्रतीक भगवान महावीर अपने जीवन साधना द्वारा यह सब प्रमाणित किया है।
जैन कोई सीमित धर्म नहीं है--यह विश्वधर्म है । अनेकांत को जानने वाला सर्व धर्म पर श्रद्धा रखेगा। "णमो लोए सव्व साहूणं" का मंत्र जपने वाला, केवल जैन साधु को ही नहीं, विश्वलोक के सब साधु को नमस्कार करता है। कितना व्यापक आदर्श है।
आशा है “वीर निर्वाण स्मारिका" जनता के सामने शुद्धमार्ग का प्रदर्शन करने में सफलता लाभ करेगा। इस प्रकाशनी के प्रति हमारी शुभकामना।
विजयसिंह नाहर
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैप्टिन सेठ सर मागचन्द सोनी
अजमेर दिनांक 22-10-75
सन्देश
मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप भगवान महावीर 2500वें परिनिर्वाण महोत्सव के अन्तर्गत दीपावली के पुनीत अवसर पर 600 पृष्ठीय 'महावीर स्मारिका' का प्रकाशन कर रहे हैं।
विश्ववंद्य भगवान महावीर के सार्वजनीन एवं सार्वकालीन दिव्य उपदेशों से प्राणी मात्र का आत्म कल्याण हुआ है । उन उपदेशों का मूल्य माज निःसन्देह सार्वजनीन महत्व रखता है। विज्ञान की चकाचौंध में दिग्भ्रमित जनता अध्यात्म के वैशिष्ट्य को भगवान महावीर की वाणी द्वारा ही उद्बोध प्राप्त कर सकती है ।
मुझे विश्वास है कि भगवान महावीर के विश्वोपकारी सिद्धान्तों का स्मारिका में समावेश होगा। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अनेकान्त की राष्ट्रीय गरिमाका दिग्दर्शन समर्थ विद्वानों की लेखनी द्वारा कराया जावेगा।
स्मारिका के सुन्दर एवं सफल प्रकाशन के लिये मेरी अनेक मंगल कामनाएं।
(भागचन्द सोनी)
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहमदाबाद
ता. 11.10.16
राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव महासमिति दिपावली पर वृहद स्मारिका का प्रकाशन कर रहे हैं वह जानकर खुशी हुई।
मैं आशा रखता हूं कि आपकी स्मारिका को जैन धर्म के उच्च सिद्धांतों को देश में प्रचार करने की सफलता मिले।
लि.
कस्तूरभाइ लालभाइके प्रणाम
कलकत्ता 19-10-75
भगवान महावीर के 2500 वां निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष में राजस्थान प्रा० महासमिति एक स्मारिका प्रकाशित कर रही है सो जानकर बहुत खुशी हुई। राजस्थान सरकार ने इस वर्ष अहिंसा के मार्ग में जो कदम उठाए हैं एवं अहिंसा के दिव्य सन्देश हेतु जो निर्णय लिया है वे बहुत उल्लेखनीय एवं प्रसंशनीय हैं । मेरी कामना है कि इस स्मारिका के जरिए अहिंसा के ये नियम सभी प्रान्त के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें एवं इसका प्रभाव क्षणिक न होकर. भविष्य में बराबर के लिए कायम रहे जिससे सम्पूर्ण प्राणी मात्र का कल्यासा होता रहे।
भवदीय, (नथमल सेठी)
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवल किशोर शर्मा संसद सदस्य
२२६ नार्थ ऐवेन्यू, नई दिल्ली 27-10-75
प्रिय श्री पाटनीजी,
__ आपका पत्र मिला तदर्थ धन्यवाद ! भगवान महावीर के 2500 निर्वाण महोत्सव के अन्तिम दिन राजस्थान शाखा ने स्मारिका निकालने का निर्णय कर एक अच्छा काम किया है। भगवान महावीर के सम्बन्ध में और निर्वाण महोत्सव के साल में किये गये कार्य का एक अच्छा संकलन जनमानस की प्रेरणा का स्रोत हो सकता है। मेरा विश्वास है कि राजस्थान प्रांतीय समिति ने निर्वाण महोत्सव के अवसर पर जैसा अच्छा कार्य किया है उस ही के अनुरूप स्मारिका भी निकलेगी।
इस अवसर पर मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें।
भवदीय, (नवल किशोर शर्मा)
यशपाल जैन सम्पादक, 'जीवन साहित्य'
7/8, दरियागंज, दिल्ली-6
27-9-75 प्रिय भाई,
यह जानकर हर्ष हुअा कि आप एक स्मारिका का प्रकाशन कर रहे हैं । आपके आयोजन का स्वागत करता हूं और उसकी सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं भेजता हूं। - दीपावली आलोक का पर्व है पर हमारी कठिनाई यह है कि हम बाहर के प्रकाश को देखते हैं और उसी की चिन्ता करते हैं, कम ही लोग हैं जो प्रांतरिक प्रकाश पर ध्यान देते हैं। जब तक अन्तर आलोकिक नहीं होगा तब तक बाहरी प्रकाश विशेष लाभदायक नहीं होगा। महावीर ने अपने अन्तर को ऐसा आलोकित किया कि सारी दुनिया जगमगा उठी। आज उसी प्रकाश की आवश्यकता है। आपकी स्मारिका उस दिशा में प्रेरक सिद्ध हो, ऐसी कामना है। विशेष कृपा!
सप्रेम आपका
(यशपाल जैन)
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यटन तथा नागर विमानन मन्त्री
MINISTER OF TOURISM & CIVIL AVIATION
नई दिल्ली, दिनांक 28 अक्टूबर, 1975
देश
यह हर्ष का विषय है कि राजस्थान प्रा० निर्वाण महोत्सव महासमिति ने भगवान महावीर के
के
पुण्य पर्व पर "वीर निर्वाण स्मारिका" नाम से एक वृहद स्मारिका के प्रकाशन का निश्चय किया है, जिसका उद्देश्य भगवान महावीर के संदेश को जन-जन तक पहुँचाना तथा राजस्थान में लोकहित के कार्यों की प्रकृति से जनता को परिचित कराना है । भगवान महावीर विश्व इतिहास के उन महान ज्योतिस्तम्भों में से हैं जिनसे मानव सभ्यता सदा प्रभावित एवं प्रेरणा ग्रहण करती रहेगी। उनका सबसे मुख्य संदेश प्राणिमात्र के प्रति करुणा एवं प्रेम की भावना थी । परन्तु यह वृत्ति व्यक्ति के जीवन में बिना कठोर त्याग, तपस्या और अपरिग्रह साधना के उत्पन्न नहीं हो सकती । तपःपूत, निष्काम निर्लोभ, हृदय ही देवीय करुणा की भूमिका तक पहुंच सकता है। जहां "अहिंसा" के अनन्य उद्गाता के रूप में भगवान महावीर सदा स्मरण किये जायेंगे वहां विश्व के प्रतिसूक्ष्म कान्तद्रष्टा महाषी विचारकों की कोटि में भी भगवान महावीर का स्थान सदा चग्रगण्य रहेगा। राजस्थान सरकार ने इस वर्ष को "अहिंसा वर्ष" घोषित करके इस युग पुरुष को उसकी पावन स्मृति के अनुरूप ही सक्रिय श्रद्धांजलि समर्पित की है जिसके लिए वह मुक्त हृदय से साधु वाद की पात्र है। मैं पापके प्रायोजन की पूर्ण सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं भेजता हूं ।
भगवान महावीर 2500 वां 2500 वें परिनिर्वाण वर्ष
(राज बहादुर)
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिंचाई मंत्री
जयपुर राजस्थान
24 अक्टूबर, 1976
प्रिय श्री पाटनीजी,
बड़ी प्रसन्नता का विषय है कि भगवान महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण वर्ष के .,उपलक्ष में राजस्थ न प्रा० भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव महासमिति एक वृहद स्मारिका प्रकाशित कर रही है। मेरी इसी सफलता के लिए शुभ कामना स्वीकार करें। भगवान महावीर के उपदेशों को हम अपने प्रतिदिन की जीवनचर्या मे उतारें जिससे सतप्त मानव जीवन को शक्ति मिले।
विनीत,
(हीरालाल देवपुरा)
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्ववंच श्री भगवान महावीर हिंसा के महान पुजारी थे। उन्होंने मानवता का महान् उपदेश दिया । करणासामर भगवान ने सिर्फ मानव के लिए नहीं किन्तु मानवेतर सभी प्राणियों के लिए क्या, करुणा धर्म का पालन करने का उपदेश दिया था।
__ इसी लिए दुःख से पीड़ित मानवी के लिए सेवा सुश्रुषा वह भगवान महावीर के कल्याणकारी प्रादेश को ही सन्मान देना बराबर है।
राजस्थान सरकार ने देश की महान विभूति भगवान महावीर की निर्वाण शताब्दि के निमित्त जो श्रद्धांजलि दी है यह सचमुच सभी के लिए हार्दिक बन्यवादाह है।
मौर भगवान महावीर के जीवन के भित्ति-चित्र बनाने का भी प्रायोजन एक उत्तम कार्य हैं। राज्य सरकार और प्रजा को बिनम्र अनुरोध है कि भगवान महावीर के महिंसा अपरिग्रह करुणा दया मैत्री सेवा उपदेश को अपने बीवन में उतार कर अन्यों की सेवा कर मात्मा कल्याण करें।
(सुनिश्री योविजयनी)
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धि-पत्र
इस स्मारिका के प्रथम खण्ड में पृष्ठ सं. 13 पर लेखक के नाम में "नार्मोही' के स्थान पर "निर्मोही" पृष्ठ. सं. 37 पर शीर्षक में "भवान" के स्थान पर "भगवान" व पृष्ठ सं. 149 पर शीर्षक में “मत्यु" के स्थान पर “मृत्यु" पढ़े।"
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. प्रकाशकीय
2. सम्पादक की कलम से
3. प्रबन्ध सम्पादक की कलम से
क्रम
1.
2. प्राचार्य श्री तुलसी
लेखक का नाम
प्रथम-खण्ड
भगवान महावीर : जीवन, चिन्तन और देशना
शीर्षक
3. मुनिश्री नगराजजी डी० लिट्०
4. श्री शोभनाथ पाठक
5. मुनि श्री नथमल
6. मुनि श्री गुलाबचन्द निर्मोही 7. श्री हजारीलाल जैन " का का"
8. डा० नरेन्द्र भानावत
9. श्री प्रवीणचन्द छाबड़ा 10. श्री तारादत्त "निविरोध" 11. साध्वी श्री कस्तूरांजी 12. साध्वी श्री संघमित्राजी 13. साध्वी श्री ऊषाकुमारीजी
14 साध्वी श्री धनकुमारीजी 15. डा० नरेन्द्र भानावत 16. साध्वी ज्ञानमतिजी 17. साध्वी श्री कनक श्रीजी 18. मुनिश्री मोहनलालजी 'शार्दूल'
19. साध्वी प्रानन्दश्रीजी
20. साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी
21. श्री रमेशचन्द्र जैन
22. प्रो० डा० राजाराम जैन 23. प्रो० प्रवीणचन्द जैन 24. श्री गुलाबचन्द जैन वैद्य 25. डा० प्रेमसुमन जैन
अनुक्रमणिका अपनी बात
मंगलाचरणम्
लोकतंत्र को बुनियाद महावीर का दर्शन भगवान महावीर की कंवल्य साधना वीर वंदना ( कविता )
जैन परम्परा में ध्यान
पृष्ठ सं०
1
5
8
9
महावीर का श्रात्मवाद और सुखवादी परम्परा 13
वीर इस भू पर पुनः माना पड़ेगा (कविता)
16
तीर्थंकर
17
23
24
25
27
31
33
36
37
39
43
46
47
49
55
59
62
65
भगवान महावीर एक चरित्र या चारित्र एक दृष्टि भरपूर ( कविता )
सत्य बनाम महावीर : महावीर बनाम सत्य भगवान महावीर की अन्तः क्रान्ति ध्यान योगी महावीर
भगवान महावीर की क्षमता
महावीर ! निर्वाण तुम्हारा भगवान महावीर श्रौर कर्म सिद्धान्त
स्वतन्त्र चेतना के सजग प्रहरी महावीर भगवान महावीर और नारी जागृति महावीर की खिदमत
एक स्थायी समाधान
ग
ट
भगवान महावीर की तपः साधना दीक्षा दिवस एवं दीर्घ तपस्वी महावीर जैन दर्शन की दैनिक जीवन में उपयोगिता जय महावीर की गू ंज उठी ( कविता ) भगवान महावीर का स्याद्वाद
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
मा
26. डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री 27. श्री घासीराम जैन 'चन्द्र' 28. डा० हुकमचन्द भारिल्ल 29. सुश्री सुशीलाकुमारी वैद 30. डा० कन्छेदीलाल शास्त्री 31. श्री पदम कुमार सेठी 32. श्रीमती विद्यावती जैन 33. श्री कन्हैयालाल लोढ़ा 34. श्री कार्तिकेयकुमार जैन 35. श्री अगरचन्द नाहटा
36. श्री राजघर जैन 'परमहंस'
37. श्री जमनालाल जैन 38. मुनिश्री छत्रमलजी . 40. श्री यशपाल जैन 39. डा० गोकुलचन्द जैन 41. डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया
माध्यात्मिक ऊर्जा के केन्द्रक : भगवान महावीर 69 दीप जले (कविता) वीतरागी व्यक्तित्व : भगवान महावीर तीन सत्य (कविता) दीवाली और उसका रूप
79 चकले की वेश्या सदाचार का उपदेश (कविता) 82 भगवान महावीर और उनका अपरिग्रहवाद . 83 समकालीन भौतिकवाद और भगवान महावीर 87 संयम की राह (कविता)
90 भगवान महावीर का शारीरिक एवं गुणों का प्राचीन वर्णन भगवान महावीर के जीवन दर्शन का वैज्ञानिक विश्लेषण
95 जैन धर्म में श्रावक की महत्ता
99 सूक्ति-दोहन
106 मानव के सुख का अधिष्ठान अपरिग्रह 107 जैन दर्शन की व्यापकता
101 जय जय युग नाम ! वीर प्रभु ! मेरे प्रणाम (कविता)
114 अहिंसा बनाम हिंसा
115 कर्तव्य वीर (कविता)
118 ज्ञानमये हि आत्मा
119 तू स्वतन्त्र संगीत है (कविता)
122 भगवान महावीर का केन्द्रीय सिद्धान्त अहिंसा; एक तुलनात्मक अध्ययन 123 जैन दर्शन में ज वात्मा तथा मुक्तामा 133 अनुमान और उसके प्रकार
139 पाश्चात्य भौति। वाद और उसके विनाशकारी परिणाम
143 शारदा स्तुतिः
148 मृत्यु नहीं निर्वाण क्यों ?
14) सर्वोदय तीर्थ जैन धर्म
153 क्यों न बहे ज्ञान ज्योति धारा (कविता) 156 महावीर काल में सामाजिक व्यवस्था 157
42. श्री प्रतापचन्द जैन 43. श्री बशीरप्रहमद "मयूख" 44. श्री उदयचन्द्र 'प्रभाकर' शास्त्री 45. श्री प्रसन्नकुमार सेठी 46/डा० सागरमल जैन
47. डा. प्रमोदकुमार जैन 47. साध्वी श्री कनकप्रभाजी 48. श्री बिरधीलाल सेठी
49. प्राचार्य श्री विद्यासागरजी 50. श्री रिषभदास रांका 51. श्री राजकुमार शास्त्री 52. डा० छलबिहारी गुप्त ... 53. डा० श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ सं.
- सना
द्विसीय-खण्ड
कला, संस्कृति और साहित्य क्रम लेखक का नाम
शीर्षक 1. श्री नेमिचन्द्र जैन
बर्धमानो जिनेश : 2. श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी
जैन कला वैभव 3. श्री दिगम्बरदास जैन
बिहार का इतिहास और जैन पुरातत्व 4. डा० शोभनाथ पाठक
भगवान महावीर की पावन-जन्मभूमि कुण्डपुर 9 5. प्रो० श्रीरंजनसूरिदेव
जैन धर्म और बिहार 6. श्री लाडलीप्रसाद जैन पापडीवाल
श्री निर्वाण क्षेत्र वंदना (कविता)............ 14 7. श्री चन्दनमल "चांद"
जैन शिल्प और कला ............. 15 8. श्री भूरचन्द जैन
प्राचीन ऐतिहासक नगरी जूना (बाहड़मेर)-.
तथा जैन तीर्थ नाकोड़ा .. ... 9. श्री अनोखीलाल प्रजमेरा
बाल महावीर स्तवन (कविता) 10. पं० श्री उदय जैन
वीर के अनुयायियों का कला प्रेम 11. श्री रमेशचन्द बाझल
अमृत वाणी 12. श्री विजयशंकर श्रीवास्तव
राजस्थान की प्राचीन जैन मूर्ति कला 13. डा० धन्नालाल जैन
श्री वीर नामावली-कीर्तन (कविता) 35 14. डा. ज्योतिप्रसाद जैन
चित्तौड़ पट्ट के दिगम्बर भट्टारक
37 15. डा. कुसुम पटोरिया
पालोकित साथ लोकाकाश (कविता) 16. प्रो० कृष्णदत वाजपेयी
भगवान महावीर विषयक पुरातत्वीय प्रमाण 17. श्री नीरज जैन
हाथी गुम्फा शिलालेख की विषय वस्तु व डा० कन्हैयालाल अग्रवाल 18.वैद्य ज्ञानेन्द्र
युग का अर्चन (कविता) ... .54 10. आचार्य अनन्दप्रसाद जैन "लोकपाल" श्री वीर परिनिर्वाण भूमि की भांको । 20. मुनिश्री छत्रमल
(सकलनकर्ता जुगलकिशोर भोजक) ऐतिहासिक जैन तीर्थ राणकपुर (कविता) 21.पं० परमानन्द जैन शास्त्री
वट केराचार्य और मूलाचार 2. श्री शर्मनलाल 'सरस'
कैसे भूल सकेगा तुमको ? (कविता) . 23. श्रीमती पुष्पलता जैन
ब्रह्म जयसागर का सीताहरण 24. पं० प्रेमचन्द 'दिवाकर'
दीप की दीपित कतारे (कविता) 25. डा० बालकृष्ण 'प्राकिंचम'
पुनीत मागम साहित्य का नीति शास्त्रीय सिंहावलोकन
73 26. मुनि श्री 'दिनकर'
भगवान महावीर के प्रति 27. डा० इन्दरराज वैद
अहिंसा धर्म प्रचारक : तमिल संत तिरुवलुवर 79 28. श्री उदयचन्द 'प्रभाकर'
वह दीप जो एक बार जला (कविता) 29. श्री कुन्दनलाल जैन
इतिहास-पुरुष नेमि प्रभु की लोकप्रियता 85
40
Ne 0
78
84
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
30. डा० मागचन्द जैन
31. डा० लक्ष्मीनारायण दुबे 32. पं० अनूपचन्द न्यायतीचं
33. वैद्य प्रकाश चन्द
1. श्री भंवरलाल नाहटा
2. डा० महेन्द्र भानावत
3. डा० शान्ता भानावत
4. श्री महावीर कोटिया 5. श्री प्रेम चन्द विका
6. डा० मनोहर शर्मा
7.
L.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
1.
हुकमचन्द 'अनिल'
तृतीय खण्ड
राजस्थानी भाषा री रचनावा
Lord Mahavira and Marx. Transitoriness of Health and
Wealth.
Fundamentals of Jain Mysticism.
The Message of Dharma. Serpent Cult and Jain
Tirthankars
Why Groan
Development of Jain Art
in Madhyapradesh
2500 Years of Jainism
तीर्थंकरत्व और बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों
का तुलनात्मक अध्ययन
हिन्दी साहित्य में नगवान महावीर स्वामी प्राणी का उद्धार करेगा महावीर
सन्देश तुम्हारा ( कविता )
111
आर्य भट्ट और उन पर जैन ज्योतिष का प्रभाव 113
भगवान महावीर ( कविता राजस्थानी )
Section 4
ENGLISH
CONTENTS
परभु पालये
महावीर रा दर्शन में तत्वचिन्तन तीर्थंकर महावीर
अहिंसा रा दूत भगवान महावीर गोतम, त्याग प्रमोद तू भगवान महावीर
Dr. Harendra Pd. Verma
V. P. Jain
Dr. Kamal Chand Sogani
V. P. Jain
Shri Digambardas Jain Advocate
V. P. Jain
K. D. Bajpai
Muni Shri Mahendrakumarji
पंचम खण्ड
लोक कल्याण की ओर बढ़ते चरण
91
99
13703 190
15
16
1
8
9
14
15
20
21
25
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान प्रांतीय भगवान महावीर २५०० वा निर्वाण महोत्सव
महासमिति के पदाधिकारी
महात
श्री भागचन्द सोनी ,, राजरूप टांक ,, खेलशंकर दुर्लभजी
मन्नालाल सुराणा ., सम्पत कुमार गध इया
मोहनलाल काला , रिखबराज कर्णावट
माणकचन्द सोगानी , घेवरचन्द कानूनगो
अमरचन्द लूनीया , मांगीलाल जैन
-अध्यक्ष -कार्याध्यक्ष -उपाध्यक्ष
-उपाध्यक्ष -प्रधान मन्त्री -कोषाध्यक्ष -संगठनमंत्री
-सदस्य
राजस्थान प्रांतीय भगवान महावीर २५०० वां निर्वाण महोत्सव
महासमिति के जिला संयोजकों की सूची:
अजमेर
अलवर बाड़मेर बांसवाड़ा बीकानेर
श्री अमरचन्द लूनिया श्री पदमचन्द पालावत श्री भूरचन्द जैन श्री राजमल जैन श्री जयचन्दलाल नाहटा
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
बूंदी भरतपुर भीलवाड़ा चित्तौड़गढ़ चुरू डूंगरपुर गंगानगर जयपुर
जालोर झालावाड़ झुझुनू जैसलमेर जोधपुर
श्री जयकुमार जैन श्री तेजपाल रोकड़िया श्री शान्तिलाल पोखरण श्री नवरतनमल पटवारी श्री सोहनलाल हीरावत सेठश्री कुरीलाल जैन
श्री लूणकरण जैन (i) श्री राजरूप टांक (ii) श्री कपूरचन्द पाटनी
श्री भंवरलाल मेहता श्री सम्पतराज जैन श्री विमलचन्द श्रीमाल श्री सौभाग्यमल जैन श्री मारणकचन्द संचेती श्री माणकचन्द गोधा श्री पी० सी० जैन श्री सम्पतमल भण्डारी श्री रूपचन्द जैन श्री तेजराज बाफना श्री केशरीमल दीवान श्री फतहलाल जिंदाणी श्री भेरूलाल धाकड़
कोटा
नागौर पाली सवाईमाधोपुर सिरोही सीकर टोंक उदयपुर
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्य-वाणी
एनो य मरइ जीवो, एप्रो य उववज्जइ । एयास जाइ मरणं, एप्रो सिज्झइ पोरओ॥
अर्थ-यह जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही उत्पन्न होता है । उसके अकेले की ही मृत्यु होती है अर्थात् दूसरा कोई साथ नहीं जाता। यह जीव अकेला ही कर्मरूपी मैल को नष्ट कर एवं शुद्ध हो सिद्ध पद को अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करता है।
-प्राचार्य श्री वट्टकर स्वामी
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान राज्य २५०० वों महावीर निर्वाणोत्सव समिति
संरक्षक
महामहिम राज्यपाल सरदार जोगेन्द्र सिंह जी
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
മ്മള
രാരാരരരരരരരരരരരരരാമമാ
മ
ഉമ
മ
രാരാരാരിരാരാര
ഒര
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
भगवान महावीर ने कहा है "निरर्थक मत बोलो, जो सार भूत है वहीं कहो" राज० प्रां० भगवान महावीर २५००वां निर्वाण महोत्सव महासमिति के मंच से इस सिद्धान्त को यथाशक्ति अपनाने की चेष्टा की गई है। गत वर्ष में निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रमों के अन्तर्गत, राजस्थान में अद्भुत कार्य हुए हैं। समस्त भारत में इस वर्ष के हुए कार्यों की तुलना में राजस्थान की उपलब्धियां सर्वोपरि है। हमारे एक-एक जिले और एकएक शहर ने पूर्ण रूप से संगठित होकर सुनियोजित ढंग से योजनाओं को क्रियान्वित किया है और आशातीत सफलताए प्राप्त की हैं। हमारी संगठन की योजना पूर्ण सफल रही है हमने हर शहर, तहसील, जिले तथा प्रान्त को अपने-अपने स्तर पर संगठित करने का उपग्रह किया है । सरकार से हमें पूर्ण सहयोग मिला है और सरकारी कर्मचारियों से पूर्ण तालमेल बैठ सके, इसका समझदारी से तालमेल बैठाया गया है। जनता में एकता उत्साह व कर्तव्य की भावना न जागती तो हमारी सफलता आसान नहीं होती।
उपरोक्त सभी उपलब्धियों का वर्णन सार भूत है और यह जनता के सम्मुख लाना आवश्यक है ताकि सबको प्रेरणा मिले और जो कुछ हमने किया है या हुआ है, उसका सांगोपांग सिंहावलोकन भी हो सके । अगर कहीं कोई कमी रही है तो हमें उसे सुधारना है और जो मार्ग उचित रहा है हमें उसकी ओर आगे प्रगति करनी है। इस हेतु यह मावश्यक था कि प्रान्त व जिलों का लेखा जोखा समस्त समाज के सम्मुख समुपस्थित किया जाये । एतदर्थ हमने वीर निर्वाण स्मारिका प्रकाशित करने का निर्णय किया है।
__ स्मारिका में लेखे जोखे के साथ-साथ सुन्दर लेख भी संग्रहित किये गए हैं जो भगवान महावीर के उपदेशों की महानता, उपादेयता, पावश्यकता और सत्यता पर प्रकाश डालते है।
___ इस सारे उपक्रम की सफलता के लिए मैं हमारी स्मारिका के प्रबन्ध सम्पादकों, सम्पादकों व व्यवस्थापकों के सहयोग को ही आधारभूत मानता हूं। श्री भंवरलाल पोल्याका ने पूर्ण परिश्रम करके बहुत सुन्दर सामग्री जुटाई है, उनकी लगनशीलता के बिना इस रूप में स्मारिका
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशित होना सम्भव नहीं थी। श्रीयुत् कपूरचन्दजी पाटनी एकदफा फिर हमारी महासमिति के ब्रह्मास्त्र सिद्ध हुए है। उन्होंने बहुत महनत करके सारे विज्ञापन, चित्र आदि जुटाए हैं और सारी व्यवस्थाएं व्यव. स्थित की हैं। श्री केवल चन्द जी ठोलिया ने भी अजन्ता प्रिण्टसं के माध्यम से स्मारिका के प्रकाशन में महत्वपूर्ण सेवायें दी है । मैं समस्त लेखकों व विज्ञापनदाताओं के प्रति हृदय से आभारी हूं क्योंकि उनके योगदान के बिना स्मारिका का न तो इतना बड़ा कलेवर ही बन सकता था और न उसमें आत्मा प्रतिष्ठित की जा सकती थी।
हमने स्वल्प कथन में सार भूत कहने का प्रयत्न किया है। अगर पाठकों ने इस सार भूत को उसी भावना के साथ ग्रहण किया तो हमारा प्रयत्न सफल माना जाएगा और हमें अत्यन्त प्रसन्नता होगी।
जय वीरम्
(सम्पत कुमार गपइया).
प्रधान मन्त्री
जयपुर कार्तिक कृष्णा द्विीया वीर निर्वाण सम्वत् 2501
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
xxxxxxxxxxxx
सम्पादक
की
xxxxxxxxxxxxxxx
X**** ******
कलम
XXXXXKKKH
भगवान महावीर : जीवन और चिन्तन
भारत की इस पुण्यधरा ने सैंकड़ों ही नहीं अनगिनत ऐसे ज्योतिपुञ्जों को जन्म दिया है जो विश्व के ज्योतिर्लोक में आज भी अपने तेजोबल से न केवल स्वयं प्रकाशित होकर चमचमा रहे हैं अपितु विश्व का अन्धकार नष्ट कर जगत के प्राणियों का अपने निर्मल प्रखर प्रकाश से मार्ग-प्रदर्शन कर रहे हैं । ऐसे ही ज्योति-पुञ्जों में से एक भगवान महावीर भी हैं। उनका बताया मार्ग आज भी जगत् के प्राणियों को शाश्वत अखण्ड निराबाध सुख की प्राप्ति कराने में उतना ही सक्षम और समर्थ है जितना आज मे २५०० वर्ष पूर्व वह था और भविष्य में भी उसकी क्षमता में कोई कमी आने वाली नहीं है।
— आज से २५७३ वर्ष पूर्व महावीर ने वैशाली गणराज्य के क्षत्रिय कुण्ड ग्राम में अपने जन्म से इस भू को पवित्र किया था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का त्रिशला था। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का दिन था। उनका जन्म नाम महावीर था। उनकी आत्मा ने इस भव से पूर्व के कई भवों में घोर साधना की थी जिसका पुण्य कर्म उनके साथ था। वे अतिशय पुण्यशाली थे। इसी जन्म में होने वाले तीर्थंकर थे। वे तीर्थंकर प्रकृति नामक कर्म का बंध साथ लेकर ही जन्मे थे । इससे अधिक पुण्य प्रकृति अन्य कोई होती ही नहीं अतः उसके माता-पिता, कुटुम्बी तथा प्रजाजनों को निरन्तर श्री वृद्धि होना स्वाभाविक था। इस कारण लोग
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन्हें वधमान नाम से भी अभिहित करने लगे । अपने विशिष्ट ज्ञान के कारण वे सन्मति कहलाये। अपने अतुल बल पराक्रम एवं निर्भयता के निमित्त से उन्हें लोगों ने वीर, अतिवीर आदि नामों से भी पुकारा । उनकी भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण उनके १००८ नाम हुए। उनके भौतिक नामों में से वीर, महावीर, वर्धमान, सन्मति, अतिवीर, वैशालीय, ज्ञातृ पुत्र प्रादि नाम विशेष प्रसिद्ध हैं । 4. महावीर के समय देश में बड़ी विचित्र परिस्थितियां थीं। सब ओर जाति वाद की आग लगी हुई थी। प्रत्येक अपने को उच्च और दूसरे को नीच समझता था । सब अहं के पर्वत पर चढ़े हुए थे। कोई उससे उतरना नहीं चाहता था। लोग जिह्वा लोलुप हो रहे थे । अपने क्षणिक स्वाद सुख के कारण वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। बलवान, निर्बल को सताना, उनके प्राण तक ले लेना अपना अधिकार समझते थे। इसे उन्होंने धर्म का प्रावरण पहना दिया था। हरेक अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा समझता था। स्त्रियां गाड़ी के दो पहियों में से एक न समझी जाकर तिरस्कृत थीं, पैर की जूती समझी जाती थीं।
महावीर ने सोचा यह सब क्या है ? क्यों लोग सर्प के समान विषधर बने हुए हैं ? क्यों इन्सान ही इन्सान का दुश्मन हो रहा है ? चांद की शीतल चांदनी सबको मिलती है, धरती अपना अन्न सबके लिए समान रूप से उगाती है, मेघ सबके लिए बरसते हैं, उनमें कोई दुराव नहीं होता, कोई पक्षपात नहीं होता तो फिर धर्म भी ऐसा क्यों कहीं ? सब जीना और सुखी होना चाहते हैं, मरना और दुःखी होना कोई नहीं चाहता, सबकी आत्मा समान है, क्यों नहीं लोग इस तथ्य को समभते ? क्यों वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं ? इस समस्या का निदान क्या है ? इस चिन्तन ने महावीर को एक दिशा दी। उन्होंने सोचा जब तक मनुष्य स्वयं पूर्ण न बने, स्वयं उस मार्ग पर न चले तब तक उसे दूसरों को उपदेश देने का कोई हक नहीं है और न उसका उपदेश प्रभावी ही हो सकता है और वे चल पड़े सम्पूर्ण सांसारिक वैभवों को लात मार जंगल की ओर अपनी जन्मजन्मान्तरों की साधना को पूर्ण करने, मुक्ति का मार्ग खोजने । वह दिन था मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी का। इस समय उनकी आयु केवल ३० वर्ष की थी।
बारह वर्ष तक उन्होंने घोर तपस्या की। उनका तपस्वी जीवन परिषहों और उपसर्गों से परिपूर्ण था किन्तु किसी प्रकार की विघ्न बाधाओं
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
की उन्होंने कोई चिन्ता नहीं की। वे एक निष्ठ होकर अपना उद्देश्य प्राप्ति हेतु साधना में लगे रहे । बारह वर्ष की कठोर साधना के पश्चात वे अपनी साधना में सफल हुए। अखण्ड ज्ञान के प्रकाश से उनका आत्मा मालोकित हो उठा, अनन्त अव्याबाध सुख की उनको प्राप्ति हुई, उनकी प्रात्मा में अनन्त शक्ति और विश्वास का अभ्युदय हुवा । उनकी आत्मा में वह तेज, वह शक्ति प्रस्फुरित हुई कि केवल उनके दर्शन मात्र से प्राणी अपना वैर विरोध भूल जाते थे। वे जहां भी जाते शांति की अजस्र धारा प्रवाहित होने लगती थी । शेर और गाय एक घाट पानी पीने लगते थे, सर्प और नकुल एक साथ क्रीड़ा करने लगते थे। वे घूम घूम कर लोगों को संमार्ग का उपदेश देने लगे । उनकी उपदेश सभा समवशरण कहलाती थी जो बिना किसी भेद भाव के प्राणी मात्र के लिए खुली रहती थी। उन्होंने अपने उपदेशों में बताया--
१-मूड मुडा लेने से कोई श्रमण, ओंकार का उच्चारण मात्र करने से कोई ब्राह्मण, वन में रहने मात्र से ही कोई मुनि और वल्कल वस्त्रों के धारण करने से ही कोई तापसी नहीं हो जाता। वेष का कोई महत्व इस जीवन में नहीं है। असली महत्व तो आचरण का है। साधुत्व
और असाधुत्व की पहचान तो उसके गुणों और दुर्गुणों से होती है । गुणों से ही मानव पूज्य बनता है किसी लिङ्ग विशेष अथवा वय विशेष के कारण नहीं।
२-सब जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । सब सखी रहना चाहते हैं. दुखी होना कोई नहीं चाहता अतः अपना आचरण ऐसा बनानो जिससे कोई दुखी न हो, किसी का घात न हो।
__ ३–पूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता प्राप्त किया जा सकता है। प्रत्येक मत आंशिक सत्य का प्रतिपादन करता है। वे सब मिल कर एक पूर्ण सत्य बनते हैं अतः यह अाग्रह मत रखो कि जो कुछ मैं कहता हूं वह ही सत्य है। तुम भी सत्य कहते हो और दूसरा भी सत्य कहता है भेद है तो मात्र दृष्टिकोण का। एक दृष्टि से अमुक बात सत्य हो सकती है तो दूसरी दृष्टि से वह ही असत्य भी हो सकती है । ही और भी का समुचित प्रयोग करना जानो । सत्य ही और भी का सम्मिलित रूप है । न केवल ही सत्य है और न केवल भी। एक दृष्टिकोण से वस्तु तत्व ही है तो दूसरे दृष्टिकोण से अन्यथा होने से भी है । इसलिए अपने ही दृष्टिकोण को महत्व मत दो, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का भी प्रयत्न करो।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहस्थों के लिए उनका उपदेश था
४-इच्छाएं असीमित हैं । एक व्यक्ति की इच्छाओं की भी पूर्ति विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ नहीं कर सकते। इच्छाएं सुरसा राक्षसी की तरह बढ़ती हैं । संसार की अशांति का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्राकांक्षाओं की पूर्ति चाहता है। दूसरों की आकांक्षाओं से उसका कोई सरोकार नहीं। अतः अपनी आकांक्षाओं को सीमित रखो । आवश्यकता से अधिक का संग्रह मत करो। यदि तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक है तो लोक-कल्याण के लिए उसका वितरण करो।
५-हित, मित और प्रिय बोलो । ऐसे उपदेश मत दो जिससे लोग कुमार्ग की ओर प्रवृत हो जाय । किसी की चुगली, निन्दा आदि मत करो। किसी की धरोहर मत हरो । न किसी के धन का स्वयं अपहरण करो, न दूसरों से कराओ, न ऐसा करने वाले की प्रशंसा करो, कुमार्ग से प्राप्त सम्पत्ति का ग्रहण मत करो।
६--कानून का पालन करो । व्यवहार में ईमानदार रहो । वस्तुओं में मिलावट करके मत बेचो, पूरा नापो, पूरा तोलो, लेने और देन के बाट और माप अलग अलग मत रखो। न स्वयं अनैतिक आवरण करो और न अनैतिकता को बढ़ावा दो ।
७-जैसा करोगे वैसा भरोगे । जैसा बोवोगे वैसा काटोगे । जैसा बीज होगा वैसा वृक्ष लगेगा। दुष्कार्य करके शुभ की आशा करना दुराशामात्र है । अतः यदि जीवन में सुख चाहते हो तो अशुभ कार्यों से, अशुभ प्रवृत्तियों से बचो।
३० वर्ष तक घूम घूम कर वे लोगों को ऐहिक और पारलौकिक सुख शांति का मार्ग बताते रहे । अन्त में केवल ७२ वर्ष की अल्प वय में कार्तिक कृष्ण की अमावस्था को वह दीप शिखा बुझ गई।
। उनका निर्वाण हुए आज २५०० वर्ष हो गये । तथापि उनके आदर्श आज भी जीवित हैं । अ.ज भी जैन नित्य प्रति ये भावनाएं भाते हैं
सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।
माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ।। वे प्रार्थना करते हैं
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवाजिनेन्द्र !
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
बे आगे चाहते हैं
क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान्धामिको भूमिपालः । काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ।
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि मास्म भूज्जीवलोके........ ।
लेकिन आवश्यकता केवल भावना भाने अथवा प्रार्थना करने की नहीं उन आदर्शों को अपने जीवन में उतारने की है तब ही हमारा २५०० वां निर्वाण वर्ष मनाना सार्थक तथा हमारा जीवन सफल हो सकता है तथा विश्व विनाश के कगार से हट कर सुख और शांति की सांस ले सकता है। विद्वानों के प्रति समाज का दायित्व
आज समाज से जैन धर्म और दर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाले विद्वानों का प्रायः प्रभाव होता जा रहा है। इसका एक मात्र कारण है मां जिनवाणी के इन सेवकों के प्रति समाज की घोर उपेक्षा वृत्ति । पेट के पाटी बांध कर भी मां जिनवाणी के कोष में अपने अथक परिश्रम से वृद्धि करने वाले उन सेवकों की समाज ने कभी भी सध नहीं ली। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मां जिनवाणी की सेवा में लगा दिया वे आज कैसी अभाव की जिन्दगी जी रहे हैं यह जानने का समाज ने कोई प्रयत्न नहीं किया। फलतः कोई नवीन विद्वान् इस पथ पर अग्रसर होना नहीं चाहता।
आवश्यकता उनको सम्मानित करने की उतनी नहीं है जितनी उनकी रोटी रोजी की व्यवस्था करने की । इन दिनों कई ऐसे विद्वानों के उदाहरण सामने आए हैं और छटपुटरूपेण उनकी समाज ने सहायता भी की है किन्तु वह तो समुद्र में बूद के बराबर भी नहीं है । कुछ सौ रुपयों की सहायता
आज के युग में कितने दिनों का जीवन-यापन करने को पर्याप्त हो सकते हैं ? २५०० वें निर्वाण वर्ष में समाज को कुछ इस सम्बन्ध में करना चाहिए। महावीर जयन्ती की छुट्टी
प्राशा थी कि भ० महावीर का इतने समारोह से निर्वाण वर्ष मनार, वाली हमारी सरकार कम से कम उस महान् आत्मा के जन्म दिन की तो अब छट्टी घोषित कर ही देगी किन्तु पत्रों के पढ़ने से ज्ञात हुवा कि हमारो वह आशा भी फलवती नहीं हुई। जब अन्य धर्मों के महापुरुषों के जन्म दिवस की छट्टी सरकार रखती है तो मात्र भ० महावीर के जन्म दिवस की
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
छुट्टी ही सरकार क्यों नहीं करती ? छुट्टी एक दिन की और बढ़ा देने से अथवा छट्टियां और कम कर देने से सरकारी कार्य में कोई विशेष अन्तर श्राने वाला है यह तर्क भी ठीक नहीं है क्योंकि भारत में काम करने वालों की मनः स्थिति किसी से छपी नहीं है । सरकार के इस निर्णय से हमारी स्थिति और शक्ति का पुनः एक बार पर्दाफाश हो गया है ।
और अब डा० उपाध्ये भी नहीं रहे
: जैन विद्या तथा जैन वाङ्मय के अद्वितीय विद्वान् डा. ए. एन. उपाध्ये भी अब हमारे बीच नहीं रहे । यह समाज का दुर्भाग्य ही है कि जैन भारती के सेवक एक एक कर हमारे बीच से उठते जा रहे हैं और उनके स्थान की पूर्ति करने वाले विद्वान आगे आ नहीं रहे । डा. नेमीचन्द्र शास्त्री, श्री गुलाबचन्द्र चौधरी, और डा. हीरालाल जैन के पश्चात् यह इस वर्ष की सबसे बड़ी क्षति है । वे एक ऐसे विद्वान् थे जिनके ऋण से समाज उरण नहीं हो सकता ।
२५०० निर्वाण वर्ष की उपलब्धियां
भ० महावीर का २५०० वां निर्वाण वर्ष समूचे जैन समाज की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों का वर्ष रहा है । इस वर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह रही है कि समाज के विभिन्न प्राम्नायों के लोग एक दूसरे के अधिक निकट आए हैं और उन्होंने एक दूसरे को सहिष्णु होकर सुनने समझने का प्रयत्न किया है । समाज हित के ही नहीं प्राणिहित के भी बहुत से कार्य इस वर्ष सम्पन्न हुए हैं । भ० महावीर के उपदेशों और सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार भी इस वर्ष में खूब हुवा है फलस्वरूप जैन धर्म अब कहीं भी अज्ञात नहीं रहा है । निश्चय ही कमियां भी रही हैं जो स्वाभाविक भी थी तथापि उपलब्धियां भी नगण्य अथवा उपेक्षणीय नहीं हैं । किन्तु जैसा कि आचार्य तुलसी ने अपने सन्देश में कहा है हमारा यह अर्थ कहीं इति होकर न रह जाय इस ओर हमें जागरूक रहना चाहिए । समाज में कार्य करने को विशाल क्षेत्र है और कमियां इतनी हैं तथा उनकी जड़ इतनी गहरी हैं कि उन्हें दूर करने के लिए उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए वर्षों के प्रयत्न की आवश्यकता है । २५०० वें निर्धारण वर्ष की परिसमाप्ति के साथ ही कहीं हमारे बढ़ते कदम लड़खड़ा न जावें । लोक-कल्याण की जो सुखद मंदाकिनी इन दिनों प्रवाहित हुई है वह कहीं सूख न जाय । इस वर्ष की ये उपलब्धियां हमारे जोश और होश को कायम रखने वाली प्रमाणित होनी चाहिए ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारिका के सम्बन्ध में
राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर २५०० वां निर्वाण महोत्सव समिति ने स्मारिका प्रकाशन का निर्णय पर्याप्त विलंब से लिया और जब यह गुरुतर कार्य करने का भार हम पर डाला गया तो एक बार तो हम हिचके कि इतने कम समय में यह कार्य कैसे सम्पन्न होगा फिर यह सोच कर कि प्रयत्न करने में क्या हानि हैं हमने इसे स्वीकार कर लिया और हमें प्रसन्नता है कि इतने कम समय में यह कार्य सम्पन्न होकर स्मारिका यथासमय पाठकों के हाथों में है। इसके लिए सबसे अधिक धन्यवाद के पात्र तो हमारे वे कृपालु लेखक हैं जिन्होंने हमारे एक पत्र पर ही अपने रचनाएं समय पर भेज दीं। उनके प्रति जितनी भी कृतज्ञताज्ञापन किया जाय थोड़ा है। दूसरे धन्यवाद के पात्र हैं प्रबन्ध सम्पादक गण जिन्होंने सारी व्यवस्था जुटाई । सम्पादकमण्डल के साथी तो मेरे अपने ही परिवार के, क्षेत्र के हैं उनका 'पूर्ण सहयोग और सहायता मुझे मिली वे भी धन्यवादाह हैं। डा० भानावत का नाम इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय है। प्रेस के मैनेजर श्री संघी से लेकर वहां के सारे कर्मचारी भी कम धन्यवाद के पात्र नहीं हैं जिन्होंने रातों जग कर इसका कलापूर्ण मुद्रण किया है। मेरे सहायक श्री चेतन कुमार जैन एवं श्री प्रमोद जैन ने प्रूफरीडिंग, पत्र व्यवहार आदि कार्यों में मेरे कंधे से कंधा भिड़ा कर कार्य किया है। इन सबका तो मैं धन्यवादाह और कृतज्ञ हूं ही साथ ही मैं निर्वाण महोत्सव महासमिति के कार्यकर्ताओं का भी कि उन्होंने मुझे इस गुरुतर कार्य के योग्य समझा।
स्मारिका में निश्चय ही कमियां रही हैं। जिस रूप में उसे पाठको के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते थे उस रूप में नहीं कर सके इसका खेद है। समयाभाव के साथ इस क्षेत्र की मेरी अनुभव शून्यता भी इसका कारण है। इन सब श्रुटियों और खामियों के लिए मैं पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूं । अगर कोई अच्छाइयां हैं तो वे सब मेरे साथियों के अनन्य सहयोग और सत्परामर्श का फल है और वे ही इसके श्रेय के सच्चे अधिकारी हैं।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारिका सम्पूर्ण जैन समान का प्रकाशन है । भगवान् महावीर के जीवन प्रसों, स्त्री मुक्ति, मल्लीनाय स्त्री थी अथवा पुरुष, मादि कई बातों को लेकर जैन समाज के विभिन्न सम्प्रदायों में मतभेद हैं जो छुपा तथ्य नहीं है । हमारी पाठकों से इस सम्बन्ध में सहिष्णुता बरतने की प्रार्थना है।
कुछ रचनाएं स्मारिका में स्थान नहीं पा सकी हैं जिनका यथासाध्य अन्य अवसर पर उपयोग करने का प्रयत्न होगा नहीं तो वे लेखकों को लौटा दी जावेंगी।
-भंवरलाल पोल्याका
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
Xxxxxxxxxxx
प्रबंध
सम्पादक
KXXX* XXXXXXXXXXXXXXXXX
कलम
(**XXXX**
13 नवम्बर सन् 1974 से प्रारम्भ होने वाला भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महोत्सव वर्ष न केवल जैनों के लिए अपितु समाज एवं सरकार के लिए कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों का वर्ष रहा है। भारत का शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहां इस वर्ष कुछ न कुछ जनहित एवं लोककल्याण के कार्य न सम्पन्न हुए हों। इस वर्ष को सरकार और जनता ने जिस उत्साह एवं सुनियोजित ढंग से मनाया उससे भगवान महावीर का नाम एवं उनके सिद्धान्त न केवल भारत अपितु भारत से बाहर भी गूंज उठे। यह एक प्रकार से महावीर के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों की विजय थी जो सर्वधर्मसमभाव, सर्वजातिसमभाव, और सर्वप्रारिणसमभाव में प्रतिफलित होते हैं। सरकार की दृष्टि से इस वर्ष की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है दिव्यी उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा 14 फरवरी सन् 1975 को कुछ जैन बन्धुनों प्रौर एक जेनेतर बन्धु द्वारा प्रस्तुत रिटयाचिकामों पर दिया गया निर्णय । इन रिटयाचिकाओं में जो मुख्य मुद्दा उठाया गया था वह यह था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है और इसलिए वह किमी एक धर्म विशेष के महापरुष की स्मति में मनाये जाने वाले उत्सवों में न तो किसी प्रकार का व्यय कर सकती है और न कोई प्रायोजन ही। सरकार का ऐसा करना संविधान के विरुद्ध है क्योंकि इससे जैन धर्म का का प्रचार प्रसार होता है और अन्य धर्मों के
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रति भेदभाव और प्रन्यान्य होता है । इन रिटयाचिकामों में एक प्राइवयं एवं विस्मयजनक बात यह थी कि उनमें जैनों की ओर से यह कहा गया गया था कि महावीर का कार्यक्षेत्र एक धर्म विशेष था और इसलिए उन्हें महामानव या समाजसुधारक के रूप में नहीं माना जा सकता ।
उच्च न्यायालय ने प्रार्थियों की इन दलीलों को रद्द करते हुए माननीय न्यायाधीशों श्री बी. एस. देशपाण्डे तथा माननीय न्यायाधीश श्री योगेश्वर दयाल अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा है
'धर्मनिरपेक्षता के विषय में पश्चिमी धारणा यह है कि सरकार को धार्मिक कार्यक्रमों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिये । संविधान का उद्देश्य यह नहीं है कि सब धर्मों से बिल्कुल दूर रहें बल्कि उसका उद्देश्य यह है कि सरकार धर्मों के विषय में निष्पक्ष धारणा रखे और सभी धर्मों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों से समान व्यवहार करे ।
भारतीय संस्कृति में धर्म एक अनिवार्य अंग है लेकिन लक्ष्य प्रोर उद्देश्य की दृष्टि से सांस्कृतिक गतिविधि धार्मिक गतिविधि से भिन्न होती है। जैनों को जहां जैन धर्म का पालन करने तथा भगवान महावीर निर्वाणोत्सव मनाने का पूर्ण अधिकार है वहां सरकार और ग्राम व्यक्तियों को भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता ।
भगवान महावीर ने अहिंसा का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसका लाज मी देश व अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में बड़ा महत्व है । बलशाली व्यक्ति कमजोर का शोषण न करे, हिंसा न की जाय, तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को शांतिपूर्ण वार्ता से सुलझाने के प्रयास किये जांय, इन सभी बातों को भगवान मह वीर के इस सिद्धान्त से बल मिलता है। इस बात पर हर व्यक्ति को गर्व होना चाहिये कि इन महान सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले भगवान महावीर इस देश में ढाई हजार साल पहले अवतरित हुए ।
आधुनिक समय में इन सिद्धान्तों का बड़ा महत्व है और सरकार तथा अन्य व्यक्तियों का ऐसे महापुरुषों का निर्वागोत्सव मनाने का पूरा अधिकार है ।"
!
दिल्ली उच्चन्यायालय के उक्त निर्णय ने जहां एक ओर सरकार के इस - सम्बन्ध में आई विघ्न बाधाओंों को दूर कर उसका मार्ग प्रशस्त किया है वहां जैनों पर भी यह महान् उत्तरदायित्व आया है कि वे अपने कार्यकलापों एवं प्राचारण में भ. महावीर की बताई शिक्षाओं और सिद्धान्तों को उतार अपने आपको भगवान् महावीर का सच्चा अनुयायी प्रमाणित करें ।
भगवान महावीर ने कभी भी अपने आपको किसी धर्म, जाति प्रथवा वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखा और न कभी इनको कोई महत्व ही प्रदान किया । उनकी दृष्टि में मानव की महत्ता उसके वृद्धिगत होती है किसी धर्म, जाति • अथवा वग विशेष में जन्म लेने से नहीं । उन्होंने कहा - ' गुणाः पूजास्थानं न च
गुणों से
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिंगं न च वयः प्रादमी गुणों के कारण पूज्य बनता है किसी लिंग प्रथवा प्रायु के कारण नहीं। उन्होंने 'बुद्ध' वा वर्धमान शतदलनिलयं केशवं वा 'ब्रह्मा वा विष्णुव हरोजिनो वा नमस्तस्मै का शखनाद दिय सम्प्रदायवाद का उन्होंने बड़े जोर से खण्डन किया ।
उन्होंने मानव को विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता दी तथा दूसरों से इस सम्बन्ध में सहिष्णु होने को कहा। उन्होंने सत्य की खोज में विभिन्न दृष्टिकोणों को पूर्ण महत्व दिया। उन्होंने कहा कि जिस दृष्टिकोण से तुम अपने आप को सत्यमार्ग पर समझते हो दूसरे दृष्टिकोण से विचार करने पर यह गलत भी हो सकता है प्रत: अपने ही दृष्टिकोण पर डटे रहने का आग्रह मत रखो, दूसरों की भी सुनो और समझो ।
शिवं वा तथा जातिवाद तथा
उनका पहिंसा का सिद्धान्त मानव को परिधि को भी लांघकर जीवमात्र तक पहुंचता है। हिंसा की जो पूर्ण व्याख्या उन्होंने प्रस्तुत की उसकी प्राप्ति अन्यत्र दुर्लभ है। अनावश्यक संग्रह को उन्होंने हिंसा का ही रूप बताया ।
आज के वैज्ञानिक एवं तर्क प्रधान युग में उनके सिद्धांत कसोटी पर पूरे खरे उतरते हैं और जैसा कि उच्च न्यायालय दिल्ली ने अपने निर्णय में कहा है भगवान महावीर का सन्देश श्राज भी उतना ही उपयुक्त और महत्वपूर्ण है जितना कि वह उनके स्वयं के समय में था "The message of a great person like Bhagwan Mahavir is as relevant of to day as it was in his Mahavir was one of the great figures of Indian History. भगवान् महावीर के सिद्धान्त हमारे धान के संवैधानिक ढांचे के मूलभूत
time.
अंग है।
राजस्वान में परिनिर्वाण वर्ष शान्ति वर्ष के रूप में मनाया गया। पूरे वर्ष के लिए शिकार एवं फांसी को सजा पर प्रतिबंध लगा दिया । पशु पक्षी बलि पर कानूनन रोक लगाकर हिंसा के प्रति पूर्ण निष्ठा व्यक्त की गई। विकलांग बन्धुओं के लिए 5 लाख की राशि से निशुल्क रंग उपलब्ध कराने के लिए भगवान महावीर विकलांग सहायता कोष की स्थापना की गई ।
राजस्थान में हुए समस्त कार्यक्रम में राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव महासमिति भग्रणी रही। सम्पन्न समारोह के शुभावसर पर स्मारिका, जिसमें भगवान महावीर जैन दर्शन तथा परिनिर्वाण वर्ष में हुए कार्यों का उल्लेख हो, उसके लिए मुझे प्रबंध सम्पादक मनोनीत कर जो भार डाला उसकी सफलता की जांच तो पाठकगरण ही करेंगे किन्तु यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगा कि महासमिति के कार्याध्यक्ष श्री राजरूपजी टांक एवं प्रधानमन्त्री श्री सम्पतकुमारजी
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
च
इया के सक्रिय एवं प्रमूल्य सहयोग के बिना अल्प समय में स्मारिका का प्रकाशन नहीं हो सकता था । स्मारिका के सम्पादन में पं. भवरलालजी पोल्याका जैन दर्शनाचार्य स्वस्थ होते हुए भी जिस निष्ठा एव परिश्रम के साथ उन्होंने व उनके सम्पादक मंडल के सहयोगियों ने जो कार्य किया है, यह प्रकाशन उन्हीं का प्रतिफल है । मैसर्स अजन्ता प्रिण्टर्स विशेषकर श्री जितेन्द्रकुमार संघी, श्री केवलचन्दजी ठोलिया ने रात दिन परिश्रम कर मुद्रण कार्य किया है विज्ञापनदाताओं के आर्थिक सहयोग का ही परिणाम है कि प्रकाशन समय पर हो सका । मैं उन विद्वानों के प्रति आभार प्रकट करूंगा जिन्होंने अल्प समय की सूचना पर ही अपनी विद्वतापूर्ण रचनाएँ भेजकर मनुगृहीत किया ।
विश्ववंद्य भगवान महावीर के चरणों में शत शत बन्दन ।
कपूरचन्द पाटनी - प्रबंध सम्पादक
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर :
जीवन, चिन्तन और देशना
HEERESEMES
SERNIGERESELLE
SEEEENAMMARMEEEEEE
PRESCREEEEER
ERGREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEESECSHREARRESEN
ख Us
RECENERGREEMES
HESESERO39:5RASRAECERGES
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंगलाचरणम्
यो विश्वं वेदवेद्य जननजननिधेङ्गिनः पारदृश्वा, पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपर्म निष्कलंक यदीयम् । तं वन्दे साधुवंद्य निखिल गुरपनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तम्, बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥
भववीजाङ्क रजलदा रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।
जराजरत्याः स्मरणीयमीश्वरं, स्वयंवरीभूतमनश्वरश्रियः । निरामयं वीतमयं भवच्छिदं नमामि वोरं नूसुरासुरैः स्तुतम् ॥
|
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण भी थे, एक प्रसंग में उन्होंने कहा था कि - स्वतन्त्र शताब्दी की चर्चा आज देशव्यापी बन रही है। भारत का लोकतन्त्रात्मक संविधान पूर्णतः भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अपनी अपनी योग्यता और अनाक्रमण, सहअस्तित्व, समता और संयम पर क्षमता के प्राचार पर भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य प्राधारित है। ये तत्व महावीर के मौलिक और क्रम मायोजित हो रहे हैं।
व्यावहारिक सिद्धान्त हैं अतः हम कह सकते है प्रश्न हो सकता है, भगवान् महावीर की कि भारतीय संविधान महावीर के सिद्धान्तों में निर्वाण शताश्दी क्यों मनाई जाए। हम भी मानव प्रभावित है अथवा महावीर के सिद्धान्तों ने भारतीय हैं। महावीर भी मानव थे। फिर ऐसी कौन सी विशे- लोकतन्त्र को मौलिक और वास्तविक दिशा दर्शन षता है जिसके कारण महावीर की निर्वाण शताब्दी दिया है। मनायी जा रही है ? हम महावीर का निर्वाण भारतीय संविधान ने अनाक्रमण-नीति को महोत्सव इसलिए मनाते हैं कि उन्होंने जो दर्शन स्वीकार किया है। आज से पढ़ाई हजार वर्ष दिया, जो मूल्य स्थापित किए और जो सिद्धान्त पहले भगवान महावीर ने यही कहा था-तुर्म निश्चित किए वे सर्वजनहिताय थे। उनमें युग माकांता मत बनो। किसी पर आक्रमण कर की समस्या का सम्यक् समाधान निहित है। उसकी सार्वभौम स्वतन्त्रता का अपहरण मत करो।
लोकतंत्र की बुनियाद
महावीर का दर्शन
-प्राचार्य श्री तुलसी
-
महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, आज इस अनाक्रमण नीति के पक्ष में समूचे विण संयम और समता के जो सूत्र दिये वे अध्यात्म की जनभावना जागृत हो रही है। कोई किर की दृष्टि से तो असाधारण थे ही, राजनैतिक पर आक्रमण करता है तो सब की अंगुली उस दृष्टि से भी उनके महत्व को नकारा नहीं जा पोर उठती है । इससे आक्रमण के लिए एकाए' सकता। वास्तव में वे लोकतंत्र शासन प्रणाली के किसी का साहस नहीं होता। युद्ध की भयाना प्राधारभत सूत्र हैं।
और विनाशकारी समस्या के समाधान में मनाक्रमा भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली नीति सफल और कारगर सिद्ध हुई है। विए राधाकृष्णन् जो न केवल राष्ट्रपति थे अपितु शान्ति की दिशा में इसे महावीर के सिद्धान्तों। भारतीय और पश्चिमी दर्शनों के मर्मज्ञ विद्वान् मूल्यवान योग कहा जा सकता है।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-3
ह-मस्तित्व भगवान महावीर का ही सिद्धांत समस्याओं का समाधान भी संयम से प्राप्त हो स सिद्धान्त का ही सुपरिणाम है कि अत्यन्त सकता है। थी विचारधारा वाले भी एक मंच पर बैठकर
भगवान् महावीर के निर्वाण समारोह के समस्याओं का समाधान खोजत है और उपलक्ष में इस वर्ष को संयम वर्ष के रूप में बल कर उस दिशा में प्रयास करते हैं। मनाने का निर्णय लिया गया है। इससे प्रात्मगत महावीर के अपरिग्रह दर्शन का फलित है- और व्यक्तिगत लाभ के साथ राष्ट्रगत लाभ भी नान का समाजवाद । उन्होंने कहा""अर्थ का प्राप्त होगा। संग्रह मत करो। गलत तरीकों से मर्जन मत
आज राष्ट्र जिन संकटपूर्ण स्थितियों से गुजर है। पर्जन के साथ विसर्जन का सूत्र भी उन्होंने
रहा है उनके समरधान के लिए न केवल जैन । क्योंकि पूजी का केन्द्रीकरण सामाजिक
अपितु समस्त देशवासियों के लिए संयम की साधना मता को बढ़ावा देता है। और विषमता ही
अत्यन्त आवश्यक है। . संयम अनेक प्रकार का संघर्ष का उत्स है । तत्कालीन समाज व्यवस्था
हो सकता है। अन्न, पानी, वस्त्र, विद्युत, याप्त विषमता के विरुद्ध महावीर ने समता
यातायात प्रादि विभिन्न प्रकार से उसका प्रयोग सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया। उन्होंने कहा ''
हो सकता है। जो जितना संयम करेगी, वह केव मामुषोजातिः"। जातीयता, प्रान्तीयता,
उतना ही अधिक समाधान पीर राहत प्राप्त स्ट्रीयता, साम्प्रदायिकता, तथा भाषा प्रादि के
करेगा। माज के युग में सत्ता और सम्पत्ति का धार पर प्रखण्ड मानव जाति को विपक्त
व्यामोह भी क्रमशः बढ़ता जा रहा है। ये दोनों रना भयंकर भूल और मानवता के लिए पभिशाप
इतने मीठे प्रलोभन हैं कि उनके आकर्षण से बच
पाग और स्वयं को सुरक्षित रख पाना बहुत कठिन भारतीय संविधान में भी जाति, धर्म लिंग, रंग है। जन-सामान्य के लिए अनुकरणीय और दि परिप्रेक्ष्यों में पलने वाले भेदभेदों को कोई प्रशंसनीय वही व्यक्ति हो सकता है जो इनसे दूर जान नहीं है । नागरिकता के मूलभूत अधिकार रहा है। के लिए समान रूप से सुरक्षित हैं। हर व्यक्ति नी प्रतिभा, व्यक्तित्व और कर्तृत्व के बलपर प्राज तक का इतिहास यह बतलाता है कि घट के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है भले सता और सम्पत्ति के पीछे दौड़ने वाला अपनी वह किसी जाति या धर्म से सम्बन्धित हो। प्रतिष्ठा और गरिमा को कभी सुरक्षित नहीं रख भादशं केवल संविधान तक ही सीमित नहीं पाया। पपितु भारत ने समय समय पर इसको व्याव- एक संन्यासी था । वह सदा अपनी तप:साधना रिक रूप भी प्रदान किया है। यह उदार में लीन रहता था। उसकी साधना की सुवास टकोण भगवान महावीर के समतावादी सिद्धान्त दर-दर तक फैल गई। उसके अन्तःकरण से बहने क्रिय न्वयन है।
वली मैत्री, प्रम और करुणा की धारामों ने संयम भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त मौनिक वायु-मण्डल और निकटवर्ती प्राणी हृदयों को र महत्वपूर्ण सूत्र हैं। जीवन की जटिलतानों इतना प्रभावित किया कि जन्म से शत्रता रखने
कठिनाइयों से राहत पाने का दिशा-दर्शन वाले प्राणी भी अपना पारस्परिक वैरभाव भूलकर से प्राप्त होता है, प्रभाव, मंहगाईप्रादि प्रेम से रहते थे ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-4
संन्यासी की प्रसिद्धि और बढ़ते हुए प्रमाव के रखे ? वह उसे अपने पास रखने लगा। इस से कारण एक निन देवराज इन्द्र का प्रासन डोल पास रहने वाले वन्य-पशु भयभीत होने लगे । सबकी उठा । इन्द्र घबराया पौर सोचने लगा-कहीं यह भावनाएं बदलने लगी। प्रेम, करुणा और महिंसा तपस्वी मेरा भासन न छीन ले । अपने प्रासन को का स्रोत सूखने लगा। हिंसा और प्रतिहिंसा की सुरक्षित रखने के लिए प्रावश्यक है कि तपस्वी को भावनाएं जागने लगी। तपस्वी का प्रभाव भी उसकी साधना से विचलित करू। उसे एक उपाय समाप्त होने लगा। उसकी शान्ति और समाधि सूझा। उसने ब्राह्मण का रूप बनाया। हाथ में खंडित हो गई। मन विचचित हो गया। इससे एक तलवार ली और संन्यासी की कुटिया के पास इन्द्र का आसन पुनः जम गया । वह तलवार सत्ता से गुजरा । जाते-जाते उसने कहा-बाबा ! मुझे की प्रतीक थी। जो इसमें उलझ जाता है वह प्रागे जाना है। इस तलवार को साय रखकर अपना सब कुछ खो देता है। भारतीय संस्कृति ने क्या करूंगा? पाप के पास रख द और लौटते सत्ता और सम्पत्ति के स्थान पर सदा त्याग, तपस्या वक्त ले लूंगा। मैं अभी-अभी माता हूं।
और संयम को महत्व दिया है। इस महत्व को
सम्यग् रूप से समझ कर महावीर के मूलभूत संन्यासी ने बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा की सिद्धान्तों पर बल दिया जाए और तदनुरूप प्राचारण किन्तु ब्राह्मण तो फिर लोटा ही नहीं। उसे लोटना किया जाए-यही भगवान महावीर के प्रति सच्ची भी नहीं था। सन्यासी अब तलवार को कहां श्रद्धांजलि हो सकेगी।
जैन धर्म स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते ।
नास्त्यन्यपीड़न किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ जिसमें स्याद्वाद है, किसी के प्रति भी किसी प्रकार का कोई पक्षपात नहीं है, जिसमें अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार की कोई पीड़ा नहीं पहुँचाई जाती, वह जैन धर्म कहलाता है ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचारांग में महावीर की साधना का विशद् न मिलता है । उसके अनुसार महावीर ने दीक्षा ली, उस समय उनके शरीर पर एक ही वस्त्र था । लगभग तेरह मास तक उन्होंने उस वस्त्र को कंधों पर रखा। दूसरे वर्ष जब प्राधी शरदऋतु बीत चुकी, तब वे उस वस्त्र को त्याग सम्पूर्ण अचेलक अनगार हो गए। शीत से त्रसित होकर वे बाहुयों को समेटते न थे, अपितु यथावत् हाथ फैलाये विहार करते थे । शिशिर ऋतु में पवन जोर से फुफकार मारता, कड़कड़ाती सर्दी होती तब इधर साधु उससे बचने के लिए किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापस लकड़ियां जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते; परन्तु महावीर खुले
स्थान में नंगे बदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी नहीं करते। वहां पर स्थिर होकर ध्यान करते । नंगे बदन होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नहीं, पर दंश-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट व झेलते थे ।
भगवान महावीर की कैवल्य-साधना
- अणुव्रत परामर्शक मुनि श्री नगराजजी डी० लिट्
महावीर अपने निवास के लिए कभी निर्जन झोपड़ियों को चुनते, कभी धर्मशालानों को, कभी प्रपा को, कभी हाट को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियों घरों को, कभी शहर को, कभी
श्मशान को, कभी सूने घरों को कभी वृक्ष की छाया को तो कभी घास की गंजियों के समीपवर्ती स्थान को । इन स्थानों में रहते हुए उन्हें नाना उपसर्गों से जूझना होता था । सर्प आदि विषैले जन्तु और गीध आदि पक्षी उन्हें काट खाते थे । उद्दण्ड मनुष्य उन्हें नाना यातनाएं देते थे, गांव के रखवाले हथियारों से उन्हें पीटते थे और विषयातुर स्त्रियां कामभोग के लिए उन्हें सताती थीं। मनुष्य भौर तिर्यञ्चों के दारुण उपसर्गों और कर्कश - कठोर शब्दों के अनेक उपसगं उनके समक्ष आये दिन प्रस्तुत होते रहते थे । जार पुरुष उन्हें निर्जन स्थानों में देख चिढ़ते, पीटते और कभी-कभी उनका अत्यधिक तिरस्कार कर चले जाने को कहते
मारने-पीटने पर भी वे अपनी समाधि में लीन रहते और चले जाने का कहने पर तत्काल प्रत्यत्र चले जाते ।
आहार के नियम भी महावीर के बड़े कठिन थे । नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे । मानाप मान में समभाव रखते हुए घर-घर भिक्षावरी करते थे । कभी दीनभाव नहीं दिखाते थे । रसो में उन्हें प्रासक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थो की आकांक्षा ही करते थे । भिक्षा में रूखा सूखा, ठण्डा,
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-6
बासी, उड़द, सूखे भात, मंथु, यवादि नीरस धान्य का जो भी प्रहार मिलता, उसे वे शान्त भाव से और सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे । एक बार निरंतर पाठ महीनों तक वे इन्हीं चीजों पर रहे । न मिलने पर भी वे दीन नहीं होते थे । पखवाड़े तक, मास तक प्रोर छः छ० मास तक जल नहीं पीते थे । उपबास में भी विहार करते थे । ठण्डा वासी प्रहार भी वे तीन-तीन, चार-चार, पांच-पांच दिन के अन्तर से करते थे । निरन्तर नहीं करते थे । स्वादजय उनका मुख्य लक्ष्य था । भिक्षा के लिए जाते समय मार्ग में कबूतर आदि पक्षी धान चुगते हुए दिखाई देते तो वे दूर से ही टलकर चले जाते । उन जीवों के लिए वे विघ्नरूप न होते । यदि किसी घर में ब्राह्मरण, श्रमण, भिखारी, श्रतिथि, चण्डाल, बिल्ली या कुत्ता श्रादि को कुछ पाने की आशा में या याचना करते हुए वे वहां देखते, तो उनकी आजीविका में बाधा न पहुंचे, इस अभिप्राय से वे दूर से ही चले जाते। किसी के मन में द्वेष-भाव उत्पन्न होने का वे अवसर ही नहीं माने देते ।
शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बड़ी रोमाञ्चक थी । रोग उत्पन्न होने पर भी वे भौषध सेवन नहीं करते थे । विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्त-प्रक्षालन नहीं करते थे । श्राराम के लिए पैर नहीं दबाते थे । श्रोखों में किरकिरी गिर जाती तो उसे भी वे नहीं निकालते। ऐसी परि स्थिति में प्रांख को भी वे नहीं खुजलाते । शरीर में खाज प्राती, तो उस पर भी विजय पाने का प्रयत्न करते ।
महावीर कभी नींद नहीं लेते थे । जब कभी नींद अधिक सताती, वे शीत में मुहूर्तभर चंक्रमण कर निद्रा दूर करते । वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग में ही लीन रहते ।
वसति वास में महावीर न गीतों में श्रासक्त होते थे और न नृत्य व नाटकों में; न उन्हें दण्ड- युद्ध में उत्सुकता थी और न उन्हें मुष्टि-युद्ध में । स्त्रियों व स्त्री-पुरुषों को परस्पर काम कथा में लीन देखकर
भी वे मोहाधीन नहीं होते थे । वीतराग-भाव की रक्षा करते हुए वे इन्द्रियों के विषयों में विरक्त रहते थे ।
उत्कटुक, गोदोहिका, बीरासन, प्रभृति अनेक प्रासनों द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे । शीत में वे छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्कटुक आदि कठोर प्रासनों के माध्यम से चिलचिलाती धूप में ध्यान करते । कितनी ही बार जब वे गृहस्थों की बस्ती में ठहरते, तो रूपवती स्त्रियां, उनके शारीरिक सौन्दर्य पर मुग्ध हो, उन्हें विषयार्थ श्रामन्त्रित करतीं। ऐसे अवसर पर भी महावीर प्रांख उठाकर उनकी ओर नहीं देखते थे और अन्तर्मुख रहते थे । गृहस्थों के साथ किसी प्रकार का संसर्ग नहीं रखते थे । ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर वे उत्तर नहीं देते थे । वे श्रबहुवादी थे अर्थात् अल्पभाषी जीवन जीते थे। सहे न जा सकें, ऐसे कटु व्यंग्यों को सुनकर भी शान्त और मौन रहते। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से तर्जित करता या बालों को खींचता था उन्हें नचाता, वे दोनों ही प्रवृत्तियों में समचित रहते थे । महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषायरहित, मूर्छा - रहित, निर्मल ध्यान और प्रात्मचिन्तन में ही अपना समय बिठाते ।
चलते समय महावीर आगे की पुरुष प्रमाण भूमि पर दृष्टि डालते हुए चलते । इधर उधर बा पीछे की ओर वे नहीं झाँकते । केवल सम्मुखीन मार्ग पर ही दृष्टि डाले सावधानी पूर्वक चलते थे। रास्ते में उनसे कोई बोलना चाहता, तो वे नहीं बोलते थे ।
महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुआ था। चार मास से भी अधिक भ्रमर प्रादि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते रहे । महावीर ने तितिक्षा भाव की पराकाष्ठा कर दी। उन जन्तुनों को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे इच्छा नहीं करते थे ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर ने दुर्ग- लाढ़ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि दोनों में बिहार किया । वहां उन्हें अनेक विपदाएँ झेलनी पड़ी। वहां के लोग उन्हें पीटते, वहाँ उन्हें खाने को रूखा-सूखा माहार मिलता । ठहरने के लिए स्थान भी कठिनता से मिलता और वह भी साधारण । बहुत बार चारों ओर से उन्हें कुत्ते घेर लेते और कष्ट देते । ऐसे अवसरों पर उनकी रक्षा करने वाले बिरले ही मिलते । श्रधिकांश तो उन्हीं को यातना देते और उनके पीछे कुत्ते लगा देते। ऐसे विकट विहार में भी इतर साधुनों की तरह वे दण्ड प्रदि का प्रयोग नहीं करते । दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को वे बहुत ही क्षमा-भाव से सहन करते ।
कभी-कभी ऐसा भी होता कि भटकते रहने पर भी वे गांव के निकट नहीं पहुँच पाते । ज्यों-त्यों ग्राम के निकट पहुंचते, अनार्य लोग उन्हें त्रास देते मौर तिरस्कार पूर्वक कहते - " तू यहां से चला जा ।" कितनी ही बार इस देश के लोगों ने लकड़ियों, मुट्टियों, भाले की अणियों, पत्थर या हड्डियों के खप्परों से पीट-पीटकर उनके शरीर में
1-7
घाव कर दिये । जब वे ध्यान में होते, तो दुष्ट लोग उनके मांस को नोचलेते, उन पर धूल बरसाते, उन्हें ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते, उन्हें प्रासन पर से नीचे ढकेल देते ।
महावीर की निर्जल मोर निराहार तपस्यानों का प्रामाणिक व्योरा भी अनेक परम्परा-ग्रन्थों में मिलता है । एक बार उन्होंने छः महीने का निर्जल और निराहार तप किया, एक बार पांच महीने और पच्चीस दिन का, नौ बार चार-चार महीनों का, दो बार तीन-तीन महीनों का, दो बार ढाईढाई महीनों का, छः बार दो-दो महीनों का, दो बार डेढ़-डेढ महीनों का, बारह बार एक महीने का बहत्तर बार पखवाड़े का, बारह बार तीन-तीन दिन का, दो सौ उनतीस बार दो दो दिन का और एकएक बार भद्र, महा-भद्र, सर्वतो भद्र प्रतिमा का तप किया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, भगवान् महावीर ने अपने अकेवली जीवन के 4515 दिनों में केवल तीन सौ पच्चास दिन अन्न व पानी ग्रहण किया। 4165 दिन तो तप में बीते । मन्य सब तीर्थंकरों की अपेक्षा महावीर के तप को उम्र बताया गया है ।
आत्मा
अप्पा कामदुहा घेणु अप्पा में नन्दणं वरणं ।
यह श्रात्मा ही कामधेनु है और यह प्रात्मा ही नन्दनवन ( स्वर्ग के देवताओं का क्रीड़ा स्थल ) है ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर वंदना -डा० शोभनाथ पाठक, मेघनगर जि० झाबुआ (म. प्र.)
वीर वंदना वरीयता अनंत है । वीर व्रत से ही गमक रहा दिगंत है। सत्य-शील-ब्रह्मचर्य पूर्ण साधना । सृष्टि से संवर की अपूर्व भावना। शांतिदूत त्रिशला सुत की महानता। विश्व के विहान में प्रकाश डालता।
थाती युग बोध की देता ही संत है।
वीर वंदना वरीयता अनंत है । भटके जन को उबारता ही धर्म है। जग का कल्याण ही महान कर्म है। त्रिविध ताप मुक्ति महावीर मंत्र है। अपनाने में जिसे जगत स्वतंत्र है । सन्मति सन्देश का कहीं न अंत है।
वीर व्रत से ही गमक रहा दिगंत है।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
झण्डाभिवादन
गतवर्ष १३ नवम्बर १६७४ को महावीर निर्वाणोत्सव पर श्री राजरूप टांक कार्यवाहक अध्यक्ष २५०० वीं महावीर निर्वाणोत्सव समिति
झण्डारोहण करते हुए ।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन परम्परा
हम दो सत्ताओं के बीच में अपना जीवन एक साथ नहीं होती। हम चिन्तन करते हैं तब भी चला रहे हैं - एक प्रत्यक्ष सत्ता है और दुसरी शरीर होता है । चिन्तन नही करते हैं तब भी परोक्ष सत्ता । परोक्ष सत्ता प्रात्मा की है और शरीर होता है। शरीर का होना और उसका प्रत्यक्ष सत्ता मन की है। परोक्ष सत्ता तक पहुँचने सचेतन या सक्रिय होना-ये दो बातें हैं । जब में हमें बड़ी कठिनाई है, अनेक बाधाएं हैं और वे चैतन्य या प्राण की धारा शरीर से जुड़ती है तब बाधाएं प्रत्यक्ष सत्ता के द्वारा उपस्थित की जा रही शरीर सक्रिय हो जाता है । वह चैतन्य की धारा हैं। मन का जगत् ऐसा है कि जब हम उसमें उलझ जाते हैं तो परोक्ष सत्ता तक पहुंचने का मार्ग बन्द हो जाता हैं। किन्तु परोक्ष सत्ता बहुत शक्तिशाली है। वह अपने पहंच के मार्ग को सदा के लिए बन्द नहीं होने देती। ..
हम आत्मा को नहीं देखते। हमारी इन्द्रियां उस अमूर्त सत्ता को नहीं देख पातीं । वह स्वयं
ध्यान वाह्य जगत् में अपने को प्रगट करती हैं । उसके
-मुनि श्री नथमल प्रगट होने के चार माध्यम हैं-शरीर, वाणी, श्वास और मन । प्रात्मा की अनुपस्थिति में शरीर स्पंदित नहीं होता और मन गतिशील नहीं बनता जब वाणी के यन्त्र से जुड़ती है तब वास्फूर्त हो ये चारों प्रात्मा से प्राण पाकर ही अपना काम
जाती है और वह चैतन्य की धारा जब मन के करते हैं। ये द्वार बनते हैं, खिड़कियां बनते हैं यन्त्र के साथ जुड़ती हैं तब मन गतिशील हो जाता और इनमें से जो झांकता है वह प्रात्मा है। है। तीनों एक साथ सक्रिय नहीं होते।
जैसे शरीर एक यन्त्र है, वैसे ही मन भो एक यन्त्र है । जैसे शरीर अचेतन है, वैसे ही मन भी
मन कहां है-इस सम्बन्ध में तीन विचारप्रचेतन है । शरीर, वाणी, श्वास और मन ये धाराए हमारे सामने हैंसब अचेतन हैं। प्रात्मा में से एक चैतन्य की धारा 1. कुछ मानते हैं कि मन समूचे शरीर में निकलती हैं, वह परमाणुषों के साथ मिलकर प्राण व्याप्त है । की धारा हो जाती है। वह धारा जिसके साथ
मानते हैं कि मन का स्थान हृदय के जुड़ती है । वही सचेतन हो जाता है, सक्रिय हो नीचे है । कुछ लोग मानते हैं कि हृदय-कमल के जाता है । जैन दर्शन का सिद्धांत है कि एक क्षण बीच में मन है । हृदय-कमल की पाठ पंखुडियां में एक ही क्रिया होती है । मन की क्रिया होती है हैं, वहां मन हैं । कुछ योगाचार्यों का मत है कि तब वचन की नहीं होती और जब वचन की होती बाएं फेफड़े में जहां हृदय है, उसके एक इंच नीचे है तब शरीर की नहीं होती। इन तीनों की क्रिया मन का स्थान है।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-10
3. वर्तमान शरीर शास्त्र का अभिमत है कि और न स्थिर । जैसा उपादान होता है वैसा ही मन का स्थान मस्तिष्क है।
वह निर्मित हो जाता है । चेतना अतीत कालीन ____ मैं सोचता हूं कि ये सारी सापेक्षताएं हैं। विभिन्न संस्कारों से प्रभावित होती है। उसकी यदि हम कहें कि मन समूचे शरीर में व्याप्त है तो निर्मल धारा माती है और मन के साथ योग यह सापेक्ष ही होगा। हमारे स्नायु-संस्थान में करती है तो मन निमंल बनता है, राग-द्वेष रहित जितने भी ग्राहक स्नायु हैं, जो बाह्य विषयों को बनता है । चेतना के साथ मल माता है, आसक्ति ग्रहण व रते हैं, उनका जाल समूचे शरीर में फैला पाती है, प्रज्ञान प्राता है, राग-द्वेष पाता है तो हुप्रा है । वे शरीर के सब भागों से ग्रहण करते हैं। मन का स्वरूप दूसरा हो जाता है। निर्मल चेतना इस प्रकार मन का शासन सर्वत्र व्याप्त है । राजा का योग भी मन में सक्रियता लाता है और मलिन अपनी राजधानी में बैठा है । कोई पूछे कि राजा चेतना का योग भी उसमें सक्रियता लाता है । कहाँ हैं तो कहा जा सकता है कि जहां तक राज्य सक्रियता दोनों ओर से आती है। किन्तु मन को की सीमा है वहां तक राजा है । वह भले राज- स्थिति में अन्तर पा जाता है। उसका प्रवाह दो धानी में हो, किन्तु उसका शासन सारे राज्य की दिशाओं में विभक्त हो जाता है। राग-द्वेष रहित सीमा में चलता है तो राजा सर्वत्र व्याप्त है। चेतना का योग होने पर मन होता है पर प्रासक्ति 'मन हृदय के नीचे है'- यह भी सापेक्ष है। नहीं होती। राग-द्वेष युक्त चेतना का प्रवाह सुषुम्णा की एक धारा हृदय को छूती हुई जाती प्राता है तब मन भी होता है और प्रासक्ति भी है । उसका हृदय के साथ सम्पर्क है इसलिये हृदय होती है, यही चंचलता है । इसकी अतिरिक्त मात्रा को मन का केन्द्र मानना बड़े महत्व की बात है। या पुनरावर्तन ही प्रशांति है। वह भावपक्ष का मुख्य स्थान है।
मन की तीन अवस्थाएं निष्पन्न होती हैंमन का स्थान मस्तिष्क है, यह बहुत स्पष्ट राग द्वेष युक्त मन, राग-द्वेष शून्य मन, मोर है । ज्ञानतन्तुमों का संचालन उसी से होता है। अमन (मानसिक विकल्प का निरोध) वह उन पर नियन्त्रण और नियमन करता है। ध्यान की भूमिका में हमें सबसे पहले इस पर __मन के स्वरूप को जानना इसलिए आवश्यक विचार करना होता है कि किस प्रकार की चेतना है कि वह हमारी साधना का मुख्य प्राधार है । को उसके साथ जोड़ें और जोड़ें तो किस रूप में उसी के आधार पर ध्यान करना है, उपलब्धियों जोड़ें, और कुछ क्षण ऐसे बिताए कि मन के तथा अनुपलब्धियों का लेखा जोखा करना है। साथ चेतना को जोड़े ही नहीं। जब हम चेतना मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की को मन के साथ जोड़ते ही नहीं तब चेतना अलग कोई प्रावश्यकता ही नहीं। फिर हम स्वयं सिद्ध होती है और मन अलग । जब हम इंजन में ईधन बन जाते हैं। 'चेतना मन के साथ जुड़ी ही नहीं- डालते ही नहीं तब इंजन कैसे चलेगा ? मोटर इसका अर्थ है कि मन सक्रिय होता ही नहीं। उस कार तभी चलती है जब उसके इंजन में ईधन डाला स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता, संकल्प नहीं जाता है। वायुयान तभी चलता है जब उसके होता, चिन्ता नहीं होती । मन का यन्त्र मृतवत् इंजन में ईधन डाला जाता है । जब ईधन नहीं डाला पड़ा रहता है। यह ध्यान की भूमिका है । यह जाएगा तब उनमें गति नहीं होगी । यन्त्र होगा शुद्ध उपयोग की भूमिका है। मन का स्वरूप पर सक्रियता नहीं होगी। यह ध्यान की सबसे चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह अपने अच्छी स्थिति है । किन्तु व्यवहार में जीने वालों आप में न कलुषित है और न निर्मल , न चंचल है के लिए यह मान्य नहीं होता । वे नहीं चाहते कि
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-11
घर में मोटरकार खड़ी है और खड़ी ही रहे, कभी विरुद्ध अन्तःकरण की वृत्ति एक प्रालंवन पर काम में न पाए । वे उसका उपयोग करना चाहते अवस्थित हो जाती है। उनके अनुसार व्यग्र चेतना हैं । व्यवहार की भूमिका में जीने वाले यह पसन्द ज्ञान होती है, वही स्थिर होकर शान हो नहीं करते कि हमारे मन का यन्त्र निकम्मा पड़ा जाती है । रहे । वे उसे सक्रिय करने के लिए चेतना का क्या प्राण और अपान का निग्रह ध्यान है ? उपयोग करते हैं । मन का निर्माण ही न हो, यह नहीं है । प्राण और अपान के निग्रह से प्रचुर ध्यान का प्रादि बिन्दु नहीं है, उसकी अग्रिम वेदना उत्पन्न होती है। उससे शरीरपात का प्रसंग भूमिका है। उसका प्रादि-बिन्दु है-मन के साथ आता है। इसलिए ध्यान-काल में प्राण और जुड़ने वाली चेतना का विवेक करना । मन के साथ अपान को मंद करना चाहिए। ध्यान का समय चेतना जुड़े, पर राग-द्वेष युक्त चेतना न जुड़े । अन्तर्मुहूर्त है । एक प्रालंबन पर इतने समय तक प्राण की धारा मन को सक्रिय बनाए पर उसके एकाग्र रहना पर्याप्त है । इसके बाद मालम्बन साथ माकांक्षा न पाए, प्रमाद न पाए और कषाय बदल जाता है । हठपूर्वक एक ही पालम्बन पर न पाए । जब राग-द्वेष, आकांक्षा, प्रमाद और चेतना को स्थापित करने का प्रयत्न इन्द्रिय के कषाय के दरवाजे बन्द कर देते हैं तो फिर जो उपघात का हेतु बन सकता है । चैतन्य आता है वह मन को सक्रिय बनाता है, ध्यान में श्वास और काल प्रादि की मात्रा चंचल भी करत है, किन्तु उस चचल1 मे मन की गणना नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर का शोक नहीं होता, मन की प्रशांति नहीं होती। चेतना व्यग्र हो जाती है इसलिए ध्यान नहीं फिर चंचलता हमारा कोई अनिष्ट नही कर होता । पाती।
आचार्य रामसेन के अनुसार एक मालम्बन उमास्वाति के अनुसार एक पालम्बा र
पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध ध्यान है। अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध करना ध्यान है 1
उसी प्रकार चिन्तन रहित केवल स्व-संवेदन भी
ध्या हैअनासक्त चेतना, अप्रमत्त चेतना और वीतराग
अभावो वा निरोध. स्यात्, स च चिन्तान्तरग्ययः । चेतना सहज हणन है। इसके विपरीत, असक्त
ए चिन्तात्मको यद्वा स्वसंविच्चिन्तयोज्झिता ।। चेतना, प्रमत्त चेतना और राग-द्वेष चेतन मन की
जैन प्राचार्य ध्यान को प्रभावात्मक नहीं चंचल अवस्था निर्मित करती है । उस समय शोक
मानते । इसके लिए किसी न किसी एक पर्याय का बढ़ता है, अशांति बढ़ती है, क्रोध बढ़ता है, प्रवचना
मालम्बन अावश्यक है । स्व-संवेदन ध्यान को और लोभ बढ़ाता है । इस स्थिति में ध्यान की
निगलम्बन-ध्यान कहा जाता है किन्तु यह सापेक्ष योग्यता प्राप्त नहीं होती।
शब्द है । उसमें किसी श्रुत के पर्याप्य का पालंबन ध्यान की परिभाषा
नहीं होता इस दृष्टि से वह निरालम्बन है । जिनभद्र के अनुसार स्थिर चेतना ध्यान और निरालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं चल चेतना चित्त कहलाते हैं :
होते । उसमें शुद्ध चेतना का उपयोग ही होता है । थिरमज्भवसणं तं भाणं,जं चलं तयं चित्त। उसके सिवाय किसी ध्येय का ध्यान नहीं होता ।
प्राचार्य प्रकलंक ने बताया है-- 'जैसे शिर्वात सालम्बन ध्यान में ध्येय और ध्यान का भेद होता प्रदेश में प्रज्वलित प्रदीपशिखा प्रकंपित नहीं होती है । जैन साधकों का अनुभव है कि प्रारम्भ में वैसे ही निराकूल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से सालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। उसके
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-12
द्वारा एकापता पुष्ट हो जाए राग-द्वेष का भाव अहंत का ध्यान पुरुषाकार प्रात्मा के रूप में मंद हो जाए तब निरालम्बन ध्यान आत्मा के शुद्ध करना चाहिए। ऐसा करने वाला पूर्वकर्म की स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । सालंबन ध्यान निर्जरा करता है । वर्तमान क्षरण में राग-द्वेष रहित निरालम्बन ध्यान तक पहुंचने के लिए है । यह होने के कारण कर्म का बंध नहीं करता। तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए ।
दशवकालिक सूत्र में बताया है कि आत्मा से ध्यान सूत्र
मात्मा को देखें। ध्यान-काल में चिन्तन और प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है --प्रात्मा-ज्ञान,
दर्शन-दोनों हो सकते है किन्तु चिन्तनात्मक ध्यान दर्शन और चारित्र संयुक्त होता है, इसलिए उस
___ की अपेक्षा दर्शनात्मक ध्यान अधिक महत्वपूर्ण है । मात्मा का ध्यान करना चाहिए।
प्राचार्य हेमचन्द ने लिखा है कि जब तक ___ इस सूत्र में प्रात्मा के ध्यान की बात कही गई थोड़ा भी प्रयत्न है, संकल्प की कल्पना है, तब तक है । साधना की दृष्टि से प्रात्मा के तीन प्रकार किए लय की प्राप्ति नहीं हो सकती। लय की प्राप्ति जाते हैं--बहिरात्मा, अन्तरात्मा मोर परमात्मा। के लिए सुखासन में बैठे समूचे शरीर को शिथिल इन्द्रिय-समूह बहिरात्मा है । प्रात्मा का अनुभवात्मक करो। चित्त की वृत्ति को रोको मत । कमनीय संकल्प-शरीर और इन्द्रिय से भिन्न है जो ज्ञाता है रूप देखते हुए भी, मधुर शब्दों को सुनते हुए भी, वह "मैं "--इस प्रकार का संवेदनात्मक संकल्प सुगंधित द्रव्यों को सूघते हुए भी सरस रस का अन्तरात्मा है । कम-मुक्त आत्मा परमात्मा है। प्रास्वादन लेते हुए भी, मृदु स्पों का अनुभव करते
इन तीनों में परमात्मा ध्येय है। अन्तरआत्मा हुए भी, चित्तवृत्तियों को न रोकते हुए भी राग-द्वेष के द्वारा बहिरात्मा को छोड़ना है । परमात्मा का रहित क्षण का अनुभव करने वाला उन्मनी भाव ध्यान करने से आत्मा स्वयं परमात्मरूप बनता है। को प्राप्त हो जाता है । इसलिए शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिए। ये ध्यानसूत्र आवेश शून्य क्षण का अनुमव शुद्ध चेतना का अनुभव शुद्धता लाता है । और करने के सूत्र हैं । इनके अनुभव द्वारा पूर्वाजित अशुद्ध चेतना का अनुभव अशुद्धता लाता है। कर्म क्षीण होते हैं और गए कर्म का बंध रुकता है
जो द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व की दृष्टि से ध्यान द्वारा मानसिक शांति और शारीरिक वेदना प्रहन को जानता है. वह अपनी आत्मा को जानता की उपशांति होती है । ऐहिक और पारलौलिक है। निश्चय नय की दृष्टि से अहंत और अपनी कोई भी ऐसा फल नहीं जो ध्यान द्वारा प्राप्त न प्रात्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। ग्राहत् का हो सके । पर ध्यान का प्रयोग केवल बीतरागता की ध्यान करने से मोह विलीन होता है ।
सिद्धि के लिए होना चाहिए। 1. तत्त्वार्थ सूत्र 9127. 2. ध्यानशतक, 21. 3. मोक्ष पाहड़ 64. 4. मोक्षपाहुड़, 84 5. समयसार, 86
सुद्ध तु वियाएंतो सुद्ध चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दुः असुद्ध'असुद्ध मेवप्पयं लहइ ।। 6. प्रनचनसार, 80,
को जाणदि प्ररहतं, दव्यत्तगुणत पज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। 7. मोक्षपाहुड़, 84, 8. योगशास्त्र 12122-24
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का प्रात्मवाद
और सुखवादी परम्परा
---मुनि श्री गुलाब चन्द्र नार्मोही भगवान् महावीर ने कहा-पुढो छन्दा इह परमात्मा में भी विश्वास कैसे कर सकता है ? माणवा, पुढो दुखं पवेहये -'संसार में पृथक्- क्योंकि अध्यात्म-साधना का प्रथम सोपान प्रात्मतत्व पृथक् विचार वाले व्यक्ति हैं एवं उनके अभिप्राय । का स्वीकरण है। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं
और संवेदनाएं भी भिन्न-भिन्न हैं।' विचार स्वा- कौन हूं और मेरा स्वरूप क्या है, वह साधना-क्षेत्र तंत्रय का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह आवश्यक में गति रिस प्रकार कर सकेगा ? महावीर ने इस नहीं कि एक ही विचार से प्रभावित हों । पूर्व और सन्दर्भ में कहा---'इह मेगेसिंगो सण्णा भवइ के पश्चिम की दर्शन परम्परा भी इसी आधार पर अहं पासी के वा इग्रो चुत्रो इह पेच्च भविस्सामि ।' खड़ी हुई । प्रात्मवाद और अनात्मवाद का इतिहास साहित्य की भाषा में उन्होंने इसी तथ्य को इस भी कुछ ऐसा ही है। कुछ दार्शनिक आत्मा का प्रकार प्रकट किया -- अस्तित्व तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप 'जम्स नचि पुरा पच्छा मज्झे तस्स को में उनका मतभेद है। प्रात्मा को मानते हुए भी सिया'—जिसके पूर्व और पश् वा नहीं है, उसके सांख्य दर्शन उसे कर्ता नहीं मानता। वह प्रकृति का मध्य भी कम होगा ? किन्तु सर्वोच्छेदवादी प्रात्मा कर्ता मानता है । इस सम्बन्ध में उसने कहा है - और उसकी समस्त पर्यायों से इमर करते हैं। प्रमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अनात्मवादी स्थूलग्राही होते हैं। वे कहते हैं
कि पद-तल से कशाग्र तक प्रात्मा है। वही जीव अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म प्रात्मा कपिलदर्शने ॥
है। उसके अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र वह आत्मा के भोगी रूप को तो स्वीकार तत्व नहीं हैं। देहात्मवादियों के अनुसार भवकरता है किन्तु कर्ता रूप को नहीं। जैन दर्शन परम्परा संभव नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए वे प्रात्मा को कर्ता और भोक्ता दोनों रूप से स्वीकार कहते हैं कि बीज से वृक्ष की उत्पति होती है, करता है।
किन्तु जब बीज ही जल गया तो अकुर कैसे फूटेगा? कुछ दार्शनिक सर्वोच्छेदवादी होते हैं। वे इसी प्रकार अगले जन्म का बीज शरीर है। जव मात्मा के गुण, धर्मों में से एक को भी स्वीकार शरीर ही जल गया तो पुनर्जन्म कैसे संभव है ? नहीं करते । जिसे प्रात्मतत्व में विश्वास नहीं, वह देह को बीज मानने वाले कुछ दार्शनिक ऐसा
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-14 .
भी मानते हैं कि पुरुष मर कर पुरुष होता हैं और को ही जीवन का परम पुरुषार्थ माना। इपीक्यूरस स्त्री मर कर स्त्री होती है। जैसा बीज होता है, के विचार उनसे कुछ भिन्न थे । सुखी बनने के लिए वैसी ही उसकी फल-परिणति होती है । पांचवे उन्होंने प्रात्यन्तिक सुखवाद को प्रश्रय नहीं दिया। गणधर सुर्मा स्वामी महावीर के पास दीक्षित होने अपनी भौतिक सुख-प्रधान दृष्टि के साथ उन्होंने से पूर्व इसी सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। महावीर विवेक और गम्भीर चिन्तन को प्रावश्यक समझा। ने उनका समाधान करते हुए कहा-'स्थूल देह
आधुनिक काल के सुखवाद के प्रसारक जेरोहवी बीज नहीं है । आत्मा का शुभ-अशुभ अध्यवसाय बन्थम और जानस्टुअर्टमिल माने जाते हैं । ये दोनों ही बीज है। इसी के अनुरूप उसकी भावीफल- जथे। इनकी भी सखवाट के पोळे वदी पर्व परिणति होती है।'
मान्यता थी, जो अरस्टीपस और इपीक्यूरस की अनात्मवादो विचार धारा नई नहीं है। संयम थी। फिर भी इन्होंने स्वार्थ सुखवाद के साथ साथ पौर स्थिति की भिन्नता के साथ उसकी निरुपणा परार्थ सुखवाद पर भी विशेष बल दिया। बैन्थम में भी भिन्नता आई। पश्चिम में नीतिशास्त्र का और मिल ने क्रमशः अपनी 'प्रिसिपल्स आफ स्वतन्त्र विकास हुपा। सुखवाद पाश्चात्य नीति- लेजिस्लेशन' और 'युटिलिटेरियनिज्म' नामक शास्त्र का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इसे अंग्रेजी पस्तकों में अपने विचारों को बडी सक्षमता से प्रतिमें "हिडोनिज्म' के नाम से पुकारा जाता है। इसका
पादित किया है। परार्थ सुखवाद के रूप में इनका मूल आधार मनोविज्ञान का वह सिद्धान्त है, जिसके
सिद्धान्त उपयोगितावाद के नाम से प्रसिद्ध हुमा । अनुसार मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति का हेतु सुख ही किन्तु अरस्टीपस से लेकर आज तक नैतिक सुखहै। सूख और उसका अंजी पर्यायवाची शब्द वाद का प्राधार मनोवैज्ञानिक सखवाद ही रहा है। 'हैपीनेस' एक ही अर्थ को विभिन्न अपेक्षामों से बन्धम और मिल द्वारा दी गयी यक्तियों में उसी प्रकट करते हैं । किन्तु यहां सुख का अर्थ केवल की प्रधानता है। उन्होंने लिखा है -'प्रत्येक व्यक्ति इन्द्रियो से पैदा और प्राप्त होने वाली अभीष्ट सुख चाहता है। अतः सुख चाहने योग्य वस्तु है । संवेदनाओं से है। सुखवादी नीति-शास्त्रज्ञ नैतिकता अधिक सुख की प्राप्ति ही नैतिक आचरण का का मापदण्ड सुख ही मानते हैं। उनकी दृष्टि में प्रादर्श होना चाहिए।' वही कार्य अधिक नैतिक है जिसमें सूख की संवेदना इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अधिक उत्पन्न होती हैं।
सुखवाद का जन्म एक युग-प्रति क्रिया के रूप में , पश्चात्य नीतिशास्त्र में सुखवाद का प्रारम्भ हुमा। किन्तु प्रागे चलकर वह जीवन का शाश्वत यूनान के प्रसिद्ध विचारक अरस्टोपस और इबीक्यू रस सिद्धान्त बन गया। युग के बड़े बड़े विचारकों के द्वारा माना जाता है । वे जड़वादी थे ! संसार में सामने बैन्थम मिल के विचार प्रतिध्व नित होने
आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है, शरीर के नष्ट होने लगे । चाहे उसकी मर्यादा व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के पश्चात् कुछ भी नहीं बचा रहता, इसी पूर्व कोई भी बना हो । मान्यता के प्राधार पर उन्होंने सुखवाद का विकास सुखवाद या देहात्मवाद का मनियमित प्रसार किया । यूरोप के पुराने सुखवादी विचारक शेरेनिक व्यक्ति को जीवन के मूलभूत आदर्श से भटकाने माने जाते हैं। वे अरस्टोपस के अनुयायी थे। वाला है। व्यक्ति भौतिक सुख चाहता है किन्तु परस्टीस कट्टर सुखवादी थे। उनके विचार ठीक इससे सुखवाद नैतिक प्रादर्श नहीं बन सकता । वैसे ही थे जैसे कि भारत के प्राचीन साहित्य में वासना आत्मा का विभाव तत्व है, स्वभाव नहीं। चावीक मत के मिलते हैं। परस्टोपस ने सुखवाद यदि वासना की तृप्ति में ही प्रानन्द होता तो
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-16 मनुष्यों की अपेक्षा पशु अधिक सुखी होते, किन्तु वासना शरीर की भूख है। जिसने अन्तःकरण की सत्य यह है कि मनुष्य का आनन्द उसकी आत्मा में आवाज को पहचाना है, वही बाह्य से हटकर निहित है न कि देह में । मनुष्य का ध्यान यदि अन्तर्मुखता की और गति कर सकता है। केवल शरीर की प्रसन्नता की प्राप्ति के उपायों में ही दैहिक प्राकर्षण मानव को मूढ़ बनाता है किन्तु लगा रहेगा, तो वह संसार में रहने के अयोग्य हो मोह का पर्दा दूर होते ही वह पश्चाताप करने जाएगा । जीवन की कुत्सानों को लेकर बढ़ने वाला लगता है । हरिगिरि अहंतर्षि ने इस तथ्य को अपने आदर्श कभी नैतिक नहीं हो सकता । नैतिक प्रादर्श शब्दों में इस प्रकार प्रकट कियानियामक विज्ञान है। मनुष्य में जैसे कामना है,
चंचलं सुहमादाय, मत्ता मोहम्मि मारणवा । वैसे संयम व नियन्त्रण भी है। उसकी विशेषता
प्राइच्चरस्सि तत्तं वा, मच्छा झिज्जंत पारिणयं ॥ कामना नहीं, संयम का विवेक है। जो व्यक्ति स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति के सहारे कामना पर जितनी विजय अस्थिर सुख को प्राप्त करके मानव मोह में प्राप्त कर सकता है, उसका संकल्प बल उतना ही मासक्त हो जाता है, किन्तु सूर्य की किरणों से तेजस्वी होता है । इस दृष्टि से सुखवादी आदर्श का तप्त पानी के क्षय होने पर मछली की भांति अर्थ होगा-जीवन की वास्तविकता से पतन । तड़फता है। संसार में भोग्य वस्तुएं परिमित हैं तथा मनुष्य की सुखवाद का विकास दैहिक प्राधार पर हुमा । कामनाएं अपरिमित और अनन्त हैं । इस दृष्टिकोण अतः वह अपने आप में अपूर्ण है । प्रात्म-पक्ष से से भी सुखवाद मनुष्य को कभी सुखी नहीं बना अस्पृष्ट रहकर पूर्णता की प्राप्ति कठिन है । सच तो सकता।
यह है कि केवल दैहिक आधार अनित्य और क्षणिक मनुष्य केवल इन्द्रिय-जन्य संवेदनाओं को ही है। प्रनित्य की उपासना करने वाला शाश्वत की अपना लक्ष्य नहीं मानता। उसका परम लक्ष्य प्राप्ति कैसे कर सकता है ? अतः देहात्मवाद या पान्तरिक संतोष है । सुखवादी विचारकों ने इन्द्रिय- सुखवाद के स्वीकर्तामों को पुनः महावीर की यह जन्य संवेदनाओं व प्रात्मतोष में एकत्व स्थापित कर अनुभूत वाणी चिन्तन की प्रेरणा से देती हैबहुत बड़ी भ्रान्ति पैदा की है। दोनों की भूमिकाएं पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्म विद्धसणधम्म अधुवं भिन्न-भिन्न हैं।
अनितियं प्रसासयं चयावचइयं विपरिणामधम्म प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप देहातीत है, जबकि पासइ एयं रूवं ।'
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर इस भू पर पुनः पाना पड़ेगा हास्य कवि- हजारीलाल जैन 'काका' पो० सकरार जिला झांसी
बढ़ रही दिन दिन समस्यायें अनोखी, नाथ इन पर ध्यान फिर लाना पड़ेगा, निबल जीवों की कराहें कह रही हैं, वीर इस भू पर पुनः आना पड़ेगा,
साधना, अब सुप्त होती जा रही है, वासना, सुरसा बनी मुह वा रही है, कर रही साम्राज्य हर मन पर कुटिलता
स्वार्थ की हर द्वार से बू आ रही है, इसलिये इन स्वार्थियों को सबक देने वीर इस भू पर पुनः आना पड़ेगा, निबल जीवों की कराहें कह रही हैं नाथ हम पर ध्यान फिर लाना पड़ेगा,
रो रहा अतर मगर मुंह पर हंसी है, हर अधर को चूमती अब बेबसी है, लालसा ने सत्य का सर छेद डाला
नाव संयम की भंवर में आ फंसी है, इसलिये संसार सागर से तिराने वीर इस भू पर पुनः आना पड़ेगा, नबल जीवों की कराहें कह रही हैं नाथ हम पर ध्यान फिर लाना पड़ेगा,
आज मानव अणु बमों पर जी रहा है, मृत्यु की पोशाक खुद ही सी रहा है, त्याग कर आध्यात्म का अमृत अनोखा
विष भरे विज्ञान का विष पी रहा है, इसलिये 'काका' दिशा का बोध देने वीर इस भू पर पुनः आना पड़ेगा, निबल जीवों की कराहें कह रही हैं नाथ हम पर ध्यान फिर लाना पड़ेगा,
इसलिये 'काका' दिश
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
रेडियो फीचर
तीर्थकर
डॉ. नरेन्द्रभानावत पात्र परिचयवाचक-पुरुष-स्वर : वाचिका-स्त्री-स्वर । (समवेत स्वर में तीर्थकर स्तुति)
लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे ।
प्ररिहन्ते कितइस्सं, चउवीसपि केवली । वाचक-लोक में उद्योत करने वाले, धर्म तीर्थ के प्रवर्तक, 'राग-द्वेष के विजेता और कर्म शत्रु के
नाशक इन महापुरुषों की स्तुति कर कौन कृतकृत्य नहीं होता ? (स्तुति का पाठ स्वर)
चन्देसु निम्मलयरा प्राइच्चेसु अहियं पयासयरा ।
सागर वर गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसन्तु ।। वाचिका-चन्द्र से भी अधिक निर्मल, सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और समुद्र से भी पधिक गम्भीर
___ ये महापुरुष सबके वन्दनीय हैं।
वाचक-- संसार समुद्र में द्वीप के समान शरणागत के प्राधार, स्वयं प्रतियोष पाकर दूसरों को ,
__ प्रतिबोध देने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ये महापुरुष तीर्थ कर ही हैं। वाचिका-तीर्थ कर ? (पाश्चर्य से) कौन होते हैं ये तीर्थकर ? वाचक-अपने पूर्व भव में विशिष्ट साधना से तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति बांधने वॉल, धर्मचक्र .. प्रवर्तन के लिए तीर्थ की स्थापना करने वाले, ये तीर्थकर प्रसाधारण महापुरुष
होते हैं। वाधिका-तीर्थ के संस्थापक तीर्थकर होते हैं, यह तो शाब्दिक अर्थ की ऊपरी बात हुई । सच्चे प्रयो
.. में तीर्थ' किसे कहते हैं ? वाचक-तीर्थ वह साधन है जिसको पाकर भव्य जीव संसार-समुद्र से पार उतरते हैं । साधु,
साध्वी, श्रावक और श्राविका ये चार तीर्थ माने गये हैं। तीर्थकर इस प्रकार के चतुर्विध " संघ की स्थापना कर धर्म प्रवर्तन का कार्य करते हैं। वाचिका–जो लोग विभिन्न तीर्थों की यात्रा करते हैं, उन तीर्थों का इन तीर्थंकरों से कोई सम्बन्ध
भी है ?
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-18
वाचक-क्यों नहीं ? जिन-जिन स्थानों पर तीर्थंकरों के परण पड़ते हैं, जहां-जहां तीर्थंकर के पंच
कल्याणक होते हैं, वे सभी स्थान कालान्तर में पूजनीय बन जाते हैं, सम्मेदशिखर, गिरनार
पालीतारणा प्रादि ऐसे तीर्थस्थान हैं। वाचिका-तीर्थकर स्वयं कल्याणकारी होते हैं, वे प्रात्म-कल्याण भी करते हैं पोर लोक कल्याण
भी, फिर उनका कल्याणक महोत्सवों से क्या सम्बन्ध ? वाचक-कल्याणक महोत्सव उनकी विशिष्ट शक्ति और गरिमा के प्रतीक हैं । जब तीर्थकर गर्भ
माते हैं, उनकी माता को विशेष प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं, रत्नों की वर्षा होती है और इन्द्रादि मिलकर उत्सव मनाते हैं। जन्म होने पर इन्द्र का मासन कांप ... उठता है, देवतामों के यहां स्वयंमेव घंटे बजने लगते हैं।
(घण्टों की ध्वनि) मेरू पर्वत पर ले जाकर उनका अभिषेक किया जाता है। विश्व में सर्वत्र शांति छा जाती है । नारकी जीव भी क्षण भर के लिये यातनामों से मुक्त हो जाते हैं । इन्द्र सात बार प्रदक्षिणा कर उनकी स्तुति करता है
नमोत्थणं. मरिहन्ताणं. भगवन्ताणं, माइगराणं, तित्थयराणं, संयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाण, पुरिसवरपुंडरी
पाणं, नमों जिणाणं, बिअमयाणं । पाचिका-जन्म के समय तीर्थकर साधारण बालक की तरह ही होते हैं फिर उनके लिये इतना
अलौकिक प्रदर्शन ? .. वाचक-यह प्रदर्शन नहीं, उनके विशिष्ट गुणों और अतिशयों के प्रति लोक श्रद्धा और आत्मोल्लास
का प्रकटीकरण है । तीर्थकर जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारक होते हैं । उनका शरीर स्वस्थ एवं बलिष्ठ होता है। वे जब सांस लेते हैं तब कमल की
गन्ध माती है। वाचिका-इससे लगता है वे जन्म से ही असाधारण होते हैं । वाचक-पूर्व जन्म के पुण्योदय से उनमें असाधारण क्षमता तो होती ही है, पर वे क्षत्रिय वंश में
उत्पन्न होते हैं जिनका उत्तरदायित्व क्षतों का त्राण करना होता है । वैभव विलास के . सभा उपकरण उन्हें सुलभ होते हैं फिर भी सांसारिक सुखों के प्रति उनका कोई माकर्षण
नहीं होता. वे विवाह भी करते हैं पर निर्जेद का कारण उपस्थित होते ही प्रवज्या अंगीकृत
कर लेते हैं। वाधिका-विवाह ! पत्नी के प्यार को ठुकराकर उसकी सुनहरी कल्पनामों पर तुषारापात करना
कितना जघन्य अपराध है ? जो अपने परिवार को पूरी तरह नहीं अपना सकते वे संसार
को क्या अपना बनायेंगे? पाचक-तीर्थकर की दृष्टि बड़ी उदार और व्यापक होती है । वे सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार
समझते हैं । उनका हृदय संवेदनशील होता है, वे दूसरों के दुख को अपना बनाकर उसे .. दूर करने का सतत प्रयत्न करते हैं । प्रवज्या उन्हें अपने स्वार्थ के घेरे से बाहर निकालकर
परमार्थ की मोर उन्मुख करती है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
५-19
बाधिका-इस नैराग्य भावना का कोई बाह्य कारण भी होता है ? पाचक होता है, पर बाह्य कारण जीवन को तभी बदल सकता है जब उसमें पहले के संस्कार
विद्यमान हों । प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने राज्य-दरबार में नीलांजना अप्सरा को नाचते हुए देखा (नृत्य की आवाज) और देखा कि नाचते-नाचते ही वह इस नश्वर संसार को छोड़ चली गई हैं। (मृत्यु का सन्नाटा) इस क्षणभंगुरता के बोध से ऋषभ का चिंतनोप्रवाह गैराग्य की मोर अभिमुख हुना। दूल्हे के वेश में सजे बाइसने तीर्थंकर नेमिनाथ ने तोरण द्वार पर दीन पशु-पक्षियों की करुण कातर पुकार सुनी ।
(कातर ध्वनि) विवाह के प्रीतिभोज के लिए उन निरीह पशुओं की हिंसा का यह करुण दृश्य उनसे न
देखा गया और वे बारात लेकर उल्टे पांव लौट पड़े। बाचिका-तीर्थकर क्या एक से अधिक भी होते हैं ? । वाचक-प्रागमिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक युग में 24 तीर्थकर होते हैं। वर्तमान युग के 24
तीर्थकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं और अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी । पाचिका-ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर और युगादिदेव क्यों माना गया है ? वाचक-इसलिये कि उन्होंने गृहस्थावस्था में मानव सभ्यता का सूत्रपात किया। पेड़-पौधों पर
बसर करने वाले लोगों को पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाकर कृषि कर्म करना सिखाया। मार मोर लिपि का बोध करा कर प्रात्मा की अनन्त ज्ञान शक्ति का परिचय दिया, मन्याय भौर मत्याचार के खिलाफ लड़ना सिखाया। अन्धकार में भटकती हुई मानवता को तीयं की स्थापना कर धर्म का प्रकाश दिया। इसीलिए वे मादिनाथ बन्दनीय पूजनीय हैं, हैं, स्तुति करने योग्य हैं । (स्तुति-पाठ) ...
भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा
वालंबनं भवजले पततां । जनानाम् वाधिका-ऋषभ पौर महावीर के बीच जो बाईस तीर्थकर हो गये हैं उनकी कोई विशिष्ठ
पहचान भी है ? बाचक-मात्म-गुणों की दृष्टि से सभी तीर्थकर समान होते, सभी तीर्थ की स्थापना कर धर्म का
प्रचार करते हैं । हां प्रत्येक तीर्थकर अपने विशिष्टि चिह्न से पहचाना जाता है । ऋषभदेव की मां मरुदेवी ने प्रथम स्वप्न वृषभ का देखा, बालक ऋषभ के वक्षस्थल पर भी वृषभ का ही लांछन था, इसीलिये वृषभ उनका चिह न मान लिया गया। भगवान् महावीर अपने किसी भव में सिंह थे । सिंह की तरह अधर्म और अनाचार के विरुद्ध दहाड़ने के
कारण सिंह ही उनका चिह न मान लिया गया। प्रत्येक तीर्थकर का अपना अलग-अलग ..... चिहान है।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-20
वाचिका-यह तो पहचान का बाह्य लक्षण है । वाचक-पहचान का प्रान्तरिक लक्षण तो यही है कि सभी तीर्थंकर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान,
अनन्त शक्ति और अनन्त सुख के धनी होते हैं। हां, बीच के बाईस तीर्थंकर चार महाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा करते हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का उपदेश देते हैं । उनके साधु सरल-स्वभावी और बुद्धिमान होते हैं। इसके विपरीत प्रथम और अन्तिम तीर्थकर पांच महावत रूप धर्म की देशना करते हैं; वे ब्रह्मचर्य व्रत की अलग से महत्ता प्रतिपादित करते हैं। क्योंकि पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु जड़ होने के कारण तत्व को पूरी तरह हृदयंगम नहीं कर पाते हैं और अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होने के कारण धर्मानुरूप माचरण नहीं कर पाते हैं। इसीलिए वर्द्धमान महावीर ने 23 वें तीर्थंकर
पार्श्वनाथ के चार व्रतों के स्थान पर पांच व्रतों की प्रतिष्ठा की। वाचिका-महावीर को वर्धमान क्यों कहा जाता है ?
वाचक-महावीर का जन्म नाम वर्धमान ही है। जब ये माता के गर्भ में आये तब चारों ओर .. सुख-समृद्धि की वृद्धि हुई । इनके जन्म लेते ही परिवार में अनन्त वैभव बढ़ा । इन्हीं लक्षणों
के आधार पर ज्योतिषियों ने इनका नाम वर्धमान रखा। पाचिका-तो फिर महावीर नाम से ये लोक प्रसिद्ध क्यों हुए ? बाचक-इस नाम का सम्बन्ध उनकी बचपन की एक घटना से है। एक बार ये अपने समवयस्क
बालकों के साथ एक उद्यान में खेल रहे थे। अचानक एक भयंकर सांप पाया। सारे बालक साथी उसे देखकर डर गये। इधर-उधर भाग निकले पर वर्धमान तनिक भी
विचलित न हुए। वे निर्भय होकर खिलौने की भांति उससे खेलने लगे । इसी घटना के - कारण वे लोक में वीर अथवा महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए। साधना काल में इन्होंने सम
भाव पूर्वक कठोर उपसर्ग सहन किये इस कारण भी ये महावीर कहे गये । याचिका- क्या इनके पौर भी नाम हैं ? वाचक यों तो इनके अनेक नाम हैं, पर एक प्रसिद्ध नाम सन्मति भी है। इस नाम का
सम्बन्ध भी उनकी बालपन की एक घटना से है। एक बार संजय और विजय नाम के दो महर्षियों को सूक्ष्म पदार्थों में कुछ शंकायें उत्पन्न हुई। वे कुमार वर्द्ध मान के पास प्राये और उन्हें देखते ही उनकी शंकाओं का समाधान हो गया। उसी दिन से लोग उन्हें सन्मति
कहने लगे। वाचिका-और ज्ञान प्राप्ति के लिए उन्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ी ? वाचक-उन्हें कठोर साधना करनी पड़ी। तीस वर्ष की भरी जवानी में राजसी वैभव को लात
मार कर वे बीक्षित हुए । दीक्षा लेने के बाद साढ़े बारह वर्षों तक भयानक जंगलों में घूमे, भूखे रहे, प्यासे रहे, कभी माराम की नींद न ली। सर्दी, गर्मी और वर्षा के उपसर्ग भी
उन्होंने समभाव पूर्वक सहन किये। माधिका-वे थे तो बड़े सेजस्वी, उनकी किसी ने सहायता नहीं की ? वाचक-वे किसी की सहायता पर निर्भर नहीं थे । पूर्ण पुरुषार्थी थे । अपने ध्यान में निरन्तर लीन
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
. 1-21
रहा करते थे । एक ग्वाले ने अपने बैलों को न पाकर उन्हें चोर और धूर्त समझाइसके
कानो में कीले ठोके, पर वे सब सहन करते रहे । वाचिका-जन्मादि उत्सव मनाने वाले इन्द्रादि देव उस समय कहां चले गये थे। वाचक-वे महावीर को सहायता देने के लिए आये थे, पर महावीर ने उनकी सहायता लेने से
स्पष्ट इन्कार कर दिया। वे अकेले ही अपने कर्म रूपी शत्रुओं से मुकाबला करते रहे । उनको तप से डिगाने के लिए कठोर यंत्रणायें दी गई पर वे अपनी साधना से किंचित भी
विचलित न हुए। वाचिो -चण्डकौशिक सर्प को भी उन्होंने वश में किया था। वाचक--वश में ही नहीं किया, उसके सम्पूर्ण जीवन क्रम को बदल दिया। वह अपनी विष दृष्टि
छोड़ उनके चरणों में लेट गया। उनके तेज के मागे अपने विष को प्रभाव रहित जानकर
उन्हीं के चरणों में क्षमा की मूर्ति बन गया। वाचिका-साँप जैसे विषैले प्राणी को प्रात्मबोध देने वाले महावीर धन्य हैं। वाचक्र—उन्होंने विषले जीव-जन्तुमों को ही बोध नहीं दिया । अपनी उग्र तपस्या और कठोर
साधना के फलस्वरूप आत्मा की सम्पूर्ण कालिमानों को धोकर ज्ञान के दिव्य प्रकाश को प्राप्त किया। उन्हें केवलज्ञान हुआ, वे सब कुछ जानने और सब कुछ देखने लगे।
देवताओं ने मिलकर ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया और समवशरण की रचना की । याचिका-समवसरण किसे कहते हैं ? वाचक-जीर्थंकर जहां उपस्थित होकर अपनी धर्म देशना करते हैं, उस स्थान को समवसरण
कहते हैं । इस सभा में सभी जाति और वर्ग के लोग, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या धनी,
क्या निर्धन, बिना रोक टोक के अबाध रूप से प्रवचन सुनने के लिए पाया करते हैं। वाचिका-तीर्थंकर की देशना एवं प्रवचन किस भाषा में होते हैं ? वाचक-लोक भाषा में । महावीर ने अपनी देशना अर्द्ध मागधी में दी जो कि तत्कालीन लोक
भाषा का एक प्रकार है। वाचिका-उन्होंने लोक कल्याण के लिए क्या व्यवस्था दी ? वाचक-उन्होंने कहा-समी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । इसीलिए तुम अपने
पापको जितना प्यार करना चाहते हो, उतना ही प्यार दूसरे जीवों को करो। मावश्यकता से अधिक संग्रह मत करो । अधिक संग्रह करना दूसरों के हक को छीनना है ।
प्रप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाणय सुहाणय ।
अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पामे नन्दणं वणं ।। हम ही अपना निर्माण और विकास करने वाले हैं, ईश्वर नहीं । उनके उपदेश का सार संक्षेप में सर्व धर्म समभाव मोर सर्व जीव समभाव है।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
"-1-22
। वाचिका-मपमे और लोक के कल्याण के लिए धर्म की व्यवस्था देने वाले थे परिहन्त तीर्थङ्कर,
सिद्ध भगवान और मुनि-महात्मा प्राणीमात्र के लिए मंगलकारी हैं । लोक में उत्तम है पौर संसारी जीवों को शरण देने वाले हैं। उनके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम
णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, एमो पायरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । चत्तारि मंगलम्, परिहन्ता मंगलम्, सिद्धा मंगलम्, साहू मंगलम्, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलम
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
. भ० महावीर एक चरित्र या चारित्र
(श्री प्रवीणचन्द्र छाबड़ा, जयपुर) भ. महावीर के 2500 वें निर्वाण वर्ष में भ० महावीर के चरित्र को चर्चा इतनी अधिक हुई कि विद्वान् लोग उनके जीवन की छोटी से छोटी घटनाओं की खोज में लगे रहे। प्रायः यह महसूस किया गया कि महावीर के जीवन सम्बन्धी घटनामों का उल्लेख बहुत कम मिलता है जैसे उन्होंने कब विहार किया, किस समय कौन सी घटना उनके जीवन में घटित हुई मादि । माज हम भगवान को चरित्र के रूप में देखना ज्यादा चाहते हैं। हमारा सारा दृष्टिकोण नायक के साथ बनता पौर चलता है । महावीर चरित्र नायक बनें और हम उस चरित्र पर गाथाए लिखें। यह एक ऐसी भावना है जो निराकार को साकार बनाती है।
जैन-दर्शन, संस्कृति मोर मान्यता में भ० भादिनाथ से लेकर महावीर तक का एक ही स्वरूप और भाव है। यदि चिह्न हटा दिये जावें तो मूर्तियों में भी भेद करना संभव नहीं है। महावीर ने अपने जीवन की घटनाओं को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका सम्बन्ध शरीर के साथ पा मोर उनके लिए शरीर साधन था साध्य नहीं। अतः शरीर के साथ सम्बन्ध रखने वाला चरित्र महत्वहीन होकर रह गया। वे चरित्र न रहकर चारित्र हो गए। चरित्र का कोई रूप संस्कार या मोकार नहीं होता, वह घटना प्रधान भी नहीं होता, वह कभी नायक नहीं हो सकता । प्रत्येक चरित्र में चारित्र हो ही यह आवश्यक नहीं है। चरित्र तो शरीर का गुण है और महावीर गुणातीत थे। इसी कारण चरित्र के साथ चलने वाली सब विशिष्ट अथवा अविशिष्ट घटनाएं शरीर के साथ महत्वहीन होकर रह गई।
___ महावीर को चरित्र में देखा भी नहीं जा सकता। वे यदि घटना प्रधान होते तो मात्र चरित्रनायक होकर रह जाते। उन्होंने कर्मों का संवरण किया, उनका निर्जरा की फिर कर्मों से सम्बन्धित घटनामों का महत्व कहा ? इतिहासकार चाहे महावीर को चरित्र बनाने का कितना ही प्रयत्न करें, पर, महावीर का इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं। उनके बचपन से लेकर अन्त तक क्या घटनाएं घटी वे कभी महावीर के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहीं। हम जो पकड़ में विश्वास रखते हैं, अवश्य ही महावीर को पकड़े रखना चाहते हैं। उनके चरित्र पर ऊहापोह करके अपने को धन्य भी मानते हैं, पर चारित्र शरीर अथवा कर्मों से सम्बन्धित घटनामों को कभी मान्यता, महत्व नहीं दे सकता।
. जीवन की घटनाएं मात्र अवसर है, संयोग है । लेकिन महावीर अवसर या संयोग नहीं थे। उनको घटनाओं में देखना, जानना उनको समझने में कठिनाई पैदा करेगा। जैन संस्कृति और परम्परा घटनामों से सत्य को नहीं प्रांकती । घटनाओं में सत्य छिप जाता है । महावीर को स्वयं दर्शन थे, ज्ञान थे, चारित्र थे। महावीर की मुक्ति में कारण उनका चरित्र नहीं चारित्र था, रत्नत्रय था। उनके साथ कोई लीला नहीं थी और न लीलामय होकर चलना उन्हें स्वीकार ही था । वे चरित्रमय नहीं चारित्रमय थे। इस तथ्य को समझ कर ही हम वास्तविक महावीर को समझ सकते हैं।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक दृष्टि भरपूर -श्री तारादत्त "निर्विरोध"
ब्रह्मचर्य ने बांधा मन को, जैसे सत्य और संयम ने हर क्षरण बांध दिया जीवन को।
आत्मलीन होने के सुख ने किया दुखों से मुक्त, जीवन के हर बोझिल क्षरण को
किया गुणों से युक्त; सच ने बांध दिया वर्शन को और शब्द ने हर चिन्तन को, .. जैसे पवन-दिशा औ' नभ ने बांध दिया एकांत विजन को !
ब्रह्मचर्य है देह - साधना भोग भाव से दूर, भरी सृष्टि में जहाँ रिक्तता
एक दृष्टि भरपूर ऐसे बाँधा वेह-दहन को ब्रह्म और मानव के मन को, जैसे गंध बाँध देती है सुमन-सुमन से एक चमन को।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Education International
राजस्थान के वित्तमन्त्री श्री चन्दनमल वंद महावीर निर्वागोत्सव सन् १९७४ पर प्रायोजित सभा में भाषण देते हुए ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्य बनाम महावीर : महावीर बनाम
सत्य
भगवान महावीर ने कहा--- 'सच्च लोयम्मि सारभूयं"-सत्य लोक में सारभूत है । इसलिए"सच्चमेव समभिजाणाहि"-तुम सत्य का आचरण करो। उक्त सूत्र सदर्भो में सत्य की केवल शब्दात्मा ही नहीं, अपितु भावात्मा परिलक्षित होती है। मानवीय स्वभाव की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि वह शब्द के ऊपरी धरातल पर सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न करता है किन्तु उसकी भावना के सतह पर उसे पाने का प्रयत्न नहीं करता । शब्दात्मा में बहिरंगता होती है और भावात्मा में अंतरंगता होती है । सत्य बहिरंग नहीं होता । वह अंतरंग होता है, अतः उसकी उपलब्धि भी अंतरंग में प्रवेश से होगी। अंतरंग में प्रवेश । करने के लिए बहिरंग का विसर्जन करना होगा पौर अपने अन्दर उतरना होगा जो जितना गहरा अपने अन्दर उतरेगा, वह उतना ही अधिक प्राप्त करेगा।
शब्द मोर सत्य-ये दो भिन्न-भिन्न कोण हैं। शब्द कभी सत्य नहीं होता और सत्य कभी शब्द नहीं होता। क्योंकि शब्द जड़ है और सत्य चेतना का धर्म है। चेतना का धर्म कभी जड़ नहीं होता पौर जड़ कभी चेतना का धर्म नहीं होता । जीवन की यथार्थता कभी जड़ता में प्रतिबिम्बित नहीं होती। वह चेतना के दर्पण में ही प्रतिविम्बित हो सकती है। महावीर ने हमें चेतना का दर्शन दिया। उन्होंने अन्तरंग में प्रवेश कर सत्य की उपलब्धि के लिए चेतना का प्रकाश दिया। महावीर का समग्र जीवन दर्शन चेतनामय था। उसमें जड़ता का कोई अस्तित्व नहीं था किन्तु इसे नियति का क्रूर व्यंग ही कहना चाहिए कि महावीर जितने अधिक चेतनामय थे, उनके अनुयायी और
साध्वी श्री कस्तूरांजी (लाडनूं)
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-26
भक्त उतने ही अधिक चेतना से दूर हैं। यही की अपेक्षा होती है, पर सत्य बाहर की चीज नहीं कारण है कि महावीर के अनुयायी महावीर की है जो मांगनी पड़े। सत्य पराई वस्तु नहीं है जो भाषा से दूर हैं, महावीर की भक्ति से दूर है, और उधार लेनी पड़े। सत्य के लिए किसी पर प्रव. महावीर की भावना से दूर हैं। वे शब्द के संसार लम्वित होने की प्रावश्यकता नहीं है। सत्य के में ही सत्य के संधान का प्रयत्न करते हैं। वे लिए किसी बाह्य उपकरण की अपेक्षा भी नहीं है मन्तरंग में प्रवेश किए बिना ही अन्तःकरण को क्योंकि सत्य अपना होता है। उसमें स्व-भाव होता पाना चाहते हैं। वे जड़ता में जकड़े हुए ही चेतना है, पर-साव नहीं, अतः सत्य को न किसी से मांगना को अनुभूति चाहते हैं।
है, न किसी से उधार लेना है, न किसी से सीखना चेतना के परिपावं में पुरुषार्थ को प्रधा- है और न किसी से पढ़ना है। उसे तो केवल नता होती है। पुरुषार्थ प्राणी के कर्तत्व खोजना है । खोजने के लिए हमें अन्तरंग की गहके लिए चुनौती होता है। उस चुनौती को
र राई में उतरना होगा। स्वीकार करने वाला महावीर नहीं तो. वीर सत्य जब भी मिला है, अन्तरंग की गहराईयों अवश्य होगा। महावीर ने चेतना को प्रबुद्ध में मिला है। आम तौर से आदमी बाहर ही करने के लिए पुरुषार्थ का प्रावधान प्रस्तुत किया। खोजता रहता है और बाहर खोजते-खोजते वह पुरुषार्थ शब्द-प्रपंच से मुक्त होता है। पुरुषार्थी में स्वयं सम प्त हो जाता है, पर सत्य की प्राप्ति उसे बहिरंग भाव नहीं होता । पुरुषार्थी पर कभी जड़ता नहीं हो पाती । प्राप्ति हो भी कैसे ? जो चीज हावी नहीं होती। वह सत्य को बड़ी सहजता से अन्दर है, वह बाहर कैसे मिलेगी ? प्रतः जो पा लेता है क्योंकि सत्य किसी से मांगने से नहीं जितना गहराई में उतरेगा, वह उतना ही अधिक मिलता। सत्य किसी से उधार नहीं लिया जाता। सत्य को पा सकेगा और जो जितना अधिक सत्य सत्य किसी से सीखा नहीं जाता और सत्य किसी को पाएगा वह उतना ही अधिक महावीर को पा से पढ़कर जाना भी नहीं जाता। मांगने से बाहर सकेगा क्योंकि महावीर मोर सत्य एक ही प्रर्थ को की चीज ही मिल सकती है । उधार भी वही चीज अभिव्यक्त करने वाले दो पर्यायवाची शब्द है। मिलती है, जो अपनी नहीं होती। सीखने के लिए इसलिए सत्य को पाने का अर्थ महावीर को पाना भी किसी अन्य पर प्रवलम्बित होना पड़ता है और है और महावीर को पाने का अर्थ सत्य को पढ़कर जानने के लिए भी किसी बाह्य उपकरण पाना है ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
की
अन्तःक्रान्ति
भगवान महावीर अध्यात्म पुरुष थे । उनका सम्पूर्ण जीवन अध्यात्म से अोतप्रोत था। उनकी हर क्रिया अध्यात्म की परिणति थी। उनका मौन अध्यात्म के लिए था और उनका संभाषण भी अध्यात्म के लिए । स्वाध्याय और ध्यान, गमनयोग और स्थिरयोग सर्वत्र अध्यात्मक की प्रतिध्वनि थी।
आध्यात्मिकता का प्रासाद वास्तविकता की नींव पर खड़ा है। वास्तविकता का बिन्दु व्यक्ति है समाज नहीं । बूद यथार्थ है सागर कल्पित है । अरणु यथार्थ है स्कन्ध कल्पित है। रजकरण यथार्थ है पहाड़ कल्पित है। ब'द सागर को नकार सकती है सागर बूद को नहीं, अणु स्कन्ध को नकार सकता है, स्कन्ध अणु को नहीं। रजकण पहाड़ को नकार सकता है, पहाड़ रजकण को नहीं। सागर के प्रभाव में बूद, स्कन्ध के प्रभाव में अणु और पहाड़ के अभाव में रजकरण पूर्णतया सुरक्षित है । बूद के गुण सागर में, अण के गुण स्कन्ध में और रजकरण के गुण पहाड़ में प्रतिबिम्बित है । समाज व्यक्ति की प्रक्रिया है। व्यक्ति का निर्माण समाज का निर्माण है। व्यक्ति की क्रान्ति समाज की क्रान्ति है। व्यक्ति स्वनिष्ठ और समाज व्यक्ति निष्ठ है।
भगवान महावीर का दर्शन स्व का दर्शन है। भगवान महावीर का धर्म न इहलोक का धर्म है न परलोक का, वह प्रात्म धर्म है । भगवान महावीर का तप न इहलोक का तप है न परलोक का तप है वह स्व का तप है, प्रात्मा का तप है। भगवान महावीर ने बारह वर्ष तक कठोर साधना की। उनकी साधना का केन्द्र अध्यात्म था और परिधि भी प्राध्यात्ममयी थी। साधना काल में भीतर से
तब्बी श्री. संघमित्राजो...
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-28
अध्यात्म स्वर गूजा-"संसार चक्र व्यूह है । राग- बनाने योग्य मानता है वह स्वयं तू ही है। दूसरे द्वषमयी जजीर है । इसके माध्यम से प्रात्मा का शोषण करना अपना ही शोषण है, दूसरे के ने अपने को संसार से बांधा है । यह संसार मास्मा अधिकारों को छीनना अपने ही अधिकारों को की ही पकड़ है । परिग्रह पदार्थों में नहीं भीतर में छीनना है । दूसरों से घृणा करना अपने को घणाहै । भीतर के ममत्व ने ही पदार्थ को पकड़ा है। स्पद बनाना है। दूसरे को हीन समझना अपने को यह पकड़ ही परिग्रह है। देह पोर प्रात्मा दोनों ही हीन घोषित करना है। भिन्न तत्व हैं। देह जड़ है, प्रात्मा ज्योतिर्मय है। तू ही अपना रक्षक है, तू ही अपना मित्र मात्मा अनंत प्रानंद का स्रोत है। मैं देह नहीं है।' धन और बैभव से त्राण पाने की कल्पना प्रात्मा हैं। मोह के सघन प्रावरण ने मात्मा के निरर्थक है। जो लक्ष्मी पर प्रासक्त है उसके न प्रानन्द को रोका है। अज्ञान के अभ्रपटल ने तप है, न संयम है, न नियम है, न धर्म है । मात्म ज्ञान को आच्छादित किया है । साधना का व्यक्ति की महत्ता धन में नहीं, अध्यात्म गुणों लक्ष्य स्व को पाना है और प्रात्मा को जगाना है।" के जागरण में है।
- महावीर की इस विशद भावधारा में वेग प्रत्येक प्रात्मा अनंत शक्ति सम्पन्न है। हर बड़ा । वे क्षपक श्रेणी पर प्रारूढ़ हुए । क्रान्ति का प्रात्मा में परमात्म स्वरूप छुपा है और हर इन्सान लावा फूटपड़ा, संसार की पकड़ ढीली हो गई। में भगवान बनने की क्षमता निहित है। राग द्वेष की जंजीर टूट गई। शास्त्रीय भाषा में भगवान महावीर के ये सशक्त स्वर मानवयह मोह मुक्ति थी। साहित्यिक भाषा में यह अन्तः- मानव के हृदय को छू गये। उनकी सन्देशधारा से क्रान्ति थी।
समाज का सारा वातावरण अन्दोलित हो उठा। ... अन्तः क्रान्ति की दिव्य किरण परिपूर्णता में मुक्त प्रात्मा में अनंत शक्ति है । कर्म युक्त । प्रकट हुई। विभक्त चेतना पूर्णता का प्रतिबिम्ब अवस्था से मुक्त होते समय जो अनंत शक्ति का है । चेतना के पूर्ण प्रभ्युदय में खण्डित चेतना की अनावरण होता है उसकी लहरें समग्र वातावरण विषम लहरें विलीन हो गई । भव भगवान महावीर में तरंगित होती हैं । अणु बम के विस्फोट पर की विशद और सर्वव्यापी आत्मानुभूति के दर्पण में भयंकर विनाशक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है और वह कोई छोटा नहीं था। कोई बड़ा नहीं था। कोई लम्बे समय तक चलती है। उससे अनंत गुणी दास नहीं था। नर और नारी के अध्यात्म अधि- सृजनात्मक प्रक्रिया तीर्थकर त्व को प्राप्त प्रात्मा की कार में कोई भेद नहीं था। पर स्व से विभक्त नहीं अध्यात्म ऊर्जा से घटित होती है । भगवान महावीर था। सब समान रूप से उसके ज्ञान दर्पण में प्रति- द्वारा संघटित अन्तः क्रान्ति की निष्पत्ति तीर्थकरत्व विम्बित हो रहे थे।
की उपलब्धि थी। इस महान प्रध्यात्म उपलब्धि . अध्यात्म की यह प्रबल अनुभूति स्वरों का रूप के साथ निर्मल ऊर्मा की किरणें चारों दिशामों में लेकर उभरी। मानव को संबोधित करते हुए विकीर्ण हुई। उससे समाज में नये प्रभात का भगवान महावीर ने कहा-"मानव तू सब को उदय हुआ। मात्म तुला से तोला । अध्यात्म के महा साम्राज्य भगवान महावीर के क्रांत स्वरों ने व्यक्तिमें कोई हीन और कोई अतिरिक्त नहीं है ।। तू व्यक्ति को झकझोरा । नारी जो उस युग में दासौ जितको हनन के योग्य मानता है, तू जिनको अनु. बनकर जी रही थी। उसके भाग्याकाश पर नाना शासन में रखने के योग्य मानता है, तू जिनको प्रकार के अभिशापों की काली छाया मंडरा रही परिताप देने योग्य मानता है, तू जिनको दास थी, वह मात्र भोग की वस्तु समझी जाती थी।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
01-20
वस्तु की तरह उसका विनिमय होने लगा था। उपासकों में से थे। राजनैतिक और धार्मिक-सभी प्रकार के उचित, भगवान महावीर के समता धर्म के संदेश से अधिकारों से वह वंचिता थी। उसमें भी स्वातन्त्र जातिवाद की जड़ें खोखनाई। जो अपने को जन्म का भाव जगा । चन्दनवाला, मृगावती और जयन्ति से ही हीन और दीन मानते थे, जो दासत्व को प्रादि भनेक नारियाँ राज्य वैभव को ठुकरा कर प्राप्त थे और जिनको छू लेना भी पाप था। ऐसे साधना के पथ पर बढ़ चली। छत्तीस हजार हीन दीन व्यक्तियों में भी नई चेतना की लहर साध्वियों पर सफल नेतृत्व कर साध्वी शिरोमणि दौड़ी। दर्ण भेद व वर्ग भेद की दीवारें टूटने चन्दनवाला ने नारी समाज का माल ऊंचा किया। लगी। एक अोर 44.0शिष्यों के परिवार सहित १३. धनाबीश न्यक्तियों की परिग्रह के प्रति आसक्ति इन्द्रभूति गौतम प्रादि ग्यारह ब्राह्मण विद्वानों ने, की ग्रन्थि ढीली होने लगी। बारह करोड़ स्वर्ण शालिभद्र धन्नजी अ दि श्री सम्पन्न श्रेष्ठीजनों ने मुद्राओं का स्वामी चार समुद्री जहाजों का अधि- श्रमण संघ का अनुगमन किया दूसरी ओर एक कारी तथा चालीस हजार गायों का प्रतिपालक दिन में सात प्राणियों की हत्या कर देने वाले माली कृषिकार 'प्रानन्द' अपने विशाल परिग्रह की सीमा अर्जुन को तथा चंडालकुलोत्पन्न हरिकेशी को निर्धारण कर भगवान महावीर का व्रतधारी उपा- भी भगवान महावीर के धर्म संघ में प्रविष्ट होने सक बन गया। महावीर का व्रतधारी उपासक का अवसर मिला। सम्राट श्रेणिक के लिए संत किसी पर कार्य का प्रतिभार नहीं डाल मेघकुमार जितना वंदनीय था, संत हरिकेशी भी सकता। किसी का अतिशोषण नहीं कर सकता, सी प्रकार अर्चा के योग्य था। संत की भूमिका किसी का वृत्ति बिच्छेद नहीं कर सकता, किसी की पर हरिजन और महाजन, क्षत्रिय और ब्राह्मण धरोहर को नकार नहीं सकता, किसी को धोखा सब समान रूप से वंद्य थे। नहीं दे सकता। और किसी भी प्राणी की निष्प्र- भगवान महावीर के उपदेशों से समाज को, योजन हिंसा नहीं कर सकता। भगवान महावीर तसवीर बहुत शानदार ढंग से उभरी। जन के संघ में आनंद जैसे ही कामदेव आदि दस व्रत. सामन्य ने समझा यह बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति धारी प्रमुख श्रमणोपासक थे।
राजा महाराजाओं ने भी जीवन जगत के यथार्थ की भूमिका पर तथ्य यह है कि भगवान रहस्यों को समझा। उनमें प्रात्मा के अमरत्व महावीर ने न कोई सामाजिक क्रांति की न राजप्राप्ति की प्यास जगो। त्याग के प्रति पाकर्षण नैतिक क्रांति को उन्होंने अन्त:क्रांति की। अपने बढ़ा। फलस्वरूप दशाणभद्र आदि पाठ प्रमुख स्व को जागृत किया। जन-जन के मानस में भी राजानों ने मेधकुमार, नन्दिसेन प्रादि राजकुमारों अन्तः क्रान्ति के स्फुलिंग छोड़े ! मोह माया के ने, विशाल राज परिवारों ने, मंत्रियों और सामंतों दुर्भेद्य किले को तोड़कर समता के महा साम्राज्य ने महाव्रतों की दीक्षा स्वीकार कर जीवन को में प्रवेश पाने की बात कही। भगवान महावीर पवित्र किया। सम्राट श्रेणिक, कौणिक (अजात- की यह अध्यात्म क्रान्ति थी। स्व क्रान्ति थी। शत्रु) वैशाली गणतंत्र का प्रमुख संचालक चेटक अन्तः क्रांति थी। सामाजिक क्रांति इस अन्तःक्रांति मोर महामेधावी मंत्री अभयकुमार उनके प्रमुख की एक सहचर घटना थी।
1. नो इहलोगट्टयाए प्रायार महिज्जा ।
नो परलोगट्टयाए मायार महिलैजा ।। दशवं 51417
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
*. 1-30
2. नो इहलोगट्ठाए तव महिढेज्जा । नो पइलोगट्ठाए तव महिलैजा ॥
दशर्व 91418 3. रागो य दो सोडवीय कम्मबीयं ।।
उत्त० 3207 4, एयं तुलमण्णेसि। -प्राचारांग-1171148 5. से मसई उच्चागोए, असईणीयागोए । गोहीणे, णोप्रहरिते, णो पीहए। इति संखाय के गोयावादी ? के मारणावादी? कसिना एगे निज्म ?
-प्राचारांग-203149 6. तुमंसि नाम सच्चेव ज 'हतव्वं' ति मन्त्रसि,
तुमंसि नाम सच्चेव जं 'अज्जावेयव्य' ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव ज 'परितावेयवं' ति मिन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव्वं' ति मनसि ।
-माचारा-5111101 7. पुरिसा ! तुममेव तुम मितं, कि बहिया मित्त मिच्छसि ?
-भाचारांग 311162 8. वित्तण ताणं न लभे पमत्तो, इमम्मि लोए प्रदुमा परस्था।
-उत्तराध्ययन-415 9. पारतं विरत्त मणिकुडलं सह हिरण्णेय, परिगिझ सत्थेवरत्ता। ण एत्थ तवो वा, दमो वा, ‘णियमो वा दिस्सति ।।
-माचारांग-211158159
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यान योगी महावीर
समस्त संसार के योगक्षेम कर्ताः 'भगवान् महावीर आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इस घरती पर अवतरित हुए। भगवान महावीर के मन में अपने मौलिक स्वरूप की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उनके मन में स्थूल शरीर के भीतर छिपे हुए परम तत्व को पाने की उत्कट आकांक्षा जगी मोर वे स्थूल प्रवृत्ति को छोड़कर सूक्ष्म की खोज में निरत
__ भूख, पराक्रम-हीनता, अज्ञान, प्रासक्ति भोर दुर्बलता ये पांच साधना के बहुत बड़े विघ्न हैं। इन पांचों पर विजय प्राप्त करके भगवान् महावीर ने अपनी साधना को और अधिक उद्दीप्त किया। साधना के प्रथम चरण में भगवान् ने सुधा पर विजय पाने का अभ्यास किया। दूसरे चरण में भय पौर निद्रा पर विजय पाने का प्रयत्न किया, तृतीय चरण में प्राण की सूक्ष्मता को पकड़ा, चतुर्थ चरण में सब पदार्थों से भिन्नता की अनुभूति प्राप्त कर प्रासक्ति पर विजय पाने का प्रयास किया। पांचवें चरण में साधना में आने वाले कष्टों पर विजय पाने का अभ्यास किया।
जैन मागमों में साधना के कई प्रकार बतलाये हैं। जैसे--तप साधना, ध्यान साधना, मौन साधना मादि। वहां पर तप के दो भेद बतलाये गये हैं-पान्तरिक तप और बाह्य तप । भपवान ने उपवास प्रादि तपस्या को बाह्य तप और ध्यान को आन्तरिक तप कहा है। किन्तु कालान्तर में ध्यान बाह य और अनशन प्रान्तरिक तप जैसा बन गया। ___ भगवान की साधना उपवास और ध्यान से समन्वित थी। उनका कोई भी उपवास ऐसा नहीं हुमा जिसमें ध्यान की प्रक्रिया न चली हो।
साध्वीश्री उषाकुमारीजी
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-32
उन्होंने 12 वर्ष और 13 पक्ष की लम्बी अवधि देवतामों के इन्द्र ने सभक्ति प्रणाम छिया तो के मुहूर्त भर नींद ली। उनका शेष अधिकांश पुलकित नहीं हुए और चण्डनाग के दंशन से समय ध्यान में बीता। 16 दिन तक वे सतत् माकुल । अतः उनकी वही विशुद्धि अनुभूति अजस्र ध्यानलीन रहे। इसलिए उनकी स्तुति में कहा वाग्धारा में फूट पड़ी। के भरई के पारणंदे' सुख गया है कि वे अनुत्तर ध्यान के प्राराधक थे। और दुःख क्या है ? कुछ भी नहीं केवल भ्रम उनका ध्यान शंख और इन्द की भांति परम शक्ल है, अपनी ही मनोकल्पना है। उनके इसी अनथा । अतः आत्मा के उत्क्रमण में उपवास को चिन्तन ने उन्हें प्राज्ञ बनाया और वही ध्यान अपेक्षा ध्यान की अत्यन्त उपादेयता है।
शुक्ल ध्यान में परिणत हुआ। और फिर उन्होंने - भगवान् ने शारीरिक तप वहत तपा। देवता कहा-साधक किसी भी साधना पथ को स्वीकार तियंच और मनुष्यों के द्वारा होने वाले लोमहर्षक करने से पहले अपने बल-स्थान, श्रद्धा और आरोग्य कष्ट सहन किये। लगातार 6 महीनों तक को देखे कहीं ऐसा न हो कि अविचारित प्रयत्न उपोषित रहे, इसके अतिरिक्त बेले, तेले की तपस्या को प्रसफलता से वह अकर्मण्य बन जाये और चलती रही। गर्मी और सर्दी को शान्तभाव से - पुरुषार्थ के प्रति निराशावान भी। झेला । लेकिन फिर भी अज्ञानपूर्वक कष्ट सहने भगवान महावीर प्रागन्तुक और स्वीकृति में उनका विश्वास नहीं था और न उन्होंने अज्ञान' दोनों प्रकार के कष्टों को साध्य सिद्धि के महान तप को साधना की कोटि में कभी परिगणित सूत्र समता से सहा। भगवान महावीर का प्रादि किया। बाह य और प्रान्तरिक तप का भेद मध्य और अन्त स्थितप्रज्ञता के प्रयास में वीता उन्होंने इस भाषा में समझाया कि सात लव का था। वे प्रतिक्षण जागरूक रहे, विपश्यना की विशिष्ट ध्यान दो दिन के उपवास के तुल्य होता अद्भुत शक्ति से उन्होंने अपने राग और द्वेष रूपी है । उपवास ध्यान की अपेक्षा सरल होते हैं। महान शत्र ओं पर विजय प्राप्त की। वे समता के प्राहार न करने से देह को कष्ट होता है। उस उद्गाता ही नहीं बल्कि उसकी अतल गहराइयों कष्ट को सहने वाले भी मन को स्थिर रखने में में उतरते ही रहे । “दुहनो छेतानियाई" वे दुविधा कठिनाई का अनुभव करते हैं।
(राग-द्वेष) को छोड़कर निर्वाण को प्राप्त महावीर की शान वाधना ने साधना पद्धति हुए। को नया जीवन दिया। उन्होंने अपने अनवरत माज हमें शुभ अवसर पर इस ध्यान साधना ध्यान के विविध साधनों में विविध प्रयोगों द्वारा पद्धति को समझना है और उपवासों की दीर्घ यह सिद्ध किया कि साधना पृष्ठभूमि एकमात्र परम्परा के साथ-साथ ध्यान को पुनाः महत्व देना सुदृढ़ मानसिक संरचना है जहाँ प्रतिकूल कष्टों है। जैन साधना का मार्ग समन्वय का मान है, से खिन्न नहीं हुए वहां मनोनुकूल स्थितियां भी सर्व सुलभ मार्ग है। इसे अपनाकार हमको अपने उन्हें किंचित भी विचलित नहीं कर सकीं। प्राप में स्थित होना है।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
CANALIFIER
भगवानमहानिर्वाणमहात्र
महावीर निर्वाणोत्सव के अवसर पर गत वर्ष आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक दृश्य ।
Jain Education Interational
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
क्षमता
[यह सारा पाख्यान श्वेताम्बर " परम्परानुसार है।
--पोल्याका]
श्रमण भगवान महावीर की क्षमता मेरू की सरह भडोल थी। संघर्षों के तूफान में भी उनकी साधना की लौ प्रखण्ड जलती रही ! किसी ने ठीक ही कहा हैचट्टानें हिल नहीं सकती, कभी प्रांधी के खतरों से ! कि शोले बुझ नहीं सकते,
कभी शबनम के कतरों से!! सचमुच भगवान महावीर की चर्या में घटना. स्मक परिषदों के अनेक संदर्भ बहुत ही रोमांचकारी रहे हैं ! उन सबका विवरण बहुत बड़े ग्रन्थ का रूप ले सकता है । अतः मैं सिर्फ संगम देवता द्वारा प्रदत्त कष्टों की झांकी प्रस्तुत कर रही है।
भगवान् महावीर पेढ़ाल गांव के समीपवर्ती पेढ़ाल उद्यान में पीलास नामक चैत्य में महा. प्रतिमा तप कर रहे थे। महावीर की उत्कृष्ट ध्यानविधि को देखकर इन्द्र ने सभा को सम्बोधित करते हए कहा-"भरत क्षेत्र में इस समय महावीर के समान धीर पुरुष अन्य कोई नहीं है । कोई भी शक्ति उन्हें विचलित नहीं कर सकती। देवों में हर्ष हुआ, पर संगम का खून खौल उठा । उसने इन्द्र के कथन का प्रतिवाद किया और कहा-"मैं उन्हें विचलित कर सकता हूं।" अपने दुर्विचार को क्रियान्वित करने हेतु वह पोलास चैत्य में पहुंचा। __ महावीर को लक्ष्य से चलित करने के लिए एक ही रात्रि में एक के बाद एक उनको बीस प्रकार के कष्ट दिये, जिनकी तालिका निम्न प्रकार की रही है1. प्रलय-काल की तरह धूल की भीषण वर्षा की ।
महावीर के कान, नेत्र, नाक आदि उस मिट्टी से सर्वथा सन गये।
साध्वीश्री धनकुमारी
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-34
2. वज्रमुखी चींटियां उत्पन्न की। उन्होंने 13. सिद्धार्थ और त्रिशला बनकर हृदय-भेदी विलाप __ महावीर के सारे शरीर को खोखला कर करते हुए उन्होंने कहा-"वर्द्धमान ! वृद्धादिया।
वस्था में हमें असहाय छोड़कर तू कहां चला
माया ?" 3. मच्छरों के झुण्ड बनाए और उन्हें महावीर
पर छोड़ा। उन्होंने उनके शरीर का खून 14. महावीर के दोनों पैरों के बीच में अग्नि चूसा।
जलाकर भोजन पकाने का वर्तन रखा । 4: तीक्ष्ण मुखी दीमके उत्पन्न की। वे महावीर महावीर उस अग्नि दाह से विचलित न हुए के शरीर पर चिपट गई।
अपितु उनकी क्रान्ति चमक उठी। b. जहरीले बिच्छुओं की सेना तैयार की। उन्होंने 16. महावीर के शरीर पर पक्षियों के पिंजरे ___एक साथ महावीर पर आक्रमण किया और लटका दिये। पक्षियों ने अपनी चोंच मौर अपने तीखे डंक से उन्हें डसने लगे।
पंजों से प्रहार कर उन्हें क्षत-विक्षत करने का 6. नेवले छोड़े। भयंकर शब्द करते हए वे महावीर प्रयत्न किया।
पर टूट पड़े तथा उनके मांस खण्ड को छिन्न- 16. भयंकर प्रांधी चलाई। वृक्ष मूल से उखडने भिन्न करने लगे!
लगे, मकानों को छतें उडने लगी, महावीर 7: नुकीले दांत और विष की थैलियों से भरे उस वातूल में कई बार उड़े और गिरे ।
सर्प छोड़े। वे महावीर को बार-बार काटने 17. चक्राकार वायु चलाई। महावीर उसमें चक्र लगे। अन्ततः जब वे निर्विष हो गये तो की तरह घूमने लगे शिथिल होकर गिर पड़े।
18. काल चक्र चलाया। महावीर धुटने तक भूमि 8, चूहे उत्पन्न किए। वे महावीर को अपने
में धंस गये। . नुकीले दांतों से काटने के साथ साथ उन पर इन प्रतिकूल परिषहों में भी महावीर की मूत्र-विसंजन भी करते । कटे हुए जख्मों पर दृढता कवि के निम्नलिखित उद्गारों को चरितार्थ मूत्र नमक का काम करता था।
कर रही थी9. लम्बी सूढ वाला हाथी तैयार किया। उसने इत्र की मिट्टी में मिलकर महावीर को आकाश में पुनः पुनः उछाला
भी खुशबू जाती नहीं, और गिरते ही उन्हें अपने पैरों से रौंदा तथा ___ तोड़ भी डालो तो उनकी छाती पर तीखे दांतों से प्रहार किया।
होरे की चमक जाती नहीं ! 10. हाथी की तरह हथिनी बनाई और उसने भी
जब महावीर का धैर्य अडिग रहा तो संगम देवता महावीर को उछाला और पैरों से रौंदा। . लज्जा का अनुभव करने लगा। फिर भी उसने प्रयास 11. वीभत्स पिशाच का रूप बनाया और वह जारी रखा । भगवान् महावीर का ध्यान भङ्ग
भयानक किल-कारियां करता हमा, हाथ में करने के लिए उसने अनुकूल प्रयत्न भी किये। पैनी बी लेकर महावीर पर झपटा। पूरी 19. एक विमान में बैठ कर मह वीर के पास शक्ति से उन पर प्राक्रमण किया।
आया और बोला-“कहिये, आपको स्वर्ग चाहिए 12. विकराल व्याघू बन कर वज्र-सदृश दांतों या अपवर्ग ? अभिलाषा पूर्ण करूगा ।
और त्रिशूल-सदृश नाखूनों से महावीर के 20. अन्ततः उसने एक अप्सरा को लाकर शरीर का विदारण किया।
महावीर के सम्मुख खड़ा किया। उसने भी अपने
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-35
हाव-भाव व विभ्रम-विलास से उन्हें ध्यान-च्युत ने जिनको जयाचार्य भी कहते हैं लिखा हैकरने के विविध प्रयत्न किये, किन्तु सफलता नहीं संगम दुख दिया पाकरोर मिली।
सुप्रसन्न नजर दयाल, रात्रि समाप्त हुई। प्रातः काल महावीर ने जग उद्धार हुवे मो थकी रे अपना ध्यान समाप्त किया और बालुका की ओर
ए डुबे इण काल, विहार किया। फिर भी संगम ने दुष्प्रयत्न नहीं
- नहीं इसो दूसरो महावीर ॥ छोड़ा । तथा महावीर के साथ-साथ रहने लगा।
महावीर वास्तव में क्षमा की प्रतिमूर्ति थे । छः महीने पर्यंत संगम महावीर को भयंकर कष्ट
संगम के प्रति भी महावीर के मानस में करुणा का देता रहा । उसने अधमता की सीमा लांध दी थी। लेकिन भयंकर तूफान और धनघोर मेघ गर्जनाएं
अजस्र स्रोत बहता रहा। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र को प्रातंकित नहीं कर
धन्य है उस उदधि को, जिसने विश्व को क्षमा सकती, उसी प्रकार संगम का आतंक महावीर को का पाठ पढ़ाया था। प्रभावित नहीं कर सका। .
, , अन्त में यही कहूंगी कि__ महावीर की इस उत्कृष्ट साधना की स्तुति करते. .. वो एक गुल था, जिसके जलवे हजार थे। हुए तेरापंथ संघ के चतुर्थ प्राचार्य श्रीजीतमल जी वो एक साज था, जिसके नगमे हजार थे।
धर्म ही जगत का रक्षक है धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावत्, : ..
हन्ता न हन्तुरपि पश्य गतोऽथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्माजानां रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ।।
-प्रा० गुणभद्रः आत्मानु• २६ अर्थ-जब तक मानव के हृदय में धर्म रहता है तब तक वह अपने मारने वाले को भी नहीं मारता किन्तु जब धर्म चला जाता है तो पिता पुत्र को और पुत्र पिता को मार डालता है अतः निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि धर्म ही इस जगत् का रक्षक है।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर ! निर्वाण तुम्हारा
-डॉ. नरेन्द्र मानावत महावीर! निर्वाण तुम्हारा, नहीं मृत्यु का वरण, नहीं चेतन सत्ता का हरण, नहीं यह अस्ताचल की ओर सूर्य का गमन, नहीं यह एक देह का अन्य देह में रूपान्तरण ।
महावीर । निर्वाण तुम्हारा, जीवन की चरमोपलब्धि का श्रीष्ठ वरण
आत्मज्ञान की महाशक्ति का ऊर्वीकरण, जन्म-मरण के प्रावों से परे, काल के महाफलक पर अंकित अक्षय अव्याहत सुख ज्योति-किरण ।
महावीर ! निर्वाण तुम्हारा, प्राणिमात्र के लिए अभय का उठा चरण, दुखदग्धों के लिए लहराता शान्त तरण, गहरी अंध गुफाओं में बेसुध सोये, भवबद्ध आत्मा के लिए जागरण का प्रेरण ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवान महावीर और कर्मसिद्धान्त
संसार के सभी प्राणी स्वोपार्जित कर्मानुसार सुख-दुख का अनुभव कर रहे हैं। वास्तव में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त इतना सूक्ष्म भोर व्यवस्थित है कि जिसका अध्ययन करके मानव कर्म से छूट सकता है और शुद्ध, निरंजन निर्विकार सिद्ध स्वरूप परमात्म तत्व की प्राप्ति सहज ही कर सकता है। प्राचार्य गुणभद्र स्वामी ने प्रात्मानुशासन ग्रन्थ में लिखा है-यह प्रशानी प्राणी दूसरों के विषय में हित और अहित की कल्पना करके तदनुसार उन्हें शत्रु और मित्र सम्रझने लगता है परन्तु वास्तव में जो उसका अहित. कारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है ! जीव बाल्यावस्था में जो गर्भ एवं जन्म प्रादि के असह्य दुख को भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है ! तत्पश्चात् यौवन अवस्था में भी उक्त कर्म के ही उदय से प्राणी कुटुम्ब के भरण-पोषण की चिन्ता से व्याकुल होकर धन के कमाने प्रादि में लगता है और निरंतर दुःसह दुख को सहता है। इसी कर्म के निमित्त से वृद्ध अवस्था में इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है और दांत टूट जाते हैं। इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह प्रज्ञानी प्राणी मागे भी उसी के वश में रहना चाहता है।
लोक में देखा जाता है कि जो व्यक्ति किसी का एक बार कुछ मनिष्ट कर देता है तो उससे भविष्य में वह किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता परन्तु यह कर्म जो कि एक बार नहीं बार'बार इस प्राणी का मनिष्ट करता है फिर भी यह भविष्य में भी उस कर्म के ही प्राधीन रहनाः चाहता है।
न्यायप्रभाकर, मायिकारत्न -श्री ज्ञानमतीजी
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-38
परागलोलुपी भ्रमर जिस प्रकार से बिना सोचे विचारे कमल के अन्दर इतने प्रासक्त हो जाते हैं कि उसी में बन्द होकर अपने प्राणों को भी विसर्जन कर देते हैं । उसी प्रकार यह संसारी प्राणी हिताहित के विवेक से शून्य रहकर यह विचार नहीं करता कि इन विषयों का उपभोग महात्मा पुरुषों ने नहीं किया है- ये सर्वदा रहने वाले नहीं हैं - देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं तथा श्रात्म स्वभाव के प्रतिकूल होकर प्रारणी को नरकादि दुर्गतियों में ले जाने वाले हैं और उन विषयों में प्रासक्त होकर भ्रमर के समान जन्म-मरण आदि के दुखों को सहन किया करता है ।
कर्मों की गति को नित्य प्रति सभी देखते श्रीर जानते हैं कि पूर्व पुण्य के कारण तीर्थंकर, चक्र - वर्ती, राजा, महाराजा आदि पदों की प्राप्ति होती है । पूर्व कर्म के कारण ही एक राजा बनता है 'श्रीर दूसरा जीव उसका नौकर बनता है ! यदि इस कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करके जीव यह सोचे कि यह राजा भौर में इनका नौकर हूँ भाखिर यह विषमता क्यों ? विषमता इसीलिए है कि राजा होने वाले जीव ने पूर्व पर्यायों में शुभ कार्य करके पुण्य का उपार्जन किया है जिससे उन्हें मनवांछित सुख दास दासी अनेक रानियां लक्ष्मी एवं वैभव प्रादि प्राप्त हुए हैं और मैंने पूर्व पर्याय में ऐसे निम्न कार्य करके पाप कर्म उपार्जित किये 'हैं जिससे मुझे प्रतिक्षरण दासता सहनकर अपमान पूर्वक जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है ।
वैसे तो कर्मों ने किसी को छोड़ा नहीं है मर्यादा पुरुषोत्तम राम का उदाहरण सभी जानते
हैं। एक तरफ राज्याभिषेक होने वाला है और दूसरी तरफ 14 वर्ष का घोर बनवास हो जाता है ! बनवास में भी शांति नहीं मिलती है— कभी किसी से संघर्ष, कभी किसी को रक्षा !
सीता के कर्म का उदय देखो - कहां तो इतने बलशाली बलभद्र की रानी सीता राजमहल के सुखों का उपभोग करती है औौर कहां जंगल की पथरीली भूमि पर पैदल चलकर जंगली जानवरों के मध्य निवास होता है यह है कर्म द्वारा प्राप्त सुख और दुख ! पूर्वभव में जिस जीव ने जैसे कर्म किये हैं उसके उदय में श्राने पर फल की प्राप्ति तदनुसार होती ही है !
इस कर्म सिद्धान्त को पढ़कर प्राणियों को यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि शुभ कार्य करें जिससे पुण्योपार्जन होकर सुख प्राप्त हो । इसी सन्दर्भ में प्राचार्यों ने लिखा है
देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय संयमस्तपः । दानंश्चेति गृहस्थाणां, षट्कर्मारिण दिनेदिने । अर्थात् प्रत्येक गृहस्थ को देवपूजा, गुरु की उपासना, प्राचार्य प्रणीत ग्रन्थों का स्वाध्याय, यथा शक्ति तप और संयम तथा सत्पात्र को दान ये 6 शुभ कार्य नित्यप्रति करना चाहिए जिससे पुण्य बन्ध होगा और परंपरा से सम्यक्त्व पूर्वक होने से निर्वाण की प्राप्ति भी हो जावेगी जहां पर कम का सर्वथा प्रभाव हो जाता है ।
सम्यक्त्व एवं संयम ग्रहण करके शुभ कर्म करते हुए अपनी श्रात्मा को पवित्र निर्मल बना लेना चाहिए यही निर्वारण महोत्सव वर्ष की सार्थ - कता होगी !
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वतन्त्र चेतना
के
सजग प्रहरी महावीर
- साध्वीश्री कनकश्रीजी
दर्पण जितना अधिक स्वच्छ और निर्मल होता है, बाहय पदार्थ उतनी ही स्पष्टता से उसमें प्रतिबिम्बित होते हैं । घुंधला दर्पण किसी भी बिम्ब को स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं दे सकता ।
महावीर की चेतना स्वच्छ दर्पण के समान थी । अतः विश्व चेतना उसमें अपने यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित हुई। उन्होंने देखा हर चेतनशील प्राणी में विकास की अनन्त सम्भावनाएं हैं पर उनकी अभिव्यक्ति का एक मात्र अनुबन्ध है स्वतन्त्रता । व्यक्ति तब तक अपने व्यक्तित्व का स्वतन्त्र निर्माण नहीं कर सकता जब तक उसे जीने की स्वतन्त्रता न हो, सोचने की स्वतन्त्रता न हो, विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता न हो भौर कुछ करने की स्वतन्त्रता न हो । भगवान् महावीर ने सर्वज्ञता प्राप्ति से पूर्व भी यह तीव्रता से अनुभव किया कि आज विश्व चेतना की सबसे बड़ी छटपटाहट और अकुलाहट है स्वतन्त्रता प्राप्ति की । लेकिन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मूल्य ही कुछ ऐसे बन चुके हैं, जिनके आधार पर उस व्यक्ति या समूह को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, जो दूसरों की स्वतन्त्र - चेतना पर अपना अधिक से अधिक प्रभुत्व स्थापित कर सके ।
महावीर ने इन मूल्यों का प्रतिरोध किया और सामाजिक राजनैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में वैयक्तिक स्वतन्त्रता की प्राण-प्रतिष्ठा की ।
फिर भी प्राश्चर्य होता है, कुछेक व्यक्ति विश्वात्मा के साथ समत्व की अनुभूति करने वाले भगवान महावीर के विचारों में भी श्रधिनायकवाद के दर्शन करते हैं ।
मैंने सुना एक साम्यवादी विचारक के मुंह से कि- महावीर अधिनायकवाद के समर्थक थे । वे
I
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-40
एक महत्वाकांक्षी क्षत्रिय पुत्र थे । उनके पिता का बोल सकते थे कि-"मेरी प्राज्ञा में धर्म है" राज्य छोटा था। प्रचलित परम्परा के अनुसार अपितु वे व्यक्ति के स्वतन्त्र-चिन्तन की कितना वे उसके उत्तराधिकारी होते । पर महावीर महत्व देते थे, यह पढिए उन्हीं के शब्दों मेंको इतने छोटे से राज्य का शासक होना पसन्द “मइम पास"-हे मतिमान् ! तू देख। तू नहीं था। प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दूसरा मार्ग स्वयं चिन्तनशील है अतः स्वयं तत्व को पहचान । चुना । संन्यास स्वीकार कर कठोर साधना की। क्या आदेशात्मक पदावलि इतनी सुकोमल हो सकतीहै ? लोक-संग्रह किया और बहुत बड़ा धार्मिक-समाज महावीर ने कभी नहीं कहा-जो मैं कहता खड़ा कर लिया। क्षत्रिय-सुलभ हुकूमत की नीति हूं, वही तुम मानो। प्रत्युत उन्होंने कहा—“से तं मोर साम्राज्यवादी मनोवृत्ति मिटी नहीं थी इसलिए जाणह, जमहं बेमि ।"-जो मैं कह रहा हूं, तुम वे अपने धर्म-समाज पर छा गए मोर हुकूमत की भी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करो। भाषा में बोले-"प्राणाए मामर्ग धम्मं ।"-मेरी उन्होंने कहा-पाप कर्म प्रकरणीय है प्रतः माज्ञा में धर्म है । अतः जो मैं कहूँगा, वही तुम्हें तुम उनका अन्वेषण मत करो। पर इसलिए नहीं करना है, पन्यथा धर्म भ्रष्ट हो जाओगे। इस कि मैंने उसका निषेध किया है, अपितु स्वयं अपनी प्रकार महावीर ने व्यक्ति के विचार-स्वातन्त्र्य की सम्पूर्ण-प्रज्ञा से सोचो और उनकी एषणा को हत्या कर दी।"
छोड़ो–“से वसुमं सव समन्नागय पन्नाणेणं मुझे पाश्चर्य मिश्रित खेद हो रहा था, यह अप्पागोणं प्रकरणिज्जं पावं कम्म, तंणो अण्णेसि"। सुनकर . वस्तुतः यह चिन्तन तथ्यहीन, निराधार
शिष्य ने भी उत्तर में यह नहीं कहा कि भन्ते! पौर भ्रामक है। जहां तक मैंने जाना और समझा।
यदि आपका पादेश है तो मैं अब पाप नहीं करूंगा। है. भगवान महावीर ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता को लेकिन उसने कहाजितना महत्व दिया और उसकी स्वतन्त्र चेतना को ___ "तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, कुचल देने वाले धनाधीशों, मठाधीशों और सामन्तों
भंता मइमं अभय विदिता।" का जितना विरोध किया उतना शायद ही किसी मंते ! मैं प्रात्मोपलब्धि के लिए समुद्यत हो महापुरुष ने किया हो। .. तत्कालीन समाज व्यवस्था में प्रचलित जाति- गया है अतः अब पाप नहीं करूंगा। क्योंकि वाद, दासप्रथा और उपनिवेशवाद, सचमुच मानवीय मैने इसमें प्रभय जाना है और पाप मय प्रवृत्ति को स्वतन्त्रता को कुचल देने वाले उपक्रम थे। महावीर स्वयं के लिए अहितकर माना है। ने उनके विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने कहा
यद्यपि भगवान् ने "प्राणाए सड्ढी से मेहावी" सब प्राणी स्वतन्त्रता- प्रिय हैं। अतः उन पर
कह कर साधना क्षेत्र में श्रद्धा पर बहुत बल दिया बलात् अपने विचार थोपना, उन्हें अनुशासित करना
पर साथ-साथ अपने शिष्यों को तर्क संशय और और उन पर अपना आधिपत्य स्थापित करना
जिज्ञासा के उन्मुक्त माकाश में उड़ान भरने की घोर सामाजिक और नैतिक अपराध है । वस्तुतः
भी खुली छूट दी थी। उन्होंने कभी नहीं कहाकोई भी प्राणी किसी के द्वारा प्राज्ञापयितव्य और अहत बाणा, मुनि, स्मृति और वेदों की तरह प्रतपरिग्रहीतव्य नहीं है।'
करणीय है। बल्कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा- जो भगवान् महावीर महान् अहिंसक थे। जबरन संशय करना जानता है, वह संसार को जानता है किसी पर अपने विचार थोपने को वे हिंसा मानते. और जो संशय करना नहीं जानता वह संसार को थे। इस स्थिति में भला हकमत की भाषा में कैसे भी नहीं जानता ।
1. आचारांग 4-2-23
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
Education International
w
राजस्थान के मुख्यमन्त्री श्री हरिदेव जोशी महावीर निर्वाणोत्सव सन् १९७४ पर विशाल जनसमूह को सम्बोधित करते हुए ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन सब सन्दर्भों को पढ़ लेने के पश्चात् इस जिज्ञासा का उभरना स्वाभाविक ही है कि महावीर ने व्यक्ति की स्वतन्त्र - चेतना और प्रज्ञा-जागरण को इतना महत्व देते हुए भी धर्म-संघ में अपनी प्राज्ञा को सर्वोपरि कैसे माना ?
इस परिप्रेक्ष्य में यह वाक्य कुछ आलोच्य हो जाता है। हालांकि इस वाक्य का पारम्परिक अर्थ हम यही करते हैं कि भगवान् ने कहा है मेरी श्राज्ञा में धर्म है ।" लेकिन लगता हैं हम मूल अर्थ से बहुत दूर चले गए हैं। इसका कारण है शब्द की अनेकार्थता मात्र शब्दात्मा को पकड़ने वाला उसकी गहराई में पहुंच नहीं सकता |
यह सच है कि महावीर ने "आरणाए मामगं धर्म्म" का उद्घोष किया था। पर आलोच्य यह है कि "आखाए" से उनका अभिप्र ेत क्या था ?
देश, काल की परिस्थितिवश शब्द का अर्थबोध भी बदल जाता है । वह उत्कर्ष श्रोर श्रपकर्ष के झूले में झूलता रहता है । " प्राणा" शब्द भी इसका अपवाद नहीं रह सका । " मारणा" का संस्कृत रूप आज्ञा बनता है जो "ज्ञांशू प्रवबोधने - "धातु से निष्पन्न हुआ है । अतः उसका मौलिक अर्थ ज्ञान ही होता है।" आसमन्तात् ज्ञायते अनया सा प्रज्ञा" । 'ज्ञान' शब्द भी इस धातु से व्युत्पन्न है । इस दृष्टि से आज्ञा और ज्ञान- दोनों एकार्थक हैं । अतः यह स्पष्ट है कि 'प्रज्ञा' का अर्थ केवल आदेश या अनुशासन ही नहीं, ज्ञान भी है ।
युगप्रधान वाचक प्रमुख प्राचार्य श्री तुलसी के सानिध्य में श्राचारांग सूत्र का स्वाध्याय करते समय यह प्रतीत हुआ कि हम इस लघु वाक्य का कितना विपरीत अर्थ करते पा रहे हैं । आचार्य श्री ने बताया कि 'प्राणाए' यह सप्तम्यन्त पद नहीं प्रपितु 'क्वा' प्रत्ययान्त पद होना चाहिए। अतः 'प्राज्ञा में' की अपेक्षा - प्राज्ञाय -- “ जानकर" यह मर्थं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है ।
1-41
भगवान् महावीर ने मुनि धर्म का प्रतिपादन करते हुए कहा- वे अन्तर और बाह्य ग्रन्थियों से उपरत मुनि मेरे धर्म को जानकर, उसका प्राजीवन सम्यक् अनुपालन करते हैं ।
वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं । पहले - - ' प्रज्ञा से मेरे धर्म का सम्यक् अनुपालन करें ।" यह अर्थ भी ज्ञानपरक ही है। यानी ज्ञानपूर्वक धर्म का अनुपालन करें। दूसरा अर्थ इस प्रकार किया है कि धर्म मेरा है, अतः उसका तीर्थंकर की प्रज्ञा से सम्यक् श्रनुपालन करू ।
---
" मामर्ग धम्मं " यह कर्म-पद है अतः 'आणाए ' का अर्थ आज्ञाय - जानकर ही तर्क-संगत हो सकता है ।
यदि 'आगाए' को सप्तम्यन्त-पद मानें तो भी उसका अर्थ यही हो सकता है कि मेरा धर्म श्राज्ञा में, अर्थात् ज्ञान में है ।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण ज्ञान है । अतः उक्त वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि मेरा धर्म आज्ञा में अर्थात् ज्ञान में है ।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण ज्ञान है | अतः उक्त वाक्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि मेरा धर्म -- प्रर्थात् स्वभाव ज्ञान में है ।
उक्त सभी दृष्टियों से यह भ्रम निराधार सिद्ध हो जता है कि महावीर ने हुकूमत की भाषा में कहा कि मेरी आज्ञा में धर्म है। यदि उन्होंने ऐसा कहा होता तो निःसन्देह इस वाक्य की संघटना इस प्रकार होती -- " श्रारणाए मामगाए धम्मं," पर यहां 'मामर्ग' शब्द धर्म का विशेषण है न कि 'आगाए' का ।
भगवान् महावीर महान् अहिंसक थे । श्रतः प्रादेशात्मक भाषा का प्रयोग तो दूर, प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए वे उपदेश भी आवश्यक नहीं मानते थे । उन्होंने कहा " उद्दे शो पासगस्स नत्थि " -- दृष्टा को उपदेश की अपेक्षा नहीं । वे अपनी सम्पूर्ण जागृत चेतना से जन-जन के अन्तश्चन्तय को जगाना चाहते थे । अपनी प्रखर ज्ञान रश्मियों से विश्व चेतना को
3
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-42
त करने वाली एक-एक परत को चीर कर प्रस्तु, भगवान महावीर ने व्यक्ति की स्वतन्त्रउसे दीव्य पालोक से भर देना चाहते थे। इसी चेतना को कुण्ठित नहीं किया अपितु वे व्यक्ति की पवित्र-अनुष्ठान के लिए उन्होंने अपनी सम्पूर्ण स्वतन्त्र चेतना के सजग-प्रहरी थे। उन्होंने युग-युग शक्ति लगा दी।
से राजनैतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और प्राध्यात्मिक एक क्षण के लिए यदि मान भी लें कि परतन्त्रता की कारा में छटपटाते हुए विश्व-मानव महावीर ने अपनी आज्ञा के प्रतिष्ठान पर अपने को स्वयं अस्तित्व और कर्तृत्व का बोध दिया। विशाल धर्म संघ को प्रतिष्ठित किया था, तो भी स्वतन्त्रता का बोध दिया। उसको प्राप्त करने के उनकी आज्ञा में किसी भी तटस्थ विचारक को लिए सम्यक दिशा-बोध दिया और उस दिशा में अधिनायकवाद के दर्शन नहीं होते। क्योंकि महावीर आग बढ़ने के लिए उसे गतिशीलता भी प्रदान की प्राज्ञा वहां जाकर परिसम्पन्न हुई थी, जहां वे की। सम्पूर्ण सत्य को उपलब्ध हो चुके थे। वे सत्यमय
फलतः उस युग में परिव्याप्त जातिवाद, दासबन चुके थे। व्यक्ति और सत्य का द्वैध मिट गया
प्रथा, साम्राज्यवादी मनोवृत्ति, और उपनिवेशथा। अतः महावीर की प्राज्ञा व्यक्ति की प्राज्ञा
परम्परा आदि की जड़ें हिल गई। नहीं थी, अपितु सत्य की आज्ञा थी। उनको केन्द्र मानकर चलने वाला कोई भी व्यक्ति चेतना के उस परम तेजस्वी पुरुष के अलौकिक स्वतन्त्रताआवरणों को क्षीण कर उस परम सत्य को प्राप्त संग्राम ने युग-चेतना को बन्धन मुक्त किया है कर सकता है।
और युग-युग तक मुक्ति की प्रेरणा देता रहेगा।
सर्वथा प्रातरुत्थाय पुरुषेण सुचेतसा । कुशलाकुशलं स्वस्य चिन्तनीयं विवेकत ः॥
-पद्मपुराण ४६-१३०
___ अर्थः-मनुष्य को प्रातःकाल उठकर सबसे पहले अपनी कुशलता और अकुशलता अथवा हित और अहित के सम्बन्ध में विवेकपूर्वक चिन्तवन करना चाहिये।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर और नारी जागति
-मुनिश्री मोहनलालजी 'शार्दूल' पागला की लहर
बिना किसी भेद-भाव के दिव्य-दृष्टि प्रदान की। भगवान् महावीर का युग जागरण का युम ।
भगवान् महावीर ने व्यक्ति को उच्च और श्रेष्ठ, पा। प्रत्येक क्षेत्र जागृति की सुर-सरिता से अभि- जाति तथा ऐश्वर्य से नहीं किन्तु सदाचार एवं सद्विक्त हुआ था। जैसे सूर्योदय होते ही समग्र वाता
गुणों के आधार पर माना। धरण परिवर्तित हो जाता है. सब स्थानों में प्रकाश
अपने सुख दुख का, उन्नति-अवनति का, प्रगति, पहुंच जाता है और समस्त प्राणी जाग उठते हैं. प्रतिगति और विकास एवं ह्रास का समग्र उत्तर.
दायित्व व्यक्ति को सौंपा । उसको ही अपने जीवन बैसे ही भगवान महावीर को प्रात्मज्ञान होते ही बागरण की एक कमनीय लहर समग्र क्षेत्रों में दौड़
का निर्माता, अपने भाग्य का विधाता माना और
उसे उच्च से उच्च प्रात्म-विकास के लिए उद्बुद्ध गई थी। जीवन का प्रत्येक स्पन्दन पुलकित और
एवं उपयुक्त किया । झंकृत हो उठा था। सब जगह एक नई ज्योति प्रसारित और संचारित हो गई थी। जागरण की
____ भगवान महावीर ने प्रारिण-एकत्व तया प्रारिण
समत्व की प्रतिष्ठा की। उन्होंने उद्घोषणा की महरी उत्तरोत्तर विशाल बनती गई थी।
"प्राणी-प्राणी परम स्वरूप से एक हैं । सब समान तत्कालीन विपर्यय
हैं और सबको आत्मिक-विकास के लिए सदृश अधिउस समय सबसे बड़ा विपर्यय मान्यताओं में
कार है। उच्च-नीच की रेखा खींचकर उनमें भेदथा। सिद्धान्त बहत ही भ्रामक और विपरीत
डालना महापाप है। बड़े-छोटे की दीवार खड़ी प्रचलित हो गये थे। आत्मा का तो कोई अस्तित्व
करना असामाजिक और अमानवीय है। ही नहीं रह गया था । सब कुछ ईश्वर की मुट्ठी
धर्म और ईश्वर के नाम पर मूक प्राणियों की में बन्द कर दिया गया था। अपने सुख दु ख का
पाहूति देना धोर पाप है और निर्वल जीवों पर प्रधीश व्यक्ति नहीं, किन्तु भगवान था । मनुष्यों में
भीषण अत्याचार है। इस प्रकार के विचार सप्रेषित किये जाते थे कि वे
नारी जागति अपने का हीन-दीन और ईश्वर के हाथ की कठ
भगवान महावीर की दृष्टि परम सूक्ष्म थी। पुतली समझे। जाति-गर्व और जाति-हीनता की
उस में अन्तिम सत्य ही प्रतिविम्बित हुआ था। भेद कुत्सित धारणा भी बड़े विशाल दायरे में फैली हुई
जो वास्तविक नहीं है, केवल कल्पना, प्रज्ञान और की। नारी को एक तुच्छ द सी से अधिक कुछ नहीं विभाव से प्रसत है. उनकी सम्मति में कभी नहीं माना जाता था। उसके सब अधिकार कुचल दिये उतर पाया। प्रात्मा में उन्हें कभी भेद दृष्टिगोचर
नहीं हुमा । उन्होंने कहा- प्रात्मा आत्मा ही है। साह्मवीर को क्रान्ति
'न इत्यी, न पुरुषे, न अनहा" (प्राचारांग)-वह भगवान महावीर ने इन सब विषयों में अपने न स्त्री है, न पुरुष और न अन्य कुछ। बाह्य प्रशा. व साधना बल से अद्भुत क्रान्ति की।. नये क्षमताओं के प्राधार पर उसमें भेद नहीं होता। सिरे से सिद्धान्तों की स्थापना कर समस्त जनता को अन्तिम अर्थ में वह एक समान है।
गये थे।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-44
उन्मुक्त किये।
भगवान् महावीर की चेतना में स्त्री पुरुष का भगवान् महावीर ने जो कि समत्व के प्रहरी थे, भेद पाया ही नहीं। उन्होंने आध्यात्मिक विकास निर्भयतापूर्वक नारी-जागरण का बिगुल बजाया । और स्व साधना के लिए उनमें कोई रेखा नहीं उन्होंने अनेकों महारानियों और राजकुमारियों के खींची। जिस परम पद को पुरुष पा सकता है। जीवन में चैतन्य की ज्योति जलाई । तुच्छ से तुच्छ उसको नारी भी प्रपने में प्रकट कर सकती है। प्रबोध समझी जाने वाली अबलामों में भी उन्होंने भगवान महावीर ने नारी स्वातन्त्र्य और नारी उच्च एवं महान् भावनामों को प्रतिष्ठित किया । समत्व की घोषणा ही नहीं की अपितु व्यावहारिक साध्वयो के समान ही उनकी श्राविकाओं की संख्या क्षेत्र में उसकी अवतारणा भी की। राजकुमारी भी बड़ी विशाल थी । अनेक श्रमरणोप सिकाएं धर्मचन्दन बाला जो विक्रीत होकर दासी जीवन व्यतीत श्रद्धा और धर्म-दृढता में अद्वितीय थीं। कुछेक कर रही थी। उन्होने उसे दीक्षित कर 36 हजार तत्व ज्ञान और धर्म चर्चा में बहुत निपुरण थी। साध्वियों की मुखिया बनाया।
सुलसा, जयन्ती और रेवती आदि अनेक श्राविकाएं ___ साधु के समान ही साध्वी को भी हर पद की ऐसी थीं, जो किसी दिग्गज विद्वान् से भी बिना अधिकारिणी होने का विधान बनाया । उपाध्याया झिझक धर्म-विवाद कर सकती थी। विवाद ही और प्राचार्या तक के व्यवस्था पद उसके लिए नहीं अपने तर्क-श्रद्धा, प्राचार और प्रतिभा बल से
उन्हें निरुत्तर करपरास्त कर डालती थी। तत्कालीन समाज में नारी का स्थान
जैन धर्म में स्त्री का गौरव सदा से रहा है। , यद्यपि तात्कालीन समाज-व्यवस्था में नारी
इस अवसपिणी काल में सर्व प्रथम मुक्ति गमन का पूर्ण रूपये उपेक्षित और पद-दलित कर दी गई
श्रेष्ठतम श्रेय श्री ऋषभनाथ स्वामी की मातुश्री थी। उसका समाज में कोई स्थान ही नहीं रह गया मरुदेवा की है। जिन्होंने हाथी पर बैठे बैठे निर्मोहथा। वह मात्र भोग की सामग्री समझी जाती थी। दशा में उत्तर कर कैवल्य प्राप्त किया।
उसे शिक्षा के अयोग्य करार दे दिया गया था। । 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" ऐसे अत्याचार मूलक सूत्र ।
ब्रह्मी, सुन्दरी जो कि आदिनाथ भगवान् की ग्रथित किये गये। उसे क्रीत दासी से अधिक कुछ
पुत्रियां थी, प्रवजित बन कर परम तत्व में लीन
था। नहीं माना जाता था। अात्मिक-उत्थान और धार्मिक-पाचरण पर भी उसे कोई स्वतंत्रता नहीं मल्ली कुमारी तो 19वां तीर्थकर हुई है। जैन थी। पुरुष की छाया मात्र बना रहना ही उसका
का सबसे उत्कृष्ट और सर्वोत्तम पद उसने पाया।
का धर्म था। उसके चारों ओर ऐसी मजबूत दीवारें राजिमती, जिससे भगवान् नेमिनाथ ने पशुओं
खड़ी कर दी गई थीं कि वह अपने विषय में कोई का करुण कदन सुनकर मुंह मोड़ लिया था, . भी प्रावाज बुलन्द नहीं कर पाती थी।
विरह-विदग्ध बनकर विभ्रान्त नहीं बनी, प्रत्युत निरन्तर की उपेक्षा और प्रबल माघातों से विवेक पूर्वक परम साध्य के लिए अग्रसर हुई थी महिला समाज में हीन भावना घर कर गई थी। और पतित होते रथ नेमि को उद्बोध देकर बचाया अपने सामर्थ्य और स्वत्व को उद्दीप्त तथा विकसित था। कितने नाम लिए जाएं अनेकों ऐसी सन्नारियां करने, का भाव कुण्ठित बन चुका था। अपने हुई हैं, जिन्होंने शील में, सहिष्णुता में और धर्म
औचित्य के विषय में उसका मन टूट चुका था। श्रद्धा में पुरुषों से भी बढा चढा शीयं दिखाया है। समाज का एक एक सबल अंग पोषण के प्रभाव में जिनके उच्च आदर्शों के प्रागे मस्तक स्वयं विनत प्रक्षन और बेकार बनता चला जा रहा था। हो जाता है।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-45
स्त्री समाज की निर्मात्री है, संरक्षिका है और विकट अत्याचार का तूफान उसकी सत्य-श्रद्धा को भाग्य विधात्री है। सन्तानों में संस्कार निर्माण हिला नहीं सकता और कोई भी कष्ट का सागर का कार्य माताओं के हाथ में ही रहता है । वे जिस उसके धैर्य को गला नहीं सकता। सहिष्णुता के मृदुता और सौहार्द से समाज में निर्माण का वरिष्ठ विषय में वह पुरुषवर्ग के समक्ष एक उच्चादर्श है। कार्य करती हैं अनेक पिता भी नहीं कर सकते। महिला वर्ग पुरुष वर्ग के समान ही हर कार्य किसी कवि ने बहुत ही महत्वपूर्ण उद्गार व्यक्त का दक्षता पूर्वक संचालन कर सकता है। माध्या. किये हैं :
त्मिक, शैक्षणिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक, राजनैतिक, . "सहस्र'तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते” व्यावसायिक और पारिश्रमिक प्रदि प्रत्येक क्षेत्र में . हजारों पितामों से एक माता गौरव में श्रेष्ठ महिलाएं अपनी अद्भुत क्षमता प्रदर्शित कर चुकी होती है। किसी पाश्चात्य विचारक ने कहा है- हैं। फिर भी पुरुष वर्ग उन्हें समानता का अधिकार 'एक जननी सौ अध्यापकों से बढकर संस्कार शिक्षा नहीं दे पा रहा है। अपने पैरों तले रौंदने की ताक देती है।'
में बैठा है देश-विदेशों में नारी स्वातन्त्र्य के कितने ___ मनुस्मृति में मनु महर्षि ने भी नारी के प्रति ही प्रान्दोलन चल रहे हैं। कितनी ही क्रान्ति की बड़ी प्रतिष्ठामयी और उच्च भावना प्रकट की है- चिनगारियां उछल रही हैं लेकिन पुरुष वर्ग की ।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः" मात्मा प्रभी जागृत नहीं हो पाई। ... जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता रमण पुरुष समुदाय को यह पूर्ण निश्चय कर लेना करते हैं। वस्तुतः ही नारी समाज का महत्वपूर्ण चाहिये कि नारी जागरण में ही समाज जागरण अर्धांग है। समाज विकास के अनुष्ठान में पुरुष से निहित है। समाज का सर्वागीण उत्थान एवं भी अधिक भूमिका वह अदा करती है। उसे कल्याण महिला-उस्थान तथा महिला कल्याण पर प्रशिक्षित, उपेक्षित और अधिकार हीन रखना समाज ही निर्भर है। को अधिक विकल बनाना है।
प्रस्तुत वर्ष भगवान् महावीर निर्वाणोत्सव के नारी यथार्थ में सद्गुणों का पुज है। उसकी रूप में मनाया जा रहा है और साथ ही यह अन्तर विमल विशेषताओं पर समाज का महाप्रसाद राष्ट्रीय नारी वर्ष भी उद्घोषित हो चुका है। अविचल खड़ा है । इतिहास साक्षी है लोगों ने उस ऐसे सुप्रवसर पर पुरुष वर्ग का कर्तव्य है कि नारी पर भीषण अत्याचार किये हैं, पर उसकी सहिष्णुत! को शिक्षा दीक्षा के लिए उन्मुक्त करे और उसके कभी नहीं टूटी। कोई भी यातना का सूर्य उसकी सर्वांगीण विकास के लिए उसको उसका स्वामित्व सहिष्णुता को उत्तप्त नहीं कर सकता, विकट से सौंपकर ममाज को उन्नति के शिखर पर चढ़ाए ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर की खिदमत
साध्वीश्री श्रानन्दश्रीजी
श्रमण संस्कृति के सूत्रधार भगवान महावीर आज से करीब पच्चीस सौ वर्ष पूर्व इस धरती पर श्राये थे। उनकी पच्चीसवीं निर्वारण शताब्दी का यह अन्तिम वर्ष है । इस अवसर पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समारोह मनाने के अनेक
उपक्रम चल रहे हैं । यह वास्तव में उत्साहवर्धक है, लेकिन महावीर की सच्ची उपासना तभी होगी जब कि हम उनके द्वारा प्रदत्त सन्देशों को जीवन में क्रियान्वित कर पायेंगे । हमारे लिए यही सर्वोत्तम श्रेय का मार्ग होगा। मुझे इस सन्दर्भ में बौद्ध इतिहास की एक घटना याद आ रही है। कहते हैं कि प्राचार्य बोधिधर्म जत्र चीन गये, तो वहाँ का सम्राट उनके दर्शनार्थ पहुंचा और प्रणाम करके निवेदन किया - प्रभो ! मैंने अनेक बुद्ध मंदिर, विहार, अनाथाश्रम, धर्मशालाएं तथा दवाखाने बनवाये हैं क्या ये मेरे लिए श्रेयस्कर होंगे ? आचार्य ने कहा - "नहीं !" साश्चर्य सम्राट ने फिर पूछा - "देव, तथागत का सन्देश घर-घर पहुंचाने हेतु मैंने स्थान-स्थान पर दूत भेजे हैं, त्रिपिटकों की हजारों प्रतियाँ लिखवा कर वितरित की हैं। क्या यह मेरे लिए कल्याणकारी होगा ?" बोधिधर्म ने पुन: कहा - "नहीं !" सम्राट ने अपने भावावेश को दबाते हुए जिज्ञासा प्रस्तुत की - " तब आप ही बताइए, मेरा कल्याण किस चीज से होगा ?" समाधान की भाषा में प्राचार्य ने कहा"शील की साधना ही कल्याण का मार्ग है । मदिरों का निर्माण, धर्म प्रचार, शास्त्र लेखन - ये सब उल्लासकारी क्रिया कलाप हैं । शील की साधना से इनके महत्व में चार चाँद लग ज ते हैं।' सचमुच शताब्दी की वास्तविक सफलता तभी सम्भव है जब हमारी गति, मति, कृति व संस्कृति में हिंसा का नाद गूंज उठे। यही भगवान महावीर की सबसे बड़ी खिदमत होगी ।
"
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक स्थायी समाधान
साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी भगवान महावीर ने संसार को जो तत्व-दर्शन एक व्यक्ति से पूछा गया-तुम कोई सामजिक दिया वह असाधारण है । अहिंसा, अपरिग्रह और काम करना चाहते हो क्या ? उसने उत्तर दियाअनेकान्त इस तत्वत्रयी में सारे हितों की संभावना गरीबी की स्थिति में मैं कुछ नहीं कर सकता । निहित है।
यदि मेरे पास पच्चास हजार रुपये हो जाए तो मैं
समाज सेवा का व्रत ले सकता हूं। उसका संकल्प माज लोगों के पाकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र
फला और अगले साल ही पच्चास हजार रुपये उसे है परिग्रह । लोग कल्पना करते हैं, शान्ति-प्राप्ति
प्राप्त हो गए। अब उसके सामने वही प्रश्न प्राया का माध्यम कोई है तो वह धन वैभव ही है। तो वह बोला-इस युग में पच्चास हजार की कीमत इसलिए परिग्रह के सीमाकरण की बात से लोग।
ही क्या है ? लखपति बन जाऊं तो काम करू । सहमत नहीं हो रहे हैं । सत्य यह है कि परिग्रह की
लखपति बनने के बाद वह कोट्याधीश बनने की सीमा किए बिना सुख नहीं मिल सकता।
कल्पना करता है । इस प्रकार सोचने वाला व्यक्ति मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित है, पर
कर्मक्षेत्र में नहीं उतर सकता। माकांक्षामों का अकल्पित विस्तार हो रहा है।
- संसार का हर व्यक्ति आकांक्षामो से प्राक्रान्त पावश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है, पर
है। भगवान ने सुख का मार्ग बताते हुए कहा है माकांक्षामो का गर्त नहीं भर सकता। मनुष्य की
माकांक्षाएं दुःख का स्रोत हैं। दुख से छुटकारा सबसे बड़ी आवश्यकता है- भोजन, वस्त्र, चिकित्सा
पाना है तो भाकांक्षाओं पर नियन्त्रण करो। और शिक्षा। राष्ट्र के हर नागरिक के लिए इनकी 'इच्छा-परिमाण-व्रत' इसी तथ्य कः प्रतीक है। व्यवस्था आवश्यक है, पर इनकी पूर्ति होने की अपेक्षावश व्यक्ति करोड़ रुपया भी रख सकता है, स्थिति में जब वह अपनी आकांक्षा को बढ़ा लेता पर अनावश्यक संग्रह प्रौचित्य का लंघन है । एक है, तब समस्या पैदा हो जाती है।
व्यक्ति करोड़ों की सामग्री होने पर भी संयम से
रहता है और एक साधारण व्यक्ति भी दिन-रात संसारी व्यक्ति अपरिग्रही नहीं बन सकता, भोगों में प्राशक्त रहता है। यह मानसिक संयम किन्तु परिग्रह अंकुश तो लगा सकता है। भगवान की भिन्नता है। ने कहा है-“इच्छाहु प्रागास-समा पंणतया" दो भाई थे। एक सरकारी नौकर था और इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। संकल्पशक्ति दूसरा अपना काम करता था। सरकारी नौकरी के द्वारा इनका समीकरण किया जा सकता है। करने वाले ने अपने दूसरे भाई को परामर्श दिया संकल्प-शक्ति के प्रभाव में जितनी आवश्यकताएं 'तुम भी मेरी तरह नौकरी कर लो भौर आराम से. पूरी होती हैं, आकांक्षाए उतनी ही बढ़ जाती हैं। रहो । क्यों निरर्थक इतना श्रम कर रहे हो ?'
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-48
दुसरे भाई ने कहा-“मैं तो चाहता हूँ कि है। प्रणुव्रतो वह हो सकता है जो सादगी पोर माप अपने श्रम पर निर्भर बन जाइए, ताकि नौकरी सन्तोष से जीवन व्यतीत करना चाहता है । से होने वाली बेइज्जती से बच सकें। प्राप मेरे काम को कष्टकर बता रहे हैं, पर मुझे स्वतन्त्र रह
अणुव्रत का व्यापक प्रसार करने के लिए कर काम करने में मानन्द मिलता है। यह चिन्तन
केवल साधु साध्वियों को ही नहीं, गृहस्थ कार्य की भिन्नता है कि एक ही काम को कोई अच्छा
कर्ताओं को भी तैयार होना है। गृहस्थ कार्यकर्ता गानना है और कोई बुरा।
पण व्रत की योजना को तभी क्रियान्वित कर पाएंगे
जब पहले वे स्वयं अपरिग्रह को अपना पाकर्षण यह सच है कि आज व्यापारियों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए वे केन्द्र बनाएगे। परिग्रह के प्रति जनता का जो व्यवस्था और सरकार दोनों को दोषी बताते हैं। झुकाव बढ़ रहा है, वह प्रानन्द में बाधा है। प्रात्मापर इसके साथ यह भी चिन्तनीय है कि व्यापारी नन्द प्राप्त करने के लिए सबसे अच्छा उपाय यही स्वयं अपनी प्रामाणिकता का कितना ध्यान रखते हैं कि व्यक्ति अपनी भाकांक्षाओं को उभरने का हैं ? स्वयं को अप्रामाणिकता से सरकार के साथ अवकाश न । प्रमाणिकता की प्राशा कैसे की जा सकती है ? भगवान मपावीर ने 'इच्छा-परिमाण' का जो
व्यक्ति अप्रामाणिक क्यों बनता है? मेरी सत्र दिया है वह वर्तमान युग की ज्वलन्त समस्याओं दृष्टि में अप्रामाणिकता का सबसे बड़ा हेतु है का स्थायी समाधान है । भगवान महावीर की इच्छानों का विस्तार । आकांक्षाप्रो के विस्तार से शताब्दी मनाने की सार्थकता इसी में है कि उनके राष्ट्र की नैतिकता डांवाडोल स्थिति से गुजर रही सिद्धान्तों को लोकव्यापी बनाकर विश्वशान्ति की है। नैतिकता की नाव को डूबने से बचाना है तो स्थापना में कोई नया कीर्तिमान स्थापित किया सबसे पहले इच्छाओं का अल्पीकरण करना होगा। जाए। इसके लिए परिग्रह की दौड़ में प्रागे न बढ़
अणुव्रत इच्छाओं के अल्पीकरण में विश्वास कर पीछे मुड़कर देखना होगा। आकांक्षाओं के करके चलता है । अणुव्रती वह हो सकता है जो सीमाहीन विस्तार को एक परिधि में केन्द्रित करना मनावश्यक प्राकांक्षामो से मुक्त होकर चलता है। होगा। अन्यथा आकांक्षानों का यह प्रवाह आत्मप्रणवती वह हो सकता है जो अपव्यय से बचता तोष को अपने साथ बहा कर ले जा सकता है।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
की
भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्वपूर्ण है, वह सब तपस्या से सम्भूत है । तपस्या के बिना प्रादर्श जीवन निरर्थक है । भगवान महावीर का तपःपूत जीवन मात्मा से परमात्मा बनने की कहानी है । पूर्वा
चार्यों के कथनानुसार भगवान किसी वाह्य कारण तपः साधना
के बिना ही विषयों से विरक्त हो गए; क्योंकि पदार्थों की स्थिति जानने वाला मुमुक्षु शान्ति प्राप्त करने के लिए सदा वाह्य कारण को नहीं देखता है। भगवान ने निर्मल अवधिज्ञान के द्वारा एक साथ अपने अतीत भवों तथा उद्दण्ड इन्द्रियों की विषयों में होने वाली अतृप्ति का इस प्रकार वितन किया कि जिससे उन्हें पूर्वभव का सब वृत्तान्त प्रकट हो गया। पद्मचरित में उन्हे स्वयंबुद्ध विशेषण से विभूषित करते हुए कहा गया है कि वे समस्त सम्पदा को बिजली के समान क्षणभङ गुर जानकर विरक्त हुए और उनके दीक्षाफल्याणक में लोका. न्तिक देवों का आगमन हुआ । अट्ठाइस वर्ष सात माह बारह दिन गृहस्थ अवस्था में बिताकर षष्ठोपवास के साथ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर था, महावीर ने दीक्षा ली।। ईस्वी सन् के अनुसार दीक्षा की यह तिथि सोमवार 29 दिसम्बर 569 ई० पूर्व निश्चित होती है । बारह वर्ष पांच माह पन्द्रह दिन उन्होंने तप किया। भगवान महावीर
की तपः साधना बड़ी कठोर थी । जैन ग्रन्थों में -डा. रमेशचन्द्र जैन उनकी तपश्चर्या के विविध रूप मिलते हैं
वर्धमान कॉलेज बिजनौर, उ. प्र.
अचेलकत्व-दिगम्बर साहित्य के अनुसार भगवान ने दीक्षा के समय समस्त वस्त्राभूषणों का परित्याग कर नग्नावस्था में विहार किया । श्वेता.
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-50
म्बर परम्परा के अनुसार पंचमुष्ठि लुचन करने के अत्यधिक सुगन्धित था, फलस्वरूप चार माह से बाद जब उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया तब अधिक समय तक अनेक जाति के प्राणी पाकर इन्द्र ने उन्हें एक देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया, जिसे उनके शरीर पर रहने लगे, शरीर पर चढ़कर उनकी महावीर ने स्वीकार किया । भगवान 13 माह हिंसा करने लगे-मांस खून वगैरह चखने लगे ।। तक उस वस्त्र को धारण किए रहे, अनन्तर वे भगवान महावीर दंशमशक के इस परिषह को वस्त्र छोड़कर अचेलक हो गए। प्राचाराङ्ग सूत्र समभावपूर्वक सहन करते रहे। के प्रथम श्रु तस्कन्ध के छठे अध्ययन उद्देश्क 3 में उपवास-दिगम्बर ग्रन्थों में भगवान महावीर भगवान ने अचेलकत्व की प्रशंसा की है।
द्वारा किए गए विविध उपवासों का विगतवार दंशमशकपरिषहजय-दीक्षा के समय भगवान वर्णन नहीं मिलता है, जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में के शरीर में सुगन्धित प्रङ्गराग था ।10 इसके उनकी तपस्याओं का उल्लेख इस प्रकार पाया अतिरिक्त भगवान का शरीर स्वाभाविक रूप से जाता है12
तपनाम
संख्या
उसके दिन
वर्ष
मास
दिन
1. छह मास 2. पांच दिन कम छ:मास 1 4. चौमासी
9 4. तीन मासी 2 b. अढाई मासी 2 6. दो मासी 7. डेढ़ मासी 8. मास क्षमण 12 9 पक्ष क्षमण 72 10. सर्वतोभद्र प्रतिमा 1 11. महाभद्र प्रतिमा । 12. अष्टम् 12 13. षष्ठ 229 14. भद्र प्रतिमा 15. दीक्षा दिवस 16. पारणा. 349
* कुल दिवस 4515
6x30x1= 180 060 6x30-5 =175 4x30x9 - 1080 3x30x2 -180 20x30x2 -150 2x30x6 -360 ॥x 30x2 - 90 1x30x12 - 360 011x30x72 - 1080 10 दिवस की -10 4 दिवस की - 4 3x12 = 360 18 2x229 = 458 1
) दो दिन की - 2 0 0 1 एक दिन की 1 349 दिन की' -349 वर्ष 12 मास 6 दिन 15
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
उक्त विवरण से ज्ञात होता हैं कि भगवान महावीर ने अपने छद्मस्थ तपस्या काल के 12 वर्ष 6 मास और 15 दिन में केवल 349 दिन ही भोजन किया। शेष दिनों में उन्होंने निर्जल उपवास ही किए। वे गांव या शहर में प्रविष्ट होकर गृहस्थ के द्वारा अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहार में से प्रत्यन्त शुद्ध निर्दोष श्राहार की गवेषणा करते थे और उस निर्दोष आहार को संयत योगों से विवेकपूर्वक सेवन करते थे 13 वे ब्राह्मण, श्रमण, गांव के भिखारी प्रथवा प्रतिथि, चाण्डाल, बिल्ली, कुत्ता आदि नाना प्रकार के यदि खड़े हों तो उनकी वृत्ति का भङ्ग न करते हुए मिक्षार्थ गमन करते थे 114 भूख से बुभुक्षित वाय' सादि पक्षियो को मार्ग में गिरे हुए अन्न को खाते देखकर वे उन्हें नहीं उड़ाते हुए विवेकपूर्वक चलते थे, जिससे उनके आहार में विघ्न न पड़े 115
चातुर्मास - भगवान महावीर ने निर्जन और दुरूह वनों में विहारकर योगसाधना की । वह तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे । वर्षा ऋतु में चार माह वे एक स्थान पर रहते थे । बारह वर्ष की तपस्या में उन्होंने बारह चातुर्मास विभिन्न स्थानों पर रहकर व्यतीत किए । दिगम्बर ग्रन्थों में उनके नाम नहीं मिलते । श्वेताम्बर कल्पसूत्र के अनुसार भगवान ने पहला चातुर्मास अस्थिग्राम (वर्द्धमान) में व्यतीत किया । उपरान्त उन्होंने मालन्दा, चम्पापुरी, पृष्ठचम्पा, भद्दीया. आलभिका, राजगृह, लाढ़, श्रावस्ती, विशाला और चम्पापुर में तुर्मास किए 128
सिंहवृत्ति- - भगवान महावीर ने अपने तपः काल में सहवृत्ति 17 धारण की। प्राचार्य गुणभद्र
अनुसार यद्यपि उनके सिंह के समान तीक्ष्ण नख और तीक्ष्ण दाढें नहीं थी। वे सिंह के समान क्रूर नहीं थे और न सिंह के समान उनकी गर्दन पर लाल बाल थे, फिर भी शूरवीरता, अकेला रहना तथा बन में निवास करना इन तीन विशेषताओं मैं सिंह का अनुकरण करते थे 148
1-51
1
श्राहार- भगवान महावीर मुनि अवस्था में नवधाभक्ति 19 पूर्वक दिया गया प्रहार ग्रहण करते थे । उदाहरणार्थ दीक्षा लेते ही ढाई दिन का अनशन 2° समाप्त कर वे कूलग्रामपुरी ( कूलपुर, कोल्लग सन्निवेश) पहुंचे। वहां कूल नामक राजा ने भक्तिभाव से युक्त हो उनके दर्शन किए, तीन प्रदक्षिणायें दी, चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया और घर पर भाई हुई निधि के समान उन्हें माना । राजा ने श्रेष्ठ स्थान पर बैठाया, श्रधं आदि के द्वारा उनकी पूजा की, उनके चरणों के समीपवर्ती भूतल को गन्ध आदि से विभूषित किया और मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करने वाला परमान्न ( खीर का प्राहार) दिया । उक्त दान के फलस्वरूप उनके घर पर पञ्चाश्चर्य 21 हुए
ईर्या समिति - भगवान महावीर पुरुषप्रमाण आगे की भूमि को देखते हुए ऊर्ध्व शकरवत् (पीछे से संक्षेप और भागे से विस्तार वाली घुट्टी की तरह) दृष्टि को प्रागे रखकर (देखकर) अपने मन को ईर्यासमिति में लगाकर चलते थे। उस समय उनके दर्शन से डरे हुए बालक मिलकर धूलि से भरी हुई मुष्टि को मारकर कोलाहल करते थे 122 भगवान इसे समभाव पूर्वक सहन करते थे ।
उपसर्ग विजय -- भगवान महावीर पर बड़े बड़े दैहिक उपसर्ग आए जिनका वर्णन पढ़ते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और दिल कांपने लगता है । इस विशाल भूतल पर प्रसंख्य महापुरुष, प्रवतार कहे जाने वाले विशिष्ट पुरुष तथा तीर्थ कर हुए हैं. किन्तु इतनी कठिन तपस्या करने वाला कोई दूसरा पुरुष नहीं हुआ । भयानक से भयानक यातनाथों में भी उन्होंने अपरिमित धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता का प्रादर्श उपस्थित किया । 23 एक दिन वे उज्जयिनी के प्रतिमुक्तक श्मसान में प्रतिमायोग से विराजमान थे । उन्हें देखकर महादेव नामक रुद्र मे अपनी दुष्टता से उनके धेर्य की परीक्षा करना
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-52
चाही । उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े बड़े (बौद्धादि) अपने शरीर से चार अङ्गल अधिक वेतालों के रूप बनाकर उपसर्ग किया कि जो तीक्ष्ण लम्बी लाठी लेकर वहां विचरण करते थे। जैसे चमड़ा छीलकर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना रण में हाथी वैरी सेना को जीतकर पारगामी चाहते थे, खोले हुए मुहों से प्रत्यन्त भयंकर दिखते होता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भी उस थे, अनेक लयों से नाच रहे थे तया कठोर शब्दों लाढ़ देश में परीषह रूपी सेना को जीतकर पारअट्टहास और विकरालदृष्टि से डरा रहे थे । इनके गामी हुए 27 जैसे कवच आदि से संवृत शूरवीर सिवाय रुद्र ने सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु पुरुष संग्राम में चारों ओर से शस्त्रादि का प्रहार के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया, होने पर भी आगे बढ़ता चला जाता है, उसी प्रकार किन्तु वह उन्हें समाधि से विचलित नहीं कर श्रमण भगवान महावीर उस देश में कठिन से सका। अन्त में वह भगवान के महति और महावीर कठिन परिषहों के होने पर भी धैर्य रूपी कवच से दो नाम रखकर अनेक प्रकार से स्तुति कर चला संवृत होकर मेरु की तरह स्थिरचित्त होकर संयम गया 24
मार्ग पर गतिशील थे।28 . दिगम्बर जैन शास्त्रों में उपर्युक्त उपसर्ग का महामौन-जैन मान्यतानुसार तीर्थ कर ही उल्लेख है, किन्तु श्वेताम्बरीय शास्त्रों में मोर छद्मस्थ में उपदेश नहीं देते हैं। वे कैवल्य प्राप्ति के भी कई उपसर्गों का वर्णन मिलता है। इनमें बाद ही तद्रूप देशना करते हैं । तीर्थंकर महावीर गोपाल, शूल पारिणयक्ष, सगमदेव, चण्डकोशिक सर्प, मभी छद्मस्थ थे। मति, श्रुत, अवधिज्ञात तो उन्हें गौ शालक और लाढ़देश के अनार्य प्रजाजनों द्वारा जन्म से हो थे और दीक्षा के समय मन; पर्ययज्ञान पहुंचाई गई पीड़ायें भगवान की अनन्त क्षमता भी हो गया था पर कंवल्य प्राप्ति में कुछ विलम्ब और सहिष्णुता का ज्वलन्त निदर्शन हैं । जब था। दीक्षा के पश्चात् कंवल्योपलब्धि तक वे मौन भगवान महावीर अनार्यदेश में बिहार कर रहे थे, अवस्था में प्रवक् रहे। इसीलिए उन्हें महामोनी उस समय पुण्यहीन प्रनार्य व्यक्तियों ने भगवान को और पाकेवलोदयान्मौनी विशेषण दिए गए है ।29 डण्डों से मारकर घायल किया तथा बालों को . महाश्रमणत्व-- तीर्थंकर महावीर को महाखींचना भादि अनेक प्रकार कष्ट दिए, फिर भी वे श्रमण कहा जाता है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार अभिवादन करने वाले व्यक्ति पर प्रसन्न होकर उससे जिसकी वृत्ति सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, माकाश, बात नहीं करते थे, जो व्यक्ति अभिवादन नहीं वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, रवि और पवन के करता था, उस पर क्रोध नहीं करते थे। भगवान समान होती है, वे श्रमण श्रेणी में पाते हैं । जिस को रह साधना जन साधारण के लिए सुलभ नहीं प्रकार सप अपने लिए पिल नहीं बनाता उसो थी।20 लाढ़ देश में भगवान को बहुत से उपसर्ग प्रकार श्रमण का कोई घर नहीं होता, जहां कहीं हुए। बहुत से लोगों ने उन्हें मारा, पीटा एवं उनका निवास हो जाता है। परीषहों में उत्कम्पन दांतो और नखों से उनके शरीर को क्षतविक्षत नहीं होने के कारण उनकी वृत्ति पर्वत के समान किया। उस देश में भगवान ने रुक्ष अन्न, पाती वही गई है । तेज और तमोमय होने के क.रण अग्नि का सेवन किया। वहां कुत्तों ने भगवान को काटा। के समान, गाम्भीर्य अथवा ज्ञ नादि रत्नों के प्रागार उस देश में ऐसे कम व्यक्ति थे जो भगवान को होने के कारण सागर के समान, सब जगह निरा. काटते हुए कुत्तों से छुड़ाते थे। प्रायः लोग काटते लम्बन होने से प्राकाश के समान, सुख और दुख में हुए कुतों को छू छू कर काटने के लिए अधिक विकार न दिखलाने से वृक्ष के समान, मनियतवृत्ति प्रोत्साहित करते थे। ऐसी स्थिति में अन्य श्रमण होने से भ्रमर के समान, संसार के भय से उहिण्न.
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-53
होने के कारण मृग के समान, समस्त खेदों को मुहूं तमात्र चंक्रमणकर2 ध्यानसाधना करते थे। सहने के कारण पृथ्वी के समान, काम-भोग रहने वाह्यतप-वारप्रभु वर्षाकाल में जबकि सारी पृथ्वी पर भी उनमें निले पता होने के कारण जल से प्रकृति में झंझावात के उग्र आलोडन से थर्राती हुई भिन्न कमल के समान, लोक के समान्य रूप से दृष्टिगोचर होती उस समय भी धर्यरूपी कवच प्रकाशित होने के कारण सूर्य के समान तथा सब को प्रोढकर किसी वृक्ष के नीचे समाधि लगाए जगह अप्रतिबद्ध होने से पवन के समान श्रमणों रहते थे। कितने ही वृक्षों को जला देने वाले हिम की वृत्ति होती है ।30 तीर्थंकर महावीर इसी वृत्ति प्रपात को वे अपनी ध्यानरूपी अग्नि से जला दिया के थे। प्राचाराङ्ग सूत्र के अनुसार उनका निवास करते थे। ग्रीष्मकाल में जबकि चारों ओर अग्नि प्रायः शून्यघर, सभा, प्याऊ, पण्यशाला (दुकान) वर्षा होती, तब सूर्य की किरणों से भीषण तपते हुए तथा शहर की शाला होता था। वे प्रायः श्रम- पर्वत के शिलापण्डों पर अपने ध्यानरूपी शीतल जीवियों के ठहरने के स्थान, बाग, नगर, श्मसान, अमृत जल का सिंचन करते थे । इस प्रकार शारी. शून्यागार तथा वृक्ष के नीचे ठहरते थे ।31 रिक सुख की हानि के लिए33 वे वाह य तप करते
सतत जागृति-भगवान निद्रा का भी सेवन थे। नहीं करते थे। यदि कभी निद्रा आने लगती तो वे उठकर अपनी आत्मा को जागृत करते थे। उपर्युक्त प्रकार की महान् साधना के फलवे निद्रा को (प्रमाद रूप में) जानकर (संयमानुष्टान स्वरूप ही महावीर को सर्वोत्कृष्ट प्राध्यात्मिक में व्यवस्थित होकर अप्रमत्त भाव से विचरण करते सम्पत्ति की प्राप्ति हुई और वे सर्वज्ञ मोर सर्वदर्शी थे। कभी सर्दी की रात्रि में बाहर निकलकर के रूप में विश्व मे प्रसिद्ध हुए।
1. असगः वर्धमान चरितम् 17/102 ,
2. वही 17/103 . 1.3. रविषेण : परमचरित. 2/85 . - 4. धवला.1 खं० पृ. 65
5. जिनसेन : हरिवंश पुराण 2/5-51: .. .. विद्यानन्द मुनि : तीर्थंकर वर्द्धमान पृ० -27 17. जयधवला भाग I पृ० 81
8. उत्तर पुरण 74/305 ... प्राचाराङ्ग 1/9/1/3-4 10. उत्त'पुराण 74/308 1. प्राचारङ्ग 1/9/173 12. महावीर जयन्तो स्मारिका, जयपुर 1970 जैन प्रकाश के उत्थान वीरांक में प्रकाशित
त्रिभुवनदास महता का लेख 13, पाचाराङ्ग 1/914/9
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-54
14. वही 1/9/4/11 16. वही 1/9/4/10 16. डा. कामता प्रसाद जैन : भगवान महावीर पृ० 93 17. उत्तरपुराण 74/315
उत्तरपुराण 72/305 असग : वर्धमानचरितम् 17/121 डा० कामताप्रसाद जैन : भगवान महावीर पृ० 92 गुणभद्र : उत्तर पुराण 74/381-322
प्राचाराङ्ग 1/1/9/5 23. मुनि सुशीलकुमार : जैन धर्म पृ० 28
उत्तरपुराण 74/331-337
मुनि सुशीलकुमार : जैन धर्म पृ० 28 26. प्राचाराङ्ग 1/9/1/8 27. प्राचाराङ्ग 1/8/3/3-8 28. वही 1/9/3/13 29. पद्मचन्द्र शास्त्री : तीर्थकर वर्धमान महावीर पृ० 62 30. उरग गिरि जलण सागर नहतल तरुमण समो म जो होइ। भमर मिय धरणि जलरुह रवि पवण समो म सो समणो।
स्थानाङ्ग सूत्र अर्थवत्ति-स श्रमणो भवति इति प्रतिपंद सम्वध्यते । यः उरगसमः परकृताश्रयनिवासात् । गिरिसमः परिषहोत्कम्परहित्यात् । ज्वलनसमस्ते जस्तपोयमत्वात् । तृणादिष्विब सूत्रार्थेष्व. तृप्तत्वादपि नमस्तक्त समः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् । तरुगणसमः सुखदुः खयोरदर्शित विकारत्वात् । भ्रमर समोऽनियतवृत्ति त्वात् । मृगसमः संसारभयाद्विग्न त्वात् । धरणिसमः सर्वरवेदसहिष्णुत्वात् । जलरुहसमः कामभोगाद् भवत्वेऽपि पजलाभ्यामिव तदूहवं वृत्तः। रबिसनः धर्मास्ति कायादिलो कमधिकृत्याविशेषण प्रकाशकत्वात् । पवन समश्च सर्वत्रा प्रतिबद्धत्वात् । एवंविधो य स श्रमो भयति ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष 31. पांचाराङ्ग सूत्र 1/9/2/2-3 32. वही 1/9/2/5-6 33. सकलकोति : महावीर पुराण त्रयोदश प्रकरण पृ० 91
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीक्षा-दिवस
दीर्घ तपस्वी महावीर
बिहार-भूमि धन्य है जिसने धर्म, दर्शन, संस्कृति साहित्य एवं राजनीति के क्षेत्र में युगों-युगों से विश्वमान्य अनेक महामनीषियों, क्रान्तिकारीसाधकों एवं नेताओं को जन्म दिया है। भगवान महावीर भी उन्हीं में से एक युगप्रधान महापुरुष थे, जिनके अनुपम पुरुषार्थ एवं कठोर साधना ने भारतीय समाजवाद, साम्यवाद तथा धर्म, दर्शन एवं माचार शास्त्र के इतिहास के एक विशेष प्रतिभापूर्ण अध्याय का अंकन किया और वैशाली मथवा बिहार को ही नहीं, अपितु भारत को भी महामहिम बना दिया । उन्हीं महान बिहारी भगवान महावीर के निर्वाण को इस वर्ष 2500 वर्ष पूरे हो चुके हैं, अतः उनकी उस पुण्यतिथि की स्मृति में उनका 2500वां निर्वाण समारोह राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वत्र मनाया जा रहा है।
जैन-परम्परा के अनुसार भगवान महावीर तीर्थंकरों की श्रेणी में चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थकर हैं। प्रागम साहित्य में तीर्थकर उसे कहा गया है जो सांसारिक सुखों को क्षणिक एवं जन्म-मरण का मूल कारण जानकर वैराग्य धारण करता है मौर निरीह-वृत्ति से बारह प्रकार के अन्तर्वाह्य कठिन तप करके शाश्वत सुख-मोक्ष प्राप्त करता है। ऐसे तीर्थंकरों के सम्पूर्ण जीवन का वर्गीकरण पांच भागों में किया गया है-(1) गर्भावतरण (2) जन्म धारण (3) दीक्षा अथवा तप (4) केवल ज्ञान प्राप्ति एवं (6) मोक्ष ।
पूर्वाचार्यों के अनुसार उक्त पांचों अवस्थाएं जड़ एवं चेतन में एक विशेष माल्हादकारी एवं कल्याणकारी वातावरण उत्पन्न करती हैं मतः उक्त प्रत्येक भाग के साथ-साथ 'कल्याणक' विशेषण भी संयुक्त कर दिया जाता है । उदाहरणार्थ तीर्थ.
प्रो. डॉ. राजाराम जैन अध्यक्ष संस्कृत प्राकृत विभाग 'ह• दा• जैन कालेज, भारा (बिहार)
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-56
कर प्रकृति वाले जीव के गर्भ में आते ही उसके दीक्षा के पूर्व महावीर युवराज थे। उनके प्रभाव से दूर-दूर तक विविध प्रकार की बीमारियाँ सुन्दर एवं सुकुमार शरीर की रक्षा के लिए सभी एवं प्रतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा दुर्भिक्ष जैसी भयंकर साधन सम्पन्न व्यवस्थाएं थीं। एक ओर उनका विपत्तियाँ स्वयमेव शान्त हो जाती हैं । अतः तीर्थ- वह अत्यन्न सुकोमल शरीर था, तो दूसरी मोर कर के गर्भावतरण के लिए "गर्भकल्याणक" कहा जैन तपस्या की घनी कर्कशता, रूक्षता एवं बीहड़ता जाता है। 9 मास के बाद जब वह जन्म लेता है, परस्पर में उन दोनों के सामञ्जस्य की कल्पना भी तब उसके प्रभाव से प्रकृति एवं प्रत्येक वर्ग के प्राणी कठिन थी किन्तु लोककल्याणकारी दृढ़ इच्छाशक्ति प्रपने-अपने क्षेत्र में आशातीत समृद्धि प्राप्त करते ने उस कुसुमादपि कोमल कुमार को ज्रिादपि हैं, अतः उसे “जन्मकल्याणक" कहा जाता है। कठोर बना दिया। शोकाकुल परिवार, मित्रों तीसरी अवस्था दीक्षा अथवा तप-सम्बन्धी है। रिश्तेदारों तथा प्रजाजनों की मूर्छावस्था एवं उनके कुमारकाल की समाप्ति पर तथा सांसारिक सुखों बार-बार जमीन में गिरने-पड़ने तथा दहाड़मारकर के प्रति विराग भाव जगने पर उनके प्रति माया- रोने की स्थिति भी उनके दृढ़ निश्चय को न बदल मोह के त्याग का जन-जीवन पर अच्छा प्रभाव सकी। वे शीघ्र ही महाभिनिष्क्रमण कर समीपवर्ती पड़ता है, अतः तीर्थकर जीव की दीक्षा को दीक्षा 'नाथवन' अथवा 'ज्ञातृक वन खण्ड' में पहुंचे और प्रयवा “तप-कल्याणक" कहा गया है। घोर- अपने बहमूल्य वस्त्राभूषण उतार डाले, साथ ही तपश्चर्या के कारण ज्ञानावरणादि घातिया-कर्मों के सुन्दर आकर्षक घुघराले केशों को भी पांच वार क्षय होने पर उनकी आत्मा में लोक कल्याणकारी मुट्ठियों में भरकर उखाड़ फेंके । इस प्रकार त्रिशला विशिष्ट ज्ञान-केवलज्ञान की जागृति होती है अतः प्रियकारिणी का वह दुलारा वर्धमान महावीर उसे "केवलज्ञान कल्याणक" कहा गया है । अन्तिम यथाजात-शिशु जैसा रूप धारणकर तपस्या में लीन अवस्था में प्राय-कर्म के क्षय होने पर भव्यजीवों को शुद्ध, बुद्ध एवं निर्मल आत्मा का बोध कराने महावीर के नाना तथा वैशाली-गणराज्य के वाला एवं शाश्वत सुख प्रदान करने वाला मोक्ष राष्ट्रपति चेटक महाराज ने अपने प्रिय नाती के प्राप्त होता है अतः उसे "मोक्ष कल्याणक" कहा दीक्षा दिवस की स्मृति में उसी दीक्षा स्थल पर एक गया है।
विशाल "महावीर कीत्ति स्तम्भ" का निर्माण कराय .. उपर्युक्त कल्याणकों के क्रम में भगवान महावीर था, जो आज भी वैशाली की सीमा पर स्थित है। का माज तीसरे क्रम का दीक्षा अथवा "तप मूल घटना को विस्मृत कर देने के कारण पुरातत्व कल्याणक" का पूण्य दिवस है। आज से लगभग जगत में वह पाज अशोक स्तम्भ के नाम से 2542 वर्ष पूर्व महावीर ने कुण्डग्राम का युवराज विख्यात है तथा स्थानीय लोग उसे "भीमसेन की प्रद तथा राज्य, परिवार, नाते रिश्तेदार एवं ऐश्वर्य लाठी" कहकर पुकारते हैं। सुखों का मगशिर कृष्ण 10 तदनुसार ई० पू० के दीक्षित होने के बाद महावीर की सर्वप्रथम रविवार 8 दिस० के अपराह न में निर्ममतापूर्वक पारणा (पाहार) विदेह जनपद के कोल्लाग सनिवेश त्याग कर नाथवन में दीक्षा धारण की थी, जैसा के राजा कूल चन्द्र के यहां 72 घण्टों के उपवास के कि उल्लेख मिलता है :
___ बाद हुई। चूकि जैन साधु वर्तनों का स्पर्श नहीं मग्गसिर बहुलदसमी अवरण्हे उत्तरासु णाधवणे। कर सकते, अतः वह पाहार उन्होंने दोनों हथेलियों तदिय खवयाम्भि गहिदं महव्वदं बढ़डमारणेण॥ को पात्र जैसा बनाकर उससे सावधानी पूर्वक
तिलोय० 607 ।। समपाद खड़े होकर, ग्रहण किया। उसके बाद
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन ग्रथ भेंट समारोह
भगवान महावीरमा निर्वाणमहोत्सवसमारोह
सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए माननीय राज्यपाल महोदय को एक लाख से अधिक की लागत के ग्रन्थ भेट ।
.
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-67 सुकोमल चरणों वाले योगिराज-महावीर, जब ही एक परिवार में मुण्डित-मस्तक होकर वन्दिनी पैदल ही तपस्या हेतु वनखण्ड में पहुंचे तब कंकरीले का जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पैरों में पथरीले मार्ग में चलने के कारण उनके पैर खून बेडियां पड़ी रहती थीं। दिन भर के परिश्रम करने से लथपथ हो गए किन्तु इन कष्टों का अनुभव के बाद उसे कोदों एवं मट्ठा खाने को मिलता किए बिना ही शीत ऋतु में दिगम्बर मुद्राधारी वे था। महावीर को निराहार देखकर वह विह वल हो मात्मध्यान में इस प्रकार लवलीन हुए कि उसकी उठी और उसने उन्हें माहारदान देने का निश्चय निश्चल मुद्रा से हिरणों ने उन्हें पाषाण प्रतिमा किया। अगले दिन उसने पवित्र मन से मढे में समझ लिया और अपनी खुजली तक उनसे खुजलाने कोदों को मिट्टी के बर्तन में पकाया और चर्या को लगे जैसा कि कहा गया है :
निकले हु। महावीर को पडगाहकर उन्हें प्राहार शीत तप नदी के किनारे वीर थे जब कर रहे।
दान दिया। यह देखकर सर्वत्र प्रसन्नता की लहर
दौड़ गई। दिव्य सन्त के प्रभाव से चन्दना की हिरण उनके रगड तन को खाज अपनी हर रहे ॥
महेरी सुन्दर खीर में बदल गई तथा चन्दना के प्रबल झंझा के झकोरे बरसता था अमित जल
मिट्टी के बर्तन स्वर्ण पात्रों में बदल गए :वृक्ष टप-टप टपकता था, किन्तु, वीर थे तप में मवल ____ महावीर ने अपने तपस्याकाल में दुधा, सो वह तक्र कोद्रवन वोद पिपासा, शीत, गर्मी, दंशमशक मादि बाईस परीषहों तन्दुल खीर भयो अनुमोद । को सहन करते हुए बारह वर्षों मर्थात् 4320 माटी पात्र हेममय सोय दिनों तक मौन पूर्वक तपस्या की। इस बीच में घरम तने फल कहा न होय । उन्होंने कुल मिलाकर 349 दिनों में 1-1 बार
पाहार दान की वह बेला वन्दिनी चन्दना पारणा की।
सती के उदार की प्रभुत घटना तथा महिला पारणा के पूर्व वे कभी-कभी अपने मन में समाज के उतार के इतिहास का स्वर्ण पृष्ठ ही बड़ी विचित्र प्रतिज्ञाए कर लेते थे। उनकी पूर्ति बन गया । मागे चलकर वह चन्दना सती महावीर न हो पाने में उन्हें लगातार 6-6 मास तक भी के चतुर्विध संघ में मार्यिका-संघ की प्रधान मधिपाहार नहीं मिल पाता था। एक वार कोशम्बी ष्ठात्री बनी। के वन में उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि मैं ऐसी प्रभागिन महावीर प्रपने तपस्या काल में तीन दिन से पाजकुमारी के हाय से माहार ग्रहण करूंगा जिसका अधिक एक स्थान पर नहीं रुकते थे। हां वर्षा ऋतु सिर मुडा हुआ हो, पैरों में बेड़ी पड़ी हो और के चार मास वे प्रवश्य ही एक स्थान पर व्यतीत वह वन्दिनी के रूप में पभिशप्त जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने कुल बारह चतुर्मास किए जिनमें कर रही हो। उनकी यह प्रतिज्ञा 6 माह तक पहला चतुर्मास पस्थिग्राम में हुआ। उसके वाद पूरी न हो सकी और निराहार रहकर ही वे क्रमशः नालन्दा, चम्पापुरी, पृष्ठ चम्पा, भद्दीया, तपस्या करते रहे। अपने लोक नायक को दीर्घकाल प्रालमिका, राजगृह, लाढ़, श्रावस्ती, विशाला एवं तक निराहार देखकर जनता अत्यन्त व्याकुल हो चम्पापुर में उनके चतुर्मास हुए ! अस्थिग्राम का उठी, किन्तु प्रतिज्ञा न समझ पाने के कारण वह दूसरा नाम वर्तमानपुर था। पुरातत्ववेताओं ने सर्वथा विवश थी।
खोजबीन करके सिद्ध किया है कि बंगाल प्रान्त का ___ संयोग से दुर्भाग्य की मारी चेटकराज की वर्तमान कालीन 'बर्दमान' नगर ही वह प्राचीन राजकुमारी चन्दना किसी कारणवश कौशाम्बी के प्रस्थिग्राम प्रथवा वर्धमानपुर है। पृष्ठ चम्पा एवं
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-68 मद्दीया नगर वर्तमान भागमपुर से पूर्व की ओर समरथ होय सहें वर-वन्धन ते 24 मील की दूरी पर पथर घाटा के मासपास
गुरू सदा सहाय हमारे। होने का अनुमान किया गया है वर्तमान उत्तरप्रदेश
महावीर की क्षमता-शक्ति से वे उपसर्गकारी के इटावा जिले से उत्तर-पूर्व में सत्ताईस मील दूर अनार्य बाद में स्वयं ही इतने लज्जित हए कि स्थित ऐरवाग्राम ही महावीर कालीन मालमिका
उन्होंने उनसे क्षमा याचना की। योगिराज महानगर था। वर्तमान गोरखपुर जिले का प्राधुनिक वीर के सम्मुख हिंसक उपायों को निरर्थक हमा सहैठ-महेठ ही महावीरकालीन श्रावस्ती नगर देखकर वे अहिंसा का महत्व समझ गए और उसके था ।
परम भक्त बन गए। इसी प्रकार गोपालक, शूलिमहावीर का 9 वां चतुर्मास सबसे कठिन पारिणयक्ष, रुद्रदेव, चण्डकोशिक सर्प, तथा मक्खलि बीता। जब वे लाढ़ देश (बंगाल) पहुँचे तो वहां पुत्र गोशालक आदि के द्वारा की गई मारपीट एवं के अनार्यों ने महावीर के प्रति प्रत्यन्त कठोर वर्ताव उनके द्वारा किए गए अनेक उपसर्गों को भी महाकिया। उन्होंने उनपर जलते अंगारे फेंके, पत्थर वीर ने समवृत्ति पूर्वक सहा । इन रोमांचकारी बरसाए एवं शिकारी कुत्ते छोड़े। किन्तु महावीर
उत्पीड़ानों के समय भी वे हिमालय की भांति
अडिग, अडोल एवं प्रकम्प बने रहे। ने उन सभी कष्टों को कर्मबन्ध के जीर्ण-शीर्ण
महावीर ने बारह वर्ष की कठोर साधना के एवं विनष्ट होने का सुअवसर जानकर उन्हें सम
बाद 42 वर्ष की आयु में उत्कृष्ट आध्यात्मिक वृत्ति से सहन किया।
सम्पत्ति प्राप्त की और वे केवलज्ञानी बनकर हिन्दी के महाकवि भूधरदास ने उसकी चर्चा
सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी कहलाए। इन्द्र ने राजगृह के करते हुए कहा है :
विपुलाचल पर एक विशाल कलापूर्ण समवशरण निरपराध निवर महामुनि तिनको
की रचना की, जिसमें महावीर ने सर्वधर्म समन्वय
दुष्ट लोग मिल मारै के प्रतीक स्याद्वाद और अनेकान्त, कर्म सिद्धान्त, कोई बैंच खम्म से बाधैं
सृष्टि विद्या, मानव समाज-व्यवस्था प्रभृति विषयों कोई पावक में परजारे पर तत्कालीन जनभाषा में अपने अमृतमय उपदेशों तह विकोप नहीं करें कदाचित् पूर्वकर्म विचारे का प्रसार किया ।।
1. दिनांक 8-12-24 को भगवान् महावीर के दीक्षा-दिवस पर सार्वजनिक सभा में प्रदत्त
तथा प्रांशिक रूप से पाल इण्डिया रेडियो पटना द्वारा प्रसारित भाषण ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शन की दैनिक जीवन में उपयोगिता
- प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन
विभाव से वह अपने आप को परतन्त्र समझता है । अप्पा मित्तं श्रमित्त च । श्रात्मा ही अपना मित्र है, वही उसका शत्रु है । अपने ही विभावों को - कषायित रूपों को-राग, द्वेष और मोह को जीतकर वह जिन बनता है और अपने सत्, चित् और प्रानन्दमय स्वतन्त्ररूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । यह तो जीव का भ्रम है कि वह कर्मबद्ध है और परतन्त्र है । इस भ्रम को दूर करने के लिए उसे आस्था के साथ ज्ञान और प्राचरण की सम्यक्त्वपूर्ण साधना में लीन होना पड़ता है ।
आज हम एक स्वतन्त्र और विकासशील देश के नागरिक हैं और आर्थिक क्रान्ति के द्वारा समाज की नव-संरचना के महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। इसी समय भगवान महावीर का 2500 वां निर्वाण महोत्सव समारोह वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न करने वाली एक बड़ी घटना है जो अहिंसा वर्ष के रूप में घटित हो रही है । सामाजिक विकास की दिशा में स्वतन्त्रता और समानता इन दो बड़े जीवन मूल्यों के विषय में जैन दर्शन का प्रभिमत जानना, बताना इस परिप्रेक्ष्य में सर्वथा प्रासंगिक है ।
जैन दर्शन प्राध्यात्मवादी दर्शन है । उसकी दृष्टि में व्यक्ति समाज का महत्वपूर्ण घटक है । इसलिए वह व्यक्ति के विकास में समष्टि का विकास देखता है । व्यावहारिक दृष्टि से चाहे व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है पर तात्विक दृष्टि से यह सम्बन्ध व्यक्ति की विशिष्टता का विघात नहीं कर सकता ।
जैन दर्शन न केवल मानव को, वरन् प्रत्येक जीव को और प्रत्येक जीव को ही नहीं प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र मानता है । जीव की स्वतन्त्रता इस दर्शन की मौलिक चिन्तना है । उसके स्वरूप को बिगाड़ना या सुधारना किसी अन्य के लिए सम्भव ही नहीं है । स्वभाव से वह स्वतन्त्र है और
जैन दर्शन की दूसरी मौलिक चिन्तना है समता । जीवों की समानता और स्वतन्त्रता दोनों एक दूसरी की पूरक है। इससे जीवों की पारस्परिक स्थिति स्पष्ट होती है। एक जीव दूसरे जीव के उपकार या अपकार में निमित्त तो बन सकता है, पर इससे उसकी समता किसी भी तरह खंडित नहीं होती । कोई जीव छोटा या बड़ा नहीं, निकृष्ट या उत्कष्ट नहीं । जैसे प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है वैसे ही वह समान भी है । प्राध्यात्मिक घरातल पर सारे जीव समान हैं। सभी जीव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख इस अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न हैं। हमें जो असमानता भासित होती है वह तो उसके शारीरिक या सका पौद्गलिक परिवेश के कारण है । भौतिक घरातल
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-60
पर असमानता अनिवार्य है। तिथंच, पशु, देव प्रयत्नों की लम्बी मीमांसा को संक्षेप में त्याग और
और मानव का भेद इसी धरातल पर है। भौति- तप कहा गया है। त्याग और तप से आत्मा कता के कारण ही काले और गोरे का भेद है। परिग्रह के सारे अभिग्रहों से मुक्त हो जाता है। मोटे और दुबले का भेद है। स्त्री, पुरुष और स्वतन्त्रता और समानता की अनुभूति गृहस्थ नपुंसक का भेद है। बौद्धिक उपलब्धियों में भी दशा में भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि इसी प्रकार व्यक्तिशः अपेक्षाकृत भेद है । माज तक साधु-दशा में । अंश भेद रहता है, वह रहेगा। की कोई सामाजिक व्यवस्था केवल भौतिक प्राधार यदि हम माथिक समता को गृहस्थ जीवन के लिए पर ऐसे भेदों को नहीं मिटा सकी। भौतिक दृष्टि मावश्यक मानते हैं तो उसके लिए भी एक वृत्ति अहंकार को बढ़ाती है । भौतिक सम्पन्नता प्रमाद का विकास करना होगा। वृत्ति का विकास की जननी है। प्रमाद के योग से पाचरण में प्राध्यात्मिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हिंसा माती है । हिंसा से विषमता बढ़ती है। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं-जनतन्त्री या भौतिक दृष्टि का यदि आध्यात्मिक परिष्कार न लोकतन्त्री शासन-व्यवस्था में नया समाज बनाने के हो तो मानवीय दुःखों को हटाने के लिए जुटाई लिए जन-जन का योग चाहिए। केवल कानून गई सुख-सुविधाएं समता के नाम पर घोर से धोर बनाने से काम नहीं चलेगा। जन-सहयोग जो एक विषमताएं उत्पन्न कर देती है। शान्ति और माध्यात्मिक वृत्ति है उससे ही नये समाज की रचना सामाजिक न्याय की स्थापना के नाम पर संघर्षों होगी। इससे यह स्पष्ट हुप्रा कि समाज का प्रत्येक और युद्धों की प्रतिहिंस त्मक भावनाओं में उत्तरोत्तर व्यक्ति सामाजिक समानता में प्रास्था रखने वाला उभार प्राता रहता है और फिर उनको समाप्त हो, म त्म-विश्वासी हो, वह वैचारिक दृष्टि से करने के सारे भौतिक प्रयल एक मात्र विवाद सामाजिक विषमताओं को प्रपान्य करे और उन्हें पा परिचर्या के विषय बनकर व्यर्थ हो जाते हैं। मन, वचन और काय के सुसंयत प्राचरण से दूर
करे । त्याग और संयम के विशिष्ट प्राचरण से ही . भौतिकतावादी दृष्टि की विसंगतियों और विफलतापों के संदर्भ में जैन दर्शन यही करता है
भौतिक विषमताओं को किसी हद तक दूर किया भा
जा सकता है। कि समस्या का सम धान माध्यात्मिक है। उसे स्वीकार करो। बहिर्मुख-बहिरात्मा-मत रहो, जन सहयोग प्रबुद्ध होना चाहिए। उसे पाने अन्तर्मुख वनो। मंतरात्मा बनते ही तुम देखोगे के लिए जैन दर्शन ने एक दृष्टि दी है। वह है कि तुम तो स्वय पर ब्रह्म हो, परमात्मा हो। जीत अनेकान्त दृष्टि । पदार्थों के स्वरूप को समझने का स्वभाव परमात्मा है। सब परमात्मा बन की दृष्टि । वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। सकते हैं।
वह मनन्त रूपात्मक है। इन रूों को गगण भी
कहा जाता है। ये गुण साधारणतः किसी भी स्वतन्त्र और समान बनने के लिए पात्मा को व्यक्ति के द्वारा एक काल में देखे, समझे या बताये कुछ करना नहीं है। स्वतन्त्रता और समानता नहीं जा सकते । अनेकान्त दृष्टि विभिन्न व्यक्तियों बाहर से आनेवाली वस्तुएं नहीं हैं। वे तो मात्मा द्वारा विभिन्न कालों में विभिन्न अपेक्षाओं से कहे के अपने गुण हैं। अपने धर्म है । उसे यह भ्रम गये एक ही वस्तु के अनेक गुणों को समझने में हो गया है कि वे बाहरी तत्व है। इस भ्रम को सहायक होती है। इससे समाज में सहिष्णुता, हटाना हैं । परतन्त्रता पौर विषमता के भ्रम को सह मस्तित्व मौर निष्पक्षता के भावों का उदय हटाने के लिए उन्हें ही छोड़ना होगा। छोड़ने के होता है। संस्कृतियों के समन्वय में, सर्व-धर्म
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-61
माव में भी यही दृष्टि रहती है। इसे सम्यग् दृष्टि शून्यता, रिक्तता या प्रभाव की अनुभूति नहीं भी कहते हैं। इसी दृष्टि का एक रूप लोक
होती-उसके स्वयं के अनन्त दर्शन, पनन्त ज्ञान, दृष्टि है जो लोकहित के मूल में रहती है। इस
अनन्त शक्ति और अनन्त सुख में वह विलीन रहता
है-यही उसका ब्रह्मचर्य है। दृष्टि में सत्य के प्रति प्रभिनिवेश रहता है, यह
अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, अपरिग्रह पोर ब्रह्ममानव को दुराग्रहों से बचाती है। इसा दृष्टि को
घयं इन पांच जीवन मूल्यों की यह प्राध्यात्मिक कुछ इस प्रकार से भी कहा जा सकता है-हम
पृष्ठ भूमि है जिसे जैन दर्शन गृहस्थों के लिए स्वयं दुराग्रही न हों, दूसरों को अपनी बात तो .
अणुव्रतों के रूप में और साधुनों के लिए महा. कहें पर उसे उनपर लादें नहीं, सत्य बहु-मायामी व्रतों के रूप में प्रस्तुत करता है होता है, भाषा के द्वारा उसके किसी एक अंश की. संक्षेप में, जैन दर्शन की मान्यता है कि मानव हो किसी अपेक्षा में अभिव्यक्ति होती है, हम उस जड़ और चेतन का स्वरूप समझता है, उसके प्रपेक्षा को समझें। इस प्रकार यदि दृष्टि अने- अन्तर को पहचानता है। न तो वह दीन है और कान्तात्मक हो तो विरुद्ध सी प्रतीत होने वाली न हीन है। वह शरीर नहीं, शरीर संयुक्त है। पातों में संगति आ जायगी। महिंसक समाज की वह माध्यात्मिक शक्तियों का पुज है। मानव. रचना में यह दृष्टि अनिवार्यतः पावश्यक है। जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन है । इसी जीवन में उसके
अनेकान्त दृष्टिवाले व्यक्तियों का पाचरण भ्रम दूर होते हैं और उसे अपने प्रापकी अनुभूति पुम्यक्त्व को लिये हुए होता है। सम्यवस्वी जाग- होती है। गृहस्थ दशा में उसे अनेकान्त दृष्टि हक होता है, वह सत्य को स्वीकार करता है और, होना चाहिए-दूसरों की दृष्टि का मादर करना मिथ्या से बचता है। उससे मन्धश्रद्धा का पोषण चाहिये । किसी को भी दीन या हीन समझना नहीं हो सकता मिथ्यात्व को नष्ट करना ही , स्वरूप को खोना है और सब जीवों को समान उसको जीवन-साधना हो सकती है। स्पष्ट है,, मानना स्वरूप की प्रतिष्ठा है। उसे आत्म विकास ऐसा व्यक्ति जो सत् है उसे मानता है, प्रक्षत को के रहस्य को समझना है, उसकी गहराइयों में नहीं मानता। न तो वह 'पर' को 'स्व' मान प्रवेश करना है-तभी वह ममझ सकता है कि सकता है और न वह 'स्व' को 'पर' ही बता रखता
प्रस्म-विकास ही लोक-विकास है, पास्मोदार ही
लोकोद्धार है। है। उसका व्यवहार दूसरों को सत्यनिष्ठ बनाम) भारतीय संस्कृति में स्वतन्त्रता और समानता में निमित्त बनता है, सत्य-निष्ठता की प्ररणा के चिन्तन का विकास भौतिक संकीरगताम्रा से उससे मिलती है। यही उसका उपग्रह या उपकार चाहे कभी-कभी माच्छन्न हो गया हो पर उसका है। संयोग या निमित्त बनने के अतिरिक्त बह और
व्यापक रूप सदा बना रहा है । जैन दर्शन द्वारा कुछ हो ही नहीं सकता। वह मानी नहीं होता, . प्रस्तुत स्वतन्त्रता और समानता के सशक्त विचार कृत्रिमता, माया, छल, कपट से दूर रहता है।
उसकी सहानुभूतिपूर्ण अनेकान्त दृष्टि मौर दूसरे के प्राप्य का अपहरण करना उसके स्वभाव
अहिंसामय आचरण की व्यवहार्यता-ये सब इस में ही नहीं होता। उसके मौलिक पर्जन पौर
व्यापक परिप्रेक्ष्य में जन जन को प्रात्म बोष देने संचय दोनों की सीमाएं घटती जाती हैं, प्रनिवा
वाले, अपने शक्ति के स्वरूप को प्रकट करने पंतः प्रावश्यक का ग्रहण और शेष का परित्याग वाले सिद्ध हुए हैं। यही इनकी जीवनोपयो. स्वतः होता है। इस सबसे उसके जीवन में गिता है।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
जय महावीर की गूंज उठी
-रचयिता : श्री गुलाबचन्द जैन पंचामा
के हुए जगत से क्यों उदास जिनके घर में वैभव विलास, रहते प्रतिदिन कर जोड़ खड़े मननिनित दासियां तथा दास,
(2) नृप तथा महानृप नतशिर हो प्राज्ञा पालन में हैं तत्पर, प्रामोद प्रमोदों. में वसन्त.. मधुमास बना छाया घर पर,
(3)
बह प्राने श्रम की कीमत भी अपने श्रम से कब सका प्रांक, सुख सुविधाओं की सीमा से क्या सभी दिवस कर रहा माप,
(4)
कमनीय कलित कामनियों की जब एक बड़ी लम्बी कतार, मातुर थी अपित करने को, अपना तन मनयोवन निसार
(5) सुख भोग विल सों के जितने ..... साधन जग में निर्माण हुए, ... .... सर्वत्र सुलभता से उनको *पुण्योदय से प्राप्त हुए, ...
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
(6)
उसने सोचा मैं देख रहा
जो वह असीम वैभव विशाल,
श्ररण भंगुरता का है प्रतीक,
यह दृश्यमान संसार जाल,
(7)
होता है तन धन क्षीण विपुलता का होता है सर्वनाश,
हर्षातिरेक से मस्त, क्षणिक मैं दुख से करते प्रश्र पात,
(8)
बहु श्रोर असीमित तृष्णा की खाई बढ़ती ही जाती है दृढ़ता शठताओं पशुता से नित होड़ लगाई जाती है
(9)
प्राचरणहीन कुल के बल पर बन रहे धर्म के अधिकारी असहाय दीन वासना शमन की पुतली है केवल नारी
(10)
यज्ञादि अनुष्ठानों में नित
प्रति, हिंसा की जलती ज्वाला,
असहाय मूक पशुमों के
शोणित से सन रही यज्ञशाला,
1-69.
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.64
(11)
शासन के द्वारा इन सबका हो सका कभी प्रतिकार नहीं, भय, दम्य, भेद से मानव के मिट पाये विषय विकार नहीं,
(12)
प्रतएव मारम पम पर चल कर साधना करूं सर्वश बनू, फिर ज्ञान प्रभाकर के द्वारा प्रज्ञान तिमिर कोर कर,
(13)
लष बना दिगम्बर वेश वीर चल पड़े वीरता के पथ पर, मो कठिन तपस्या के द्वारा कर्मों से किया विचित्र समर,
..(14)
विजय इंदुमी बगी पहिंसा को फैली सुख शान्ति को लहर, जय महावीर की गूंज उठो .. मानन्द विभोर हुमा पर पर, ..
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
का
स्याद्वाद
- डॉ. प्रेमसुमन जैन सहायक प्रोफेसर, प्राकृत, संस्कृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय
महावीर विश्व इतिहास में एक ऐसा नाम है, जिसने ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में मानवता की ज्योति जलाई थी । जगत् के समस्त प्राणियों के हित के लिए उस महापुरुष ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, श्रादि कल्याणकारी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था । श्राज सारा विश्व भगवान् महावीर को उनके इन्हीं लोकोपकारी उपदेशों के लिए याद कर रहा है ।
महावीर के युग में चिन्तन की धारा अनेक टुकड़ों में बंट गयी थी । वैदिक परम्परा के भनेक विचारक तथा श्रमण परम्परा के 6-7 दार्शनिकों का उस समय अस्तित्व था । ये सभी चिन्तक अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य को पूर्ण रूप से जान लेने का दावा कर रहे थे । प्रत्येक के कथन में यह ग्रह था कि सत्य को मैं ही जानता हूँ, दुसरा नहीं ।
महावीर यह सब देख-सुन कर माश्चर्य में थे कि सत्य के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं ? सत्य का स्वरूप तो एक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में महावीर ने अपनी साधना और अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे व्यक्ति देख या जान रहा है । यह वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है। एक गुरण का पदार्थ में अनन्त धर्म, अनेक गुण तथा पयायें होती हैं। किन्तु व्यवहार में उसका कोई एक स्वरूप ही हमारे सामने श्राता है । उसे ही हम जान पाते हैं। शेष घर्मं प्रकथित रह जाते हैं । अतः प्रत्येक वस्तु का कथन सापेक्ष रूप से हो सकता है । यही कथन पद्धति स्याद्वाद है । जैनाचार्यो ने महावीर के इसी कथन का विस्तार किया है ।
स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-86
उनके बचपन में ही स्याद्वादी चिन्तन प्रारम्भ हो स्वरूप कहने लगता है तो एक बार में उसके किसी गया था। कहा जाता है कि एक दिन वर्द्धमान के एक गुण को ही कह पाता है । यही स्थिति संसार कुछ बालक साथी उन्हें खोजते हुए मां त्रिशला के की प्रत्येक वस्तु की है । पास पहुंचे। त्रिशला ने कह दिया 'वर्द्धमान भवन
हम प्रतिदिन सोने का प्राभूषण देखते हैं। में ऊपर है।' बच्चे भवन के सबसे ऊपरी खण्ड पर
__ लकड़ी की टेबिल देखते हैं। और कुछ दिनों बाद पहुंच गये । वहां पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं।
___ इनके बनते-बिगड़ते रूप भी देखते हैं। किन्तु सोना जब बच्चों ने पिता सिद्धार्थ से पूछा तो उन्होंने कह
और लकड़ी वही बनी रहती है। आज के मशीनी दिया-'वर्द्धमान नीचे है। बच्चे नीचे की मंजिलों
युग में किसी धातु के कारखाने में हम खड़े हो पर दौड़ पड़े। उन्हें बीच की एक मंजिल में खिड़की
जाय तो देखेंगे कि प्रारम्भ में पत्थर का एक टुकड़ा पर खड़े हुए वर्द्धमान मिल गये। बच्चों ने महावीर
मशीन में प्रवेश करता है और अन्त में जस्ता, से शिकायत की कि आज आपकी मां एवं पिता
तांबा प्रादि के रूप में बाहर पाता है। वस्तु के दोनों ने झूठ बोला । एक ने कहा था वर्द्धमान
इसी स्वरूप के कारण महावीर ने कहा था प्रत्येक ऊपर है, दूसरे ने कहा था-वर्द्धमान नीचे है,
पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता से युक्त है। जबकि तुम यहां बीच के खण्ड में खड़े हो । न नीचे
द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर उन्होंने थे, न कार।
जड़ और चेतन प्रादि छ: द्रव्यों की व्याख्या की वर्द्ध मान ने अपने साथियों से कहा- 'तुम्हें है। मति, श्रुति, केवलज्ञान प्रादि पांच ज्ञानों भ्रम हुआ है। मां एवं पिता जी दोनों ने सत्य के स्वरूप को समझाया है। केवलज्ञान द्वारा हम कहा था। तुम्हारे समझने का फर्क है। मां नीचे सत्य को पूर्णतः जान पाते हैं । अतः सामान्य ज्ञान की मंजिल पर खड़ी थीं। अतः उनकी अपेक्षा मैं के रहते हम वस्तु को पूर्णतः जानने का दावा नहीं ऊपर था और पिताजी सबसे ऊपरी खण्ड पर थे कर सकते । जान कर भी उसे सभी दृष्टियों से इसलिए उनकी अपेक्षा में नीचे था। वस्तुओं की अभिव्यक्त नहीं कर सकते । इसलिए सापेक्ष कथन सभी स्थितियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचने से की अनिवार्यता है। सत्य के खोज की यह हम सत्य तक पहुंच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते।' पगडंडी है। वर्द्धमान की यह व्याख्या सुन कर बालक हैरान अनेकान्त-दर्शन महावीर को सत्य के प्रति रह गये । महावीर स्याद्वाद की बात कह गये। निष्ठा का परिचायक है। उनके सम्पूर्ण मोर
स्याद्वाद और भनेकान्तवाद में घनिष्ठ सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान का द्योतक । महावीर की अहिंसा का है। भगवान महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं प्रतिबिम्ब है-स्याद्वाद। उनके जीवन की यह महत्व को स्पष्ट किया है। अनेकान्तावाद के मूल साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही में है--सत्य की खोज । महावीर ने अपने अनुभव हो तथा उसके कथन में भी किसी का विरोध न से जाना था कि जगत् में परमात्मा अथवा विश्व हो। यह तभी सम्भव है जब हम किसी वस्तु का की बात तो अलग व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान द्वारा स्वरूप कहते समय उसके अन्य पक्ष को भी ध्यान घटको भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाता। रूप, में रखें तथा अपनी बात भी प्रामाणिकता से कहें । रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों से युक्त वह घट छोटा• 'स्यात् शब्द के प्रयोग द्वारा यह सम्भव है। यहां बड़ा, काला-सफेद, हल्का-भारी, उत्पत्ति-नाश आदि 'स्यात्' का अर्थ है-किसी अपेक्षा से यह वस्तु मनम्त धर्मों से युक्त है। पर जब कोई व्यक्ति उसका ऐसी है.।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-67
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। रखता है । अपने साधनों द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति राजेश एक व्यक्ति है। वह अपने पिता की अपेक्षा की स्वतन्त्रता है। यह महावीर के स्याद्वाद की पुत्र है तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है। वह फलश्रुति है। पति है एवं जीजा भी। मामा है और भानजा भी। महावीर अनेकान्तवाद व स्याद्वाद से उन अब यदि कोई उसे केवल मामा ही माने पोर अन्य गलत धारणामों को दूर कर देना चाहते थे, जो सम्बन्धों को गलत ठहराये तो यह राजेश नामक व्यक्ति के सर्वागीण विकास में बाधक थीं। उनके व्यक्ति का सही परिचय नहीं है इसमें हठधर्मी है। युग में एकान्तिक दृष्टि से यह कहा जा रहा था प्रज्ञान है। महावीर इस प्रकार के प्राग्रह को कि जगत् शाश्वत् है, अथवा क्षणिक है। इससे वैचारिक हिंसा कहते हैं । मज्ञान से अहिंसा फलित वास्तविक जगत् का स्वरूप खंडित हो रहा था। नहीं होती। अतः उन्होंने कहा कि स्याद्वाद पद्धति मनुष्य का पुरुषार्थ कुण्ठित होने लगा था नियतिवाद से प्रथम वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। केवल के हाथों । अतः महावीर ने प्रात्मा, परमात्मा और अपनी बात कहना ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी जगत इन तीनों के स्वरूप का वह यथार्थ सामने अपना दृष्टिकोण रखने का अवसर दो। सत्य के रख दिया, जिससे व्यक्ति अपनी राह का स्वयं दर्शन तभी होंगे । तभी व्यवहार की अहिंसा सार्थक निर्णायक बन सके । अपूर्व थी महावीर की यह होगी।
देन । सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना
अनेकान्त व स्याद्वाद के सम्बन्ध में महावीर दर्शन के क्षेत्र में नयी बात नहीं है। किन्तु महावीर ने जो कहा वह उनके जीवन से भी प्रकट हुअा है । ने स्याद्वाद के कथन द्वारा सत्य को जीवन के गायत्री
वे अपने जीवन में कभी किसी की बाधा नहीं बने । धरातल पर उतारने का कार्य किया हैं। यही जगत में रहते हुए किसी अन्य के स्वाथ से न उनका वैशिष्ट्य है। हम सभी जानते हैं कि हर टकराना, कम लोगों के जीवन में सध पाता है । वस्तु से कम से कम दो पहलु होते हैं । कोई भी महावीर के अनुसार यह टकराहट अधूरे ज्ञान के वस्तु न सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा अहंकार से होती है। प्रमाद व विवेक से होती बुरी:
है। अतः अप्रमादी होकर विवेकपूर्वक प्राचरण 'दृष्टं किमपि लोकेस्मिन् न निर्दोष न निर्गुणम् ।' करने से ही अनेकान्त जीवन में आ पाता है।
अनेकान्त दृष्टि से ही सत्य का साक्षसार नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वी लगती है। वही रोगी के लिए औषधि भी है। प्रतः नीम के सभव है । सम्बन्ध में कोई एक धारणा बना कर किसी दूसरे महावीर द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद में वस्तु के गुण का विरोध करना बेमानी है। सामान्य नीम अनन्त धर्मात्मक होने के कारण उसे प्रवक्तव्य की जब यह स्थिति है तो संसार के अनन्त पदार्थों .. कहा गया है । मुख्य की अपेक्षा से गौण को प्रकथअनन्त धर्मों के स्वरूप को जान कर उनका प्राग्रह- नीय कहा गया है। वेदान्त दर्शन में सत्य को पूर्वक कथन करना सम्भव नहीं है। मह वीर ने अनिर्वचनीय और बौद्ध दर्शन में उसे श य व इसे गहराई से समझा था। अतः वे मनुष्य तक विभज्यवान कहा गया है। अन्य भारतीय दार्शनिकों ही सीमित नहीं रहे। प्राणी मात्र के स्पन्दन की के अतिरिक्त प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्राइसटीन व सापेक्षता को भी उन्होंने स्थान दिया। मनुष्य की दार्शनिक वर्टनरसेल के सापेक्षवाद के सिद्धान्त भी भांति एक सामान्य प्राणी भी जीने का अधिकार महावीर के स्याद्वाद से मिलते-जुलते हैं । महावीर
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
''
1-68
ने कहा था कि वस्तु के करण करण को जानो तब उसके स्वरूप को कहो । ज्ञान की यह प्रक्रिया प्राज के विज्ञान में भी है । इसका अर्थ है कि स्याद्वाद का चिन्तन संशयवाद नहीं है । अपितु इसके द्वारा मिथ्या मान्यताओं की अस्वीकृति और वस्तु के यथार्थ पक्षों की स्वीकृति होती है। विचार के क्षेत्र में इससे जो सहिष्णुता विकसित होती है वह दीनता व जी-हजूरी नहीं है, बल्कि मिथ्या अहंकार के विसर्जन की प्रक्रिया है ।
दर्शन व चिन्तन के क्षेत्र में अनेकान्त व
स्याद्वाद की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही व्यावहारिक दैनिक जीवन में । वस्तुतः इस विचारधारा से अच्छे-बुरे की पहिचान जागृत होती है । अनुभव बताता है कि एकान्त विग्रह है, फ्रूट है, जबकि अनेकान्त मैत्री है, सधि है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि जिस प्रकार सही मार्ग पर चलने के लिए कुछ अन्तर्राष्ट्रीय यातायात संकेत बने हुए हैं । पथिक उनके अनुसरण से ठीक-ठीक चल कर अपने गन्तव्य पर पहुंच जाते हैं । उसी प्रकार स्वस्थ चिन्तन के मार्ग पर चलने के लिए स्याद्वाद द्वारा महावीर ने सप्तभंगी रूपी सात संकेतों की रचना की है। इनका अनुगमन करने पर किसी बौद्धिक दुर्घटना की आशका नही रह जाती । श्रतः बौद्धिक शोषण का समाधान है --
स्याद्वाद ।
महावीर के स्याद्वाद से फलित होता है कि हम अपने क्षेत्र में दूसरों के लिए भी स्थान रखें । अतिथि के स्वागत के लिए हमारे दरवाजे हमेशा खुले हों। हम प्रायः बचपन से कागज पर हाशिया छोड़ कर लिखते प्राये हैं, ताकि अपने लिखे हुए पर कभी संशोधन की गुंजाइश बनी रहे । जो हमने अधूरा लिखा है, वह पूर्णता पा सके । महावीर का स्याद्वाद जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें हाशिया छोड़ने का संदेश देता है। संग्रह करें अथवा घन व यश का' होना ही महावीर के अनेकान्त को सापेक्षता श्रावश्यक है। संविभाग की यही हमारे चरित्र की कुंजी है । चिन्तन को निर्दोष करता है। निर्दोष भाषा का व्यवहार होता है । सापेक्ष भाषा व्यवहार में हिमा प्रकट करती है । प्रहिंसक वृत्ति से अनावश्यक संग्रह और किसी का शोषण कहीं हो सकता। जीवन अपरिग्रही हो जाता है । इस तरह भ्रात्म शोधन की प्रक्रिया का मूलतन्त्र है -- महावीर का स्याद्वाद ।
चाहे हम ज्ञान प्रत्येक के साथ समझना है । समझ जागृत अनेकान्त हमारे निर्मल चिन्तन से
अतः संसार के उस एक मात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा नमस्कार है, जिसके बिना इस लोक का कोई व्यवहार सम्भव नहीं है यथा--- जेण विणा लोयस्सवि वत्रहारों सञ्चहा न निवड | भुवणोकगुणो णमो मरणोगंतवायस्स ||
तस्स
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आध्यात्मिक ऊर्जा के केन्द्रक :
भगवान महावीर
-डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री संसार रूपवान है। यहां तरह-तरह के रूप अनन्त दीपों से 'दीपमालिका' के रूप में मनाई हैं, जो सदा स्थिर नहीं रहते । रूप सहज ही परि- जाती है। अनन्त ऊर्जा के केन्द्रक भगवान महावीर वर्तित होते रहते हैं। उन में रूपान्तरण की क्रिया को अनन्त ज्ञान उपलब्ध हुअा था और वे सिद्ध भी लक्षित होती है । विज्ञान की सहायता से उन हो कर निर्वाण को प्राप्त हुए थे। यही कारण है में जब चाहे, तब रूपान्तरण किया जा सकता है। कि अधिक से अधिक दीपों को प्रज्वलित कर रूप द्रव्य की पर्याय है । यह रूपान्तरण तभी होता दीपावली पर्व मनाया जाता है । भगवान महावीर है, जब सांयोगिक दशा होती है। रूपान्तरण की ने मोह-तिमिर का विनाश कर अक्षय, अनन्त निर्वाण अपनी प्रक्रिया और विज्ञान है । जैनधर्म इस आलोक प्राप्त किया था। निष्कम्प दीपशिखा की विज्ञान को प्रस्तुत करता है और कहता है कि यह भांति उन्होंने परमज्योति उपलब्ध की थी। वह संसार संयोग-दशा है। जीव और कर्म-परमाणुनों ज्योत क्या था ? मोह पर ज्ञान की विजय, अन्धकार के संयोग सम्बन्ध का नाम संसार है। संयोग दशा पर प्रकाश का अधिकार था । हम लोगों को तो वह में द्रव्य की मल शक्तियों का, अनन्त ऊर्जामों का पालोक प्राप्त नहीं है । मोह के दास और गुलाम सहज प्रकटन एवं स्फुरण नहीं हो सकता। जो बने हर है इसलिए और कुछ नहीं तो केवल प्रकिसंसार के सायोगिक रसायनों से अलिप्त रह कर चन मिट्टी के दीपों में स्नेह रूपी तेन उडेल कर द्वेष अपनी मूल ऊर्जा को प्रवाहित कर लेता है, वह रूपी बात्तयो को जलाने का प्रयत्न करते है । भगवान मात्मा से परमात्मा बन जाता है। भगवान महा- महावीर अपनी ध्यानाग्नि से राग-द्वेष को जलाकर वीर ने राग-द्वेष के रासायनिक विकारों से अस- वीतरागी बने थे। उसी प्रादर्श की स्मृति में यह म्पृक्त हो कर अपनी प्राध्यात्मिक ऊर्जा को संचेतना दीपावली का महान पर्व लगभग ढाई हजार वर्षों के माकाश में सभी ओर से निर्बन्ध एवं निर्मुक्त से मनाया जा रहा है। कर अनन्त चेतना के व्यापार को पालोकित कर भगवान महावीर किसी लोक से भगवान बन दिया था। उस पालोक की स्मृति स्वरूप कार्तिक कर नहीं आए थे। जन्म-जन्मान्तरों की साधना से कृष्ण अमावस्या को भारतवर्ष में घर-घर दीप तपःपूत हो कर वज्र की काया में मनुष्य जन्म प्रज्वलित किए जाते हैं । क्योंकि भगवान महावीर पाया था । नर से नारायण बन कर अपनी आत्माको इस दिन 'कैवल्यबोध' या 'केवलज्ञान' प्राप्त साधना के द्वारा सर्वज्ञ पद प्राप्त किया था । ईस्वी हुमा था। भारतीय संस्कृति व साहित्य में दीपक पर्व 527 में राजगृह के निकट पावापुर में जिस मान का प्रतीक है । दीपावली एक से नहीं, किन्तु क्षण भगवान को निर्वाण हुआ था, उसी समय देव
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-70
इन्द्रों के साथ ही नरेन्द्रों ने भी अठारह मल्ललिच्छवि नरेशों ने दीप मालाछों को प्रज्वलित कर निर्धारण - महोत्सव मनाया था । श्राज वही महोत्सव देश-देशान्तरों में अभिनव रूप में मनाया जा रहा है। ज्ञान का यह महापर्व संसार में ज्ञानविज्ञान के नित नवीन वातायनों का उद्घाटन करे और पूरा मानव समाज मिल कर सत्साहित्य व अध्यात्म का प्रचार करे, तभी इस महोत्सव की सार्थकता है । जैन समाज से अपेक्षा है कि विदेशों में जैनधर्म और भगवान महावीर को समझने की तीव्र उत्कण्ठा है, उनकी भाषा में जैन साहित्य नहीं होने से वे उससे वंचित रहे श्रौर यह दायित्व जैन समाज का है कि वे भगवान महावीर को अपने तक सीमित न रख कर जन-जन तक सुलभ करायें, उनके सिद्धान्त और सन्देश दुनिया के कोने-कोने तक फैला दें ।
यह
भगवान महावीर ने मुख्य रूप से अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सन्देश दिया था । धर्म एक ही है और वह है- प्रहिंसा । मानव जाति एक है और उसका धर्म एक है- प्रहिंसा । अनेकान्त अहिंसा का वैचारिक पक्ष है और अपरिग्रह व्यावहारिक । प्रत्येक विद्या के दो ही पक्ष होते हैंथ्योरी और प्रेक्टिकल । अनेकान्त थ्योरी है श्रीर अपरिग्रह प्रेक्टिकल रूप । मनुष्य में अनासक्ति मोर अनाग्रही वृत्ति आए, यही अहिंसा धर्म का लक्ष्य है । अनेकान्त से अनाग्रही वृत्ति बनती है और मपरिग्रह में मनुष्य आसक्ति से दूर हट जाता है, वस्तु से लगाव नहीं रहता । इन तीन 'प्र' (अहिंसा, अनेकान्त र अपरिग्रह ) में भगवान महावीर का जीवन-दर्शन लक्षित होता है । महात्मा गांधी कहते हैं। 'अनेकान्त वाद (स्याद्वाद ) मुझे बहुत प्रिय है । उस से मैंने मुसलमानों की दृष्टि से उनका, ईसा - इयों की दृष्टि से उनका, इस प्रकार अन्य सभी का विचार करना सीखा। मेरे विचारों को या कार्य को कोई गलत मानता, तब मुझे उसकी अज्ञानता पर पहले क्रोध पाठा था । पब मैं उनका
effबन्दु उनकी प्रांखों से देख सकता हूं, क्योंकि मैं जगत के प्रेम का भूखा हूं। अनेकान्तवाद का मूल सत्य का युगल है । अनेकान्त ने सत्य की खोज के द्वार सदा सदा के लिए उन्मुक्त कर दिए हैं । कोई भी उस सत्य को समझ सकता है, उपलब्ध कर सकता है । वहां न किसी जाति का बघन है और न कुल का । विनाश के कगार पर भूलने वाली मानवता को बचाने के लिए प्रथम सन्देश अनेकान्त का है । प्रत्येक मानव को उसके देश की परिस्थितियों में सही तौर पर समझने का प्रयत्न करें । फिर, जो उसे इष्ट है, वही हम चाहेंगे । जो और जैसा हमें अच्छा लगता है, वही दूसरों को भी अच्छा लगता है । हम सारा संग्रह कर उस पर एकाधिकार कर खुद मालिक बन जाते हैं और दूसरे को उस में भागीदार नहीं बनाना चाहते है, यही परिग्रह-वृत्ति है । सब अनर्थों का मूल यह परिग्रह की प्रासक्ति है । सभी संघर्ष अधिकार- बुद्धि से उत्पन्न होते हैं । आज की दुनिया में भौतिकता के परिग्रह की चारों ओर जो प्रतिस्पर्धाएं चल रही हैं, उन से भविष्य क्या होगा, कहा नहीं जा सकता ? किन्तु इतना निश्चित है कि संसार में इस से शांति स्थापित नहीं हो सकती । भगवान महावीर की वारणी है
इच्छाएं प्राकाश के समान अनन्त हैं । ये दुर्लभ्य हैं । इन इच्छाओं से रहित हो जाना प्रपरिग्रह है । अपरिग्रह में भीतर और बाहर की सभी ग्रन्थियों का मोचन हो जाता है। परिग्रह से मनुष्य में भय उत्पन्न होता है। अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे। क्योंकि परिग्रह के समान कोई जाल नहीं है । संसार के सुख भोगों की प्राप्ति में ही प्राणी जगत् लीन है। किन्तु तीन लोकों के वैभव प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य को तृप्ति नहीं मिलती । धन-वैभव के हाथ से निकल जाने पर मनुष्य प्रत्यन्त दुखी होता है । प्रतएव परमार्थ से इन्द्रियों के सुख की अभिलाषा परिग्रह है । अपरिग्रहो को संसार का कोई भी विषय अपनी मोद
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-71
बर्षित कर आसक्त व मोहित करने में समर्थ नहीं और समान-वितरण में समाज की भलाई कह कर होता। अपरिग्रही संसार में पानी में कमल की विराम ले लेते हैं, वहीं कह सकते हैं कि जैनधर्म सरह विषय-भोगों में अलिप्त रहता है । वास्तव इसके आगे प्राध्यात्मिक साम्यवाद तक ले जाता में दुनिया में अपरिग्रही ही सुखी है।
है। सर्वतन्त्रविहीन सच्ची स्वतन्त्रता हमें पूर्ण * जैनधर्म ने शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मान- अहिंसक व परमात्मा बनने पर उपलब्ध हो सकती सिक हिंसा न करने पर विशेष बल दिया है। है। विश्वकवि रवीन्द्र टैगोर का कथन स्पष्ट हैसंसार में जहां भी शोषण, अत्याचार, शीतयुद्ध,
_ 'भगवान महावीर ने भारतवर्ष को उस मुक्ति संघर्ष, तनाव व एक दूसरे को कैद कर अपने
का सन्देश दिया, जो धर्म की वास्तविकता है, केवल विचारों के आश्रित बनाए रखने की वृत्ति लक्षित
सामाजिक रूढ़ि नहीं है । मुक्ति धर्म की उस वास्तहोती है, यह सब मानसिक हिंसा का परिणाम है। जब तक संसार में मानसिक हिंसा की उग्रता बनी
विकता के माश्रय से उपलब्ध होती है जो निवृत्ति
परक है तथा सामाजिक प्रदर्शन व रूढ़ियों से परे रहेगी, तब तक विश्व-शांति की बात नहीं सोची जा सकती। आपस में बैठकर शांति-स्थापना के
है एवं मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई दीवार नहीं
मानती है । संसार में मनुष्य सामाजीकरण कर सकता प्रयत्नों की चर्चा भी तभी सफल हो सकती है, जबकि हमारे मन तनावरहित हो। अहिंसा की
है, राष्ट्रीयकरण कर सकता है, मनुष्य किन्तु स्थिति में किसी प्रकार का तनाव नहीं होता।
स्वभाव के सामाजीकरण के बिना असन्तुलन तथा इसलिये जैनधर्म कहता है कि मानसिक क्षोभ से
विषमता सदा बनी ही रहती है । ऐसी स्थिति में रहित आत्मा की समता परिणति का नाम अहिंसा
अहिंसा मानव-मनो-वृत्तियों के सामाजीकरण की है । यह कोई वाद नहीं है। फिर भी प्राप चाहें
दिशा में एक आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भूमिका
है। और यही कारण है कि लाखों वर्षों के इतिहास तो संसार के वादों में जहां समाजवाद, साम्यवाद ।
__ में अहिंसा की जितनी पहले कभी आवश्यकता वस्तु के विकेन्द्रीकरण, सामाजिक सम्पत्ति के नियन्त्रण एवं राष्ट्रीयकरण की पैरवी करते हैं नहा था, उसस बढ़ कर आज आवश्यकता है ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीप जले -श्री घासीराम जैन 'चन्द्र' शिवपुरी
जग मग जग मग नव दीप जले ।
हैं
आज प्रफुल्लित वृक्षलता, डग डग में फैली सुन्दरता । कण करण में आनन्द बरस रहा।
जग सजग हुवा मन हरष रहा ।
चढ़ त्याग तपस्या के रथ पै शिव पथ साधक प्रभु वीर चले।
____ जग मग जग मग नव दीप जले ।।
शसि किरण चली अस्ताचल में, वर भानु उदित छिति अंचल में। तारक माला छवि क्षीण हुई
है मधुर अरुणिमा जल थल में । निशि से प्रभात की प्रभा मंजु मिल रही आज भर प्रेम गले ।
जग मग जग मग नव दीप जले। वरवस बरसा पड़ता कंचन, सब टूट गये भव के बंधन, त्रिभुवन बोला कर कर वंदन,
जय हे जय हे त्रिशलानंदन ।
पाये हमने वरदान विपुल भारत के अनुपम भाग भले ।
जग मग जग मग नव दीप जले ।।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त जितने गूढ़, गंभीर व ग्राह्य हैं; उनका वर्तमान जीवन (भव) उतना ही सादा, सरल एवं सपाट
वीतरागी व्यक्तित्व : है; उसमें विविधताओं को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। उनका वर्तमान जीवन घटना-बहुल नहीं है ।
भगवान महावीर घटनाओं में उनके व्यक्तित्व को खोजना भी व्यर्थ है।
डा. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर । घटना समग्र जीवन के एक खण्ड पर प्रकाश डालती है। घटनामों में जीवन को देखना उसे खण्डों में बांटना है । भगवान महावीर का व्यक्तित्व मखण्ड है, अविभाज्य है, उसका विभाजन संभव नहीं है। उनके व्यक्तित्व को घटनाओं में बांटना,
शंका को समाप्त करने वाली घटना कुछ विशेष उनके व्यक्तित्व को खंडित करना है। अखण्डित
व्यक्त नहीं कर सकती। . दर्पण में बिम्ब प्रखण्ड और विशाल प्रतिबिम्बित
बढ़ते तो अपूर्ण हैं, जो पूर्णता को प्राप्त हो होते हैं, किन्तु कांच के टूट जाने पर प्रतिबिम्ब
चुका हो; उसे वर्तमान कहना कहां तक सार्थक भी अनेक और क्षुद्र हो जाते हैं। उनकी एकता
हो सकता है । इसी प्रकार महावीर को वीरता को और विशालता खण्डित हो जाती है। वे अपना
सांप मोर हाथी वाली घटनामों से नापना कहाँ वास्तविक अर्थ खो देते हैं ।
तक संभव है; यह एक विचारने की बात है। - भगवान महावीर के भाकाशवत् विशाल और यद्यपि महावीर के जीवन संबंधी उक्त घटनाएं सागर से गंभीर व्यक्तित्व को बालक वर्द्धमान की शास्त्रों में वरिणत हैं तथापि वे बालक वर्द्धमान को बाल-सुलभ क्रीडाओं से जोड़ने पर उनकी गरिमा वृद्धिंगत बताती हैं, भगवान महावीर को नहीं। बढ़ती नहीं, वरन् खंडित होती है। सन्मति शब्द सांप से न डरना बालक वर्द्धमान के लिए गौरव का कितना भी महान अर्थ क्यों न हो, यह केवल- की बात हो सकती है, हाथी को वश में करना ज्ञान की विराटता को अपने में नहीं समेट सकता। राजकुमार वर्तमान के लिए प्रशंसनीय कार्य हो केवलज्ञानी के लिए सन्मति नाम छोटा ही पड़ेगा, सकता है, भगवान महावीर के लिये नहीं। प्राचार्यों प्रोछा ही रहेगा। वह केवलज्ञानी की महानता ने उन्हें यथास्थान ही इंगित किया है। वन विहारी व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकता। जिनको पूर्ण प्रभय को प्राप्त महावीर एवं पूर्ण वीतरागी, वाणी एवं दर्शन ने अनेकों की शंकाएं समाप्त की, सर्वस्वातंत्र्य के उद्घोषक तीर्थंकर भगवान महावीर अनेकों को सन्मार्ग दिखाया हो, सत्पथ में के लिए सांप से न डरना, हाथी को काबू में रखना लगाया हो; उनकी महानता को किसी एक की क्या महत्व रखते हैं।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-74
जिस प्रकार बालक के जन्म के साथ इष्ट मित्र जिसके जीवन में न पाप का उदय हो पोर न पाप व सम्बन्धी-जन वस्त्रादि लाते हैं और कभी-कभी भाव हो, तो फिर दुर्घटनाएं कैसे घटेंगी, क्यों तो सैकड़ों जोड़ी वस्त्र बालक को इकट्ठे हो जाते घटेंगी ? निष्ट संयोग पाप के उदय के बिना हैं । लाते तो सभी बालक के अनुरूप ही हैं, पर वे संभव नहीं है तथा वैभव और भोगों में उलझाव सब कपड़े तो बालक को पहिनाए नहीं जा सकते। पाप भाव के बिना असंभव है। भोग के भावरूप बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, वस्त्र तो पाप-भाव के सद्भाव में घटने वाली घटनामों में बढ़ते नहीं। जब बालक 20-25 वर्ष का हो जावे शादी एक ऐसी दुर्घटना है, जिसके घट जाने पर तब कोई मां उन्हें वही वस्त्र पहिनाने की सोचे, दुर्घटनाओं का एक कभी न समाप्त होने वाला जो जन्म के समय भाये थे और जिनका प्रयोग सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। सौभाग्य से नहीं कर पाया है, तो क्या वे वस्त्र 20-25 वर्षीय महावीर के जीवन में यह दुर्घटना न घट सकी। युवक को मा पायेंगे ? नहीं आने पर वस्त्र लाने एक कारण यह भी है कि उनका जीवन घटना वालों को भला बुरा कहें तो यह उसकी ही मूर्खता प्रधान नहीं है। मानी जायेगी, वस्त्र लाने वालों की नहीं। इसी लोग कहते हैं कि बचपन में किसके साथ क्या प्रकार महावीर के वर्द्धमान, वीर, अतिवीर आदि नहीं घटता, किसके घटने नहीं फूट नाम उन्हें उस समय दिये गये थे, जब वे नित्य नहीं टूटते ? महावीर के साथ भी निश्चित रूप से बढ़ रहे थे, सन्मति (मति-ज्ञानी) थे, बालक थे, यह सब कुछ घटा ही होगा ? भले ही प्राचार्यों ने राजकुमार थे। उन्हीं घटनाओं पोर नामों को न लिखा हो। पर भाई साहब : दुर्घटनाएं बचपन लेकर हम तीर्थंकर भगवान महावीर को समझना से नहीं, बचपने से घटती हैं; महावीर के बचपन चाहें, समझाना चाहें, तो यह हमारी बुद्धि की ही तो पाया था, पर बचपना उनमें नहीं था। अतः कमी होगी न कि लिखने वाले प्राचार्यों की। वे घुटने फूटने और दांत टूटने का सवाल ही नही नाम, वे वीरता की चर्चाएं यथा-समय सार्थक थीं। उठता। वे तो बचपन से ही सरल, शांत एवं
तीर्थकर महावीर के विराट व्यक्तित्व को चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी थे। उपद्रव करना समझने के लिए हमें उन्हें विरागी वीतरागी दृष्टि- उनके स्वभाव में ही न था और बिना उपद्रव के कोण से देखना होगा। वे धर्मक्षेत्र के वीर, अंति- दाँत टूटना, घुटने फूटना संभव नहीं। वीर और महावीर थे, युद्धक्षेत्र के नहीं। युद्धक्षेत्र कुछ का कहना यह भी है कि न सही बचपन और धर्मक्षेत्र में बहुत बड़ा अंतर है। युसुक्षेत्र में में पर जवानी तो घटनाओं का ही काल है। शत्रु का नाश किया जाता है और धर्म क्षेत्र में जवानी में तो कुछ न कुछ घटा ही होगा। पर शत्रुता का, युद्धक्षेत्र में पर को जीता जाता है और बन्धुवर ! जवानी में दुर्घटनाएं उनके साथ पटती धर्मक्षेत्र में स्वयं को। युद्धक्षेत्र में पर को मारा हैं, जिन पर जवानी चढ़ती है, महावीर तो जवानी जाता है और धर्म क्षेत्र में अपने विकारों को। पर चढ़े थे, जवानी उन पर नहीं। जवानी बढ़ने __ महावीर की वीरता में दौड़-धूप नहीं, उछल- का अर्थ है-यौवन संबंधी विकृतियाँ उत्पन्न होना कूद नहीं, मारकाट नहीं, हाहाकार नहीं, अनन्तशांति और जवानी पर चढ़ने का तात्पर्य शारीरिण है। उनके व्यक्तित्व में वैभव का नहीं, वीतराग- सौष्ठव का पूर्णता को प्राप्त होना है। विज्ञान की विराटता है।
राग संबंधी विकृति भोगों में प्रगट होती! एक बात यह भी तो है कि दुर्घटनाए'या तो और द्वष संबंधी विद्रोह में न वे रागी थे, पाप के उदय से घटती हैं या पाप भाव के कारण। द्वषी । प्रतः न वे भोगी थे और न ही द्रोही।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-75 महावीर ने विद्रोह नहीं, अद्रोह किया था। घर में जो कुछ घटता है, अपनी और से विद्रोह, ब्रोह का ही एक भेद है। द्रोह स्वयं एक घंटता है पर वन में तो बाहर से बहुत कुछ घट विकार है। उन्होंने न स्वयं से द्रोह किया, न जाने के प्रसंग रहते हैं क्योंकि घर में बाहर के इसरों से । उन्होंने द्रोह का प्रभाव किया था, अतः आक्रमण से सुरक्षा का प्रबन्ध प्रायः रहता है। उन्हें प्रद्रोही ही कहा जा सकता है, विद्रोही नहीं। यदि कोई उत्पात हो, तो अन्तर के विकारों के द्रोह-द्रोह को उत्पन्न करता है, द्रोह से प्रद्रोह का कारण ही होता देखा जाता है, पर वन में बाहर से जन्म नहीं हो सकता। उन्होंने किसी के प्रति सुरक्षा प्रबन्ध का प्रभाव होने से घटनाएं घटने की विद्रोह करके घर नहीं छोड़ा था। उनका त्याग संभावना अधिक रहती है। माना कि महावीर का विद्रोह मूलक न था। उनके त्याग और संयम के अन्तर विशुद्ध था । अतः घर में कुछ न घटा, पर कारणों को दूसरों में खोजना महावीर के साथ वन में तो घटा ही होगा ? अन्याय है। वे 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' हाँ ! हाँ ! अवश्य घटा था पर लोक जैसे के रास्ते पर चले थे।
घटने को घटना मानता है, वैसा कुछ नहीं घटा वीतरागी-पथ पर चलने वाले विरागी महावीर था। राग-द्वेष घट गये थे, तब तो वे वन को को समझने के लिए उनके अन्तर में झांकना होगा। गये ही थे । क्या राग-द्वेष का घटना कोई घटना उनका वैराग्य देश-काल की परिस्थितियों से नहीं है । पर बहिमुखी दृष्टि वालों को राग-द्वेष उत्पन्न नहीं हुआ था। उनके कारण उनके अंतरंग घटने में कुछ घटना सा नहीं लगता । यदि तिजोरी में विद्यमान थे उनका परोपजीवी नहीं था . जो मे से लाख, दो लाख रुपया घट जायें, शरीर में से
राग्य किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण कुछ खून घट जाये, प्रांख, नाक, कान घट जाय, उत्पन्न होता है, वह क्षण-जीवी होता है। परि• कट जाय तो इसे बहुत बड़ी घटना लगती है, पर स्थितियों के बदलते ही, उसका समाप्त हो जाना राग द्वेष घट जायें तो इसे घटना ही नहीं लगता। संभव है।
वन में ही तो महावीर रागी से वातरागी बने थे, यदि देश-काल की परिस्थितियाँ महावीर के अल्प ज्ञानी से पूर्ण ज्ञानी बने थे। सर्वज्ञता और अनुकूल होती तो क्या वे वैराग्य धारण न करते; तीर्थकरत्व वन में ही तो पाया था। क्या यह बहस्थी बसाते; राज्य करते ? नहीं, कदापि नहीं।' घटनाएँ छोटी हैं ? क्या कम हैं ? इससे बड़ी भी और परिस्थितियां उनके प्रतिकूल थी ही कब? कोई घटना हो सकती है ? मानव से भपवान बन जीर्थकर महान पुण्यशाली महापुरुष होते हैं, अतः जाना कोई छोटो घटना है ? पर जगत् को तो परिस्थितियों का प्रतिकूल होना सभव नहीं था। इसमें कोई घटना सी ही नहीं लगती। तोड़-फोड़ . वैराग्य या विराग राग के प्रभाव का नाम की रुचि-वाले जगत् को तोड़-फोड़ में ही घटना है, विद्रोह का नाम नहीं। वे वैरागी राग के नजर पाती है, अन्तर में शांति से च हे जो कुछ . प्रभाव के कारण बने थे. न कि विद्रोह के कारण। घट जाय. उसे. बर. घटना
1. घटना सा नहीं महावीर वैरागी राजकुमार थे, न कि विद्रोही। लगता है । अन्तर में जो कुछ प्रतिपल घट रहा है महावीर जैसे अद्रोही महा मानव में विद्रोह खोज वह तो ससे दिखाई नहीं देता, बाहर में कुछ हल. बिना अभूतपूर्व खोज बुद्धि के परिणाम हैं । बालू चल हो, तभी कुछ घटा सा बगता है। में से तेल निकाल लेने जैसा यत्न है। बन्ध्या के जब तक देवांगनाएं लुभाने को न मावें और हुन्ज के विवाह वर्णनवत् कल्पना की उड़ानें हैं. उनके लुभाते पर भी कोई महापुरुष न डिगे तब Pant न मोर है, न छोर।
तक हमें उसकी विसगता में शक्ल बनी रहती है।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-76
जब तक कोई पत्थर न बरसाएं, उपद्रव न करे बंधन नहीं है। उसमें सर्व-बन्धनों की अस्वीकृति
और उपद्रव में भी कोई महात्मा शान्त न बना रहे है। साधु का कोई वेष नहीं होता, नग्नता कोई तब तक हमें उसकी वीत-द्वेषता समझ में नहीं वेष नही । वेष साज-संभार है, साधु को सजनेपाती। यदि प्रबल पुण्योदय से किसी महात्मा के संवरने की फुर्सत ही कहाँ है ? उसका सजने का इस प्रकार के प्रतिकूल संयोग न मिलें तो क्या वह भाव ही चला गया है । सजने में "मैं दूसरों को वीतरागी और वीतद्वेषी नहीं बन सकता, क्या कैसा लगता हूं ?" का भाव प्रमुख रहता है । साधु वीतरागी और वीतषी बनने के लिए देवांगनाओं को दूसरों से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है वैसा का डिगाना और राक्षसों का उपद्रव प्रावश्यक ही है। वह अपने में ऐसा मग्न है कि दूसरों के है ? क्या वीतरागता इन काल्पनिक घटनाओं के
सरे उसके बिना प्राप्त और संप्रेषित नहीं की जा सकती है ? बारे में क्या सोचते हैं, इसकी उसे परवाह ही नहीं। क्या मुझे क्षमाशील होने के लिए सामने वालों का सर्व वेष शृगार के सूचक हैं। साधु को शृंगार गाली देना, मुझे सताना जरूरी है, क्या उसके की आवश्यकता ही नहीं। प्रतः उसका कोई वेष सताए बिना मैं शान्त नहीं हो सकता ? ये कुछ नहीं होता । ऐसे प्रश्न हैं, जो बाह्य घटनाओं की कमी के । कारण महावीर के चरित्र में रूखापन मानने वालों
दिगम्बर कोई वेष नहीं है, सम्प्रदाय नहीं है, मौर चिन्तित होने वालों को विचारणीय हैं।।
वस्तु का स्वरूप है। पर हम वेषों को देखने के . वन में जाने से पूर्व ही महावीर बहुत कुछ
इतने आदी हो गये हैं कि वेष के बिना सोच नहीं वीतरागी हो गये थे । रहा-सहा राग भी तोड़,
सकते। हमारी भाषा वेषों की भाषा हो गयी है।
प्रतः हमारे लिए दिगम्बर भी वेष हो गया है। पूर्ण वीतरागी बनने, नग्न दिगम्बर हो वन को चल पड़े थे। उनके लिए वन और नगर में कोई
हो क्या गया,-कहा जाने लगा है। सब वेषों में भेद नहीं रहा था। सब कुछ छूट गया था, वे सब
कुछ उतारना पड़ता है और कुछ पहिनना होता है, से टूट गये थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था; कुछ
पर इसमें छोड़ना ही छोड़ना है, अढ़ा कुछ भी
नहीं है। छोड़ना भी क्या उधेडना है, छटना है। प्रोढ़ा न था । वे साधु बने नहीं, हो गये थे । साधु
अन्दर से सब कुछ छुट गया है, देह भी छूट गयी बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने में स्वयं
है, पर बाहर से प्रभी वस्त्र ही छटे हैं, देह छूटने ही पलट जाता है। स्वयं के बदल जाने पर वेष
में अभी कुछ समय लग सकता है, पर वह भी भी सहज ही बदल जाता है। वेष बदल क्या
छूटना है, क्योंकि उसके प्रति भी जो राग था वह जाता है, सहज वेप हो जाता है, यथा-जात वेष हो
टूट चुका है । देह रह गयी है तो रह गयी है, जब जाता है; जैसा पैदा हुआ था. वही रह जाता है,
छूटेगी तब छूट जायगी, पर उसकी भी परवाह बाकी सब छूट जाता है।
छूट गयी है। वस्तुत: साधु की कोई ड्रेस ही नहीं है, सब डेसों का त्याग ही साधु का वेष है । ड्रेस बदलने महावीर मुनिराज बर्द्धमान नगर छोड़ वन में' से साधुता नहीं पाती, साधुना माने पर ड्रेस छूट चले गये। पर वे वन में भी गये कहां हैं ? वे तो जाती है। यथा जातरूप (नग्न) ही सहज वेष है अपने में चले गये हैं, उनका वन में भी अपनत्व पौर सब वेष तो श्रमसाध्य हैं, धारण करने रूप कहां है ? उन्हें बनवासी कहना भी उपचार है, हैं । वे साधु के वेष नहीं हो सकते क्योंकि उनमें वे वन में भी कहां रहे ? वे तो मात्मवासी हैं। गांठ है, उनमें गांठ बांधनों अनिवार्य है, साधुता न उन्हें नगर से लगाव है, म वन से; वे तो दोनों
.
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-77 से अलग हो गये हैं, उनका तो पर से अलगाव ही रागियों के होते हैं, और शत्रु द्वेषियों के । बीतअलगाव है।
रागियों का कोन मित्र और कौन शत्रु ? कोई रागी वन में जायगा तो कुटिया बनायगा, उनसे शत्रुता करो तो करो, मित्रता करो तो करो, वहां भी धर बसायगा, ग्राम और नगर बसायगा, उन पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। भले ही उसका नाम कुछ भी हो, है तो वह घर शत्रु-मित्र के प्रति समभाव का अर्थ ही शत्र-मित्र ही। रागी वन में भी मंदिर के नाम पर महल बसा- का अभाव है। उनके लिए उनका न कोई शत्रु यगा,महलों में भी उपवन बसायगा। वह वन में था और न कोई मित्र। अन्य लोग उन्हें अपना रहकर भी महलों को छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर शत्रु मानो तो मानो, अपना मित्र मानो तो मानो, भी वन को छोड़ेगा नहीं।
अब वे किसी के कुछ भी न रह गये थे। किसी उनका चित्त जगत् के प्रति सजग न होकर का कुछ रहने में कुछ लगाव होता है, उन्हें जगत् प्रात्मनिष्ठ था। देश-काल की परिस्थितियों के से कोई लगाव ही न रहा था। कारण उन्होंने अपनी वासनाओं को दमन नहीं - एक अधट घटना महावीर के जीवन में अवश्य किया था। उन्हें दमन की आवश्यकता भी न थी घटी थी माज से 2501 वर्ष पहले दीपावली के क्योंकि वासनाएं स्वयं प्रस्त हो चुकी थीं। दिन जब वे घट (देह) से अलग हो गये अधट हो
उन्होंने सर्वथा मौन धारण कर लिया था, गये थे, घट-घट के वासी होकर भी घटवासी भी
बोलने का भाव भी न रहा था । वाणी न रहे थे, गृह वांसी और वनवासी तो बहुत दूर पर से जोड़ती है, उन्हें पर से जुड़ना ही न था।' की बात है। अन्तिम घट (देह) को भी त्याग वाणी विचारों की वाहक है, वह विचारों का मुक्त हो गये थे। इससे अभूतपूर्व घटना किसी के पाद न-प्रदान करने में ििमत्त है, वह समझने- जीवन में कोई अन्य नहीं हो सकती पर यह जगत समझ ने के काम आती है, उन्हें किसी से कुछ इस को घटना म ने तब है न । समभना ही न था, जो समझने योग्य था उसे वे इस प्रकार जगत् से सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णतः अच्छी तरह समझ चुके थे, अब तो उसमें मग्न प्रात्मनिष्ठ महावीर के जीवन को समझने के लिए थे। उन्हें किसी को समझाने का राग भी न रहा उनके अन्तर में झांकना होगा कि उनके अन्तर था, अतः वाणी का क्या प्रयोजन ? वागी उन्हें में क्या कुछ घटा । उन्हें बाहरी घटनामों से प्राप्त की, पर वाणी की उन्हें मावश्यकता ही न जापना, बाहरी घनाप्रों में बांधना संभव नहीं है। थी। जो उन्हें चाहिये ही नहीं, वह रहे तो रहे, यदि हमने उनके ऊपर प्रघट-घटनामों को थोपने उससे उन्हें क्या ? रहे तो ठीक, न रहे तो ठीक । की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित वे तो निरन्तर आत्म चिन्तन में ही लगे रहते थे। हो जावेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जावेंगे __नहाना-धोना सब कुछ छूट गया था। वे स्नान ; और जो महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक और दत-धोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु महावीर त होंगे, तेरी मेरी कल्पना के महावीर भोर मित्र में समभाव रखने वाले मुनिराज वर्द्ध- होगे। यदि हमें वास्तविक महावीर चाहिये । मान गिरिकन्दरामों में वास करते थे। वस्तुत: न तो उन्हें कल्पनाओं के घेरों में न घेरिये । उन्हें उनका कोई शत्र ही रहा था और न कोई मित्र। समझने का यत्न कीजिए, अपनी विकृत कल्पनामों मित्र और शत्रु राग-द्वेष की उपज हैं। जब उनके को उन पर थोपने की अनधिकार चेष्टा मत राग द्वेष ही समाप्त प्रायः थे, तब शत्रु मित्रों के कीजिए। रहने का कोई प्रश्न ही नहीं रह गया था। मित्र
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीन सत्य
सुशीला कुमारी और एम. ए. धर्मालंकार
ज्ञानी वह कहलाता है जो।
सगुण तीन ये रखता है। त्याग, चरित्र, कार्य तत्परता।
जीवन में अपनाता है।
स्व-आत्मा में रत रहकर जो।
परपीड़ा को हरता है। अथक परिश्रम करते रहकर ।।
___ जीवन अर्पित करता है ।
वीर वही कहलाता है जो।
- नहीं किसी से डरता है। भेद-भाव मन में नहीं रखता।
समदृष्टि से रहता है।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिवाली और उसका रूप
दिवाली दीपावलि का अपभ्रंश रूप है। संस्कृत के दीपावलि से दिवाली शब्द जन बोली के रूप में प्राया, बाद में इस शब्द ने माना रूप साहित्य में भी स्थिर कर लिया।
दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति । संस्कृत में पावलि तथा प्रावली ह स्व इकारान्त तथा दीर्घ इकारान्त दोनों प्रकार के शब्द पाए जाते हैं । जब इन् प्रत्यय होता है तब ह.स्व दीपावलि और जब विकल्प से होष् प्रत्यय होता है तब दीर्घ दीपावली शब्द व्याकरण के अनुसार निष्पन्न होता है। दीपावली शब्द के अर्थ से स्पष्ट है कि इस त्योहार में दीपों की पंक्ति प्रज्वलित कर ज्योति चमका कर प्रकाश किया जाता है।
किसी भी त्योहार का एक कारण होता है और उसके आधार पर उसकी परम्परा प्रचलित होती है। दीपावली के प्रचलन के सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएं निम्न प्रकार हैं(क) स्वामी दयानन्द को 30 अक्टूबर 1883 को
दिवाली के दिन दूध में कांच दिया गया था और ठीक दिवाली के दिन संध्या 6 बजे दैदीप्यमान शरीर छोड़कर उनकी प्रात्मा स्वर्ग सिधार गई थी-आर्य समाज में ज्ञान का प्रकाश करने वाला चेतन दीप बुझ गया था। उसी की स्मृति को सजग करने के लिए दीपों की पंक्ति प्रज्वलित करते हैं
जिससे प्रात्मा में ज्ञान की प्रेरणा प्राप्त हो । (ख) सिक्ख भाइयों के छठे गुरु श्री हरिगोविन्द
का स्वर्गारोहण भी दिवाली के दिन हुआ था। उनकी पावन स्मृति का प्रतीक यह दिन है।
डा.कन्छेदीलाल शास्त्री . . राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, शहडोल म०प्र०
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-80
(ग) एक मान्यता है कि स्वामी शंकराचार्यजी मृत्यु नहीं होगी, इसीलिए धनतेरस से भैया
का नश्वर शरीर सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या रूप दूज तक यह त्यौहार मनाया जाता है । अद्वैत का प्रचार करके दिवाली के दिन इस संबंध में जैनधर्मावलम्बियों की मान्यता परमतत्व में विलीन हो गया था । ब्रह्म की यह है कि भगवान राम, विष्णु और यमराज ज्योति के प्रतीक के रूप में दीपों की पंक्ति संबंधी कारणों को छोड़कर शेष कारण एक प्रज्वलित की जाती है।
माकस्मिक संयोग हैं, क्योंकि कार्तिक कृष्ण (घ) सम्राट अशोक ने दिग्विजय प्राप्त की थी
प्रमावस्या को दीप प्रज्वलित करने की प्रथा पौर दिग्विजय की प्रसन्नता में कार्तिक
पुरानी है जबकि स्वामी दयानन्द आदि की कृष्णा अमावस्था को नगर में दीपों की घटनाएं बहुत बाद की हैं और उस दिन पंक्ति प्रज्वलित कराई थी, तभी से इसका
घटित हो जाना एक संयोग की बात है। प्रचलन है।
भविष्य में भी ऐसा संभव है कि दिवाली के
दिन ही किसी महापुरुष का जन्म या स्वर्ग(ङ) भगवान राम ने दशहरे के दिन रावण का
वास हो जाय । वध किया था और उसके 20 दिन पश्चात्
भगवान राम के संबंध में उक्त घटना का अपने वनवास की अवधि पूरी कर कार्तिक
उल्लेख आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में नहीं की अमावस्या को अयोध्या पहुंचे थे । नगर
मिलता है। बल्कि आश्विन शुक्ल 10 दशहरे के के लोगों ने भगवान राम के प्रागमन में दीप
दिन को रावण वध के रूप में विशेष उल्लास के प्रज्वलित कर आरती उतार कर उनका
साथ मनाते हैं और राम का गुणगान करते हैं । स्वागत किया था। तभी से दीपावली मनाई
विष्णु ने राजा बलि से वामन (छोटे शरीर का) जाती है।
रूप धारण करके भूमि दान में मांगी थी यह घटना (च) स्वामी रामतीर्थ लाहौर के क्रिश्चियन
दिवाली की नहीं बल्कि रक्षा बन्धन (श्रावण शुक्ला कालेज में गणित के प्रोफेसर थे। श्री
पूर्णमासी) की है। राजा बलि की दानवीरता उतनी विवेकानन्द के भाषण से प्रभावित होकर
महत्वपूर्ण नहीं थी जितनी महत्वपूर्ण बात विष्णु - तपस्या करने हिमालय चले गए थे । वे
द्वारा शरीर को छोटा और फिर विशाल बनाकर अपने पापको राम के नाम से सम्बोधित
बलि के अत्याचार से त्राण करता था। करते थे। उन्होंने 1906 की दिवाली को
यमराज के संबंध में पांच दिन के उत्सव की रामगंगा में समाधि ली थी।
बात है जबकि दिवाली मुख्य रूप से कार्तिक की (छ) एक मान्यता है कि भगवान विष्णु ने राजा
अमावस्या को एक दिन मनाई जाती है। बलि की दानवीरता से प्रसन्न होकर धनतेरस जैन धर्मावलम्वियों का मानना यह है कि से लेकर तीन दिन तक उत्सव मनाने की कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी की रास से भगवान महावीर प्रेरणा करके दीपमालिका त्योहार प्रारम्भ ने पावानगरी में 24 घण्टे का योग निरोध किया किया था ।
था और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात को (ज) कुछ का कथन है कि यमराज ने वरदान स्वाति नक्षत्र के समय ई० पूर्व 26 को निर्वाण
मांगा था कि कार्तिक बदी 13 (धनतेरस) प्राप्त किया था। श्वेताम्वर साहित्य के अनुसार से कार्तिक शुक्ल दोज (भैया दूज) तक 5 कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि को निर्धारण दिन जो लोग उत्सव मनावेंगे उनकी अकाल हुन्ना था। इस प्रकार 24 घण्टे का अन्तर है।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-81
महावीर के निर्वाण के समय अनेक देशों के कई लोग अपने यहां श्री गणेशाय नमः लिखते राजा उपस्थित थे। लोगों ने यह कहकर दीपक हैं। उनका आशय महावीर के प्रधान गणधर गण जलाए थे कि अब सचेतन धर्मचक्र प्रवर्तक ज्ञान + ईश (इन्द्रभूति गौतम) को नमस्कार करने से है । सूर्य अस्त हो गया है, भौतिक प्रकाश करना चाहिए। लक्ष्म्यै नमः का प्राशय महावीर को प्राप्त मुक्ति उसी दिन भगवान महावीर की वणी झेलने वाले लक्ष्मी को नमन करने से है । सिन्दूर से बनाए जाने प्रधान गणधर इन गौतम को केवलज्ञान बाल 12 काठा का प्राशय समवशरण म
बाले 12 कोठों का प्राशय समवशरण में बैठने के दिव्य-ज्ञान प्राप्त हुप्रा था। दीपकों की पंक्ति उनके लिए बने हुए 12 कोठों के प्रतीक से है । दिव्य ज्ञान की प्रतीक भी है।
व्यापारी की बहियों के बदले जाने से अनुमान ___भारतीय संस्कृति समन्वय वादी रही है, इस- किया जाता है कि इसी दिन वीर निर्वाण सम्वत् लिए भारतीय त्योहारों को सभी सम्प्रदाय एवं बदलता है। वर्ग के लोग मनाते हैं। महावीर स्वयं क्षत्रिय दीवाली तक लोग अपने अपने घर द्वारों की कुलोत्पन्न थे। इनके गणधर ब्राह्मण थे। श्रावक, सफाई कर लेते हैं, यह बहुत अच्छी बात है परन्तु श्राविकाएं अधिकांश वैश्य थे। महावीर की माता लोगों ने सारा ध्यान, रुपये, पैसे, तराजू, बांट त्रिशला के 7 बहनें और 11 भाई थे। 7 बहिनों में लीटर और मीटर की पूजा पर केन्द्रित कर दिया 5 राजघरानों में विवाहित थीं, दो अविवाहित रहीं, है। अच्छे उद्देश्य से प्रारम्भ किए गए इस उत्सव महावीर के मामा लोगों के विवाह संबंध भी राज- में अनेक बुराइयों ने अपना स्थान बना लिया है। घरानों में हुए थे, इन संबंधों के कारण महावीर के जुआ, सट्टा, मदिरापान इन बुराइयों को लोग द्वारा प्रसारित धर्म को ज्याश्रय प्राप्त हुआ और दिवाली के दिन अवश्यकरणीय और अच्छा समझते राजाओं के अनुकरण पर जनता में भी उनका धर्म हैं : पटाखों के प्रयोग से देश की बहुत सम्पत्ति तो प्रचार हुअा था । महावीर के संघ में अर्जुन माली, आग में जलती ही है परन्तु इससे कहीं कहीं, कभी सकडाल कुम्हार आदि के सम्मिलित होने के उल्लेख कभी भयंकर नुकसान भी हो जाते हैं। भी मिलते हैं। इस तरह चारों वर्गों के लोगों ने
काश यह त्योहार प्रात्मज्योति जगाने का उक्त उत्सव मनाया था।
प्रतीक बन जाय । प्रात्म गुणों के हानि लाभ का कुछ लोगों का कथन है कि रक्षाबन्धन ब्राह्मणों लेखा-जोखा दुकान के हिसाब की तरह कर लेवें का, दशहरा क्षत्रियों का, दीपावली वैश्यों का और दूसरों के प्रति पत्रों द्वारा शब्दों द्वारा व्यक्त पौर होली शूद्र वर्ण का त्यौहार है। परन्तु ऐसी की जाने वाली शुभकामनाएं केवल दिखावा न बात नहीं है । धार्मिक सहिष्णुता और समभाव के रहकर, वास्तव में आत्महित के साथ सबका हित कारण सभी लोग सभी त्यौहारों को उल्लास से चाहने लगें तो दिवाली सर्वोदय का त्योहार बन मनाते हैं।
सकती है।
** * * *
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
चकले की वेश्या सदाचार का उपदेश
.श्री पदम कुमार सेठी
डीमापुर (नागालैण्ड)
साठ करोड़ की आबादी में कुछ लोग कहते हैं। धर्म करो कुछ कर्म करो नाम ये ही बस रटते हैं । धर्म की परिभाषा क्या है, यह उनको मालूम नहीं। होम कर लिया जाप कर लिया, उनका बस है धर्म यही । कितने बेबस कितने भूखे, नजरों के आगे रहते हैं। हास्य पद कितना लगता है, उपदेश जब वो देते हैं । पीऊंगा मैं रात शराब दिन को कहूंगा है खराब । दिन में कहता छोड़ इसे, रात को कहता क्या शबाब । लानत तुम पर देता हूं मैं, कहते कुछ करते हो कुछ । अन्धविश्वास जकड़ रखा है, पकड़ रखी बस उसकी पूंछ । ईश्वर हम से कहता है, मुझे नहीं विचार अपनायो। कर्म जब अच्छे नहीं कर सकते, नजरों से दूर चले जायो। यहां पूजा तुम मेरी करते हो, बाहर गन्दे दम भरते हो । लेने यहां क्या आये हो तुम, अपमान जो मेरा करते हो । ईश्वर इतना निर्दयी नहीं जो, भक्तों की पुकार नहीं सनेगा। कर्म करोगे उल्टे जब तुम, फिर बतलायो कैसे सुनेगा। हार्दिक इच्छा मेरी ये थी, मानव मन्दिर मानव धर्म हो । वादविवाद को दूर फेंककर, हृदय सबके मानव ही मानव हो।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
म. महावीर भौर उनका अपरिग्रहवाद
अज्ञानान्धकार के बादल सदैव छाये रहते थे जिससे दुष्प्रवृत्तियों को बल मिल रहा था। ऐसी स्थिति में बालक महावीर दूज के चन्द्रमा के समान वृद्धिगत हो रहे थे। उनके एक ओर तो सुखसाम्राज्य लहरा रहा था, तो दूसरी ओर जनता का करुण क्रन्दन । महावीर की दृष्टि वैभव-विलास की ओर न रम सकी। उन्हें तो जनता-जनार्दन के आर्तनाद ने ही आकृष्ट कर लिया और वे उसकी सहायता हेतु नए पय का निर्माण करने के लिए साधना में लीन हो गए। मां के आंसू भी उन्हें वन जाने से न रोक सके ।
. भगवान महावीर ने सतत स धना और चिन्तन -श्रीमती विद्यावती जैन एम. ए. साहित्यरत्न के द्वारा देश को ऐमा लो-कल्याणकारी पालो
पारा (बिहार) प्रदान किया कि जिसकी प्राभा ने समस्त देश को
जाज्ज्वल्यमान कर दिया। उन्होंने विश्व को शाश्वत-सुख का मार्ग दिखाने के लिए कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया उनमें असि अनेकान्त एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त तो सार्वकालिक
एवं सार्वदेशिक ही उायोगी सिद्ध हुए हैं। - ई० पूर्व छठवीं शताब्दी विश्व के इतिहास में आज देश की जो स्थिति है, उनमें फिर से युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगी। इस सदी में इन सिद्धान्तों के प्रचार एवं प्रसार की महती
कसे वीर सपत को जन्म आवश्यकता है। भगवान महावीर का अपरिग्रह दिया था, जिसने अपने साहस, धैर्य एवं त्याग से का सिद्धान्त तो आज के युग के लिए अत्यन्त अपने युग की धारा ही बदल दी। वे वीर पुरुष आवश्यक है। थे 24 वें तीर्थङ्कर भगवान महावीर, जिनका जन्म अपरिग्रह 2572 वर्ष पूर्व चैत्र मास की शुक्ल त्रयोदशी को अपरिग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव । वैशाली नगर में हरा था।
सामान्य रूप से धन-सम्पत्ति आदि को ही परिग्रह ____ भगवान महावीर के समय देश की स्थिति कहते हैं। , यह दो प्रकार का होता है। बाह्यअत्यन्त शोचनीय थी। बाह्य प्राडम्बरों एवं परिग्रह एवं अन्तरङ्ग-परिग्रह । बाहय परिग्रह पन्धविश्वासों का अत्यधिक प्रचार था। सामान्य के अन्तर्गत तो धन-धान्य प्राता है और अन्तरङ्ग जनता नैराश्य का जीवन व्यतीत कर रही थी। में रागद्वेष, मोह, जिसे मूी भी कहा जाता है।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-84
मूर्छा ही ममत्व है, पास में यदि वस्तुएं न भी भोजन किए जाते हैं, तो दूसरी पोर लोग झूठी हो, किन्तु उनके प्रति ममत्व है तो वह परिग्रह पत्तले चांट कर अपना पेट भरते हैं। करोड़पति, ही कहलायेगा। जब करोड़पति होने पर यदि वह अरस्पति होने की कोशिश करता है तो भी उसे धन-सम्पत्ति के प्रति ममत्व रहित है, तो निश्चय संतोष नहीं होता और दूसरी ओर गरीब को पेट ही वह अपरिग्रही की कोटि में आ सकेगा। इस भर भोजन भी नहीं मिल पाता । एक ओर अमीर प्रसंग म ऋषभ पुत्र चक्रवर्ती भरत का उदाहरण की पट्टालिकाए मुस्कुराती रहती हैं तो दूसरी दृष्टव्य है। कोट्याधीश होने पर भी राज्य के अोर निर्धनों को झोपड़ा भी नसीब नहीं होता। प्रति उनकी अनासक्ति जल में भिन्न कमल के मिल-मालिक और मजदूरों के बीच दिन-प्रतिदिन समान थी। यही कारण है कि उन्हें उसी भव में अमीर-गरीब की ख ई बढ़ती जा रही है। इन शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो गई थी।
सभी विषमताओं का मूल कारण हमारी संचय ___ अपरिग्रह में ऐसी शक्ति विद्यमान है कि उसके मोवत्ति ही है। इसी मनोवत्ति के कारण देश बिना कोई भी प्राध्यामिक अनुष्ठान सम्भव नहीं एवं समाज का विकास अवरुद्ध हो जाता है। है। अहिंसा के भवन को आधार-शिला अपरिग्रह जिन्हें पैसों की आवश्यकता कम है, वहां तो वह ही है। बिना अपरिग्रह के अहिंसा का कोई अर्थ तहखानों में बन्द पड़ा रहता है, जिन्हें आवश्यकता नहीं। अपरिग्रह के बिना सत्य निश्चय ही असत्य होती है उन्हें वह मिल नहीं पाता। कभी-कभी के भय.बने बादलों से पाच्छास्ति हो जायेगा। यही छोटी सो चिनगारी समस्त देश को भस्म कर परिग्रह का राक्षस सन्तोष का सर्वस्व ग्रहण कर देती है। . . लेता है। परिग्रह के भीषण प्रहरों से बह्मचय परिग्रह संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है । स्थिर नहीं रह सकता। अपरिग्रह को अपनाए परिग्रह अर्थात संग्रह-वृति का दास होकर व्यक्ति बिना जीवन शान्त और सरस नहीं बन सकता। धन का गुलाम बन जाता है। उसमें अनेक दुष्प्रयही कारण है कि भगवान महावीर ने अपरिग्रह वृत्तियां-तृष्णा, लोभ प्रादि जागृत हो जाती हैं. को अपनाने के लिए अत्यधिक बल दिया था। जो कि व्यक्ति को स्व थप्रिय बना देती हैं।
परिग्रह की भावना अत्यन्त दुखदायी है । वह स्वार्थान्धता व्यक्तियों में कूद कूट कर भर जाती जीवन का सर्वतोमुखी पतन कर डालती है। है और वह पैसे के पीछे अपना-पराया सब कुछ इससे मनुष्य में अनैतिकता एवं अनाचार को भूल जाता है। उसका एकमात्र ध्येय पैसे की भावना अकुरित, पुभित एवं पल्लवित होती है। उपलब्धि ही हो जाता है। परिग्रह से ही भ्रष्टासमाजशास्त्र-वेत्तानों के अनुसार परिग्रह समाज में चार को बढ़ावा मिलता है। प्रकृति ने जो शुद्ध, शोषक और शोषण-वृत्ति का जनक है। अमुक सात्वित्त वस्तुर विश्व को अति की हैं, उन्हें भी व्यक्ति करोड़पति है. अमुक कंगाल, यही सामा- धूर्त व्यापारी मिलावट के द्वारा दूषित बना देते जिक विषमता है, जो परिग्रह की देन है । इसी हैं। डाक्टर, जिसे समाज-सेवा की उपाधि से से वर्ग भेद होता है और यही प्रशान्ति की जड़ है। विभूषित किया जाता है, वह भी धन के लोभ में धनवान के घर में धन से तिजोरियां भरी रहती रोगियों की उचित देखभाल नहीं करता। वह हैं और अनेक वस्तुएं मारी-मारी फिरती हैं ममीर रोगयों को ही प्रश्रय देता है, गरीब तो जबकि उन्हीं वस्तुओं के अभाव में करोड़ों लोग वहां से भी झिड़कियां खाकर ही वापस लौट पाते दर-दर भटकते हैं, भूखों मरते हैं और वस्त्रहीन हैं। वकील और न्याय धीश भी तृष्णा के वशीभूत होकर जाड़ों में ठिठुरते हैं। एक भोर स्वादिष्ट होकर अपने कर्तव्य रो च्युत होकर सच्चे को
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
झूठा और झूठे को सच्चा बना देते हैं। रिश्वत का दौर आजकल इतनी जोरों पर कि समाज का कोई भी वर्ग उससे अछूता नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस युग में गरीबों का कोई सहायक नहीं है । समाज के द्वारा बनाया गया यह वर्ग अपनी उलझनों में दिन पर दिन मछली के जाल की तरह लिपटता जाता है । उससे निकलने का उसके पास कोई उपाय नहीं है । यह सब श्रमर्यादित संचय वृत्ति का ही परिगाम है ।
मर्यादाहीन संचय वृत्ति से प्रत्येक राष्ट्र में साम्राज्यवाद की तीव्र लिप्सा जागृत हो गई है । विज्ञान के नित नए आविष्कार भी उनकी इस वृत्ति में सहायक हो रहे हैं। वियतनाम, कम्बोडिश अदि में हो रहे युद्ध इसी वृत्ति का दुष्परिणाम हैं। युद्धों को भीषण ज्वाला ने विश्व को सामाजिक स्थिति को छिन्न-भिन्न कर डाला है। लोगों को शान्ति की सांस लेना भी दूभर हो गया है। इस भयावह स्थिति ने लोगों के मन श्रीर मस्तिष्क को निर्बल बना दिया है । सभी लोग शांति की कामना कर रहे हैं। शांति की कामना करने वाले व्यक्ति भी परिग्रह की ही पूजा में लगे हुए हैं। उनका यह कार्य तो अग्नि में घी डालकर उसे शान्त करना ही प्रतीत होता है ।
1-85
हुआ था कृषि पूर्ण रूप से वर्षा पर ही निर्भर थी । वस्त्रों के उत्पादन में भी केवल हाथ करघा का प्रयोग होता था, किन्तु प्राज तो कृषि के लिए तकनीकी यन्त्रों की सहायता ली जाती है, खाद्यान्न की उपज भी अच्छी है । वस्त्रों के लिए बड़ी-बड़ी मशीनें उपयोग में लाई जा रही हैं, तब भी दिन-प्रतिदिन वस्तुओं के प्रभाव का एकमात्र कारण संचयवृत्ति ही है ।
मनुष्य समाज के लिए घन एक आवश्यक वस्तु है । उदरपूर्ति का मुख्य साधन है । किन्तु तृष्णा के वशीभूत होकर यह साधन साध्य का रूप धारण कर लेता है, तब इसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य नीति-नीति को भूल जाता है मोर अनेक अनर्थ कर डालता है । जो धन, जीवन की प्रावश्यक वस्तु है वही पतन का कारण हो जता है । क्योंकि प्रकृति प्रदत्त वस्तुए जब तक सीमित रहती हैं तमी तक लाभदायक सिद्ध होती हैं किन्तु जहाँ वे अपनी मर्यादा को लांघती हैं तभी उनका परिणाम भयंकर हो उठता है । उसी प्रकार धन सीमित मात्रा में ही सुख-शान्ति प्रदान करता है ।
सामाजिक-आर्थिक जीवन में समानता स्थापित करने के लिए विचारकों ने कुछ उपाय निकाले हैं । जिनमें साम्यवाद और समाजवाद प्रमुख हैं । साम्यवाद तो रूस की देन है। दोनों का लक्ष्य समाज एवं राष्ट्र में समानता स्थापित करना है । किन्तु उनमें भी स्वार्थान्धता के कारण हिंसा और बल प्रयोग की प्रवृत्ति अधिक दिखलाई पड़ती है ।
साम्यवाद अपनी हिंसक कार्यवाहियों द्वारा धरिक वर्ग को समाप्त करने के लिए प्रयत्न करता है । उसकी ये हिंसाप्रद कार्यवाहियां चाहे एक बार सफल हो जायें, किन्तु उनमें स्थिरता नहीं भा सकती। इसमें निर्बल पक्ष, शक्तिशाली, निर्बल हो सकते हैं। जिससे पारस्परिक विद्वेष प्रौर संघर्ष बढ़ने की आशंका अधिक है। हिंसापूर्वक किया गया कार्य हिंसा, भय और प्रतिद्वन्द्वता को ही
वत्तमान युग मंहगाई और वस्तुओं के प्रभाव का युग है। जहां तक दृष्टि जाती है, सभी मंहगाई का रोना रोते नजर आते हैं यद्यपि ईमर्जेंसी लागू होने के पश्चात् स्थिति में पर्याप्त सुधार हुआ है) । इस पर भी दैनिक उपयोग में भानेवाली वस्तुनों का किसी भी कीमत पर न मिलना, सबसे बड़ी समस्या उत्पन्न कर देता है । वस्तुत्रों का प्रभाव गाहस्थिक जीवन को प्रशान्त बना देता है । कहा जाता है कि कुछ वर्षों पूर्व भारत में घी, दूध की नदियां बहा करती थीं। यह देश सोने को चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध था । उस समय जब साधन सीमित थे, वैज्ञानिक यन्त्रों का याविष्कार नहीं बढ़ाता है ।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
1+86
दूसरा उपाय समाजवाद बतलाता है। सत्ता . प्रिन्स क्रोपाटकिन ने अपने आत्मचरित में एवं कानून के बल पर यह समानता लाने का प्रयत्न अपरिग्रह का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है । करता है । तरह-तरह के टैक्स एवं कानूनों के उसने एक ऐसे कम्पोजीटर का वृत्तान्त लिखा है, द्वारा धनिक और गरीब वर्ग को एक वर्ग में बदल जो एक साम्यवादी प्रेस में काम करता था। देना ही इसका ध्येय है। बलपूर्वक किए गए कार्य जेनेवा में एक बार वह कागज की एक छोटी सी का विरोध अवश्य होता है और जहां विरोध होता पार्सल बगल में दबाए हुए चला जा रहा था। है वहाँ संघर्ष की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार क्रोपाटकिन ने उससे पूछा, “कहो भाई जोन ! शान्ति के कार्य का प्रारम्भ ही विरोध एवं संघर्ष क्या स्नान के लिए चल दिए ?" उसने उत्तर से होता है, तो फिर उनसे कार्य की लक्ष्य प्राप्ति- दिया, "नहीं तो, मैं अपना सामान दूसरे मकान में समानता, प्रेम आदि कैसे सम्भव हैं?
लिए जा रहा हूं।" कागज की एक छोटी-सी इन सभी समस्याओं के समाधान की शक्ति पार्सल ही उसका सम्पूर्ण परिग्रह था। अपरिग्रह भगवान महावीर के अपरिग्रह में विद्यमान है। का इससे प्रभावशाली उदाहरण और कहाँ मिलेगा। अपरिग्रह शांति का अग्रदूत है। इसी के द्वारा सभी धर्म अपरिग्रह की अपरिमित शक्ति की समाजवाद का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। यही सराहना करते हैं । लोभ और मोह का निराकरण समाजवाद की प्रथम स ढ़ी है । पहिले धनिक वर्ग सभी धर्मों में मिलता है। पश्चिमी विद्वानों ने भी को ही प्रारम्भ करना च हिए। वह अपना बड़ा । परिग्रह को दुख का मूल कारण कहा है । प.श्चात्य परिग्रह छोड़ें, तो निघनों को पेट भर भोजन मिल कवि शेक्सपियर ने कहा है- Gold is worse सकेगा। परिग्रह कम करने से सच्चा सुख और pioslen to men's souls than any mortal सन्तोष बढ़ता है। सेवा क्षमता बढ़ती है । अभ्यास drug. के द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को कम कर प्रर्थात् सभी प्रकार के विषैले पदार्थों में मनुष्य सकता है। जितनी जरूरत हो उतनी वस्तु रखे की प्रात्मा के लिए धन सबसे भयंकर विष है।
और उससे अधिक का वह समाज मे, गरीब में यूनानी दार्शनिक सुकरात का कथन है :वितरण कर दे। मह वीर का यह अपरिग्रह- He is the richest who is content सिद्धान्त युद्धों को रोकने वाली ढाल है। एक देश with the least. दूसरे देश पर प्राक्रमण करता है केवल परिग्रह के अर्थात् वह पुरुष सबसे बड़ा सम्पत्तिशाली है. लिए. सचय के लिए। परिग्रह को छोड़ दिया जाय, जो थोड़ी सी सम्पत्ति से सन्तुष्ट रहता है । तो युद्ध भी न रहें। अपरिग्रह से हिंसा, प्रेम एवं सहानुभूति की भावना को बल मिलता है । अपरि- युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है । यह तो रामबाण ग्रह का सिद्धान्त महावीर का महान पोर पवित्र औषधि है । सभी शांति प्रेमी व्यक्तियों को चाहिए सिद्धान्त है। सभी दुष्परिणामों से छुटकारा पाने कि वे अपरिग्रह को अपनाकर अपने जीवन को एवं शांति की प्रतिष्ठा के लिए एक ही मार्ग है, शान्त और सरस बनाने का प्रयत्न करें। यही
वह है अपरिग्रह का सिद्धान्त । यह बीमारी की भविष्य को अधिकाधिक उज्ज्वल बनाने का एक । जड़ को ही समूल नष्ट करने की बात करता है। मात्र साधन है । इसी में समाज, राष्ट्र एवं विश्व इसलिए अधिक सफलीभूत हुआ है ।
का कल्याण सन्निहित है ।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
समकालीन भौतिकवाद और भगवान महावीर
विश्व के सभी महान पुरुषों ने अपने सिद्धान्त अनुभव, ज्ञान व पाचरण से समाज के सामने एक ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया है, जिससे व्यक्ति का सर्वागीण विकास हो। इस विकास के दो पक्ष है-भौतिक और आध्यात्मिक । इन दोनों के संतुलन पर ही समाज व राष्ट्र की प्रगति निर्भर रहती है। ____वर्तमान में आध्यात्मिक प्रवृति की अपेक्षा भौतिक प्रवृति अधिक प्रबल बन गई है जिसके कारण व्यक्ति के जीवन व समाज में विषम स्थिति उत्पन्न हो गई है। __भौतिक प्रवृति की मुख्य अभीप्सा शारीरिक सुख भोग की अोर होती है। इसी के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके अपने ही सुख के लिए नाना प्रकार की वैलासिक सामग्री हो । शारीरिक सुख भोग की इस तृष्णा को मिटाने के लिए मनुष्य सब प्रकार के अनैतिक हथकण्ड़ों को काम मैं लाता रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज की कोई सुन्दर तस्वीर आज तक नहीं बन पाई है।
आज अधिकांश में यही देखा जाता है कि मानव येन केन प्रकारेण धन कमाने के पीछे पागल है। वह अधिक धन कमाने के लिए जमाखोरी, मुनाफाखोरी, कर चोरी, चोर बाजारी, धोखाधड़ी, मिलावट, हत्या प्रादि राष्ट्र विरोधी अनैतिक कार्य करने से भी नहीं हिचकता है। उसकी धन-लिप्सा इतनी अधिक बढ़ गई है कि बीसों पीढ़ियों तक समाप्त न हो इतना धन वह स्वयं एकत्र कर लेना चाहता है। इसका फल यह हप्रा कि समाज में घोर विषमता पैदा हो गई है। एक और विशाल
-श्री कन्हैयालाल लोढा एम०ए०, जयपुर
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-88
भटालिकाएं खड़ी हैं। उनमें भोग विलास की रहती है और धीरे-धीरे बिल्कुल लुप्त हो जाती है। सारी सामग्रियां उपलब्ध हैं। मानों स्वर्ग यहीं यह सुख इन्द्रियों की उत्तेजना से मिलता है अतः उतर पाया है। दूसरी ओर बहुत बड़ी संख्या में एक प्रकार का नशा है, प्राकुलता है । इन्द्रिय सुख ऐसे लोग हैं जिनके पास न खाने को पूरा अन्न है कितना ही भोगा जाय तृप्ति नहीं होती है । भोगने न रहने का मकान है और न पहनने को वस्त्र है। से शक्ति क्षीण होती है और एक दिन व्यक्ति भोगने इस सामाजिक विषमता से वर्ग संघर्ष बढ गया है। में असमर्थ हो जाता है। जिससे सर्वत्र अशांति, असुरक्षा और भय का वाता. इन्द्रिय सुख से अन्तःकरण में प्रथियों का वरण बना हुआ है तथा जीवन पहले से अधिक
निमारण होता है। इन्हें जैनागमों में कर्म बंध कहा दुःखी हो गया है।
गया है । यह कर्म बंध ही शारीरिक रोगों मानसिक यही स्थिति भगवान महावीर के समय भी क्लेशों, सामाजिक संघर्षों युद्धों प्रादि सब प्रकार के थी। उस समय संपन्नता में विपन्नता में प्राकाश दुखों का कारण है अन्तः दुख से मुक्ति पाने का पाताल जितना अन्तर था। एक ओर राजा- उपाय कर्मबंध से मुक्ति पाना है। महाराजाभों व सेठ-साहकारों के यहां धन का ढेर लग कर्म बंध से मुक्ति पाने के दो उपाय हैं जिन्हें रहा था तो दुसरी मोर बाजारों में मानव पशु- जैन दर्शन में संवर और निर्जरा कहा गया है । पक्षी की तरह बेचे जाते थे। राजा अपनी सत्ता इन्द्रिय और मन को संयम में रखना, हिंसा, झूठ, के बल पर मनमानी करते थे । सेठ अपनी सम्पत्ति चोरी, कुशील प्रादि पाप न करने का व्रत लेना के बल पर किसी को भी खरीद लेते थे। ऊंच संवर है । इससे नये कर्मों का बंध होना रुक जाता नीच का भेदभाव चरम सीमा पर था।
है। उपवास, विनय, सेवा, स्वाध्याय ध्यान मादि ___महावीर ने इस विषम स्थिति को देखा तो करना निर्जरा है। निर्जरा से पहले बंधे हुए कर्मों उनका हृदय करुणा से भर गया और वे इसके का नाश होता है। जब सब कर्मों का नाश हो निवारण का उपाय ढूढने लगे। प्रापने घर बार जाता है तो मात्मा सब दुःखों से हमेशा के लिए छोड़कर साढ़े बारह वर्ष तक चितन मनन और मुक्त हो जाता है । यह ही मोक्ष है। तपस्या की। अन्त में सर्व दुःखों से मुक्ति पाने का जिस प्रकार दवा से शारीरिक विकार दूर होने उपाय ढढ ही लिया। मापने बताया कि इन्द्रिय पर तत्काल शांति स्वस्थता व प्रसन्नता का अनुभव सुख वास्तविक सुख नहीं है । जिस प्रकार दाद के होता है उसी प्रकार संवर और निर्जरा से जितने रोगी को खाज खुजालने से सुख मिलता है परन्तु जितने अंश में प्रात्मा के विकार दूर होते जाते हैं, उसका परिणाम दुःख ही है। इसी प्रकार इन्द्रिय उतने उतने अश में शांति, समता और प्रानन्द की सुख का परिणाम दुःख ही है ।
उपलब्धि होती है । अतः सच्चा सुख राग, द्वेष मोह भगवान महावीर ने बताया कि इन्द्रिय सख भादि विकारोको दूर करने में है भोग भोगने में नहीं। में अनेक दोष है। यह सुख वस्तुओं के प्राधीन भगवान महावीर ने अपने अनुभव के आधार है प्रतः व्यक्ति को पराधीन बनाता है। जिन पर बताया कि भूतों से निर्मित शरीर का अन्त हो वस्तुमों से यह सख मिलता है वे नश्वर हैं जाने पर प्राणी के जीवन का अन्त हो अतः यह सुख भी नश्वर है । इन्द्रिय सुख चाहे जाता है। शरीर में शरीर से भिन्न एक प्रात्म कितना ही मधुर क्यों न हो भोगने के समय जो तत्व में अनन्त विलक्षण शक्तियां विद्यमान हैं। मधुरता पहले क्षण मिलती है वह दूसरे क्षण नहीं शरीर तो मात्मा की शक्तियों को प्रकट करने का
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-89
साधन मात्र है। शरीर निर्माण में बाहरी कारण मुक्खो, अर्थात् जो अपनी प्राप्त सामग्री का जरूरतपृथ्वी जल आदि भौतिक पदार्थ हैं और प्रांतरिक... मंद लोगों में वितरण नहीं करता है वह कभी कारण आत्म तत्व है।
मोक्ष प्राप्त नहीं करता है। वितरण का यह प्रात्मा के साथ बघे कर्मों से शरीर का
सिद्धांत समता मूलक समाज रचना के लिए प्रति निर्माण होता है । जैसे जैसे प्रात्मा के बुरे कर्म
उपयोगी है। घटते जाते हैं, प्रात्मा की चेतना शक्ति का विकास
_अपरिग्रह पर जोर देते हुए भगवान महावीर होता जाता है। वही विकास इन्द्रिय, मन बुद्धि ने कहा कि चल-अचल सम्पत्ति का प्रावश्यकता से प्रादि के विकास के रूप में प्रकट होता है ।
अधिक संग्रह न करो। धन-धान्य व भोग सामग्री इस प्रकार प्राध्यात्मिक विकास के साथ-साथ
की मर्यादा करो और मर्यादा से अधिक न रखो। इन्द्रिय, शरीर प्रादि के रूप में भौतिक विकास
अपरिग्रह का यह विधान समाजवादी अर्थव्यवस्था भी स्वतः होता जाता है।
के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ___भगवान महावीर ने कहा कि भौतिक साम
भौतिक वादी मार्थिक, सामाजिक व राष्ट्रीय ग्नियों का मिलना बुरा नहीं है। बुरा है उनका
समस्याएं सुलझाने के लिए केवल नियम बनाकर दुरुपयोग करना । वे सामग्रियाँ दुरुपयोग करने
वातावरण को बदलना चाहते हैं परन्तु इससे से विनाश को और सदुपयोग करने से विकास की
बाहरी वातावरण ही बदलता है, समस्या का कारण बन जाती हैं । भौतिक सामग्रियों से सेवा
उन्मूलन नहीं होता है । वह समस्या अपना रूप व परोपकार करना उनका सदुपयोग है । इससे
बदलकर पुनः प्रस्तुत हो जाती है । कारण कि पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन मगलमय बनता है।
समस्या की जड़ व्यक्ति के हृदय में स्थित बुराइयां भोतिक सामग्रियों का भोग विलास के लिए है। अतः जब तक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन संग्रह करना तथा उनसे केवल अपना ही सुख न हो व हरी वातावरण बदलना सार्थक नहीं हो सम्पादन करना उनका दुरुपयोग है, सामाजिक सकता। महावीर के बतलाए हुए मार्ग अर्थात् अपराध है। इससे व्यक्ति व समाज में लोभ व अहिंसा, संयम, सेवा, त्याग, अपरिग्रह से व्यक्ति भोग की प्रवृतियां अधिकाधिक बढ़ती जाती हैं। का हृदय परिवर्तन होता है। यही समस्यामों के इस सम्बन्ध में भगवान महावीर का कथन है- निवारण का सबसे उत्तम उपाय है। लोभो सच्व विणासणो, भोगी भमइ संसारे, अर्थात् वर्तमान युग विज्ञान का युग है । इसमें प्रत्यक्ष लोभ सर्वनाश करने वाला है और भोग संसार में प्रमाण व प्रयोग को कसौटी पर खरे उतरने वाले दु.ख देने वाला है । लोभ और भोग रूप भौतिक- सिद्धान्त , को स्थान मिलता है। महावीर का वाद के कारण प्राई नानव जाति संताप, संक्लेश, सिद्धान्त कारण कार्य पर प्राधारित होने से प्रत्यक्ष
भय प्राति अगणित दःखों से पीडित प्रमाण व प्रयोग की कसौटी पर पूरा खरा उतरता है तथा विश्व युद्ध से कभी कभी सर्वनाश का ___ है तथा व्यावहारिक व तत्काल फल देने वाला है । खतरा सदा सिर पर मंडरा रहा है।
आज के युग में इसकी पूर्ण प्रावश्यकता व उपयोइस मनिष्ट स्थिति से बचने का उपाय भगवान गिता है। अतः महावीर द्वारा प्रतिपादित तत्व महावीर के बताए हुए सेवा और पारिग्रह के ज्ञान, स्याद्वाद, कर्मवाद आदि सिद्धान्त विश्व की सिद्धान्तों को अपनाना ही है । महावीर ने सेवा का समस्याएं सुलझाने, बुराइयों व दुःखों को दूर करने महत्व बताते हुए कहा-असंविभागी ण हु तस्स में पूर्ण सक्षम है।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयम की राह
है अगर दया भाव दिल में हमारे. तो अपनावे उनको, जो हैं बे सहारे । क्षमाशील बनते हैं सोचें जरा हम, वृथा कोध से देह को क्यों जलाते ? ॥१॥ कर्ता स्वयं ही भर्ता स्वयं ही, स्वयं स्वयं के फल पाने वाले। नहीं है पर का जब लेना देना, बातें जगत की वृथा क्यों बनाते ? ॥२॥ कथन में क्रिया में बहुत भेद करते, अपना पराया सदा देखते हैं। कहां थे? कहां हैं ? कहा जा रहे हैं ? पतन को ही उत्थान हम कह रहे हैं ॥३॥ नहीं हमको मालूम कठिन क्या सरल क्या, करेंगे क्या चिन्तन मनन फिर बताओ। अनभ्यास से है सरल भी कठिन, कठिन भी सरल है अभ्यास से तो ॥४॥ सोचा न समझा विचारा न कुछ भी, स्वेच्छानुकूलाचरण से जिये हम । बिताया असयम में जीवन सदा ही,
सटा दी. बताओ तो संयम सा पथ कौनसा है ? ।' ५।।
-श्री कार्तिकेय कुमार जैन प्राचार्य-साहित्य एवं जन दर्शन, जयपुर सदा इन्द्रियाधीन रहकर के हमने, सुखाभास में सत् की संतुष्टि धारी। रमें पर में, भूले स्वयं को भला बताओ तो संयम का पथ कौनसा है? ॥६॥ तिमिर राह में श्रेष्ठ दीपक जलाकर आलोक से जो मंजिल बनाता । उसे भूलकर श्रेय हम चाहते हैं, बतायो तो संयम का पथ कौनसा है? ||७ । रसास्वाद हेतु स्वमर्याद तज-कर, खाते है भक्ष्य और अभक्ष्य को भी। श्र तज्ञान आलोक की राह खोकर, बतायो तो संयम का पथ कौनसा है? ।।८।। वैषम्य दृष्टि से परिपूर्ण होकर, अहं भाव की मान्यता से भरे हैं। नहीं स्वार्थवश हमने सोचा विचारा, बताओ तो संयम का पथ कौनसा है? ॥६॥ मन इन्द्रियां जिनके वश में नहीं हैं, नहीं है जरा यत्न निरोध का भी। अनातीत प्राशा से संयम को खोकर बतायो कहां फिर कल्याण पथ है ? ||१०॥
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर का शारीरिक एवं गुणों का प्राचीन वर्णन
करवाने के लिए 'उववाइय सूत्र' के भगवान महावीर के वर्णन सम्बन्धी पाठ का हिन्दी अनुवाद यहां प्रकाशित किया जा रहा है। सांस्कृतिक इतिहास के लिए 'उवावाइय सूत्र' बहुत ही महत्त्व का ग्रन्थ है। इसीलिए इससे पूर्ववर्ती प्रग सूत्रों में भी इसके वर्णनों का हवाला दिया गया है। इस सूत्र के महत्व के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध है'उवव ई, सूत्रों की माई' अर्थात् यह उपांग सूत्र सब सूत्रों की माता यानी कुंजी है। इस सूत्र का हिन्दी अनुवाद मुनि उमेशचन्द्र जी ने किया है और साधु मार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाने से सम्वत् 2020 में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्य में बहतही पाठनीय सामग्री है। पाठक स्वय पढ़ कर लाभ उठावें । अब उववाइय सूत्र के महावीर
वर्णन का हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है-श्री अगरचन्द नाहटा
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान
(चा के समीप पधारे)। वे घोर ता-या करने भगवान महावीर सम्बन्धी विवरण जैन से 'श्रमगा' नाम से प्रसिद्ध थे। समस्त ऐश्वय से पागामों में प्राप्त होता है वह कई दृष्टियों से युक्त होने के कारण 'भगवान' कहे जाते थे । देव बहुत ही महत्वपूरण है। प्राचीनतम प्रचारांग आदि के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी अपने मादि अंग सूत्रों के बाद पहला उपांग 'उक्वाइन' मार्ग पर वीरता से डटे रहे, अत: देवों ने उन्हें सूत्र है, जिसमें भगवान महावीर, चम्पानगरी में महावीर' नाम से प्रतिष्ठित किा था। (के वनपधारे और उनके वन्दनार्थ कूलित महाराजा बड़े ज्ञा होने पर पहले पहल श्रुतधर्म करने के वाले भक्ति भाव से गये, इस प्रसग से चम्म नगरी, होने से) वे प्रादिकर्ता थे और (साधु, साध्वी. उसके चैत्य, वन खण्ड, अशोक वृक्ष, शिला पट्टा, धावक और श्रविका रूप चतुर्विध संघ के स्थापक राजा-रानी का वर्णन करने के बाद सूत्रकार ने होने के कारण) तीर्थङ्कर' थे। स्वयमेव-किसी की भगवान महावीर का वर्णन किया है, उसमें उनके सहायता या निमित के बिना ही उन्होंने बोध गुणों और अतिशयों के वर्णन के साथ-साथ शरीर प्राप्त किया था। वे पुरुषों में उत्तम थे क्योंकि और उसके अंग प्रत्यंग अर्थात शिस्त्र से लेकर नख उनमें सिंह के समान शौयं का उत्कृष्ट विकास तक का जो विशिष्ट वर्णन मिलता है, वह अन्यत्र हुआ था, पुरुषों में रहते हुए भो श्रेष्ठ सफेद कमल कहीं नहीं मिलता। इसलिए पाठकों की जानकारी के समान सभी प्रकार की अशुभतायें मलिनतायें
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-92
उनसे दूर रहती थीं और श्रेष्ठ गंधहस्ती के . हुप्रा हो, उसके फटे हुए मंश से रूई बाहर निकल समान, किसी क्षेत्र में उनके प्रविष्ट होते ही सामान्य माई हो उसके समान कोमल सुलझे हुए, स्वच्छ हाथियों के समान पर चक्र, दुभिक्ष, महामारी प्रादि और चमकीले या पतले-सूक्ष्म, लक्षणयुक्त सुगंधित दुरितों का विनाश हो जाता था। वे प्राणों को सुन्दर, भुजमोचकरत्न भृग कोट, नील-विकार, हरण करने में रसिक और उपद्रवों के करने वालों कज्जल और अत्यन्त हर्षित भौंरे के समान काले को भी भयभीत नहीं करते थे अथवा सभी प्राणियों और लटों के समूह से एकत्रित धुधराले छल्लेके भय को हरण करने वाली दया के धारकाथे- दार बाल (प्रदक्षिणावर्त) (शिर पर) थे। केश के निर्भयता के दाता थे। चक्षु के समान श्रुत ज्ञान समीप में केश के उत्पत्ति के स्थान पर की त्वचा के देने वाले थे। सम्यक् दर्शन प्रादि मोक्ष मार्ग द.डिम के फूल के समान प्रभायुक्त थी। लाल के प्रदाता थे। उपद्रव से रहित स्थान के दायक थे सोने के समान (वर्ण) निर्मल थी और उत्तम तेल और जीवन (अमरता रूप भाव प्राण के) दानी से सिञ्चित सी थी (अर्थात) चिकनाई ‘से युक्त थे। वे दीपक के समान समस्त वस्तूमों के प्रकाशक चमकीली थी। अथवा द्वीप के समान संसार सागर में नाना प्रकार उनका उत्तमांग धन, भरा हुआ और छत्राकार के दुखों की लहरों के थपेड़ों से पीड़ित व्यक्तियों था। ललाट प्राधे चांद के समान, घाव आदि के के लिए आश्वासन-धैर्य के कारण रूप, अनर्थो के चिन्ह से रहित सम, मनोज्ञ और शुद्ध था। नक्षत्रों नाशक होने से त्राणरूप, उद्देश्य की प्राप्ति में के स्वामी पूर्णचन्द्र के समान सौम्य मुख था । कारण होने से शरण रूप, खराब अवस्था से उत्तम मनोहर या संलग्न (ठीक ढंग से मुख के साथ अवस्था में लाने वाली गतिरूप और संसाररूपी जुड़े हुए) या प्रालीन प्रमाण से युक्त कान थे, खड्डे' में गिरते हुए प्राणियों के लिए आधार रूप अतः वे सुशोभित थे । दोनों गाल मांसल और भरे थे। चार अन्तों (तीन दिशाओं में समुद्र और हुए थे। भौंहे कुछ झुके हुए धनुष के समान (टेढ़ी) उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत रूप किनारे) वाली सुन्दर और काले बादल की रेखा के समान पतली पृथ्वी के मालिक; चक्रवर्ती के समान धर्म में श्रेष्ठ कालो और कान्ति से युक्त थे। नेत्र खिले हुए (अधिनायक) थे। क्योंकि वे भविसंवादक-अचूक __ सफेद कमल के समान थी। वे इस प्रकार शोभित ज्ञान के और दर्शन के धारक थे; कारण उनके थी मानों कुछ भाग में पत्तों से युक्त खिले हुए ज्ञान आदि के प्रावरण (ज्ञानादि गुणों को दबाने कमल हों। नांक गरूड़ को (चोंच के) समान वाले कर्म) हट गये थे । (अतः निश्चय ही) राग और लम्बा, सीवा और ऊंचा था। संस्कारित शिला द्वेष को जीत लिया था । ज्ञायक भाव में रागादि के प्रवाल (मूगें) और बिम्ब फल के समान स्वरूप उनके कारण और फल के ज्ञातृ भाव में स्थित अधरोष्ठ थे। थे। इसलिए मुक्त थे, मुक्त करने वाले थे, समझे हुए . उनकी ऊंचाई सात हाथ की थी। आकार थे, समझाने वाले थे। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी उपद्रव से समचौरस (उचित और श्रेष्ठ माप से युक्तरहित स्वाभाविक और प्रयोग जन्य चलन से रहित- सुन्दर) था। उनकी हड्डियों की संयोजना अत्यन्त अक्षय, बाधा-पीड़ा से रहित और जहां से पुन: मजबूत थी। (प्रतः सौन्दर्य और शक्ति का आगमन नहीं हो, ऐसे 'सिद्धि गति' नाम वाले सुन्दर संयोग हुमा था)। शरीर-स्थित वायु का वेग स्थान को अभी ऐसे स्थान को प्राप्त नहीं हुए थे अनुकूल था। कंक पक्षि के समान गुदाशय या किन्तु उसे प्राप्त करने की प्रवृत्ति चालू थी। (अर्थात मलोत्सर्ग-क्रिया में कोई खराबी नहीं थी
समेल वृक्ष के फल जो कि रूई से ठोस भरा या मलोत्सर्ग स्थान के अवयव नीरोग थे), कबूतर
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
केप्रावार परिणमन की शक्ति के समान पाचन क्ति थी। पक्षियों के समान प्रपान - देश निर्लेप रहता था। पीठ, अन्तर (पीठ और पेट के बीच दोनों तरफ के हिस्से - पार्श्व ) और जंधाएं विशिष्ट परिणाम वाली थी श्रर्थात् सुन्दर थी । पिद्म (कमल या 'पद्म' नामक गन्ध द्रव्य) की सुगन्ध के समान निःश्वास से सुरभित ( प्रभु का ) मुखथा । उनकी चमड़ी कोमल और सुन्दर थी । संग से रहित, उत्तम, शुभ, अति सफेद और अनुपम प्रभु का देह की मांस था । अतः जल्ल ( कठिन मैल), महल (अल्प प्रयत्न से छुटने वाला मल ) कलङ्क ( दाग) पसीने और रज के दोष से मैं रहित ( भगवान का शरीर था । उस पर मल जिम ही नहीं सकता था अतः अंग-मंग उज्ज्वल क्रान्ति से प्रकाशमान थे !
8:
अत्यन्त ठोस या सधन, स्नायुत्रों से अच्छी तरह से बंधा हुआ श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त पर्वत के शिख के समान आकार वाला और पत्थर की गोल पिण्डी के समान (भगवान का सिर था ।
1-92
गुल की उत्तम प्रमाण से युक्त बी स्कंध ( खंधे श्रेष्ठ भंसे, सुअर, सिंह, बाघ, प्रधान हाथी और वृषभ (सांड) के (खंधे के ) समान प्रमाण से युक्त सभी विशेषताओंों से सम्पन्न श्रौर विशाल थे । उनके बाहू गाड़ी के जुड़े के समान (गोल श्रीर लम्बे ) मंटे देखने में सुखकर और दुर्बलता से राहत पुष्ट पांचों ( कलाइयों) से युक्त थे, बाहू का आकार सुन्दर था, संगत था मतः वे विशिष्ट थे --धन ( वायु से फूले हुए नहीं किन्तु हष्ट-पुष्ट) स्थित और स्नायुनों से ठीक ढंग से बन्धि हुई संधियों (हड्डियों के जोड़) से युक्त थे । वे पूरे बाहू ऐसे दिखाई देते थे कि मानों इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिये फणधर ने अपना महान देह फैलाया हो । प्रभु के हाथ के तले लाल, उन्नता, कोकल भरे हुए, सुन्दर मोर शुभ लक्षणों से युक्त थे और गुलियों के बीच में (उन्हें मिलाने पर) छिद्र दिखाई नहीं देते थे । मंगुलियां पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ थीं। (गुलियों) के नख ताम्बे के समान कुछ कुछ ल ल, पवित्र, दीप्त मौर स्निग्ध अर्थात् रूक्षता से रहित थे। हाथ में चन्द्राकार, सूर्याहार, शंखाकार चक्राकार मोर दक्षिरंगावर्त स्वस्तिकाकार रेखाएं थी । इन सभी रेखाओं के सुगम से हाथ सुशोभित थे ।
भगवान का वृक्ष (छाती, सीना सुवर्ण शिला तल के समान उज्ज्वल प्रशस्त, समतल मांसल विशाल और चौड़ा था। उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक का चिन्ह था । मासलता के कारण पांसलियों की हड्डियां दिखाई नहीं देती थी स्वर्ण कान्ति-सा ( सुनहरा ) निर्मल, मनोहर और रोग के पराभव से (प्राघात से ) रहित ( भगवान का ) पूरे एक हजार आठ, श्रेष्ठ पुरुषों उनके पार्श्व ( बगल) के नीचे की श्रौर क्रमशः कम घेरे वाले हो गये थे, देह के प्रमाण के अनुकूल थे, सुन्दर थे, उत्तम बने हुए थे और मितमात्रिक ( न कम न ज्यादा, रूप से मांस से भरे हुए) पुष्ट- रम्य थे ।
उचित
दो दांतों
सुस्निग्ध
दांतों की श्रेणी निष्कलङ्क चन्द्रकला (या चांद टुकड़े ) निर्मल से भी निर्मल शंख गाय के दूध फेन कुद के फूल जल करण और कमलं नाल के थीं । दांत अखण्ड जर्जर समान सफेद ( मजबूत ) अविरल ( परस्पर सटे हुए, के बीच का अन्तर अधिक न हो ऐसे ) ( चिकने-चमकीले) और सुन्दराकार थे । एक दांत की श्रेण से अनेक दांत थे (अर्थात दांतों की सघनता के कारण उनकी विभाजक रेखाएं दिखाई नहीं देती थी, अनेक दांत होते हुए भी एक दन्त की पंक्ति सी लगती थी) तालु और जीभ के तले, अग्नि के ताप से मल-रहित जल से धोए हुए और देह था। जिसमें तपे के लक्षण थे । सोने के समान लाल थे। भगवान् की ढाढ़ीहुए मूछे कभी नहीं बढ़ती थी-सदा एक सी रहती थी और सुन्दर ढंग से छटी हुई-सी रम्य थी । चिबुक के समान विस्तीर्ण थी ।
ग्रीवा श्रेष्ठ शंख समान (सुन्दर) और चार
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
gest
(वृक्ष और उदर पर) सीधे और समरूप से (पर्वत, नगर, मगर, समुद्र मौर चक्र रूप एक दूसरे से मिले हुए, प्रधान, पतले, काले, श्रेष्ठ चिन्हों और स्वस्तिक प्रादि मंगल चिन्हों से स्निग्ध, मनको भाने वाले, सलावण्य (सलोने) मंकित चरण थे । भगवान का रूप विशिष्ट था। और रमणीय रोमों की पंक्ति थी। मत्स्य और धुए से रहित जाज्वल्यमान अग्नि, फेली हुई बिजली पक्षी की सी उत्तम और दृढ़ मास पेशियों से युक्त और तरुण (दूसरे पहर के या अभिनव) सूर्य कुनी थी। मत्स्य का-सा उदर था। पावन किरणों के समान भगवान का तेज था। इन्द्रिय थीं पेट के करण (मन्त्रजाल) पावन थे। . भगवान ने कर्म के प्रारम-प्रवेश के द्वारों को गंगा के भंवर के समान, दाहिनी और घमती दुई रुष दिया था। मेरेपन की बुद्धि त्याग दी थी। सरंगों से भंगुर अर्थात् चञ्चल, सूर्य की तेज
- प्रतः उन्होंने अपनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं किरणों से विकसित कमल के मध्य भाग के रखी थी। भव प्रवाह को छेद-छेद दिया था या समान, गंभीर और गहन नाभि थी। त्रिदण्ड,
(परिग्रह संज्ञा के प्रभाव के कारण) शोक से
रहित थे। मूसल, सार पर चढ़ाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पण-दण्ड
निरूपलेप (द्रव्य से निर्मल देह वाले और (दर्पण दण्ड) और खड़ग मुष्टि (मूठ) के समान
भाव से कर्मबन्ध रूपलेप से रहित) थे। प्रेम श्रेष्ठ वज्रवत् क्षीण (देहका) मध्य भाग था। रोग शोकादि से रहित (प्रमुदित) श्रेष्ठ घेरे
(मिलन के भाव) और मोह (मूढता- प्रज्ञान
के भाव) से प्रतीत हो चुके थे। वाली कटि थी।
निग्रंथ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता - श्रेष्ठ घोड़े के (गुप्तांग के) समान मच्छी (माज्ञा के प्रवर्तक) नायक और प्रतिष्ठापक तरह (गुप्त) बना हुमा उत्तम गुह्य भाग था। (उन-उन उपयोगों के द्वारा व्यवस्था करने वाले) जातिवान घोड़े (के शरीर) के समान (भगवान थे। प्रतः साधु-संघ के स्वामी थे और श्रवण वृन्द का) शरीर लेप से लिप्त नहीं होता था। श्रेष्ठ
वर्द्धक (उन्नति कर्ता या पूर्णता की ओर ले हाथी के समान पराक्रम और विलास युक्त चाल
जाने वाले) थे । जिनवर के वचन आदि चौंतीस थी। हाथी की सूढ के समान जंघाएं थी। गोल ।
अतिशेष (अतिशय तीव्र और उत्कृष्ट पुण्योदय डिब्बे के ढक्कन के समान निमग्न और गुप्त घुटने से सर्वजन हितङ्करता की भ वना से पूर्वभव में थे । हरिगी (की जंवा) के समान और 'कुरुविंद' वृद्ध पुण्य के उदय से होने वाली जन साधारण के नामक तृण के समान तथा सूत्र बनाने के पदार्थ लिए दुर्लभ पौद्गलिक रचनादिविशेष) के और के समान क्रमशः उतार सहित गोल जंघाएं थी पैंतीस सत्य-वचन के अतिशयों के धारक थे)। (अपवा पिंडलियां थी) । सुन्दराकार सुगठित अाकाशवर्ती धर्मचक्र, माकाशवर्ती तीन छत्र, मोर गुप्त पर के मणि बन्ध (टखने) थे । शुभ आकाशवर्ती या ऊपर उठते हुए चामर, पाद पीठ रीति से स्थापित (रखे हुए) कछुए (के चरणों) (पैर रखने की चौकी) सहित प्राकाश के समान के समान चरण थे ! क्रमशः बढ़ी घटी हुई (या स्वच्छ स्फटिकमय सिंहासन और आगे-मागे चलते बड़ी-छोटी) (पैर की) अगुलिया थी। ऊचे उठे हुए धर्म ध्वज (चोदह हजार साधु और छत्तीस हुए, पतले, ताम्रवर्णी और स्निग्ध (पैर के) नख हजार प्रायिकाएं) के साथ घिरे हुए, क्रमशः थे । लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार ।
विचरते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम को पावन
करते हुए और शारीरिक खेद से रहित-संक्म में पगतलिया थीं। (इस प्रकार की अपूर्व सौन्दर्य
आने वाली बाधा पीड़ा से रहित बिहार करते हए, की राशि) देह यष्टि में श्रेष्ठ पुरुषा क एक हजार चम्पा-नगरी के बाहर के उपनगर (समीप के गांव) पाठ लक्षण (शोभित होते) थे।
में पधारे।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के जीवन दर्शन
का
वैज्ञानिक विश्लेषण
श्री राजभर जैन 'परमहंस'
दमोह -
मानव की कल्पना हो ईश्वर है। जिस दिन वह इस कल्पना को साकार कर लेता है, स्वयं विभु हो जाता है । जैन दर्शन ने प्रत्येक प्रात्मा को विभु होने का अधिकार दिया है । इसलिये ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, ईश्वर हुम्रा जा सकता है । तथागत से उनके परम शिष्य श्रानन्द ने प्रश्न किया, "प्रभो, आपका निर्वारण समीप है, मैं प्रापके सान्निध्य में जीवन पर्यंत रहा पर यह न जान सका कि ईश्वर है इस पर श्राप का मत क्या है ? आपके पश्चात मेरा यह प्रश्न, प्रश्न ही रह जायगा ।" बुद्ध ने उत्तर नहीं दिया मौन हो गये । उत्तर दिया जा चुका था । यही प्रश्न यदि कोई महावीर से करता तो शायद महावीर भी मौन हो जाते । शायद तुम सोचोगे महावीर नास्तिक हैं । जिन्होंने भी ईश्वर को जाना है उनसे तुम यदि पूछोगे कि क्या उन्होन ईश्वर को देखा है तो उन्हें सदव भोन पालोगे । नास्तिक का अथ हैं जो प्रस्तित्व को अस्वीकार करे । तुम हो फिर प्रस्वीकृति कहा ? और जब तुम हो, तो तुम्हारा यह साम्राज्य तुम्हारे साथ है, पर जब तुममें मोर तुम्हारे साम्राज्य में द्वत जन्म ले लेगा, जब दोनों एकरूपता के प्रस्तित्व से विलग हो जावेंगे, जब दोनों के क्रियाकलापों में विभिन्नता का जन्म हो जावेगा, भेद प्राचीर एक दूसरे को देखने से वंचित कर देगी, संसार खड़ा हो जावेगा, ईश्वर मदृष्ट हो जावेगा। इसलिये महावीर के दर्शन में प्रस्वीकृति में स्वीकृति है । मोक्ष संसार का न होना है, पर संसार है क्योंकि मैं हूं और मैं नहीं हूं न यह संसार है, यही है महावीर का स्याद्वाद तो स्यां द्वाद जो है उसका विज्ञान है । इम हैं, कर्म हैं । कर्म का प्रकर्मक हो जाना, मोक्ष है, निर्वाण है,
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-96
एक अनन्त प्रकाश है। इसलिये स्याद्वाद स्थिति है, विवेक प्रवतरित हो चूकी है समृद्धि अवतरित हो की अनुरूपता की स्वीकृति है।
चुकी है। शोभा होगी सबकी सम्पन्नता, सबकी समा अरुणोदय, स्वर्ण विहान, पक्षियों का कलरव, नता, सब चेहरों पर माल्हाद । तुम्हारा कर्म लज्जामिर का कलनाद, सुगंधित समीरण, चारों और स्पद न बन जाये, कोई दुखी न रह जाये, कहीं कोई जीवन, हरित उद्यान. विकसित वन कसम, उत्त ग विकलांग न हो जाये तुम्हारे कारण ऐसा प्राचरण मौन शिखर, जिस दिन यह सब तुम हो; खेतों से निर्मित हो यही शील है। तुम विचलित न हो अपने जूझता कृषक, व्यवसाय में डूबा वरिणक, मशीनो कर्तव्य पथ से यही घृति है । कार्य विवेक जन्य हो पर यंत्र चालित श्रमिक, युद्ध भूमि में सत्य के लिये यशस्वी हों, यही तो है 'बुद्धि' और 'श्री' का प्रागमन समर्पित होता सैनिक, असहाय, दरिद्र भिखारी गर्भ कल्याणक की प्रतिष्ठा का अर्थ है रत्नगर्भा जिस दिन यह सब तुम हो, उस दिन तुम्हारा वसुन्धरा की अन्तः शक्ति को प्रतिष्ठित करना । वसुधा 'अपना कोई कर्म नहीं होगा, कर्मो की विर्जरा के मनन्त्र गर्म में छिपे स्वर्णभण्डारों को, मेदनी होगी। शेष रह जायगा केवल एक मानन्द, यही की अपार उर्वराशक्ति को स्रोतो के रूप में मानव मोक्ष है। तो तुम यदि महावीर के दर्शन करने कल्याण के लिये उपलब्ध कर देना। माये हो तो तुम्हें उन्हें जानना होगा, उनके आनन्द जन्म लेते हैं महावीर तो सब कुछ उदित हो के मार्ग को पहचानना होगा। और उनके स्थान ___ जाता है । सारे मलिन प्रावरणों को तोड़कर एक पर अब तुम उतरो गर्भ में, तुम जन्म लो, तप करो, दीप्ति चारों ओर फैल जाती है । अंधकार का ज्ञान प्राप्त करो मोक्ष मिल जायेगा । तुम्हे जन- साम्राज्य विछिन्न हो जाता है, ज्ञान सूर्य का अभ्युधर्म की लेबोरेटरी में प्रयोग करना है अन्यथा दय हो जाता है । ‘महावीर का जन्म कल्याणक ध्यर्थ होगी तुम्हारी उपस्थिति, मृगमरी चिका होगा देवता मनाते थे, क्या तात्पर्य है इसका? इसका तुम्हारा भठकना, अबौद्धिक होगी तुम्हारी प्रभीप्सा। पर्थ केवल इतना है कि जिसमें देवत्व है वही अधितो तुम्हे करना होगा स्वयं का रूपान्तरण । कारी महावीरके जन्म कल्याणक मनाने का । तुम्हारा - महावीर गर्भ में आते हैं, पाने के पूर्व से स्वर्ग देवत्व प्रकट होगा जब तुम्हारे कर्मों की निष्पत्ति मौर रत्नों की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। स्वर्ग कारण बनेगी, संस्कारित, शिक्षित, आध्यात्मिक पौर रत्न प्राकाश से कंकड़ पत्थर नहीं बरसते थे। एवं अति प्राध्यात्मिक, वैज्ञानिक मस्तिष्कों को जन्म यह प्रतीक है इस बात का कि समस्त अस्तित्व देने की जो मानव विकास के लिये दृढ़ संकल्पित को अपने में लिये हुए पूरणं आनन्दित आत्मा जब हो सकें, अग्रसर हो सके एक प्रकाश के साम्राज्य प्रवतीर्ण हो रही है तो सारा प्रफुल्लित वातावरण को स्थापित करने में। उसके प्रासपास होता है। मेदनी का अंग अंग सूर्य सितिज पर उदित हुआ; सारा आकाश पुलकायमान है उसे धारण कर । बही तो समृद्धि है उसे पार करने के लिये । उसे सतत गतिशील है मुमुक्षु प्रात्मा की। और यही कारण है कि होना है । महावीर जीवन की फर्म भूमि पर श्रम महावीर के मर्भावसरण काल में श्री, ही, धृति, की तपस्या की स्थापना करते हैं। आलस्य का 'कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी भगवान के अवतरण के निवारण धम है । श्रम उत्पाद है सत्य का यथार्थ पूर्व से विद्यमान हो जाती हैं। यह प्रतीक है इस का जीवनदायिनी शक्ति का और उसका पोषण बात का कि तीर्थकर ने अपने आने के कारण पूर्व भी । और श्रम की अग्नि में तपकर कंचन कुन्देन 'प्रकट कर दिये हैं । शोभा अवतरित हो चुकी है, बन जाता है । ज्ञान का प्रादुर्भाव और विवेक जन्य शील अवतरित हो चुका है, धैर्य अवतरित हो चुका कार्य मानसिक श्रम है जो जड़ता का विनाश कर
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-97
देश से घृणा, वैमनस्यता, अहंकार, द्वेष और लोभ और मोक्ष निर्वाण के तत्काल पश्चात् की को विसर्जन करने में समर्थ होता है।
स्थिति जो केवल अनन्त प्रकाश है। भगवान ज्ञान कल्याणक का अर्थ है केवल ज्ञान का रह महावीर के 2500वें निर्वाणोत्सव पर निर्वाण पर जाना, समस्त प्रज्ञान का लोप । यही ज्ञान चर्चा करना मावश्यक है। प्रध्यात्म ज्ञान और विज्ञान है। इस ज्ञान में दंत कवि ब्राउनिंग ने कहा है :का भेद मिट जाता है। समग्र जीवन केवल एक "The Journey is done and the चेतन तत्व में प्रवहमान हो जाता है। कहीं किसी summit attained and the barieers fall." मी छोर पर वेदना तत्काल सर्वस्थलों पर सर्व- मैंने यात्रा पर्ण कर ली. चरम अवस्था प्राप्त ग्रहीत हो जाती है। यही महावीर की निश्चयनय है, सारे बन्धन गिर चुके हैं । ब्राउनिंग की ये की दृष्टि है। उनके ज्ञान की अविच्छन्नधारा जो पंक्तियाँ निर्वाण की स्थिति है जिसके तत्काल उनसे प्रवाहित होकर आज भी प्रत्येक जीवन को पश्चात् चरम उपलब्धि मोक्ष की ही स्थिति है । पौषित कर रही है । महावीर का दर्शन यहाँ ब्राउनिंग ने यहाँ उस मृत्यु की चर्चा नहीं की प्राकृतिक साम्यवाद का दर्शन है । जय प्रकृति जिसके साथ पुनर्जन्म की संभावनायें जुड़ी हैं । समान रूप से जल, वायु, प्रकाश. आकाश एवं भूमि क्योंकि वह आगे कहता है :समस्त जीवन को निर्विकार रूप से प्रदान करती I would hate that death bandaged है तो मानव उससे एकाकार होकर सबको अपना my eyes and forbore and bade me स्नेह क्यों न समान रूप से बाँटे । महावीर की
___ creep past. यही भावना अहिंसा है, जहाँ दो नहीं रह जात, मैं उस मृत्यु से घणा करूगा जो मुझे अंधसबके सुख-दुख अपने हो जाते हैं; सहअस्तित्व कार की ओर ले जायेगी केवल वर्तमान से मुक्त और सहजीवन ही जीवन की महत् दृष्टि बन
कर रात की पोर वापिस कर देगी। जाती है। जिसमें निगोद और तिर्यंच से लेकर
दार्शनिक गेटे मृत्यु के समय कह रहे हैं मानव योनियों तक समस्त अपना निरंतर विकास करने में समर्थ होते है। यह संवेदना का अनुभव
"अधिक प्रकाश, अधिक प्रकाश ।" देशबन्धु चितरंहै । अरविन्द ने इसी को सौंदर्य का दर्शन कहा है।
जनदास ने मृत्यु के समय एक कविता लिखी, महावीर के संमवशरण की रचना का विधान भी
"अब मेरी आँखों के सामने अधेरा छा रहा है
जिसके पार सिर पर मोर मुकुट धारण किये यही है । सारा जगत बैठा है उन्हें सुनने के लिए। तिथंच बैठे हैं, कीट पंतग बैठे है, पशुपक्षी बैठे हैं,
हाथों में बासुरी लिये श्यामसुन्दर गोपाल की गंधर्व किन्नर के राक्षस र माय मूति दिखाई दे रही है, मेरा अंधकार का साम्राज्य और देवता बैठे हैं। एक दूसरे के विरोधी बैठे हैं।
. तिरोहित हो गया है केवल दिव्य प्रकाश से मेरा
निर्वाणोन्मुख दीपक प्रज्वलित हो रहा है।" पर विरोध नहीं। महावीर कहते हैं सब सुन लेते । हैं सब समझ लेते हैं। यह हृदय की भाषा हृदय
संत तुकाराम कहते हैं, "अपनी आँखो ही के लिये है। यह स्नेह की भाषा है। यह आत्मी- मैंने तो, अपनी मृत्यु देख ली है, अनुपम था मेरा यता का उद्बोधन है, एक गंध है, परिमल है, यह प्रकाश ।" सहज स्वीकार्य । वर्तमान और भविष्य के कल्याण भगवान बुद्ध कहते हैं, "निर्वाण, दीपक का की यह चेतना है, गहरी अभीप्सा है स्नेह को बुझ जाना । क्षुद्र लोभ, स्वार्थ, वासना, प्राशा, प्रक्षेपित करने की नये रूपान्तरण के लिये । तृष्णा का महाभिनिष्क्रमण है यह ।" किन्तु इसके
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
J-98
पश्चात् स्वाभाविक है प्रघंकार के पश्चात प्रकाश
का माना ।
मोक्ष उसी प्रकाश, प्रनन्त ज्ञान की स्थिति है ।
इस प्रकार महावीर का जीवन गर्भ से मोक्ष तक लघु साधनाओं से परिमार्जित जीवन की विशालत', विराटता का दर्शन है जो प्रणुव्रतों से महाव्रतो की पोर जाता हुआ श्रम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । वह मरणु क्या है ? तुम्ही म हो भौर तुम्ही एक से दो होते हुए ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का निर्माण करते हो । अणु की साधना तुम्हारी साधना है। महावीर ने कहा है, "आचरण से प्रारंभ करो किन्तु याद रखना, ब्रह्माण्ड के स्वरूप में तुम हो इसलिये ब्रह्माण्ड के चित्र को अस्पष्ट मत कर देना, विकृत न कर देना । इस साधना के लिये महावीर ने धर्म को प्रयोगात्मक रूप से स्वीकार किया है। उन्होंने कहा परिग्रह का त्याग करो । यह नहीं कहा कि सब छोड़कर भाग जाम्रो। तुम भाग कर जाओगे कहाँ ? जहाँ भी जानोगे पराभव में अपने को खड़ा पाओगे। इसलिये एकदम मत भागो, उतना स्वीकारी जितना आवश्यक है। अधिक बोझ बन जायेगा, संभलेगा नहीं । दूसरों को भी दे दो, बोझ हल्का हो जायेगा रास्ता सरलता सहजता से कट जायेगा । अन्यथा जिनके पास नहीं है, तुम्से छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे, जीवन भर कलह बना रहेगा पूरा रास्ता दुखदायी हो जायेगा । मिथ्यात्व आडंबर है, चेतना पर प्रावरण, इसका
त्याग करो, घृरणा मिट जायेगी, लघु विराट में. बदल जायेगा । धौर इसे 'प्रेक्टीकल' रूप में महावीर ने शूद्र और प्रत्यजों को गले लगा कर प्रस्तुत किया | उन्होंने सबको अपने सब में सम्मिलित किया बिना भेद भाव के, उन्हें मुमुक्षु बनाया और विराट के लिये तैयार कर दिया । महावीर को सुनकर सम्राटों ने प्रव्रज्या धारण की । अभिमानी मस्तक नत हो गये और यहां तुम हो महावीर की 2500वें निर्वाणोत्सव के लिये उद्यत किन्तु समाज में समाज की स्थिति निर्मित करने में असमर्थ । समाज को जब तुम प्यार नहीं दे सकते, मानव के प्रति तुम्हारा हृदय स्नेह सिक्त नहीं तो सारे प्रायोजन व्यर्थ हैं । महावीर के प्रग्रही जीवन को परिग्रह से शोभायमान करना नितान्त अविचारपूर्ण होगा। यह बड़ी विरीत धारणा है। कर दो इस व्यय को उस प्रोर स्थानान्तरित जहाँ से कह की प्राबाज भा रही है, जहाँ प्रभाव । यदि यह प्रेम का सागर उमड़ा है तो काट दो उस स गर से नहरें और उन्मुख कर दो उन्हें उस ओर जहाँ की धरती प्यासा है, सूखी जमीन सिंचित हो जायेगी, हरी भरी हो जायेंगी, तृप्त हो जायेंगी। तुम भी तृप्त हो जावोगे । चारों ओर की जीवन की महक से तुम खिल उठोगे । यही तो मोक्ष का आनन्द है । इसलिये अर्थ के प्रदर्शन से महावीर के दर्शन की उच्चता का प्रदर्शन केवल तब हो सकेगा जब वह तुम्हारी मानसिक विशालता का परिचायक होगा अन्यथा समाज के लिए म्रात्म हन्ता ।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धर्म में श्रावक की महत्ता
'श्रावक' शब्द सामान्य गृहस्थ शब्द से ऊँचा, अर्थ गम्भीर और भावपूर्ण है। धावक शब्द का अर्थ शिष्य या सुननेवाला भी है। लेकिन जैन पोर बौद्ध परम्परा के अनुसार श्रावक वह है जो सद्धर्म पर श्रद्धा रखता है, गृहस्थोचित व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, पाप-कियानों से दूर रहता है और अपनी सीमा में मात्म-कल्याण के पथ पर चलते हुए श्रमणों या भिक्षुगें की उपासना करता है उनके प्रात्मकल्याण में सहायक होता है; विवेकी और क्रियावान होता है। कविवर बनारसीदास ने श्रावक को जिनेन्द्र का लघुनन्दन कहकर उसे गौरव के शिखर पर चढ़ा दिया है । ऐमा सम्यग्दृष्टि सम्पन्न श्रावक गृहस्थ होते हुए भी गृहस्थो में लिप्त नहीं होता---गेही पं गृह में न रच ज्यों जल तें भिन्न कमल है । श्रावक अर्थात् सम्यक् श्रवण करने वाला, प्राणों से श्रवण करने वाला।
__ कल-प्रवाह के थपेड़े खाते-खाते आज श्रावक शब्द का अर्थ-गौरव भले ही खो गया हो, लेकिन तब भी यह शुचिभूत, शालीन, पवित्र, सरस, प्रतीतिपूर्ण, निर्भय, निरामय, स्फटिकवत् निर्मल. स्वच्छ जीवन का कीर्तिपुज है। तीर्थंकरों के धर्मसंघ का संवाहक श्रावक ही होता है, वही धर्म-रथ की धुरी होता है। परम श्रावकत्व की पराकाष्ठा तक पहुंचे बिना मुनिधर्म के तपोमार्ग पर पारोहण संभव ही नहीं है। मुनि की प्रतिष्ठा श्रावक से ही
जैन पागम नाम से प्रसिद्ध प्राचीनतम प्राकृत वाड्मय में श्रमण या अनगार-धर्म का ही वर्णन विशेष रूप से मिलता है । बड़े-बड़े सम्राटों तथा श्रेष्ठि-पुत्रों ने ही नहीं प्रतिमुक्तक जैसे छोटे-छोटे
श्री जमनालाल जैन वाराणसी
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-100
बालकों ने भी सीधे श्रमण-धर्म की दीक्षा लेकर तपस्या की र मुक्ति प्राप्त की । उपासकदशा जैसे एकाध ग्रंथ में उपासकों के व्रती जीवन का वरणन अवश्य मिलता है; किन्तु प्रायः सारा भागम वाड्मय श्रमण जीवन अंगीकार करने वालों की कथाओं से भरा है । आगम युग के पश्चात्वर्ती काल में ही श्रावकाचार प्रति वादक ग्रंथों की रचना की ओर श्राचार्यों का ध्यान गया है। श्रागम युग में और सम्भवतः भगवान महावीर की दृष्टि में मनगारधर्म ही कर्म-मुक्ति के लिए प्रावश्यक समझा गया था। बड़े-बड़े सम्पत्तिशाली गृहस्थ पुत्र भौर राजपुत्र भरी जवानी में, पांच-पांच सौ पत्नियों को विलखती छोड़कर श्रमण-पथ पर चल पड़ते हैं । और वैभव भी कैसा ? भद्रा पुत्र शालिभद्र की 32 पत्नियों ने बीस-बीस लाख स्वर्ण मुद्राओं के रत्न कम्बल पैर पोंछकर यों फेंकदिये मानों पुछन्ना हो ! ऐसे धन-लिप्त लोगों को वैभव के नशे से विरत करने के लिए सर्वस्व त्याग का मार्ग ही आवश्यक था । महावीर जिस प्रकार की सामाजिक या धार्मिक क्रान्ति का सपना देख रहे थे, उसे साकार करने के लिए सुविधा का या यथाशक्ति त्याग का उपाय यथेष्ट फलदायक नहीं था, क्योंकि विषमता चरम सीमा तक पहुंच गयी थी । हर क्षेत्र में विषमता थी, शोषरण था और महावीर थे समता के प्रतीक । समाज में समता लाने के लिए वैभव की प्रतिष्ठा को नीचे उतारना श्रावश्यक था। अपहरण के द्वारा अप्रतिष्ठित होनेकी अपेक्षा महावीर ने अपरिग्रह द्वारा प्रतिष्ठित होने का मार्ग खोला और हम देखते हैं कि झुण्ड के झुण्ड लोग, युवक और युवतियां उनके श्रमरण- संघ में शामिल होते हैं, दिगम्बर बनते हैं और घर-घर से भिक्षा लेकर समता की अलख जगाते हैं ।
बाद में, ऐसे गृहत्यागी श्रमरणों का समर्थ संघ बन जाने पर, यह आवश्यकता अनुभव होने लगी कि साधना का एक ऐसा मार्ग भी होना चाहिए जो सामान्य गृहस्थ के उपयुक्त हो और श्रमरण-धर्म
का पूरक संरक्षक भी हो। चूंकि श्रमरण-धर्म का पालन कठिन होता है, अतः श्रावक-धर्म का मध्यम मार्ग, अणुव्रत का मार्ग खुल गया । यह इसलिए भी श्रावश्यक था कि मामाजिक मर्यादाएं तथा सामजिक सन्तुलन बना रहे, स्वेच्छाचार पर नियन्त्रण रखा जा सके, समाज में नैतिक वातावरण वृद्धिगत हो श्रीर श्रमणों का संरक्षण भी हो ।
पग
श्रावक के प्राचार धर्म को भले ही अणुव्रत का मार्ग कहा जाता हो, किन्तु वह श्रमण-धर्म से कम महत्व का कतई नहीं है। महाव्रत अंगीकार करके सर्वसंगपरित्यागी दिगम्बर तथा अरण्य विहारी बनकर मुक्ति की साधना करने की अपेक्षा परिवार के बीच समाज में रहकर अपने को संयत बनाने में या लोक कल्याणाभिमुख बनाने में अधिक पुरुषार्थ एवं तपस्या अपेक्षित है। ऐसे श्रसुव्रती या श्रावक को लोक संग्रह भी करना पड़ता है, पारस्परिक सौहार्द भी जगाना पड़ता है, व्यक्तिगत तथा सामाजिक बुराइयों का सामना भी करना पड़ता है । वह कर्म से विमुख नहीं हो सकता । निरन्तर व्यव हार निरत तथा लोक-सम्पर्क में रहते हुए उसे मन वचन और कायगत संयम रखना पड़ता है । पग पर उसके सामने श्राकर्षण और प्रलोभन की फिसलन होती है, किन्तु उसे प्रतिपल सतर्क रहना पड़ता है । उसका जीवन वास्तव में सामूहिक साधना का कर्मक्षेत्र होता है। एक प्रकार से वह अपने गले में सर्प माल धारण करके कर्म क्षेत्र में उतरता है । वह पलायनवादी नहीं होता । वह कर्दममय सांसारिकता में ही कमल की भांति ऊपर उठता है । स्वामी समन्तभद्र अपने समय में बड़ी क्रांतिकारी बात कह गये हैं कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ उत्तम होता है । किन्तु वास्तव में देखा जाय तो गृहस्यों का जो क्रीड़ा क्षेत्र है, वही मुनियों के लिए दुष्कर तपस्याभूमि है - मुनि उसमें अपने को सम्हाल ही नहीं सकते । आज तो समन्तभद्र को भी उलटकर अपनी बात में संशोधन करके कहना पड़ता कि मुनि भले ही निर्मोही हो, लेकिन
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठ तो मोही गृहस्थ ही माना जायेगा । मानवधर्म का यथार्थ प्रतिनिधि वस्तुतः श्रावक ही है !
श्रावक के आधारभूत बारह व्रत माने गये हैं । श्रावकाचार के ग्रन्थों में इन व्रतों को पांच-पांच भावनानों तथा पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन भी मिलता है। इन व्रतों का सांगोपांग या अल्पांश में ढ़तापूर्वक पालन करने वालों की तथा चोरी-छिपे विकारवृत्ति के प्रलोभन वंश इनका भंग करने वालों की दृष्टान्त कथाएँ भी उद्बोधन के लिए लिखी हुई मिलती हैं । मनुष्य ही नहीं सिंह, हाथी, सर्प, भालू, बैल और वानर जैसे पशु तथा पक्षी भी धर्म का उपदेश सुनकर तथा जातिस्मरण होने के फलस्वरूप किसी एक व्रत के प्रर्थात् श्रहिंसा के किसी एक अंश का पालन करके कष्ट सहन करके प्राण त्याग किया और सद्गति प्राप्त कर चुके हैं । अपने एक पैर के नीचे श्राश्रय लेने वाले खरगोश की प्राणरक्षा की अनुकम्पा भावना से प्रेरित हाथी का जीव सद्गति प्राप्त करता है और बाद वह श्रेणिक पुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म लेता है । महावीर का दर्शन करने वाले चंडकौशिक सर्प की कथा प्रसिद्ध ही है । आज भी परिवारों में परस्परविरोधीवृत्ति के जानवर प्रेम करते हुए पाये जाते हैं। ये प्रारणी बुद्धि में मनुष्य की अपेक्षा निकृष्ट कोटि के माने जाते हैं, लेकिन इनका स्नेहपूर्ण वर्ताव और पारस्परिक त्याग देखकर मनुष्य गद्गद् हो जाता है। कई बार ये मूक प्राणी मनुष्य के, गुरु या मार्गदर्शक तक बन जाते हैं। ये नहीं जानते कि वे किस व्रत का, किस अंश में पालन कर रहे हैं और उनकी क्या गति होगी, किन्तु इससे इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि स्नेह की, ममता की, करुणा की और पारस्परिकता की साधना महाकठिन है। श्रावक इसी महाकठिन साधना करने में जीवन को खपाता है ।
व्रतों की संख्या का या उनकी शास्त्रीय परिभाषाओं का, सीमा रेखा का महत्व सुविस्तृत एवं अनन्तप्रायामी जीवन के आगे नगण्य है । महत्व
1-101
केवल सांकेतिक है । व्रत के निर्देशक सूत्र केवल मार्गसूचक पट्टिकाएं हैं कि मार्ग लम्बा है या कंटकाको, सुना है या भयावना; लु-लपट वाला है या धूल-धवकड़ से भरा है, ऊबड़-खाबड़ है या सीधा समतल ; टेढ़ा-मेढ़ा है या सीधा । मनुष्य की शारीरिक शक्ति एवं सामर्थ्य की सीमा भी है । यह मनुष्य की विवेक शक्ति पर निर्भर है कि वह देश, काल, शक्ति, परिस्थिति देखकर पथ पर कितनी दूर तक जाने में समर्थ है । व्रत एक भी हो सकता है, बारह भी हो सकते हैं और बारह सौ भी हो सकते हैं - एक व्रत के एक श्रंश के श्रनन्त आयाम हो सकते हैं और एक-एक व्यक्ति के अलगअलग हो सकते हैं । जैनधर्म ने सदैव व्यक्तिस्वातंत्र्य को सर्वोपरि महत्व दिया है। मनुष्य का धर्म वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार का होता है । उसके पुरुषार्थ की सफलता इसी में है कि वह दोनों में सन्तुलन साध सके प्रवाहशील परम्परा में वह अपनी उपयोगिता और आवश्यकतानुकूल सारतत्व ग्रहण करके प्रागे बढ़ता है ।
यह विज्ञान और विकासशीलता का युग है । यो युग कभी अवैज्ञानिक नहीं रहा, समाज प्रगतिशील ही रहा है । फिर भी आज का युग अंतरिक्ष वैज्ञानिकता में प्रवेश कर गया है, मानव ने अपने से सहस्रों गुना शक्ति यंत्रों में संचित करके अपने समय की बचत करने में सफलता प्राप्त करली है । समाज का स्वरूप बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है। और यह बदलाव ही उसके विकास का लक्षण है । इस बदलाव से मनुष्य नित-नूतनता प्राप्त करता है और जीर्ण-शरण को उतारता - फेंकता चलता है । शास्त्र निर्देशित विधान या परिभाषाएं उसके समक्ष नये-नये परिवेश तथा प्रर्थ में प्रस्तुत होती हैं और इस तरह वह क्रियाजड़ता में न उलझकर प्रगति करता है । व्रत के पालन में जड़ता तभी प्राती है, जब व्रतों की लीक पीटी जाती है— लीक पिटती रह जाती है, जीवन आगे बढ़ चुका होता है । मक्षिका स्थान पर मक्षिका तो मारकर ही रखी के
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
'1-102
जा सकती है । जड़ शब्दों की पकड़ में गतिशीलता अहिंसा में समा जाते हैं । यहां अहिंसा पारस्परिक कहां?
रूढ़ अर्थ में जीवदया या जीवरक्षण नहीं है। व्रत-पालन का विधान या संकेत इसलिए नहीं अहिंसाव्रती श्रावक के समक्ष अनन्तमुखी जीवन की है कि वैसा करने से मनुष्य को प्रतिष्ठा या स्वर्ग सहस्रावधि धाराएं नित्य नये रूपों में व्यक्त होती का ऐश्वर्य मिले । किसी भी प्रकार की कामना की रहती है और प्रत्येक धारा परस्पर-विरोधी भी हो माकांक्षा से व्रत का पालन करना भयजन्य पलायन सकती हैं । अहिंसा तो प्रात्मवत् सर्वभूतेषु का चरम है, समस्याओं से मुह चूराना है और सदाचरण उत्कर्ष रूप है। इसमें सीमा और मर्यादा का, का, सामाजिक दायित्व का सौदा करना है । अपने प्रमाण मोर अंश का, संकल्प और विकल्प का, कम को बेचने जैसा है। शक्ति और सामर्थ्य से हीन और ज्यादा का, सुविधा या असुविधा का प्रश्न ही दास-वृत्ति का मनुष्य प्रादेशों का अक्षरशः पालन नहीं उठता । उसकी प्रत्येक क्रिया अहिंसा से प्रोतकरके स्वामिभक्त या प्रिय पात्र बना रह सकता है प्रोत होगी, वही अभिव्यक्त होगी। क्रियाएं या तो और इस कला में वह अभ्यास द्वारा इतना निष्णात अहिंसक होती हैं या फिर हिंसक । भांशिक अहिंसा भी हो जा सकता है कि उससे कोई गलती या चूक का व्रत लेकर कुछ क्रियाओं के करने में हिंसा की न हो-वह यांत्रिक बन सकता है। लेकिन यही छूट लेना एक प्रकार से अपनी कमजोरी का बचाव सब से बड़ी प्रात्मवंचना भी है। प्रात्मवंचक मनुष्य करना है या अपनी वासना को खुली छूट देना है। प्रतों का पालन बड़ी सावधानी तथा सतर्कता पूर्वक क्रिया मात्र में हिंसा मानकर प्रक्रियमाण होकर करते हैं । बार-बार वे शस्त्रों के प्रमाण भी प्रस्तुत बैठ जाना भी अहिंसा का पालन नहीं है । क्रिया कते हैं । नैतिकता का, संयम का, धार्मिकता का का सम्बन्ध बाह्यता से अधिक प्रांतरिकता से है। । मुखौटा लगाकर विचरने वाले ये ही लोग व्रतों से क्रियाशीलता के अभाव में अहिंसा की कल्पना तक
ने बचाव के अनेक उपाय खोज लेते हैं। इस नहीं की जा सकती। वस्तुतः क्रियाशीलता ही सोकवादी जड़ता में से ही दिखावा, छलावा और अहिंसा की कसौटी है। भुलावा निपजता है। नियमों तथा आदेशों का एक उदाहरण से हम अपनी बात स्पष्ट करें। पालन तो सैनिक और कारखाने के मजदूर भी एक आदमी को जोर की प्यास लगी है। वह ऐसे करते हैं, सम के प्राणी भी करते हैं। लेकिन यह क्षेत्र में है जहां मीलों तक पानी का मिलना कठिन प्रांतरिक विकास का प्रमाण नहीं है। नियमों या है। किसी तरह एक गिलास पानी का प्रबन्ध हो वतों का अन्धानुकरण आकर्षक और चमत्कारिक सका है। गिलास उसके हाथ में आ गयी है और हो सकता है. लेकिन उसमें स्वायत्त चेतना नहीं मुंह से लगाते-लगाते एक दूसरा प्यासा पा जाता होतो। श्रावक व्रतों का पालन व्रतों से ऊपर उठने है। वह गिलास उसे थमा दिया जाता है। इस के लिए करता है, अपने को मांजने के लिए त्याग में अहिंसा, संयम और तप तीनों हैं। तीनों करता है।
की समवेत अनुभूति प्रथम प्यासे मनुष्य में अपार भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम व ता रूप प्रानन्द भर देती है। जब मनुष्य 'क्षेमं सर्वप्रजानां' धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहा है। जिस व्यक्तित्व में की उदात्त भावना से जीवन जीने लगता है, तब इसका दर्शन होता है, उसे देवता भी नमन करते उसमें अपने-पराये का भेद रह नहीं जाता और हैं। पांच व्रतों को भी इन तीनों में समाहित किया इसी में उसकी सार्थकता है। ऐसा व्यक्ति संग्रह जा सकता है। प्रचौर्य और अपरिग्रह संयम में प्रा और त्याग की वस्तुनिष्ठता से ऊपर उठ जाता जाते हैं. सत्य और ब्रह्मचर्य तप में और सबके सब है। उसका भोग भी योग बन जाता है, चलना
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-103:
ही परिक्रमा बन जाती है, शयन की प्रणति बन दिखाई देने लगते हैं। वह राग की ज्वाला से जाती है, कर्म ही पूजा बन जता है, श्रम-स्वेद ही बचने बचाने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। अमृतरस बन जाता है। उसका वचन ही शास्त्र बन
ऐसे प्रष्ट गुणधी सम्यक् दृष्टि श्रावक का जाता है, सम्पूर्ण त्रिलोक उसी के रूपाकार में
गह्य जीवन भी नदी की भांति सदा सौख्यकारी निहित हो जाता है-सहज सम धि भली । उसका
होता है। उसके आसपास बहने वाली वायु भी यही मानन्द-धर्म उसे संसार दुःख से उठाकर
जगत के जीवों मे प्राणों का संचार करती है। उत्तम सुख में अधिष्ठित करता है। यह उत्तमसुख
उसके स्मित मात्र से या दृष्टिक्षा मात्र से प्रकृति न परलोक की वस्तु है न क्रय की जाने वाली
रसप्ल वित हो उठती है। श्रावक स्वयं नहीं चीज । इसलिए श्रावक के लिए कहा जाता है।
जानता कि वह क्या है, उसका जीवन कैसा है। कि वह निरन्तर श्रवण करता रहता है-पांचों
वह तो बस समाज में रहता है, बहता है और इन्द्रियों की बमता का संयम पूर्वक सम्यक् उपयोग
जल की भांति जहां रिक्तता देखता है, दौड़ जाता करता है. उन्हें साम्ययोग में एकाकार कर देता
है और समानता ला देता है । वस्तुतः जीवन का है-न उनको बहकने देता है न उनको बांधकर
आनन्द दूसरों को जीने का अवसर देकर, दूसरों रखता है। उसकी लोकाभिमुख फिर भी योग
को जिलाकर जाने में है। अतिथि संविभान में निष्ठ शारीरिक समग्रता निरन्तर अप्रमाद में,
इसी ओर इंगित है। बांटकर खान का मानन्द रमणीयता में, सरसता में हिलोलें मारती रहती
अनिर्वचनीय है। श्रावक श्रमण का उपासक अर्थात है, प्रेम का अथाह सागर इसमें गंभीर ध्वनि गर्जन
श्रमिक होता है-न वह किसी का स्वामी बनना करता रहता है । वह प्रतिपल बर्तमान में, अभिनव
चाहता है, न किसी को दास बनाना । श्रम पूर्ण वर्तमान में रहता है। अपने कर्म को भूत और कर्मठता मोर कर्म को अकर्म बना डालने की भविष्य से जोड़ने की भूल वह नहीं करता। साधना ही उसके जीवन का सौंदर्य है। वर्तमान ही उसका सत्य होता है, यही उसका संबल होता है।
जैन-प्राचार में श्रावक के लिए ग्यारह प्रति. है श्रावक का दर्शन विशुद्ध होता है-मिथ्यात्व माओं का विधान है । ये मनुष्य को उत्तरोत्तर सेवा प्रथवा भ्रांति के अन्धकार से वह उज्ज्वल प्रकाश को पराकाष्ठा तक पहुंचाती हैं । पारम्परिक शब्दार्थ में भा गया होता है। वह अपने को सब में और और माचार-प्रणाली में तो आज इन प्रतिम भों सब में अपने को देखता है। जाति, वेश, लिंग, का उद्देश्य लुप्त ही हो गया है और यही कारण परम्परा, वर्ण, वर्ग सबके प्रति उसकी दृष्टि प्रात्म- है कि इन प्रतिमाओं के प्रतिपालक खान-पान के रूप होती है, समता पूर्ण होती है। वह नि शकित झमेले से या प्रपच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। भाव से दृढ़तापूर्वक सबको अपने में स्थिर करते ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भी सम्यक् रूप में पहली हए, प्यार की अमृत वर्षा करते हुए, निरकांक्ष प्रतिमा पर खड़ा नहीं हो पा रहा है । ऊंचा से होकर वात्सल्य बोटता चलता है। रत्नत्रय का ऊंचा देश सेवक या जन सेवक बनने की दृष्टि से । भोर-मुकुट धारण कर प्रेम की वंसी बजाते हुए इन प्रतिमाओं में अद्भुत आशय निहित है । अहिंसा, बह पारस्परिक जुगुप्सा वा घृणाभावना पर विजय संयम और तप का त्रिवेणी संगम इन प्रतिमामों में प्राप्त करता है, दोषों की भोर उसका ध्यान ही अभिव्यक्त होता है । सत्यं, शिवं पौर सुन्दरं का नहीं जाता, बल्कि अपनापन इतना प्रगढ़ हो समवेत स्वरूप प्रतिमाधारक के रोम-रोम से व्यक्त बाता है कि सबके अनेक दोष उसे अपने में ही संचित होता है । ऐसा प्रतिमाधारी ही श्रावक होता है। "
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-104
श्रावक-धर्म की परिपूर्णता में श्रावक से योग- पैदा होती है और यह मनुष्य को पतन में ढकेलती दान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। दोनों है । श्रावक का जीवन सहज होता है, वह केवल मिलकर श्रावो कत्व को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। प्रसन्नता के लिए प्रवृत्त होता है। उसमें कोई शुचिर्भूत श्राविका की कोख से ही धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक शल्य नहीं रह जाती। उसका चित्त चन्दन की तीर्थंकर आदि महाप्राण पुरुषोत्तम अवतरित होते तरह शीतल हो जाता है। यह स्वार्थ और परमार्थ हैं । श्राविका ही श्रावक को परम मकाम में ले में एक-सा होता है । उसके व्यवहार में भी परमार्थ जाती है। परम ब्रह्म की साधना के लिए उसे होता है और सौदे में भी त्याग होता है। वह तजकर अरण्यवास करने की, पलायन की भूमिका आत्म-गवेषक होता है। समस्त ऋद्धि-सिद्धियो उसे ने हो, वृत्ति ने ही समाज और व्यक्ति को उत्तम अपने भीतर दीखने लगती हैं और वह अपनी सुख से वंचित कर दिया है । नितांत अक्रिय आन्तरिक लक्ष्मी के कारण पदीन लखपति होता व्यक्तिमत्ता अध्यात्म के नाम पर पुजने लगी और है। उसका हृदय विराग-रस से आपूरित सुख-सागर श्रम की यथार्थ देवी श्राविका तिरस्कृत हो गयी। होता है । मोह की अभेद्य-चट्टान को भेदने भेद मूलक दृष्टि के कारण ही माज श्रावक धर्म को अकूत शक्ति उसमें प्रा जाती है। उसका अपना महत्व एवं प्रभाव खो बैठा है। कहते हैं प्रयास अपने में अपने को पाने का होता है । कविमहावीर के संघ में तो श्रावकों से दुगुनी संख्या वर बनारसीदास ने मुग्ध भाव से ऐसे सम्यक्त्वी श्राविकाओं की थी और वे सौंध का सचालन भी श्रावक की, पारदर्शी श्रावक की, प्रकाश-पुज करती थीं। नारी को, श्राविका को, जगज्जननी श्रावक की वन्दना की है। हम यहां नाटक समय. को नरक की खान, वासना की पुतली कहकर मनुष्य सार से उनके तीनों कवित्त उद्धत कर रहे हैं। ने अपने को समग्र ब्रह्म से तोड लिया है समझ यह भेद-विज्ञान जग्यो जिन्हके घट, रहा है कि ब्रह्म में रमण कर रहा है। इस भ्रांति
सीतल चित्त भयो जिम चन्दन । और मिथ्याचरण का बही परिणाम हुअा जो केलि कर सिव-मारग मैं, होना था।
जगमांहि जिनेसुर के लघुनन्दन ।। __व्रत साध्य नहीं साधन मात्र हैं। व्रत तभी
सत्य सरूप सदा जिन्हक, तक उपयोगी एवं प्रावश्यक हैं, जब तक मन में
प्रगट्यो अवदात मिथ्यात निकन्दन । द्वत है, तमस का प्रावरण छाया है या विकारों
सात दसा तिन्ह की पहिचानि, का प्रभाव है। अन्ततः तो प्रत्येक को व्रतातीत
कर कर जोरि बनारसि वन्दन ।। होना ही है व्रतातीत हुए बगैर वास्तविक आनन्द, सहजानुभूति संभव नहीं। मुक्ति की कामना से मुक्ति हुए बिना मुक्ति नहीं मिलती। चलना सीख जाने
स्वारथ के साचे परमारथ के साचे चित्तपर बालक मां की अगुली तज देता है, वैसे ही व्रत
साचे, साचे बैन कहैं, साचे जैनमती हैं । पीछे छूट जाने चाहिए। व्रतों से उत्तीर्ण होकर ही काहू के विरुद्ध नाहिं, परजाय-बुद्धि नाहिं श्रावकत्व का कमल खिलता है। शरीर के अवयवों प्रातमगवेषी, न गृहस्थ हैं न जती हैं ।। का स्वस्थ स्थिति में जैसे भार नहीं लगता-पता ही रिद्धि-सिद्धि वृद्धि दीस घट में प्रगट सदा, नहीं चलता वैसे ही व्रत भार रूप नहीं होने अन्तर की लच्छी सौं अजाची लच्छपती हैं । चाहिए । कामना, प्रतिष्ठा, यशस्विता या भय से दास भगवंत के, उदास रहैं जगत सौं, व्रतों का पालन करना भार ही है। इससे प्रतिक्रिया सुखिया सदैव, ऐसे जीव समकिती हैं ।।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
0000
जाकै घट प्रगट विवेक गणधर को सौ हिरदै हरखि महामोह को हरतु है । साचो सुख मानें निज महिमा भडोल जानं, धापुहि मैं प्रापनो सुभाउ ले घरतु है । जैसे जल- कर्दम कतक - फल मिन्न करें, तैसें जीव-प्रजीव विलछनु करत है । प्रतम सकति साथै, स्थान को उदो आराध, सोई समकिती भवसागर तरतु है ॥ सम्यक्त्वी श्रावक का भवसागर यों ही पार नहीं हो जाता । श्रभ्यास, साधना और सातत्य से मंजिल निकट भाती है । पलभर की असावधानी तुम-जन्मान्तर तक व्यथा में, पीड़ा में, दुख के महागर्त में ले जाती है । गमन-सिद्धि पैर भी,
के अभ्यास के पश्चात् भी इस तरह खड़ा या फिसल जाते हैं कि उठना कठिन हो आता है । सम्यकत्यी साधक अपने शरीरिर को वालय मानकर उसे सक्षम, पवित्र, स्वच्छ रखता है । या को अनावश्यक भार लादकर सताना वह पाप सकता है । तन को वह कारागृह नहीं समझता,
पंगु मोर क्षीण नहीं करता। बस इतना ही सकता है कि साधन है, पर साधन को भी साध्य ऐसे एकरूप कर देता है जैसे दूध में शर्करा ।
1-105
वह अपने तन की उपेक्षा नहीं करता, उसे धरोहर समझता है । उसकी समस्त इन्द्रिय-प्रवृत्तियां इतनी सहज, नम, कमनीय, सुन्दर बन जाती हैं कि उसका स्पर्श मात्र शीतलता प्रदान करता है । इसके लिए वह कतिपय गुणों की अपने में अवधारणा करता है । पारस्परिक व्यवहार की कसौटी ये ही गुण हैं, जिन पर वह खरा उतरने का प्रयास करता है । यु गुण बनारसीदास जी के शब्दों में इक्कीस हैं । ये मानव की व्यापक निष्ठा, उदात्त मनोभावना भोर सहज- कर्मठता के परिचायक हैं । ये गुण परस्पर पूरक तो हैं ही, एक रूप भी हैं, अखण्ड स्रोत की भांति । ये गुरण तो मनुष्य को इक्कीस यानी परिपूर्ण अहिंसक बना देते हैं । कवि के शब्दों में वे गुण हैं
1
लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष को ढकैया, पर-उपगारी है । समदृष्टि, गुनग्राही गरिष्ट, सबकों इष्ट, शिष्ट पक्षी, मिष्टवादी, दीरघ विचारी है ॥ विशेषग्य, रसग्य कृतग्य, तग्य, धरमग्य, न दीन न अभिमानी मध्य विवहारी है ।
सहज विनीत पाप क्रिया सौं प्रतीत, ऐसोश्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है ।।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति-दोहन
जीवन जल के बुलबुले, सम चंचल पहचान । रहिये होश हवास में, छत्र सदा अमलान ||
होता अच्छे कर्म का अच्छा फल बुरे कर्म का फल बुरा, रहता है
मुनिश्री छत्रमलजी
हरबार । तैयार ॥
मधुर वचन से तुष्ट कर देता वस्तु प्रभिष्ट । वह व्यवहारी शिष्ट है, बाकी सभी प्रशिष्ट ॥
संयम तप जप नियम में, जो होता तल्लीन । उसकी सामायिक सही कहते छत्र प्रवीन ॥ सबको आत्मसमान गिन, समता का व्यवहार । करता वह जाता तुरत, छत्र सिंधु से पार ॥ परिचर्या जो ग्लान की, करता उसको धन्य । महा निर्जरा का यही कारण छत्र अनन्य ॥ बन्दर क्षण भर भी नहीं रह सकता है शान्त । त्यों संकल्प विकल्प युत, मन भी सदा प्रशांत ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानव के
सुख का
अधिष्ठान अपरिग्रह
मी यशपाल जैन
किसी जमाने में एक सेठ रहता था। उसके पास अपार धन-सम्पत्ति थी । वह बड़े श्रानन्द का जीवन व्यतीत करता था । उसे किसी चीज की कमी नहीं थी ।
अकस्मात एक दिन उसके मस्तिष्क में एक कल्पना उभरी। उसने हिसाब लगाया कि उसके पास जो सम्पत्ति है, उससे उसका काम चल जायेगा, लेकिन उसके बच्चों के बच्चों का क्या होगा ?
' इस विचार के आते ही सेठ चिन्ता से व्याकुल उठा । उसके बच्चों के बच्चों की जिम्मेदारी प्राखिर उसी की तो है | यदि उनकी व्यवस्था उसने नहीं की तो वे कैसे अपना जीवन-यापन करेंगे ?
सेठ का सारा आनन्द काफूर हो गया । उसके मन में एक ही बात घुमड़ने लगी- हाय, मेरे बच्चों के बच्चों का क्या होगा ?
सेठ की चिन्ता की बात चारों ओर फैल गई ।" लोग उसके पास सहानुभूति प्रदर्शित करने आये, पर सेठ की चिन्ता दूर नहीं हुई, उसका बोझ इसका नहीं हुआ ।
अचानक एक दिन एक आदमी प्राया । बोला, " सेठजी, आपने सुना? बस्ती में एक साधु आये हैं, उनके पास जो जाता है उसी की मनोकाममा पूरी कर देते हैं। आप उनके पास चले जाइये और अपनी इच्छा पूरी करलीजिये ।"
सेठजी उसकी बात सुनकर साधु के पास गये और उन्हें अपने मन की बात कह सुनाई। साधु मुस्कराये । बोले, "बस, इतनी-सी बात है । एक काम कर । तेरे पड़ोस में एक बुढ़िया अपनी झोंपड़ी में रहती है । कल सवेरे उसके पास जाकर एक सीधा दे जायगी ।"
i
श्रा । तेरी इच्छा पूरी हो
सेठ की खुशी का ठिकाना न रहा । यह तो बड़ा सा सौदा था। थोड़ा-सा घाटा, दाल, नमक, घी, और बदले में बेहिसार धन की प्राप्ति ।
उसने साधु के चरण छुए मौर घर लौट या । वह रात काटनी उसके लिए मुश्किल हो गई । कब सवेरा हो कि वह जाकर बुढ़िया को सीधा दे और उसकी तिजोरियों का धन दुगुनाचौगुना हो जाय ।
जैसे ही पौ फटी कि सेठ ने एक थाली में ग्राटा, दाल, नमक, घी लिया और तेजी से बुढ़िया की कुटिया पर पहुंचा। देखता क्या है कि बुढ़िया की बहू सफाई कर रही है। सेठ ने उतावली से पूछा, "तुम्हरी सास कहां है ?
"
बहू ने सफाई करते करते सेठ की भोर देखा श्रौर कहा, "वह जाप कर रही हैं ।" सेठ ने कहा, "उनको जरा बुलायोगी ?"
"नही, जबतक जाप पूरा नहीं हो जायगा, वह नहीं पा सकतीं ।" बहू ने काम करते-करते कहा ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-108
सेठ को बड़ी वेचनी हुई। वह बोला, "अच्छा तो लो, यह सीधा तुम्हीं ले लो ।" बहू ने कहा, "नहीं, हमें नहीं चाहिए ।" सेठ को काटो तो खून नहीं। अपनी प्राशा पर पानी फिरते देख उसने बड़ी व्यग्रता से पूछा, "aut?"
सहजभाव से बहू ने कहा, "इसलिए कि प्राज के लिए हमारे घर में है ।"
"तो," सेठ बोले, "कल काम प्रा जायगा ।" "नहीं, हम कल के लिए नहीं रखते ।" बहू वे बड़ी निश्चिंतता से कहा ।
" उसमें नुकसान क्या है ?" सेठ ने निराश होकर पूछा ।
"
' नुकसान ?" बहू बोली, "हम यह सब नहीं सोचते । जिस भगवान ने हमें पैदा किया है और आज खाने को दिया है, वही कल को भी देगा ।"
सेठ ने बहुतेरा भाग्रह किया, लेकिन बहू राजी नहीं हुई, नहीं हुई ।
सेठ मन मार कर वापस लौटा। जाने क्याक्या विचार उसके मन में उठने लगे। तभी बिजली सी कौंधो। कोई कह रहा था— श्री सेठ, एक और ये लोग हैं, जो कल की चिन्ता नहीं करते । दूसरी और तू है, जो म्रपने बच्चों के बच्चों की चिन्ता में मरा जा रहा है ।
सेठ की आंखें खुल गई। एक बहुत बड़ी संपदा उसके हाथ लग गई ।
वर्तमान युग में जो आर्थिक विषमता दिखाई देती है, उसका मुख्य कारण अधिक-से-अधिक संचय करने की लालसा के फलस्वरूप समाज में दो ऐसे वर्ग पैदा हो गये हैं, जिनमें से एक के पास बेहिसाब धन है, दूसरे के पास नितान्त प्रभाव है । दोनों वर्गों के बीच चौड़ी खाई है प्रोर वह निरन्तर बढ़ती जा रही है ।
भगवान महावीर इसी खाई को पाटने के लिए सब कुछ त्याग कर अकिंचन बने । वह जानते थे
कि एक महल हजारों झोपड़ियों को जन्म देता है, एक ही उमींदी लाखों को पामाल कर देती है
इसलिए उन्होंने कहा, इच्छामों की सीमा बांधों और परिग्रह - परिणाम का व्रत लो । जो इच्छाओं पर बन्धन नहीं लगाता, अपनी धन सम्पत्ति के चारों श्रोर रेखा नहीं खींचता, वह जीवन में सदा भटकता रहता है ।
एक दूसरी बात और भी ध्यान देने की है । परिग्रह क्लेश का कारण तब और बन जाता है, जबकि उसके प्रति हमारी पासक्ति होती है । वस्तुतः पदार्थ और उसके प्रति मोह मूर्च्छा का नाम ही परिग्रह है ।
प्राज से ढाई हजार वर्ष पहले व्यक्ति, समाज भोर राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए जो मार्ग, महावीर ने सुझाया था, उसी मार्ग को वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने प्रशस्त किया । उन्होंने कहा कि हम श्रावश्यकता से अधिक कुछ भी रखते हैं तो चोरी करते हैं । उन्होंने यहां तक कहा कि अनावश्यक विचार भी परिग्रह हैं ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है । एक का सुख दुख दूसरे के सुख दुख पर निर्भर करता है । पड़ोसी को भूख से छटपटाते देखते हुए जो स्वयं खाकर चैन की नींद सो सकता है, उसे मनुष्य की नहीं, कुछ और ही संज्ञा दी जा सकती है ।
मानवता का तकाजा है कि हम समाज में व्याप्त प्रार्थिक वैषम्य को दूर करने के लिए कृतसंकल्प हों। उसी में हमारा भला है, दूसरों का भला है । जीवन की लम्बी यात्रा तभी सुगम और सरल हो सकती है, जबकि हमारे सिर पर कम से कम बोझ हो । भार-मुक्त होकर ही पक्षी गगन में विचरण कर सकता है । किचन बन कर व्यक्ति जीवन का सच्चा मानन्द ले सकता है । इस आदर्श स्थिति को दुर्बल मानव भले ही प्राप्त न कर सके, लेकिन जीवन यात्रा को श्रानन्द-दायक बनाने के लिए उस दिशा में अग्रसर तो होना ही चाहिए ।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आल इण्डिया रेडियो से प्रसारित
जैन दर्शन
की
व्यापकता
जैन दर्शन के विषय में जब मैं बात करता हूं तो मेरे सामने एक महान व्यक्तित्व उभर कर पाता है । यह व्यक्तित्व है वर्धमान महावीर का । महावीर ने जैन दर्शन के सिद्धान्तों की जो व्याख्या दी, उससे जैन दर्शन मानवीय जीवन मूल्यों के साथ मनिवार्य रूप से संपृक्त हो गया। वह जनदर्शन बन . गया। मुझे तो स्पष्ट दिखाई देता है कि महावीर के बाद इन ढाई हजार वर्षों में जैन दर्शन के सिद्धान्तों का व्यापक प्रसार हुआ है । उसने न केवल भारतीय जीवन को प्रत्युत विश्वचिन्तन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।
सिद्धान्तों की बात करने से पहले यह जान लेना उपयुक्त होगा कि यह दर्शन कहां से प्रतिफलित हा। महावीर जैन धर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थकर माने जाते हैं। उनके साथ तीर्थंकरों के चिन्तन की एक दीर्घकालिक परम्परा जुड़ी है। सुदूर अतीत की वह कड़ी अब भी इतिहास की पकड़ के बाहर है। पुरातत्व और स हित्यिक अनुसन्धानों से जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि इतिहास पूर्व में भी चिन्तन की दो धाराएं प्रवाहित होती रही हैं। इन्हें श्रमण और ब्राह्मण विचारधारा कहा गया । ब्राह्मण परम्परा के प्रवर्तक वैदिक ऋषि थे । श्रमण परम्परा ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई । प्राचीन वाड्मय में वातरशन मुनियों, व्रात्यों और केशी श्रमण के विवरण मिलते हैं, वे स्पष्ट रूप से श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध ज्ञात होते हैं। ऋषभ ने ध्यान और कायोत्सर्ग की कठोर साधना की थी। मोहन-जो-- दरों तथा हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त कायोत्सर्ग प्रतिमानों का सम्बन्ध इसी परम्परा से प्रतीत होता होता है।
डा. गोकुलचन्द्र जैन वाराणसी
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-110
ऋषभ को जैन धर्म का प्रथम तीर्थकर माना कठोर साधना उन्होंने की, उसका इतिहास में दूसरा गया है। उनके जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जान- उदाहरण नहीं मिलता। साढ़े बारह वर्ष तक कारी प्राप्त हो जाती है। ऋग्वेद में ऋषभ के महावीर निरन्तर साधना करते रहे । सर्वथा निर्वस्त्र उल्लेख मिलते हैं। श्रीमद्भागवत में भी उनका रह कर भीषण गरमी, शीत और वर्षा में उन्होंने चरित्र वणित है । जैन वाड्मय में तो पूरा विवरण साधना की। जेठ की तपती दोपहरी में महावीर प्राप्त होत ही है। उनके बाद के तीर्य करों के नगे बदन तप्त शिला पर बैठ जाते या खड़े रहते । जीवन के सम्बन्ध में अभी तक विशेष सामग्री कड़कड़ाती सर्दी में जब बर्फीली हवाएं सांय-सांय प्रकाश में नहीं आ पायी, इसीलिए कई लोग उनकी करती हुई बहती, पक्षी भी घोंसलों में छिपाए दुबक ऐतिहासिकता के विषय में संदेह व्यक्त करते हैं। कर बैठे रहते. ऐसे में महावीर किसी ताल के तट जो भी हो, यह सच है कि इतिहास की पकड़ पर या नदी के किनारे निरभ्र आकाश में अपनी अभी बहुत गहरी नहीं है। इसलिए जब तक खोजें अनावृत्त काया लिए ध्यान में मग्न होते । झंझावात जारी हैं तब तक मेरी समझ में हमें सूत्र रूप में पोर तूफानी बरसातें, वे अपनी खुली देह पर झेल प्राप्त संदों को भी नकारना नहीं चाहिए। भारत लेते । लगातार कई-कई दिनों, सप्ताहों और महीनों में अभी भी इन तीर्थंकरों के जीवन और साधना से तक महावीर बिना खाये, बिना पिये रह जाते । सम्बद्ध स्थान तार्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
जहाँ भी जाते पैदल जाते । न बोलते न बतियाते । बोसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत और पुरुषोत्तम राम उन्हें कोई गाली देता, कठोर वचन बोलता, सुन समकालीन बताये जाते हैं । इक्कीसवें तीर्थंकर नमि लेते । अपमान करता, यातना देता, सह लेते, न
और विदेह जनक का काल एक माना गया है। कुछ बोलते, न प्रतिकार करते। कोई उन्हें आदर 2वें तीर्थकर नेमि वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई
देता, वन्दन करता, उसका भी वे उत्तर न देते। थे। 23वें तीर्थकर पाश्व का जन्म वाराणसी में साधना की इस दीर्घावधि में वे कुल मिला कर हप्रा और बिहार के सम्मेदशिखर से सौ वर्ष की मुश्किल से कुछ मुहर्त ही सोये । वे अपने जीवन पर पायु में उनका निर्वाण हुमा । प्रा ली यह पर्वत ही तरह-तरह के प्रयोग कर रहे थे। महावीर ने पार्वनाथ पह ड के नाम से जाना जाता है। जब कोरमको माना की गौर
कठोर से कठोरतम साधना की और एक दिन पाया महावीर जन्मे, उस समय पार्श्व की परम्परा के कि उन्होंने अपने आप को पूरी तरह जीत लिया श्रमण बह सख्या में मौजूद थे। राजगृह पाश्वो- है जिन' हो गये। नुयायियों का गढ़ था। स्वयं महावीर के मातापिता पाश्व के अनुयायो थे । महावीर और गौतम
___ जैन दर्शन के जो सिद्धान्त हमें वर्तमान में प्राप्त बुद्ध जब संपस्त हुए तो उन्होंने पाश्व का ही हैं. उन्हें हम महावीर की साधना और चिन्तन का श्रामण्य जीवन स्वीकार किया था। पाश्व की नवनीत कह सकते हैं। महावीर के अनुयायी परम्परा के साधु 'निग्गंठ समण' और गृहस्थ अनु- प्राचार्यों ने पिछले ढाई हजार वर्षों में उन सिद्धान्तों यायी 'पापित्य कहलाते थे।
की जो व्याख्याएं की, उनमें युगीन सन्दर्भ भी ... गौतम बुद्ध को पार्श्व की साधना पद्धति बहुत जुड़ते चले गए। दार्शनिक युग की जटिलताओं में कठोर प्रतीत हुई। इसलिए उन्होंने उसे छोड़ कर सीधे-साधे सिद्धान्त इतने दुरूह लगने लगे कि जीवन बीच का रास्ता निकाला, जिसे 'मध्यमप्रतिपदा' कहा के साथ उनका सम्बन्ध ही न हो। इसी युग में जाता है। महावीर ने पर्व को माधना पद्धति को धार्मिक अनुदारता के कारण सिद्धान्तों की दुर्व्याख्या और अधिक विकसित किया । कायोत्सर्ग की जितनी भी की गयी और दुरालोचना भी, पर इस सबसे
.
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
वे खराद पर चढ़ाए गए हीरे की तरह और अधिक चमकदार हो कर सामने श्राये ।
महावीर ने जीवन भर जगत के किसी भी प्रश्न को अव्याकृत कह कर नहीं टाला। उन्होंने प्रत्येक के समाधान दिये ।
जैन दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की धुरी पर प्रतिष्ठित है । दृष्टि जब तक सही न हो, ज्ञान सच्चा हो ही नहीं सकता। और सही ज्ञान के बिना सदाचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए जैन दर्शन में इनको सम्मिलित रूप से मोक्ष का मार्ग कहा है । सभ्यग्दर्शन में सम्पूर्ण तत्वमीमांसा निहित है। सम्यग्ज्ञान में ज्ञानमीमांसा । सम्यक्चारित्र जीवन की एक पूर्ण प्रचार संहिता है । जैन दर्शन के तत्व चिन्तन और ज्ञान मीमांसा में हजारों हजार वर्षों के बाद भी विशेष अन्तर नहीं प्राया । आचार संहिता युग धोर परिस्थितियों के अनुसार बदलती रही है। छह द्रव्य, सात तत्व और नव पदार्थ तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि का विवेचन यथापूर्व अब भी मिलता है ।
जैन दर्शन का पहला सूत्र है— चेतन प्रौर प्रचेतन दो मूल तत्व हैं। इनका स्वरूप औौर प्रकृति सर्वथा भिन्न हैं । पर स्वर्ण - पाषाण में स्वर्ण मौर बालुका के करणों की तरह या दूध में पानी की तरह अनादिकाल से मिले हुए हैं। इनको पृथक्-पृथक् लेना ही सम्यग्ज्ञान है ।
इस सिद्धान्त ने एक नयी जिज्ञासा को जन्म दिया । ये जड़ श्रौर चेतन कैसे बंधते हैं, कैसे अलगअलग हो सकते हैं । इस जिज्ञासा के सूत्र हैं बन्ध और मोक्ष। इसके समाधान में से प्रतिफलित हुआ कर्म का सिद्धान्त । श्रास्रव बन्ध का कारण है । संवर मीर निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं । चेतन जड़ से संपृक्त रह कर जो क्रिया करता है, उससे कर्म के परमाणु प्राप्राकर बंधते जाते हैं। योग द्वारा क्रिया या परिस्पन्द को रोक दिया तो कर्मों का श्राना रुक जाता है । संवर की इस स्थिति के बाद पूर्व संचित कर्मों
14111
है
का विनाश निर्जंग है और सर्वथा पृथक्करण मोक्ष चेतन और प्रचेतन की बद्ध अवस्थ संसार है और स्वतन्त्र अवस्थ मोक्ष जीव और जगत का यही दर्शन | चेतन मात्मा है। जितने चेतन हैं, उतनी सब स्वतन्त्र श्रात्माएं हैं। प्रत्येक श्रात्मा अपने कर्म का कर्ता और उसके परिणामों का भोक्ता स्वयं है - '- अप्पा कस्ता वित्ता य"
जैन दर्शन में श्रात्मा और कर्म के इस सिद्धान्त ने व्यक्तित्व को जो प्रतिष्ठा दो, वह भारतीय चिन्तन में दुभुत है। यही प्रत्म-विद्या या मध्यात्म है । आत्मविद्या के पुरस्कर्ता तीर्थंकरों ने भारतीय मनीषा को इतना प्रभावित किया कि 'स्वर्गकामः यजेत्' का वैदिक चिन्तक भी उपनिषदकाल में आ कर प्रात्मा की बात करने लगता है ।
जैन दार्शनिकों ने
दुसरी जिज्ञासा थी -- यह दृश्यमान् जगत क्या है, कैसे बना भोर कैसे चलता है ? कहा- यह स्वयं कृत है, न कोई बनाता है, न चलाता है। जीव और जड़, चेतन प्रौर प्रचेतन स्वयं इसके कर्ता श्रोर संचालक हैं । जिस प्रकार जीव अनेक हैं पर उनकी कोटियां हैं उनी प्रकार अजीव या अचेतन द्रव्य पांच तरह के हैं उनकी कोटियां अनेक हैं. भेद-प्रभेद प्रक हैं । यही संसार है ।
इस सिद्धान्त ने
मानव मन को बड़ी राहत दी । वह किसी अज्ञात शक्ति का दास नहीं है, वह अपने कार्य का कर्ता स्वयं है और उसके अच्छे बुरे परिणाम का भोक्ता भी स्वयं है। अपना सूत्रधार वह स्वयं है । कोई अन्य शक्ति उसे संचालित नहीं करती ।
इस चिन्तन से मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठा मिली । उसके कृतित्व को प्रतिष्ठा मिली । व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा मिली ।
एक बात और भाप देखें - चिन्तन जब गहराई में उतरा तो सहज प्रश्न उठा - यादे बह बात है तो दार्शनिकों के चिन्तन में मतभेद क्यों
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-112
है । सब एक जैसी बात क्यों नहीं कहते। एक दूसरे की बात परस्पर विरोधी-सी क्यों लगती है ?
इन प्रश्नों ने अनेकान्त के दर्शन को जन्म दिया | भोले मन, तुम जितना जानते हो, वह तो एकांश ज्ञान है, तुम जितना कहते हो, वह तो एकांश कथन है । जितने जन कहेंगे उनकी दृष्टि बिन्दुएं अलग-अलग होंगी । उनका अपना चिन्तन दूसरे से सापेक्ष होगा । यह जान लें तो कहीं विरोध नजर ही नहीं प्राता । विचार के स्तर पर इस चिन्तन को अनेकान्त नाम दिया गया और वाणी के स्तर पर स्याद्वाद । जीवन में इस सापेक्ष सिद्धान्त का प्रयोग सारी जटिलताओं को समाप्त कर देता है । विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों का समाधान इससे अच्छा मौर क्या हो सकता है ।
जैन दर्शन के इन सिद्धान्तों की प्राधार भूमि पर जिस श्राचार-संहिता का भवन खड़ा हुआ, उसे एक शब्द में कहें तो कह सकते हैं "अहिंसा" । सत्य, भचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, सच मानों तो इसी के अंग हैं। अहिंसा के बिना इनकी साधना हो ही नहीं सकती । आपने असत्य बोला M नहीं कि हिंसा हो गयी । चोरी की बात सोची नहीं कि हिंसा तभी हो गयी । श्रब्रह्म और परिग्रह की हिंसा प्रत्यक्ष दिखाई देती है । हिंसा बहुप्रायामी है और उसका समाधान है एक मात्र ग्रहसा ।
महावीर ने अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए किया। सामाजिक जीवन और अार्थिक क्षेत्र में इसका प्रयोग कैसे हो सकता है, राजनीति इसका वरण कैसे करे, इस सबके लिए उन्होंने आधार सूत्र दिये - जब तक मानव-मानव में ऊंच-नीच की दीवार खड़ी रहेगी, अहिंसा सघ नहीं सकती । सामाजिक जीवन संतुलित हो नहीं सकता । सबको समान मानो और समान अवसर दो । धन और जन को कुछ हाथों में केन्द्रित करना ठीक नहीं है । परिग्रह की मर्यादा बना कर चलना होगा । बिना अनुमति किसी की वस्तु लेना अनुचित है । भले
ही वह धर्म के नाम पर क्यों न हो। दूसरे के प्रारण तो किसी भी स्थिति में नहीं लेने चाहिए ।
राजनीति के विषय में उन्होंने कहा- शासक को प्रजाजन से उतना ही भ्रंश लेना चाहिए जितने से वह पीड़ित न हो । जैसे भौंरा फूल में से रस ग्रहण करके अपने को तृप्त कर लेता है और फूल को नुकसान भी नहीं पहुंचाता, ऐसे ही शासक को अपना भागधेय ग्रहण करना चाहिए।
जैन दर्शन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि वर्ग भेद चाहे वह धर्म के नाम पर हो चाहे आर्थिक कारणों से, वह हिंसा है। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन देकर वर्तमान की साधन सुविधाओं को स्वाहा करना असत्य है, चोरी है, हिंसा है। प्रर्थ को अपने हाथों में समेट लेना परिग्रह है मोर परिग्रह बिना हिंसा के हो नहीं सकता ।
धाज हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों की व्यापकता भोर अधिक नजर श्राती है । प्राज कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति, बड़े से बड़ा समाज मोर बड़े से बड़ा राष्ट्र अपनी बात को, अपनी विचारधारा को दूसरे के ऊपर थोप नहीं सकता । इसे में तो अनेकान्त के चिन्तन का प्रसार ही कहूंगा । वर्गहीन समाज, समानाधिकार, प्रार्थिक सन्तुलन और धर्म निरपेक्ष शासन की जो इतनी व्यापक रूप से बात कही जाने लगी है, वह महावीर की साधना के बट बीज का खतनार वृक्ष है । हिंसा का प्रयोग व्यक्ति के जीवन से समाज श्रौर राष्ट्र के जीवन में किस प्रकार हो सकता है. इसका प्रयोग करके गांधीजी ने हमारे सामने रख दिया है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर है ।
जैन दर्शन के सिद्धान्तों की समय-समय पर अनेक प्रकार से व्याख्या की गयी । निःसन्देह मानवीय मूल्यों की दृष्टि से उनका व्यापक क्षेत्र है। जैन विश्वन ने विभिन्न युगों में दूसरे जीवनदर्शनों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है । तीर्थंकरों का चिन्तन मानवीय मूल्यों के जिस व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है वह देश प्रौर
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
गयाITTEImamam TIME
ENA
श्री जैन श्वेताम्बर तीर्थ नाकोड़ा (राज.)
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-113
काल की सीमाओं से परे है। युग के सन्दर्भ में करता है। जिनोंने सिद्धि को वरण किया, उन जैन दर्शन की पुनर्व्याख्या की जाए तो माज हम सिद्धों को वन्दन करता हूं। जो प्रहंत होने को एक ऐसे जीवन-दर्शन की कल्पना कर सकते हैं जो प्रयत्नरत हैं. उन प्राचार्यों को नमस्कार करता हूँ। समग्र मानवता के लिए हो। जो सम्पूर्ण विश्व जो यह रास्ता दिखाते हैं उन उपाध्यायों को का जीवन दर्शन हो, जो जन-दर्शन हो।
नमस्कार करता हूं. जितने भी सत्पुरुष इस मार्ग सिद्धान्तों की उदारता और व्यापक दृष्टिकोण पर चल रहे हैं, उन सबको मैं प्रणाम करता हूं। के कारण ही जैन दर्शन ने विकास की इतनी णमो मरिहंताएं। ध्यापक सम्भावनाएं मानीं, कि व्यक्ति से विराट, णमो सिवाणं । मात्मा से परमात्मा, मानव से महामानव और
णमो मायरियारणं । .. जीव मात्र में भगवान बनने की सामर्थ्य का प्रति
गमो उवज्झायारणं । पादन किया। सभी भारतीय दर्शन जहां ईश्वर णमो लोए सव्वसाहूणं । को आदि में रख कर आगे चले वहां जैन दर्शन ने इससे व्यापक दृष्टिकोण और मानवीय मूल्यों परमात्मा को अन्त में रखा और कहा-परमात्मा की प्रतिष्ठा क्या हो सकती है। तो तुम्ही हो । अपने को जानो और स्वयं परमात्मा भगवान महावीर ने जैन दर्शन के इन उदार हो जाओ, अपने को जीतो और स्वयं 'जिन' हो सिद्धान्तों के प्रसार के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन जामो, 'महंत' हो जाओ। अपने को शुद्ध करो अर्पित कर दिया मोर स्वयं सिद्ध हो गये। उनके और स्वयं सिद्ध' बन जाओ।
2500वें निर्वाण शताब्दी वर्ष में यदि हम उनके जैन दर्शन को मंगल मन्त्र है
चिन्तन का अमृत जन-जन तक पहुंचा सके तो जो अहंन्त हो गये, उन सबको मैं प्रणाम बहुत बड़ा पुण्य-कार्य होगा।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिंसा, कूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह,
किबाड़ों से बन्द एक मानवी कोठरी, अधेरी !
षट् षट् दर्शनों की
खट् खट् से खोला गया इसे
हार गए मिस्त्री महान
जब युग के !
साधना से सधकर
तब साधक महावीर ने
हिय के नयन जब खोले
और यों बोले"कोठरी बाहर से नहीं
अन्दर से बन्द है । एतदर्थं बाहर से नहीं अन्दर से वह खुलनी है ।" जीवन के इस प्रकार
खुल गए किबार,
अज्ञ तम मिट गया
और प्रकाश पूर्ण हो गयी कमनीय कोठरी जहान में ! बाहरी विधयां
युग के विधान बड़े,
हो गए व्यर्थ सब
रहे पड़े !
जनता समय की तब बोल उठी एक स्वर ! जय जय युग नाम, वीर प्रभु मेरे प्रणाम ! !
जय जय युग नाम ! बोर प्रभु !
मेरे
प्रणाम !!
रचयिता
डॉक्टर
महेन्द्रसागर
प्रचंडिया,
अलीगढ़
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिंसा
बनाम
हिंसा
श्री प्रतापचन्द जैन, श्रागरा
कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका, रूस, फ्रांस और जर्मनी ही ऐसे देश के जिनके पास प्रणु बम थे । उसके बादू साम्यवादी चीन भी उन देशों की पक्ति में जा बैठा है। उसने भी प्रणु बम और हजारों मील मार करने वाली मिसायलें बना ली हैं। जब से चीन ने प्रणु बम बना लिये हैं तब से भारत की जनता भी संगठित हो उठी है और यहां भी उसकी मारा उठने लगी है । परन्तु देश के शासन सुरक्षा बीडोर जिनके हाथों में हैं वे बराबर इस मांग से अपनी असहमति दिखा रहे हैं। उनका मत है कि संसार की आणविक शस्त्रीय स्थिति ऐसी बन गई है कि उनके बनाने से हमारी सुरक्षा पर तो कोई खास फर्क पड़ेगा नहीं, क्योंकि जिनके पास वह है वे खुद ही एक दूसरे से भयभीत हैं, हा प्रार्थिक दबाव के कारण देश के विकास कार्यों पर कुप्रभाव श्रवश्य पड़ेगा । बहरहाल इस मांग को लेकर देश का मत विभाजित है। फिर भी अणु शक्ति की खोज और उसका उपयोग देश के विकास कार्यों में करने का प्रयास चल रहा है ।
यह अणु बम कितना भयंकर और कितना विनाशकारी हो सकता है इसका अन्दाजा हमे सहज ही लगा सकते हैं हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस से । यह घटना द्वितीय महायुद्ध के मध्य 5 अगस्त सन् 1945 की है । जब कि सभ्य अमेरिका ने उन पर अणु बम का विस्फोट कर जघन्य अपराध किया था। वह बम केवल बचा ही था तब भी उसने 80 हजार नागरिकों को देखते देखते मौत के घाट उतार दिया था तथा लाखों को श्राजीवन अपंग बना दिया था । पक्षी तक नहीं बचे थे और पूरा का पूरा नगर मलवे का ढेर बन गया था। यहां तक कि वहां के वायु मंडल
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-116
को भी उसने दूषित कर दिया था । माज तो उससे उतार दिया और बन्दी बना लिया। अन्त में दक्षिण कहीं ज्यादा शक्तिशाली महा प्रलयकारी उदुजन बम वियतनाम से भी उसे खदेड बाहर किया गया । तक इन देशों के पास हैं। उनमें से केवल एक ही हाल में कम्बोडिया से भी उसे भागना पड़ा है मौर बम (भगवान न करे) प्राधे विश्व को तबाह कर थाई देश तथा तुर्की भी उसे प्रांखें दिखा रहे हैं । सकता है। इन बमों का सबसे बड़ा भण्डार जिस जापान को उसने पंगु बना दिया था वह भी अमेरिका के पास है। उसके बाद नम्बर आता भी शिकंजा तोड़ चुका है। है सोवियत रूस का।
जब इसराइल की अरब देशों से लड़ाई हुई ... इतनी विशाल शक्ति पास होते हुए भी अमेरिका और उसने अपने कई गुने शक्तिशाली अरबों की, छोटे से उत्तरी वियतनाम को घुटने नहीं टिकाने उनसे चारों ओर से घिरे होने पर भी, कमर तोड़ पाया। बहादुर वियतनामी 11 वर्ष तक उसका दी थी और केवल छः दिनों में ही उन्हें तौबा बुलवा डटकर मुकाबला करते रहे। मुकाबला ही नहीं करते दी थी तब उसे अमेरिकी बढ़िया हथियारों का रहे, उहोंने उसे उल्टे नाकों चने चबवा दिये। करिश्मा बताया गया। मैं पूछता हूं हथियारो के उसे ची बुलवा दी पोर मजबूर कर दिया पेरिस उन हिमायतियो से कि वे बढ़िया किस्म के हथियार में गोल मेज पर भाकर सुलह करने के लिए। छोटा कहां चले गये थे वियतनाम के जंग में ? वहां तो सा पड़ोसी क्यूबा उसे बराबर अांखें दिखाता रहता है उनके चलाने वाले भी खुद हुनरकार थे। कहां और वह खामोश है।
चला गया था इस शक्ति का वह दम्भ जबकि अमेरिका ने वियतनामियों पर नभ, स्थल और हाइट हाऊस से बाहर निकल कर किसी के पास जल से ग्यारह वर्ष तक अन्धाधुन्ध गोले बरसाये। जाना अपनी तौहीन समझने वाले अमेरिकन राष्ट्रनापाम (अग्नि) बम उन पर फेंके और कीटाणु पति चीन की चापलूसी के लिए पीकिंग जाने को तथा विषैले गैस युक्त बम फेंक कर वहां के जल, मजबूर हो गये थे ? वायु मडल और फसल को विषाक्त कर दिया घातक हथियार और अणुबम की दुहाई देने था। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में जितने बम वाले भूल जाते हैं कि यह राक्षसी शक्ति तो गिराये गये थे उनसे क
नसे कई गुने बम उसने यहां भस्मासुर है, जो दूसरों को ही नहीं खुद सहेज कर गिराये। उनसे वहां की भूमि में लाखों दरारें रखने वाले को भी खतम कर सकती है। विश्व के (कैटर) पड़ गई। लाखों की संख्या में सैनिक राष्ट्रों को घातक हथियार पहुंचाकर हिंसा की झोंक दिये थे और नाकाबन्दी करके तथा सुरगें अ.ग को भड़काने वाला अमेरिका माज खुद उनका बिछाकर रसदमार्ग तक उसका बन्द कर दिया शिकार है। वहां के लोग खुद ही एक दूसरे का
था। मकान और बाजार ही नहीं वहाँ के स्कूल, शिकार करने लगे हैं । अभी कुछ ही दिनों में वहां गिर्जाघर और अस्पताल तक उसने नष्ट कर दिये के राष्ट्रपति तक की हत्या के दो प्रयास हो चुके हैं थे । अमेरिका द्वारा इतनी राक्षसी शक्ति झोंक और वे भी महिलाओं के द्वारा । दिये जाने पर भी उस बहादुर कौम ने हार नहीं विश्व के लोग भूले बैठे हैं भौतिक नशे में मानी । उन्हें अमेरिका के हजारों हेलीकाप्टर और अपनी उस महान शक्ति को जो उन्हें महावीर ने हवाई जहाज, जिनमें बी 52 बम वर्षक भी थे, दी, बुद्ध ने दो और हाल में ही गांधी ने देश उसने मार गिराये। गुरिल्ला युद्ध करके कई सुर- व्यापी तथा अफ्रीका में सफल प्रयोग परीक्षण कर क्षित अमेरिकी हवाई, अड्डे तहस-नहस कर दिये के दी। गांधी ने तो घूसा तक नहीं उठाया मोर और हजारों अमेरिकन सैनिकों को मौत के घाट वरतानिया जैसी तत्कालीन महाशक्ति को देश से
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-117 काल बाहर किया। यह शक्ति थी सत्यं की, अमेरिका में वियतनामी समर्थक जनमत उठ खड़ा अहिंसा, की आत्मा की। वह शक्ति था मनोबल हुमा। यही बात यहूदियों के साथ थी और यही की। इसी शक्ति ने गत भारत-पाक युद्ध के दौरान बांगला वासियों के साथ । अपनी संस्कृति, अपनी प्रणं शक्ति से लैस अमेरिका के शक्तिशाली सातवें भूमि और अपनी कोम की रक्षा के लिए प्रतिकार बड़े का मुंह फेर दिया था । यही शक्ति बहादुर अथवा हथियार उठा कर चुनौती को स्वीकार करना वियतनामियों के पास थी और यही इजराइल के हिंसा नहीं, अलबता न उठाना कायरता है। विश्व पास । वही पड़ोसी क्यूबा के पास है । वही मनो- के प्राणियों को सबसे पहले इसका ज्ञान भान बस सत्य के हामी भारत के सैनिकों और बांगला कराया था भगवान बाहुबलि ने उसके बाद भगवान वासियों के पास था, जिन्होंने एक लाख कंक पाक राम ने और पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण फौजियों को हथियार डालने के लिए मजबूर कर ने । जिसके पास यह बल होगा वही मजेय है। दिया था।
उसे न अणु बम का भय है पोर न उद्धन बम
का और न ही उसे किसी के मागे हाथ पसारना वह इन देशों का दृढ़ संकल्प ही था जिसने
पड़ेगा। अपने से कही ज्यादा बड़े और शक्तिशाली विरोधियों से उन्हें अपनी रक्षा ही नहीं, जीत दिलाई। लेकिन हम मारका
लेकिन हम मारकाट और हनन का रास्ता दृढ संकल्प पैदा होता है प्रात्मबल से सत्य जिसका छोड़ भी दें, भले ही हम हिंसा के इन उपकरणों माधार होता है । आप पूछोगे कि क्या अरबों, को समुद्र में फेंक दें तथा हमारे पर चींटियों को अमेरिकनों तथा पाक के पास यह बल नहीं था। बचाते रहें परन्तु महावीर अहिंसा केवल इतनी मैं बड़ी नम्रता के साथ परन्तु दृढ़
भर नहीं है और न केवल इतने पर से स्थायी कि. नहीं । उनके पास तो असत्य ओर अन्याय पर शान्तिको दोगी क्यों कि हिंसा को उभारने वाले आधारित दुरात्म (राक्षसी) बल था। अरब
जो कुत्सित भाव हमारे अन्तरंग में आते हैं यहूदियों को एक जगह बसकर रहने नहीं देना
जब तक उनसे छुटकारा नहीं पा लिया जायगा चाहते थे, वे अमेरिकन वियतनामियों को अपने तब तक कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं। जब तक अंगूठे के नीचे कराहते रखना चाहता था और . घणा, ईर्ष्या, द्वेष, प्रहंकार और तृष्णा का तांडव पाकिस्तान का पश्चिमी अंचल अपने पूर्वी अंचल ।
न बना रहेगा हिसा पैरालाइज्ड (निर्गीव सी मौन) (सोनार बांगला) को अपने रोमांस के लिए शोषण रहेगी। जब तक स्वार्थ और परिग्रह-लिप्सा का करते रहना चाहता था और अल्प संख्यकों को बेघर दानव रक्षा प्रायगा. हिंसा मह बाये रहेगी। बार कर देना चाहता था ।
जब तक हिंसा का यह रिवाज चलता रहेगा ___ ये संघर्ष थे सत्य और असत्य के बीच, हिंसा : अहिंसा की तथाकथित साधना बेकार जायगी । और अहिंसा के बीच । इन सबों में जीत सत्य जितना हमने देखा और समझा है उतने ही को अहिंसा और मनोबल की हो हुई । हथियार हम सत्य ससझते रहे और भाग्रह पर जमे रहे, उठाते हुए भी वीर वियतनामियों के पास सत्य बात बात में भौहें तानते रहे, अांखें लाल करते एवं मनोबल की आत्मिक शक्ति थी क्योंकि उनकी रहे तथा स्वार्थ की बैसाखियों के सहारे ही चलते भावना अपनी मातृभूमि और अपनी प्राजादी की रहे तो हिंसा का ब्रीडिंग-ग्राउंड यथावत बनी रक्षा करने की थी । अमेरिका जनता से उन्हें कोई रहेगी।। यही दिव्य उपदेश संसार के प्राणियों द्वेष नहीं था । इस सत्य का चमत्कार था कि स्वयं को आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भ. महावीर
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
-110
ने दिया था। उसी भगवान महावीर का निर्माण ने हेय मानकर त्याग दिया था यदि उसी के बस पर ब हम 1974की 13 नवम्बर से मना रहे हैं। यंत्र तंत्र कुछ करके कुछ रचकर अथवा खड़ाकर इस बह वर्ष समाप्त हो रहा है। अब हम अपने अन्दर सन्तोष कर लेते हैं तो वह मन को बहलाने वाला मात्र झांक कर इस बात का जायजा तो लें कि इस ही होगा। उससे न हमारा खुद का कल्याण होगा दौरान हमने कहां तक इन उपदेशों को अपने मोर न अन्य किसी का। यदि हमने अपने दैनिक जीवन में उतारा है और कहां तक सत्य, अहिंसा, जीवन में उसे थोड़ा सा भी उतारा है तो यह महस्तित्व और सहिष्णुता समभाव की गंगा निर्वास शती निश्चय ही. सार्थक कही जायगी। बदा पाये हैं। जिस सांसारिक सम्पदा को महावीर
00
कर्तव्य-वीर
-श्री वीरबहमद "गापूस" जो अपने कर्तव्य-धैर्य में निष्ठा रखता सच पूछो तो शूरवीर-बलवान वही है ! सक्षम होकर भी जो अपने कर्तव्यो से उदासीन है वह काहे का वीर-बली है ? | . उसकी प्रात्म शक्ति क्षीरण है !
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानमये
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है :-पात्म ज्ञावं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?" प्रारम्भ साक्षात् शान है प्री' झाम ही साक्ष त् प्रात्मा है । भात्म-ज्ञान के प्रतिरिक्त कुछ भी नहीं। प्रात्मा अनंतगुणों का पिण्ड है ज्ञान उन प्रनत गुणो में एक प्रधान गुण है और प्रात्मा के सिवाय अन्यन्त्र नहीं पाया जाता, इसलिए मात्मा के ज्ञान गुण में ही मात्मा केअन्य समस्तगणों का समावेश हो जाता है । यथा :शाणं अप्पत्ति मद वटुदि णाणं विणाण अप्पणि । तहना गाणं प्रप्पा अप्पा गाणं व अण्णं वा ।
भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन को छोड़कर, शेष समस्त दर्शन मात्म-सत्ता स्वकार करते हैं। परन्तु ज्ञान प्रात्मा का गुण है या प्रागन्तुक गुण है ? न्याय और वैशेषिक दर्शन मात्मा का स्वाभाविक गुण न मानकर भागन्तुक गुण मानते है । संसार अवस्था में ज्ञानगुण प्रात्मा में रहता है, परन्तु मुक्त अवस्था में ज्ञान नष्ट हो जाता है। साथ ही उक्त दोनों दर्शनों की मान्यता संसारी पात्मा का ज्ञान प्रनित्य है, पर ईश्वर का ज्ञान नित्य है । इसके विपरीत सांख्य और वेदान्त दर्शन ज्ञान को मात्मा का निज गुण स्वीकार करते हैं। वेदान्त दर्शन ज्ञान को ही भात्मा मानता है। ..
जनदर्शन एक माध्यात्मिक दर्शन है। इस दर्शन में मात्म-ससा के विषय में गंभीर रूप से विचार किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, नियमसार, प्रवधनसार, पञ्चास्तिकाय, और अष्ट-पाहु । मागम युग से लेकर प्राज सक भी 'मात्मा का विषय बना हुआ है। इस विषय को लेकर नक्की कसौटी पर कसा गया, तब कहा गया कि
"श्री उदयचन्द्र प्रमाकर' शास्त्री. जरीवाग, नसिया, इन्दौर, म.प्र.
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-130
भारमा ज्ञानवान है, मारमा शान-स्वरूप है, मात्मा योग्यता जितनी अधिक होगी उतने ही पदार्थों को नायक स्वभाव रूप है इत्यादि। पर ज्ञानवान् मान सकता है। केवलज्ञानी में ही एक मात्र सन मात्मा को शुद्ध निश्चयनय की कसौटी पर देखा- कुछ जानने की योग्यता होती है, क्योंकि उन्होंने परखा नहीं जा सकता, क्योंकि प्रात्म ज्ञानवान् है अपनी आत्मा को निर्मल स्वच्छ बना लिया है रागऐसा कथन करने पर प्रात्मा से पृथक् ज्ञानवान् की द्वेष-मोह और कर्मों का प्रभाव करके । "ज्ञान प्रतीति होती है, परन्तु ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञान ही चित्रपट के समान है, उसमें तीनों काल संबंधी मात्मा ह, तब शुद्ध निश्चयनय की प्रतीति हो उठती वस्तुमों के चित्र युगपत् प्रतिभासित रहते हैं, उसी है- 'जे माया से विनाणे जे विन्नाणे से माया।" प्रकार ज्ञान में भी।" प्रतीन्द्रिय मूर्तिक और प्रमूपति : जो प्रात्मा है वही विज्ञान है । अभिप्राय तिक, क्षेत्रान्तरित भोर कालान्तर समस्त पदार्थों यह है कि प्रात्म-स्वरूप स्वयं ज्ञान स्वरूप है । ज्ञान को एवं स्व और पर ज्ञेय को जानता है वह प्रत्यक्ष के बिना उसकी कोई स्थिति नहीं।
ज्ञान होता है । "विशदं प्रत्यक्षम्" । ज्ञान गुण से __ जैनदर्शन में सप्त तत्व की विशेष महत्वता युक्त मात्मा दर्शन रूप है, प्रतीन्द्रिय है, सबसे महानस्वीकार की गई है, उसमें भी जीव तत्व की। ज्ञाता, श्रेष्ठ है, नित्य है, मचल है, पर पदार्थो के प्रवलद्रष्टा रहना जीवात्मा का स्वभाव हैं, रागी-द्वेषी म्बन से रहित है और शुद्ध है।। होना विभाव है तथा नर नारकादि अवस्थाएं एक ही पदार्थ में अनंत धर्म हैं, एक-एक धर्म धारण करना आत्मा की पर्यायें हैं। जो जीव, में अनंत-अनंत पर्याय हैं । यद्यपि उन अनंत गुणों पदार्थों का ज्ञाता द्रष्टा है वह स्वसमय है, किंतु को देखने की शक्ति अाज हममें न हो, पर ज्ञानका इसके विपरीत राग-द्वेष की भावना से वह संसार आवरण हटते ही वह अनंत शक्ति (ज्ञान-गुण) में परिभ्रमण करता रहता है, परसमय में अपने हमारे सामने प्रत्यक्ष रूप से झलकने लगते है, मस्तित्व को न पहचानने के कारण। "मैं शरीर जिससे अनंत धर्म और अनंत पर्यायों की अभिव्यक्ति नहीं हैं, मन नहीं है, वाणी नहीं हूँ तथा इन सबके हो उठती है । "जो एक को जानता है, वह सबको कारण है मैं उनका न कर्ता हूं और न अनुमंता जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को ही हूं," क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणमन है जानता है । यथा :उनका कर्ता मैं कैसे हो सकता हूँ।
"जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । ज्ञानका कार्य हैं जो पदार्थ जहां है उन पदार्थों जे सम्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥" को उसी रूप में जानना एवं प्रकाशित करना।
(प्राचारांग सूत्र) शान स्वय प्रकाशमान है, दीपक की तरह । जिस किसी भी एक पदार्थ के मनंत धर्मो और उसकी तरह दीपक अपने प्रकाश द्वारा पर पदार्थों को अनंत पर्यायों को जानने का अर्थ होता है कि प्रकाशित पौर स्वयं भी प्रकाशवान रहता है। उसी उसने सम्पूर्ण पदार्थ को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रकार ज्ञान भी। ज्ञान गुण का कार्य है ज्ञेय को पूर्ण रूप से जानने का सामर्थ्य किसमें ? केवलज्ञानी जानना । संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब ज्ञान के में, क्योंकि उसमें ज्ञान-गुण का पूर्ण विकास हो ज्ञेय हैं और शान उनका ज्ञाता है । ज्ञान अनंत है, गया ? किस कारण से ?" दोषावरण का सर्वथा क्योंकि शेय अनंत है, परन्तु जब तक उस पर क्षय हो जाने से । जिस प्रकार सुवर्ण आदि में भावरण पड़ा हुमा रहता है, तब तक अनंत ज्ञय निहित किट्टकालभादि बाह य और अन्तर का दोषों को जानने में असमर्थ रहता है । प्रावरण हटने पर का पूर्णतया क्षय हो जाता है, उसी प्रकार किसी वह प्रसीम और मनंत बन जाता है । ज्ञान की विशेष प्रात्मा में भज्ञानादि दोष तथा उसके कारण
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का पूर्णतया विनाश होता है।" वही ज्ञानमरण का धनी केवलज्ञानी है। क्योंकि "कर्मणो विकल्यमात्मक वल्यस्त्येव" अर्थात् कर्म की विकलता ही घरमा का कैवल्य है ।
ज्ञानी जीव बहुत प्रकार के कर्मों को न तो करता है पर न भोगता है, परन्तु कर्म के बंध को और पुण्य पापरूपी कर्म के फल को जानता है। जैसा कि समयसार में लिखा है :वि कुors गवि वेयंइ
गाणी कम्भाई वहुपवाराई । जागइ पुरण कम्मफलं
बंध पुणे च पावं च ।।319।। जिस प्रकार नेत्र पदार्थों को देखता मात्र है उनका कर्ता और भोगता नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान, बंध और मोक्ष को तथा कर्मोदय धौर निर्जरा को जानता मात्र है उनका कर्ता और भोक्ता नहीं है । मात्मा को कर्ता मानते हैं वे मुनि होने पर भी लौकिक जन के समान हैं, क्योंकि लौकिक जन ईश्वर को कर्ता मानते हैं मोर मुनिजन प्रारमा को कर्ता मानते हैं । ये दोनों ही कारण वास्तविक तत्व की प्रतीति कराने में समर्थ नहीं ।
।
" मनुष्य स्वयं अपने आप में दिव्य हैं। मनुष्य के हृदय से ऊंचा अन्य कोई देवता नहीं है : "4 दार्शनिक एवं विचारक शिन्तो का यह कथन सर्वथा उचित ही है क्योंकि मनुष्य अपने ज्ञान गुण की महत्ता न जानने एवं पहचानने के कारण ही वह पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। वास्तव में उसका पतन बाहर से नहीं, स्वयं उसके अन्दर से ही होता है। लोका कहते हैं कि राम ने रावण को मारा और कृष्ण ने कंश को, परन्तु यह कथन ठीक नहीं ।
1.
2.
3.
4.
1-121
रावण अपनी दुर्बलताओं के कारण ही मारा गया, और कंश भी दुर्बलताओं से नष्ट कर दिया गया।
मनुष्य को सोचना चाहिए कि मैं इस संसार में महान् हू, धन-वैभव आदि के क ररण नहीं; श्रपितु । ज्ञान-गुरण के वैभव के कारण मेरी महानता का कारण है, मेरी आत्मा है। क्योंकि काला ही परमात्मगुणों को प्राप्त करने में समर्थ है। प्रयासौ परमध्या; जब यह बात मतकरण को स्पर्श कर जायगी तो वह अपने श्रापको दिव्य प्रकाश से प्रकाशित कर लेगा । साधक वही है जो अपने को ही खोजने का प्रयत्न करता है। चीन के महान विचारक सन्त कन्फ्युसियस ने लिखा है "What the undeveloped man seeps is others what the advanced man seeks is himself अर्थात् प्रज्ञानी लोग दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं। ज्ञानी वही है, जो अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है ।
"मास्सं खु सदुल्ल" मानव जीवन दुर्लभ है । "बड़े भाग मानुस तन पावा ।" मानव जीवन प्राप्त कर यदि सदुपयोग नहीं किया तो जीते हुए भी मृतवत् है । श्रतः कितना भी हो सके अपनी ज्ञानगुण की अभिव्यक्ति कर प्रकाश की किरण को जग के सामने प्रकट करें, यही इस ग्रात्म प्रकाश का कर्तव्य है। यह मात्म प्रकाश ज्ञान से भिन्न नहीं ज्ञान से भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है, ज्ञान गुण में ही अन्य गुणों का समावेश हो जाता है। इस
दृष्टि से कहा जा सकता दृष्टि से कहा जा सकता है कि 'ज्ञानमये हि आत्मा जो सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट तथा जैनदर्शन का सर्वोच्च कथन है |
प्रवचनसार-गा. 26
प्रवचनसार-गा. 68 शेयधिकार
आप्तमीमांसा परि- 1-2- श्लोक :-4 दोषाऽऽवरयोनिनिःशेषाऽस्वतिशायनात् । वद्यया स्वहेतुभ्यो वहिरन्तमं लक्षयः ।।
"There exists no highest deity outside the human mind. Man himself is Divine."
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
तू स्वतन्त्र संगीत है
-श्री प्रसन्न कुमार सैंडी शक्ति पुञ्ज तू. चिदानन्द तू. क्यों व्याकुल भयभीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है ।
अर्ज कर रहा कब से, कुछ तो रहम करो गिरधारीजी। एक पुत्र दे दो बस केवल, पर पडू बनवारीजी । अपनी शक्ति प्रतिष्ठा रखोई, अच्छे बने भिखारीजी। अगर मांगना हो, अपने से मांगो तो सरदारीजी।
सुख प्रानन्द शान्ति तेरे अपने, क्यों पर से प्रीत हैं। जड़ की क्या सामथ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है।"
(२) 'प्रेम' आग को शीतल करता, 'क्रोध' जलाता पानी को। 'चिन्ता' जीवन की बरबादी, जहर करे गुड़ेंधानी को। लालच का फल भी प्रत्यक्ष है, कब्ज हो गया मानी कों। उतरा पुत्र मिले से ज्वर जो चढ़ा वियोगिन रानी को।
हीनभाव कमजोर बनाते, क्यों यह मुखता पीत हैं। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तूं स्वतन्त्र संगीत है ।।
मुह से 'अहं ब्रह्मास्मि' कह रहे, किन्तु गुलामी छाई है। दास-भाव यदि नहीं हृदय से निकला व्यर्थ पढ़ाई है। जो विचार में बूढ़ा, उसमें कहने की तरुणाई है। जो सोचोगे सो पावोगे, चिन्तन की महिमाई है।
हँसमुख को आपत्ति कष्ट क्या, उसे हार भी जीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है।
(४) ज्ञान-रत्न को छोड़ भर रहा धन-कंकर से कोष क्यों। सोने से लेकर मिट्टी का काम, अन्य को दोष क्यों। तू चेतन अमूर्त अविनाशी, जड़ नश्वर पर रोष क्यों। तृष्णा में सुख शांति कहां है, छोड़ रहा सेतोष क्यों ।
समभावी हरकाल सुखी है, क्या गर्मी क्या शीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र सगीत है।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
का
केन्द्रीय सिद्धान्त
महिला;
एक
तुलनात्मक अध्ययन
10 सागरमल जैन
शंन विभाग, हमीदिया कालेज, घोपाल
जैन दर्शन में हिंसा का स्थान हा जैन दर्शन का प्राण है। जैन दर्शन में हिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन प्रचार विधि घूमती है । जैनागमों में हिंसा भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैभयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितो को जैसे जल, भूलों से ओलन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, खेगियों को जैसे श्रीर वन में जैसे सार्थवाह का साथ, प्राधारभूत है बसे ही महिसा प्रणियों के लिए सारभूत है । असा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। बही साथ एक ऐसा शाश्वत धर्म है, जिसका जैनतीर्थंकर उ देश करते हैं। नाच रांग सूत्र में कहा गया है भूत, भविष्य र वर्तमान के सभी प्रत् यही उपदेश करते हैं कि सभी प्रारण, सभीभूत, सभी जीव और सभी सत्य को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए और न किसी का हनन करना चाहिए । मही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका समस्त लोक के खेद को जानकर महंतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है । सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि हिंसा न करे, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए । दशवेकालिक सूत्र में कहा गया है, कि सभी प्राणियों के प्रति संयम में हिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर ने इसको 'प्रथम स्थान पर कहा है । भक्तपरिक्षा नामक ग्रन्थ में कहा गय है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है ।
श्राचार्य प्रमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र महिला से व्याप्त है,
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-124
उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक कौन से तीन ? 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत हैं ; प्राचार रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं के नियमों के दुसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जन साधारण करता11 । को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की नामों से कहे जाते हैं वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी विभिन्न पक्ष हैं ; जैन आचार दर्शन में अहिंसा पृष्ठभूमि यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा हुआ है। यह प्राधार वाक्य है जिससे वाचार के सभी नियम हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का निगमित होते हैं। भगवती पाराधना में कहा गया स्थान-गीता में अहिंसा का महत्व स्वीकृत है अहिंसा सब प्राश्रमो का हृदय है, सब शास्त्रों करते हुए, उसे भगवान का ही भाव कहा गया का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) है ।
है, उसको देवी सम्पदा एवं सात्विक तप बताया . बौद्ध प्राचार दर्शन में अहिंसा का स्थान- है12 । महाभारत में तो जैन विचारणा के समान बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा स्थान प्रथम ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया है। चतुःशतक में कहा गया है। तथागत ने संक्षेप गया है13 | मात्र यही नहीं उसमें भी धर्म के में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत् किया है । धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य करना माना गया है। अहिंसा ही धर्म का सार कर्म कहा है। वे कहते है जो प्राणियों की हिसा है इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत के लेखक का करता है वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के कथन है--"प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा धर्म का उपदेश दिया गया है अतः जो अहिंसा से जाता है।
युक्त है. वही धर्म है"14 । । बुद्ध हिंसा एवं युद्ध के नीति शास्त्र के तीव्र लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो विरोधी हैं, धम्मपद में कहा गया है कि विजय से बार बार अर्जुन को युद्ध लड़ने का निर्देश दिया वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी होता है जो गया है, उसका युद्ध से विमुख होना निन्दनीय एव जय पर जय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है उसे कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा ही शांति 8101
की विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? अगुतर निकाय में बुद्ध इस बात को अधिक इस सम्बन्ध में मैं अपनी और से कुछ कहूँ; इसके स्पष्ट कर देते है कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही नारकीय जीवन का सृजन कर लेता है जबकि इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये । अहिंसक व्यक्ति इसी जगत में स्वर्गीय जीवन का गीता के प्राद्य टीकाकार प्राचार्य शंकर 'युद्धस्व' सृजन कर लेता है । वे कहते हैं- 'भिक्षुओं, तीन (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते हैं कि यहां धमों से युक्त प्राणो ऐसा होता है जैस लाकर नरक युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है15 : मात्र में डाल दिया गया हो। कौन से तीन ? स्वयं यही नहीं प्राचार्य गीता के प्रात्मौपम्येन सर्वत्र' प्रागीडिया करता है, दूसरे को प्राणी हिंसा की के मधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की योर घसीटता है और प्राणी हिंसा का समर्थन पुष्टि करते हैं' जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही करता है । 'भिक्षुषों, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो। मुझे अप्रिय एवं प्रतिकूल हैं जैसे सब : प्राणियों को.
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-124
'मी दुःख अप्रिय प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब अद्वेष बुद्धि पूर्वक विवशता में करना पड़े ऐसी
प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को हिंसा का जो समर्थन गीता में दिखाई पड़ता है "तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी उससे यह नहीं कहा जा सकता गीता हिंसा की के भी प्रतिकल पाचरण नहीं करता वह महिंसक समर्थक है। अपवाद के रूप में हिंसा का समर्थन है। ऐसा अहिंसक पुरुष पूर्ण ज्ञान में स्थित है वह नियम नहीं बन जाता। ऐसा समर्थन तो हमें "सब योगियों में परम उत्कृष्ट माना जाता है16"। जैनागमों में भी उपलब्ध हो जाता है। - महात्मा गांधी भी गीता को अहिंसा की प्रति- अहिंसा का प्राधार-अहिंसा की भावना पादक मानते हैं उनका कथन है “गीतों की मुख्य के मूलाधार के सम्बन्ध में विचारकों में कुछ भ्रान्तशिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है-हिंसा बिना क्रोध, धारणाओं को प्रश्रय मिला है अत: उस पर पासक्ति एवं घृणा के नहीं होती और गीता हमें । सम्यक्रुपेण विचार कर लेना प्रावश्यक है। सत्व, रजस और तमस गुणों के रूप में घृणा, मैकेन्जी ने अपने 'हिन्दू एथिक्स' में इस भ्रान्त क्रोध आदि की अवस्थानों से ऊपर उठने को कहती विचारणा को प्रस्तुत किया है कि पहिंसा है (फिर हिंसा कैसे हो सकती है)17.1 डा. राधा के प्रत्यय का निर्माण भय के आधार पर हुआ है। कृष्णन भी गीतों को अहिंसा की प्रतिपादक मानते वे लिखते हैं' असभ्य मनुष्य जीव के विभिन्न रूपों है, वे लिखते हैं "कृष्ण अर्जुन को युद्ध लड़ने का को भय को दृष्टि से देखते हैं और भय की यह परामर्श देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि धारणा ही अहिंसा का मूल है। लेकिन मैं वह युद्ध की वैधता का समर्थन कर रहा है। युद्ध समझता हूँ कोई भी प्रबुद्ध विचारक मैंकेन्जी की तो एक ऐसा अवसर प्रा पड़ा है, जिसका उपयोग इस धारणा से सहमत नहीं होगा। जैनागमों के गुरू उस भावना की और संकेत करने के लिए आधार पर भी इस धारणा का निराकरण किया करता है, जिस भावना के साथ सब कार्य, जिनमें जा सकता है। अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति युद्ध भी सम्मिलित है, किये जाने चाहिये। यह सम्मान एवं समत्वभावना है । समत्वभाव से सहाहिंसा अहिंसा का प्रश्न नहीं है, अपितु अपने नुभूति, समानुभूति एवं प्रात्मीयता उत्पन्न होती है उन मित्रों के विरुद्ध हिंसा के प्रयोग का प्रश्न है, और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। पहिंसा जो अब शत्रु बन गये हैं। युद्ध में प्रति उसकी जीवन के प्रति भय से नहीं जीवन के प्रति सम्मान हिचक प्राध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की से विकसित होती है । दशवकालिक सूत्र में कहा प्रधानता का परिणाम नहीं है, अपितु मज्ञान और गया है-सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, वासना को उपज है । अर्जुन इस बात को स्वीकार कोई मरना नहीं चाहता अत: निर्ग्रन्थ प्राणवध करता है कि वह दुर्बलता और प्रज्ञान के वशीभूत (हिंसा) का निषेध करते हैं20 । वस्तुतः प्राणियों हो गया है । गीता हमारे सम्मुख जो प्रादर्श उप- के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा स्थित करती है, वह हिंसा का नहीं अपितु अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना करता है। जीवन के का है। कृष्ण अर्जुन को मावेश या दुर्भावना के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है । उत्तराध्ययन बिना, राग और द्वेष के बिना युद्ध करने को कहता सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त की है और यदि हम अपने मन को ऐसी स्थिति में ले स्थापना करते हुए कहा गया है कि 'भय मोर गैर जा सकें, तो हिंसा असम्भव हो जाती है181 से मुक्त साधक, जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले
इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता भी अहिंसा सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी प्रात्मा के समान की समर्थक है। मात्र अन्याय के प्रतिकार के लिए जानकर, उनकी कभी भी हिंसा न करे1 । यह
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैन्जी की भय पर अधिष्ठित हिंसा की धारणा इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उच्य हो जाता का सचोट उत्तर है। जैन आगम माचरांग है, तो हिंसा का विचार असम्भव हो जाता है। सूत्र में तो प्रात्मीयता की भावना के माधार पर ही जैनागमों में अहिंसा को व्यापकता अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना की गई है। जो जैन विचारणा में हिंसा का क्षेत्र कितमा व्यापक मोकप्रिन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह है, इसका बोध हमें प्रश्न व्याकरण सूत्र से ही स्वयं अपनी प्रात्मा का भी अपलाप करता। सकता है, जिसमें अहिंसा के निम्न साठ पर्यायइसी अन्ध में मागे पूर्ण-मात्मीयता की भावना को वाची नाम दिये गये हैं27-1. निरिण, 2. निर्वृत्ति परिपुष्ट करते हुए भगवान महावीर कहते है- 3. समाधि 4. शान्ति 5. कीर्ति स. कान्ती 7. प्रेम जिसे तू मारना चाहता वह सू ही है, 8. वैराग्य 9. श्रुतांग 10. तृप्ति 11. दया जिसे तू शासिम करना चाहता है यह तू ही 12. विमुक्ति 13. क्षान्ति 14. सम्यक् पाराधना है और जिसे तू परिताप देना चाहता है वह भी 15. महती 16. बोधि 17. बुद्धि 18 वृति तू ही है । भक्त परिज्ञा में इसी कथन की पुष्टि 19. समृद्धि 20, ऋद्धि 21. वृद्धि 22, स्थिति होती है उसमें लिखा है-किसी भी अन्य प्राणी (धारक) 23. पुष्टि (पोषक) 24. नन्द (मानन्द) की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य । 25. भद्रा 28. विशुद्धि 27. सब्धि 28. विशेष जीवों को दया अपनी ही दया है।
दृष्टि 29. कल्याण 30. मंगल 34. प्रमोद
32. विभूति 33. रक्षा 34. सिद्धावास 35. मना. भगान बुद्ध ने भी अहिंसा के प्राधार के रूप स्वव 36. कैवल्यस्थान 37. शिव 38. समिति में इसी 'मात्मवत सर्व भूतेषु' की भावना को ग्रहण 39. शील 48.संयम 41. शील परिग्रह 42. संवर किया था मूत्र निपात में वे कहते हैं कि जैसा मैं 43. गृप्ति 44. व्यवसाय 45. उत्सव 46. यज्ञ हं वैसे ही ये मब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी 47. पायतन 48. यतन 49. अप्रसाद हैं वसा ही में हू-इस प्रकार अपन समान सब 50. प्राश्वासन 51. विश्वास 62. अभय प्राणियों को समझकर न स्वयं किसी का वध करे 53. सर्व अनाघात (किसी को न मारना) मौर न दूसरों से कराये ।
54. चोक्ष (स्वच्छ) 55. पवित्र 56. शुचि गीता में भी हिंसा की भावना के प्राधार के।
57. पूता 58. विमला 59. प्रभात और रूप में प्रत्मवल सर्वभूतेषु' की उदात्त धारणा ही 60. निमलतर। है। यदि हम गीता को प्रदतवाद की समर्थक माने
इस प्रकार जैन प्राचार दर्शन में अहिंसा शन्द्र तो महिंसा के आधार की दृष्टि से जैन दर्शन और एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थिति होता है, अद्वैतवाद में यह अन्तर हो सकता है कि जहां उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा के ही विभिन्न जैन परम्परा में सभी प्रात्मानों की तात्विक रूप है मोर अहिंसा ही एक मात्र उद्गुण है। समानता के माधार पर प्रहिंसा की प्रतिष्ठा की अहिंसा क्या है? --हिंसा का प्रतिपक्ष गई है वहां अद्वैतवाद विचारणा में तात्विक अभेद अहिंसा है28 यह महिंसा की निषेधात्मक परिभाषा के आधार पर अहिंसा की स्थापना की गई है। है। लेकिन नात्र हिंसा का छोड़ना अहिंसा नहीं कोई भी सिद्धान्त हो, अहिंसा के उदुभाव की दृष्टि है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समप्र पक्षों का से महत्व की बात यही है कि अन्य जीवों के साथ स्पर्श नहीं करती । वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि समानता या अभेद का वास्तविक संवेदन ही महिंसा नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा की भावना का मूल उद्गम है26 | जब व्यक्ति में मात्र बाह्म बनकर रह जाती है, जबकि प्राध्या
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-122 लिकता तो भान्तरिक होती है। हिंसा नहीं करना इन प्रारए शक्तियों का वियोजीकरश कोही यह महिमा का शरीर हो सकता है अहिंसा की द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है। यह हिसा प्रारमा नहीं। किसी को नहीं मारना यह अहिंसा की द्रव्य दृष्टि से की गई परिभाषा है। जोकि के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है । लेकिन यह हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है। मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा भाव हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तक सीमित हिंसा हिंसक कर्म है। भाव हिंसा मानसिक अवस्था रही। जैन प्राचार दर्शन का केन्द्रीय तत्व अहिंसा है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने भावानात्मक पक्ष पर शाब्दिक रूप में यद्यपि नकरात्मक है, लेकिन उसको बल देते हुए हिंसा महिसा की परिभाषा की। अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति उनका कथन है कि रामदि कषायों का प्रभाव सदैव ही विधायक रही है। सर्व के प्रति प्रात्मभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है।' करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से ही हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्वार्थ सूत्र में महिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। हिंसा नहीं मिलती है। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, करना यही मात्र अहिंसा नहीं है । अहिंसा क्रिया अविवेक भावि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने नहीं सत्ता है, वह हमारी प्रास्मा की एक अवस्था वाला प्राण वध हिंसा। है। भास्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और हिंसा के प्रकार-जैन विचारकों ने व्रव्य प्रश्मत्त अवस्था ही अहिंसा है। प्राचार्य भद्रबाहु और भाव इन दो प्राधारों पर हिंसा के चार मोपनियुक्ति में लिखते हैं—पारमार्थिक दृष्टिकोण विभाग किये है-1. मात्र शारीरिक हिंसा से मारमा ही हिंसा है और प्रात्मा ही अहिंसा है; 2. मात्र वैचारिक हिंसा 3. शारीरिक एवं प्रमत्त मात्मा हिंसक है और अभ्रमत्त मात्मा ही नैचारिक हिंसा और 4. शाब्दिक हिना। मात्र प्रहिसक है291
शारीरिक हिंसा-यह ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें द्रव्य एवं नाव हिंसा-अहिंसा को सम्यक हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो लेकिन हिंसा के रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना विचार का प्रभाव हो। उदाहरणाथ सावधानो मावश्यक है कि जैन विचारणा के अनुसार हिंसा पूर्णक चलते हुए भी दृष्टि दोष या सूक्ष्म जन्तु क्या है ? जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर के नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र विचार करती है, एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे वैचारिक हिंसा-यह भाव हिंसा है इसमें हिंसा जैन परिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया की क्रिया तो अनुपस्थित होती है लेकिन हिंसा है । द्रव्य हिंसा के सम्बन्ध में एक स्थूल एवं बाह्य का संकल्प उपस्थित होता है। अर्थात् कर्ता हिता दृष्टिकोण है । यह एक क्रिया है जिसे प्राणाति- के संकल्प से युक्त होता है लेकिन बाह्य परिस्थिति पात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना वश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता जाता है। जैन विचारणा प्रात्मा को अपेक्षाकृत है। जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का रूप से नित्य मानती है अतः हिंसा के द्वारा जिसका विचार (परम्परागत दृष्टि के अनुसार तंदुलमन्छ हनन होता है वह आत्मा नहीं वरन् 'प्राण' है-. एवं कालकोसरिक कसाई के उदाहरण इसके लिए। प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दिये जाते है)। वैचारिक एवं शारीरिक हिसादस माने गये हैं। पांच इन्द्रियों की पांच शक्तियां, जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया. मन, वाणी और शरीर इन का विविध बल तथा दोनों ही उपस्थित हो जैसे सकर पूर्णक की नई श्वसन क्रिया एवं प्रायुष्य, यह वस प्राण हैं और हत्या। शाब्दिक हिता-जिसमें न तो हिंसा कर
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-128
विचार हो और न ईिसा की क्रिया, मात्र हिसक शब्दों का उच्चारण हो जैसे सुधार भावना की दृष्टि से माता पिता का बालकों पर या गुरू का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना । नैतिकता या बधन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमश: शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प रहित मात्र शारीरिक हिंसा, संकल्प रहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मात्र ठोचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प युक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है ।
हिंसा की विभिन्न स्थितियां - वस्तुतः हिंसा की तीन अवस्थाएँ हो सकती है 1. हिंसा की गई हो 2. हिंसा करना पड़ी हो और 3. हिंसा हो गई हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई हो तो वह संकल्प युक्त है और यदि अचेतन रूप से की गई हो तो वह प्रमाद युक्त है। हिंसक क्रिया चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई या प्रमाद के कारण हुई हो तो कर्ता दोषी है । दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु विवशता बश करनी पड़ती है यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है अथवा बाह्य परिस्थिति जन्य यहां भी कर्ता दोषी है, कर्म का बंधन भी होता है लेकिन पाश्चाताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएं स्वयं के द्वारा आरोपित है । बाध्यता के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है । बाध्यताम्रों की स्वीकृति कायरता एवं शरीर-मोह की प्रतीक है । बधन में होना और बंधन को मानना दोनों ही कर्ता की विकृतियां है और जब तक यह यह विकृतियां है - कर्ता स्वयं दोषी है ही । तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के कारण होती है और न विवशता वश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी हो जाती है। जैन विचारणा के अनुस र हिंसा की यह तीसरी स्थिति कर्ता की इष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है ।
हिंसा के विभिन्न रूप - हिंसक कर्म की उपरोक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जावे तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं 1. हिंसा की गई हो और 2. हिंसा करनी पड़ी हो । वे दशाएं जिनमें हिंसा करना पड़ता है दो प्रकार की
1. रक्षणात्मक भौर 2. श्राजीविकात्मक - जिसमें भी दोबातें सम्मिलित है जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग,
जैन भाचार दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार कर्म माने गये हैं-
-
1. संकल्पजा - संकल्प या विचार पूर्वक हिंसा करना । वह श्राक्रमणात्मक हिंसा है ।
2. विरोधजा - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों (अधिकारों) के आरक्षण के लिए विवशता वश हिमा करना। यह आरक्षणारमक हिंसा है ।
3. उद्योगजा - प्राजीविका के उपार्जन प्रथवा उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होने वाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है ।
4. प्रारम्भजा - जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा - जैसे भोजन के पकाने । यह निर्वाहात्मक हिंसा है ।
हिंसा के कारण - जैन आचार्यों ने हिंसा के कारण माने हैं। 1. राग 2. द्वेष 3, कषाय 4. प्रमाद ।
हिंसा के साधन - जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है वे तीन हैं—मन, वचन और शरीर । व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के द्वारा करते हैं ।
क्या पूर्ण श्रहिंसक होना संभव है ? - जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पति ही जीवन युक्त है वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से मरा हुआ है । क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता है ? महाभारत में भी जगत को सूक्ष्म
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-129
जीवों से व्याप्त मानकर यहीं प्रश्न उठाया गया इस प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह है। जल में बहुतेरे जीव है, पृथ्वी पर तथा वृक्षों मानना उचित नहीं है, उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा हुई है .36 इस प्रकार हम देखते हैं कि संकल्प कोई भी मनुष्य नहीं है जो इनमें से किसी को की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति कभी नहीं मारता हो, पुन कितने ही ऐसे सूक्ष्म ही हिंसा अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्व है। प्राणी है जो इन्द्रियों से नहीं मात्र अनुमान से ही परवर्ती जैन साहित्य में भी यह धारणा पुष्ट होती जाने जाते हैं । मनुष्य के पलकों के गिरने से मात्र रही है । प्राचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'साव. ही जिनके कंधे टूट जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। धानी पूर्वक चलने वाले साधक के पैर के नीचे तापर्त्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा भी कभी-कभी कीट, पतंग प्रादि क्षुद्र प्राणी प्रा जा सकता है । 34 प्राचीन युग से ही जैन विचा. जाते है और दबकर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त रकों की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर गई है अोध- हिंमा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्म बन्ध भी नहीं नियुक्ति में प्राचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न के सन्दर्भ बताया गया है, क्योंकि वह मन्तर में सर्वतोभावेन में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, उस हिंसा व्यापार से मिलिप्त होने के कारण जिनेश्वर भगवान का कथन है कि अनेकानेक जीव निष्पाप है। जो विवेकवान मप्रमत्त साधक हृदय समूहों से परिव्याप्त विश्व के साधक का अहिंसकत्व से निष्पाप है और मागमविधि के अनुसार माचरण अन्तर में प्राध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, करता है, उसके द्वारा हो आने वाली हिंसा भी बाह्म हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं 135 कर्म निर्जरा का कारण है लेकिन जो प्रमत्त जैन विचारणा के अनुसार भी बाहय हिंसा से व्यक्ति है उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक शरीर मर जाते हैं वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक तथा शारीरिक क्रियायें हैं तब तक कोई भी होता है। मात्र यही नहीं वरन जो प्राणी नहीं व्यक्ति बाह य दृष्टि से पूर्ण अहिंसक नहीं रह मारे गये हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है क्योंकि सकता।
वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है । इस हिंसा, अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति का प्रकार प्राचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल अन्तर मानस है-हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय दृश्यमान पाप रूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो बाह य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है जितना जाता 140 वह साधक की प्रान्तरिक अवस्था पर प्राधारित है । हिंसा और अहिंसा के विवेक का माधार प्रमुख प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं कि रूप से प्रान्तरिक है । हिंसा विचार में संकल्प की बाहर में प्राणी मरे या जीये प्रयताचारी-प्रमत्त को प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की गई है। अन्दर में हिंसा मिश्चित है। परन्तु जो अहिंसा भगवती सूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संपताचारी है किया गया है । गणधर गौतम, महावीर से प्रश्न उसको बाहर से होने वाली हिंसा से कर्म बन्धन करते हैं -हे भगवान् ! किसी श्रमणोपासक ने नहीं है। ।" प्राचार्य प्रमृतचन्द्र सूरी लिखते ह प्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक पाचारण लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण करते हुए भी यदि प्राणायात हो जाये तो वह हिंसा को हो । यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी हिंसा नहीं है42 | निशीथ चूणि में भी कहा गया का वध हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई ? है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी प्रप्रमत्त
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-130
साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न होने पर इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता मौर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है43 ।
धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है-जो . इस प्रकार हम देखते है कि जैन प्राचार्यो महकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता प्रान्तरिक रहा है। .
हुप्रा भी मारता नहीं है और वह (अपने कर्मों के जैन प्राचार्यों के इस दृष्टिकोण के पीछे जो कारण) बन्धन में नहीं पड़ता'45 1 प्रमुख विचार रहा हुआ है, वह यह है कि व्यव- धम्मपद में भी कहा गया है 'वीततृष्ण व्यक्ति हारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजामों को में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को एव प्रजा-साहत राष्ट्र को मार कर भी, निष्पाप बनाए रखने का प्रयास यह दो ऐसी स्थितयां है होकर जाती है क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर जिनको साथ साथ चलाना संभव नहीं होता है, उठ जाता है) 45 इस प्रकार हम देखते हैं, कि अतः जैन विचारको को अन्त में यहीं स्वीकार हिंसा और हिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का सम्बन्ध चाहरी रागा द भाव ही प्रमुख तथ्य है। घटनामों की अपेक्षा प्रान्तरिक वृत्तियों स है ।
अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा-प्रश्न व्याकरण सूत्र 2/1/21-22 जे मईया, जे प पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहता भगवतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भ्रासंति, एवं पण्णाविति एवं पारुविति-स-वे गाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता, न हत्तव्वा, न अज्जावेयव्वा. न परिधित्तम्बा; न bf यावेयवा, न उद्दे वेयम्वा, एस धम्मे सुढे,
एस धम्मे सुद्ध, निइए, सास ! साम लोय खयाहिं ग्वहए। -प्राचारांग +11121 3. एवं खुणाणिगो सार जण हिमचिन ।
अहिंसा समय चेव एतावत वियारिणया। -सूत्रकृ.ग 1/4/10 तस्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसिय ।
अहिंसा नि उणा दिट्ठा सव्वभू सुसजमो। · दशवे० 63 5. धम्महिमा सम नास्थ । भक्त परिज्ञा 91 6. अन्न वचन दि केवल मुद हृतं शिष्य बाधाय । -पुरुषार्थमिद्योगाय 82 7. सवेगिम-समरा दियमा व मव्व स थांग -ग० प्रा० .20 8. धम सभासतोऽहिंसा वर्ण यन्ति तथागता.. -चतुः1क 9. न तेन लिया होत, येन पण हिंसति ।
असा सव्वाणन, परियो ति पवुमति । -चम्नपर 270 10... जय वेरं पसवति दुःख सेनि पराजितो
उपसन्तो सुखं सेति जयपर जय ।। -पम्माद 201 11. . प्रगुतर निकाय, तीसरा निपात 153 12.. गीता 10/5-7, 16/2, 17/14 . 13. एवं सर्वहिसायं धमिधियते । -महाभारत शान्तिा 245/19
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-131
14. अहिंसाय भूतानां धर्म प्रवचनं कृतम् ।
यः स्यादहिंसासम्पृक्त स धर्म इति निश्चयः। -महाभारत शान्तिपर्व 109/12 16. न हि पत्र युद्ध कर्तव्या विधीयते । -गीता शांकर भाष्य 2/18 18. गीता-शांकर भाष्य 6/32 17 दी भगवद्गीता एण्ड चेंजिंग वर्ड पृष्ठ 122 18. भगवद्गीता-राणाकृष्ण । -पृष्ठ 74-75
Hindu Ethics सब्वे जीवा वि इच्छंतिजीविउन मरिजिज तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्ज्यंतिण-दशवे० 6/11 प्रज्झत्थं सम्वनो सव्वं दिस्स. पाणे पयायए। ण हणे पाणिणो पाणे भयवे राम्रो उवराए ॥ -उत्तरा 6/7 . जे लोग प्रभाइक्खति से अत्ताणं अभाइक्खति । -पाचारांग 13/3 तुमंसि नाम तं चेव जं हन्तव्वं ति मन्नसि, तुमंसि नाम तं चेव जं उज्जावेयव्वति मनसि, तमंसि नाम त चेव जं परियावेयन्वति मनसि । -प्राचारांग 1/5/4 जीवयहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो दया होई । भक्तपरिज्ञा 93
. 25. यथा अह तथा एते, यथा एते तथा अहं ।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्प न घातये । -सुन निपात 3/37/27 । 26. दर्शन और चिन्तन खण्ड 2 पृष्ठ 125
प्रश्न व्याकरण सूत्र 2/21 28. हिंसाए पडिवावो होई अहिंसा --दशव कालिक नियुक्ति 60 295 प्राया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छ पोएसो ।
जो होई अपमतो अहिंसमो इयरो॥ –ोध नियुक्ति 754 30. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं वलं च, उच्छासनि श्वासमथान्यदायुः । प्राणाः दर्शते भगवभिरुक्तान्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा
-अभिधान राजेन्द्र खण्ड 7 पृष्ठ 1228 31. प्रादुर्भाव खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमसंक्षेप ।
-पुरुषार्थ 44 32. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा-तत्वार्थ सूत्र 718 33. अभिधान राजेन्द्र खण्ड 7 पृष्ठ 1231 34. उदके वहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च ।
न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापतान् । सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित् ।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात स्कन्धपर्ययः ।। महाभारन शान्ति पर्व 16/25-26 35. अज्झत्य विसांहीए जीवनिकाएहि संघड़े लोए ।
देसिय-हिंसगंत्त जिणे हिंतिलोयदरिसीहिं ।। -प्रौष० नि० 747
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-132
36, समणोवागस्सणंभंते । पुवामेव तस पाण समारम्भे पच्चखाए भवई, पुढवी- समारम्भे ण
पच्चखाए भवइ, से य पुढवि खरणमाणे अण्णयरं तस पाणंविहिंसेज्जा सेणं भंते तं वयं
प्रतिचरित ? नो इण? सगठे नो खलु से तस प्रइवायाए प्राउट्ठई। -भगवती 7/1 37. उच्चालियंमि पाए, ईरियासमियरस संकमट्ठाए ।
वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज । न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुभोवि देसिजो समए ।
मरणावज्जो उपयोगेण, सव्वभावेण सो जम्हा। -पौधनियुक्ति 748-49 38. जा जयमारणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स ।
सा होई निज्जरफला, अज्झत्थविसोहियुत्तस्स ।। -प्रोधनियुक्ति 759 जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता । वावज्जंते नियमा, तेसि सो हिंसमो होइ॥ जे विन वावज्जनी, नियमा तेसि पि हिंसमो सोउ। सावज्जो उ पमोगेण, सम्व भावेण सो जम्हा ॥ -ोध नियुक्ति 752-53 न य हिंसामेत्तेणं, सावज्जेणापि हिंसनो हाइ। -अोध नियुक्ति 756 मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्सरिणच्छिदा हिंसा।
पयदस्स नत्थि बंधो हिंसामेतेण समिदस्स ।। -प्रवचनसार 3/17 42. युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावरामन्तरेणाऽपि ।
नहिभवति जातु हिंसा प्राण व्यपरोपणादेव ।। -पुरुषार्थसिद्ध युपाय 45 13.
सति पाणातिवाए अप्पमत्तो प्रवह्यो भवति ।
एवं असति पाणातिवाए पम्मत्ताए वहगो भवति ॥ -निशीधचूणि 92 44. देखिए-दर्शन और चिन्तन खण्ड 2 पृष्ठ 414 4b. यस्य नाहंकृतो मावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते । -गीता 18/17 46. मातरं पितरं हन्तवा राजानो द्वे च खत्तिये ।
रळं सानुचरं हन्त्वा प्रनिधो याति ब्राह्मणो। -धम्मपद 29 1
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनदर्शन
में
जीवात्मा
तथा मुकात्मा
डा० प्रमोद कुमार जैन बिजनौर
जैन दर्शन के अनुसार जीव भी एक 'द्रव्य, है । द्रव्य छ: हैं - धर्म, अधर्म, ग्राकाश, पुद्गल, काल प्रोर जीव । इनमें जीव एक 'चेतन द्रव्य' है । चैतन्य ही जीव का लक्षण है । 1 तत्वार्थ सूत्र के अनुसार जीव का लक्षण है - 'उपयोग' | चेतना शक्ति को ही 'उपयोग' कहते हैं । यह उपयोग दो प्रकार का होता है- 'दर्शन' तथा 'ज्ञान' | निर्विकल्प ज्ञान ही 'दर्शन' कहलाता है और सविकल्पक को 'ज्ञान' कहा गया है । 3 ज्ञान के प्रतिरिक्त इच्छा आदि भी जीव के गुण माने गये हैं ।
ये ज्ञान प्रदि, जो जीव के गुण माने गये हैं, जीव से भिन्न हैं या अभिन्न, इस विषय में भारतीयदर्शन में विविध मत मिलते हैं । जैनदर्शन अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के अनुसार बतलाता है। कि ज्ञान आदि न जीव से नितान्त भिन्न है न नितान्त भिन्न ही है । वे किसी प्रकार भिन्न भी हैं और किसी प्रकार से अभिन्न भी हैं । 4 इस प्रकार जैनदर्शन न तो न्याय-वैशेषिक दर्शन के समान 'धर्म-धर्ती' के 'भेद' को ही मानता है और न सांख्य दर्शन के समान 'धर्म-धर्मी' के 'अभेद' को ही । वह तो दोनों का किसी रूप में भेद तथा किसी रूप में प्रभेद मानता है ।
जीव किस परिणाम वाला है ? इस विषय में भी जैनदर्शन की अपनी निजी धारणा है । जबकि प्रायः सभी आत्मवादी दर्शों ने आत्मा को विभु माना है, जनदर्शन का कथन है कि जीव न 'विभु' है और न 'रण' ही । वह जिस शरीर को धारण करता है उसमें अपनी शक्ति से व्याप्त हो जाता है और उस शरीर के परिमाण का ही हो जाता है । वस्तुतः जीव अमूर्त है । भाकाश के समान उसके असंख्य प्रदेश हैं, किन्तु कर्म सम्बन्ध
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-134
के कारण वह शरीर में ही स्थित रहता है। सूखे चमड़े के समान उसके प्रदेशों का संकोचन प्रौर जल में तेल के समान उसके प्रदेशों का विस्तार हो जाया करता है । जैसे दीपक का प्रकाश एक बड़े कक्ष को प्रकाशित करता है, परन्तु एक छोटे सकोरे में भी सीमित हो जाता है, इसी प्रकार जीव की वृत्ति भी बड़े छोटे शरीरों में हो सकती है । यहाँ विरोधियों की ओर से यह प्राक्षे किया जा सकता है कि यदि जीव में संकोच तथा विकास होता है तो वह अनित्य होगा । इस प्रक्षेप का उत्तर देते हुए जनदर्शन में कहा गया है कि अनेकान्तवादी जैन की दृष्टि से इसमें कोई दोष नहीं है। जैनदर्शन तो यह स्वीकार करता ही है कि प्रदेश संहार' और 'प्रदेश विकास' की दृष्टि से जीव प्रनित्य है ही इस प्रकार जनदर्शन में दृष्टिकोण के भेद से प्रात्मा की नित्यता तथा अनित्यता दोनों स्वीकार की गई है ।
जीव अनन्त माने गये हैं जो समस्त विश्व में फैले हुये हैं । संक्षेप में जीव दो प्रकार के होते हैं(1) ससारी और (2) प्रसंसारी (मुक्त) | जो एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते हैं वे संसारी जीव है । संसारी जीव भी दो प्रकार के हैं— ( 1 ) संज्ञायुक्त (समनस्क) और (2) संज्ञः रहित (ग्रमनस्क) संज्ञा का अर्थ है - शिक्षा, क्रिया तथा बातचीत को समझना अथवा सद् असद् का विवेक। इस प्रकार की संज्ञा मनुष्य आदि में होती है अतः मनुष्य गन्धर्व आदि संज्ञायुक्त जीव कहलाते हैं । संज्ञारहित जीव भी दो प्रकार के होते हैं - ( 1 ) त्रस भोर (2) स्थावर । दो इन्द्रियों श्रर्थात् स्वर्शन तथा रसना वाले शंख श्रादि, तीन इन्द्रियों अर्थात् स्पर्शन, रसना और घ्राण वाले चींटी आदि; चार इन्द्रियों अर्थात् चक्षु सहित उक्त तीन इन्द्रियों वाले मच्छर आदि; और पांच इन्द्रियों अर्थात् श्रोत्र सहित उक्त चार इन्द्रियों वाले पशु श्रादि जीव 'स' के अन्तर्गत प्राते हैं । 'स्थावर' के अन्तर्गत वे जीव नाते हैं जिन्होंने
1
पृथिवी, जल, तेज और वायु को शरीर रूप में धारण किया है जैसे वृक्ष - लता प्रादि । ये 'स्थावर जीव' पांच प्रकार के होते हैं इन जीवों की केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है । इस प्रकार सभी जीवों को 9 वर्गों में रखा गया है ।
.
संसारी जीव कर्म के कारण ही एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है; क्योंकि वह शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता भी है और उनके फल का भोक्ता भी है। जीवात्मा श्रौर कर्म का प्रनादि सम्बन्ध है । कर्म से ही जीवात्म का बन्ध होता है । प्राचार्य उमास्वाति का कथन है 'जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहरण कर लेता है, यही बन्ध है' 17 यहाँ कषाय का तात्पर्य क्रोध प्रादि मनोभाव है । कषाय शब्द का उल्लेख करके श्राचार्य ने बन्ध के सभी हेतुम को सूचित कर दिया है । आचार्य के अनुसार बन्ध के पाँच हेतु हैं - ( 1 ) मिथ्यादर्शन, (2) प्रबिरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग 8 ये
हेतु मिलकर बन्ध के निमित्त हुआ करते हैं । किन्तु कहीं-कहीं इनमें से किसी एक या दो को ही मुख्य रूप से बन्ध का कारण माना गया है 18 'मिथ्यादर्शन' का अर्थ है -- तत्व पर श्रद्धा न रखना या जैन तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट तत्वों में श्रद्धा न रखना। हिंसा आदि दोनों से विरति न होना तथा इन्द्रियों का संयम न करना 'अविरति' है । कुशल कार्यों के प्रति श्रादर न रखना तथा कर्त्तव्यों में सावधान न रहना 'प्रमाद' है । क्रोध, मान, माया और लोभ प्रादि 'कषाय' कहलाते हैं । मन, वचन और शरीर के द्वारा जीवात्मा के प्रदेशों में जो क्रिया होती है । उसे योग कहते हैं यही 'प्रास्रव' कहलाता है । इसके द्वारा कर्म पुद्गलों का जीवात्मा से सम्बन्ध होता है । इस प्रकार के 'मानव' से कर्म पुद्गल भाकर्षित होकर, जिस प्रकार पवन से उड़कर भीगे चमड़े पर पड़ी हुई धूल उसके साथ चिपक जाती है उसी प्रकार, 'कषाय' के कारण कर्म जीवात्मा में जुड़ जाते हैं भोर 'वीर'
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षीरवत्' जीवात्मा के साथ घुलमिल जाते हैं । इस धनिष्ठ सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं । 19
मिथ्यादर्शन भादि जो कर्मबन्ध के हेतु हैं उनका निरोध विरोधी गुरणों से ही हो सकता है । इसलिये मोक्ष के मार्ग का उपदेश देते हुए प्राचार्य उमास्वाति ने बतलाया है कि 'सम्यग्दर्शन' 'सम्यग्ज्ञान' और 'सम्यक् चारित्र' मोक्ष का मार्ग है । 11 प्राचार्य उमास्वाति ने इनकी विशद व्याख्या की है । संक्षेप में तत्वार्थ के प्रति श्रद्धा होना 'सम्यग्दर्शन' कहलाता है। जैन दर्शन के अनुसार जो जीव, प्रजीव आदि सात तत्व है उनके प्रति श्रद्धा रखना ही 'सम्यग्दर्शन' है 12 यह कुछ व्यक्तियों में स्वाभाविक होता है किन्तु कुछ व्यक्तियों में गुरु के उपदेश से ही उत्पन्न होता है 113 सम्यग्दर्शन तत्व वस्तु को जानने का प्रथम साधन है । तत्वार्थ के प्रति श्रद्धा होने अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति तत्व के सम्यग्ज्ञान के लिये प्रयास करता है। जीव, प्रजीव मादि सात तत्वों को भली भाँति जान लेना ही सम्यग्ज्ञान है । 14 इस सम्यग्ज्ञान का जैनदर्शन के ग्रन्थों में प्रत्यन्त विस्तृत विवेचन किया गया है और इसके अनेक भेद प्रभेदों का निरूपण किया गया है । सर्वदर्शन संग्रह में भी इसका संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट विवेचन है 25 सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करके साधक पापकर्मों से दूर रहता है और परहित साधन प्रादि कर्मों का धाचरण करत है। यही सम्यक्चत्रि है। विध ग्रम में इसकी व्याख्या की गई है ग्रहिस भादि व्रतों के भेद स यह पांच प्रकार का है - ( 1 ) महिसा (2) सूनृत प्रर्थात् सत्य और प्रिय वचन, ( 3 ), प्रस्तेय, ( 4 ) ब्रह्मचर्य और (1) अपरिग्रह | सम्यक् चारित्र का विशद निरूपण करके जैन दर्शन. में चारित्र पर विशेष बल दिया गया है। फिर भी जनदर्शन के अनुसार 'सम्यग्दर्शन', 'सम्यग्ज्ञान', मौर 'सम्यक् चारित्र' तीनों मिलकर ही मोक्ष के साधन होते है पृथक-पृथक नहीं 117
सम्यग्दर्शन मादि के द्वारा मिथ्यादर्शन आदि
1-135
का निरोध हो जाता है इस प्रकार बन्ध के हेतुओं प्रर्थात् श्रास्रव का निरोध होने से प्रात्मा में कर्मपुद्गलों का प्रविष्ट होना रुक जाता है। इसी को जैनदर्शन में 'संवर नाम से कहा गया है 127 संवर के अनेक अवान्तर भेद भी माने गये हैं । 18 जब संवर के द्वारा श्रात्मा में नये कर्मो का आना रुक जाता है तब साधक तप श्रादि के द्वारा पूर्व अर्जित कर्मों को नष्ट कर देता है। इसे ही 'निर्जरा कहते हैं । निर्जरा नामक तत्व का भी जैन ग्रन्थों में विशद वर्णन मिलता है । इस प्रकार संवर और निर्जरा के द्वारा जीवात्मा कर्मबन्धन से छूट जाता तथा मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । मोक्ष का अर्थ है सभी कर्मों का क्षय । यह शंका हो सकती है कि कर्मबन्ध की परम्परा तो अनादि है अत: इस प्रकार तो उसका प्रन्त ही नहीं होगा ? इसका समाधान करते हुए प्राचार्य भक्लक देव ने बतलाया कि जिस प्रकार बीज और अंकुर की परम्परा अनादि है किन्तु यदि किसी बीज को अग्नि से जला दिया जाता है ता फिर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता मोर इस प्रकार बीजाकुर की परम्परा का नाश हो जाता है । इसी प्रकार क. मंबन्ध का बीज जो मिथ्यादर्शन आदि है, उसका नाश कर देने पर फिर कर्मबन्ध नहीं होता है 118
समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर मुक्तात्मा ऊर्ध्वगमन करता है। 20 वह ऊपर की भोर ही क्यों जाता है, इस विश्लेषण करते हुए जंनदर्शन में ऊर्ध्वगमन के चार हेतु प्र: 21 का निरूपण किया गया है
-
(1) पूर्व प्रयत्न आदि के संकार से जिस प्रक र दण्ड से घुमाया गया कुम्म्वार वा चक्र दण्ड की क्रिया के बन्द हो जाने पर भी उसी क्रिया के बल से उसके संस्कार के क्षीण होन तक घूमता ही रहता है, उसी प्रकार संसार में स्थित जीवात्मा ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये जो कर्म श्रादि किये हैं, उन कर्म आदि के न रहने पर भी उसके संस्कार से मुक्तात्मा लोकान्त तक ऊपर जाता रहता है 28
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-156 । (2) संगरहित हो जाने से-जैसे मिट्टी के से परे 'धर्मास्तिकाय तो रहता नहीं अतः मुक्तात्मा लेप से भारी हा तुम्बा पानी में डूब जाता है का मौर ऊपर गमन नहीं होता है ।28 किन्तु मिट्टी का लेप धुल जाने पर वह ऊपर प्रा इस लोकाकाश के अन्त पर्यन्त पहुंचकर ही जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा कर्मभार से संसार मुक्तात्मा की गति रुक जाती है। इस मुक्तावस्था से मग्न रहता है किन्तु जब कर्मों के संग से मुक्त में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से शरीर, इन्द्रिय हो जाता है तो ऊप” की ओर गमन करता है ।23। तथा मन का वहां सर्वथा अभाव ही हो जाता है । (3) बन्धन का नाश हो जाने से-जिस
इससे जो सुख निर्बन्धन, निरुपाधि मुक्तात्मा अनु
भव करता है वह अनिवंचनीय, अनुपमेय तथा प्रकार ऊपर का छिलका हट जाने पर एरण्ड का
अचिन्त्य है । उस स्वभाव सिद्ध परमसुख के सम्मुख बीज ऊ र को छिटक ज ता है. उसी प्रकार कर्म का बन्धन छूट जाने से मुक्तात्म' की स्वाभाविक
त्रिलोक का समस्त मानन्द बिल्कुल नगण्य सा
है। ऊर्ध्वाति होती है 124
श्री प्रकलंकदेव ने इस मुक्तावस्था का बड़ा ही .. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 'संग' तथा
आलंकारिक वर्णन किया है-लोक शिखर पर 'बन्ध' में अन्तर है। जब जीवात्मा के प्रदेशों में
अतिशय मनोज्ञा तन्वी सुरभि पुण्या भोर अत्यन्त कर्मपुद्गल अविभक्त रूप से अर्थात् नीरक्षीरवत्
दीप्तिवाली प्रारभारा नाम की भूमि है ।30 यह घुल मिल जाते हैं तब जीव का बन्ध कहलाता है,
मनुष्य लोक के समान विस्तारवाली, शुभ और किन्तु जीवात्मा और कर्म का केवल सम्पर्क होना
शुक्ल छत्र के समान है । लोकान्त में इस भूमि पर संग कहा गया है ।
सिद्ध विराजमान होते हैं 181 वे 'केवलज्ञान', (4) ऊपर को जाने के स्वभाव के कारण- 'केवलदर्शन', सम्यक्त्व पौर सिद्धत्व से युक्त होते जिस प्रकार तिरछी बहने व ली आयु के न रहने हैं, तथा क्रिया का निमित्त न रहने से निष्क्रिय पर दीपशिखा स्वभाव से ऊपर को जलती है, उसी होते हैं। प्रकार मुक्तात्मा भी अनेक प्रकार की गतियों को इन सिद्धों का अनश्वर, अबाधित तथा विषयाउत्पन्न करने वाले कर्मों का निर्वाण हो जाने पर तीत सुख प्राप्त होता है ।93 यदि कोई प्रश्न करे स्वभाव से ऊपर को ही जाता है। 26
कि मुक्तों को सुख कैसे हो सकता है ?34 तो उत्तर इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन विचार धारा है कि 'सुख' शब्द का प्रयोग चार अर्थों में देखा के अनुसार मुक्तात्मा ऊपर को ही जाता है, किन्तु जाता है-1. विषय, 2. दुःखाभाव, 3. सुखानुउसके ऊपर को जाने की सीमा लोकाकाश है। भूति तथा 4. मोल 135 प्राकाश दो प्रकार का होता है-(1) लोकाकाश (1) 'भग्नि सुखकर है' या 'वायु सुखकर है' और (2) अलोकाकाश 'लोकाकाश' में 'लोक' इत्यादि में 'सुख' शब्द 'विषय' के अर्थ में है। . शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। (2) रोग मादि दुःखों के प्रभाव में जो सक्षेप में जहां पुण्य पाप का फल भोगा जाता है मनुष्य कहता है 'मैं सुखी हूं' वहां 'सुख' शब्द वह लोक है 17 इसी लोक का आकाश, लोकाकाश दुःखाभाव के अर्थ में है। हैं। इससे परे अलोकाकाश है : मुक्तात्मा लोका. (3) पुण्य कर्मों के विपाक से इन्द्रियों के काश के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है, इससे पागे द्वारा विषयों में अनुकूलता की प्रतीति होती है । वह गति नहीं करता। मुक्तात्मा की ऊर्ध्वगति में उसे भी 'सुख' कहा जाता है। वहां 'सुख' शब्द धर्म भी निमित हुमा करता है, किन्तु लोकाकाश 'सुखानुभूति' के लिये है।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-137
(4) चतुर्थ 'सुख' 'मोक्षरूपी सुख' है, जो कर्म इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार मुक्तात्मा पौर क्लेशों के छूट जाने से होता है। वह अनुपम 'अनन्तचतुष्टय' को प्राप्त कर लेता है। वह सुख है ।37 समस्त संसार में ऐसा कोई सुख नहीं है 'अनन्तज्ञान', 'अनन्तदर्शन', 'अनन्तवीर्य' तथा जिससे उस सुख की उपमा दी जाये ।39 उसे अनु- 'अनन्तसुख' से युक्त होता है। सर्वदर्शनसंग्रह में मान पोर उपमान प्रमाणों से नहीं जाना जा सकता प्राचार्य पद्मनन्दी का उद्धरण देते हुए यह भी कहा है। भगवान् अर्हतों के द्वारा उस सुख का प्रत्यक्ष गया है, "चन्द्र, सूर्य प्रादि ग्रह तो जा-जाकर लौट किया जाता है और उनके उपदेश द्वारा ही उस पाते हैं, किन्तु लोक से परे जो आकाश है उसमें सुख को समझा जा सकता है 40
गये हुए मुक्तात्मा आज तक नहीं लौटे।"41
28.
.
1. चेतनालक्षणो जोवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 177 2. उपयोगो लक्षणम् । तत्वा. सू. 2/8 3. स उपयोगो द्विविधः स कारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः । तत्वा. भा. 213 *4. ज्ञाना भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्न कथंचन । सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० 148 .
प्रदेशसंहारविसभ्यिां प्रदीपवत् । तत्वा. स. 5116 6. तत्र जीवा द्विविधाः, संसारिणो मुक्ताश्च । भवाद्भवान्तरप्राप्तिमन्तः संसारिणः । ते च
द्विविधाः-समनस्का, अमनस्काश्च । तत्र संज्ञिनः समनस्काः । शिक्षाक्रियालापग्रहणरूपा संज्ञा । तद्विधुरास्त्वमनस्काः । ते चामनस्का द्विविधाः, बसस्थावरभेदात् । तत्र द्वीन्द्रियादयः शंखगण्डोलकप्रभृतयः चतुर्विधास्त्रसाः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः सर्व । दर्शन संग्रह,
पृष्ठ 150 67.
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः । तत्वा. सु. 8/2 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोग वन्धहेतवा । तत्वा. स. 8/1
श्री न्यायविजयः जैन दर्शन, पृ० 39 10. श्री न्यायविजय : जैनदर्शन, पृ० 38 11.
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्वा. सू. 1/1 तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वही, 1/2 तन्निसर्गादधिगमाद्वा । वही, 1/3 जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् । वही, 1/4
सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० 136-140 46.
एतानि सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मिलितानि मोक्षकारणं न प्रत्येकम् । वही, पृ० 142 17.
मास्रवनिरोधः संवरः । तत्वा. सू. 9/1 118. तत्वा. स. 9/4 तथा प्रागे 19. दग्धे बीजे यथात्यंतं प्रादुर्भवति नोकुर।।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥ तत्वा. वा. 10/2/3 तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । तत्वा, सू. 10/5
पूर्व प्रमोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च गद्गति । वही, 10/6 12. पूर्वप्रयोगात् । यथा हस्तदण्डचक्रसंयुक्तमयोगात्पुरुषप्रयत्नतश्चाविद्ध कुलालचक्रमुपरतेष्वपि
पुरुषप्रयत्नहस्तदण्डचक्रसंयोगेषु पूर्वप्रयोगादभ्रमत्येवासंस्कारपरिक्षयात एवं यःपूर्वकस्य कर्मणा प्रयोगो जनितः स क्षीऽपि कर्मारिण-गतिहेतुर्भवति । तत्कृता गतिः तत्वा० भा० 10/6
20.
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-138
23. - यथा मृत्तिकालेपजनितगौरवमलाबुद्रव्य जलेष:पतितं जलक्लेदविश्लिष्टमृत्तिकाबन्धनं लधु
सर्वमेव गच्छति तथा कमभार क्रान्तिवशीकृत प्रात्मा तदावेशवशात्संसारे अनियमन गच्छति ।
पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, पृ० 470 24. यथा बीजको शवन्ध छेदादेरर बीजस्य गतिष्टा तथा मनुष्यादिभवप्रापकगतिजातिनामादि.
सकल कर्मबन्धच्छेदान्मुक्तस्य उर्ध्वगतिरवसीयते । वही, पृ० 470 ___ अन्योन्य प्रादेशानु वेशे सत्यविभागेनावस्थानं बन्धः । परस्परप्राप्तिमात्र संग । सर्वदर्शनसंग्रह,
पृ. 168 यथा तियंप्लवनस्वभावसमीरणसम्बन्धनिरुत्सुका प्रदीपशिखा स्वभावादुत्पतति तथा मुक्तात्माऽपि नानातिविकारवारणकर्मनिरिणे सत्यूर्ध्वगतिस्वभावादूर्ध्वमेवारोहति । पूज्यपादः सर्वार्थसिदि,
पृ. 471 _पुण्य पयोः कर्मणो फल सुखदु खलक्षणं यत्रालोक्यते स लोकः । तत्वा. वा. 5/12/10
गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि, पृ०471 श्रीन्यायविजयः जैन दर्शन, पृ० 44 तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभासुरा ।
प्राग्भांरानामवसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता ।। तत्वा. वा., उपसंहारश्लोक 19 31. त्रिलोकतुल्यविष्कंभा सितच्छत्रनिभा शुभा।
ऊर्ध्व तस्याः क्षिते। सिद्धा। लोकान्ते समवस्थिताः । वही; श्लोक 20 तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञानदर्शन ।
सम्यक्त्वसिद्धतावस्थाः हेत्वभावाच्च निष्क्रियाः ॥ वही, श्लोक 23 33. संसारविबयातीत सिद्धानामव्यय सुख ।
अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं प मषिभिः । वही, श्लोक 23 वही, श्लोक 24 लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ।। वहीं, श्लोक 25 सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ।। तत्वाः वा. उपसंहार श्लोक 26 पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेंद्रिय थंज। कर्मक्लेशविमोक्षाच्च मोक्षे सुखमनुप्तमं । वही श्लोक 27 लोके तत्सदृशोह्यर्थः कृत्स्ने : य यो न विद्यते । उपमीयेत तयेन तस्मान्निरूप स्मृतं । वही, श्लोक 30
ही, श्लोक 31 40. प्रत्यक्षं तद्भगवतामहंतां तः प्रभाषितं ।
गृह्यतेऽस्तीत्यत: प्राजने उद्मम्थपनीक्षया । वही, श्लोक 22 गत्वा ग-वा निवतन्ते चन्द्र सूर्या यो पहाः। अद्यापि न निवर्तन्ते स्वलोकाकाशाता: ।। सर्वदर्श संग्रह, पृ. 168
3
4.
7.
39.
की
1.
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
धनुमान श्रौर उसके प्रकार
साध्वी श्री कनकप्रभाजी
प्रत्येक दर्शन परम्परा काल और नई स्थापना इन दो दृष्टियों से अपना महत्व अभिव्यंजित करती है ! काल की प्राचीनता का जितना महत्व है उससे भी अधिक महत्व है नई स्थापनाओं का । कालक्रम की दृष्टि से जैन न्याय को अर्वाचीन माना जाता है, इसी लिए जैन न्याय प्रणेताओं के सामने यह समस्या आई कि वे नौ या सात सौ वर्षों बाद जिस न्याय के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, वहां नई देन दें या पूर्व दार्शनिकों का अनुकरण करें अन्यथा उनके विचारों को प्रादर मिलना मुश्किल है ।
दार्शनिक क्षेत्र में जैन, बौद्ध भोर वैदिक तीनों ने अपनी स्वतंत्र रचनाएं प्रस्तुत की हैं। उन रचनाओं में किसने किसका अनुकरण किया, यह तथ्य आज भी विवादास्पद है । जैन दर्शन का मूल स्रोत भगवान ऋषभ हैं, जो इतिहास की प्रांखों से श्रोभल । वर्तमान में उपलब्ध सामग्री पर भगवान् महावीर का प्रभाव है । भगवती, स्थानांग और अनुयोगद्वार में न्याय विषयक विकीर्णं तथ्य पाए जाते हैं ।
स्वतंत्र ग्रन्थना की दृष्टि से वैदिक साहित्य का काल लम्बा है । ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में 'गौतम' 'करणाद' श्रादि ने न्याय सूत्र, वैशेषिक सूत्र, वेदान्त सूत्र और ब्रह्मसूत्र का प्रणयन किया । ई० पू० चौथी शताब्दी में बौद्ध परम्परा के प्राचार्य दिग्नाथ ने 'प्रमाण समुच्चय' की रचना की प्रौर जैन परम्परा में ईसा की तीसरी शताब्दी में उमास्वाति ने 'तत्वार्थ सूत्र' को अभिव्यक्ति दी । गोतम उमास्वाति के बीच में नौ सौ वर्षों का अन्तर पड़ जाता है । इस दृष्टि से जैन न्याय का उद्भव भले ही बाद में माना जाए लेकिन मूल तत्व जैन दर्शन की श्रादि से ही जुड़े हुए हैं ।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-140
कई दार्शनिकों का मत है कि जैन न्याय ने संसार को नवीनता नहीं दी । डा० कीथ ने लिखा है— जैन दर्शन का विकास न होने का मूल कारण है उसका प्राचीनता पर विश्वास । मूल रूप में जो तत्व मिले उनमें किसी भी प्रकार का संशोधन न होने से जैन न्याय प्राज भी पिछड़ा हुआ है ।'
लेकिन इस तथ्य में पूर्ण सत्यता प्रतीत नहीं होती । स्याद्वाद और नयवाद को अधार मानकर जैन आचार्यों ने जो कुछ लिखा, वह मौलिक चिन्तन दूसरे दर्शनों में नहीं मिलता। इस न्याय शैली का उल्लेख श्रागमों में स्पष्ट हो जाता है पर स्वतंत्र ग्रन्थ रचना सिद्धसेन और समन्तभद्र ( पांचवीं छठी शताब्दी) द्वारा की गई है। जिनके ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्र की भांति श्वेताम्बर मोर बिगम्बर दोनों को मान्य है ।
श्राचार्य सिद्धसेन ने अपनी कृति न्यायवतार में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण रखकर जैन न्याय को नया मोड़ दिया है । इससे पहले प्रमारण के मति श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच भेद किए जाते थे ।
न्यायशास्त्र में अनुमान एक प्रारणवान तत्व है । खण्डन मण्डन व्याप्ति का जो मूल्य है वह किसी भी दृष्टि से न्यून नहीं है। किसी भी पदार्थ का एक देशीय ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है, लेकिन सर्वागीण जानकारी के लिए अनुमान को आधार मानना पड़ता है । जैसे एक श्वेत वस्त्र है, वस्त्र का श्वेत रंग हमारी आंखों के सामने है । लेकिन जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक दृश्य पदार्थ में पाँच वर्ण होते हैं । प्रतः उस वस्त्र के अन्य वर्णं अनुमान गम्य हैं ।
'साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्' अनुमान की इस परिभाषा में दार्शनिकों का मतभेद नहीं है लेकिन इसकी प्रामाणिकता और भेद-प्रभेदों में प्रन्तर पड़ता है । बौद्ध अनुमान को वास्तविक
प्रमाण नहीं मानते किन्तु प्रत्यक्ष का निर्वाहक मानते हैं । नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक ये अनुमान को प्रत्यक्ष की तरह ही स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं । जैन दर्शन ने प्रमाण के मुख्य दो भेद किए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष के प्रकारों अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है ।
नैयायिकों ने अनुमान के तीन भेद माने हैंपूर्ववत् शेषवत् भौर सामान्यतो दृष्ट |
1- पूर्ववत् -
कारण से कार्य का ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है। जैसे- भ्रमर, भैंसा, हाथी (सर्प) और तमाल वृक्ष की तरह काली प्राभा वाले मेघ वृष्टि के सूचक हैं। यहां मेघों को कालिमा कारण है और वर्षा कार्य है ।
2- शेषवत् -
कार्य से कारण को जानना शेषवत् अनुमान है । 2 जैसे नदी के विशेष प्रवाह रूप कार्य को देखकर वृष्टि का ज्ञान करना । वृष्टि नदी पूर का कारण है तथा प्रवाह विशेष से जाना जाता है ।
3 - सामान्यतो दृष्ट -
पूर्व दृष्ट समान धर्म से किसी अप्रत्यक्ष तथ्य को जानना । 3 जैसे – पुरुष एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता तो गा करता है । वैसे ही सूर्य भी प्रकाश में इस छोर से उस छोर तक पहुंच जाता है । वह गति सापेक्ष है । यद्यपि उसकी गमनक्रिया पुरुष के गमन की तरह व्यक्त नहीं है तो भी सामान्यत: देखी हुई बात में विपर्यय नहीं होता । अतः सूर्य भी गति करता है ।
जैन न्याय ने अनुमान परिवार में स्वार्थ मोर परार्थये दो भेद तो किए ही हैं, इनके अतिरिक्त तीन भेद फिर माने हैं । पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्ट साधर्म । इनमें पहले दोनों भेद नैयायिकों से शब्द
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
साम्य रखते हैं पर अर्थ में एक रूपता नहीं रही पौर तीसरे भेद में तो नाम साम्य भी नहीं है ।
अनुयोगद्वार के आधार पर इनकी व्याख्या इस प्रकार होती है :
1- पूर्ववत्
में
बचपन में कहीं खोए हुए पुत्र को युवावस्था प्राप्त होने पर किसी चिन्ह के द्वारा माता उसे पहचान लेती है ।" उसे पूर्ववत् कहते हैं । जैसे किसी क्षत, वरण, लक्षण, मश या तिल को देखकर निर्णय कर लेना कि यह मेरा ही पुत्र है । 2- - शेषवत्
शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का है, कार्य, कारण, गुरण, अवयव श्रौर आश्रय |
1. कार्य से कारण का अनुमान - शब्द सुनकर शंख का अनुमान करना, हिनहिनाने से घोड़े का ज्ञान करना ।
2. कारण से कार्य का ज्ञान-तन्तुओं से पट का ज्ञान करना, मिट्टी से घड़े का ज्ञान करना और काले बादलों से वर्षा का मनुमान करना ।
J
3. गुण से गुणी का अनुमान — निकष पर कसने से सोने का ज्ञान करना और गन्ध से फूलों का ज्ञान करना ।
4. अवयव से अवयवी का ज्ञान-श्रृंग से महिष का ज्ञान करना, विषारण से हाथी का, नखों से व्याघ्र का धौर वालाग्र से चमरी गो का ज्ञान करना ।
6. श्राश्रय से श्राश्रयी का अनुमान - धूम से for का बोध करना, प्रभ्रविकार से वर्षा का अनुमान लगाना मौर शील गुण तथा सदाचार से सुपुत्र का बोध करता ।
4-141
3- बुष्ट साधर्म्य
पूर्व उपलब्ध अर्थ के साधर्म्य से वर्तमान में किसी को जानना । इसके दो भेद हैं । सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट |
1. सामान्य दृष्ट - एक पुरुष को देखकर श्रनेक पुरुषों का ज्ञान करना और अनेक पुरुषों के साधर्म्य से एक पुरुष को जानना । 7.
2. विशेष दृष्ट - किसी पूर्व दृष्ट पुरुष को परिषद् के बीच में पहचान लेना । बहुत से रुपयों में पूर्व परिचित कार्षापण को पहचान लेना ।
अनुमान का ग्रहरण तीन प्रकार से होता हैअतीत काल ग्रहरण, वर्तमान काल ग्रहण और भविष्य काल ग्रहण
-----
1. अतीत काल ग्रहण - उगे हुए तृणों को देखकर कहना वृष्टि हुई थी, शस्य श्यामला पृथ्वी मोर जल परिपूर्ण सरोवर वृष्टि के कार्य हैं ।
2: वर्तमान काल ग्रहण - गोचरी के लिए गया हुआ मुनि गृहस्थों द्वारा विशेष भोजन, पानी आदि का आग्रह देखकर सोचता है, अभी सुभिक्ष्य है।
3. अनागत
काल ग्रहण - सविद्यत मेघ आदि प्रशस्त हेतुनों को देख कर कहना वृष्टि होगी ।
इनके विपर्यास में निस्तृण पृथ्वी और शुष्क प्रवृष्टि, भिक्षा सुलभ न होने पर दुर्भिक्ष सरों से और स्वच्छ प्रकाश से भविष्य में वृष्टि नहीं होगी ऐसा अनुमान किया जाता है ।
इस विवेचन से लगता है कि अनुमान का यह अपूर्व रूप जैनों का अपना दृष्टिकोण है । नैयायिकों ने अनुमान के जो तीन भेद किए हैं, वे इसी विश्लेषरण का संक्षेपीकररण है । क्योंकि उन तीनों
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-142
ही प्रकारों मैं कोई नवीनता नहीं है। जैन अनुमान के विवेचन से अपना पार्थक्य बताने के लिए प्रथ में थोड़ा सा भेद डाला गया है। इसी तरह प्रौर तथ्य भी मिल सकते हैं जो जैन न्याय की मौलिकता
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
को प्रकाश में ला सके, लेकिन वे सब प्रन्वेषल मांगते हैं ।
प्रन्वेषक इस दिशा में प्रयास करें तो संसार को नई देन दे सकते हैं ।
षड्दर्शन, श्लोक 20 :
शेलम्ब गवल व्याल तमाल मलिन त्विषः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायः पयोमुचः ॥ वही, श्लोक 21 :
कार्यात् कारणानुमानं यच्च तच्छेषवन्मतं । तथाविध नदी पूरान्मेघो वृष्टो पयरि ।
वही, श्लोक 22 :
धनुयोगद्वार, पृ० 195 से किं तं प्रमाणे ? तिविहे पण्णत्ते तंज हा पुण्ववं सेववं दिट्ठ
साहमवं । सू, 619
अनुयोगद्वार अनुमानाधिकार, पृ० 195, सू. 520
माया पुत्तं जहां निट्ठ जुवाणं पुणरागयं
कई पच्चभिजाणेज्जा पुव्व लिगेरा केई ||
वही, पृ० 195 : से कि तं सेसवं तंजहा कज्जेरण, कारणेणं गुणेण । सू. 521 अनुयोगद्वार, पृ० 198 : जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुषिसा । सू. 528
वही,
से जहां गामए केई पुरिसे कंचि परिसं बहूणं ।
पुरिसारणं मज्झे पुर्वादिहं पुरिसं वच्चामिज नेज्जा सू. 429
वही, : तस्स समासभो तिविहं गहरणं भवद, तंजहा - प्रतीय काल गहरणं पडुप्पटणकाल गहण भरणाय काल गहणं । सू. 30
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाश्चात्य भौतिकवाद भोर उसके विनाशकारी परिणाम
बर्तमान चरित्र संकट का कारण भौतिकवाद को बताते हुए माध्यात्मवाद को अपनाने व विज्ञान का प्राध्यात्मवाद के साथ समन्वय करने का उपदेश हम धार्मिक तथा राजनैतिक नेतामों से बहुधा सुनते रहते हैं परन्तु उस उपदेश का प्रभाव कुछ नहीं हो रहा पौर चरित्र सकट की समस्या अधिकाधिक विकट होती जा रही है।
भौतिकवाद क्या है-यह मान्यता कि हम अपने भौतिक सुख साधनों को जितना अधिक चढ़ावेंगे, उतने ही अधिक सुखी होंगे, भौतिकवाद है। परन्तु भूमि भोर उत्पादन के साधन परिमित हैं और जनसख्या वृद्धि रोकने के सब प्रयत्न करने पर भी प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मालथस के सिवांत के अनुसार वह ज्यामितिक वृद्धि के नियमानुसार बढ़ती ही जा रही है, उत्पादन, उसकी वदि के सब प्रयत्न करने पर भो. जनसंख्या वृद्धि की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। संयुक्तराष्ट्रसंघ के खाद्य और कृषि संगठन के महा संचालक के कथनानुसार अभी भी ससार के दो तिहाई या प्राधे लोंग या तो भूखे रहते हैं या उन्हें ऐसा भोजन मिलता है कि जिससे ठीक पोषण नहीं मिलता। इस प्रकार भौतिकवाद संसार की समग्र जनसंख्या की भूख मिटाने तक में असफल रहा है मौर विश्वशांति का एक मात्र उपाय यही है कि सुख साधनों के बढ़ाने की तृष्णा न रखकर सब संयम से रहें और जो भी उत्पादन हो उसे सब बांट-बांट कर कर लें क्योंकि लोगों में संयम की भावना पैदा कर उनकी तृष्णा को रोक नहीं लगाई जावे तो उत्पादन कितना भी बढ़ा दिया जाये वह सब लोगों की सम्मिलित तृणा की कभी भी पूर्ति नहीं कर सकता और उसका
-श्री बिरषीलाल सेठी
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-144
परिणाम हमारे सामने है--विश्वव्यापी चरित्र में होड़ पैदा कर दी कि रहन-सहन का स्तर संकट, मुख प्रौर मशांति ।
कंचा करो, पावश्यकताओं को खूब बढ़ानो चाहे पाश्चात्य भौतिकवाद ने क्या किया- उसके लिए तुम्हारे देश को हमसे कितनी भी यों तो भौतिकवाद संसार में सुख शांति की उधार लेनी पड़े। तभी तुम्हारी गरीबी दूर हुई स्थापना में सदा ही असफल रहा है परन्तु पुराने मानी जावेगी और तुम सभ्य कहला सकोगे । समय में इसका क्षेत्र इने-गिने राजा महाराजामों अस्तु समाज में भौतिक सुख साधन बढ़ाने की प्रादि तक ही सीमित था अतः उस समय अन- तृष्णा प्रवाह रूप में फैल गई। परन्तु उत्पादन तिकता की समस्या एक सीमित क्षेत्र में ही थी। माम जनता की तो मूलभूत आवश्यकताओं को भी माम जनता का जीवन भौतिक महत्वाकांक्षामों पूरा नहीं कर सका और सत्ताधारियों और धनिकों से रहित सादा, संयमी अोर संतोषी होता था। के लिए विभिन्न प्रकार के भोगविलास के साधन मेगस्थनीज, फाह्यान, हनसांग आदि विदशी उत्पन्न हो गये । इसी का परिणाम हैं यह संसार इतिहासकारों तक ने लिखा है कि उस समय भारत व्यापी वर्ग संघर्ष और चरित्र संकट की प्रसिद्ध में लोगों का जीवन सादा तथा वे सरल साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शॉ के शब्दों में डमोक्रेसी और इमानदार होते थे । अपराध बहुत कम होते (लोकतन्त्र) डेमनके सी (राक्षणीतन्त्र) बन गई थे। प्रजा सुखी और धन-धान्यपूर्ण थी। इससे है। अमरीका जिसे संसार का सबसे अधिक प्रगट होता है कि उस समय भौतिकवाद बहुत ही सम्पन्न देश माना जाता है उसकी हालत तो अधिक सीमित क्षत्र में होने से आम जनता का चरित्र बुरी है। वहां अपराध बेकाबू हो गया है। वहां स्तर ऊंचा था, न गरीबी और बेकारी की समस्या के बड़े नगरों में रात्रि में भले नागरिक मकानों थी और न समाजव्यापी चरित्र संकट की। लगभग से बाहर निकलने से डरते है। दिन में पावागमन पही स्थिति अन्य देशों में भी थी।
में खतरे का डर बना रहता है। वहां मानसिक परन्तु पाश्चात्य भौतिकवाद ने जहां भारी
रोग भी बढ़ रहे है, इन रोगों के डाक्टरों की चरित्र संकट पैदा कर दिया वहां इसकी प्रौद्यो
बड़ी मांग है। खूब वैभव होते हुए भी उन्हें
शांति नहीं मिलती प्रतः एल. एस. डी. प्रादि गिक तकनीक ने बेकारी और आर्थिक संकट मी
नशेली दवाइयों व नींद की गोलियों का सेवन पदा कर दिया
करना पड़ता है। कई हिप्पी बन रहे है या शांति _I. चरित्र संकट-आवश्यकता इस बात के लिए भारतीय साधुनों के शिष्य बन रहे हैं। की थी कि प्राधुनिक विज्ञान की सब उपलब्धियों 2. बेकारी और आर्थिक संकट-पुराने के उपयोग को बढ़ती हुई जनसंख्या की मूलभूत समय में उत्पादन की अर्थ व्यवस्था विकेन्द्रित थी। मावश्यकता की वस्तुओं के उत्पादन की कमी मशीनें, मनुष्यों और पशुओं की श्रम शक्ति से को पूरा करने तक सीमित रक्खा जाता। यदि चलती थी और उनमें स्थान-स्थान पर उपलब्ध ऐसा किया जाता तो अभी संसार में शांति का उत्पादन के साधनों तथा मनुष्यों और पशुओं की साम्राज्य होता। परन्तु ऐसा न कर पाश्चात्य श्रम शक्ति का समुचित उपयोग होता था। अतः भौतिकवादी नेतामों तथा उनसे प्रभावित कथित अधिकांश ग्राम स्वावलम्बन पर प्राधारित उस पिछड़े देशों के नेताओं ने गरीबी दूर करने के अर्थ व्यवस्था में मशीनों और उनके लिए बच्चे नाम पर विभिन्न भोगविलास के साधन प्राप्त कर माल के रूप में विदेशों से उधार लेने श्री रहन-सहन का स्तर ऊंचा करने की आम जनता की कोई समस्या नहीं थी। देश का धन देश में
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
था ।
रहता था प्रत: देश धन धान्य से सम्पन्न
पाश्चात्य भौतिकवादी कथित विकसित देशों से अपने यहां बड़े-बड़े कल-कारखानों का निर्माण किया । यह स्वाभाविक था कि कई मनुष्यों की श्रम शक्ति से बने हुए माल की अपेक्षा, मशीनों द्वारा उतना ही माल बनाने में कम प्रादमी लगते तः माल भी सस्ता पड़ता। बची हुई श्रम शक्ति उनने अन्य सुख साधनों का उत्पादन कर उसका अपने रहन-सहन का स्तर ऊंचा करने में और विदेशों को बेचकर अपनी मशीनों के लिए कच्चा हाल खरीदने में उपयोग किया । अपना पक्का साल बेचने और अपनी मशीनों के लिए कच्चा सील खरीदने को मार्केट के लिए कथित पिछड़े ए देशों को अपने प्रभाव में रखने लिए उन देशों प्रतिस्पर्धा भी चल गई। पिछड़े हुए देशों का न खिंच कर विकसित देशों में जाने लगा भौर कारी भी फैलने लगी तो वे अपना वैसा हो कास कर समृद्धि के स्वर्ण मृग को प्राप्त करने तृष्णा में पड़ गये । तब विकसित देशों से सीनें खरीदना भी शुरू कर दिया और उनके रबों डॉलर और पौंड के ॠरणी बन गये । परि राम स्वरूप भयंकर आर्थिक संकट भौर बेकारी समस्या पैदा हो गई है । बेकारी विकासशील ओं में ही नहीं विकसित देशों में भी फैलती जा है !
महात्मा गांधी ने क्या कहा था— उपरोक्त चिन से विदित होगा कि इस समय चारित्र संकट, हरी मौर मँहगाई की जो विश्वव्यापी समस्या है का कारण पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता और उसकी योगिक तकनीक है । इसे अपनाकर सभी देशों विपना विकास नहीं प्रत्युत विनाश किया है। लिए महात्मा गांधी ने सन् 1908 में अपनी हे पुस्तक हिंद स्वराज्य में इस सभ्यता से को सावधान करते हुए यह लिखा था :--
1-145
"यह सभ्यता मधमं है पर इसने यूरोपवालों पर ऐसा रंग जमाया है कि वे इसके पीछे दीवाने हो रहे हैं ।" "यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज रक्खें तो अंत को इस सभ्यता की भाग सुलगानेवाले प्राप ही इसमें जल मरेंगे" "जो लोग हिन्दुस्तान को बदल कर उस हालत पर ले
जाना चाहते हैं......... ........... वे देश के दुश्मन हैं,
पापी हैं।"
श्राध्यात्मवाद क्या है - प्राध्यात्मवाद की यह मान्यता है कि सुख का स्रोत हमारी प्रात्मा के भीतर है, सुख कहीं बाहर से नहीं प्राता । हम जितने अधिक भ्रात्म निर्भर होकर भौतिक सुख साधनों की अपनी भावश्यकताओंों को व उनके संग्रह को कम करेंगे उतने ही अधिक हम सुखी होंगे । भौतिक सुख साधनों की तृष्णा से रहित निग्रंथ जैन मुनि की चर्या सुखी जीवन के उस प्रादर्श का प्रतीक है। यही नहीं, माध्यात्मवाद ही समविष्टगत सुख शांति का भी साधक है । उपरोक्त भावना सामाजिक प्रवाह बन जाने पर अधिकांश व्यक्ति स्वयं स्फूर्त संयम का पालन करते हुए समाज के भौतिक सुख साधनों के उत्पादन का कम से कम भाग लेना चाहेंगे प्रतः ऐसे समाज में वर्ग संघर्ष, छीना झपटी मोर चारित्र संकट की समस्या पैदा ही नहीं होगी । इसी विचार से महात्मा गांधी ने भी स्वतंत्र जनतांत्रिक सुखी भारत की अपनी कल्पना निम्नलिखित शब्दों में प्रकट की थी"प्रत्येक व्यक्ति को इतना ही मिलेगा कि उसकी सब प्राकृतिक प्रावश्यकताएं पूरी हो जावे, इससे अधिक नहीं" । परन्तु माधुनिक तकनीक के विवेक पूर्ण उपयोग के विरोधी नहीं थे। उतने सिंगर की सिलाई मशीन की प्रशंसा की थी मोर इस प्रकार की मशीनों और उसके निर्माण को लगाये जाने वाले कारखानों का समर्थन किया था । यह कहना कि शशध्यात्मवाद का विज्ञान से विरोष है मौर उनमें समन्वय बिठाने की आवश्यकता है, भ्रम मात्र है । मावश्यकता तो विज्ञान के सदुपयोग की
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-140
क्योंकि वर्तमान में उसका अधिकांश थोड़े से साधन सम्पन्न लोगों की भोग तृष्णा को. पूरा करने मौर युद्ध सामग्री के निर्माण में दुरुपयोग किया जा रहा है । अनेक व्यक्ति ध्यान व प्रारणायाम को ही माध्यात्मिकता समझे हुए हैं, यह भी ठीक नहीं है । यह प्रवश्य है कि वे मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के साधक होने से प्राध्यात्मिक प्रगति के भी साधक हैं ।
तथा
राजकीय नियंत्रण द्वारा, भोग विलास व शानशौकत के जीवन के लिए धनवानों के धन निरु पयोगीकरण की तथा ग्राम स्वावलंबन पर श्राधारित अथ व्यवस्था की प्रावश्यकता उ५ क्त से प्रगट है कि श्राध्यात्मवाद संसार में सुख शांत के लिए प्रत्यंत आवश्यक है । परन्तु यह पाश्चात्य भोग वादी सभ्यता इतनी व्यापक हो गई है कि जो लोग इसे बुरा समझते हैं वे भी बेबस होकर इसी के प्रवाह में बड़े जा रहे हैं। स्वयं स्फूत सयम, अपरिग्रह व अणुव्रत पालन के उपदेश सदाचार समितियाँ बढ़ती हुई अनतिकता के प्रवाह को बदलने में प्रसफल रहे हैं क्योकि हम रे धर्म गुरुयों के पास भी भौतिकता का ही प्रोसाहन मिल रहा है, घन व सत्ता की ही पूछ है ओर निश्चय धर्म का उपदेश दिया जाता है मोर धर्म नीलाम किया जाता है। भोर जो प्रधिक से अधिक धन देता है उसी का घर्म रक्षक के रूप में सम्मान किया जाता है, चाहे वह धन उसने धनुचित उपायों से कमाया हो । धाये दिन धार्मिक संस्थाओं के समारोह होते हैं, वहां यही प्रयत्न रहता है कि किसी धनिक या सत्ताधारी से उद् घाटन करावें या मुख्य अतिथि बनायें आजकल के बड़े-बड़े उद्योगपति सो पाश्चात्य भौतिकवाद के प्रतिनिधि ही हैं और प्राजकल की परिस्थितियो मे धन को प्रतिष्ठा देना भनैतिकता को प्रोत्साहन देना है। प्रतः इस विकट पाश्चात्य भोगवादी प्रवाह को बदलने को स्वयं स्कूतं सयम मोर नैतिकता को प्रोत्साहित
।
एक
दूसरी
,
करने के लिए जहाँ एक चोर यह प्रावश्यक है कि हमारे साधु और नेता धन को पावर व प्रतिष्ठा देना बंद करें वहाँ यह भी अवश्यक है कि राजकीय नियंत्रण द्वारा, भोग विलास व वैभवशाली जीवन के लिए धनवानों के धन को निरुपयोगी कर दिया जावे । जब गरीवी के बीच विलासिता और वैभव के प्रदर्शन का कोई भोवित्य नहीं है तो विलासिता के साधनों के उत्पादन व प्रायात की इजाजत क्यों ? वर्तमान के बंभव व विलासिता के साधनों की उपलब्धि ही चरित्र संकट का एक मुख्य कारण है और टैक्सचोरी, ब्लेक मार्केट श्रादि अनुचित उपायों से धन कमाने की तृष्णा को बढ़ावा दे रही है अतः आवश्यक है कि ग्राम जनता को गरीबी तथा उत्सदन में सक्षम रहने की आवश्यकता का विचार रखते हुए रहन-सहन का अधिकतम स्तर नियत करके उत्पादन को तदनुरूप नियंत्रित किया जः वे उदाहरण के लिए रहने के मकानों का स्वर नियत कर दिया जावे, प्राप व व्यापार के लिए जमीन व मकान रखन पर रोक हो । रेल, सिनमा प्रादि में केवल एक श्रेणी हो । शकाखानों में केवल जनरल व डं हों । घरेलू उपयोग के लिए प्रइवेट कार रखने पर रोक हा । लक्जरी कार रखने की इजाजत न हो। बिलासिता के साधनों से युक्त काई होटल न युक्त काई होटल न हो। लॉटरियों तथा सट्टे आदि से धन कमाये धन को तृष्ण पैदा होती है, उन पर तथा शराब जैसा हानिकर वस्तुओं पर रोक हो विलासिता तथा वैभव को बेश कीमती वस्तुए कि जिन्हें धनो व्यक्ति हो खरीद सकते हैं, साधारण प्राय बात नहीं, उन पर शक हो इससे धनिकों का धन वैभवशाली जीवन बिताने के लिए निरुपयोगी हो जावेगा और अनंत्रिक उपायों से धन कमाने की तृष्ण को रोक लगेगी रूस धोर फोन ने प्ररम्भ में ऐसा ही किया था। लोकतंत्र भी तभी सफल हो सकता है जब उत्पादन और उपभोग को समष्टि के हित के अनुरूप नियंत्रित किया जावे।
4
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-147
उपरोक्त के अतिरिक्त यह भी प्रावश्यक है कि को प्रभावहीन कर दिया है, अतः यह प्रावश्यक है बेकारी और गरीबी दूर करने को दैनिक भावश्य- कि धार्मिक साधुप्रों मोर नेतामों द्वारा प्राध्याकता की वस्तुओं जैसे वस्त्र, के उत्पादन के लिए त्मिकता और कर्तव्य भावना को प्रवाहित करने के ग्राम स्वावलम्बन पर आधारित अर्थ-व्यवस्था को प्रयत्न के अतिरिक्त शासन द्वारा भी उत्पादन और अपनाया जावे और उन उद्योगो से प्रतिस्पर्धा करने उपभोग को नियंत्रित किया जावे तभी चारित्र वाले और उपरोक्त अनुसार बजित विलासिता संकट और वेकारी तथा गरीबी की समस्या का मादि की वस्तुपों को उत्पन्न करने वाले बड़े-बड़े निराकरण किया जा सकेगा। यहाँ यह भी स्पष्ट कारखानों के उत्पादन को देश में न बिकने दिया। कर देना उचित है कि पारिश्रमिक, लाभ मादि पर जावे, उससे विदेशी ऋण चुकाया जावे।
नियत्रण की कोई प्रावश्यकता नहीं है क्योंकि
उत्पादन तथा अच्छा से अच्छा काम करने में उपरोक्त विवेचन से प्रगट होगा कि पाश्चात्य प्रोत्साहन देने को योग्यता तथा काम के अनुरूप भौतिक वादी प्रवाह ने स्वयं स्फूर्त कर्तव्य भावना वेतन, पारिश्रमिक तथा लाभ देना ही चाहिए।
समिमाए धम्मे पारिएहि पवेइए
. आचारांग सूत्र ११८।३ आर्य महापुरुसां नै धरम कह्यो है।
.
अत्थेगइयारणं जीवाणं सुत्ततं साहू, अत्थेगइयारणं जीवाणं जागरियत्तं साहू ।।
-भगवती सूत्र १।२॥२॥ अधार्मिक प्रातमावां रो सूतो रैवणो आच्छो अर धरमनिष्ठ पातमावा रो जागतो रैवणो आच्छो ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
शारदा स्ततिः -प्राचार्य श्री विद्यासागरजी म.
(द्रुतविलंबित छंदः) जिनवरा-नन-नीरज निर्गते !
शिरसि ते न हि कृष्णतमाः कचा गणधरैः पुनरादर संश्रिते !
स्त्वयि न ते निलयं परिगम्य वै सकल-सत्व-हिताय-वितानिते
परमतामसका बहिरागता तदनु ते रिति हे! किल शारदै ! ॥१॥ इति सरस्वति ! हे ! किल मे वचः ॥७ सकल-मानव-मोद-विधायिनी !
विगतकल्मषभावनिकेतने ! मधुर-भाषिणी ! सुन्दर-रूपिणी! तवकृता वरभक्तिरियं सदा गतमले ! द्वय-लोक-सुधारिणी! विभवदा शिवदा पविभूयता मममुखे वस पाप-विदारिणी ! ॥२॥ मिति ममास्ति शिशोश्शुभकामना ॥ असि सदा हि विषक्षय-कारिणी
शशिकलेव सितासि विनिर्मला भूवि कुदृष्ट्येऽतिविरागिनी
विकचकजजयक्षमलोचने ! कुरु कृपां करुणे करवल्लकि !
यदि न मानवकोऽति सुखायते मयि विभोः पद-पंकज-षट्पदे ॥३॥ स्वदवलोकनमात्रतया कथम् उपलजो निजभाव महो यदा
शशिकला वदनप्रभया जिता सुरसयोगत आशु विहाय सः
नयनहारितया तव शारदे । कनकभावमुपैति समेमि किं'
सपदि वैगतमानतयेतिसा न शुचिभावमहं तव योगतः ॥४॥ नखमिषेण तवांध्रियुगंश्रिता ॥१० जगति भारति ? तेऽक्षियुगंखलु
कुचयुगं तव मान-मिषेण वै नयमिषेण कुमार्गरतागमम्
वितथमानमतं परिदृष्य च नयति हास्यपदं न तदास्मय
जिनमते गदितं यतिभिः परैमयि ! वचोमृतपूर्णसरोवरे ! ॥५॥ यदिति सूचयतीह वरं हि ततू ॥११ वृषजलेन वरेण वृषापगे
इह सदाऽऽस्वनितं शुभ-कर्मणि शमय तापमहो! मम दुस्सहम्
भवतु मे चरणं च सवर्त्मनि सुखमुपैमि निजीयमपूर्वकम्
जगति वंद्यत एवं सरस्वती :: द्रुतमहं लघुधीरथ येन हि ॥६॥ तनुधिया सदया ह्यथ या मया
।। सरस्वत्यै नमः ।।
॥१२
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
मत्यु नहीं.... निर्वाण क्यों ?
मामतौर से लोगों को मरने की अनिच्छा रहती है फिर भी मृत्यु टलती नहीं चाहे उसे टालने की कितनी ही को शश की जाय। मरने के बाद क्या होगा इस बात की कल्पना से ही मृत्यु का भय लगता है परन्तु अनिच्छा रहते हुये भी मरना आवश्यक होता है । कुछ विशिष्ट व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिन्हें मरण का भय नहीं होता। मरते समय न तो वे भयभीत होते हैं और न ही मरते समय उन्हें जरा भी कष्ट महसूस होता है । धीरज के साथ पुराने वस्त्रों के त्याग की तरह वे इस शरीर को छोड़ देते हैं। उनका वह मरण, समाधिमरण कहलाता है । ऐसी मृत्युगों के लिये शोक नहीं किया जाता बल्कि उत्सब मनाया जाता है। ऐसे महापुरुषों का भौतिक शरीर नष्ट होकर मृत्यु भी लागों को वर्षों तक प्रेरणा देती है। इसीलिये उसे मरण नहीं बल्कि निर्वाण कहा जाता है और ऐसे ही महापुरुष का हम 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव मना रहे हैं।
जो बात टलने वाली नहीं, उसे भुलाने से कुछ लाभ नहीं इसलिये मृत्यु को याद रखकर सावधान रहना और अपने जीवन को फिजूल व निरर्थक बातों में न खपाना ही श्रेयस्कर है । मृत्यु की स्मृति गला यों और अपराधों से बचाती है, अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने में सहायक होती है। मरण अनिवार्य है और वह कब आयेगा इसका पता न हो तो हमें सावधानी बरतनी चाहिए । क्षण भर का प्रमाद भी हानिकर होता है इस लिये हमें ऐसा मरण अपनाना चाहिए जिससे हम अमर बन सकें।
महाभारत में एक संवाद है युधिष्ठिर मौर यक्ष का। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करता है :
श्री रिषभवास रोका
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-150
"दुनियां का सबसे बड़ा श्राश्चयं क्या है ।" 1: युधिष्ठिर जवाब देते हैं- "हर मनुष्य प्रति क्षण मृत्यु के निकट जा रहा है, वह जानता है कि उसे मरना पड़ेगा फिर भी वह अपने को अमर मानता है । यही सबसे बड़ा श्राश्चर्य है । सभी दीर्घकाल तक जीना चाहते हैं, मृत्यु को भूल जाना चाहते हैं किन्तु वह कब, किस रास्ते से आयेगी, कोई नहीं जानता । शरीर कब जायेगा पता नहीं ।
मरण का स्मरण अशुभ माना जाता है । मनुष्य मरने की स्थिति में है फिर भी मृत्यु निकट श्रई है. ऐसा कहना ठीक नहीं समझा जाता । उसे सावधान कर अपनी मृत्यु सुधारने का अवसर नहीं दिया जाता । मृत्यु के विषय में प्रधेरे में रखना ही उसका हित समझा जाता है, ऐसा करने में ही उसकी भलाई समझी जाती है मानों कुछ क्षरण वह बच जाय तो बहुत बड़ी बात हो गई हो ऐसा समझा लाता है जबकि कहा यह जाता है कि मृत्यु एक क्षण के लिये भी नहीं टाली जाती ।
जो बात होने वाली है उपे स्पष्ट बताकर उसे ठीक से विवेकपूर्वक मरने के लिये तैयार करने में ही उसका हित है । जब किसी को यह बात मालुम हो जाय कि यह संसार छोड़ कर उसे जाना ही है तो वह न तो बुरे काम ही करेगा, न ही बुरे विचार मन में आने देगा | फिर उसके मन में किसी भी चीज का मोह नहीं जगेगा। वह ऐसा मरण अपनायेगा जिसमें मर कर भी अमर हुआ जा सकता है ।
मरण सुधारने के लिये पूर्व तैयारी रखनी चाहिये। मररण के स्वरूप को समझ कर उसे विवेकपूर्वक अपनाने का अभ्यास करना चाहिए । अकस्मत असावधानी में मृत्यु आवे इसके बदले हम उसके लिये अपनी पूरी तैयारी कर सावधान रहें यह अधिक इष्ट है ।
मनुष्य का जीने का मोह मृत्यु को प्रयत्न पूर्वक भुलाने की कोशिश कराता है। मानव जाति ने मृत्यु की याद को भुला कर अब तक बहुत खोया
है । उसके हाथ से न होने जैसे काम हुये हैं, होते हैं और भविष्य में भी होंगे ।
मृत्यु अनिवार्य है और कब आयेगी इसका पता हो तो मनुष्य अधिक सावधानी बरते, यह स्वाभाविक ही है । उसके पश्चात् अव्यवस्था या गड़बड़ी न हो ऐसी व्यवस्था वह करे यह स्वाभाविक है । भविष्य की चिन्ता न रहकर, मृत्यु श्रावे तब सहज भाव से पुराने वस्त्रों की भांति शरीर त्याग दे व मृत्यु न भावे तब तक विशुद्ध जीवन जीए ।
व्यवहार कुशल व्यक्ति अपने बाद अव्यवस्था न हो इसलिये वसीयत बना कर रख देते हैं । रोमन लोगों में तो वसीयत न लिखकर मरना प्रसंस्कारिता समझी जाती थी और यह बात ठीक भी है । वसीयत लिखकर न जाने से होने वाले दुष्परिणामों से हम अपरिचित नहीं है । यह वसीयत केवल भौतिक सम्पत्ति की ही नहीं अपितु प्राध्यात्मिक भी होती है । कहते हैं भगवान महावीर ने अपना अन्तिम उपदेश उत्तराध्ययन प्रहरों तक एक श्रासन पर बैठ कर दिया था । जो ग्राज भी प्रकाश देता है ।
बुढ़ापे में मृत्यु की संभावना अधिक बढ़ जाती है इसलिए लेन-देन व व्यवसाय भी बुढापे में कम देना हितकर होता है। जिसका ऋण या कर्ज हो दे दिया जाय। किसी का यदि हम पर अहसान हो तो भी चुका देना चाहिए। हमारी बातचीत से किसी की कुछ भी अपेक्षाएं पैदा हुई हो तो वह भी पूरी कर देनी चाहिए। सभी तरह के कर्ज या वचन चुका देने चाहिए। दिये हुये आश्वासन अधूरे न रहें इसकी सावधानी बरतनी चाहिए । बातचीत इतनी सावधानी से करें कि किसी के मन में कोई अपेक्षा न जगे । दिया हुआ कर्ज, समझ लेना चाहिए कि वह आने वाला नहीं । आ जाय तो अच्छा और न आये तो उसके लिये क्षोभ नहीं करना चाहिये ।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-161
अपकार को भूल जाना चाहिए और किसी के प्रच्छा । हमारे लिये दूसरों को कम कष्ट हो इसका प्रति प्रशुभ भाव हो तो उन्हें जड़मल से निकाल ध्यान रखें। देना चाहिए। प्राणीमात्र के प्रति समसा व मैत्री चीजों का उपयोग कम करने से सहज में भाव रहे। मन में किसी के प्रति भी द्वेष, तिरस्कार सन्तोष बढ़ता है । मानव जीवन की ससे बड़ी कला या ईर्ष्या एवं क्रोध न रहे । मन विशुद्ध और निर्मल यह है कि हम जैस हैं वेसे अपने आपको समझ कर रहे। इसीलिये प्राणीमात्र की क्षमा मांग कर भूत
जीवन जीना । हम अपनी स्थितियों के प्रति सजग. मात्र के प्रति मैत्री का संकल्प किया जाता है।
अप्रमत्त और सद। सावधान रहकर प्राप्त परिस्थिबाह्य की तरह ही अन्तर के शत्र मों जैसे राग, तियो के अनुसार जीवन चलायें। अपने भूनकाल द्वेष, कषाय, अहंता-ममता, स्पर्धा, वासना-विकारों की भव्यता की यादों को भुला दें, भविष्य की से मुक्ति पाने का प्रयास किया जाय । सबके
कल्पनामा का त्याग करें और वतमान को अच्छा कल्याण की ही कामना मन में रहे और चित्त शुद्ध
बनाने की कोशिश करें, वर्तमान के प्रति सामजस्य रहे जिससे मरते समय सहज निर्मल भाव से शरीर
रखकर प्राप्त परिस्थिति को अच्छा बनने का स्याग जा सके।
प्रयास करें। प्राप्त परिस्थिति में सन्तोष मानें। प्रवृत्तियों को समेट लेना चाहिए अथवा योग्य बुढ़ाये में जीवन को निरूपाधिक बनाना, उसे व्यक्तियों को सौंप देनी चाहिए। सद्प्रवत्तियों के अधिक सयमी व नियत्रित बनाने में ही कल्याण है। मोह से भी बचना चाहिए। सत्कार्य करें भी तो सभी तरह की ऐषणामों को त्यागना ही उस में प्रासक्ति न हो।
हितकर है। पुत्र'षणा, अर्थेषणा, लोकपणा म स बुढ़ापे में शरीर निर्बल होता है, इन्द्रियां लोकेषणा का त्याग सबसे कठिन होता है । कि तु शिथिल हो जाती है, जीवनी-शक्ति घटती जाती अन्य सभी ऐषणाप्रो की तरह ही ल.केषण। भी है। इस वास्तविकता को ध्यान में रख कर यदि व्यर्थ, निरर्थक व हानिकर ह। है ।क्योकि वह मानपहले की तरह ही प्रवृत्तियां चालू रखें तो वे ठीक सिक स्वास्थ्य का नाश करती है। न होकर मन को असन्तोष और समाज को हानि ही बुढ़ापे में नींद कम पाती है। शरीर भी अधिक पहंचाती है। हाथ में चीज को सम्भालने की शक्ति काम करने में अक्षम होता है। समय खाली रहता न रहे तो उसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर होता है। है, उस समय का सदुपयोग स्वाध्याय, चिन्तन और योग्य समय पर निवत्त होना ही लाभदायक होता ध्यान में करे । मन को खाली न रखें। बुढ़ापे की और बढापा विवेकपूर्वक बिताने से मरण सुधर चिन्ता और छोटी पोर तुच्छ बातों को याद करना जाता है।
दुःखदायी ही होता है। जीवन में जो कुछ भी बूढापे में शरीर ठीक रहना हो तो आहार का अच्छा बन पड़ा हो उसको याद करके सन्तोष संयम आवश्यक है। जीवन-संध्या की आखिरी मानना चाहिए । उससे प्रसन्नता का अनुभव करना में प्राहार प्रासानी से पच जाय ऐसा लेना चाहिय। चाहिए । जीवन में भी कुछ अशुभ हो गया उसकी भोजन, नियम से और मात्रा कम हो । रात्रि में याद कर पछतावा करना चाहिए । भूलों से शिक्षा भोजन टाला जाय । पाहार इतना ही लें जिनका ग्रहण करनी चाहिए, जिसके प्रति भी अन्याय हुपा शरीर पर दुष्परिणाम न हो, भोजन ऐसा करें हो उसका परिमार्जन कर क्षमा मांग कर मन की जिससे मोटापा मोर वजन न बढे । स्वादश सफाई कर लेनी चाहिये। अधिक न खाये। जिन चीजों के बनाने में अधिक हम पर जिनका उपकार हुआ, जिन्होंने हमारे समय लगता हो ऐसा भोजन भी टाला जा सके तो हित में कुछ किया उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करनी
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-162
चाहिए और उनका ऋण चुकाने का प्रयास करना होगा यह उसी के कार्यों पर प्रवलंबित होता है । पाहिये।
जब हम शुभ संकल्प करते हैं तो शुभ संकल्पों के हमारी शक्ति घट रही है । हम दूसरों का प्रवाह उस व्यक्ति के हृदय में पहुंच कर उसे शुभ हित या सेवा करने में भी अपने आपको अशक्त की प्रेरणा देते हैं । हमारे समस्त संकल्प वासना. पाते हैं । इसलिए दूसरों की कम से कम सेवा लें। विकार से रहित हों उसमें किसी प्रकार अहंता किसी पर बोझरूप न बने, किसी के मन में अप्रीति या ममता न हो तो वे शुद्ध संकल्प अत्यन्त प्रभावन जगे ऐसा व्यवहार करना चाहिए। चारों ओर कारी होते हैं । जो निश्चित ही दूसरों का हित प्रेम का सौरभ फैन ऐसी ही कोशिश करें।
करते हैं। ___संसार मे और खास कर बुढ़ापे में सेवक या निवृत्ति तभी कल्याणप्रद होती है जब उसमें नौकर-चाकरों की सहायता बहुत उपयोगी राग-द्वेष और पक्षपात न हो । सबके प्रति कल्याण और सुखकर होती है इसलिए उन्हें सन्तुष्ट रखना, की भावना हो। किसी प्रकार का स्वार्थ या कामना उनके दुखदद में काम आना तथा उनके साथ नहीं हो । इन्हीं सब शुभ भावनाओं से मरण सार्थक अच्छा बर्ताव करना चाहिए इसमें हमारा भी हित व सफल होता है। हैं और दूसरों की भी प्रसन्नता ।
जब मृत व्यक्ति की स्मृति व्यापक तथा दीर्घबच्चो की भावना का ख्याल कर, उनके कालीन होती है तभी मरण सार्थक होता है कामों में हस्तक्षेप न कर उनकी शक्ति का विकास क्योंकि मरने के बाद भी समाज में स्मृतिरूप में रुचि, इच्छ व शक्त के अनुसार होने देना मनुष्य जीवित रहता है। मनुष्य के कार्य भोर चाहिये । उन्हें उपदेश न देकर वे मांगे तब उचित विचारों का प्रभाव समाज पर होता है । कई बार सलाह देनी च हिये व उनका इच्छा के अनुकूल, तो जीवित अवस्था से भी मृत्यु के बाद अधिक उन्हें बोझ न मालूम दे ऐसा जवाब दे जो बच्चों पर प्रभाव होता है। हकूमत न करते हुये उनको बुद्धि को जंचे ऐसी जब मनुष्य इस प्रकार कषाय, मोह, ममता बात सहज रूप से समझ वें । वे न मानें तो बुरा न और महंता से मुक्त होकर समाधि-मरण की मानें । उनमें प्रेम और आदर बढाने का यही उपाय साधना करता है तो, वह मुत्यु निर्वाण बन जाती है। पाखिर तो सब कुछ नई पीढ़ी को ही सौंप है, जो अनेकों के मन में निर्वाण प्राप्ति की प्रेरणा कर जाना है। क्यों न हम अपने समक्ष ही उन्हें जागृत करती है। काम करने का अवसर देकर सुयोग्य बनावें । काम भगवान महावीर की भौतिक देह भले ही करने से ही तो शिक्षा मिलती है। कुशलता माती 2600 साल पहले नष्ट हो गयी थी किन्तु फिर है। काम बिगड़े तो भी बिगड़ने दें पर उनको अपनी भी वे प्रमर हैं, उनकी मृत्यु हमारे हृदय में निर्वाण बुद्धि का उपयोग करने का अवसर दें। , प्राप्ति की ज्योति जगाने प्राज भी सक्षम है तभी तो
जब तक हममें शक्ति तो हम दूसरों की भलाई . हम निर्वाण महोत्सव मना कर उनके बताये हुये करें पर जब वह शक्ति न रहे तो अपनी शुभ रास्ते पर जाने के लिये प्रयत्नशील है। भावनाए और सत्संकल्प के द्वारा दूसरों के कल्याण . यदि हम मरण की, भगवान महावीर के की कामना करें। प्रत्यक्ष शरीर के द्वारा भी हुई जैसी ही तैयारी कर निर्वाण प्राप्ति में प्रयत्नशील सहायता से शुभ संकल्प की शक्ति कम नहीं होती बनें तो वह हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली क्योंकि पाखिर किसी का भला होना पोर नहीं होगी।
.
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वोदय
नधर्म
तीर्थ नाम घाट का है जिससे विश्व के सभी प्राणी अपने लक्ष्य परमशान्ति सुख को प्राप्त कर सकें। "जो त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहें दुखते भयवन्त" यानी जितने भी जीवधारी हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दुख से डरते है । इस लिये ऐसे घाट (तीर्थ) की जरूरत थी जहां से सवार होकर प्रत्येक प्राणी अपना अभ्युदय कर सके, अपना विकास कर सके, और अपना कल्याण कर सके। जिसमें वर्ग भेद न हो, जाति भेद न हो, कुल और वैभव की भी महत्ता न हो। किन्तु गुणों का समादर हो । जिसमें क्रमशः विकास व उत्थान करने का समाधान हो। ये सब बातें जैनधर्म में समाविष्ट हैं, संग्रहीत है। इसलिये जैनधर्म ही वस्तुतः सर्वोदय तीर्थ है । इसी के सहारे तुच्छ से तुच्छ प्राणी अपने कार्यक्रम से अपना उत्तरोत्तर विकास करता हग्रा प्रात्मा से परमात्मा बन सका है। अनेक पशु-पक्षियों तक.ने मात्म तत्व को प्राप्त कर अपना उत्थान किया है। शास्त्रों में इसके अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं । जैनधर्म के वर्तमान चौवीसी तीर्थकर परंपरा में 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ही इसके जीते जागते सुबूत है। जिनका उत्थान सिंह (शेर) की पर्याय से हुवा था। जिनेन्द्र देव की, ऋषि मुनियों की जैनधर्म अनुप्राणित धर्म देशना द्वारा जिन्हें प्रात्म बोध हवा. और जिससे उन्होंने अपने गलत रवैया को त्याग कर संयम रूप जीवन बनाया । अपना पूर्ण विकास कर सिद्धालय (मोक्ष) को प्राप्त किया है। स्वर्गादिक प्राप्त किये हैं। ऐसे अनंत उदाहरण शास्त्रों में परिणत है। मेंढ़क तोता-नकुल शृगाल, बन्दर, घोड़ा, आदि अनेक बोधहीन पशु-पक्षियों ने बोध प्राप्त कर उसे अपने जीवन में उतार कर
श्री राजकुमार शास्त्री, निवाई, संचालक अखिल विश्व जैन मिशन
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-166
अनुपम सुख तो प्राप्त किये ही हैं। साथ ही अब जैनधर्म की मान्यता है, कि पदार्थ अनेकान्तात्मक वे भविष्य में मोक्ष में जावेगे। ये जैनधर्म के सौ. है (गुणात्मक है) प्रतः एक पक्ष को ही पूर्ण पदार्थ दयी होने का प्रवत्न प्रमाण है। जैनधर्म प्राणी म न बंठना ठीक नहीं है। दूसरे भी गुण तत्व में मात्र का कल्याण चाहता है। सभी का उत्थान है। जिसे दूसरा प्रगट करता है। अतः उसे भी पौर अभ्युदय चाहता है। उसमें किसी भी तरह तुम झूठा कैसे कहोगे ? प्रतः स पेक्ष दृष्टि से दोनों की चहार दोवारी या घेराबन्दी नही है । जनधम को ही मान्यता सही है। पदार्थों के स्वरूप को सही दृष्टि देता है। यथार्थ ज्ञान प्रदान करता है। निर्णय करने में और उनमें सामंजस्य बि
बिठने में मोर ज्ञान, वैराग्य, मोर सयम पर आरूढ़ होकर अनेकान्तात्मक दृष्टि ही सही है । जनघनके "मागे बढ़ते चलो" का माह्वानन करता है । इस अहिंसा सिद्धान्त को पूज्य राष्ट्रपिता म. गांधी ने धर्म में सबसे बड़ी खूबी है। प्राणी मात्र पर दया । पूर्ण स्वतत्रता संग्राम में प्रयोगात्मक रूप देकर दृष्टि रखना । किसी भी तरह किसी भी प्राणो को। और उसकी सफलता की प्राप्ति से अहिंसा की न मारना न उन्हें सताना । झूठ न बोलना । न । उपयोगिता प्रातष्टा और महत्ता सारे विश्व में चोरी करना । व्यभिचार न करा । मावश्यकता से । फैलाई है। बंर से बैर नहीं मिटेगा । अहिंसा ही से अधिक किसी भी चीज का (धन जमीन मााद) यह सभव हो सकेगा ? कैसे सर्वोदयी कल्याणकारी संग्रह न करो। पेट भरो पेटी मत भरो। शराब उ देश हैं ? कितने हृदयग्राही हैं ? यदि माज भी मादि सभी नशाला वस्तुओं का त्याग करा। शराब सी समस्य ए सुलझानी है तो जैनधम के उपसे न जाने कितने परिवार समाप्त हो गय है । और देशों के अनुसार चलना हा हगा। काका कालेलनिरतर हो रहे हैं। हमें प्रसन्नता है कि हमारी कर ने ठीक ही कहा है, कि जैनधर्म के सिद्धान्तों के न्यायाप्रय सरकार का भी अब शराबबन्दी कायं की प्रचार प्रसार से ही विश्व कल्याण तथा शान्ति की मोर ध्यान गया है। इसी तरह मास खाना करता स्थाना होगी। को बेरहमी को जन्म देता है। प्रत: इस कभी मत प्राज का मानव कितना बदल गया है। धर्म खाप्रा । बेईमानी अनाचार, कदाचार, प्रतिष्ठ के को अफीम की गोली बताता है और धर्म से दूर विनाशक हैं। अतः इन्हें सेवन न करो। भरनी होता जा रहा है । आज मात्र दिख वटी ही धर्म इच्छानों को तृष्णा को सयमित करो। इच्छाए रह गया है। और बाह्य क्रिया कांडों तक ही मनत हैं। वे कभी किसी की पूरी नहीं हुई है। सोभित हो रहा है। अन्तकरण में पौर व्यवहार इन से दुःख और असंतोष तो बढ़ता ही है । साय में भी (प्राचरण में) नहीं उतार रहा है। पतनोन्मुख ही अधिक संग्रह रखने से दूसरे लोग इनसे वचित होने का एक मात्र यही कारण है। रह जाते हैं। उनका शोषण होता है । वे प्रभाव पान यदि कोई अशान्ति वधंक प्राणी है तो के कारण चीजों से वंचित रह जाते है। फलप्रभ.व वह मानव है। एक मानव दूसरे मानव का शत्र ग्रसित नंगे, भूखे, लोगों में असंतोष फैलता है। बना हुआ है। मनुष्यों का जितना सहार निर्दयता
और तब लूट-पाट आदि के उपद्रव होते हैं । और के साथ अपने स्वार्थ के लिये मनुष्य ने किया है। प्रशांति फैलती है। प्रतः जैनधर्म का भाग्रह अपनी उतना कभी किसी ने नहीं किया। मनुष्य ने ही इच्छामों को सीमित करने का है । जैनधर्म से फोजों द्वारा विन श कार्य कराया। मनुष्य ने हीसंतुलित और सुखी जीवन यापन के लिये विवारों ऐसे संहारक शस्त्रास्त्र बनाये । जिनसे कुछ ही में अनेकान्तात्मक चितवन दिया है । जिससे सभी समय में सार विश्व का सहार हो सकता है। धार्मिक वादों के झगड़े विवाद नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य ने ही वन के एकान्त प्रदेश में बसने वाले
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-158
है। ऐसे निरपराध पशु-पक्षियों को भी नहीं बख्शा। काल नियत नहीं कर सका है। वर्तमान चौबीसी । उन पर अनेक जुल्म किये और उनको मार कर भी तीर्थकर परम्परा में सर्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभ
खा गया और खा रहा है। और फिर भी अपने देव ने केवल उद्बोधन दिया था। निर्माण नहीं। मापको सर्वश्रेष्ठ प्राणी घोषित करता है। मानव उन्होंने अपने अवधिबल से जो दूरस्थ विदेहादि में यदि मानवता समाप्त हो जावे, तो मानव और क्षेत्रों में जैसी व्यवस्था जानी थी उसी का रूप पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । जी अनेक यहां बताया था। अन्तिम तीर्थकर भगवान महा मानवाकृति वाले कुमनियों ने इस प्रकार के कृत्य वीर ने उन्हीं की वाणी को प्रसारित किया था। किये हैं. वहां अनेक महामानवों ने प्राने चिन्तन रचना नहीं की थीं। तीर्थंकरों की परम्परा भी
और मनन द्वारा प्राणी मात्र के हित कारक मार्ग सदा से चलो पाई है। भूत और वर्तमान की तरह दर्शन तो दिया ही है। साथ ही उनके संरक्षणार्थ चौबीस तीर्थंकर भविष्य में भी उत्पन्न होते रहेंगे, प्रयोगात्मक उपाय भी बताये है। जैन धर्म ने तो प्राज का मानव भौतिकवादी बन गया है, धर्म को सारे विश्व के कल्याणार्थ ऐसी भावना जाग्रत की व्यथं और प्रफीम की गोली की तरह मान रहा है है कि यदि उस पर अमल किया. जावे तो विश्व . उसकी मान्यता है धर्म अधर्म कुछ नहीं है। ये की सारी समस्यायें ही समाप्त हो जावें और सभी सब माया जाल लोगों को भटकाने और भुलावें में संतोषी मोर सम्पन्न बन जावें।
' डालने के सिवाय कुछ नहीं है। कितनी विपरीतता
3 है। कितनी अपूर्ण और गलत धारणा है। वर्तमान यहां मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि परिस्थितियों में मानव के जीवन का प्रामूल माज के सभी राष्ट्र जैन विचारधारा पर थोड़ा सा परिष्कार करना नितान्त आवश्यक है । तभी उनके भी अनुचिन्तन यदि गभीरता के साथ करेंगे. तो भ्रमित विचार हटेंगे। और तभी विश्व का प्रत्येक निःसंदेह उन्हें इसमें सारे विश्व की सभी समस्याओं प्राणी सर्वोदय प्रवर्तक भगवान महावीर की देशना का समाधान सुगमता से मिल जावेगा । जैन धर्म को; और उनके प्ररूपित सिद्धान्तों की उपयोगिता अनादि काल से ही है। इसकी उत्पत्ति का कोई और महत्व को समझ सकेगा।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्यों न बहे
ज्ञान
ज्योति धारा
तोड़ अन्धकारा
क्यों न बहे ज्ञान ज्योति धारा
मह शत्रु अन्त में भाई
रोक रहा संगति खोद खाई
लेकर वैराग्य का कुठारा
क्यों न करें मोह क्षार सारा
तोड़ अन्धकारा
स्वजनों का मोह नहीं छूटा
बने यही दस्यु हमें लूटा
पहिले ही क्यों नहीं विचारा सिर पर है धरा पाप-भारा तोड़ अन्धकारा
मोह की फसल जितनी बोई उतनी पूंजी घर की खोई
राग-द्वेष उग रहे अपारा कर्म-शत्रु का उदय हमारा तोड़ अन्धकारा
फल - स्वरूप जीव बहुत भटका
लहरों में फंसा डूब अटका
पान सका हाय फिर किनारा
ज्ञानी ने मोह को पछाड़ा
तोड़ अन्धकारा
डा०
• छैल बिहारी गुप्त (उज्जैन) क्यों न बहे ज्ञान ज्योति धारा
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर काल
में
सामाजिक
व्यवस्था
डा० श्री कस्तूरचन्द्र कासलीवाल
भगवान महावीर का युग प्राज से 2500 वर्षों से भी पहले का युग था । वे ऐसे युग में पैदा हुए थे जब देश की राजनीति एव समाज एवं अर्थ व्यवस्था में धर्म नीति का सबसे अधिक प्रभाव, था । महावीर के कैवल्य के पूर्व देश में विभिन्न धर्म थे । इनमें वैदिक, श्रमरण, श्राजीवक एवं बौद्ध धर्म के नाम विशेषतः उल्लेखनीय थे । संजयबेलट्ठि पूर्णकाश्यप मक्खली गोशाल, बुद्ध आदि सभी प्रपने प्रापको सर्वज्ञ घोषित करते थे मौर उन्होंने वैदिक धर्म के अतिरिक्त भी भिन्न-भिन्न धर्म स्थापित कर लिये थे । महावीर के पूर्व होने वाले 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ ने जिस धर्म का समाज को उपदेश दिया था उसके अनुयायी भी सीमित संख्या में थे । किन्तु श्रमण संघ उन्नति की भोर नहीं था | जातिवाद एवं वर्णाश्रम प्रथा का सबसे अधिक था। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य जाति ही द्विज शब्द का प्रयोग कर सकती थी और वे ही धार्मिक विधि विधान सम्पन्न करने की अधिकारिणी समझी जाती थी ।
महावीर का युग क्रियाकांड का युग था । पुरोहितवाद का समाज पर पूर्ण प्रभाव था । राजा महाराजाओं के दरबार में भी इनका बोलबाला था और शासन के प्रत्येक कार्य में उनका प्रवेश था। धार्मिक भावनाएं श्रद्धा एवं सद् धनुष्ठान के स्थान पर अंध विश्वास, हिंसा एवं प्रचलित रूढियों को पुष्ट कर नही थी । " यथार्थं पशवः स्रष्टाः एवं वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसे सूत्रों की रचना कर ली गयी थी । राजा शक्ति के पुंज थे। उनकी आज्ञा ईश्वरीय प्राज्ञा होती थी ।
वर्णाश्रम व्यवस्था के नियन्त्ररण के कारण
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
1-168
सबसे अधिक खराब स्थिति अन्तिम वर्ण वालों की को अमान्य घोषित किया। महावीर का कहना था थी। वे पूर्ण रूप से तीन वर्ण वालों के प्राश्रित कि जन्म से न कोई ब्राह्यण है और न क्षत्रिय न थे। समाज में उनका न कोई स्थान था और न कोई वैश्य है और न कोई शूद्र । किन्तु अपने कर्मों सम्मान । धर्म के अतिरिक्त विकास के कार्य मी के माधार पर इनका विभाजन किया जाना उनके लिए बन्द थे। उनका कार्य तो केवल सेवा चाहिए। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी कहा कि करना ही रह गया था। शिक्षा पर एक वर्ण का घृणा पाप से करो पापी से नहीं क्योंकि घृणा हिंसा अधिकार था। उससे क्षत्रिय व वैश्य वंचित रहते की पृष्ठ भूमि है। भगवान महावीर ने मुनि एवं थे। वेद व स्मृति पढ़ने का तो प्रश्न ही नहीं था। प्रायिका के लिये महाव्रत एवं श्रावक-श्राविका के समाज में परस्पर घृणा, द्वेष एवं कलह का वाता- लिए अणुव्रत को जीवन में उतारने पर बल दिया। वरण व्याप्त था एवं नैतिक मूल्यों में एकदम हिंसा करना, असत्य बोलना, चोरी करना, प्रसदागिरावट मा गयी थी। साधारण आदमी भी अपनी चारी जीवन व्यतीत करना तथा मावश्यकता से जीविका प्रर्जन में ही लगा रहता था। उनका अधिक वस्तुओं का संचय करना निन्दनीय है और मनोबल गिर चुका था इसलिये वह उच्च वर्ण के इनसे प्रत्येक मनुष्य को बचना चाहिए। साधुओं के अत्याचारों को सहन कर लेता था।
लिए इन पापों को पूर्ण रूप से त्यागने का उपदेश भगवान महावीर ने 12 वर्ष तक घोर साधना दिया । वास्तव में जिस समाज को इन बुराइयों से के साथ-साथ देश को सामाजिक एवं धार्मिक पूर्ण रूप से अथवा एक देश रूप से मुक्ति मिल प्रवस्था का गहरा प्रध्ययन किया तथा अपनी जावे वह समाज स्वतः ही स्वस्थ समाज बन साधना पूर्ण होने पर वे देश में स्वस्थ समाज की जायेगा। जिस समाज में नैतिकता का मूल्य हो रचना में लग गये। उन्होंने सर्वप्रथम समाज में वहीं समाज स्वस्थ समाज है। व्याप्त हिंसा का घोर विरोध किया और अहिंसा महावीर के युग में भी धन की पूजा अपनी धर्म के परिपालन पर सर्वाधिक जोर दिया। चरम सीमा पर थी। कुछ लोग सम्पन्न थे तो उन्होंने ऐसे समाज निर्माण का उपदेश दिया जिसमें अधिकांश समाज विपनता से ग्रस्त था । अन्तिम मानव ही नहीं पशु पक्षी तक बिना किसी भय एवं वर्ण वालों का जीवन, रहन सहन, खानपान ऊंची पाशंका से जीवन यापन कर सकें। उन्होंने कहा जाति कहलाने वालों के हाथों में था। वे ही उनके कि सिा केवल जीवों का वध नहीं करने तक भाग्य विधाता थे। महावीर ने. सबको जीवन में ही सीमित नहीं है किन्तु परस्पर में एक दूसरे को अपरिग्रह का उपदेश दिया। वे निम्रन्थ थे । तिल नीचा ऊंचा मानना, घृणा करना, छोटे आदमी तुष मात्र भी उनका अपना नहीं था। उन्होंने का तिरस्कार करना एवं अपने में अहं भाव रखना सामाजिक जीवन में संचय मनोवृति का विरोध सब हिंसा में सम्मिलित हैं। मानव मात्र से प्रेम किया। उसको निन्दनीय बतलाया। अधिक संचय करना सच्ची अहिंसा है। क्योंकि जैसे हमें अपना मनोवृत्ति में हिंसा, असत्य, चोरी, अनैतिकता एवं जीवन प्रिय है वैसे ही दूसरों को भी प्रिय है। लोभ जैसी बुराइयों को प्रोत्साहम मिलता है। इस इसलिए समाज में किसी भी जीव का घात नहीं मनोवृत्ति से कभी पारिवारिक व कभी सामाजिक किया जाना चाहिये।
शान्ति नष्ट होती है। उन्होंने देशवासियों को " महावीर ने सम्पूर्ण समाज को मुनि, प्रायिका, उतना ही धन संचय करने का उपदेश दिया जितना श्रावक एवं श्राविका इन चार भागों में विभाजित कम से कम में सामाजिक व धार्मिक दायित्व पूरा किया तथा चार वर्षों में विभाजित समाज रचना हो सके। उस युग में 363 मतमतान्तर थे। और
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
से सभी अपने प्रापको उत्कृष्ट एवं दूसरों को नोचा मानते थे । समाज में धर्म एवं दर्शन को लेकर प्राये दिन शास्त्रार्थ होते थे । स्वयं गौतम गणधर बनने से पूर्व वैदिक क्रियाकांडी विद्वान था और अपने ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानता था । शास्त्रार्थों से - शान्ति के स्थान पर प्रशान्ति ही हाथ लगती थी और परस्पर में घृणा एवं द्वेष का वातावरण बन जाता था। यही नहीं एक दूसरे के अनुयायियों में परस्पर टकराव का भय बना रहता था । वैचारिक सहिष्णुता तो उनमें जरा भी नहीं बची थी । इसलिए महावीर ने जगत को अनकान्त सिद्धान्त के माध्यम से समन्वय दृष्टिकारण को अपनाने पर बल दिया ।
उन्होंने कहा कि धार्मिक सहिष्णुता देश एवं समाज के विकास में सबसे श्रावश्यक तत्व है । सभी धर्म अच्छे हैं किन्तु उनमें फैला हुआ प्राग्रहवाद सबसे बुरा है । वास्तव में व्यक्ति किसी वस्तु के जिस सत्य को समझता है वह पूर्ण सत्य नहीं है किन्तु वह प्रांशिक सत्य है । वह उसके ज्ञान व मान्यतानों का सत्य है । वस्तु के अन्य पक्ष भी सत्य हैं इसलिये दूसरे के दृष्टिकोण को समझकर आचरण करना समाज के सदस्यों का प्रथम कर्तव्य हैं। महावीर ने देश एवं समाज में शान्ति एवं एकता रखने के लिये सर्व धर्म समभाव पर जोर दिया । व्यक्ति एवं समाज को सभी धर्मों का प्रादर करना सिखलाया तथा एक दूसरे से प्रेम करने पर जोर दिया ।
महावीर काल में नारी समाज की भी चिन्तनीय स्थिति थी । उसे समाज में उचित स्थान प्राप्त नहीं था तथा उसे हीन एवं उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा जाता था । वह शिक्षा से तो वंचित थी ही किन्तु आत्म साधना का भी कोई अधिकार नहीं था । दासी प्रथा का जोर था और राजमहलों एवं धनियों के यहां दासियों की लाइन लगी रहती थी, स्त्रियों का खुले बाजार में क्रय विक्रय होता था । स्वयं चन्दनबाला को भी इस प्रथा का शिकार
4-109
होना पड़ा था और वह राजमहलों से बिकती हुई एक श्रेष्ठि के हाथों में मा गयी थी । दासियां भी कितनी ही प्रकार की होती थी इनमें घाय, क्रीतदासी, कुलदासी, नातिदासी मादि उल्लेखनीय थी ! दासी प्रथा का प्रचलन न केवल सुविधा के लिए था किन्तु दासी रखना वैभव एवं प्रतिष्ठा की निशानी समझा जाता था । दासी प्रथा के साथ समाज में गणिका प्रथा का भी जोर था । बौद्ध भागमों के अनुसार मम्रपाली वंशाली गणराज्य की प्रधान नगर वधु थी । गणिकायें मनुष्य को वासना तृप्ति का शिकार बनती थो तथा समाज में घृणा एव तिर कार का पात्र बनती थी । भगवान महावीर ने नारी को समाज में वही स्थान देने को कहा जो किसी एक पुरुष को प्राप्त है । सर्व प्रथम उन्होंने बेड़ी पहिने हुई दासी चन्दन बाला से आहार ग्रहण कर दासी जाति को ही नहीं किन्तु नारी मात्र को समाज में उचित स्थान दिया । महावीर ने इसी चन्दनबाला को अपनी साध्वी संघ की प्रमुख बना कर दासियों से घृणा करने वाले समाज पर गहरी चोट की तथा समाज में उन्हें उचित स्थान देने पर बल दिया। भगवान महावीर ने राजा श्रेणिक की रानी चेलना को श्राविका संघ की प्रधान बना कर परस्पर के वर्ण भेद को समाप्त किया । उन्होंने अपने संघ में नारी मात्र को उचित स्थान दिया और उन्हें ग्रात्म साधना की पूर्ण स्वतंत्रता दी । जैनागमों में पत्नी को घम्मसहाया अर्थात् धर्म की सहायिका माना गया है । भगवान महावीर के संघ में छत्तीस हजार साध्वियों थी जिनमें सभी वर्ग की महिलायें थी ।
भगवान महावीर के युग में अध विश्वासों, मूढ़ताओं एवं झूठे चमत्कारों का जोर था । कोई भी व्यक्ति या साधु प्रशिक्षित एवं धर्म निष्ठ व्यक्तियों को धर्मं के नाम पर अथवा चमत्कार के नाम पर ठग लिया करता था । यज्ञों को स्वर्ग प्राप्ति का साधन बतलाया जाता था तथा उससे देवी देवतानों के प्रसन्न होने की बात कही जाती
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
1180 थी। पशुबली तो सामान्य बात थी। भगवान उस युग की सामाजिक व्यवस्था में भाषा महावीर तो क्रांतिकारी थे। उन्होंने ऐसे कार्यों क्रांति की एक और कड़ी भगवान महावीर में का घोर विरोध किया और जनता के सामने जोड़ी। उनके युग में संस्कृत भाषा की प्रधानता अहिंसा प्रधान धर्म प्रतिपादन किया । महावीर ने अवश्य थी किन्तु वह जन साधारण से अपना समाज के प्रत्येक व्यक्ति से रत्नत्रय युक्त जीवन सम्बन्ध खो चुकी थी। संस्कृत केवल एक वर्ग व्यतीत करने पर जोर दिया। महावीर के रत्नत्रय विशेष की भाषा बन कर रह गयी थी और उम है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र। वर्ग ने ही समाज में अपना प्रभुत्व कायम रखने के समाज के प्रत्येक व्यक्ति को मूढ़तामों एवं अहंकार लिए उसके विस्तार के सभी द्वार बन्द कर दिये युक्त जीवन से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने थे। उन्हें ही उसके अध्ययन अध्यापन की सुविधा सम्यक दर्शन का प्रतिपादन किया। उन्होंने लोक थी और वे ही उसका प्रयोग करने के अधिकारी मूढ़ता,
एवं गुरु मूढ़तामों के बारे में कहलाने लगे थे। इसलिये भगवान महावीर ने समाज को पागाह किया। उन्होंने कहा कि नदियों उसी भाषा को अपनाया जो विशिष्टों की नहीं में स्नान करने में शुचिता मानना तथा स्नान से थी। उन्होंने प्रर्धमगधी को अपनाया जो उस समय पुण्य मर्जन करने में विश्वास करना मूढ़ता है।
लोक भाषा थी जिसमें ऊर्जा थी तथा जो जन-जन देवी देवताओं की शक्तियों में विश्वास करना देव
को जोड़ने वाली थी। महावीर ने अपने सभी मूढ़ता है तथा साधु एवं सन्यासियों के चमत्कारों में विश्वास करना गुरु मूढ़ता है। इसी तरह उन्होंने सन्देशों एवं प्रवचनों में अर्धमागधी भाषा काही अहकार की मनोवृति को निन्दनीय बताया तथा प्रयोग किया। महावीर की इस भाषा क्रांति ने समाज में अपनी बुद्धि का महंकार, धर्म का मह- समाज में एक दम हलचल मचा दी और लाखों कार जाति एवं शरीर का अहंकार, योग व तपस्या
लोग सहज ही उनके हो गये । इस प्रकार भगवान का अहंकार से दूर रहने का उपदेश दिया क्योंकि इनके रहने पर समाज एवं व्यक्ति में पारस्परिक
___ महावीर प्रथम धर्माचार्य थे जिन्होंने सैकड़ों वर्षों के ई एव द्वेष बढ़ता है और समाज का एको. पश्चात् जनता को उसी की भाषा में धर्म एवं करण के स्थान पर विघटन होता है । जीवन विकास की बात बतलायो ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
80000000000000000000000
22:
900908
खड
ANOO
&0000000000000000000
कला, संस्कृति और साहित्य
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
अल्प बचत के नये साधन
७ वर्षीय डाकघर राष्ट्रीय बचत पत्र (पंचम निर्गम)
ये सर्टीफिकेट १ जनवरी, १९७४ से १०), ५०), व १००) रुपये के डाकघरों से खरीदे जा सकते हैं। इसमें १०। प्रतिशत चक्रवृद्धि ब्याज दिया जायेगा जो १४ प्रतिशत प्रतिवर्ष साधारण ब्याज होगा । डाकघर टाइम डिपोजिट
५०) रुपये के गणन में यह डिपोजिट किसी भी डाकघर में करवाये जा सकते हैं। ब्याज निम्न प्रकार है
'१ वर्ष के लिये ८ प्रतिशत २ वर्ष के लिये ८॥ प्रतिशत ३ वर्ष के लिये ६ प्रतिशत
५ वर्ष के लिये १० प्रतिशत ५ वर्षीय डाकघर रिकरिंग डिपोजिट खाता
५ रुपये के अभिदान में यह रिकारिंग खाते किसी भी डाडघर में खोले जा सकते हैं । प्रतिमाह रकम रु० ५ १० २० ५० १०० ५०० । ५ वर्ष बाद कुल रकम रु० ३७५ ७५० १५०० ३७५० ७५०० ३७,५००
५ वर्ष में एक बार, किन्तु १ वर्ष बाद जमा रकम की आधी रकम ऋण ले सकते हैं।
इन सभी योजनाओं में जमा करने की अधिकतम कोई सीमा नहीं है। इनसे व अन्य स्वीकृत मदों से एक वर्ष में एक नाम से मिलने वाली ब्याज की रकम ३,००० रुपये तक पर कोई आयकर नहीं लगाया जायेगा और न ही स्त्रोत पर आयकर कटेगा इनमें संस्थायें रकम जमा नहीं करा सकती। पूर्ण विवरण व सेवा हेतु सम्पर्क करें
जिला बचत अधिकारी, राष्ट्रीय बचत (भारत सरकार) अधिकृत एजेन्टों या समीपस्थ पोस्ट मास्टर एवं स्टेट बैंक आफ इंडिया व स्टेट बैंक आफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अल्प बचत एवं स्टेट लोटरीज विभाग, राजस्थान, जयपुर ।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्धमानो जिनेशः
ज्ञातृवंशोद्भवं धीरं सिद्धार्थकुलनन्दनम् । त्रिशलाया सुतं शान्तं जैनधर्मप्रसारकम् । वर्द्धमानं महावीरं सन्मति सन्मतिप्रियं । अतिवीरं श्रीवीरं च प्रणमामि मुदा अहम् ॥ युग्मम प्रशमगुणनिधानं प्राप्तकैवल्यज्ञानम् । गौतमगुरुसुखदं मोक्षमार्गे प्रधानम् ।। भवत्रसितजनानां सर्वदुःखप्रहारणं ।
भव्याजमुद्दिनेशं वोरन थं नमामि ॥ क्षान्तेः मार्दव सत्यशौचतपमा त्यागाख्य धर्मस्य च पाकिञ्चन्य सुसंयमार्जव तथा ब्रह्मति सत्कर्मणाम् विश्वस्मिन् कृतवान् प्रसारमखिलां सम्प्राप्य ज्ञानप्रभां वीरो नः भवतूत्सवाय समतासाम्राज्यसंस्थापकः ।।
विकरन् गुणरश्मिं धर्मतत्वस्य ईशः प्रविशन् सुखधाम्नि मोक्षमार्गप्रणेता। समवशरणमध्ये भव्यजीवान् प्रशास्ता । जयतु जयतु देवः वर्धमानो जिनेशः ।।
नेमिचन्द्र जैन
एम. ए. (द्वय)
साहित्याचार्य प्राचार्य, एस.पी. जैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक शाला खुरई
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन कला वैभव (राज्य संग्रहालय, लखनऊ के परिप्रेक्ष्य में) -श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी,
IFE भारत में उत्तर प्रदेश का अपना ही महत्व है। इस प्रदेश में संस्कृति, दर्शन, कला एवं धर्म प्राचीन काल में इस प्रदेश की संज्ञाए "मध्यदेश" ___का सर्वत्र प्रसार है । यथा मथुरा, अयोध्या, तथा "आर्यावर्त" थी। यहां पर इतिहास, पुरातत्व वाराणसी, श्रावस्ती, अहिछत्रा, हस्तिनापुर, कन्नौज, एवं सस्कृति का संगम अविस्मरणीय है। यहां आदि नगरों का अपना महत्व है । सदैव महापुरुषों 1 Bोकाय
के इस प्रदेश में जन्म, जीवन-क्रीड़ाओं तप-दीक्षा उपदेश एवं निर्वाण प्रभूति घटनामों के होने से, इसे गौरव प्राप्त हुआ है। इस गौरवमय प्रदेश में सर्वप्राचीन एव संग्रह में अद्वितीय है-राज्य संग्रहालय लखनऊ।
इस संग्रहालय में जैन धर्म से सम्बद्ध कलाकृतियों का वृहत्संग्रह है। यह संग्रह मथुरा, अयोध्या, काशी, महोबा, उन्नाव, आगरा, जालौन, एटा, आदि, उ.प्र. के अतिरिक्त ग्वालियर, मुइहर छतरपुर, म.प्र. आदि स्थानों से भी है । ये कलाकृतियां मूलरूप से तो खुदाइयों से प्राप्त हुई । कितनी ही क्रय की हुई है। कुछ उपहार रूप में प्राप्त हुई हैं जिनमें सन् 1972 में चौक, लखनऊ 'में स्थित भगवान नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर से प्राप्त जैन-मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ग संग्रह में हस्तलिखित पुस्तकें जिनमें उल्लेखनीय हैं। उत्तराध्ययनसूत्र, महावीर चरित, सुरसुन्दरी कथा आदि । ये सभी मध्यकालीन हैं। चित्रकला में नेमिनाथ चरित, मेवाड़ शैली के चित्रों का संग्रह जिनमें नायक की होली
खेलते, झूला झूलते अंकित किया गया है। इसके बाहाण, जैन एवं बौद्ध-इन तीनों धार्मिक धाराओं
अतिरिक्त पद्मावती का रेखाचित्र, ऋषभदेव का की अजस्र मंदाकिनी बही है, जिसमें प्राणिमात्र
अंकन जिसमें श्वेताम्बर मुनि हैं तथा राजा को उपको पावन करने की पूर्णशक्ति है । आज भी वैभव.. देश देते हए मनि दर्शित हैं । इसका वर्णन श्रीमद् एवं सभ्यता से बेसुध किन्तु चित्त से पूर्णरूपेण भागवत में भी पाते हैं। प्रशान्त मानव को शीतलता, इस भारतीय संस्कृति की मंदाकिनी में अवगाहन करने से ही प्राप्त हो धातु पर भी जैन कला को पाते हैं। सोने का सकेगी-ऐसा दृढ़ विश्वास है।
माधे इच का पत्र-पतर जिस पर अम्बिका का
www.jainelibrabargs
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-3
उल्लेख है । प्रायाग पटों पर चक्र द्वारा या मानव रूप में तीर्थंकरों को बनाया जाता था। चित्र-2
अंकन है। बालक नीचे खड़ा है। दूसरे हाथ में प्राम्रगुच्छ पकड़े हैं। ऊपर तीर्थकर यद्यपि नहीं हैं किन्तु जिस प्रकार जैन प्रस्तर प्रतिमाओं पर अम्बिका पाते हैं उसी प्रकार यहां भी बनाया गया है । इस एकमात्र स्वाँकन के पश्चात् पीतल की धातु जैन प्रतिमाएं आती हैं जो संख्या में तेईस हैं। ये लेखयुत एवं लेखरहित दोनों ही प्रकार की हैं। ये सभी मध्यकाल की हैं। एक पृष्ठलल पर अभिलिखित सं. 1216 की चौबीसी जिसे हरिद्वार से लाया गया था। इसको अाषाढ़ की नवमी को संस्थापित किया गया था। इसे ब्राह्मण देवता समझ कर नित्य हर की पैड़ी पर पूजा जाता था। मूल नायक इसके ऋषभदेव हैं ! देखें चित्र-2
इसके बाद मनका (Bead) जिस पर त्रिरत्न बना है यह मूल्यवान पत्थर लगभग 5 सूत प्राकार का है। तदुपरान्त श्री वत्स से युक्त किन्तु मुख, हाथ एवं पैर रहित धड़ मिट्टी का बना है। इसके अतिरिक्त “सुपार्श्वनाथ' से अभिलिखित गुप्तलिपि, में लखीमपुर खीरी से प्राप्त ध्यानस्थ पद्मासीन छः इंच आकार में मिट्टी की बनी कृति है।
इस पर मांगलिक चिह्न एवं अभिलेख भी पाते
हैं । संग्रह की मर्हन प्रतिमायों में आदि, चन्द्र, नस्तर पर जैन-प्रतिमाओं का अंकन विस्तृत
वासु, सुव्रत, विमल, अजित, श्रेयांस, शीतल, नेमि है। इन्हें प्रतीक या मानव रूप में सुरचित किया
पार्श्व एवं महावीर की प्रतिमाए हैं । है। जैन प्रतिमाए कुषाण, गुप्त, मध्य एवं आधुनिक काल की हैं । वेदिका स्तम्भ, तोरण, ये सभी विग्रह कायोत्सर्ग या पद्मासीन दिगम्बर उष्णीष, फुल्लो पर अभिलेख कमल, स्वस्तिक, या सवस्त्र बनाये गये हैं । इन पर लेख भी पाते हैं श्रीवत्स, शंख आदि को शिल्पकार ने स्थान दिया कितनी ही प्रतिमाएं लेख रहित भी हैं। मथुरा है। ऋषभदेव का वैराग्य नीलाञ्जना का नृत्यपट्ट से प्राप्त प्रतिमाएं लाल चितीदार पत्थर की हैं । तथा महावीर का गांकन विशेष रूप से शेष काले, श्वेत संगमरमर भूरे, स्लेटी, मटीले या दि
1. जोशी डा. नीलकण्ठ पुरुषोत्तम, मेटल इमजेज इन दो कलेक्शन म्यू. बुले. पृ. 9. 2. हीरानन्द शास्त्री, सम रिसेन्टली एडेड स्कल्चर इन प्राविशियल म्यू. लखनऊ, आकि.सर्वे 1922 पृ.24
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-4
प्रस्तरों पर उपलब्ध है। ये दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन प्रतिमानों में सर्वोत्तम कलाकृति गुप्तदोनों ही वर्गों की हैं। कुषाणकालीन प्रतिमाओं कालीन चित्र-3 है । इसे मथुरा से पाया गया में तीर्थङ्कर के साथ सादा प्रभामण्डल, चंवरधारी है। इसमें चक्र है जो कि सामान्य है। किन्तु नीचे चक्र, अर्द्ध फालक, उपासक उपासिका या इसमें बैल, बाल नहीं, शंख बलराम कृष्ण सर्पफण गृहस्थोत्तम को बनाया जाता था । मूल नायक को नहीं हैं । लेख भी नहीं है । चूकि मथुरा के श्रीवत्सयुत शारीरिक सौन्दर्य एवं मुख को तेजस्विता प्रायाग पट्ट पर चक्र के साथ तथा प्रायवितीचर से बनाया जाता था । प्रभामण्डल को कमल, महावीर, वर्तमान लिखा पाते हैं। जैन साहित्य में हस्तिनख फूलों से सजाया जाता था। यह गुप्तकाल उल्लेख पाते हैं कि भग. महावीर मथुरा अपने में विशेषता रही कि नासाग्र दृष्टि रखी जाती थी। जीवनकाल में पधारे । इस प्रतिमा को देखने से यह मध्य युग से ही यक्ष, पक्षी, गणधर, विद्याधर. सहजही में लगता है कि भग. महावीर की प्रतिमा कैवल्य वृक्ष, गन्धर्व, त्रिछत्र, देवदुंदुभी आदि का है जो “सत्वेषुमैत्री" की याद दिलाती है मानों विकास हुआ है।
यह प्रतिमा कहती है :---
"जग पर न्योछावर हो जाना स्वर्ग यही, कल्पवृक्ष के नीचे युगलिया तथा ऊपर अर्हन
निर्वाण यही। प्रतिमा, पंचतीर्थी, त्रितीर्थी, चौबीस तीर्थङ्करों का
सबको अपना बन्धु समझना, सबसे ऊचा अङ्कन पट्ट-चौबीसी. मानस्तम्भ, सर्वतोभद्रिका
धर्म यही ॥ चौमुखी आदि उल्लेखनीय जैनकलाकृतियाँ हैं। ये
-स्व० पुष्पेन्दु लेख युत या लेख रहित है। इनमें कहीं-कहीं पर अष्ट या नव ग्रहों का सी अङ्कन है। अन्तिम को मनोज्ञता के कारण ही इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति छोड़कर शेष गुप्त या गुप्तोत्तर काल की है। प्राप्त है, जाप न, ब्रिटेन, अमेरिका की प्रदर्शनी में
इसने भारतीय कला को मुखरकर जैन संस्कृति को प्रतिष्ठापित किया है।
इस प्रकार जैन कला पर विहंगम दृष्टिपात करने पर क्या यह विदित नहीं होता कि तीर्थकर प्रतिमाए' ध्यानमग्न या परमनिर्विकार ध्यान में लीन हैं ? ये प्राध्यात्मिकता के ऊंचे स्तर पर हैं। जो दर्शक को सत्यं शिवं सुन्दरं का बोध कराती
संक्षेप में प्रस्तर, मिट्टी, धातु (सोना, पीतल) एवं कागज के माध्यम से विनिर्मित ये जन-कला कृतियां राज्य संग्रहालय लखनऊ के संग्रह की अमूल्य निधि हैं । ये कृतियां कला जगत की अक्षयपूर्णिमा हैं।
3. मथुरा स्थित भाण्डीर उद्यान में ठहरे थे—विवग्सूय, जैन पार्ट एण्ड माचीटेक्चर ब्लूम-1 ।
www.jainelibrary
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिहार का इतिहास और जैन पुरातत्व
-श्री दिगम्बरदास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर
भारत एक महान और धार्मिक देश है। आदि शीतलनाथ, 20वें मुनिसुव्रतनाथ, 21वें नमिनाथ तीर्थकर भ० ऋषभदेव, भ० राम, श्री कृष्ण, तथा अन्तिम तीर्थंकर भ. महावीर की जन्मभूमि होने महात्मा बुद्ध, हजरत प्रादम, गुरु नानकदेव, का सौभाग्य भी बिहार को ही प्राप्त है । सब ही भ० महावीर जैसी महान प्रात्मानों को जन्म देने का तीर्थंकरों का धर्म प्रचार-स्थल तो यह प्रान्त मुख्य. गौरव भारत को ही प्राप्त है । हजरत ईसा और रूप से रहा ही है । मगध सम्राट् धेरिणक बिम्बमोहम्मद साहब भी भारत आये थे।
सार, अजातशत्रु कुणिक महाराजा चेटक, कलिंग भारत में भी बिहार प्रान्त धार्मिक एवं ऐति
सम्राट खारवेल, नन्द वन्शी महाराजा नन्दिवर्धन, हासिक दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखता है।
__ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, सम्प्रति प्रादि के
समय कई शतान्दियों तक बिहार में जैन धर्म राज भ. महावीर का सर्वप्रथम धर्मोपदेश, म. बुद्ध का
धर्म रहा तथा इन राजाओं ने जैन धर्म का प्रचार अधिकांश बिहार तथा म. ईसा का धर्म प्रचार
किया (देखिये महावीर जयन्ती स्मारिका 1974 अधिकतर बिहार प्रान्त में ही हवा । बनवास काल
खण्ड 2 पृष्ठ 19-32 पर हमारा 'महाराजा में भ. रामचन्द्र इस प्रान्त में पधारे थे जिसका
अशोक और जैन धर्म' शीर्षक निबंध तथा हमारा स्मारक राजगृही में है।
ग्रन्थ 'वधमान महावीर') यही कारण है कि इस प्राचीनकाल में बिहार को मगध देश कहते थे। प्रान्त में अत्यन्त महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व स्थल हैं इस युग (पाषाण काल की समाप्ति तथा कृषियुग जिनमें से कुछ का परिचय यहां दिया जा रहा का प्रारम्भ) के प्रारम्भ में भ. ऋषभदेव ने यहां धर्म हैप्रचार किया। म. महावीर का भी इस प्रान्त में इतना अधिक बिहार हुवा कि मगध का नाम ही राजगृही—यह मगध देश की राजधानी थी। बिहार पड़ गया । यह प्रान्त भारत के उन 51 विपुलाचल. रत्नगिरि, उदयगिरि, स्वर्णगिरि तथा देशों में से एक है जिनकी स्थापना युग के प्रारम्भ वैभारगिरि इन पांच पहाड़ों के कारण इसे पंचपहाड़ी में भ. ऋषभदेव ने की थी। 24 में से 22 तीर्थ- भी कहते हैं। यहां ही के विपुलाचल पर भ. महा. करों का निर्वाण इस प्रान्त में हवा । दसवें वीर का सर्वप्रथम धर्मोपदेश हवा था। अन्तिम केवली
1. Jainism has been preached in Magadha (Bihar) by Lord Rshabha at the end of stone age and in the beginning of Agricultural age.
-P: C. Roy Chaudhary : Jainism in Bihar page 7,
.
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-6
जम्बू स्वामी का जन्म भी यहाँ ही हुवा था जो यहां के नगर सेठ के पुत्र थे और जिन्होंने असंख्य धन सम्पत्ति के लात मार तथा आठ सुन्दर स्त्रियों का मोह त्याग जिन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। 20 वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी का जन्म स्थल भी यह ही है । पुराणों के अनुसार वासुपूज्य के प्रतिरिक्त शेष 23 तीर्थंकरों का समवसरण यहां प्राया था। यहां कई जैन मन्दिर और गुफाएं हैं । विस्तार के लिए 'Cave temples of India | by Furguson & Burgess p. 1880' तथा 'Jain Caves & temples by Dr. Klouse. Fisher (World Jain Mission publication) ure Wonders of the Past (London) pa 1041 देखिए ।
कुण्डलपुर - भ. महावीर की जन्म भूमि है । यहां भ. महावीर का विशाल मन्दिर धौर प्रतिशयपूर्ण मूर्ति है जिसे तोड़ने भौरंगजेब अपनी सेना लेकर आया था सैनिक जब मूर्ति तोड़ने लगे तो मधुमक्खियों ने उन पर प्राक्रमण कर दिया एक सैनिक ने मूर्ति के पांव के अंगूठे पर फरसा मारा तो वहां से दुग्ध की धारा फूट निकली जिससे चकित और भयभीत होकर सैनिक भाग गए ।
पावापुरी - भ. महावीर की निर्वाणस्थली यहां एक सरोवर के मध्य संगमरमर का बड़ा श्राकर्षक मन्दिर है जिसमें 600 फीट लम्बे पुल पर होकर जाना पड़ता है। मंदिर और पुल यहां के राजा का बनवाया हुआ है ।
पाटलिपुत्र (पटना) के निकट गुलजार बाग
से शीलव्रतधारियों में प्रसिद्ध सेठ सुदर्शन का निर्वाण हुआ था। पटना जंक्शन से एक मील की दूरी पर लोहानीपुर से एक नग्न मूर्ति का घड़ दिनांक 14-2-1997 को प्राप्त हुआ था जो
पटना संग्रहालय में सुरक्षित है । चन्द्रगुप्त मौर्य के राजकाल में यूनानी इतिहासकार मैगस्थनीज उसकी सभा में राजदूत बनकर प्राया था। यहां ही 1600 ई. में गुरु गोविन्दसिंह का जन्म हुआ
था ।
वैशाली - अपनी विशालता के कारण कहलाता था। महावीर काल में यहाँ का राजा हड़ जैन श्रद्धानी चेटक था जिसकी प्रतिज्ञा थी कि वह अपनी पुत्रियों का विवाह केवल जैन से ही करेगा । इसकी पुत्री त्रिशला भ. महावीर की माता श्री । इसी कारण महावीर वैशालिक कहलाते थे। 1 चीनी यात्री फाहियान (पांचवीं शताब्दी) तथा इसके 230 वर्ष बाद याने वाले हुएनसांग दोनों ने वैशाली को एक विशाल नगरी लिखा है । 2
मिथिला - मल्लिनाथ और नमिनाथ तीर्थंकरों की जन्मभूमि है। रामायणकाल में यहां का राजा जनक था जिसके नाम पर यह जनकपुरी भी कह लाती थी। राजा जनक जैन था और निज पर का भेद विज्ञानी प्रसिद्ध होने से लोग उसे विदेह भी कहते थे। अर्थात् शरीर में उसकी घासक्ति नहीं थी । तीर्थंकर अरहनाथ को अवधिज्ञान यहां के समीपस्थ वन में ही हुआ था ।
मानभूम भ. महावीर के इस नगर का यह नाम पड़ा। एसियाटिक सोसायटी बंगाल के
I. Vaisali has a close association with Jainism. In past Mathura has been. called Vaisalika. -- Buddhism & Vaisali p. 8.
वर्द्ध मान नाम पर: कर्नल डेलटन ने जनरल 1868 ई.
2. The Chinese pilgrim Fahian came to India in 5th century AD & visited Vaisali in his way from Kapil - Vastu to Patliputra 230 years later Hiven - Tsan visited. Both describe Vaisali to be a big city. - Ibid p. 42.
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
में लिखा है कि मानभूमि के निवासी सराक जाति सिंहभूम-भ. महावीर के चिह्न सिंह पर के लोग रात्रि भोजन नहीं करते थे। वे पार्श्वनाथ इस जिले का यह नाम पड़ा है। यहां भी भ. को पूजते थे।1 यहां से जैन तीर्थकरों की अति महावीर का विहार हुआ था। मेजर टिकल के प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जो आज कलकत्ते अनुसार प्राचीन काल में यह जैनधर्म का केन्द्र था। म्यूजियम में सुरक्षित हैं - चन्द्रगुप्त मौर्य का यहां से भी जैन तीर्थंकरों की अनेक प्राचीन मूर्तियां बंगाल की खाड़ी से अरब समुद्र तक राज्य था अतः प्राप्त हुई हैं। वहां से तीर्थंकरों की मूर्तियां एवं जैन मन्दिरों के
चौसा--जिला शाहबाद से चन्द्रमा चिह्न युक्त खण्डहर प्राप्त होना स्वाभाविक है । इसही जिले में खुदाई से अनन्तनाथ तीर्थंकर की भी मूर्ति प्राप्त
चन्द्रप्रभ, ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, अभिनन्दननाथ, हुई है जो पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। एक
सुमतिनाथ, पुष्पदन्त, श्रेयांसनाथ, अनन्तनाथ, मूर्ति शांतिनाथ की भी मिली है जो कलकत्ता
धर्मनाथ की मूर्तियां, धर्मचक्र और कल्पवृक्ष, तीर्थंकरों संग्रहालय में है और जिसका नम्बर एम. एमः
का चरण पट्ट10 तथा तीसरे तीर्थकर संभवनाथ की चौमुखी मूर्ति प्राप्त हुई है ।11 |
लोहानीपुर–से खुदाई में 17 तीर्थंकरों की ... पलामू... जिला मानभूमि से नेमिनाथ की मूर्ति
मूर्तियां मिली हैं जो पटना घंग्रहालय में नं. 6516 प्राप्त हुई है जो पटना संग्रहालय में है जिसका
से 6 ) 32 तक हैं। ये मूर्तियां अभिनन्दन, ऋषभनं. ए. एन. 3 है। यहां ही से बादामी रंग की श्री अभिनन्दन तीर्थंकर की मूर्ति मिली है जिसका
देव, सुमतिनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, पद्मप्रभ,
शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, पटना संग्रहालय न. ए, एन. 128 है । चौबीस ।
नमिनाथ, नेमिनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, विमलनाथ तीर्थंकरों का एक पट्ट भी यहां से मिला है जो भी
और महावीर की हैं 112 उक्त संग्रहालय में है ......
कांची-- भी जैनधर्म का महत्वपूर्ण स्थान चन्दनक्यारी-जिला मानभूम से भी भ.
रहा है जहां से नौ देवों की कलापूर्ण मूर्तियां प्राप्त ऋषभदेव की एक प्राचीन मूर्ति मिली है जो भी उक्त संग्रहालय में है।' यहाँ ही से प्राप्त एक भ. ऋषभदेव और भगवान महावीर का एक अनुपम चापापुर- भागलपुर के निकट है। 12वें अद्वितीय पट्ट भी इस संग्रहालय में सुरक्षित हैं 18 तीर्थंकर वासुपूज्य के पांचों ही कल्याणक यहां
1. They (Sraks) are represented as having great scruples against taking life. They must not eat till they have seen Sun They venerate Parsvanath.
- Col Dalton : Journal of Asiatic Society Bengal p. 35 1868 A.D. 2. ibid page 56. 3: VOA Feb. 1967 p. 62. 4-5-6-7-8. जैन सिद्धान्त भास्कर, जनवरी, 1943 पेज 95. 9. (क) Journal of Asiatic Society Bengal, 1840 p. 686.
(ख) ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद : बंगाल, बिहार और उड़ीसा के प्राचीन जैन स्मारक पृ. 65.. 10. जैनसिद्धान्त भास्कर, जनवरी, 1943 पृ. 15 12. जैन सिद्धान्त भास्कर, जनवरी 1943, पृ. 95. 11. Studies in Jain Art plate No. 6 Fig. 17. 13. V. P. Shah : Studies in Jain
Art: Fig. 77.. . .
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-8
हुए हैं। विश्व में केवल यह ही एक ऐसी नगरी मुनियों के निवास के लिए बनाई गई अनेक जैन है जिसे किसी तीर्थकर के पांचों कल्याणक होने गुफाएं हैं।' का गौरव प्राप्त है। इसी कारण शास्त्रों में इसकी बन्दना का पुण्य फल नौ करोड उपवास के बराबर
औरंगाबाद- जिला गया की गुफामों में धर्म बताया गया है । नाथ नगर और मन्दार पर्वत भी नाथ, अनन्तनाथ, शांतिनाथ, कुथुनाथ, और इसके निकट ही हैं जो प्राचीन समय में चम्पापुरी
__ अरहनाथ की मूर्तियां तथा विशाल जैन मन्दिर हैं।
भरत के ही भाग थे ।
सिंहपुरी-जिला सिंह भूम में भ. महावीर कर्णगढ-महाभारत काल में चम्पापूरी की के चिह्न 'सिंह' नाम पर बसाई गई सुन्दर जैन राजधानी थी । प्रसिद्ध दानवीर कर्ण यहां ही का
नगरी थी। यह छोटा नागपुर डिवीजन में है। सजा था जिसके किले में वासुपूज्य भगवान काविशाल खुदाइ में यहां से तीर्थकरों की अनेक प्राचीन मन्दिर था । इस स्थान की खुदाई कराने पर मूतियां प्राप्त हुई हैं । महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व को सामग्री प्राप्त हो सकती
सम्मेद शिखर-जैनों के सम्पूर्ण तीर्थों का है जिससे भारत के इतिहास पर नया प्रकाश पड़
राजा है । पुराणों के अनुसार प्रत्येक काल में होने सकता है।
वाले 24 तीर्थंकर यहाँ ही से निर्वाण प्राप्त करते
हैं किन्तु वर्तमान हुण्डाव-सर्पिणी के काल दोष से ब्राह्मण योनी-पर्वत गया के निकट एक समय विशाल जैन बस्ती थी जहां से सुप्रसिद्ध
इस काल के केवल 20 तीर्थंकरों ने ही यहां से पुरातत्वविद् सर कनिधम ने अश्व चिह्न युक्त
निर्वाण प्राप्त किया । जैन शास्त्रों के अनुसार जो तीसरे तीथ कर सम्भवनाथ की मूर्ति खुदाई में
__एक बार यहां की वन्दना कर लेता है उसे नरक प्राप्त की थी।
गति, तियंच गति तथा स्त्री वेद प्राप्त नहीं होता।
हजारों यात्री यहां की यात्रार्थ शाते हैं । यहां के बारबर पर्वत -- गया के निकट है। यहां जैन आदिवासियों में जैन धर्म के प्रति अपार श्रदा है।
1. विस्तार से जानने के लिए देखिए अनेकान्त नवम्बर 1974 पृ. 11 पर प्रकाशित हमारा लेख ___'चम्पापुरी का इतिहास और जैन पुरातत्व । 2. Dr. Klause Fisher : Caves & temples of Jainas (W. J. Mission)
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (चांदलगांव)
( M
MRATI
Jain Education Interational
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर की पावन
जन्मभूमि कुण्डपुर ----डॉ० शोभनाथ पाठक
मेघनगर जि. झाबुआ (म.प्र.)
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य अंग व मगध में माना जाता था, किन्तु अब इसे की वरीयता के सम्दल से समाज को संवारने वाले वैशाली के पास 'वासु कुण्ड' नाम से जाना जाता चौबीसवे तीर्थकर भगवान महावीर की महत्ता को है जो वर्तमान मुजफ्फरपुर जिले में हाजीपुर के पास प्रांकना आसान नहीं हैं। उनका 'अहिंसा' महामंत्र है। यहां प्राकृत शोध संस्थान भी है। ही विश्व के लिए वरदान स्वरूप है। हम इस वर्ष उनका 2500 वां नि. महोत्सव लोक मंगल की अच्छा तो आइये कुण्डपुर के प्रतीत को हम कामना से मना रहे हैं।
विविध कसौटियों पर कसकर परखें जिसके प्रतल यहां उनके जन्म स्थान 'कुण्डपुर की गरिमा
को थहाने का मनीषियों ने श्लाघनीय प्रयास पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है । इस
किया है। मुनि कल्याणविजय ने 'कुण्डपुर' को
वैशाली का उपनगर माना है, जबकि आचार्य कुण्डपुर को कुण्डलपुर, कुण्डग्राम, कुण्डग्गाम,
विजयेन्द्रसूरि ने स्वतन्त्रनगर। प्राचार्य विजयेन्द्र कुण्डलीपुर, कुण्डला आदि नामों से सम्बोधित
सूरि ने 'तीर्थ कर महावीर' ग्रन्थ में इस तथ्य पर किया गया है। यही कुण्डपुर भ्रांति के भंवर में ।
विशेष प्रकाश डाला है। दीर्घावधि तक घूमता रहा अर्थात् “लिछुपाड़" जो ।
1. (क) उन्मीलितावधिदशा सहसा विदित्वा
तज्जन्मभवित्तमरतः प्रणतोत्तमाङ्ग:। घंटा निनाद समवेतनिकायमुख्या दिष्टय ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्रा ॥
-(असग, वर्धमान चरित 1761) (ख) अथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते ।
___ स्वस्वांम कुण्डनाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ॥ (हरिवंशपुराण 112115) 2. तीर्थकर वर्द्धमान-विद्यानन्द मुनि पृ. 25 3. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, आ. हस्तीमल पृ. 351 4. तीर्थकर महावीर भाग 2 पृ. 81-82.
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-10
कुण्डपुर दो भागों में विभक्त था। एक था 'नातिक' को वैशाली से 7 ली की दूरी पर बताया छत्रियकुण्ड तथा दूसरा था ब्राह्मणकुण्ड जिसमें गया है। कनिधम ने 1 ली = 1/5 मील माना है।" क्रमशः सिद्धार्थ त्रिशला, व ब्राह्मणकुण्ड में देवानंदा अतः स्पष्ट होता है कि कुण्डग्राम से वैशाली की का निवास था। ब्राह्मणकुण्ड के पश्चिम दिशा में दूरी 1/5 मील थी। वर्तमान 'वासुकुण्ड' की स्थिति क्षत्रियकुण्ड पड़ता था जिसके मध्य में बहुशाल वैशाली के भग्नावशेष भवन से इसी अनुपात चैत्य था। कुण्डग्राम की स्थिति के विषय में श्री से है । नेमिन्द्रसूरि ने भी कहा है कि
इसी कुण्डग्राम के क्षत्रियकुण्ड में 500 ई. पू. अस्थि इह भरहवासे मझिमदेसस्स मण्डणं परमं । राजा सिद्धार्थ की धर्म पत्नी रानी त्रिशला की कुक्षि सिरि कुण्डगाम नयर वसुमइरमणीतिलयभूयं । से भगवान महावीर पैदा हुए थे यथा
(पत्र 26)
सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवर्षे विदेहकुण्डपुरे समस्त तथ्यों की परख से स्पष्ट होता है कि
देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान्सप्रदर्श्य विभुः ।। क्षत्रियकुण्ड व ब्राह्मणकुण्ड दो अलग-अलग खण्ड
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार 599 ई. पू. थे जिसका समन्वित नाम कुण्डपुर था। इसमें ही ज्ञातृ वंशीय क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ रहते थे जिनकी
का वह पावनतम समय युग को पालोकित कर धर्म पत्नी त्रिशला की कुक्षि से महावीर पैदा हुए।
धन्य हो गया जिसकी महत्ताइस 'ज्ञात' को ही 'ज्ञातिक' और 'नातिक' शब्द दृष्ट ग्रहैरथ निजोत्वगत समप्रैलग्ने, से जाना गया है । महावीर को इसीलिए 'ज्ञातपुत्र' यथा पतित कालमसूतराज्ञी । 'नाटपुत्र' आदि नामों से भी सम्बोधित किया चैत्र जिनं सिततृतीयजयागया है।
निशान्ते सोभाहिचन्द्रमसि चौत्तरफाल्गुनिस्ये _ 'नातिक' की स्थिति के विषय में बताया गया
तथा है कि यह 'वज्जी' देश के अन्तर्गत वैशाली और
चैत्र सितपक्ष फाल्गुनि, कोटिग्राम के बीच में था जबकि कपिलवस्तु
शशांक योगे दिने त्रयोदश्याम् । और राजगृह के बीच के स्थानों का उल्लेख भी जज्ञ स्वोच्चस्थेषु ग्रहैषु, इस प्रकार किया गया है "कपिलवस्तु से राजगृह
सौम्येषु शुभ लग्ने । 60 योजन दूर था तथा राजगृह से कुशीनगर 25 भगवान महावीर के जन्म से वास्तव में विश्व योजन की दूरी पर स्थित था । बुद्ध की यात्रा में में एक प्रालोक क्रोध उठा । अाज भी वही आलोक भी यह ग्राम पड़ा था।
युग के निविड अन्धकार में भूले भटकों को मार्ग महापरिनिव्वान सुत्त के चीनी संस्करण में दर्शन कर रहा है । 1. जीव एगानिमु हे खत्तिय कुण्ड ग्गामं नयां मपझमजम्मेणं निगच्छई निगच्छिता जेणेव माहरणकुण्डगा में
नयोजणेव वहुसालए चइए। (वही) 2. नादिकाति एव तलाकं निस्साव द्विण्णं चूल्लयितु मह पितुपुत्तानं द्वे माया नादकेति एकस्मि
अ.तिशा में (दीघनिकाय) 3. डिक्शनरी पादपाली प्रापरनेम्स, खण्ड 1 पृ. 976. 3. (a) Sino Indian Studies Vol I Part 4, Page 195 July 1945
(b) Com Studies, “The Paninium Sutta and its Chinese Version by Faub. 5. Ancient Geography of India p. 658 6. निर्वाणभक्ति 4 7. वर्द्धमान चरित्र 17158 8: नि. भ. 5.
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनधर्म का बिहार से पुराकालिक श्रीर अत्यन्त ही सघन सम्बन्ध है । जैनों की परम्परित मान्यता की दृष्टि से प्रत्येक कल्पकाल में चौबीस जैन तीर्थकर प्राविर्भूत होकर अपने धर्म का केवल प्रवर्तन ही नहीं प्रचार और प्रसार भी करते हैं । एक कप की कालावधि एक हजार महायुग की होती है, अर्थात् 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्ष । वर्तमान कल्प में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम चौबीसवें तीर्थकर महावीर हुए हैं । इस कल्प में, बारहवे तीर्थकर वासुपूज्य, उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ, बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ इक्कीसवे तीर्थंकर नेमिनाथ एवं Satara तर्थकर भगवान् महावीर को जन्म देने का अनन्यदुर्लभ गौरव बिहार को ही है । सच पूछिए, तो तीर्थंकरों के 'तपोबिहार' के कारण ही इस प्रदेश या प्रान्त या राज्य का नाम “विहार" (Vihar) पड़ा, जो अंगरेजों के समय में आकर, अगरेजी उच्चारण की अनवधानता के कारण, 'बिहार' (Bihar) हो गया ।
बिहार को इसलिए भी अत्यधिक गौरव है कि वह भगवान महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वारण भूमि होने के साथ ही कर्म भूमि भी रहा है। बिहार के राजकुलों भगवान महावीर or कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था । यही कारण है कि उनके समय में और उनके बाद भी बिहार में जैन धर्म का अच्छा प्रचार प्रसार हुआ, फलतः अनेक राजे और राजकुल जैन धर्मानुयायी हो गये । इस
जैनधर्म और बिहार प्रो. श्रीरंजन सूरिदेव, पटना
ष्ट से बिहार को जैनधर्म का मुख्य केन्द्र होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
भारतीय इतिहास में, जैन धर्म की वैज्ञानिक और व्यावहारिक विशेषता से प्रभावित श्रौर उसमें दीक्षित बिहारी राजानों की बड़ी लम्बी परम्परा मिलती है। इनमें प्रथम भारतीय गणराज्य वैशाली के राजा चेतक और कुण्डपुर नरेश सिद्धार्थ के अलावा राजा श्रेणिक ( 601-552 ई. पू.), राजा अजातशत्रु ( 552 - 518 ई. पू.), राजा नन्द या नन्दिवर्द्धन (305 ई. पू.), मोर्य सम्राट चन्द्रगुप्त (320 ई. पू.) सम्राट अशोक (277 ई. पू.) सम्राट सम्प्रति (220 ई. पू.) आदि के नाम सगर्व उल्लेख्य हैं ।
प्राचीन इतिहास के परिप्रेक्ष्य के अनुसार, विहार में, भगवान महावीर से प्रारम्भ करके चार सौ वर्षों तक जैनधर्मी राजाओं तथा राजन्यों के द्वारा जैन धर्म की न केवल प्रशासनिक एवं राजनयिक दृष्टि से, अपितु उससे अधिक सामाजिक एवं श्राध्यात्मिक भावना से महती उपासना की गई । जैन धर्म को बिहार की इस अद्भुत देन की ऐतिहासिक भूमिका सदा अविस्मरणीय बनी रहेगी ।
दार्शनिक दृष्टि से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि तत्कालीन बिहार में एक ओर गौतम बुद्ध अपने क्षणिकवाद के प्रचार में लगे थे, तो दूसरी मोर
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-19
प्राजीवक सम्प्रदाय के नेता मंखलिपुत्र गोशाल और भी अनेक धर्म निहित हैं। उसमें अविवक्षित अपना अकर्मण्यतावाद फैलाने में दिन-रात एक कर गुणधर्मों के अस्तित्व की रक्षा 'स्यात्' शब्द ही रहे थे। इनके अतिरिक्त, संजयबेलट्ठिपुत्र जन-मन करता है । संक्षेपतः, अनेकान्तवाद जहां चित्त में को अपने संशयवाद से प्रभावित करने के लिए अलग समता, मध्यस्थता, वीतरागता और निष्पक्षता की ही एडी चोटी का पसीना एक कर रहे थे। एक सृष्टि करता है वहां स्याद्बाद वाणी में निर्दोषता, साथ तीन सिद्धान्तों की मस्तव्यस्तता के कारण लाने का पूर्ण अवसर प्रदान करता है। इसलिए, पदार्थ के रचनात्मक रूप का यथार्थ निर्णय नहीं यदि विचार और मन की शुद्धि के लिये अनेकान्तहो पा रहा था । वस्तुतः बिहार उस समय दार्शनिक वाद आवश्यक है, तो व्यवहार और वाणी की शुद्धि मतवादियों का अखाड़ा बना हप्रा था। भगवान
के निमित्त स्याद्वाद अनिवार्य । महावीर के समकालीन तीन दार्शनिक और थे.
अनेकान्त का अर्थ है---'अनेके अन्ताः घर्माः जिनका कार्यक्षेत्र बिहार ही था। इनमें प्रथम अजित
सामान्य विशेषपर्यायगुणः यस्येति अनेकान्तः', केशकम्बली भौतिकवादी थे, दूसरे पूर्णकाश्यप
मर्थात् परस्पर विरोधी अनेक गुण और पर्यायों का प्रक्रियावादी या नियतिवादी थे और तीसरे प्रक्र द्ध
एकत्र समन्वय । अभिप्राय यह कि जहां जैनेतर कात्यायन का नाम पदार्थवादियों में पांक्तेय था।
दर्शनों में वस्तु को केवल सत् या असत्, सामान्य या उक्त छहों दार्शनिकों ने वस्तु के एक धर्म को
विशेष, नित्य या अनित्य, एक या अनेक, भिन्न या ही पूर्ण सत्य मान लिया था। बिहार की भूमि में
अभिन्न माना गया है, वहां जैन दर्शन में अपेक्षाकृत पलने पनपने वाले इन ऐकान्तिक दर्शनों की परस्पर
एक ही वस्तु में सत्-असत्, सामान्य-विशेष, नित्य
भनित्य, एक-अनेक और भिन्न-भिन्न रूप विरोधी हिंसामूलक समन्वयहीनता एवं अव्यावहारिकता से
धर्मों का समवाय माना गया है । जैनदृष्टि में चूंकि भगवान महावीर चिन्तित हो उठे थे। इसलिए,
प्रत्येक वस्तु का निरूपण सात प्रकार से होता है, उन्होंने वस्तुओं में निहित अनेक धर्मों की ओर
इसलिए इस वस्तु-निरूपण की प्रक्रिया को जैनसंकेत करने के निमित्त अपने दार्शनिक सिद्धान्तों
दर्शनकारों ने 'सप्तभंगी' कहा है। बिहार की और विचारों की प्रतिष्ठा 'स्यादुवाद' या 'अनेकान्त.
पावन स्थली में प्रचारित-प्रसारित यह सप्तभंगीवाद' के माध्यम से की। महावीर स्वामी ने 'उत्पनेइ
सिद्धान्त विचारों में सामंजस्य उत्पन्न करने वाला वा विगमेइ वा धुवेई वा' इस मातृकात्रिवदी वाक्य
है, साथ ही मन-प्राण को उदात और व्यापक बनाने में निरूपित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त
वाला भी। धर्मत्रयात्मक (अनेकधर्मात्मक) वस्तु के स्वरूप को स्थिर किया और इस धर्मत्रयात्मक वस्तू स्वरूप को बिहार को न केवल जैन तीर्थंकरों या गौतम बतलाने वाले सिद्धान्त को 'अनेकान्तवाद' या 'स्याद्- गणधर जैसे व्याख्यातानों को ही जन्म देने का श्रेय वाद' की संज्ञा दी। यह स्याद्वाद समग्र जैन दर्शन है, अपितु इसने अनेक ऐसे जैनाचार्यों को भी जन्म की रीढ़ है, जिसकी स्थापना का समस्त श्रेय बिहार दिया है, जिसकी व्य ख्याएं सारे विश्व में पढ़ी सुनी। को ही है। प्रसंग वश यहां ज्ञातव्य है कि स्याद्वाद' जाती हैं। बिहार के नियुक्ति-भाष्यकार आचार्य, समन्वयवाद या अपेक्षावाद का ही पर्याय है। भद्रबाहु को कौन नहीं जानता, जिन्होंने जनदर्शन के स्यावाद एक विशिष्ट भाषा पद्धति है। 'स्यात्' व्याख्याता के रूप में शाश्वती प्रतिष्ठा प्राप्त की है। शब्द सुनिश्चित रूप से बतलाता है कि वस्तु केवल इनका पाटलिपुत्र से घनिष्ठ और नेदिष्ठ सम्बन्ध एक धर्मा ही नहीं है, अपितु उसमें एक के अतिरिक्त है। इन्होंने प्राचारांगसूत्र, उतराध्ययनसूत्र, मावश्यक
HEAnsatasailivraat
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-18
सूत्र आदि सुख्यात श्वेताम्बरीय मागम-ग्रन्थों पर जैनागमों की भाषा अर्द्धमागधी मानी जाती है। दस नियुक्तियां (टीकाएं) लिखी हैं। नियुक्ति प्रर्द्धमागधी के 'मागधी' शब्द से संकेतित है कि ग्रन्थ जैन आगमों का मर्म तो बतलाते ही हैं, जैन जैनागमों की भाषा बिहार के मगध की ही भाषा दर्शन में प्रतिपादित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म थी। मगध का जैन संस्कृति के प्रति अनुराग इस अाकाश और काल इन छह द्रव्यों के स्वरूप तथा बात से भी स्पष्ट है कि यह जैन मूर्तियों का प्राचीन उनके विश्लेषक प्रमाण और नय का विशद विवेचन काल से ही पूजक रहा है । पटना के लोहानीपुर से भी उप-स्थापित करते हैं। इसके अतिरिक्त, इन प्राप्त दो मौर्यकालीन मूर्तियां (पटना संग्रहालय में नियुक्तियों में ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व की मीमांसा सुरक्षित) इस बात के बहिःसाक्ष्य हैं । निश्चय ही, भी की गई है। अनीश्वरवादियों द्वारा की गई बिहार की वैविध्य-वैचित्र्य से भरी हुई भूमि पर ईश्वरवादी विचारकों के लिये अतिशय और अनिवार्य घटित इतिहास की बहुकोणीय घटनामों से यह महत्व रखती है।
सिद्ध है कि बिहार जहां जैनों की पुण्य भूमि है.
वहीं वह जैन धर्म की सृष्टि और स्थिति भूमि बिहार में मगवराज्य सर्वाधिक उल्लेख्य है। भी है।
मुकक
-श्री हजारीलाल जैन 'काका बुन्देलखण्डी' सकरार जिस चेतन ने जड़ पत्थर को वीतराग भगवान बनाया, लेकिन स्वयं राग में फंसकर अपने ऊपर दृष्टि न लाया। पर में फिरा खोजता जिसको हर तीरथ पर शीस झुकाया, 'काका' खुद में खुदा बसा पर खुद को खुद पहिचान न पाया।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-14
श्री निर्वाण क्षेत्र वंदना
ले० लाडली प्रसाद जैन पापडीवाल, स० माधोपुर श्रावो बन्धु तुम्हें सुनायें गाथा श्री निर्वाण की । उस भूमि को नमन करो, जो है जीवन कल्याण की ।। भारत के उत्तर में देखो, पर्वत एक विशाल है । गंगा सिन्धु नदियां बहतीं हिमगिरि का परपात है ।। मुकुट सरीखा शोभा देता, भारत दिशि के भाल पर । मानव जो गुण गाता इसका भृषभ देव के नाम पर । कैलाश शिखर है याद दिलाता, इन ही के निर्वाण को "प्रावो बन्धु ।।1।। ये देखो पश्चिम में भाई जहां देश सौराष्ट्र महान । नेमि प्रभू ने ध्यान लगाकर, यहीं किया पातम कल्याण ॥ एक शिखर है शोभा देता, जूनागढ़ के निकट महान । उसी शिखर गिरनार के ऊपर, राजमती ने किया प्रयाण ।। उर्जयंत यह याद दिलाता, नेमी के निर्वाण की""प्रावो बन्धु ।।2।। ये देखो पूर्व की लाली चमकी जो जहान में । इसी दिशा में बिहार प्यारा, चमका हिन्दुस्तान में ।। कोना कोना इसका देखो, चमकाया भगवान ने । वासुपूज्य ने ध्यान धरा था, चम्पापुर उद्यान में ॥ जन्म भूमि है यही हमारे श्री वासपूज्य भगवान की"उस भूमि ॥3॥ ये देखो सम्मेद शिखर का कितना ऊंचा पर्वत है । ऐसा लगता मन को मानो, भरा इसी में अमृत है । इसी शिखर के टोंक टोंक पर, चरण चिन्ह है शोभते । बस तीर्थकर मोक्ष पधारे, किया गमन इह लोक ते ।। सिद्ध भूमि है याद दिलाती, तीर्थकर बीस महान की.."इस भूमि 14॥ पावापुर का जल मन्दिर यह, रखता अपनी शान है। देख देख कर तृप्त न होता जो गया वहां इन्सान है। जिन मन्दिर में शोभा देती प्रतिमा श्री महावीर की। छत्र स्वयं है उस पर फिरता, ज्योति देखकर दीप की । ऐही पावापुर भूपि है महावीर निर्वाण की "इस भूमि ।।5।।
और अनेकों स्थल हैं ऐसे जहं तें मोक्ष गए भगवान । असंख्यात मुनि मोक्ष पधारे तिनका को कर सके बखान ।। उन सबकी हम करें बंदना, पावें अविचल मोक्ष निदान । लाड निर्मला कण कण पूजें, गा गा कर उनका गुण गान ।। शतक पंच विंशती पाई है, महावीर निर्वाण की"प्रावो बन्धु ।।6।।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन शिल्प और कला
-श्री चन्दनमल 'चांद'
जैन धर्म मोक्ष मार्गी होते हये भी एकांगी नहीं क्षेत्र में मन्दिर बने वहां की शैली को अपनाते रहे । है । साहित्य शिल्प और कला आदि क्षेत्रों कई स्थानों पर तो जैनों ने मन्दिरों के नगर ही में जैनों की बहुमूल्य देन है। जैन स्थापत्य और बना दिये जैसे श्रवण बेलगोला, देवगढ़, आबू, शिल्प में भारत की गांधार, मथुरा और अमरावती पालीताण, सोनगिरि आदि । एक ही पहाड़ी पर तीनों कलाओं के नमूने मिलते हैं। स्तूप, गुफाएं, सैकड़ों भव्य, रमणीय मन्दिर विविध शैलियो में उपासना के भव्य रमणीक मन्दिर प्राकृतिक स्थलों बने हैं। मनोहर पत्थर की नक्कासी द्वारा सुसजित पर सम्पूर्ण भारत में आज भी बिखरे हुये हैं । जैन मन्दिरों के स्तम्भ विश्व में प्रसिद्ध हैं। महीन स्तूप सबसे पुराना स्वरूप है जिसका पता मथुरा खुदाई वाले अनेक खम्भे, किन्तु सबकी खुदाई के कंकाली टीले की खुदाई से मिला । इन स्तूपों अलग, सबकी दृश्यावलियां जुदा जुदा । दक्षिण का निर्माण भगवान महावीर और भगवान बुद्ध कर्नाटक के मुदविदरी मन्दिर को देखकर फर्गुसन के समय से भी पहले हना था । विदेशी विद्वान् ने लिखा है-"ऐसा लगता है मानों पत्थर पर डा० स्मिथ के अनुसार सम्राट अशोक के समय नहीं बल्कि काठ पर काम किया गया है । प्राज में बौद्ध स्तूप इतने बने कि जैन स्तूपों को भी मी राणकपुर के मन्दिरों की कलात्मकता और
झा जाने लगा । गुफाओं और कारीगरी देखकर विश्व के पर्यटक मुग्ध हो उठते दरो में जैन शिल्प, कला और कारीगरी की है। पत्थर पर महीन जालीदार झरोखे, श्यामल भव्यता के दर्शन होते हैं। सिंघलपुर, राजगृही, कुन्तल केशराशि एक-एक लट अलग-अलग । चित्र गिरनार एवं दक्षिण भारत के पहाड़ी रमणीय मानों सजीव हो उठे हैं । इसीलिए अनेक विदेशी स्थलों पर ये गुफाएं हैं । पांचवीं से बारहवीं कला-पारखी इन मन्दिरों की शिल्पकला देखकर शताब्दी के बीच गुफा-मन्दिर भी बने जो उड़ीसा ताजमहल को भी भूल जाते हैं । जैन स्थापत्य की के खण्डगिरि, उदयगिरि, बिहार के राजगृह, सबसे मुख्य देन निराधार स्तम्भों की है । बिना श्रवण बेलगोला के चन्द्रगिरि, महाराष्ट्र के घारा- किसी सहारे के ये खम्भे वासादीप के मन्दिर के शिव, मद्रास की कुलमुल पहाड़ियों में हैं । एलोरा सामने खड़े हैं । इन पर सुन्दर खुदाई की गई है। की गुफाओं में इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा ये दो केवल दक्षिण कन्नड़ में ही ऐसे पुराने बीस स्तम्भ जैन गुफाएं कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। उत्तर भारत में मथुरा, चितौड़गढ़ और कान्ह हैं । मन्दिरों की कारीगरी में जैन कला स्वतन्त्र के सुप्रसिद्ध मान-स्तम्भ भी उल्लेखनीय हैं । है । उसमें इण्डो-आर्यन या उत्तर में नागर तथा जैन धर्म जनधर्म हैं, जनता का धर्म है । कला दक्षिण में द्राविड़ियन शैली का समन्वय है। जिस जब धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करती है अथवा कला
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-16
में धर्म का पुट प्राता है तब वह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन विकास का साधन बन जाती है । जैन शिल्प और कला की यही विशेषता है । जैन धर्म शुद्ध वैज्ञानिक र बौद्धिक धर्म है उसमें जीवन की कहीं उपेक्षा नहीं की गई है । एक और प्राध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मोक्ष का चिन्तन है तो दूसरी श्रोर जीने की कला का भी सूत्रपात एवं क्रमिक विकास है । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ चौसठ कलानों के सृष्टा माने जाते हैं। अत: जैन शिल्प और कला के विकास
का युग अत्यन्त प्राचीन ही मानना चाहिए। जैनों ने वास्तुकला एवं शिल्प के निर्माण में योगदान दिया ही है किन्तु उसके सैद्धान्तिक पक्ष को भी अछूता नहीं छोड़ा । वस्तुतः जैन धर्म पूर्णत्व में प्रास्था रखता है, समग्रता का प्रतीक है । जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र क्यों न हो जैन धर्म ने उसका विकास किया है। चित्रकला, मूर्तिकला, गणित, ज्योतिष, खगोल, भूगोल, सभी विषयों को जैन धर्म, जैन प्राचार्यों एवं जैन विद्वानों ने अपनी प्रतिभा एवं ज्ञान से समृद्ध किया है।
"जैसा कि हमें ज्ञात है सम्भवतः जैन धर्म मूलभूत सिद्धान्तों के रूप में सर्व प्राचीन विचार पद्धति को प्रस्तुत करता है । यह विचार कि सम्पूर्ण प्रकृति
हमें प्राणहीन प्रतीत होती है उसके भीतर भी जीवन है और वह पुनः जीवित हो सकती हैं । जैनों का यह सिद्धान्त दृढ़ पुरातनवादिता का सूचक है, जो वर्तमान समय में भी बना हुआ है ।"
--- जोर्ल चारपेन्टियर, फ्रान्स : उत्तराध्ययन सूत्र की भूमिका पृ. २१
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन ऐतिहासिक नगरी जूना ( बाहड़मेर ) तथा जैन तीर्थ नाकोडा
- श्री भूरचन्द जैन, बाड़मेर
बड़मेर - राजस्थान का पश्चिमी सीमावर्ती सनी बाड़मेर जिला ऐतिहासिक एवं पुरातत्व ट से महत्वपूर्ण स्थल रहा है। इस जिले में वि के रूप में अनेकों इतिहास प्रसिद्ध स्थल
अपने पुराने वैभव प्राचीन शिल्पकला को संजोये विद्यमान हैं। इस क्षेत्र का जूना बाहड़मेर जो वर्तमान बाड़मेर मुनावा पर स्थित जसाई रेलवे स्टेशन से करीबन हल दूर पहाड़ियों की गोद में आया हुआ है । डिमेर नगर से 14 मील और शिल्पकला के बेजोड़ इतिहास प्रसिद्ध किराडू से दक्षिण 12 मील की दूरी पर स्थित । पहाड़ियों
में बसा जूना आज सूना है । यहाँ वर्तमान तीन नगरी के अनेकों ईमारतों और भग्ना
रूप में तीन मन्दिरों के प्रारूप दृष्टिगोचर । यह प्राचीन स्थल 10वीं शताब्दी से शताब्दी तक आबाद रहा । विशाल पहाड़ियों में यह नगरी बसी हुई थी जिसके अवशेष जूना की पहाड़ियों पर दस मील के घेरे किले की प्राचीरों एवं ईमारतों से अवगत हैं । ये पुरातत्व की दृष्टि से अत्यन्त ही गं बने हुए हैं जिसका अभी तक किसी का सर्वेक्षण नहीं हुआ है ।
अब विनाश की कगार पर खड़ा है। यहां
पर भी किराडू की भांति प्राक्रमणकारियों का तांता बना रहा। कर्नल टॉड के अनुसार वि०सं० 1082 ई० सन् 1027 ) में महमूद गजनवी के द्वारा गुजरात जाते समय चौहानों के इस दुर्ग जूना को भी विध्वंस किया गया। वि०सं० 1235 ( ई० सन् 1178 ) में चौहानों से संघर्ष लेते हुए शहाबुद्दीन मौहम्मद गोरी ने मुल्तान से लोद्रवा देवका किराह्न एवं जूना पर भी श्राश्रमण किया । किराडू के विख्यात सोमनाथ मन्दिर को तोड़ा लूटा और उसमें आग लगा दी । जूना के विख्यात जैन मन्दिरों प्रौर दुर्ग को भीषरण रूप से क्षतिग्रस्त किया । महमूद गजनवी एवं मौहम्मद गोरी के आक्रमण के भय से जूना स्थित जैन मन्दिरों की मूर्तियों की रक्षा के लिए उन्हें मन्दिरों एवं अन्य सुरक्षित स्थानों पर स्थित भंवरों में छिपाने की व्यवस्था की जाती रही ।
दस दिसम्बर 1970 को जूना की एक पहाड़ी पर वन विभाग के श्रमिकों द्वारा वृक्ष लगाते समय कुछ जंन प्रतिमाएँ मिली जो प्रति प्राचीन एवं खण्डित अवस्था में थी । यह स्थान जूना के किले को परिधि के अन्दर एवं वर्तमान खण्डित जैन मन्दिरों से करीबन एक फर्लांग दूर पहाड़ी पर स्थित है । इस पहाड़ी के भग्नावशेषों एवं अन्य स्थलों का अवलोकन करने पर ऐसा अनुभव होता
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-18
है कि यहां पर विशाल एवं सुन्दर शिल्पकला कृतियों का जैन मन्दिर था। यहां के अवशेषों को देखने से मन्दिर का प्रवेश द्वार श्रृंगार चौकी, रंग मंडप, सभा मंडप, मूल गम्भारा, परिक्रमा स्थल, मन्दिर के चारों श्रोर बनी प्राचीरें और नीचे उतरने एवं चढ़ने के लिए पहाड़ी के दोनों तरफ बनी विशाल पक्की पाषाणों की पगदण्डी श्राज भी तितर-बितर अवस्था में विद्यमान हैं ।
जूना यद्यपि श्राज विनाश की स्थिति लिए हुए है जहां केवल बिखरे पाषाणों की नगरी ही विद्य मान है। पहाड़ों की गोद में बसे इस ऐतिहासिक एवं पुरातत्व की दृष्टि से परिचायक जूना विशाल नगरी भोर राजधानी का रूप लिये हुए था । श्राज जूना की पहाड़ियों पर दस मील के घेरे में बना जूना का किला दृष्टिगोचर होता है जिसके बुर्ज, सीढियों, परिधि और रामप्रासाद भाज भी खण्डित अवस्था में प्राचीन वीरोचित कहानियां बता रहे है । विशाल पहाड़ियों पर बने इस भव्य किले के नीचे तलहटी भाग में जूना नगर बसा होने के अवशेष अब भी प्रसंख्य ईमारतों के खण्डहरों के रूप में दिखाई देते है। इन्हीं खण्डहरों की बस्ती में भग्नावशेष रूप लिये जैन धर्मावलम्बियों के तीन जैन मन्दिर अब भी विद्यमान हैं जिसके पाषाण भी धीरे धीरे जमीन की सतह पर आकर आनन्द की सांस लेने के लिये श्रातुर हो रहे हैं।
जूना के जैन मन्दिर अति प्राचीन हैं। इसका उल्लेख श्री क्षमाकल्याणकृत खरतरगच्छ पट्टावली में किया हुआ है कि उद्धरण मंत्री सकुटम्ब वि०सं० 1223 में हुआ । इसके पुत्र कुलधर ने बाहड़मेर ( जूना ) नगर में उत्तुंग तोरण का जैन मन्दिर बनाया । जूना स्थित जैन मन्दिरों में चार शिलालेख अब भी विद्यमान है जिसमें वि०सं० 1296 के शिलालेख में जालोर के महाराजा श्री सामंत सिंह देव चौहान के राज्य का उल्लेख मिलता है । दूसरे शिलालेख वि०सं० 1352 का एक एवं वि०सं० 1366 के दो है जिसमें इस मन्दिर को ऊंचे तोरण
(उत्तुंगतोरण) वाला भगवान श्री श्रादिमाथ जैन मन्दिर होना बताया है और इस मन्दिर प्रतिष्ठा एवं निर्माण पर गुजरात के सोलंकी भी देव के शासन के समय चलने वाली धनराशि प्रियविश्व के खर्च होने का उल्लेख किया गया चौथे लेख वि० सं० 1693 में इस स्थान जैन तीर्थ स्थान होने की महत्ता बताई है । इन जैन मन्दिरों की बस्ती में भग्नावशेष में खड़ी ईमारतों में प्राचीरें हैं तो हृत नदार खम्भे है तो तोरण गायब, फर्श है तो सीढ़िय लापता, गम्भारे हैं तो मूर्तियां नहीं यदि कुछ है। चारों ओर बिखरे शिल्पकला कृतियों के पाषा ही पाषाण ।
वि०सं० 1223 में उद्धरण मंत्री के पुत्र कुलप द्वारा बाड़मेर (जुना) में बनाये उत्तु ंग तोरण श्री प्रादिनाथ भगवान के जैन मन्दिर पर श्रीश्राच जिनेश्वरसूरिजी ने वि०सं० 1283 माहवदी 2 दिन ध्वजा फहराई | श्री प्राचार्य जिनेश्वरसूरिज के तत्वाधान में वि०सं० 1309 माघ सुदि 10 दिन पालनपुर में प्रतिष्ठा महोत्सव प्रायोजित हु और सेठ सहजाराम के पुत्र बच्छड़ ने बाड़मे (जुना) आकर बड़े उत्सव के साथ दो स्वर्ण कल की प्रतिष्ठा करवा कर श्री आदिनाथ मन्दिर शिखर पर चढ़ाये | वि०सं० 1312 में जिनेश्वरसूरि के शिष्य चण्डतिलक ने 'अभयकुमा चरित्र' महाकाव्य यहां प्रारम्भ किया । श्रीश्राचा जिनप्रबोधसूरि ने यहां बि०स० 1330 मंगस वदी चतुर्थी के दिन पद्यवीर, सुधाकलश, तिलक कीर्ति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभू, हेमतिलक भौर ने तिलक को बड़े समारोह के साथ दीक्षित किया जैन धर्मावलम्बियों का जूना ( बाहड़मेर) तीर्थ स्व रहा है । यहां कई प्राचार्य महात्मानों ने प्राक चतुर्मास किये और कई धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की । श्री श्राचार्य कुशलसूरि ने वि०सं० 138 में सांचोर से आकर बाहड़मेर (जूना) में चतुर्मा किया । श्री प्राचार्य पद्मसूरि बाड़मेर आये जिनक
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
लागत तत्कालीन चौहान राणा श्री शिखरसिंह विक, साह प्रतापसिंह, शाह सातसिंह आदि ने गया। इस प्रकार जैन साधु सन्तों प्राचार्य महात्मानों इस नगरी में बराबर श्रागमन होता रहा । ' के प्रोसवाल पारख गोत्रीय देकोशाह के पुत्र ने 10सं0 1521 में दीक्षा ग्रहण की जो आगे चलकर वाचार्य जिनसमुद्रसूरि के नाम से लोकप्रिय हुए । जूना स्थित जैन मन्दिरों की शिल्पकला पाली में स्थित जैन धर्मावलम्बियों के विख्यात
रणकपुर एवं सिरोही जिले के माउंट श्राबू बने देलवाड़ा जैन मन्दिरों की भांति यहां के रे भूरे पाषाण पर कलाकृत की गई है । मन्दिर
छतें अब भी विद्यमान हैं इनके अन्दर बने वजों में शिल्पकला को अत्यन्त ही सुन्दर तरीके पाषाणों पर अ ंकित करने का प्रयास किया मी है। लेकिन ये छतें जगह जगह टूटने के कारण के अन्दर बने बड़े बड़े छिद्रों से आने वाली शनी की किरणें अवश्य ही साफ दिखाई देने मती हैं । मन्दिर के खम्भों पर प्राचीरों के चारों और पावटों, गम्भारों श्रादि अनेकों भागों में शिल्प ला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं । इन जोड़ शिल्पकला के श्राकार न केवल शिल सौन्दर्य
बताते हैं अपितु ये प्राचीन पुरातत्व सम्बन्धी नकारी से भी दर्शकों को लाभान्वित करते हैं । तोरण वाले श्री श्रादिनाथ भगवान के मन्दिर कुछ छतें पहले ही गिर चुकी थीं कुछ गिराई मौर कुछ गिरने के लिये स्वयं ही प्रातुर हो हैं। इन छतों के नीचे बने गुम्बजों की शिल्प
अत्यन्त ही सुन्दर है इनमें लक्ष्मी सरस्वती शक्ति की प्रतिमाएं श्राज भी न केवल दर्शनीय प्रपितु कला की दृष्टि से देखने लायक हैं । मन्दिर के अतिरिक्त दो अन्य मन्दिर भी विमान हैं लेकिन उसके पार्श्व भाग के अतिरिक्त
भी नहीं है । पास में बिखरे खण्डहर इनको समता एवं शिल्पकला का अवश्य ही परिचय दे
S.
2-19
जूना को प्राचीन जैन तीर्थ स्थान मानने के कारण श्राज भी बाड़मेर नगर एवं आसपास के कई जैन परिवार इसकी यात्रा कर तीर्थ यात्रा का लाभ उठाते हैं। यहां पर अभी भी जन धर्मावलम्बियों के कई परिवार शादी, विवाह, केश मुण्डन प्रादि शुभ अवसरों पर नियमित रूप से अनिवार्य यात्रा करते हैं। यहां बने तीर्थ क्षेत्र के रक्षक क्षेत्रपाल जी का प्रमुख स्थान दर्शनीय एवं पूजनीय बना हुआ है, जिसके आगे एक छोटा सा कुण्ड हव्य से सदा भरा रहता है । बाड़मेर जैन समाज के मालू गोत्र के जनसमुदाय को विवाह आदि अवसरों पर अनिवार्य रूप से यहां की यात्रा करनी पड़ती है। यहां कई सतियों एवं महापुरुषों के स्मारक स्थल भी बने हुए हैं जहां पर समय समय पर छोटे पैमाने पर मेलों का आयोजन भी होता है ।
जैन मन्दिरों एवं बिलखते इस पाषाणों की नगरी में श्राबादी शून्य मात्र ही है परन्तु इसकी गोद में मीठे पानी के कुछ कुएं अवश्य ही हैं । इन कुत्रों से भासपास की कई ढाणियों के लोग पीने का पानी और पशुओंों को नियमित रूप से यहां लाकर पानी पिलाते हैं । ये कुएं भी ऐतिहासिक गतिविधियों के प्रमुख श्राकर्षण रहे है । एक प्रचलित दन्तकथा एवं ऐतिहासिक घटना के आधार पर कहा जाता है कि इस समय पश्चिमी पाकिस्तान स्थित अमरकोट का राजकुमार महेन्द्रा अपनी लोद्रवा (जैसलमेर) की मूमल प्रेमिका से नियमित रूप से रात्रि को मिलने के लिये इसी मार्ग से गुजरा करता था और अपनी सवारी के ऊंट को जूना के इसी कुएं पर पानी पिलाता और थोड़े समय के लिए स्वयं भी सुस्ता लेता था । यह ऐतिहासिक प्रेमकथा भी जूना की मरुभूमि के साथ जुड़ी होने का गौरव प्राप्त किये हुए है ।
बर्तमान जूना के नाम से विख्यात ऐतिहासिक स्थल प्राचीन समय में जूना बाहड़मेर, बाड़मेरु, बाहड़गिरी, बाप्पड़ाऊ आदि अनेकों नामों से विख्यात नगर रहा है। इस नगर की स्थापना
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-20
परमार धरणीवराह या घरणीधर राजा के पुत्र सबसे अधिक उपयुक्त समझा जाता है । बाहड़ (वाग्भट्ट) ने विक्रम की ग्यारहवीं शती के ऐतिहासिक स्थान पर निर्माण कला के मार उत्तरार्द्ध में वि०सं० 1059 के पश्चात् की । मुता नमूनों के रूप में कुए, तालाब, पगवाव मनि नैणसी ने भी धरणीवराह के पुत्र बाहड़-छाहड़ किला आदि अब भी विद्यमान है लेकिन इ होने का उल्लेख किया है । 'वाग्भट्टमेरु' शब्द का कोई सुरक्षा नहीं है, वे दिनों दिन विखर रहे. उल्लेख चौहान चाचिग देव के संघामाता मन्दिर
नाकोड़ा-राजस्थान प्रदेश के परिणी के वि०सं० 1319 के शिलालेखों में मिलता है। भू-भाग में प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों, प्राण भाट साहित्य के अनुसार 11वीं शताब्दी के पास स्थापत्य एवं शिल्पकलाकृतियों के बेजोड़ नमः पोस इस क्षेत्र पर ब्राह्मण शासक वाप्पड़ का आधुनिक साज सज्जा से परिपूर्ण, धार्मिक धी प्राधिपत्य था और उसने अपने नाम पर इस नगर कोरण से भारत विख्यात जैन धर्मावलम्बियों। का नामकरण बाप्पड़ाऊ रखा। बाड़ ब्राह्मण के सुप्रसिद्ध जैन तीर्थ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ राजस वशजों से 12वीं शताब्दी में परमार धरणीवराह प्रदेश के बाड़मेर जिले के बालोतरा को के वंशज बाहड़ चाहड़ ने लेकर इसका नाम 7 मील दुर ऐतिहासिक नगरी जसौल. बाहड़मेर-बाहड़मेरु रखा । वि०सं० 17वीं शताब्दी मल्लीनाथ की साधना भूमि तिलवाड़ा,राठौर राजा तक यही स्थान बाहड़मेर के नाम से जाना जाता की प्राचीन राजधानी व वैष्णव धर्मावलम्कि रहा। प्रौरंगजेब के समय वि०सं० 1744 के के लोकप्रिय तीर्थ खेड़ के पास गगनचुम्बी पहा लगभग यहां पर वीर दुर्गादास राठौड़ का निवास के बीच में जिसके चारों ओर विशाल काले रहा । राठौड़ दुर्गादास ने बादशाह औरंगजेब के पाषाणों की पहाड़ियों एवं एक तरफ मरुभूमि पौत्र, अकबर के पुत्र और पुत्री बुलन्द अख्तर और परिचायक रेतीली रेत का टीला है। इसमें सफियायुन्निसा को यहीं जूना के दुर्ग में सुरक्षित के साहित्य, शिल्प एवं स्थापत्य कला में। रखा था। जूना का प्राचीन दुर्ग परमारों और धर्मावलम्बियों का विशेष योगदान रहा है। चौहानों की देन है। ऐतिहासिक घटना चक्रों के के प्रत्येक क्षेत्र में सूक्ष्म शिल्पकलाकृतियों गगनचुर बीच इस पर छोटे बड़े आक्रमण बराबर होते रहे ईमारतों के रूप में अनेक जैन तीर्थस्थान बने। जिसके कारण इसका पतन होना प्रारम्भ होगया हैं। इन धार्मिक शृंखलामों में कड़ी जोड़ने का
और धीरे धीरे यहाँ के लोग आसपास के स्थानों श्वेताम्बर जैन तीथ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ पर जाकर बसने लगे। वि.स. 1640 तक इस भी प्राचीन वैभव सुन्दर शिल्पकला, दानदाता नगर के आबाद होने के कारण वर्तमान जूना ही की उदारता ऐतिहासिक पृष्ठभूमि त्या बाहड़मेर कहलाता था। वि०सं० 1608 में रावत मुनिवरों का प्रेरणा केन्द्र, तपस्वियों की मात्र भीमाजी ने स्वतंत्र रूप से बाड़मेर बसाया जो भूमि, पुरातत्व विशेषज्ञों की जिज्ञासा मा अजकल राजस्थान प्रदेश का जिला मुख्यावास है। जैनाचार्यों द्वारा उपदेश देकर निर्मित अनेकों है।
रेगिस्तान के प्रांचल में बसा यह स्थान प्रतिमाओं का संग्रहालय पार्श्वप्रभु के जन्म कल्या बाड़मेर नगर से 14 मील दूर जसाई के पास के मेले की पुण्य भूमि अाधुनिक वातावरण पहाड़ियों की गोद में पथरीलीभूमि में आया हुआ परिपूर्ण देश का गौरव बनी हुई हैं। है। बाड़मेर से जसाई तक पक्की ड मर की सड़क, नाकोड़ा स्थल का प्राचीन इतिहास से को बनी हुई है मागे कच्चे रास्ते से जाना पड़ता है। सम्बन्ध है। वि० सं० 3 में इस स्थान के यहां तक पहुंचने के लिये जीप यातायात का साधन होने का प्राभास मिलता है । यद्यपि इस समय
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-21
में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है फिर भी नाम से विख्यात है। जो 15 वीं शती में पुन: कुछ प्राचीन गीतों भजनों एवं चारण भाटों की धीरे-धीरे आबाद हुआ और 17वीं शताब्दी तक जनश्रुति के अनुसार वीरमदंत एवं नाकोरसेन आबाद ही रहा। उस समय यहां करीबन 2700 दोनों बन्धुत्रों ने क्रमशः वीरमपुर एवं नाकोर नगरों जैन परिवारों की जनबस्ती थी। लेकिन आज की स्थापना की थी। प्राचार्य स्थूलीभद्रसूरि की मात्र केवल जैन तीर्थश्री नाकोड़ा के अतिरिक्त निश्रा में वीरमपुर में श्री चन्द्रप्नभू की एवं नाकोर कोई परिवार इस स्थल पर नहीं रहता है । सैकड़ों में श्री सुविधिनाथ की जिन प्रतिमानों की प्रतिष्ठा खण्डहर नाकोड़ा जैन मन्दिर के पास आज भी करवाई। वीर निर्वाण सं० 281 में सम्राट अपने प्राचीन वैभव, शिल्पकला, निर्माण अशोक के पौत्र ने, वी०नि० सं० 605 में उज्जैन कला के प्रतीक बने हुए हैं। भाखरी के के विक्रमादित्य ने, वी० नि० सं० 532-वि० स० समीप राजदरवार के अवशेष अब भी विद्यमान 82-में आचार्य श्री मानतुगसूरि द्वारा इन जिन हैं। इस स्थान से प्राधा मील दूर मेवानगर गांव मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया गया। वि० सं० आया हुप्रा है। 415 में आचार्य देवसूरि ने वीरमपुर में, 421 में नाकोड़ा जैन तीर्थ स्थान की परिधि में मुख्य नाकोर नगर के इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवा तीन विशाल शिखर धारी जैन मन्दिर, कई छोटे कर प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई। इसके पश्चात् नवीं शिखरों की देव गुम्बज, दो वैष्णव मन्दिर विद्यमान शताब्दी में जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ हुआ। हैं जिसमें सबसे पुराना एव वर्तमान मुख्य वि० स० 909 में वीरमपुर निवासी तातेड़ गोत्रीय श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्वामी का जिन मन्दिर सेठ हरकचन्द ने जीर्णोद्धार करवा कर श्री महावीर है। जो समय समय पर विनष्ट एवं विध्वंस स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। उसके होता रहा और इसका जीर्णोद्धार चलता ही रहा । पश्चात् मुगल आक्रमणकारी नीति के भय से इस इस मन्दिर में प्रतिष्ठित भगवान श्री महावीर स्थान से जिन प्रतिमाओं को अन्यत्र सुरक्षित ले स्वामी की प्रतिमा के स्थान पर सं० 1429 में जाया गया। वि० सं० 1133 में श्री महावीर पुण्यात्मा जिनदत्त श्रावक को स्वप्न में नाकोर स्वामी की प्रतिमा को मन्दिर में विराजमान किया नगर के समीप श्री श्यामवर्णी पाश्वनाथ की नगर गया लेकिन कुछ परिस्थितियों के कारण इसकी प्रतिमा के होने का प्राभास मिला ।प्रतिमा नाकोर वि० सं० 1223 में वीरमपुर सकल संघ ने पुनः से प्राप्त हुई। उसको कहां प्रतिष्ठित किया जाय प्रतिष्ठा करवाई। वि० सं० 1200 में मुगल इस पर नाकोर नगर एवं वीरमपुर के जैन समुदाय बादशाह पालमशाह ने वीरमपुर एवं नाकोर नगरों में विवाद शुरू हो गया । बिना बैलों के रथ पर पर अाक्रमण कर खुलकर विनाश किया। उस प्रतिमा विराजमान की और अन्तिम निर्णय लिया कि समय इन दोनों स्थानों का करीबन 120 से जहां रथ रुकेगा वहीं प्रतिमा प्रतिष्ठित की जावेगी। भी अधिक प्रतिमानों को सुरक्षा हेतु न.कोर नगर रथ वीरमपुर आ रुका अतः प्रतिमा वीरमपुर के से 2 मील दूर कालीदह-नागदह-पहाड़ी में जाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई गई। तभी से यह छिपाया गया।
स्थल श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से ख्याति __ विनाश की घटनाचक्रों से ग्रस्त वीरमपुर अजित करने लगा है। ऐतिहासिक गतिविधियों के साथ बदलता रहा। नाकोड़ा तीर्थ के इस श्री पार्श्वनाथ जैन यह विभिन्न समय में बीरमपुर, महेबा, महेवानगर मन्दिर का विशाल शिखर और उसके प्राजू बाजू मेवानगर एवं वर्तमान श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के दो सुन्दर शिखर हैं । मन्दिर में मूल गन्न गूठ
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-29
मण्डप. सभा मण्डप, नव चौकी, शृंगार चौकी, भारत-पाक विभाजन के समय सिन्ध प्रदेश के झरोखे बने हुए हैं जो साधारण से हैं जिन्हें अब हालानगर से प्राई प्रतिमाओं का सुन्दर चौमुखी संगमरमर पाषाणों को बारीको शिल्पकलाकृतियों मन्दिर नोचे भूमिगृह, सामने दो देव छतरियां से सजाया जा रहा है। मन्दिर में प्रतिष्ठित तेईस वनी हई है। इस मन्दिर में सं० 1512, 1562, इञ्च की श्यामवर्णी श्री पार्श्वनाथ स्वामी की 1632 एवं 1647 के प्राचीन शिलालेख विभिन्न भव्य प्रतिमा है जिसके आजूबाजू श्वेत संगमरमर स्थानों पर दृष्टिगोचर होते हैं। यह मन्दिर की दो उसी साइज की श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा लाछीबाई देरासर के नाम से भी पहचाना विराजमान हैं। मूल मन्दिर तीन दरवाजों में जाता है । प्राया हुआ है। मन्दिर से तीर्थोद्धारक प्राचार्य इस तीर्थस्थान का तीसरा मुख्य मन्दिर श्री श्री कीतिरत्नसूरि की पीले पाषाण की प्रतिमा शान्तिनाथ प्रभु का है। जिसका निर्माण सुखमाविराजमान है जिस पर सं0 1536 का लेख भी लीसी गांव के सेठ मालाशाह संखलेश ने अपनी विद्यमान है । इनके सामने तीर्थ अधिष्टायक देव माता की इच्छा पर सं० 1518 में करवाया था । श्री भैरव जी की सुन्दर, कलात्मक एवं आकर्षक मूल श्री शान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा इसमें प्रतिष्ठित प्रतिमा प्रतिष्ठित है। जिनके चमत्कारों से इस करने से यह मन्दिर श्री शान्तिनाथ मन्दिर एवं तीर्थ की दिनों दिन ख्याति हो रही है। पास में मालाशाह मन्दिर के नाम से विख्यात हो गया । जैन पचतीर्थी, प्रतिमाओं की शाल एवं दो भूमिगृह इसका निर्माण मालाशाह की बहन लाछीबाई भी बने हुए हैं। इस मन्दिर की पंचतीर्थी में द्वारा बनाये श्री ऋषभदेव मन्दिर के 6 वर्ष बाद प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा सम्प्रति राजा द्वारा निर्माण में करवाया। मन्दिर में माउण्ट आबूके देलवाड़ा की हुई है। मन्दिर में निर्माण सम्बन्धी सं० जैन मन्दिरों की भांति सुन्दर शिल्पकला है। 1638, 1667, 1678, 1682, 186 एवं मन्दिर विशाल है जिसके चारों किनारों पर चार 1865 के प्राचीन शिलालेख भी मयूद है। देवलियां, एक भूमिगृह भी इसकी शोभा बनाये हुये
श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जिनालय के पीछे कुछ है। मन्दिर में काउसम्ग प्रतिमानो पर सं0 1202 ऊंचाई पर वर्तमान श्री आदेश्वर भगवान का का लेख सबसे प्राचीन है । सं० 1518, 1604, शिल्पकलाकृतियों का खजाना लिए हर जिन 1614, 1666 एवं 1910 के प्राचीन निर्माण मन्दिर विद्यमान है। इस मन्दिर का निर्माण एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी लेख विद्यमान हैं। वीरमपुर की रहने वाली एवं सेठ मालाशाह की इन जैन मन्दिरों की बस्ती विशाल तीस फीट बहन लाछी बाई ने करवा कर इसकी ऊंची चारदिवारी में आई हुई है। जिसमें सैकड़ों प्रतिष्ठा सं० 1512 में करवाई। उस समय मूल आवास हेतु सुन्दर एवं सुविधाजनक कमरों का प्रतिमा के रूप में श्री विमलनाथ स्वामी की प्रतिमा निर्माण किया हुआ है। इस चार दिवारी में थी लेकिन अब मूलनायक के रूप में श्वेतवर्ण की भोजनशाला, पुस्तकालय, बड़ी व छोटी पेढ़ी, संध राजा सम्प्रति के काल में बनी हुई श्री ऋषभदेव सभा मंडप, मोदीखाना, बिस्तर-वर्तन स्टोर, पानी भगवान की प्रतिमा विराजमान है। मन्दिर की का कुआं, आदि माये हुये हैं । इसके अतिरिक्त विशाल शिखर पर बनी विभिन्न प्राकृतियों की वैष्णव धर्मावलम्बियों का सं० 1689 में राव सुन्दर प्रतिमाएं शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। जगमाल का बनाया श्री रणछोड़ मन्दिर माया मन्दिर के सभी मण्डप एवं उनके शिखर मन्दिर हुआ है । एक महादेव का श्री भैरव भोजनशाला · को सुन्दरता में चार चांद जड़े हुए हैं। के समीप साधारण बना हुआ मन्दिर है। मंदिर
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-23
के चार दिकारी के बाहर आदर्श विस्तर भंडार ठानी। सेठ परिवार इस पर अपना अपमान कर्मचारियों के आवास गृह, चिकित्सालय, प्राधुनिक समझकर इस स्थान को छोड़कर जैसलमेर एवं होटल, गोशाला, सुन्दर बगीचा भी बना हुआ है। बाड़मेर की ओर चल दिया। यह घटना 17 वीं मन्दिरों की इस नगरी में मूल मन्दिर की सूरजपोल शताब्दी की थी। इस घटना से सम्पूर्ण जैन के सामने भाखरी पर श्री जिनदत्तसूरि की चरण समाज यहां से चले जाने से तीर्थ की व्यवस्था पादुकाओं की सुन्दर छतरी बनी हुई है। जहां खटाई में पड़ गई। करीबन दो सौ से अधिक वर्षों तक नवनिर्मित सीढ़ियों बन जाने से प्राने जाने तक इस तीर्थ का बहुमुखी विकास रुक गया लेकिन में सुविधा हुई है। इसके नीचे एक तरफ भैरव साध्वी श्री सुन्दरश्री जी ने यहां आकर इसके बन्धा बना हुआ है। जिसके आगे की भाखरी चहुंमुखी विकास में जी जान की बाजी लगा दी। पर श्री कीर्तिरत्नसूरि, श्री जयसागरसूरि एवं जिसके परिणामस्वरूप प्राज श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ श्री कृपासागर की चरणपादुकाएं लिये छतरी उन्नति के शिखर पर है। बनी हुई हैं। श्री जिनदत्तसूरि छतरी के पीछे और श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन तीर्थ की यात्रा के श्री कीतिरत्नसूरि छतरी के आगे बिखरे खण्डहरों लिये जोधपुर-बाड़मेर रेल मार्ग के बालोतरा को बस्ती एवं कुछ टूटे फूटे मन्दिर आज भी स्टेशन पर उतरना पड़ता है। बालोतरा से प्राचीन वैभव, शिल्पकला एवं इतिहास का स्मरण नाकोड़ा सात मील पक्की सड़क मार्ग से जुड़ा हुमा करवा रहे हैं। नाकोड़ा मन्दिर के पीछे 1200 है वहां प्रतिदिन दो बसों का नियमित रूप से पाना फीट की ऊंची पहाड़ी पर सेलावत तालाब के जाना होता है ! मेले के दिनों में बस यातायात किनारे श्री नेमिनाथ भगवान की चरण पादुका का तांता लगा ही रहता है। बालोतरा-नाकोड़ा एक छतरी में विराजमान हैं जिसके नीचे श्री तक टेलीफोन व्यवस्था भी है। मरूधरा के रेतीले जिनक शलसूरि की चरण पादुकाएं एक छतरी में भूभाग में यह तीर्थ न केवल राजस्थान की प्राचीन. बनी हुई है। यहां पहुंचने के लिये पक्की सीढियों ऐतिहासिक जानकारी का केन्द्र ही है अपितु का निर्माण किया हुअा है।
पुरातत्व जिज्ञासुओं का मुख्य आकर्षण एवं श्रद्धालु प्राकृतिक थपेड़ों, मुगल शासकों की प्राक्रमण भक्तों का पतित पावन तरण तारण तीर्थ स्थल नीति के अतिरिक्त इस तीर्थ की विनाश की एक भी है। करुण कहानी भी रही है। सेठ मालाशाह संखलेचा के कल के श्री नानक संखलेचा की स्था
भूरचन्द जैन नीय शासक पुत्र ने उनकी लम्बी एवं सुन्दर चोटी
जूनी चौकी का बास काटकर अपने घोड़े के लिये चाबुक बनाने की
बाड़मेर-राजस्थान
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाल महावीर स्तवन ----श्री अनोखीलाल अजमेरा, इन्दौर
जगिये, वैशाली नंद, बाल वृद ठाड़े त्रिसला मां हरसी हरसी प्यार से पुकारे । जागिये। भोर भई कुजन में कोकिला पुकार रही, द्वारे स्वर शहनाई भैरवी गुजाय रही। अरुण स्वर्ण रश्मि, बालचन्द्र को निहारे । जागिये । मधुर मधुर मुसक, सिसक, नैन नहिं भरे अबस । मचल, मचल, हाथ पटक, पांव को पसारे । जागिये । मां मुख निहार रही, हाथ को बढ़ाय रही, नट खट महावीर को, चट चूमिके उठाये । सखिये सब दौड़ पड़ी, लाल लेवे को होड़ पड़ी, गोरस, गिलास कोऊ, मोहक बढ़ाये । जागिये । झूमि, झूमि सखियें, महावीर को उठाय रहीं, मचल उठे झट पट स्नेह से पुचकार रहीं। अंगुली पकर मात संग, तात पास लाये । जागिये। ठुमरू ठुमरू चलत चाल, साथ लिये देव बाल, निरखत अनोखी छटा, बलि बलि हम जावें । जागिये ।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर के अनुयायियों का कला प्रेम
पं० श्री उदय जैन, कानोड़ भावों की अभिव्यक्ति कला कहलाती है। नृत्य-संगीत और अभिनय प्रत्येक प्राणी अपनी कला से भावों की अभिव्यक्ति
जैनियों ने इन कलाओं की रक्षा एव वृद्धि के करता है। छोटे से छोटा प्राणी भी कलाविद होता लिये गंधर्व वर्ग तैयार किया जो समय समय पर है तो मानव जैसा सुज्ञ प्राणी कला के प्रति अधिक जनता में धर्म प्रचार के लिए इन कलाओं का उत्कर्ष करे यह स्वाभाविक ही है। मानव समाज विस्तार करता रहा। मंदिरों में, सार्वजनिक, धार्मिक विश्व के अनेक राष्ट्रों में विभक्त रहा है और रहेगा उत्सवों में तथा जलसों में प्रायः हुन गंधवों का होना मतः कला का उत्कर्ष भी विभिन्न क्षेत्रों में अलग
महत्वपूर्ण माना जाता था । यह वर्ग हर समय और अलग ढंग से होता पाया है।
हर स्थान पर आमंत्रित किया जाता था और सामान्यतया जिसमें मानव समुदाय का आक- बड़े प्रादर से जैनी लोग इनकी खाने, रहने एवं र्षण अधिक हो कला कहलाती है। चौंसठ और भोजन आदि की व्यवस्था के साथ इनाम तथा बहत्तर कलाओं का प्राचीन जैन ग्रन्थों में वर्णन प्रतिफल रूप में उनके परिवार पोषण के लिए मिलता है। स्त्री और पुरुष में कुछ कलाएं समान निश्चित मुद्राए भी देते थे। होती हैं और कुछ भिन्न होती हैं लेकिन दोनों की जैन मन्दिरों में सामान्यतः गण वाद्य यन्त्रों कलानों के वर्णन तथा भेद अलग-अलग माने गये के साथ नृत्य संगीत करते रहते हैं। यह प्रथा
पुरातन काल से चली आ रही है। इसे अच्छा विश्व में नृत्य, अभिनय, संगीत, सूची, काष्ठ, धर्म कायं मानते हैं। अभिनय भी समय समय पर स्थापत्य, क्षेत्र, पाक, निर्माण, मुद्रण, लिपि, संभा- किये जाते रहे हैं। वे गंधों की तरह अपना कार्य षण, चित्र, धातु, चौर्य, शासन, आकर्षण, विज्ञान, करते रहते हैं । गंधर्व समय समय पर अभिनय भी तरना, वक्तृत्व, युद्ध, मूर्ति, इन्द्रजाल, सम्मोहन करते आये हैं। मादि कलाए प्रमुख हैं । जैन ग्रन्थों में सभी कलाओं
चित्रकारी का वर्णन मिलता है। लेकिन प्रमुखतया व्यवहार वृक्ष-पत्र, कागज, ताम्र-पत्र, मित्ति, काष्ठ, में उपयोगी मानकर जिन जिन कलाओं का प्रतीत कपड़ा, भूमि, रेत, एवं पत्थरों पर चित्रकारी का काल में प्रचलन हुआ वे प्रमुख मानी गई, यथा कार्य बहुत ही प्राचीन समय से जैनियों में प्रचलित नृत्य, अभिनय, चित्र, स्थापत्य, मूर्ति, शासन ,पाक, है। ताड़ पत्र एवं अन्य भोज आदि वृक्ष पत्रों पर संभाषण, संगीत, काष्ठ मादि । अतीत में जैनियों चित्रकारी जैन संग्रहालयों मे अभी तक भी सुरक्षित ने उपर्युक्त कलाओं में बहुत रस लिया और धर्म है। बड़े-बड़े भण्डारों में ताम्रपत्र एवं पट पर भी के प्रचार में भी इनका सहारा लिया।
चित्र बहुतायत से पाये जाते हैं। इन कार्यों में जैन
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-26
साधु र यतियों एवं भट्टारकों ने बड़ी महत्व - पूर्ण भूमिका अदा की है । आप देखेंगे कि हस्तलिखित ग्रन्थों में जगह-जगह चित्रों का उपयोग किया गया है । लिपि की सुन्दरता और सजावट में इससे चार चांद लग गये हैं । भित्ति चित्रों की श्रमिटता एक महत्वपूर्ण कार्य है जो बड़ी बड़ी गुफाओं और मन्दिरों में सैंकड़ों वर्षों से अभी भी विद्यमान है । जैनियों ने चित्रकला को धर्म स्थानों पर बहुत चमकाया है और धर्म ग्रन्थों में भी तप वर्णन, रथ, कमल श्रादि चित्रों द्वारा तथा काव्य रचना भी इसी तरह चित्रों में प्रदर्शित की हैं । यहां तक कि लक्ष्या, लोक एवं अन्य तत्व-विचारप्रसंगों को भी चित्रों में अंकित कर साधारण जनता तक पहुंचने की कोशिश की गई है । भारत में सबसे अधिक चित्रकला का प्रचार-प्रसार और रक्षरण जैनियों ने किया और आज भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने भव्य मन्दिरों, भवनों और धर्म स्थानों को सजाने की यही उत्तम कला अपनाई हुई है। पट, काष्ठ, भित्ति और कागज के चित्र तो प्रत्येक धम स्थानक में सदा वर्तमान थे, हैं और रहेंगे | निवास स्थानों में भी इनका वर्तन अत्यधिक है । रेत के चित्रों का अल्प समय के लिए मार्ग दर्शन के लिए साधु, यात्री गन्तव्य स्थान को बताने के लिये प्रयोग करते थे और बड़ी बड़ी चट्टानों पर छंगी से बनाये हुए चित्र प्राज भी प्राचीन समय के सुरक्षित हैं तथा भवतों में आज भी पत्थरों पर चित्रों की पच्चीकारी का तथा कपड़ों पर भी पच्चीकारी व कलाबूती का कार्य बराबर व्यवहार में आ रहा है, जैनीलोग का धर्मकार्य का अधिकांश पैसा मन्दिर निर्माण एवं चित्रकारी में ही खर्च होता है । उन्होंने चित्रकला के प्रचार एवं प्रसार में बड़ा सहयोग दिया और दे रहे हैं ।
मूर्ति एवं निर्माण कला
जैनियों में प्राचीन कला से धनिकों की अधिकता होने एवं शासन हाथ में होने से अच्छे-अच्छे
प्रासाद, मंदिर, बावड़ियाँ, धर्मशालाएं, औषध - शालाए', पौषधशालाएं, श्रौर विद्याशालाएं बनाई हैं, जो बहुत से स्थानों पर अभी तक भी सुरक्षित हैं । जैनियों में राजा, दीवान तथा सेठ अधिक हुए हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपने धर्म के प्रचार प्रसार एव मानव हित के लिए भवन बनाये और बना रहे हैं । मन्दिर, धर्मशालाएं, स्थानक, पौषधशालाए ं, विद्यालय, श्रोषधालय, अस्पताल आदि अभी भी प्रचुर मात्रा में बनाते जा रहे हैं। मूर्तिकला का उदूभव एवं प्रचार-प्रसार भी जैनियों द्वारा ही अधिक हुआ है, ऐसा इतिहासज्ञ मानते हैं । मूर्तिकला के साथ स्थापत्य कला एवं शिल्प कला का प्रचारप्रसार जैनियों द्वारा ही किया गया है । ग्रन्थों व सूत्रों को सुरक्षित रखने लिए मन्दिरों में सारे के सारे सूत्र खुदवा दिये हैं । अच्छे अच्छे वाक्य तो हर मन्दिर में लिखे या खुदे मिलेंगे प्रशस्ति प्रत्येक भवन और मन्दिर में वर्तमान में भी खुदी हुई है । जैनियों ने मूर्तिकला में सौन्दर्य एवं आकर्षण पैदा करने में अत्यधिक धन व्यय किया है और कर रहे हैं। सभी तीर्थंकरों, शासन देवियों एवं अन्य तरह के मान्य देवों की मूर्तियां जैन लोग निर्मित कराते हैं ।
युद्ध एवं वक्तृत्व कला
जैनियो ने प्राचीन काल में बड़े-बड़े युद्ध किये थे, फलतः वे युद्ध कला में बड़े होशियार थे। चूंकि वे शासन करने वाले राजा या अमात्य पद पर शोभित होते थे । जैनी साधुत्रों ने अपने धर्म प्रचार हित वक्तव्य कला को प्राचीन काल से अपनाया और आज भी अपनाये हुए हैं। इनके भाषण सुनने के लिये दूसरे मजहब के लोग भी अच्छी तादाद में एकत्रित होते हैं । वक्तृत्व कला ने वाद-विवाद में भी जैनियों को सदा विजय दिलाई है । साधु एवं साध्वियां इस कार्य में बड़ी विचक्षरण होती हैं ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-27
मुद्रण और लिपि
कला को प्रारम्भ करने में ऋषभदेव सरीखे जैन जैनियों के सूत्र एवं अन्य प्राचीन काल में हाथ प्रमुख थे और दोनों शासन कलाए उन्होंने प्रचलित से लिखे जाते थे। बड़े-बड़े लिपिक इस कार्य को की, जो समय-समय बढ़ती घटती हुई आज भी करते थे। इन्हें प्रचुर धन देकर उत्साहित किया
विद्यमान हैं। जाता था। अाज भी जैनियों के धर्म ग्रन्थ एवं
धातु, काष्ठ एवं प्रस्तर कला (शिल्पकला) पुस्तकें अत्यधिक मात्रा में छपती हैं और लिखाई जाती हैं। इससे दोनों कलामों को प्रोत्साहन इनका सामान्य वर्णन मूर्तिकला में आ चुवा मिलता है।
है और चित्रकारी में भी । लेकिन धातु प्रस्तर व
काष्ठ की मूर्तियां तथा धातु प्रस्तर व काष्ठ पर शासनकला
चित्र बनाने के अलावा स्वयं को सुन्दर ढंग से धर्मशासन और राज्य शासन में. जैनियों ने बनाने का शिल्प जो जैनियों ने काम में लिया है बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । जैनियों के वह आज भी उसके भवनो और मंदिरों में विद्यमान जितने भी तीर्थकर हुए हैं, वे सभी प्रायः राज्य है। सोना, चांदी, पीतल, लोहा, कांस्य या सभी शासन चलाने वालो में से. थे। अधिकांश आचार्य का सम्मिश्रण, चन्दन, आम, सागवान आदि हर एव धर्म गुरू भी किसी न किसी राजवंश से प्रकार की लकड़ी तथा मकराणा व सभी अन्य सबधित थे, अतः दोनों शासनों की कलाप्रो में तरह के पत्थरों पर जैसा शिल्प कला का प्रदशन निष्णात थे। धर्मशासन में चतुर्विध सघ की जैनियों ने किया है वैसा शायद ही अन्य धर्मावस्थापना कर शासन व्यवस्था जमाई जा. प्रभा तक लम्बियों ने किया हो। आबू और अन्य जगहों के चल रही है। सघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्रावि- मन्दिरो में करोड़ो रुपयों की खुदाई के काम कराये काए अपने अपने स्थान पर अपन अपने नियमों स हैं। इस तरह जनों ने काष्ठों एवं धातुओं की प्राबद्ध होकर धम प्रचार एवं धर्म पालन में रत हैं। मूर्तियों से लगाकर वर्तनादि सभी व्यवहार की इतनी सुदर व्यवस्थाएं दी हैं कि जैन शासन वस्तुओं को कला एवं मीनाकारी से सुसज्जित किया हजारों वर्ष के बाद भी भली भांति चल रहा है। है। जैनियों ने हीरा और पन्ना तक की मूर्तियां तीर्थकर होते तब तीर्थंकर, गणधर, प्राचार्य, बनाकर इस कला को चमकाया है। व्यापारी कोम उपाध्याय एवं साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका होने और इन सबका व्यापार इनके हाथों में होने रूप में व्यवस्थित शासन चलता था और उसके बाद से जैन लोग हर तरह के देव मन्दिरों और गृह प्राचार्य, उपाध्याय एवं अन्य अंग बराबर चल रहे देवियों के प्राभूषण भी बड़े उत्तम ढंग और नित हैं । धर्मशासन तो इन्हीं के हाथों में है। शासन नये आकर्षक ढंग से बनाने के माहिर हैं।
.
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-28
अमृतवारणी
-श्री रमेशचन्द्र जैन बाझल सर. हु. संस्कृत महाविद्यालय, जवरीबाग, नसिया, इन्दौर
महावीर की अमृतवाणी, समझें प्रोर समझाना है। पच्चीस सौ वां निर्वाणोत्सव, सार्थक हमें बनाना है।
सुख के खातिर माज जगत् ने, भौतिकता है अपनाई । हिंसक कर्म करें विन सोचे,
परिणति कैसी है छाई ॥ भौतिकता में सुख समझें, यह भ्रम में पड़ा जमाना है। महावीर की अमृतवाणी, समझ पोर समझाना है ।
ज्यों ज्यों इच्छा पूर्ण करें, त्यों त्यों ही बढ़ती जायें । इच्छानों की तप्ति हेत,
निज समब अमूल्य गमायें ।। भोगों से सुख नहीं मिले, यह सम्यक् बात बताना है। महावीर की अमृतवाणी, समझ मोर समझाना है ।
सत्य अहिंसा को अपनायें, छोड़े व्यर्थ के प्राडंबर । श्रद्धा, ज्ञान, चरित्र हो सम्यक
करें शुभाशुभ का संवर ॥ वीतरागमय पथ मानव को हमको पुनः दिखाना है । महावीर की अमृतवाणी समझे और समझाना है।
रहे परस्पर भ्रातृ भावना, जीवन सुखमय रहे सदा । धर्मोन्नति के पथ पर बढ़वें,
भय व्याधि नहीं होय कदा ॥ महावीर के सिद्धान्तों से, स्वर्ग धरा पर लाना है। महावीर की अमृतवाणी समझे और समझाषा है।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री दि० जैन मंदिर सेठजी की नशियां, अजमेर
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान की प्राचीन जैन मर्तिकला
-श्री विजयशंकर श्रीवास्तव अधीक्षक, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, जोधपुर ।
प्राचीन समय से ही राजस्थान जैन धर्म व श्री केशी गणधर ने यहाँ भगवान महावीर के स्कृति का प्रमुख गढ़ रहा है। उसके विकास जीवनकाल के 37वें वर्ष में जीवन्त स्वामी के
प्रसार में राजस्थान का विशिष्ट योगदान है। मन्दिर व प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। इस मन्दिर एक प्रमुख प्राचार्यों व जैन विद्वानों की यह प्रमुख का वि सं. 1425 वैशाख सुदि । रविवार को मर्यस्थली रही, विभिन्न सम्प्रदायों व गच्छों का कोरंटकगच्छ के प्राचार्य सावदेवसूरि द्वारा जीर्णोद्धार हा उद्भव व विकास हुमा तथा जैन संघ का किया जाकर कलश, दंड चढ़ाया गया-तथा देवजस्थान के जन-जीवन पर अद्भुत प्रभाव रहा। कुलिकामों में 24 तीर्थकरों की प्रतिमानों की राजस्थान के साहित्य, संगीत, कला व संस्कृति के प्रतिष्ठा की गयी । कवि सुन्दरगणि (17वीं अन्य उपादानों को जैन-धर्म ने जिस प्रकार प्रभा- शताब्दी पूर्वार्ध) की सूचनानुसार गंगाणी (जोधवित व अनुप्राणित किया-उसके परिणामस्वरूप पुर से 28 कि. मी.) के जैन मन्दिर में सम्राट देलवाड़ा और राणकपुर जैसे विश्व-विश्रु त जैन चन्द्रगुप्त मोर्य द्वारा भगवान पाश्र्वनाथ दी स्वर्णमन्दिरों का यहाँ निर्माण हुआ, तीर्थकरों, प्राचार्यों प्रतिमा की प्रतिष्ठा श्रुत केवली भद्रबाहु द्वारा प्रादि की सहस्रों की संख्या में प्रस्तर एवं धातु करवायी गयी । सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति मूर्तियां निर्मित हुई, अगणित संख्या में जैन कथा- द्वारा अनेक नवीन जैन मन्दिरों का निर्माण, पुराने नकों पर हस्तलिखित ग्रथों का आलेखन हुमा, मन्दिरों का जीर्णोद्धार एवं अगणित जैन प्रतिसंचित्र पाण्डुलिपियों, विज्ञप्ति पत्रों के माध्यम से मानों की इन मन्दिरों में प्रति ठा-परम्परानुसार राजस्थानी चित्रकला को अपने निश्चित स्वरूप बहत ही लोक-प्रचलित है। राजस्थान के भी कई निर्धारण में पर्याप्त सहायता मिली।
पुराने जैन मन्दिर व प्रतिमाएँ सम्प्रति द्वारा
निर्मित किये जाने की धारणा जन-साधारण में . राजस्थान के मध्यकालीन अभिलेखों में उल्लेख व्याप्त है। टॉड ने कुभलमेरू के जैन मन्दिर का है कि भगवान महावीर ने पश्चिमी राजस्थान के निर्माता सम्प्रति को लिखा है । गोड़वाड़ प्रदेश के श्रीमाल (जालोर परिसर का भीनमाल) व अर्बुद- नारलाई (जिला पाली) के प्रादिनाथ मन्दिर के भूमि (प्राबू क्षेत्र) में स्वयं पधार कर उसे पवित्र मूलनायक की प्रतिमा की चरण चौकी पर वि.सं. किया । प्राबू रोड से लगभग 8 कि. मी. दूरस्थ 1686 का अभिलेख उत्कीर्ण है-जिसमें इस मंदिर मंगथला (मुडस्थल) के मन्दिर के द्वारखण्ड पर को मूलतः निर्मित कराने का श्रेय सम्प्रति को उत्कीर्ण विसं. 1426 के अभिलेख के अनुसार दिया गया है। गंगाणी में पदुमप्रभु की प्रतिमा
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-30
की प्रतिष्ठा प्रायं सुहस्ति द्वारा वीर निर्वाण संवत निर्माता कलाकार सूत्रधार उस्ता मोहन, हरबंस, 203 में सम्प्रति के प्रश्रय में ही सम्पन्न हुई। दयाल व मथुरा थे। यद्यपि ये सभी उल्लेख व संदर्भ बहुत प्राचीन नहीं हैं। अतः उनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो राजस्थान के विभिन्न परिसदों में जैन धर्म सकती है परन्तु उनसे यह तो स्पष्ट है ही कि एवं संस्कृति की आधारशिला पाठवीं शताब्दी तक जन-मानस में यह धारणा बलवती है कि राज- पर्याप्त सुदृढ़ हो चुकी थी । मेवाड़, गोड़वाड़, स्थान में जैन धर्म की परम्परा बहुत प्राचीन है। मारवाड़, अलवर-कोटा क्षेत्र इस दृष्टि से महत्व
पूर्ण हैं । राजस्थान में रचित प्राचीन जैन साहित्य शुङ्ग व कुषाण काल में सूरसेन प्रदेश जैन धर्म एवं भगणित जैन-मूर्तियों के प्रतिष्ठा-लेखों का व संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था भौर पूर्वी राज- अध्ययन-इस दिशा में आवश्यक एवं गवेष्य है । स्थान उसका अविभाज्य भंग था अतः मथुरा से सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य हरिभद्रसूरि चित्तौड़-निवासी जैन धर्म की लहर का प्रवेश राजस्थान में होना थे और उन्होंने अपने ग्रन्थों में 8वीं शताब्दी में स्वाभाविक था । भरतपुर परिसर से 5-6वीं चित्तौड़ में जैन मन्दिरों की विद्यमानता का उल्लेख शताब्दी की जैन मूर्तियाँ ज्ञात हैं । भरतपुर संग्रहा- किया है । वीरभद्र द्वारा निर्मित जालोर के प्रादिलय में जवीना से प्राप्त सर्वतोभद्र आदिनाथ एवं नाथ मन्दिर में उद्योतनसूरि ने वि० सं० 835 इसी जिले से मिली नेमिनाथ की मूर्तियाँ इसी युग (778 ई) में 'कुवलयमाला' को रचना की , इस की कलाकृतियाँ है जिनमें गुप्तकालीन कला की ग्रन्थ की प्रशस्ति में उल्लेख है कि यज्ञदत्तगणि के स्पष्ट छाप है । वर्गाकार पीठिका पर चारों शिष्यों ने समस्त गुर्जर-देश को 7-8 वीं शताब्दी दिशाओं से उन्मुख दिगम्बर मादिनाथ के लम्बे में जिन देवालयों से समलंकृत कर दिया (रम्भो कान, माजानुबाहु, कंधों पर लटकते केश, वक्ष- गुज्जरदेसो जेहिकमो देवहरएहि)। वि. सं. 915 स्थल पर श्रीवत्स, लता-पत्रकों से निर्मित छत्र में जयसिंहसूरि द्वारा नागौर में लिखित 'धर्मोपदेशगुप्तकला का स्मरण दिलाते हैं । तथैव, 2 फीट माला विवरण' के अनुसार उस समय नागौर क्षेत्र 4 इंच ऊंची नेमिनाथ प्रतिमा में मासनस्थ तीर्थ- में कई जिनालय थे (नागउराइसु जिण-मन्दिराणि कर को बद्धपदूमांजलि मुद्रा में अंकित किया गया जायाणि ऐगाणि) । वहां कृष्णर्षि ने वि.सं. 917 है। उनके घुघराले केश, धनुषाकार भौहें, किंचि- में 'नारायण-वसति-महावीर जिनालय' की प्रतिष्ठा निमीलित नेत्र, श्रीवत्स चिन्ह-गुप्तकालीन कला की थी । श्रीमाल निवासी सिद्धर्षि ने वि.सं. 963 परम्परा के अनुकूल हैं । मूर्ति की चरण चौकी पर में 'उपमितिभवप्रपंचकथा' की रचना की मोर भगवान नेमिनाथ का लांछन शंख उत्कीर्ण है। जैन संघ ने उनके वैदुष्य से प्रभावित होकर उन्हें भरतपुर संग्रहालय में मध्यकालीन जैन प्रतिमाओं 'व्याख्यानकार' की उपाधि से समलंकृत किया । में अनेक अभिलेखयुक्त हैं जिनमें पार्श्वनाथ की मेवाड़ के करेड़ा के जैन मन्दिर से प्राप्त वि. सं. वि.सं. 1077 (बद्देना से प्राप्त) तथा वि.सं. 1039 के अभिलेख में संडेरकगच्छ के प्राचार्य 1109 तथा भुसावर से प्राप्त नेमिनाथ की वि.सं. यशोभद्रसूरि का उल्लेख है । पद्मनन्दि कुछ 1110 की मूर्तियाँ उल्लेखनीय है । बयाना के 'जम्बूदीपपन्नति' (रचनाकालः 10वीं शताब्दी) में निकट ब्रह्माबाद से प्राप्त जैन परिकर का निर्माण बारां (कोटा) में श्रावकों एवं जिन मन्दिरों की तपागच्छ संघ द्वारा वि.सं. 1679 में मुगल सम्राट चर्चा है। मालवा के प्रख्यात कवि धनपाल नुरूद्दीन जहांगीर के राजत्व में हुमा । उसके वि. सं. 1081 के लगभग 'सत्यपुरीय महावीर
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-31
उत्माह' की रचना की उसमें उल्लेख है कि महमूद है। इस मण्डप में जो सुन्दर सरस्वती की मूर्ति है गजनवी के प्रकोप का शिकार श्रीमाल (सिरिमाल- उसके दाहिने पोर हाथ जोड़े सूत्रधार लोयण तथा भीनमाल), अनहिलपुर पाटन (अणहिलवाड ). बाये पोर गजधारण किये सूत्रधार केला अंकित चन्द्रावती (चड्डावली), सोरठ (सौराष्ट्र), देलवाड़ा हैं। लोयण प्रौर केला विमलवसही के सुन्दर ( देउलवाड़-माबू पर्वत) सोमनाथ (सोमेसरू- विश ल मण्डप और उसकी पद्म-लम्बक युक्त छत के सोमेश्वर) के मन्दिर बने जिन्हें उनके धर्मान्ध प्रमुख निर्माता कलाकार रहे होंगे । वि०सं० 1287 सैनिकों ने ध्वस्त किया, परन्तु केवल मात्र श्रीसत्यपुर में देलवाड़ा के संसार-प्रसिद्ध वस्तुपाल-तेजपाल मथवा साचोर (सिरि सच्चउरि) का महावीर द्वारा निर्मित लूणवसही का निर्माण सूत्रधार मन्दिर ही बच रहा ।
शोभनदेव के निर्देशन में हमा। राजस्थान के विभिन्न संभागों में यत्र-तत्र गौड़वाड़ प्रदेश में नाणा, नारलाई, नाडोल, बिखरी जैन मूर्तियाँ व प्राचीन मन्दिर-पाज भी घाणेराव, बरकाना, सादड़ी; पाली; जैसलमेर में अपनी गौरव गाथा एवं कलात्मक-समृद्धि का निदर्शन किले व लुद्रवा; बाड़मेर किले में नाकोड़ाजी व करने हेतु बच रहे हैं । प्रोसियां (जोधपुर) के जूना पतरासर; बीकानेर में चिन्तामणि, नमिनाथ महावीर मन्दिर का मूलतः निर्माण प्रतिहार नरेश व मांडासर; जोधपुर में प्रौसियां, गंगाणी, झंवर, वत्सराज के राजस्म (783 ई० 795 ई०) में 8वी तिवर्ग, कापरड़ाजी प्रादि के जैन मन्दिर और शताब्दी में हुआ परन्तु जिन्द रु द्वारा विशाल स्तर उनका समृद्ध मूर्तिकला-भारतीय कला की गौरवपर वि. सं. 1013 में जीर्णोद्धार कर 'वलाणक' पूर्ण निधियां हैं । बना । वि. सं. 1073 में तोरण निमित हुप्रा । रोहिन्सकूप (घटियाला-जोधपुर) में वि. सं. 918 धातु मूर्तिकला के क्षेत्र में पश्चिमी राजस्थान में मण्डोर की प्रतिहार शाखा के नरेश कक्कुक की जैन मूर्तियों का विशिष्ट योगदान है। राजस्थान ने अम्बिका युक्त जैन मन्दिर का निर्माण किया जा में जैन धातु मूर्तियां-जितनी विशाल संख्या में 'माताजी की साल' रूप में आज भी विद्यमान है । प्राप्त हैं-यह माश्चर्यजनक है। ये धातु मूर्तियां बीजापुर-हथूडी के पुराने महावीर मन्दिर का 8वीं शताब्दी से अनवरत रूप से निर्मित होती जीर्णोद्धार किया जाकर वि. सं. 1053 में प्रथम रहीं । सिरोही के वसन्तगढ़ और अजारी; मारवाड़ तीर्थकर का अति सुन्दर मन्दिर बना जिसमें ऋषभ- के सांत्रोर, परबतसर, जालोर, रामसेन, सिवाना; देव की प्रतिष्ठा शान्त्याचार्य द्वारा की गयी। बीकानेर के अमरसर तथा चिन्तामणि मन्दिर की देलवाड़ा (प्राबू पर्वत) के विश्व-विख्यात प्रादिनाथ धातु मूर्तियां; जैसलमेर किले व लुद्रवा में सुरक्षित मन्दिर का निर्माण वि० सं० 1088 में मन्त्री धातु मूर्तियां, जयपुर में भामेर व सांगानेर के जैन विमल द्वारा कराया गया परन्तु महमूद गजनवी मन्दिरों में सुरक्षित धातु प्रतिमाएं -समृद्ध कला की द्वारा क्षतिग्रस्त किये जाने पर उसका विशाल स्तर परिचायक हैं । वसन्तगगढ़ (सिरोही) से प्राप्त दो पर जीर्णोद्धार वि० सं० 1204 में विमलशाह के जैन धातु मूर्तियों पर वि० सं० 744 के अभिलेख वंशज पृथ्वीपाल ने कराया, जो चौलुक्य नरेश उत्कीर्ण हैं और उन्हें बनाने वाले शिल्पी शिवनाग कुमारपाल के मन्त्री थे । इस अवसर पर विमल- को साक्षात् ब्रह्मा की भांति सर्व प्रकार के रूपों वसही में विशेषतः एक नया मण्डप बना जिसको (मूर्तियों) को निर्मित करने वाला कहा गया है । छत में सुन्दर पद्म-लम्बक (Lotus-Pendant) बीकानेर संग्रहालय में अमरसर से प्राप्त 14 घातु
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-32
मूर्तियां प्रदर्शित हैं जो सभी जैन हैं ( इसमें 9 स्थित प्रतिहार कालीन सूर्य मन्दिर के पिछले वाह्य अभिलेख युक्त हैं तथा इनमें 6 तिथियां भी अंकित मंडोवर भाग पर पार्श्वनाथ की मूर्ति का अंकन हैं जो वि0 सं0 1063 से 1150 के मध्य हैं । इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है । 22वें ये अधिकांश तीर्थंकरों की एकतीर्थी, त्रितीर्थी व तीर्थंकर नेमिनाथ को कृष्ण का चचेरा भाई जैनपंचतीर्थी मूर्तियां हैं जिनमें प्रादिनाथ व पार्श्वनाथ साहित्य में माना गया है जिन्होंने महाभारत के प्रमुख हैं । एक धातु मूर्ति चतुर्मुख समवसरण को युद्ध में सक्रिय रूप से भाग लिया । कंकाली टीले. अंकित करती है तथा वि0 सं0 1136 की अभि- से प्राप्त एवं मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित कई लेख युक्त पट्टे पर चतुर्विशति तीर्थंकरों का प्रकन कुषाण कालीन प्रतिमानों में पार्श्व देवता के रूप में है। अमरसर से प्राप्त एक फुट ऊंची नर्तकी की कृष्ण-बलराम को देखा गया है तथा प्रमुख देवता धातु मूर्ति उत्कृष्ट कला का अन्यतम उदाहरण है। के रूप में भगवान नेमिनाथ का अंकन हुआ है। जोधपुर के राजकीय संग्रहालय में सांचोर (जिला आबू के विमलवसही में कालियदमन, चाणूरवध, जालोर) व परबतसर (जिला नागोर) से मिली तथा लूणवसही में कृष्ण जन्म, दधि-मंथन, रास जेल धातु मूर्तियां भी उल्लेखनीय हैं । सांचोर से लीला प्रादि के दष्य विद्यमान है, खजुराहो के पार्श्वप्राप्त पदुमासनस्थ प्रादिनाथ की धातुमूर्ति 8 वीं नाथ मन्दिर में यमलार्जुनोद्धार का दृष्य उत्कीर्ण है, शताब्दी की महत्वपूर्ण कलाकृति है । सांचोर सांगानेर (जयपुर) के सिंघी जैन मन्दिर (16वीं की धातु प्रतिमानों पर वि0 सं0 1262 से 1649 शताब्दी) के स्तम्भों पर रास लीला एवं कृष्ण के तथा परबतसर की धातु मूर्तियों पर वि० सं० विभिन्न रूपों का अंकन इसी परम्परा में हुआ है। 1234 से 1599 की अवधि के दान-परक लेख
हिन्दू देव-परिवार को जिस रूप में जैन धर्म सत्कीर्ण हैं।
में प्रात्मसात् कर लिया गया-वह भी कम रोचक - राजस्थान की जैन मूर्तिकला-धार्मिक सहिष्णुता नहीं है । जैन कुबेर की प्रतिहारकालीन प्रतिमा की भावना का मूर्त रूप है । यहां विभिन्न मेवाड़ के बांसी ग्राम से प्राप्त हुई है जो उदयपुर धर्मों व सम्प्रदायों में धार्मिक कटुता एवं प्रतिस्पर्धा संग्रहालय में प्रदर्शित है । समकालीन जैन साहित्य का प्रभाव था। मेवाड़ में केसरियाजी तथा बाड़मेर द्वारा भी राजस्थान में यक्ष-पूजन सुस्पष्ट है। में नाकोड़ा जी सभी के पूज्य है। नाडोल (पाली) चित्तौड़ निवासी प्राचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित से चौहान राजपूत कीर्तिपाल के वि0 सं0 1218 'समराइच्चकहा' (6वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध) में यक्ष के ताम्रपत्र का प्रारम्भ करते हुए मंगलाचरण में धनदेव (कुबेर ?) का उल्लेख है तथा जालोर में ब्रह्मा (ब्रह्म), विष्णु (श्रीधर) व शिव (शंकर) को उद्योतनसूरि द्वारा लिखित 'कुवलयमाला कथा' जैन-जगत में प्रसिद्ध कहा गया है । मागे लेख हैं (778 ई.) में जैनों द्वारा पूजित कुबेर प्रतिमा का कि सोमवार श्रावण वदि 6 सम्वत 1218 को संकेत है । जैन धातु प्रतिमाओं पर कुबेर पम्बिका नाडोल में कीर्तिपाल ने स्नान करके, धुले हुए वस्त्र व नवग्रह का प्रायः प्रकन मिलता है। वाग्देवी घारण कर, देवताओं का विधिवत् तर्पण कर, सूर्य सरस्वती जैन सम्प्रदाय में बहुत ही लोकप्रिय थी। की पूजाकर, शिव को अभिवादन कर-नारलाई के पल्लू (गंगानगर) से प्राप्त दो जैन सरस्वती 11 ग्रामों में से प्रत्येक ग्राम से नारलाई के महावीर प्रतिमाएं क्रमशः राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में मन्दिर को 2 द्रम्म दिलवाने की व्यवस्था की । बीकानेर संग्रहालय में प्रदर्शित हैं जो चाहमानऔसियां के सच्चिका माता मन्दिर के प्रांगण में कालीन महत्वपूर्ण कलाकृतियां हैं । विमलवसही
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
(आबू) को सरस्वती मूर्ति का पूर्व में उल्लेख किया में सच्चिका कहा गया है । इसी स्थल के एक अन्य जा चुका है। अभी हाल में लाडनू (नागोर) के अभिलेख में रत्नप्रभसूरि द्वारा चामुण्डा को सचिया दिगम्बर जैन मन्दिर से जैन सरस्वती की एक रूप में परिवर्तित करने का उल्लेख है । यह लेख अन्य भव्य मूर्ति ज्ञात हुई है । इसकी पाद पीठ पर वि. सं. 1655 का है। जोधपुर संग्रहालय में उत्कीर्ण लेख के अनुसार वि. सं. 1219 वैशाख रेवाड़ा, (हर्षवाड़ा, परगना जसवन्तपुरा-मारवाड़) शुदि 3 शुक्रवार को श्रेष्ठी वासुदेव की पत्नी से प्राप्त एक देवी प्रतिमा (महिषमदिनी) का प्राश देवी ने सकुटुम्ब उसकी प्रतिष्ठा प्राचार्य श्री निचला भाग सुरक्षित है जिसकी चरण चौकी पर अनन्तकीर्ति द्वारा करायी। इस दृष्टि से अजमेर उत्कीर्ण लेख में कहा गया है कि "गणिनि चरणसंग्रहालय की जैन सरस्वती प्रतिमा भी उल्लेखनीय मत्या द्वारा सच्चिका देवी की इस प्रतिमा की है । जन-धर्मावलम्बियों ने वैष्णवी को चक्रेश्वरी प्रतिष्ठा सम्वत् 1237 फाल्गुन सुदि 2 मंगलवार तथा महिषमदिनी को सच्चिका देवी के रूप में को ककु (ककुदसूरि)-द्वारा करायी गयी।" जूना परिवर्तित कर दिया । चक्रेश्वरी एवं सच्चिका की (मारवाड़) में भी सचियामाता का मन्दिर है अनेक प्रतिमाएं विशेषतः पश्चिमी राजस्थान से जिसमें भी उक्त प्राशय का समान अभिलेख है और ज्ञात हैं । चक्रेश्वरी को विद्यादेवियों में स्थान प्राप्त गणिनि चरणमत्या द्वारा वि. स. 1237 में होने के कारण जैन मूर्ति विज्ञान में उनको महत्व- सच्चिका प्रतिमा को प्रतिष्ठा परिणत है। लोदवा पूर्ण एवं विशिष्ट लोक-प्रियता प्राप्त हुई और (जैसलमेर) के चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर उनका प्रकन प्राचीन मन्दिरों के विभिन्न भागों में की परिक्रमा में रखे मकराने को गणपति मूर्ति की आवश्यक हो गया। प्रोसियां, घाणेराव, सेवाड़ी, चरण चौकी पर उत्कीर्ण अभिलेख से ज्ञात होता पाहाड़ आदि के महावीर मन्दिर में उनका चित्रण है कि श्री देव गुप्ताचार्य के शिष्य पं: पद्मचन्द्र ने विभिन्न संभागों में प्राप्त है । 'उपके शगच्छ पट्टा- समस्त गोष्ठिका के आदेश पर वि. सं. 1337 में वली' में सच्चिका देवी का जो स्वरूप वर्णित है, अजमेर दुर्ग में जाकर वहां सच्चिका व गणपति वह महिषमर्दिनी से साम्य रखता है। भोसियां सहित द्विपंचासत जिन बिम्ब निर्मित कराया। (जोधपुर) में सचिया माता मन्दिर में पूजित प्रतिमा महिषमर्दिनी को ही है। इस मन्दिर में
भगवान महावीर-राजस्थान के जन समुदाय में
विशेषतः लोकप्रिय रहे । परम्परानमार उन्होंने इस वि. सं. 1234 तथा वि. सं. 1236 के प्रभिलेख
क्षेत्र में स्वयं पधार कर उसे पवित्र किया। यही विद्यमान हैं । इन अभिलेखों में मन्दिर को क्रमशः
कारण है कि राजस्थान के अधिकांश प्राचीन 'सच्चिको देवो प्रासाद एवं 'श्री संचिका देवि देव
मन्दिरों में मूलनायक रूप में उन्हें ही प्रतिष्ठित गृह' संज्ञा प्रदान की गयी है। वि. सं. 1234 के
किया गया। भगवान महावीर की एक सुन्दर के प्रभिलेख में साधु माल्हा द्वारा आत्म-श्रयार्थ ।
प्रतिमा का निर्माण परमार कृष्णराज के राजत्व इस मन्दिर के जंघा पर चंडिका, शीतला, सच्चिका ।
में विः संः 1024 में वेष्टिक कूल के बद्धमान देवि, क्षेमकरी, क्षेत्रपाल की प्रतिमा बनाने का नामक व्यक्ति ने बरकाना में किया। इस प्रतिमा उल्लेख है । ये प्रतिमाएं मन्दिर के बाह्य मंडोवर का निर्माता कलाकार नरादित्य था । भगवान (जंघा) भाग पर प्राज भी विद्यमान हैं । गर्भ गृह। महावीर ने अपना प्रारम्भिक जीवन राजकुमार की पिछली प्रधान ताक में महिषमदिनी विराजमान रूप में प्रारम्भ किया । कैवल्य ज्ञान से पूर्व की इस हैं जिन्हें पास में उत्कीर्ण वि. सं. 1234 के लेख अवस्था में उन्हें 'जीवन्त स्वामी' की संज्ञा मिली।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
खींवसर ग्राम से प्राप्त एवं जोधपुर संग्रहालय में निधि है । एकलिंगजी (मेवाड़) के निकट नागदा प्रदर्शित जीवन्त स्वामी की विशालकाय मूर्ति 11वीं में महाराणा कुम्भा के राजत्व में शांतिनाथ जी शताब्दी की जैन मूर्तियों में अपना विशिष्ट स्थान का मन्दिर बना जिसमें मूलनायक की प्रतिमा रखती है। उस पर लघु लेख भी उत्कीर्ण है --- 9 फीट ऊंची है और 'भदुबुद' (अद्भुतजी) नाम 'वीरणा चालुक्यस्यां कारितं ।' इस प्रतिमा से से विख्यात है। इस प्रतिमा की चरण चौकी पर भगवान महावीर को पूरे राजसी वैभव के साथ माघ सुदि 11 गुरुवार वि. स. 1494 का लेख राजकुमार के रूप में कलाकार ने मंकित किया है, उत्कीर्ण है जिससे स्पष्ट है कि इसका निर्माण राजस्थान के अनेक प्राचीन महावीर मन्दिरों के मदनपुत्र धरणा या धरणाक द्वारा कराया गया। विभिन्न भागों पर जीवन्तस्वामी का अकन प्राप्त विशाल धातु प्रतिमानों के निर्माण में भी जैन धर्म है। इस दृष्टि से पाहाड़ (उदयपुर), प्रोसियां का महत्वपूर्ण योगदान रहा । पाहाड़ से प्राप्त एवं (जोधपुर) एवं सेवाड़ी (पाली) के महावीर मन्दिर उदयपुर संग्रहालय में प्रदर्शित पुरुषाकार आसनस्थ उल्लेखनीय है जो 10-11 वीं शताब्दी में जिन प्रतिमा 8वीं-9वीं शताब्दी की विशिष्ट निर्मित हुए।
कलाकृति है। डूगरपुर के सूत्रधारों द्वारा विनिर्मित
अनेक पातु प्रतिमाए महाराणा कुम्भा के समय में अन्य तीर्थकरों की भी अनेक प्रतिमाएं राजस्थान के विभिन्न परिसरों में निर्मित हुई।
मचलगढ़ (प्राबू) के जिनालयों में प्रतिष्ठित हुई। पिलानी के निकट नरहड़ से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा
इस प्रकार की एक सुविशाल आदिनाथ भगवान
की धातु प्रतिमा, जिसकी चौकी पर कुम्भा के में सुमतिनाथ (वें तीर्थकर) तथा नेमिनाथ
समय की वि. सं. 1518 का लेख है, तपागच्छ के (22वें तीर्थकर) की भव्य प्रतिमाएं ज्ञात हैं जिनकी
लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा अचलगढ़ के जैन मन्दिर में चरण चौकी पर उनके लाञ्छन क्रमश: 'चक्र' व
प्रतिष्ठा की गयी। 'शंख' उत्कीर्ण हैं । ये गुप्तोत्तरयुगीन कलाकृतियां हैं । जैन प्रतिमाएं अपनी विशालता के लिए भी तीर्थकरों के अतिरिक्त, जैन 'पंच परमेष्टिनों' प्रसिद्ध हैं। अलवर क्षेत्र में पारानगर के निकट, की प्रतिमाओं के निर्माण की गौरवपूर्ण परम्परा जैन मन्दिर के भग्नावशेष बिखरें हैं जहां तेइसवें राजस्थान में विद्यमान हैं। अहंत (तीर्थ कर) के तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ को 16 फोट ऊंची समान सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय व साधु भी भक्तों विशाल प्रतिमा विद्यमान है जो 'नौगजा' नाम से के पूज्य हैं अतः उनकी प्रतिमानों का निर्माण भी प्रसिद्ध है और 9वीं शताब्दी की कला की अनुपम राजस्थान में लोकप्रिय रहा ।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री वीर नामावलि-कीर्तन -रच० ० पन्नालाल जैन, 'पवल' बरेली (भोपाल) म०प्र०
शत पच्चीस पर वर्ष बहत्तर, पूर्व माज प्रमान ।
पधारे महावीर भगवान ॥ टेक।।
कुण्डलपुर में जन्म कहाये, विसला अंक सुजान । वर्षमान थे नाम धराये, वैभव वृद्धि महान ।।
पधारे महावीर भगवान ।।
अनंतचतुष्टय के तुम घारी, गर्भहि से त्रय-शान । बाल-ब्रहमचारी अखिलेश्वर, हे प्रभु दया-निधान ।
पधारे महावीर भगवान ।।
बाला-पन झूलन को विरिया, शंका ले मुनि मान ।। दर्श-मात्र शंका निरसन भई,सन्मति नाम बखान ।।
पधारे महावीर भगवान ।।
संगम-देवनाग बन पाया, मामलि-क्रीडा थान । पूछपकड़ कर उरग नचाया, तब प्रति-वीर पिछान ।
पधारे महावीर भगवान ।।
युवा-काल के समय भक्त-जन, थापी मूर्ति-महान । रत्नाभरण मुकुट माथे पर, जीवन्त-स्वामी मान ।।
पधारे महावीर भगवान ।।
रुद्र किये उपसर्ग भयङ्कर, मुक्तक-मर्घट जान । सहे सिथिर रह घोर-उपद्रव, महावीर भगवान ।।
पधारे महावीर भगवान ।।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-36
बारह-वर्ष उग्र-तप कीना, पायो केवल-ज्ञान । महती सभा जीव प्रतिबोधे, महति-वीर गुणवान ।।
पधारे महावीर भगवान ।। तीस वर्ष प्रभु किये विहारा, पशुवन जीवन-दान । जीने दो और जियो प्रेम से, दीना मन्त्र-महान ।।
पधारे महावीर भगवान ॥
दूर किया तम-जगत ज्ञान से, प्रकटा ज्योतिष्मान ।। तीर्थ प्रकाशक अन्तिम जिनवर, चर्मतीर्थकर जान ।।
पधारे महावीर भगवान ।।
त्रिसला लाल, लाल-जग तारे, आभा लालहि-ज्ञान ।। हृदय लालि जिन धारण कीनी, भये धवल शोभान ।।
पधारे महावीर भगवान ॥ विनय करत कर वद्ध शरण में, गावें तुम यश-गान । पार करो-भक्तन की नैया, फैंसी भवोदधि प्रान ।
पधारे महावीर भगवान ॥
पूग्व-भव बत्तीस शास्त्र में, किया प्रमुखता-गान । और अनन्ते भव जिनवर के, नहीं वर्णन में पान ।।
पधारे महावीर भगवान ।
अन्तिम-भव षड़-नाम प्रभु के, गाये भक्ति प्रमान । अल्प ज्ञानि कवि 'धवल कहे किमि, प्रभु अनन्त गुण-खान ।।
'पधारे महावीर भगवान ।।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र पदमपुरा (बाड़ा)
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्तौड़पट्ट के
दिगम्बर
भट्टारक
विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ।
मेवाड़ ( मेदपाट) राज्य ऐतिहासिक दृष्टि से राजस्थान का प्रायः सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित राज्य रहा है । सुप्रसिद्ध चित्तोड़दुर्ग (चित्रकूटपुर) को ईस्वी सन् को प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर 1567 ई. में मुगलसम्राट अकबर द्वारा उस पर अधिकार किये जाने तक, लगभग डेढ़ सहस्र वर्ष पर्यन्त उक्त राज्य की राजधानी बने रहने का श्रेय प्राप्त रहा । प्रारम्भ में मौर्यवंश की एक शाखा का इस प्रदेश पर अधिकार रहा । चन्द्रगुप्त एवं सम्प्रति मौर्य के ये वंशज स्वभावतः जैन धर्म की प्रोर भाकर्षित रहे । भाठवीं शती ई० के प्रारम्भ में चित्तौड़ के मोरिय (मौर्य) नरेश धवलप्पदेव थे जिनके ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्री वल्लभ राहुष्पदेव थे । सम्भवतया इनके एक कनिष्ठ भ्राता वीरप्पदेव थे जो संसार त्यागी होकर जैनाचार्य वीरसेन स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्होंने इसी चित्रकूटपुर में एलाचार्य के निकट सिद्धान्तों का अध्ययन किया प्रतीत होता है। मोर तदनन्तर राष्ट्रकूट राज्य के बाटनगर में अपना विद्यापीठ स्थापित करके वहां धवल, जयधवल प्रादि विशालकाय प्रागमिक टीकाप्रन्थों की रचना की थी । राहप्पदेव का उत्तराधिकारी उनका भागिनेय, गुहिलपुत्र बप्पारावल 750 ई० के लगभग चित्तौड़ का राजा हुआ । उसी के समय में सुप्रसिद्ध ग्रन्थकार माचार्य हरिभद्रसूरि इस नगर हुए। इस गुहिलोत वंश की परम्परा इस राज्य में तब से वर्तमान पर्यन्त प्रायः भविच्छिन्न चली भाई । मेवाड़ के इस रारणावंश के शासक मुख्यतया शैव रहे यद्यपि कोई-कोई परम वैष्णव भी हुए, और कई एक तथा राज्यवंश के अनेक स्त्री पुरुष जैनधर्मानुयायी भी हुए। कम से कम इस विषय
में
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-38
में कोई सन्देह नहीं है कि राणाश्रों के मेवाड़ में जैनधर्म को प्रभूतः सम्मान, संरक्षरण एवं प्रश्रय प्राप्त रहा, और फलस्वरूप अनेक जैनवीरों ने राज्य की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी, अनेक जैन राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों ने राज्य के सुचारु संचालन में स्तुत्य योग दिया, जैन श्रेष्ठियों एवं व्यापारियों ने उसका आर्थिक अभ्युदय साधन किया, और अनेक जैन मुनियों एवं विद्वानों ने उसके धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन को प्राणवान बनाये रखा । इस राज्य और राजधानी में दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही ग्राम्नायों के अनुयायी श्रावक परस्पर सद्भाव पूर्वक रहते रहे, मोर दोनों के ही साधुसाध्वियों का उन्मुक्त विहार रहा ।
दिगम्बर परम्परा के नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छबलात्कारगरण-कुन्दकुन्दान्वय के भट्टारकों की पट्टावलियों से ऐसा प्रतीत होता है कि 12वीं शती ई० के मध्य के लगभग प्राचार्य हेमकीर्ति ने चित्तौड़ में सर्वप्रथम अपनी भट्टारकीय गद्दी की स्थापना की थी जिस पर अगले लगभग 50 वर्षों के बीच क्रमशः 14 मट्टारक हुए । अन्तिम भट्टारक बसन्तकीर्ति ने चित्तौड़ से पट्ट का केन्द्र अजमेर ( श्रजयमेरू) में स्थानान्तरित कर दिया जहां भगले लगभग 50 वर्ष में 6 भट्टारक हुए। इनमें अन्तिम सुप्रसिद्ध प्रभाचन्द्र थे जो हम्मीरभूपाल से समच्चित भट्टारक धर्मचन्द्र के प्रशिष्य और बाल तपस्वी एव स्याद्वादाम्बुधि भी रत्नकीति के शिष्य एवं पट्टधर थे । वह 1318 ई0 के लगभग सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में अजमेर से दिल्ली चले आये श्रीर वहीं अपना पट्ट स्थापित करके उसे ही उन्होंने अपनी नाय का केन्द्र बनाया और वहीं 1353 ई0 के लगभग उनका शरीरान्त हुआ है। उनके सुशिष्य भः पद्मनंदि थे, जिनके पट्टधर शुभचन्द्र हुए, और शुभचन्द्र के पट्टधर सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठाकारक भट्टारक जिनचन्द्र हुए जिन्होंने अपने पट्टकाल
(1450-1514 ) ई0 में पचासों प्रतिष्ठाविधान किये और सहस्रों जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कीं । संभवतया दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी की मन्दिर मूर्ति भंजक नीति की यह प्रतिक्रिया थी । भट्टारक जिनचन्द्र दिल्ली में कम हो रहे प्रतीत होते हैं - उनका प्रधान कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । संभवतया अपने अन्तिम समय में इन्होंने पट्ट का केन्द्र दिल्ली से पुनः चित्तौड़ में स्थानान्तरित कर दिया था, जहां जैन धर्म के प्रति अति सहिष्णु वीरवर राणा सांगा का प्रतापी शासन था । ग्रों तो पट्ट का केन्द्र चाहे अजमेर में रहा अथवा दिल्ली में, मेवाड़ प्रदेश में उसके भट्टारकों की आम्नाय चलती थी और वह उनके कार्य क्षेत्र के भीतर ही सदैव रहा ।
इस पुनः स्थापित चित्तौड़ पट्ट के प्रथम श्राचार्य, भट्टारक जिनचन्द्र के सुशिष्य एवं पट्टमर भट्टारक प्रभाचन्द्र थे, जिनका उल्लेख बहुधा अभिनव प्रभाचन्द्र एवं प्रभेन्दु नामों से भी हुआ है । उनके पट्टकाल 1514--1524 ई0 के लगभग रहा । इनका जन्म अजमेर के निकटस्थ नवलक्षपुर ( नालछा ) के प्रसिद्ध एवं सुसम्पन्न वैद्यवंश में छुपा था । पितामह हरिपति वैद्य को पद्मावती देवी सिद्ध थी, और वह सुल्तान फीरोज़शाह तुगलुक द्वारा सम्मानित हुए थे। पिता पद्मश्रेष्ठि बहुदानी, शाकम्भरी में विशाल जिनालय के निर्मापक, मिथ्यात्वघातक, जिनगुण-नित्यपूजक और इतने प्रभावशाली थे कि राजा लोग भी उनका बड़ा आदर करते थे, विशेषकर मालवा के सुल्तान गयासशाह से उन्होंने बहुत मान प्राप्त किया था । ज्येष्ठ भ्राता वैद्यराज बिझ ने मालवा के सुल्तान शाहनसीर से और भतीजे वैद्य धर्मदास ने से महमूदशाह प्रभूत सम्मान पाया था । धर्मदास के पुत्र रेखा वैद्य को शेरशाह सूरी ने सम्मानित किया था और रेखा का पुत्र जिनदासवैद्य होलि रेणुका चfत्र' का कर्त्ता अच्छा साहित्यकार था । ऐसे
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-39
हाल में उत्पन्न प्रभाचन्द्र का लालन-पालन, शिक्षा प्रतियों लिखकर दान कराई। इनका पट्टाभिषेक श्रीक्षा उत्तम प्रकार से हुए थे । उनका मूल नाम सम्मेदाचल (सम्मेद शिखर) पर हुआ था जहाँ पाइदजन था और वह यथा नाम तथा गुण थे। राजस्थान से एक विशाल संघ तीर्थ यात्रार्थ गया परंभ से ही बड़े विवेकशील, सबका उपकार करने हुआ था। इनकी गृहस्थ आम्नाय बड़ी विस्तृत थी, आले, जिनधर्म का सम्यक् प्राचरण करने वाले, विशेषकर राजस्थान के विभिन्न भागों के निवासी वान, शीलवान और धर्मात्मा थे। राजाओं बघेरवाल और खण्डेलवाल श्रावक इनके बड़े भक्त से वैभव का परित्याग करके इन्होंने स्वगुरू थे। कई रजवाड़ों के राजाओं एवं अन्य राजपुरुषों द्वारक जिनचन्द्र से मुनि दीक्षा ली और उनके द्वारा भी ये सम्मानित हुए । इनका शिष्य रान्त उनके पट्टधर बने । पट्टावलियों, ग्रन्थ- परिवार भी विशाल था। मंडलाचार्य धर्मचन्द्र स्तियों, मूर्ति लेखों आदि में उनकी प्रभूत प्रशंसा इनके पट्ट शिष्य थे जो इनके उपरान्त चित्तोड़पट्ट स्त होती है, यथा-न्याय व्याकरण निष्णात्- पर आसीन हुए। मामेरपट्ट के मंडलाचार्य चन्द्रकीर्ति न्दब्रह्म-प्राच्यादिदिग्विजयी जैनप्रतिष्ठाकृते- ब्रह्मचारी वीडा, ब्र० बूचा, . भोजाजोगी म्मेदगिरी सुवर्णकलशै : पट्टाभिषेककृत-गणेन्द्र लाला वर्णी, ब्र० रत्नवर्णी, प्रायिका पद्मश्री,
०सि० भास्कर, I, 4 पृ० 81-84) श्री आर्यिका पार्वतीबाई प्रादि इनके सुयोग्य त्यागी खिमचन्द्रदेव के पट्टधर भट्टारक श्रीमदभिनव शिष्य थे, जो इनके धर्म प्रभावना के कार्यों में सतत् प्रमाचन्द्रदेवः तैनिज निज भताखर्वगर्वपर्वतारूढ़-सर्व सहयोगी थे। इन्हीं के समय में, इनके शिष्य पार्वाकादि परवादि-मदांधसिंधुरसिंहायमान-विहि- लालावर्णी की प्रेरणा से मुनि नेमीचन्द्र गुर्जर देश प्राचार्य पदस्थापनाय-सकल भव्य चेतश्चमत्कारि- से चित्तोड़ पधारे और यहाँ धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र प्रबंजीवोपकारि-चारूचारित्रचारि-यथोक्तनग्नमुद्रा- आदि के आग्रह पर केशववर्णीकृत कर्णाटकी बारी समस्त विद्वज्जन मनोहारि-श्रीमन्निग्रन्था- (कन्नड़ी) वृत्ति का अनुसरण करते हुए गोम्मटसार प्रार्यवर्य- नि:शेषमिथ्यात्वतमस्कांड-खंडनोंच्चंडिम- की 'जीवतत्वप्रदीपिका' नाम्नी संस्कृत टीका की कांड मार्तण्ड मंडलायमान, आदि, (प्रशस्ति रचना की थी, जिससे प्रसन्न होकर आचार्य, प्रह जयपुर, पृ० 89-पुष्पदन्तकृत प्रादि पुराण अभिनव प्रभावचन्द्र ने उन्हें 'सूरि' (प्राचार्य) पद ही दानप्रशस्ति), 'पूर्वाचल दिलमणि षट्तर्कताकिक प्रदान किया था। गमणि-वादिमदिद्वपसिंह --विवुधवादिमददलनदिकंदकुदाल-सकलजीवअंबुध प्रतिबोधक' (वही
ऐसा लगता है कि अपने अन्त के कुछ पूर्व ही 177) 'देवागमालंकृति, प्रमेयकमलमार्तण्ड
___ इन्होंने आमेर, नागौर आदि में कई शाखापट्ट का जैनेन्द्रादिक लक्षणशास्त्रों के ज्ञाता, वादी
स्थापित कर दिये थे जिन्हें अपने विभिन्न शिष्यों भविदारणक केशरि' इत्यादि ।
को सौंप दिया था। किन्तु प्रारम्भ में ये शाखापट्ट
चित्तौड़ पट्ट के ही अधीन रहे अतः चित्तौड़ में इनके उपरोक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि यह पट्टधर भट्टारक धर्मचन्द्र मंडलाचार्य कहलाये । विषारी भट्टारक वेष में न रहकर दिगम्बर मुनि भट्टारक धर्मचन्द्र का पट्टकाल लगभग 1524-46 ई. के में रहते थे, बड़े विद्वान, शास्त्रमर्मज्ञ, न्याय रहा। स्वगुरु के जीवनकाल में ही ये प्रतिष्ठाएँ
लों के विशिष्ट ज्ञाता, समर्थ वादी एवं शास्त्रार्थी कराने लगे थे क्योंकि 1514 और 1.20 ई0 के र प्रभावशाली धर्मोपदे थे। इन्होंने अने भी इनके कुछ मूत्तिलेख मिले हैं । अपने पट्टकाल में प्रतिष्ठाएं कराई और पनेक शास्त्रों का भी इन्होंने अनेक प्रतिष्ठाएं कराई तथा अनेक
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-40
शास्त्रों की प्रतियां लिखाई । यह भी बड़े प्रभावक मेवाड प्रदेश निवासी श्रावकों को भी वे ही धर्मलाभ एवं सुयोग्य भट्टारक थे । प्रायः पूरे राजस्थान पर देते रहे । इनकी माम्नाय का विस्तार था और अनेक त्यागी,
उपरोक्त मंडलाचार्य ललितकीर्ति ने चाटसू तथा प्रायिकाएँ एवं अनगिनत श्रावक-श्राविकाएँ इनके शिष्य थे।
नगर में भी एक शाखापट्ट स्थापित किया था ।
उन्होंने अनेक व्रत, अनुष्ठान, उद्यापन प्रादि कराये चित्तौड़पट्ट पर इनके उत्तराधिकारी भट्टारक मोर ग्रन्थों की प्रतियाँ दान कराई थीं। इनका ललितकीति मंडलाचार्य (1546-1565) रहे। शिष्य परिवार भी विशाल था। प्रामेर पटपर चन्द्रकीर्ति ही चलते रहे । मंडलाचाय चित्तौड के अन्तिम पट्टाधीश मंडलाचार्य भट्टारक ललितकीर्ति के उपरान्त मामेर पट्ट के चन्द्रकीर्ति भी प्रभावशाली गुरू थे । उन्होंने भी मंडलाचार्य चन्द्रकीर्ति ही संयुक्त पट्ट के स्वामी हुए। अनेक बिम्बप्रतिष्ठाएँ प्रादि कराई। राजस्थान में किन्तु 1667 ई० में मुगल सम्राट अकबर के हाथों भामेर से बीकानेर पर्यन्त और मध्यप्रदेश-बरार खान
देश में अमरावती पर्यन्त इनकी प्राम्नाय का विस्तार चित्तौड़ पट्ट समाप्त कर दिया गया लगता है, और
था। यह गत्यन्त दीर्घजीवी भी रहे प्रतीत होते हैं, प्रामेर, नागौर मादि के पट्ट भी प्रायः एक दूसरे क्योंकि इनके पट्टकाल का अन्त 160 5 ई० के से स्वतन्त्र चलने प्रारम्भ हुए । अपनी प्राम्नाय के लगभग के हुप्रा बताया जाता है।
आलोकित सारा लोकाकाश
- कुसुम पटोरिया
सबल समर्थक अणु-अणु की स्वतन्त्रता का समता का उद्घोषक बाहर भीतर एक अखंडित सा व्यक्तित्व साधना के द्वादश वर्षों में रहा मुकुल सा अन्तर्मुख तपस्या की अग्नि में तपकर पाया शब्दातीत प्रकाश वीर प्रभू की ज्ञान-रश्मियों से आलोकित सारा लोकाकाश।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर विषयक पुरातत्वीय प्रमाण
प्राचीन भारतीय साहित्य एवं अभिलेखों में श्रमण विचार परम्परा तथा उसके प्रमुख प्रवक्ता महावीर स्वामी के सम्बन्ध में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। तत्संबंधी मनेक साहित्यिक मान्यताओं को मूर्तिकारों तथा चित्रकारों ने अपनी कृतियों में मूर्त रूप प्रदान किये । जैन धर्म के सम्बन्ध में पुरालेखों मूर्तियों तथा चित्रों के रूप में पुष्कल सामग्री उपलब्ध है। उससे साहित्यिक विवरणों की पुष्टि में सहायता मिली है। जैन धर्म ने भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों-सत्य, अहिंसा, त्याग तथा परोपकार के संवर्धन में महत्वपूर्ण योग दिया। प्रतः यह धर्म जनता में बहुत माहत हुा । साहित्यिक तथा पुरातत्वीय प्रमाणों से यह बात सिद्ध हुई है ।
भगवान महावीर के जीवन-काल में उनकी
चन्दन की प्रतिमा निर्मित होने के उल्लेख कतिपय प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, अध्यक्ष, पुरातत्व
जैन ग्रन्थों में मिलते हैं । अनुश्रुति के अनुसार विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर
भगवान महावीर को चन्दन की प्रतिमा सिंधुसौवीर के शासक उदायरण (रुद्रायण) के अधिकार में गई बाद में उनसे उज्जैन के शासक प्रद्योत ने ले लिया और मूर्ति की विदिशा नगरी में रखी। उसकी एक प्रतिकृति बनवाकर बीतभयपट्टन नामक नगरी में रखी गई। देवयोग से भारी तूफान आने के कारण यह प्रतिकृति नीचे दब गई। उसके दबने से सारा नगर नष्ट हो गया। श्री हेमचन्द्राचार्य के मनुसार गुजरात के प्रसिद्ध शासक कुमारपाल ने
इस प्रतिकृति को निकलवाकर उसे प्रणहिलपाटन [इस रचना में जीवन्त स्वामी संबन्धी विवरण
नगर में प्रतिष्ठापित कराया। विवादास्पद है : 10 से 12 अक्टूबर तक जयपर में होने वाली जैन विद्या परिषद् में जहां कि यह भगवान महावीर की इस चन्दन-प्रतिमा के निबन्ध पढ़ा गया था, इस विषय पर पर्याप्त माधार पर कालान्तर में अन्य मतियों का निर्माण ऊहापोह हुना था।
-पोल्याका] हुमा होगा । कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-42
एक अभिलेख भुवनेश्वर के समीप हाथीगुफा में मिला है । इस लेख में लिखा है कि कलिंग में तीर्थंकर की एक प्राचीन मूर्ति थी, जिसे मगध के शासक नन्द अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गए। लेख में भागे लिखा है कि खारवेल ने पुनः इस प्रतिमा को मगध से कलिंग में लाकर उसकी प्रतिष्ठापना की। इस उल्लेख से ईसवी पूर्व चौथी शती में तीर्थंकर प्रतिमा के निर्माण का पता चलता है ।
यहां जीवन्तस्वामी प्रतिमा का परिचय दे देना श्रावश्यक है । तपस्या करते हुए महावीर स्वामी की एक संज्ञा 'जीवन्तस्वामी' हुई । कुछ ग्रन्थों के अनुसार यह संज्ञा उनकी प्रारम्भिक अवस्था की द्योतक है जब वे मुकुट तथा अन्य विविध आभूषण धारण किए हुए थे। अकोहा नामक स्थान से इस स्वरूप में भगवान् की एक अत्यन्त कलापूर्ण प्रतिमा मिली थी । यह मूर्ति कांसे की है और अब वह बड़ौदा के संग्रहालय में प्रदर्शित है । भगवान ऊंचा मुकुट तथा अन्य अनेक ग्राभूषण पहने हैं । उनके मुख का शांत, प्रसन्न भाव दर्शनीय है । मूर्ति पर ईसवी छठी शती का ब्राह्मी लेख खुदा है, जिसके अनुसार यह जीवन्त स्वामी की प्रतिमा है ।
मथुरा से कंकाली टीला तथा कौशांबी आदि अन्य स्थानों से गुप्तकाल के पहले की तीर्थंकरमूर्तियां प्राप्त हुई हैं। भगवान महावीर के अतिरिक्त आदिनाथ, पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा मुनिसुव्रत की मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं । इनका पता कतिपय विशिष्ट चिह्नों तथा उन पर कित लेखों से चलता है । अनेक प्रारम्भिक मूर्तियों पर लांछनों का अभाव है । लांछनों का प्रयोग गुप्तकाल के बाद व्यापक रूप से मिलने लगता है ।
मथुरा तथा कौशांबी से पत्थर के बने हुए वर्गाकार या श्रायताकार 'मायागपट्ट' मिले हैं ।
पूजा के लिये इनका प्रयोग होने के कारण उन्हें 'आयागपट्ट' कहा जाता था । अनेक पट्टों पर बीच में ध्यान मुद्रा में पद्मासन पर अवस्थित तीर्थंकर मूर्ति है। उसके चारों ओर अनेक सुन्दर अलंकरण तथा प्रशस्त चित्र बने हैं । मायागपट्टों का निर्माण ईसवी पूर्व प्रथम शती से प्रारम्भ हुआ। उन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि उनमें से अधिकांश का निर्माण महिलाओं की दानशीलता के कारण हुआ । मन्दिरों, विहारों तथा मूर्तियों के निर्माण में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक रुचि लेती थीं। प्राचीन शिलालेखों से इस बात की पुष्टि होती है ।
कुषाण काल ( ई० प्रथम द्वितीय शती) से जैन 'सर्वतोभद्रका' प्रतिमात्रों का निर्माण प्रारम्भ हुप्रा इन पर चारों दिशाओं में प्रत्येक और एक-एक जिन मूर्ति पद्मासन पर बैठी हुई या खड्गासन मे खड़ी हुई मिलती है । ये तीर्थंकर प्रायः प्रादिनाथ (ऋषभनाथ), पार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर हैं ।
मध्य प्रदेश के धुबेला संग्रहालय में एक अत्यन्त सुन्दर सर्वतोभद्रमूर्ति है, जो पूर्व मध्य काल की है । उस पर उक्त चारों तीर्थंकरों के चिह्न भी अंकित हैं, जिससे उनके पहचानने में कोई संदेह नहीं रह जाता ।
सर्वतोभद्रका प्रतिमा की परम्परा मध्यकाल के अन्त तक जारी रही । मथुरा, देवगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त अनेक सर्वतोभद्रिका मूर्तियां अभिलिखित हैं और मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से बड़े महत्व की हैं ।
गुप्त तथा मध्य काल में निर्मित भगवान महावीर की मूर्तियां बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं । कुछ ऐसे शिलापट्ट गुप्तकाल से उपलब्ध होने लगते
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं जिन पर चौबीसों तीर्थकर प्रतिमा का एक *कन मिलता है । गुप्त युग तथा विशेषकर मध्य काल में तीर्थंकर प्रतिमा के अगल बगल या ऊपर नीचे अनेक देवी देवताओं एवं यक्ष, सुपर्ण, विद्याधर श्रादि के चित्रण भी मिलते हैं । ये भगवान के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए अंकित मिलते हैं ।
. महावीरजी की गुप्तकालीन कतिपय मूर्तियां भारतीय कला के सर्वोत्तम उदाहरणों में गिनी जाती है। भगवान की शांत निश्चल मुद्रा को तथा सिर के पीछे अलंकृत प्रभावली को प्रदर्शित करने में कलाकारों ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की । मूर्तियां अधिकतर पद्मासन में मिलती हैं। सिर पर कुंचित केश तथा वक्ष पर श्रीवत्स या वर्ध - मानक्य चिन्ह मिलता है । अंग प्रत्यंगों की गठन बड़ी सुगढ़ होती है । ऐसी अनेक उत्कृष्ट मूर्तियां मथुरा कौशांबी, महिच्छत्रा, देवगढ, ग्राकोटा आदि स्थानों से मिली हैं ।
तीर्थंकर महावीर स्वामी के मन्दिरों का निर्माण कब से प्रारम्भ हुआ यह एक विवादग्रस्त बात है । प्राचीन जैन आगमों में प्रायः तीर्थंकर मन्दिरों का उल्लेख नहीं मिलता । महावीर स्वामी अपने भ्रमण के समय मन्दिरों में नहीं ठहरते थे, बल्कि चैत्यों में विश्राम करते थे । इन चैत्यों को टीकाकारों ने 'यक्षायतन' (यक्ष का पूजा स्थल) कहा है। भारत में यक्ष पूजा बहुत प्राचीन है । यक्षों के मन्दिरों या थानों में उनकी पूजा होती थी । 'भगवती सूत्र' नामक जैन ग्रन्थ के अनुसार भगवान महावीर ने 'पृथ्वी शिलापट्ट' के ऊपर बैठ कर एक वृक्ष (शाल) के नीचे तप किया, जहां उन्हें सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान बुद्ध ने पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया । बुद्ध के उस श्रासन का नाम 'बौधिमड' प्रसिद्ध हुआ । उसका प्रकन प्रारम्भिक बौद्ध कला में बहुत मिलता है जिसकी पूजा का बड़ा प्रचार हुआ । बोधिमंड तथा बुद्ध से सम्बन्धित बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप
2-43
आदि कही प्रारम्भ में पूजा होती थी । बुद्ध की मानुषी मूर्ति का निर्माण बाद में शुरू हुप्रा । उसके पहले जैन तीर्थंकरों की मानुषी प्रतिमाएं अस्तित्व में श्रा चुकी थीं।
चैत्य वृक्ष की पूजा जैन धर्म का भी एक अंग बन गई । विभिन्न तीर्थंकरों से संबंधित चंत्य वृक्षों के विवरण जैन साहित्य में उपलब्ध हैं । ऐसे तरुवरों में कल्पवृक्ष, शाल, आम्र आदि महत्वपूर्ण वृक्ष माने जाने लगे और इनका प्रदर्शन तीर्थकर प्रतिमानों तथा उनके शासन देवताओं के साथ किया जाने लगा । चैत्य वृक्ष ही मन्दिरों के प्रारम्भिक रूप मान्य हुए । यद्यपि आधुनिक अर्थ में प्राचीनतम जिन मन्दिरों के स्वरूप का स्पष्ट पता हमें नहीं है, पर इतना कहा जा सकता कि अनेक मन्दिर ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व अस्तित्व में प्रा चुके थे ।
1
वैशाली के ज्ञातृ कुल में वैशाली नगरी के समीप कुण्ड ग्राम ( प्राधुनिक वासुकुण्ड) में ई० पूर्व 599 में भगवान महावीर का जन्म हुआ । उनके पिता सिद्धार्थ इस कुल के मुखिया थे । महावीर की माता त्रिशला वैदेही वैशाली के नरेश चेटक की बहन थी । प्राचीन जैन ग्रन्थों में महावीर स्वामी को 'विदेह सुकुमार' तथा 'वैशालिक' नाम भी दिये गये हैं । उन्होंने दक्षिण बिहार के पर्वतीय तथा जांगलिक प्रदेश के भ्रमण में अनेक वर्ष बिताए। इससे यह स्वाभाविक था कि वह क्षेत्र महावीर स्वामी के उपदेशों का विशेष पात्र होता । जैन अनुश्रुति के अनुसार राजगृह महावीर स्वामी को सबसे अधिक पसन्द था । उन्होंने चौदह वर्षावास राजगृह तथा नालंदा में किए । राजगृह में महावीर स्वामी के पूर्वज तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म हुआ था । मुनिसुव्रत का नाम मथुरा से प्राप्त द्वितीय शती की प्रतिमा पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण मिलता है ।
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार भगवान महाबीर
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-44
का निर्वाण पावापुरी में हुमा । उस समय वे 72 समीप अनेक प्राचीन टीले हैं। टीलों से ठीकरों, वर्ष के थे अनेक विद्वान बिहार प्रदेश के वर्तमान सिक्कों, मूर्तियों आदि के रूप में पुरातत्व की नालंदा जिले में स्थित पावा को प्राचीन पावापुरी प्रचुर सामग्री मिलती है । जैन साहित्य में प्राप्त मानते है । परन्तु उसे प्राचीन नगरी मानने में एक. भौगोलिक तथा अन्य विवरणों के आधार पर कठिनाई यह है कि वहां बहुत प्राचीन पुरातत्वीय देवरियां जिले के इस स्थल को ही प्राचीन पावा अवशेष,नहीं मिले हैं। विद्वानों का दूसरा वर्ग प्राचीन मानना ठीक प्रतीत होता है। यहां सम्यक् रूप से पावापुरी की स्थिति उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में पुरातत्वीय उत्खनन बहुत प्रावश्यक है । इससे एक मानता है। इस जिले के फाजिलनगर तथा सठि- विवादग्रस्त समस्या पर अपेक्षित प्रकाश पड़ने की यांव नामक गांवों के मध्य भासमानपूर और उसके सम्भावना है।
प्रात्म-दमन
अप्पा चेव दमेयम्बो अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा बंतो सुही होइ अस्सि लोए परत्थ य॥
-उत्तराध्ययन सूत्रः १-१५
आत्मा का ही दमन करना चाहिये, निश्चय से प्रात्मा ही दुर्दमनीय है। प्रात्मजयो ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है ।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
हाथीगुम्फा शिलालेख को विषयवस्तु
कलिंग चक्रवर्ती, ऐल सम्राट खारवेल, ई० पू० का एक मात्र भारतीय सम्राट या ऐतिहासिक महापुरुष है जिसके राज्यकाल के एक पूरे युग का क्रमबद्ध इतिहास शिलाङ्कित रूप में हमें प्राप्त होता है। खारवेल निस्सन्देह जैन राजा था। उसका लेख "णमो अरिहंताणं-गमो सव सिद्धाणं" के मंगल मन्त्र से प्रारम्भ होता है और 'कलिंग-जिन' नामक प्रसिद्ध तीर्थंकर प्रतिमा को पुनर्घाप्ति पौर पुर्न प्रतिष्ठा को उसने अपने कार्य की अन्तिम महद् सफलता के रूप में गिनाया है।
यद्यपि इसके पूर्व सम्राट अशोक के अनेक शिला-प्रज्ञापन अस्तित्व में आ चुके थे परन्तु राजा के नाम, तिथिक्रम से उसकी उपलब्धियों मादि के प्रभाव में वे इतिहास की संज्ञा प्राप्त नहीं कर सके हैं। यह अलग बात है कि उन शिला प्रज्ञापनों के माधार पर मौर्यकाल के इतिहास का भवन स्थापित करने में विद्वानों को भारी सफलता प्राप्त हुई है। इसके विपरीत खारवेल का यह शिलालेख अपने संस्थापक राजा के नाम से युक्त अनेक देशों पौर राजवंशों के उल्लेख सहित, खारवेल के युवराज पद से लेकर उसके राज्य के तेरह वर्षों की उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धियों का क्रमवार एवं विगतवार इतिहास प्रकट करता हैं। इस प्रपेक्षा से निर्विवाद ही यह शिलालेख हमारे देश का सर्वाधिक प्राचीन, प्रमाणित और विश्वसनीय, ऐतिहासिक दस्तावेज कहा जा सकता है।
हाथीगुम्फा अभिलेख खण्डगिरि-उदयगिरि पर्वत के दक्षिण की पोर लाल बलुवे पत्थर की एक चौड़ी प्राकृतिक गुहा में उत्कीर्ण है। इसमें सत्रह पंक्तियां है और प्रत्येक पंक्ति में 90 से लेकर 100
श्री नीरज जैन, एम. ए. सतना डा० कन्हैयालाल अग्रवाल वाणिज्य महाविद्यालय, सतना, म. प्र.
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-46
तक अक्षर हैं । प्रस्तुत अभिलेख पहली बार स्टलिंग पूर्वतः अन्धकारावृत उड़ीसा के सम्राट खारवेल का द्वारा 1820 ई० में प्रकाश में आया और 1826 चरित प्रामाणिक रूप से हमारे समक्ष उजागर ई० में अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हुआ । किया है। कालान्तर में जेम्स प्रिन्सेप (1837 ई०), कनिधम
प्रस्तुत शिलालेख एक जैन अभिलेख है (1877 ई०), राजा राजेन्द्रलाल मित्र (1860 ई.)
जिसमें खारवेल के जन्म से लेकर राज्याभिषेक के म. भगवानलाल इन्द्रजी (1883 ई०), बुल्हर
बाद के तेरहवें वर्ष तक की घटनाओं का संक्षिप्त (1895, 1898 ई०), ब्लाख (1906 ई०), लूडर्स और फ्लीट (1910 ई०), डा० राखालदास बनर्जी
वर्णन है। जैन पद्धति के अनुसार यह अभिलेख
महत और सिद्धों के अभिवादन से प्रारम्भ होता (1913 और 1917 ई०), डा० काशीप्रसाद,
है। जैनों में पंच परमेष्ठियों के अभिवादन की जायसवाल (1917, 18, 27 ई०) प्रभृति अनेक विद्वानों ने विवेच्य अभिलेख के संशोधित पाठ परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। उसी का प्रतीक रूप प्रकाशित किये। इस प्रकार हाथीगुम्फा अभिलेख के
अर्हन्त और सिद्ध यहां दिया गया है। सम्पूर्ण पाठ को बार-बार पढ़े जाने की कहानी अत्यन्त लेख में खारवेल के लिए ऐर, महाराज और मनोरंजक है।
महामेघवाहन जैसे राजकीय विरुदों का प्रयोग
हुआ है । डा० दिनेशचन्द्र सरकार का मत है कि हाथीगुम्फा अभिलेख से उद्घाटित जैन सम्राट
वह 'ईला की सन्तन्ति' अर्थात् चन्द्रवंशी क्षत्रिय था । खारवेल का इतिहास माधुनिक विद्वत्ता को महान्
वह कलिंगाधिपति था और कलिंग के महामेघवाहन उपलब्धि हैं। यह तथ्य इस दृष्टि से भी अत्यन्त
वंश में उत्पन्न हुआ था। प्रस्तुत अभिलेख के महत्वपूर्ण है कि प्रद्यावधि खारवेल के सम्बन्ध में
विपरीत उसकी अग्रमहिषी उसे अपने लेख में साहित्य से, मुद्रामों से तथा अन्य किसी स्रोत से
'कलिंग चकवर्ती'3 कहती है। प्रतः इस तथ्य से किसी भी प्रकार की जानकारी उपलब्ध नहीं हुई।
यह ज्ञात होता है कि हाथी गुम्फा अभिलेख के इस महान् सम्राट के बारे में हम जो कुछ भी जानते
उत्कीर्ण होने के पश्चात् ही किसी समय किसी हैं वह इस शिलाखण्ड की दुर्बोध वाणी के रूप में
विजय के उपलक्ष में उसने चक्रवर्ती का विरुद प्रकट हुमा । पुरालिपिवेत्ताओं को इसका अर्थ
धारण किया हो। इन लेख में राजा का नाम समझने में लगभग एक शती (1820 ई० से
खारवेल लिखा गया है। डा० सरकारका मत है 1917 ई०) का दीर्घकाल लगा। प्रस्तुत अभिलेख
कि क्षार+वेल का अर्थ समुद्री तट पर शासन करने का पढ़ा जाना विद्वानों की अनवरत जिज्ञासा,
वाला है। महान् साधना और कठोर परिश्रम की विजय है। सर प्राशुतोष मुकर्जी का कथन है कि प्रस्तुत इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि भभिलेख ने भारतीय इतिहास में अज्ञात और पन्द्रह वर्ष की प्रायु प्राप्त कर लेने के पश्चात्
1. ज. बि. उ. रि. सो., खण्ड 10 पृ. 8 2. सेलेक्ट इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 1, पृ. 21], टिप्पणी 6 3. प्रोल्ड ब्राह्मी इन्स्क्रिप्सन्स, पृ. 57. 4. सेलेक्ट इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 1, पृ. 211
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-47
खारवेल युवराज नियुक्त किया गया। वह नौ वर्षों कहे गये इस पशुधर्म की विद्वान द्विजों ने निन्दा तक युवराज रहा। युवराज के रूप में खारवेल के की है । समस्त पृथ्वी का पालन करते हुए राजर्षिउल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस समय प्रवर वेन ने काम से नष्ट बुद्धि होकर मनुष्यों को कलिंग का राजसिंहासन शासक विहीन था। यह भाई की स्त्री के साथ सम्भोग का नियम प्रचलित विस्मयजनक है कि लेख में खारवेल के पिता अथवा कर वर्णस कर बनाया।" तब (वेन के शासनकाल) पूर्वाधिकारी राजा का नाम नहीं दिया गया। ऐसा से जो मनुष्य मृतपति वाली विधवा स्त्री को सन्तान प्रतीत होता है कि उसका पिता जो एक स्वतन्त्र के लिये (देवर मादि के साथ) मोहवश नियुक्त शासक था, वृद्धावस्था के कारण शासन करने में करता है, उसकी सज्जन लोग निन्दा करते हैं।"? असमर्थ था, इसलिये खारवेल पिता की ओर से उपर्युक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि . सम्पूर्ण शासन कर रहा था अथवा ऐसे समय पर उसे पृथ्वी के शासक राजर्षि वेन के शासनकाल में पशुउत्तराधिकार प्राप्त हुआ जब वह अवयस्क था। धर्म होने से नियोग प्रथा समाप्त कर दी गयी। चौबीस वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर कलिंग के पद्मपुराण में उल्लेख है कि वेन ने प्रारम्भ में शासक के रूप में उसका राज्याभिषेक हुमा । ऐसा अच्छी प्रकार शासन किया किन्तु कालान्तर में वह प्रतीत होता है कि प्रचलित परम्परा के अनुसार जैन हो गया। इस परिवर्तन के कारण जनेतर उन दिनों राज्याभिषेक के लिए पच्चीस वर्ष की साहित्य में वेन की भर्त्सना की गयी। प्रस्तुत पायु मावश्यक थी। इसीलिये अशोक का राज्या- अभिलेख से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि ब्राह्मण भिषेक भी शासन सम्भालने के चार वर्ष बाद परम्परा में वेन का नाम आदर्श राजा के रूप में हुप्रा था।
नहीं लिया गया जबकि जैन परम्परा में उसका
उल्लेख सम्मान सहित हुपा है। अगर अभिलेख के खारवेल का उल्लेख शैशवावस्था से ही
उत्कीर्ण करते समय तक जैनों में राजा वेन की वर्द्धमान' और 'वेन तुल्य विजय वाले' के रूप में
प्रतिष्ठा न होती तो खारवेल के साथ कभी भी किया गया है। यहां पर वर्तमान का तात्पर्य
उसकी तुलना न की गयी होती। यह उल्लेखनीय है चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से है जब कि वेन एक
कि ब्राह्मणों की दृष्टि में राजा वेन का मुख्य दोष वैदिक व्यक्तित्व है। जैन शास्त्रों के अनुसार
जाति प्रथा को समाप्त कर देना था। .. महावीर वर्द्धमान कहलाते थे क्योंकि जन्म के बाद थोड़े ही समय में उनके व्यक्तित्व का अतिशय अपने प्रथम शासन वर्ष में खारवेल. ने तूफान विकास हमा था। मनुस्मृति में कहा गया है कि से गिरे हुए (राजधानी के) गोपुर, प्राकार और "राजा वेन के शासनकाल में मनुष्यों के लिये भी निवासों का जीर्णोद्धार कराया । उसने ऋषि खिवीर
5. ऋग्वेद, 10, 123. 6. अयं द्विजहि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगहितः ।
मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति ।। स महीमखिला भुञ्जनराजर्षिप्रवरः पुराः । वर्णानां संकर चक्रे कामोपहत चेतनः ।। 9-66-67 ततः प्रभृति यो मोहात्प्रमीतपतिकां स्त्रियन् । नियोजयत्यपत्यार्थ तं विगर्हन्ति साधवः ।। 9.68
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-48
नामक झील और ऋषि ताल तड़ागों का निर्माण कराया और समस्त उद्यान प्रतिस्थापित कराये तथा पतीस लाख प्रजा का रंजन किया। जायसवाल और बनर्जी ने शिवीर- इस साल शब्दों के पाठ का प्रत्यन्त सावधानीपूर्वक परीक्षण किया है । लेकिन इसके सिवाय कि खिवीर को एक ऋषि का नाम मान लिया जाय दूसरा कोई समाधान सम्भव नहीं है । प्रतीत होता है कि या तो उक्त ऋषि ने इस झील का निर्माण कराया प्रथवा उसके नाम पर इसका नामकरण हो गया ।
दूसरे शासनवर्ष में खारवेल का पहना विजय अभियान उस समय प्रारम्भ हुआ जब सातकचि की कुछ भी परवाह न करते हुए उसकी चतुरंगिनी सेना का प्रयाण हुआ जिसने कन्हवेना तट पर स्थित मूसिक नगर को बहुत त्रस्त किया । सातकरिंग ब्राह्मण सातवाहन वंश का एक शासक था । उसका अभिज्ञान इसी राजवंश के तृतीय शासक सातकरिण से किया गया है । कलिमवाहिनी सातवाहनों की राजधानी पहुंची जो मांध्रप्रदेश के बेलारी जिले में थी। इसीलिए खारवेल का यह सैन्य अभियान सातवाहनों की प्रतिष्ठा के लिये एक भीषण श्राघात समझा गया। मूसिक जाति का निवास दक्षिण भारत में था । संभवतः उनके देश की सीमायें पश्चिम दिशा में उड़ीसा के श्रासन्न निकट थी । प्रभिलेख में मूसिकदेश की राजधानी कन्हवेना
8. एपी० इण्डि०, खण्ड़ 20, पृष्ठ 83. भीष्मपर्व, प्र० 9
9,
(कृष्णवेणा ) के तट पर स्थित बताई गई है । इस नदी की पहचान प्राधुनिक कृष्णा नदी से की गई है जो महाराष्ट्र के सतारा जिले से निकलकर प्रांध्रप्रदेश के दक्षिण भाग में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है । खारेवल कृष्णा नदी के तट पर किसी लम्बे और अनिश्चित मार्ग से गया होगा । ऐसा प्रतीत होता है कि वह पश्चिम दिशा (पछिम दिसं) में चलकर कृष्णा नदी के तटपर पहुँचा । महाभारत', में मूसिकों का निवास दक्षिण भारत में बताते हुए उनका उल्लेख वनवासियों के साथ किया गया है । भरत के नाट्यशास्त्र 10 में मोसलों के अन्तर्गत तोसलों और कोसलों का वर्णन हुआ है। विष्णुपुराण 14 में स्त्रीराज्य के साथ मूसिकों का नाम माया है । वात्सायन के कामसूत्र की जयमंगला टीका 12 में मूसिकों का राज्य विन्ध्यपर्वत के पश्चिम में बताया गया है । मूसी नाम की एक नदी नलगोण्डर श्रीर कृष्णा जिलों की सीमा पर कृष्णानदी में मिलती है । उक्त नदी का उल्लेख राष्ट्रकूट गोविन्द द्वितीय के शक संवत् 692 के एक अभिलेख 13 में भी मिलता है । जायसवाल 14 का मत है कि मूसिकनगर इसी नदी के किनारे स्थित था । बनर्जी 15 का कथन है कि भूमिकनगर कुन्तल देश या वनवासी देश के दक्षिण की भोर था। वे उसका अभिज्ञान मुजिरिस के बन्दरगाह से करते हैं । किन्तु डा० सरकार 16 मुसिकनगर के स्थान पर इसका पाठ श्रासिकनगर करते हैं । उनके अनुसार असिक ऋषिक देश के
10.
13,27
11. विल्सन, 4, पृ० 221
12. कामसूत्र 20 5 27
13. एपि० इण्डि० खण्ड 6 पृ० 208.13
14.
ज० रा० ए० सो० 1922, पृ० 165 तथा प्रागे; इण्डि० एण्टि० 1923 पृ० 138 15. एपि इण्डि०, खण्ड 20, पृ० 84 टिप्पणी 21
16.
एज ग्रॉफ ईम्पीरियल यूनिटी, पृ०
213
1
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
दक्षिण में कृष्ण और गोदावरी नदियों के बीच में सम्बन्धित एवं उनका नेतृत्व करने वाले थे । स्थित था। यह मत समीचीन प्रतीत होता है। प्रारम्भिक दिनों में उन्होंने साम्राज्य निर्माण में
सातवाहनों की महत्वपूर्ण सहायता की थी। । शासन के तीसरे वर्ष में गन्धर्वशास्त्रविद खारवेल
इसीलिए सातवाहन नरेशों ने उन्हें महाभोज मोर ने नाटक, नृत्य, गीत, वादित्र के प्रायोजनों के द्वारा
महारठी की महत्वपूर्ण उपाधियां दी। ये उपाधियां उत्सव एवं समाज की योजना कराकर नगरी को
कुछ निश्चित परिवारों और निश्चित प्रदेशों मानन्दित किया।
में परम्परागत रूप से प्रचलित हो गयीं। इनका चौथे शासनवर्ष में उसने विद्याधर पावास नामक प्राधिक्य महाराष्ट्र के थाना और कोलाबा जिलों में भवन की मरम्मत करायी और राष्ट्रिकों तथा था।18 भोजकों पर विजय प्राप्त की। राष्ट्रिकों और
इस युद्ध के संदर्भ में विद्याधरों को राजधानी भोजकों का अभिज्ञान क्रमशः सातवाहन अभिलेखों
का उल्लेख हुप्रा है। कुमारगुप्तकालीन मथुरा जन और उसी युग के कन्हेरी, कुड़ा और बेउसा के लघु
मूर्तिलेख19 से ज्ञात होता है कि विद्याधर जैनियों लेखों में उल्लिखित महारथियों और महाभोजकों से
की एक शाखा थी । प्रतीत होता है कि जैन धर्मावकिया गया है। अशोक के पांचवें शिला प्रज्ञापन के
लम्बी खारवेल ने विद्याधर सम्प्रदाय के जैनियों की गिरनार पाठ में रिस्टिकों. शाहबाजगढी में रथिकों
सुरक्षा के लिये ही यह आक्रमण किया था । और म.नसेहरा में रथकों का नाम पाया है।
प्रस्तुत लेख में विद्याधरों की राजधानी के उल्लेख इसी प्रकार धौली पाठ में उपयुक्त पाठों से मिलता- से प्रतीत होता है कि यह स्थान एक बड़ा जैन तीर्थ जुलता ठिक शब्द मिलता है। प्रशोक के तेरहवें
था जिसे भोजकों तथा रठिकों से कछ खतरा उत्पन्न शिला प्रज्ञापन के शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा और
हो गया था। खारवेल ने इस तीर्थ की रक्षा करना कालसी पाठों में भोजकों का उल्लेख पितनिकों के
अपना विशेष उत्तरदायित्व समझा। सभवतः इसी साथ हुमा है । विण्डकड़ चुटकुलानन्द कालीन कन्हेरी
अभिप्राय से उसने यह सैन्य अभियान किया। गुहालेख में एक महाभोज को महाराजा कहा गया है। इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि भोज एक शासन के पांचवें वर्ष में खारवेल ने तनसुलि प्रकार का विरुद था। कुड़ा गुहा से प्राप्त पांच नामक स्थान से प्रपती राजधानी तक एक नहर का अतिपरक अभिलेखों में महाभोजों एवं महाभोजियों जीर्णोद्धार कराया। इस नहर को नन्दराज ने का उललेख है। पल्लव नरेश शिवस्कन्दवर्मा के 300 वर्ष पूर्व बनवाया था। विवेच्य ममिलेख में एक ताम्रपत्र में भोजक का नाम मिलता है। नन्द गज का नाम दो बार माया है --पहला पंक्ति महारठी और महाभोज प्रशासनिक पद थे जिनका छह में मोर दूसरा पंक्ति बारह में । छठवीं पंक्ति में स्थान राजा के बाद दूसरे नम्बर पर था । प्रारम्भ दी गई तिथि निस्सन्देह राजा नन्द द्वारा प्रवत्तित में रथिक और भोज वस्तुत: विशेष जातियों से किसी संवत् का उल्लेख करती है। मगध के संदर्भ में
17. हिन्दू-पालिटी खण्ड 1, पृ. 143 और 195 18. भण्डारकर, अशोक, पृ० 29-31; वेदालंकार, प्राचीनभारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक
इतिहास, पृ० 249-50 19. एपि० इण्डि०, खण्ड 2, पृ० 210
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-50
उल्लिखित इस तिथि से नन्दराज का सम्बन्ध मगध में एक सिंहपुर का वर्णन है जो वहीं पर स्थित राज नन्द से जुड़ जाता है। प्रभिलेख में वणित (काश्मीर और अभिसार के समीप) जहां सिकन्दा यह नन्दराज मगधनरेश सुप्रसिद्ध महापद्मनन्द का बजिर नगर । लेकिन डा. एस. के. प्रायनर प्रतीत होता है।
का कथन है कि वज्र एक महत्वपूर्ण जाति
जिसका निवास सोन और गंगा नदियों के मन छठवें शासनवर्ष में खारवेल ने प्रजा को सुखी
या बंगाल और मगध के बीच में था। वाला रखने के लिये अनेक कार्य किये । उसने राजधानी
या राढ़ा के दो प्रशासनिक खण्डों-वज्जभूमि माँ में रहने वाले लोगों को अनेक प्रकार की सुविधायें
सुन्नभूमि में से एक था। खारवेल की महिषी इसी। दी तथा ग्रामीण जनता के कल्याण के लिये करों
वज्ज भूमि की राजकुमारी थी । यह वज्जभूमि जिस में छूट दी। इन कार्यों हेतु राजकोष से कई लाख
गंगा और सोन घाटी में स्थित कलिंग कहा गया । मुद्राएं व्यय की गयीं। डा० जयसवाल20 ने इसी
या तो कलिग राज्य का एक भाग थी या फिर प्रसंग में खारवेल द्वारा रारेसूय यज्ञ करने का वर्णन
कलिंग की सीमाओं पर स्थित थी। इस तथ्य की किया है, किन्तु डा० बडुमा यहाँ राजसूय के
पुष्टि सिलप्पधिकारम् और मणिमेखलाइ नामको स्थान पर राजसरि (राज्यश्री या समृद्धि का बढ़ाना)
तामिल जैन महाकाव्यों से भी होती है । सोनघाटी में पाठ शुद्ध मानते हैं। खारवेल के जैन मतावलम्बी
वज्रदेश की विद्यमानता का प्रमाण तामिल साहित्य होने के कारण यही अर्थ अधिक उपयुक्त और
में वर्णित महान् चोल नरेश करिकाल की विजयाँ संगत प्रतीत होता है ।
से भी मिलता है । कहा गया है कि करिकाल उत्तर * राज्यकाल के सातवें वर्ष में उसकी गृहवती की ओर गया और उसने वच, मगध तथा माला वज्रधर (कुलवाली) धृष्टि नामवाली गृहिणी ने
देशों से मेंटें स्वीकार की। कुमार को जन्म देकर मातृपद प्राप्त किया। यहां पर युवराज के उत्पन्न होने का उल्लेख किया गया दक्षिण में विजय प्राप्त करने तथा वहाँ अपनी है। मातृत्व प्राप्त करने वाली रानी को वज्र कुल- स्थिति सुदृढ़ करने के बाद खारवेल ने आठवें या वाली कहा गया है। जिससे अनुमान होता है कि में विशाल सेना द्वारा गोरथगिरि को नष्ट कर यहां रानी के मातृकुल का संकेत दिया गया है। राजगृह पर आक्रमण किया। उसके इस कमी इस संदर्भ में डा० जायसवाल के अनुसार वज्र सम्पादन शब्द को सुनकर यूनानी राजा डिमिय या वजिर को अभिज्ञान सिन्ध नदी के दूसरे तट पर अपनी सेना और वाहन (भय से) छोड़कर मथुरा स्थित सिकन्दर के बजिर नगर से किया जा सकता है। भागने को विवश हुआ । गया से पाटलिपुत्र के पन्द्रहवीं पंक्ति में रानी के पूर्व सिंहप्रय (सिंहप्रस्थ) प्राचीन मार्ग पर गोरथगिरि (गया के 20 किलो शब्द का उल्लेख है। प्रस्थ का अर्थ नगर है । यहां मीटर उत्तर की स्थित बराबर पहाड़ियां) स्थित यह उल्लेख करना मनोरजक होगा कि महामारत23 था। तीसरी शती ई. पू. में इसे 'खलटिक पहा
NNNNN
20. ज. बि. उ. रि. सो. खण्ड 4, पृ० 376 21: अोल्ड ब्राह्मी इन्स्क्रिप्सन्स 22. ज. नि० उ० रि० सो०, खण्ड 4, पृ० 377-78; एरियन, 4'17. 23. सभापर्व 24. सम कन्द्रीब्यूसन्स प्राफ साउथ इण्डिया टु इण्डियन कल्चर, पृ० 33, 75,
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-51
र छठवीं-सातवीं शती में प्रवर पहाड़ी कहते थे। अनुसार यह किसी विशेप वृक्ष का दान नहीं था वगृह और गोरथगिरि दोनों पहाड़ी दुर्ग थे। वरन् कल्पद्रुम मह नाम का एक उत्सव था जो सा प्रतीत होता है कि उत्तर और पश्चिम दिशाओं बड़े समारोह पूर्वक मनाया जाता था। संभव है यह क्रमशः गंगा और सोन नदियों से सुरक्षित होने वर्तमान के वन महोत्सव की तरह कोई उत्सव रहा कारण पाटलिपुत्र पर केवल दक्षिण की ओर से हो । इस पंक्ति में तीन प्रकार के भवों का वर्णन क्रमण किया जा सकता था। इसी प्रोर गोरथ- है- घर, मावास और परिवसन डा० जायसवाल 26 गरि स्थित था । यह एक सैन्य दुर्ग था जो का कथन है कि घर का अर्थ गृहस्थों के रहने टलिपुत्र की वाह्य रक्षापंक्ति का कार्य करता था। योग्य मकान से है । याज्ञवल्क्य के अनुसार परिवसन हली बार जब खारवेल ने वृहस्पतिमित्र पर का तात्पर्य विशाल भवन से है जिसमें सामूहिक साक्रमण किया था तब वह पागे नहीं बढ़ सका रूप से अनेक साधक रह सकें। 27 लेकिन प्रावास गा। प्रतः जब चार वर्ष बाद पाटलिपुत्र पर का अर्थ स्पष्ट नहीं है। इसी वर्ष खारवेल ने माक्रमण किया गया तब उसने वहां के राजा को अड़तीस लाख मुद्राओं से महाविजय नामक एक ली प्राधीनता स्वीकार करने को विवश किया। राजभवन का निर्माण कराया । महाविजय प्रासाद
कर कार्य के करने में उसकी कीत्ति चारों को सन्निवास कहा गया है जिससे अनुमान होता और फैल गयी जिसके फलस्वरूप यवनराज डर से है कि यह अनेक भवनों का एक समूह था । जयभीत होकर मथुरा भाग गया । कुछ इतिहास- दसवें वर्ष में दण्ड, सन्धि और सामनीति का कारों के अनुसार यह यवनराज हिन्द-यूनानी नरेश पालन करते हुए उसने भारतवर्ष के विरुद्ध एक डिमेट्रियस था। इस मत का प्राधार "डिमित' अभियान किया और उस देश को विजित किया। सब का पाठ है किन्तु यह पाठ विवादास्पद है। हिन्दू राजनीति के अनुसार विदेश नीति के साम. आ. सरकार का कथन है कि यदि यहाँ 'डिमित' दाम, दण्ड और भेद चार प्रमुख अंग है जिनको पाठ को सही मान लिया जाय तो भी, यह यूनानी द्वितीय ई०पू० में मान्यता मिलना प्रारम्भ हो गयी राजा दूसरी ई.पू. के पूर्वाद्ध में होने वाला डेमेट्रियस थी। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि खारवेल ने नहीं हो सकता, क्योंकि खारवेल के इस लेख की अभिलेख में 'भेद' का नाम नहीं लिया। संभवतः माथि पहली शती ई. पू. मानी जाती है।
उसने उसे निम्न कोटि का समझकर अपनी विदेश
नीति के अन रूप नहीं माना। अगले वर्ष उसने शासन के नवें वर्ष में उसने पल्लव,कल्पवृक्ष, अपनी सेनामों का मुंह दक्षिण की ओर मोड़ दिया बाव, हस्ति, चालकों सहित रथ, गृहनिवास और और पीथुन्ड नामक राजा की राजधानी जीतकर विधामशालायें दान की तथा ब्राह्मणों को कर देने वहां "गषों से हल चलवा दिया" । यह स्थान से मुक्त कर दिया । हेमाद्री 25 के अनुसार हाथियों टाल्मी द्वारा वर्णित पितुन्द्र नगर है जो प्रान्ध्रप्रदेश और घोड़ों सहित स्वर्णनिर्मित कल्पवृक्ष का दान के मछलीपट्टन प्रदेश की राजधानी था। इसी वर्ष महादानों में से एक था। लेकिन जैन शास्त्रों में यह उसने तमिल देश के राजानों के संघ की शक्ति को विधि कुछ परिवर्तनों के साथ मिलती है। उनके नष्ट कर दिया ।
ashlendainvillesmimicinamaina
26. चतुवर्ग चिन्तामणि दान-खण्ड 26. ज. बि. उ. रि. सो. खण्ड 4, पृ, 380 27. याज्ञवल्क्यस्मृति, ?.187
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-32
अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में उसने पुन: उत्तरापथ के राजानों के विरुद्ध सैनिक अभियान किया जिससे मगधवासियों के हृदय में भय भर गया। अपने हाथियों और घोड़ों को उसने पुनः इस वर्ष गंगा नदी का पानी पिलाया। इस घटना का ज्ञान कराने वाले शब्दों पर डा० जायसवाल ने दूसरे ढंग से विचार किया है। उनकी मान्यता के अनुसार यहाँ मुद्राराक्षस में वर्णित, गंगा तट पर स्थित मोर्यो के सुगांग नामक राजमहल पर खारवेल द्वारा अधिकार किये जाने का घरन है । अभिलेख के इस पद को डा० जायसवाल 28 ने 'हथी सुगंगीय' पाठ माना है ।
खारवेल के इस अभियान में मगधनरेश वृहस्पतिमित्र ने उसकी प्राधीनता स्वीकार करते हुए विजेता सम्राट की चरण वन्दना की। परन्तु मात्र शासक पर विजय प्राप्त कर लेना खारवेल के इस अभियान का अभीष्ट नहीं था । इस बार एक विशेष अभिप्राय को लेकर उसने अपनी सेना मगध की दिशा में बढाई थी । वह अभिप्राय था तीर्थंकर भगवान् महावीर की उस प्रतिमा को पुनः प्राप्त - करना जिसे लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व राजा नन्द द्वारा कलिंग से मगध ले श्राया था । प्रभिलेख की इस पक्ति में बड़े गर्व के साथ उल्लेख किया गया है कि खारवेल का यह अभियान सफल हुआ और कलिंगजिन की प्रतिमा के साथ अंग और मगध की विपुल सम्पत्ति लूटकर ही वह स्वदेश वास हुआ । डा० जायसवाल 29 का मत है कि उदयगिरि-खण्ड गिरि स्थित अनन्तगुहा में पार्श्वनाथ और महावीर के लाञ्छन पाये जाते हैं । किन्तु महावीर का लाञ्छन सिंह जय-विजय और अनन्त दोनों गुफाधों में अधिकता से पाया जाता है । अतः कलिंग जिन के रूप में उनकी ही चर्चा प्रस्तुत अभिलेख में की गयी
है । इसी वर्ष खारवेल ने संभवत: पाण्डय देश राजा को भी पराजित किया। इस राजा ने उ बहुमूल्य मुक्ता- मणियों और रत्नों के उपहार किये ।
तेरहवें श्रीर शिलालेख में उल्लिखित अन्तिम शासन वर्ष में अपनी विजयों से सन्तुष्ट खारवेल राज्य के सारे साधन धार्मिक कृत्यों में लगा दिये उसने कुमारी पर्वत पर निषिद्धा में रहने वाले या भिक्षुओं को राजकीय संरक्षण प्रदान किया और सिंहस्थ रानी सिन्धुला के लिये 75 लाख मुद्रायें खर्च कर विश्रामावासों का निर्माण करण्या |
तेरहवां शासन वर्ष समाप्त होने के पूर्व खारखेल द्वारा एक जैन साधु परिषद का प्रायोजन किया गया जिसमें भाग लेने के लिये दूर-दूर से मुनि एवं प्राचार्य उदयगिरि खण्डगिरि पर उपस्थित हुए । इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि उत्तर भारत में मौर्यकाल में बारह वर्षों के दुर्भिक्ष की समाप्ति पर एक जैन सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में किया गया । जैन वाङ्कमय के बिखरे और विलुप्तप्राय सूत्रों को संकलित और लिपिबद्ध करना इस परिषद् का उद्द ेश्य था परन्तु श्रुत परम्परा से जैन सूत्र जिनकी स्मृति में सुरक्षित थे ऐसे अधिकारी आचार्यों में परस्पर मतभेद होने के कारण यह सभा बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो गयी थी ।
सम्राट खारवेल ने जब इस प्रकार की सम्र का प्रायोजन कुमारी पर्वत की पवित्र भूमि पर किया तब परिस्थितियां बहुत बदली हुई थी। अपनी चतुर्दिक विजयों के कारण खारवेल एक शक्तिशाली सम्राट या चक्रवर्ती के रूप में विख्यात हो गया था। तीन सौ वर्ष पूर्वकलिंग से अपहरित कलिंग जिन नामक तीर्थंकर प्रतिमा को युद्ध में
28.
ज. बि. उ. रि. सोः, खण्ड 4, पृ. 384 29. वही डा० बनर्जी के अनुसार कलिंग जिन दसवें तीर्थकर शीतलनाथ थे ।
देखिये एपि. ईण्डि., खण्ड 20, पृ. 85
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-53
वापस प्राप्त करके गुफा मंदिर में उसकी पुनप्रतिष्ठा सर्व पाषण्ड (धर्म) पूजक, अनेक देवायतनों का करने के कारण धर्म की पोर खारेवल की निष्ठा निर्माता, अद्वितीय सैन्यबलवाला, राषचक्रवाला, और सम्मान भावना ही दूर-दूर तक विख्यात हो प्रवर्तित राजचक्रवाला, राजर्षि वसुकुलोत्पन्न तथा चुकी थी। खारवेल के इस प्रभावक व्यक्तित्व ने महाविजयी कहा गया है। इस सभा को एक सफल आयोजन के रूप में सम्पन्न
खारवेल के व्यक्तित्व की महिमा का बखान करने करने में अपना विशेष योगदान दिया। समूचे देश
वाले उपयुक्त प्रथम तीन विशेषण विशेष रूप से से जैन वाङमय के अध्येता विद्वान्, श्रावक मौर
ध्यान देने योग्य हैं। इन विशेषणों के भाषार पर साधु कुमारीपर्वत पर एकत्र हुए और सूत्रों का
यह विश्वास किया जा सकता है कि अपनी उत्तर पठन-पाठन तथा यथा संभव लेखन वहां हुआ।
अवस्था में खारवेल ने भी, चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह, जैन वाणी का यह गुन्थन वर्णमाला के चौसठ
जैन साधु की दीक्षा अंगीकार कर ली थी । उसका वों, स्वरों और संयुक्ताक्षरों में किया गया।
अन्त समय भी जैन माचरण की चार आराधनाओं इसका संकेत शिलालेख के 'चोयठि-मंग संतिक' से
(सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा मिलता है।
सम्यक् तप) की साधना में व्यतीत हुआ। यहां हम शिलालेख से यह ज्ञात नहीं होता कि यह 'क्षेमराज' सम्बोधन में समस्त जीवों के कल्याण की तेरहवां वर्ष खारवेल के राज्यकाल का अंतिम वर्ष कामना से युक्त उसका सम्यक् दृष्टि रूप, 'वृद्धराज' या या उसने और अधिक समय तक शासन किया। विशेषण में बढ़ते हुए निर्मल ज्ञान वाला उसका उसकी महिषी द्वारा बाद में अंकित शिलालेखों में सम्यक् ज्ञानी रूप तथा 'भिक्षुराज' पद में खारवेल उसे 'चक्रवर्ती' के ऐश्वर्यशाली पद के साथ स्मरण का तपस्यालीन, महावती, सम्यक् चारिणी रूप करना इसका संकेत देता है कि खारवेल ने आगे भी देखते हैं। मोक्षमार्ग की इन तीन उपलब्धियों से राज्य करके अपनी सम्प्रभुता का संवर्द्धन किया। अब खारवेल का जीवन पवित्र हो गया मोर यह शिलालेख तो उसके विरुदों और व्यक्तित्व परक सम्यक् तप उसके व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित हो गया विशेषणों के उल्लेख के साथ समाप्त होता है। तब उसके लिये धर्मराज का सहज सम्बोधन हमें यहां उसे क्षेमराज, वृद्धराज, भिक्षुराज, धर्मराज, स्वतः सार्थक प्रतीत होने लगता है ।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
युग का अर्चन ?
____ वैद्य ज्ञानेन्द्र दाना भगवन् ! क्या तुम सहन
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन ? यदि जगती पर होते तुम
तो भक्तों में कैसे निभ पाते कोई कहता रखें दिगम्बर -
कोई मुकुट - हार पहिनाते सौर दिगम्बर श्वेताम्बर की
अपनी - अपनी टांग अड़ाते लड़ भिड़ कर न्यायालय में
अपना अपना अधिकार बताते दोनों ही अधिकारी होते
अपना अपना अभिनय, अर्चन भगवन् ! क्या तुम सहन
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन ? कोई तुम्हें नियमित करता
तेरा पन्थ, बीस पन्थों में कोई तुम्हें विवाहित कहता
बालब्रह्मचारी, ग्रन्थों में कोई अक्षत - चन्दन से
कोई मेवा, मिष्ठान चढाते अपनी अपनी ढपली पर
अपना अपना ही राग बजाते 'तुम्ही एक' पर पन्थ अनेकों
किस किस का करते संरक्षण भगवन् ! क्या तुम सहन
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन् ?
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुमने राग
नहीं जरूरत
पाठ त्यागा
अपरिग्रह का उपदेश दिया था
से ज्यादा
संचय हो यह आदेश किया था
पर चूहे दीमक खा जायें
या
सड़ जाये गोदामों में दीन हीन को बेचेंगे
भगवन्
द्रवित न कर सकता इनको
फिर भी अनाज ऊंचे दामों में
भूखों - नंगों का करुणा क्रन्दन तुम सहन कर सकोगे इस युग अर्चन वन्दन ?
ये कितने गुमराह हो गये
पुनः जरूरत
पंच अणुव्रत के अनुगामी
क्या ! क्या ! बतलायें - तुम
खुद ही जान रहे हो अन्तर्यामी
आत्मसात हो गई मिलावट
झूल छल कपट चोर बजारी
निश दिन धन कुबेर बनने की ।
धुन ने ही इनकी भत मारी दिव्यध्वनि की
जिससे हो गुरणग्रहण प्रकिंचन !
भगवान ! क्या तुम सहन
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन ?
जी भर रकम खर्च कर ही
शादी करते अपने लालों की
2-65
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
12-66
विकवा दें घर द्वार
दवाते हैं गर्दन कन्या वालों की सभ्य वेश में शुभ्र बात से ।
करते हैं जो काली घातें कर भेड़िया मगरमच्छ भी
__खा जाते हैं जिनसे मातें इनके फन्दे की फांसी का
__कसता ही जाता है बन्धन भगवान ! क्या तुम सहन
कर सकोगें इस युग का अर्चन वन्दन ! भव्य पुरातन देवालय हैं
जीर्ण शीर्ण ढकते जाते है लोकेषणा के लिये भक्त
मूर्ति-मन्दिर गढते जाते हैं इन्हें भला फुरसत ही कब है।
पूजा को कर दिये पुजारी और बोलियों में धन से ही
वनते स्वर्ग-मोक्ष अधिकारी धर्म, कलश-माला खरीद में
व्यर्थ इन्हें सामाजिक 'चिन्तन' भगवन ! क्या तुम सहन ।
कर सकोगे इस युग का अर्चन बन्दन ? कितने चित्र छपे कलेण्डरों
पेपर बेटों में पैन्दों में डायरियों, बल्वों स्वीचों में
सिक्कों में ताले चैनों में ढढ लिये साधन कमाई के
__ धन्धे वालों ने, नामों में श्रद्धालु गाढी कमाई से
लेते हैं दुगने दामों में तुर्रा ये निर्वाण दिवस पर
करते हैं प्रभु का अभिनन्दन ! भगवन ! क्या तुम सहन ।
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन ?
ज्ञानचन्द 'ज्ञानेन्द्र' ढाना (सागर)
सिका
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री वीर परिनिर्वाण भूमि की झांकी
(प्राचार्य अनन्त प्रसाद जैन "लोकपाल") (लेखक के निष्कर्ष अन्तिम नहीं हैं । अभी भी विद्वानों में इस संबंध में पर्याप्त मतभेद है ।)
-पोल्याका
भगवान महावीर का निर्वाण जिस भूमि में हुमा उसका संक्षिप्त वर्णन कुछ जैन शास्त्रों में पाया जाता है-जिनके उद्धरण नीचे दिए जाते हैं :
(क) 1.- महापुराण के उत्तर पुराण में वर्णन है:
...
.............
इत्येत तीर्थनाथोपि विहृत्य विषयानबहून् ।।508।। क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहर वनांतरे । बहूनां सरसा मध्ये महामरिणशिलातले ।।509।। स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्ध निर्जरः । कृष्णा कार्तिक पक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।।5100 स्वातियोगे तृतीयेद्ध शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधं समुच्छिन्नं क्रियं श्रितः ।।।।।। हता धाति चतुष्कः सन्मशरीरो गुणात्मकः ।
गतां मुनि सहस्रण निर्वाणं सर्व वांछितम् ।।51211 गाथा 509 के अनुसार अनेक सरोवरों से घिरे हुए मनोहर नामक उपवन में पावापुर में भगवान का निर्वाण हुआ ।
2-आचार्य पूज्यपाद कृत पंचकल्याणकभक्ति में लिखा है:(क) पद्मबनदीधिकाकुल, विषिष मखंडमंडितेरम्ये
पावानगरोद्याने व्युतसगैरण स्थितो मुनिः। कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वाता वृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं संप्रापदव्य जरामरक्षयं सौख्यम् । परिनिवृत्त जिनेन्द्र ज्ञात्वा विवुधा ह्याथा शुचागम्यं । देवतरु चंदन कालागुरु सुरिभ गो शीर्षः । अग्निन्द्रा जिनदेहं मुकुटानल सुरभिधूप वर माल्यैः । अभ्यर्च्य गणधरानपि गतादिव्यं खं च वनभवने ।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-58
(ख) पावापुस्य बहिरुन्नत भूमि देशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्री वर्धमान जिनदेव इती प्रतीतो निर्वाणामाप भगवान्प्रविधूतयाप्मा ॥ इनमें भी निर्वाण स्थान के लिए कहा है कि- पावापुर में कमलों से सुशोभित अनेक सरोवरों के मध्य वृक्षों से घिरी ऊंची भूमि पर भगवान का निर्वाण हुआ ।
3- हरिवंश पुराण में कहा है
जिनेन्द्रवीरोपि विवोध्य सततं समन्ततोमव्यसमूह संतति । प्रपद्य पावानगरों गरीयसी मनोहरोद्यानवने नदीयके ||15| ज्वलत प्रदीपालिका प्रवृद्धया सुरासुरं दिमितया प्रदीप्तया । तदास्म पावानगरी समंततः प्रदीप्तिना काशतलापकाशते ॥ इसमें भी पावानगर के मनोहर नामक उद्यान में निर्वाण होना वर्णित है । 4- जैनों के प्राचीन ग्रंथ जय धवला में कहा है :
पच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्स विण्ह चोदसि । सदीए स्त्री एसेसरयं छेतुव्विाणो ॥
:
इसमें भी निर्वाण का स्थान पावानगर कहां है
★
5- एक स्थान पर निर्वाण पूजन में कहा है:
पावापुर वरोद्याने वीरं मोक्षं गतं यजे ।
अर्थ है - पावापुर के उत्तम उद्यान में वीर भगवान मोक्ष गए ।
इन सभी उद्धरणों से साफ जाहिर होता है कि भगवान महावीर वर्धमान का निर्वाण पावानगर में ऊंची भूमि पर स्थित मनोहर नाम के उपवन में हुआ जो अनेक कमल युक्त घिरा था ।
सरोवरों से
ये सभी लक्षण सठियावां डीह-फाजिलनगर में पाए जाते हैं ।
केवल पं० प्रशाधरजी ने पोखरे के मध्य भगवान का निर्धारण लिख दिया है जो प्रगट रूप से गलत है । एक तो पोखरे के मध्य यह कार्य सम्भव नहीं है । दूसरे पं० प्राशाधरजी ने अत्यन्त संक्षिप्त रूप से वर्णन किया है और शीघ्रता में अनेक पोखरों के बीच लिखने की जगह पद्य की कड़ीं बैठने के लिए ही ऐसा लिख दिया है । इसका अर्थ भी अनेक पोखरों के मध्य ही मानना चाहिए ।
(ख) कल्प सूत्र नामक जैन ग्रन्थ में वर्णन है:
---
1 – तण जरणवय विहारं बिहरमाण भगवं अपच्छिमं वयालीस मं चाउमा पावापुरीए हत्थिपाल एणे रज्जुगसालाए जुसाएटिए || 2 - पावाए मज्झिमाए हत्थिपालिए महाए
3 – यस्यां श्री वर्धमानो..... हस्तियालाभिध घररिण भूजोsचिष्टितः शुल्कशालाम् स्वाता पूर्व जस्थ दर्शे शिवसमसुख श्री निशान्तं निशान्ते ॥ 4 – कासी कोसलगा नवमल्लई नव लिच्छई प्रठ्ठारस गणरायाणो अमावसाए पोसधोपवास पारिता .......
*************
5
- मज्झिमपावाए पुब्वि अपावा पुरिस्ति नाम श्रासीसक्केरा || पावापुरिति नाम कयां जेणइथ्य महावीरसामी काल गो ॥
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-59
इन उद्धरणों से यह ज्ञात होता है कि भगवान पकड़ कर कुछ विद्वान लेउड़े और उन्होंने मगध में का निर्वाण हस्तिपाल राजा के चुगीकर में हुआ। निर्वाण सिद्ध करने के लिए महावीर बुद्ध काल में उस समय काशी कोशल के 18 राजे तथा नौ मल्ल भी तीन-तीन पावा की कल्पना और सृष्टि कर पौर नो लिच्छवी राजे विद्यमान थे। पावा में डाली जो ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाता । भगवान का यह प्राखिरी 42वां वर्षावास था । उस समय केवल एक यही पावा थी जो वर्तमान मज्झिम पावा का पहले अपावापुरी नाम था काल में उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में अवस्थित जो राद में निर्वाण के समय पावापुरी किया गया। है। ये तीनों माम एक ही नगर या ग्राम के थे।
जैन शास्त्रों में पावानगर नाम तो दिया हुमा यह हस्तिपाल उन्हीं नौ मल्ल राजामों में से है पर ठीक अवस्थिति का वर्णन नहीं है। प्रतः एक था । इसका नाम पूण्यपाल था पर बहत से जब पच्छिम-दक्षिण से जैन लोग अपने विस्मत हए हाथी रखने के कारण हस्तिपाल कहलाता था। इसने तीर्थों की खोज में पाए तो उन्हें पंच पहाडी वाला भगवान से निर्वाण से पहले समसवरण में अनेक राजगृह तो प्रासानी से मिल गया। और पास में ही
उन्होंने "पोखरपुर" नाम के स्थान को इसके पहले प्रश्न किये थे। यह जैन धर्मावलम्बी था।
"प"कार और बाद के "पुर" की समानता से यह चुगीपर मनोहर नामक उद्यान में रहा पावापुरी मान लिया। उस समय रिसर्च तो होते होगा । इतिहास और इतिहास के विशेषज्ञों के नहीं
नहीं थे । प्राकिवां लोजी भी नहीं। समी उत्तरी
मिली। अनुसार यह मल्ल देश वर्तमान उर र प्रदेश के उत्तर जैन तीर्थ जमीन के नीचे दबे दबाए विस्मृति के पूर्वी भाग में अवस्थित था । बज्जि या लिच्छिवी गर्भ में चले गए थे । अतः गलत स्थान को ही गणतन्त्र और मल्ल गणतन्त्र पड़ोसी देश थे-दाना निर्वात भूमि मानकर वहा तीर्थ स्थापित कर दी के बीच गंडक नदी बहती थी। दोनों पभिन्न मित्र गई । तीर्थ स्थापित हो जाने पर मंदिरादि बन थे। इनका बैर विरोध मगध राज्य के साथ चला गए और इधर 6-7 सौ वर्षों के अन्तराल में किसी माता था । दोनों राज्यों में एक दूसरे के अधिकारी ने इधर ध्यान नहीं दिया । गलती ज्यों की त्यों ही या राजा लोगों का जाना प्राना बन्द एवं वजित
चलती चली आई । कवियों और पण्डितों ने तब था । प्रतः निर्वाण के समय केवल गण राजों का सेसी
से इसा की प्रशस्ति गाई । यहां मन्दिर की स्थापना उपस्थित रहना और मगध के राजा की 13वीं इसवी सदी के प्रारम्भ में हुई थी भगवान मनुपस्थिति बड़ा ही पृष्ट प्रमाण है कि निर्वाण महावीर के निर्वाण 1700 वर्ष बाद । । ममध राज्य में नहीं हुअा, मल्ल गणराज्य में
अगरेजी सरकार के राज्य काल के प्राकियोंहमा । यह मल्ल गणराज्य गंगा नदी के उत्तर में
लोजिकल-पुरातत्व, विभाग स्थापित हुना और ही स्थित था। पावा नगर मल्ल गणराज्य की
प्राचीन स्थानों का शोध, रिसर्च और अन्वेषण एक प्रमुख (राजधानी का) केन्द्रीय नगा था.
प्रारम्भ हुआ। नालन्दा, वैशाली, पावा, श्रावस्ती, इसे ही केन्द्रीय पबा या उस समय । भाषा में
कौशाम्बी इत्यादि प्रकाश में पाए । अब से मज्झिमापावा कहते थे । मज्झिमापावा, पावा,
एक सवा सौ वर्ष पहले ही प्रसिद्ध अन्वेषक कनिन्धम पावापुर, पावापुर नगर, पावानगरी या पावानगर
ने और तत्पश्चात् कालीइल ने घोषणा की कि एक ही नगर का नाम था। मज्झिमा का अर्थ है
पावा गंगा के उत्तर गोरखपुर (वर्तमान देवरिया) पावा का मध्य भाग ।
जिले में है । कालीइल ने पूर्ण रूपेण सिद्ध कर ... कल्पसूत्र में कथित मज्झिमा पावा शब्द को दिया कि सठियावां-फाजिलनगर का संयुक्त ग्राम
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-60
- ही "प्राचीन पावा" था। इन लोगों के अतिरिक्त • श्रौर अनेकों शोधकर्ता विद्वानों और विशेषज्ञों ने इसका समर्थन किया । "प्राचीन पावा" नामक पुस्तक में प्रकाशित विशेषज्ञ विद्वानों के शोधपूर्ण लेखों द्वारा सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता हैं प्रौर भगवान के निर्वाण की यह भूमि पावा नगर : पूर्णतः सिद्ध हो जाता है। जैन, बौद्ध और ऐतिहासिक ग्रन्थों से धध्ययन से इसी की पुष्टि होती है । कनिन्धम, कालीइल के प्रतिरिक्त भारतीय पुरातत्व वेत्तानों-डा० राजबली पांडे, डा० शंलनाथ चतुर्वेदी प्रादि ने इसी को भगवान की निर्वाण भूमि माना और सिद्ध किया है । प्रसिद्ध विद्वान, इतिहासज्ञ एवं शोधर्त्ता और वैशाली जैन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के विगत डाइरेक्टर स्व० डा० हीरालालजी जैन एवं स्व० डा० गुलाबचंदजी चौधरी जैन तथा यवतमाल जैन रिसर्च संस्थान के डाइरेक्टर डा० दादाजी महाजन ने एक स्वर से इसे ही निर्वाण वाली पावा घोषित किया है । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं "ऐन अर्ली हिस्ट्री माफ वैशाली' के लेखक, (जिन्हें जैन समाज द्वारा इनकी
इस पुस्तक पर पारितोषिक मिला है, ) डा० योगेन्द्र . मिश्र और अनेक पुस्तकों के लेखक डा० धर्म रक्षित, स्व० महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन श्रादि इसी भूमि को पावा मानने पर जोर देते हैं । इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान, अन्वेषक एवं अनेक पुस्तकों के लेखक जैन मुनि स्व० श्री विजयेन्द्र सूरीजी महाराज, जैन मुनि डा० नगराज जी (डी० लिट) और जैन मुनि उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी महाराज ने भी इसी पावा को भगवान महावीर की निर्वाण भूमि स्वीकार किया है। अब तो और भी अनेक बड़े-बड़े विद्वान, इतिहासज्ञ शोधकर्त्ता, प्रमुख जेन एवं विज्ञलोग पावा नगर ( सठियांवडीह - फाजिल नगर) को ही भगवान महावीर की सही, शुद्ध वास्तविक निर्वारण भूमि मानने लगे हैं। सभी को ऐसा ही मानना चाहिए । यही उचित है ।
राजगृह, नालन्दा और पाटलिपुत्र का तो क्षेत्र
भगवान महावीर एवं भ. बुद्ध के विहार का प्रमुख तो भूमि खण्ड था। यहां यदि उस समय पावा नाम की पुरी ग्राम या नगर कोई रहता तो अवश्य जैन और बौद्ध शास्त्रो में राजगृह और नालंदा के वर्णन एवं सिलसिला या अनुक्रम में पावा का नाम भाया रहता - पर ऐसा कुछ नहीं हैं । भ. बुद्ध श्री यहां गए रहते और इस स्थान का विस्तृत वर्णन बौद्ध शास्त्रों में मिलता । लेकिन यहां पावा नामक कोई ग्राम या नगर ही उस समय नहीं था तो वर्णन कैसे श्राता । बौद्ध शास्त्रों में प्रमुख स्थानों का विवरण बड़ा ही व्यवस्थित एवं स्पष्ट है । ऐसे सभी स्थान पुरातत्व एवं इतिहास द्वारा सिद्ध हो गए हैं ।
पावा का वर्णन "बौद्ध साहित्य में अनेकों स्थानों पर अनेक बार आया है । यह पावा वैशाली और कुशी नगर के बीच में गंडक नदी के पच्छिम और गंगा नदी के उत्तर थी । ग्रंथों में भ० बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्यों के आवागमन के मार्गों का स्पष्ट वर्णन है । भगवान महावीर का निर्वाण पाव में हुआ ऐसा भी निश्चित वर्णन
द्ध साहित्य में दिया हुआ है । यह पावा एक ही थी जहां बुद्ध और महावीर दोनों का आवागमन हुआ । वैशाली और कुशी नगर का पता लग जाने पर पावा का भी पता लगा और स्थान निश्चित रूप से निर्धारित हो सका । ऐसी हालत में यदि कोई विद्वान पूर्वाग्रह, या परम्परा के मोह वश इस पावा का विरोध करता है श्रोर नालन्दा के पास की मध्यकालीन पावा को निर्वाण भूमि सिद्ध करता है तो वह कदापि मान्य नहीं होना चाहिएचाहे ऐसा व्यक्ति क्यों न कोई बहुत बड़ा विद्वान ही हो ।
(ग) बौद्ध शास्त्रों का भी कुछ उद्धरण यहाँ देना असंगत नहीं होगा:--
१
1- " एकं समयं भगवशे सक्केसु विरहति सामन गामे | तेमखो पण समयेन निगण्ठो नाथपुत पावायं अधुना कालंकतो होति ।"
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
निगंठनाथ पुत्र ( महावीर ) का पावा में निर्वारण हुआ ।
2- भगवान बुद्ध का मन्तिम भोजन पावा में हुमा जहां वे गम्भीर रूप से बीमार हो गए और प्रायः 25 स्थानों पर बैठकर उसी दिन कुशीनगर पहुंचे जहां उनका निर्वाण हो गया- अतः पावा कुशीनगर के पास ही था ।
कहा है: - एतस्मि प्रन्तरे पञ्चविसतिया ठानेसु निसीदित्वा" श्रादि ।
3 - मार्ग वर्णन "सेतव्यं कपिलवस्तु कुसिनारं च मन्दिरं । पावंच भोगनगरं वेसालि मगधपुर | पास कं चेत्तियं च रमणीयं मनोरमं ।। "
2-
4- " कोसाम्बिञ्चापि साकेतं सावत्थियंचपुरुत्तमं । सेतव्यं कपिलवत्थु कुसिनारञ्च मन्दिरं । पावं चभोगनगरं वेसालि मागधं पुरं ॥ "
मगध से वैशाली पुन: कुशीनगर के मार्ग में पावा पड़ता था । अथवा स्रावस्ती से कुशीनगर फिर पावा तब वैशाली पुनः मगध । इनसे स्पष्ट है कि पाया कुशीनगर और वैशाली के बीच मार्ग में ही था ।
5- "पावा तो तोणिगावुतानि कुशीनारानगरं । "
*
पावा कुशीनगर से तीन गव्यूति ( 12 मील) की दूरी पर था । यही दूरी आज भी है ।
महावीर बुद्ध काल में एक यही पावा थी— कोई दूसरी पावा नहीं थी । बाद में लोगों ने भगवान के निर्वाण की स्मृति रूप श्रनेकों स्थानों ग्रामों को पावा तथा पावा से मिलते-जुलते नाम
2-61
रख लिया ऐसे स्थानों को निर्वारण भूमि मानना भ्रम एवं भूल है । आजकल मगध में नालंदा के पास जो पावापुरी है वहाँ पहले कोई ग्राम इस नाम का नहीं था । यह तो बहुत बाद की मध्य कालीन स्थापना है । किसी भी प्रकार यह निर्वारण भूमि नहीं सिद्ध होती है । पादा नंगर ( सठियावाडीहफाजिलनगर ) के आस पास 3-4 मील के वृत में कितने ही डीह खण्डहर अब भी हैं जबकि मगधनालंदा की पावापुरी के पास इनका नाम निशान भी नहीं हैं । पावा नगर के श्रास पास "वीर" नाम से सम्बन्धित कितने ही स्थान हैं । सठियावाडीह में भी 'योगी वीर बाबा" नामक एक स्थान है--जो सम्भवतः निर्वारण स्थल ही है । "योगी वीर बाबा के नाम से भौर भी कितने स्थान उत्तर भारत में मिलते हैं- वे सभी भगवान महावीर को स्मृति में स्थापित है। जहां जहां भगवान गए होंगे -- उपदेश सभा की होगी उन्हीं में कहीं कहीं ऐसा नाम श्राज भी पाया जाता है ।
और भी अनेकों पुष्ट प्रमाण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि पावा नगर (सठियावाडीह-फाजिलनगर ) ही वास्तविक ' पावा" प्राचीन पावा है । इसे भारत वर्षीय भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महो त्सव समिति ने भी पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है और यहां भगवान महावीर का एक विशाल भव्य मन्दिर पोखरे में बनाने का निर्णय लिया है । 10 - 15 एकड़ जमीन लेने का प्रस्ताव है । समिति द्वारा रुपए का प्रबन्ध होते ही जमीन ले ली जाएगी ।
भगवान महावीर वर्धमान की जे भगवान का निर्वाण भूमि पावा नगर की जं ।
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐतिहासिक जैन तीर्थ राणकपुर
- मुनि श्री छत्रमलजी सवा पांच सो वर्ष का, यह प्राक्तन प्रासाद । जैनों के वर्चस्व का, करता डिडिमनाद ।।1।। उड़ उड़ चौरासी ध्वजा, देती यों संकेत । मन्दर माकर देखलो, होकर सभी सचेत ।।2।। मधिनायक श्री प्रादि जिन, चतुमुखी जगदीश । ध्यान लीन मुद्रा मुदित, मोहक विश्वावीश ।।3।। त्रिलोक्य दीपक नाम का, इतना वृहदाकार। सारे भारतवर्ष में, है यह प्रथम विहार ।।4।। जो कुछ भी मैंने किया, परिचय वहां सम्प्राप्त । वह प्रकित मैं कर रहा, यद्यपि नहीं पर्याप्त ।।5।। वहीं मादड़ी ग्राम था, धरणा शा गुणवान । देखा शाह ने स्वप्न में, नलिनी गुल्म विमान ।।6।। शशि(सोमसुन्दर प्राचार्यने,दिया स्वप्न प्रवबोध । शिल्पी मिले जु दीपजी, करने पर बहु-शोध ।।7।। चौदह सौ तेतीस में, हुमा कार प्रारम्भ । चौदह सौ छिनवे हुप्रा, पूर्ण प्रायः अविलम्ब ।।8।। शिल्पी पन्द्रह सौ लगे, सताबीस सौ और । श्रेसठ वर्षों तक खपे, सारे चतुर चकोर ॥७॥ सप्त धातुओं से भरी, पैंतीस फुट की नींव । प्रोन्नत शत दो फुट गया, देवालय नभ सीम || 100 स्फुट फुट अड़तालीस सौ, में इसका फैलाव ।
है चोरासी भोहरे, जहां न तनिक लगाव ||1|| ' मध्य कलाकृतिमय खड़े, ऊचे ऊचे स्तम्भ । मिलता एक न एक से, देखा हो गत दम्भ ।।12।। मानी जाती प्राज भी, गिनती अति दुःश्वार । गिनने वालों ने गिने, है आश्चर्य मपार ।।13॥
1. चौदह से पम्बालीस
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन खम्भों में एक पर, है श्री धरणा शाह । अधिनायक सन्मुख खड़े, बद्धांजलि सोत्साह ॥14॥ चार बीस गुम्बज सुभग, जिनमें चार विशाल । हर गुम्बज में कोरणी, का है काम कमाल ॥15॥ चैत्यालय सारे वहां, पूरे मस्सी चार । कलापूर्ण कृति देखकर, होता चित्र अपार ॥16॥ रहे मामने सामने, चैत्यालय हर एक । इसी विधि से बाँधे गये, रखकर पूर्ण विवेक ॥17॥ समवशरण का दृश्य भी, है पूरा कमनीय । सहस्रफरणी श्रीपास जिन, नाग-युगल महनीय ॥18॥ नन्दीश्वर का हट सुभग, शत्रुजय का चित्र । एक एक से बढ़ रहे. निखरी कला विचित्र ।।19॥ मूलालय से दाहिने, (है) भैरव भैरव रूप । खड़े भवानी सहित वे, अद्भुत लिए स्वरूप ॥20॥ मुख मंदिर के चौतरफ, चित्रित बावन वीर । योगिनियों की भी वहां, है चौसठ तस्वीर ॥21॥ तोरण इक शत पाठ थे, तीन रहे अवशेष । देख जिन्हों की कोरणी, होता चित्र विशेष ॥22॥ पत्थर को कोरा यहां, अथवा कोरा काठ । बढ़ते चढ़ते ही लगे, एक एक से पाट ।।23। कल्प वृक्ष के पत्र पर, कोरा शशि का रूप । पूर्ण चन्द्रमा की खिली, ज्योत्स्ना बड़ी भनूप ॥24॥ कोत्ति स्तम्भ अपूर्ण ही, कहता है ललकार। महं भाव के वश पड़ा, मानव खाता हार ॥25॥ दो घंटायें हैं लगी, तेरह मन का भार । तीन मील सुनती तुरत, घण्टों का झनकार 126।। नर नारी के शब्द में, ज्यों रहता है फर्क । अन्तर उनके नाद में, हमने सुना सतर्क ।।2711 रायण तक की छांह में, हुमा ऋषभ को ज्ञान । सवा पांच सौ वर्ष का, रायण खड़ा महान् ॥2811 तीन तरफ तो बन गया, चैत्यालय सौत्साह । उभय अधिक सौ वर्ष को, पहुँचे धरणाशाह ॥29॥ देखा ग्यारह खण्ड का, नलिनी गुल्म विमान । कैसे अब पूरे करू, मैं मेरे अरमान ।। 30।।
1. जो कि महारावल के द्वारा बनवाया गया है ।
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड किए षट् शिखर में, तीन खण्ड प्रत्यक्ष । प्रायः धारणा शाह का, सिद्ध हो गया लक्ष ।।3।। दक्षिण दिशि का काम जो, छोड़ गये प्रवशिष्ट । करवाया शाह रत्न ने, उसका कार्य विशिष्ट ।।32।। पश्चिम उत्तर पूर्व में, श्री मरुदेवा मात । बैठी गज प्रारूढ़ हो, दोनों जोड़े हाथ ।। 3310 दक्षिण दिशि में रत्न शा, खडे युग्म कर जोड़। तन मन धन से मिल किया, काम बड़ा बेजोड़ 13411 दर्शक गण की निकलती, मुख से यह आवाज । कैसे बनवाया इसे, कैसे जोड़ा साज ।।351 द्रविण कुबेरों ने यहीं, कितना खर्चा दव्य । बिना द्रव्य कैसे बने, ऐसा मन्दिर भव्य 11361 दो हजार नव में हुआ, इसका जीर्णोद्धार । सिर्फ सिंहासन के लगे, रुपये सितर. हजार 11371 यदि उसी अनुपात से, करें खर्च अनुमान । क्रोड़ों के भी खर्च में, होना नहिं आसान ।।3811 प्राज सभी साधन सुलभ स्थितियां सब स्वाधीन । फिर भी बनना कठिन है, यो मन्दिर संगीन ॥391 देव शक्ति से है बना, अनुश्रुति है विख्यात । वस्तु स्थिति की तथ्यता, जान रहे जगनाथ 11.00 धरणाशा और दीपजी, पूजारी मतिमान । तीनों की ही चौदहवीं, है जीवित संतान 14111 भव्य कलाए देखकर, अचरज हुमा महान् । सस्मित विस्मित आ गये, हम सब अपने स्थान 14211 प्रतिभा के पूज्यत्व में, यद्यपि भिन्न विचार । तदपि कला की कुशलता, है सबको स्वीकार ॥431 कर विहार' वहां से लिया, मालागड्ढ विश्राम। ... घाटे चढ़कर मोद से, प्राये मग्या ग्राम ।।4411 सन्त 'छत्र' ने मुदित मन, मनहर रचा प्रबन्ध । सर्व दर्शि सर्वज्ञ जिन, जय जय आदि जिनन्द 145॥
संकलनकर्ता जुगल किशोर भोजक
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
चट्ट केराचार्य
और
मूलाचार
⭑
पं० परमानन्द जैन शास्त्री दिल्ली
आचार्य वट्टर ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपनी कोई गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है । मूलाचार की टीका 'माचारवृत्ति' के कर्ता वसुनन्दी प्राचार्य ने प्रपनी वृत्ति की उत्थानिका में मूलाचार का कर्ता वट्टकेर को सूचित किया है । इस नाम का कहीं से भी समर्थन नहीं होता । वट्टकेर या बेट्टकेरि शब्द प्राकृत संस्कृत भाषा के नहीं हैं। यह कनड़ी भाषा के हैं और किसी स्थान विशेष के वाचक हैं। इन कनड़ी भाषा के शब्दों से 'बट्टक- इरा गिरा' रूप से जो अर्थ निकाला गया है वह उचित प्रतीत नहीं होता, वह तभी संभव था, जब वे शब्द प्राकृत या संस्कृत के होते | पं० नाथूराम जी प्रेमी ने 'वट्टकेरि या वेट्टकेरि' नाम के ग्राम का उल्लेख किया है । वेट्ट केरि शब्द कनड़ी भाषा का है और जिसका प्रयोग स्थान विशेष के लिये हुआ है । इसी कारण डा० ए. एन. उपाध्ये उक्त प्रर्थ से सहमत नहीं हैं ।
अरताल जिला धारवाड़ (मैसूर) के शक सं. 1045 सन् 1123 ई० के कन्नड़ शिलालेख में जो चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल के समय का है उस समय वनवासी तथा पातंगुल प्रदेशों पर कदम्बकुलका महामण्डलेश्वर तैलपदेव शासन कर रहा था । मूल संघ कारपूरा के कनकचन्द्र के शिष्य बम्मि सेट्टि ने कोन्तल विभाग के प्रमुख नगर 'दयिण' में एक मन्दिर बनवाया । बमिसेट्टि वट्टकेर या वेट्टकेरि का निवासी था । यह गांव सन् 1 123 ई० में मौजूद था । कनड़ी में वेट्ट का अर्थ छोटा पर्वत और केरे शब्द का मथं तालाब है । मौर केरि का अर्थ गली या मुहल्ला होता है । इसका प्रयोग प्रायः मुहल्ले के अर्थ में किया जाता है ।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-66
दक्षिण देश मे वट्टकेर या वेट्टकेरि नाम के गांव रहे की कुछ गाथाएं उपलब्ध होती है । वह केवल इस हैं, संभव है वर्तमान में भी हों।
बात की द्योतक हैं कि वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्य के जान पड़ता है उक्त प्राचार्य का मूल नाम कुछ बाद हुए हैं। अतः वट्टकेर ने उनके ग्रन्थों से जो और ही रहा होगा । वे वट्टकेर या वेट्टकेरि गांव के कुछ लिया है। कथन या सन्दर्भ को पुष्ट करने के निवासी थे, इसीलिये उनकी प्रसिद्धि गंव के नाम लिये अन्य प्राचायों के ग्रन्थों की गाथाओं की तरह पर वट्टकेर हो गई। जिस तरह प्राचार्य पदूमनन्दि वे गाथाएं भी उद्धत की हैं। इतने मात्र से की प्रसिद्धि 'कौण्डकुण्ड' स्थान के कारण कोण्डकुन्द कुन्दकु दापायं मूलाचार के कर्ता नहीं कहे जा सकते या कुन्दकुन्द नाम से हुई, उसी तरह मूलाचार के कुन्दकुन्दाचार्य की अध्यात्म प्रधान कथनी का मूलाकर्ता वट्टकेर नाम से प्रसिद्धि होने के कारण वे चार के समयसार नामक अधिकार पर कोई प्रभाव वट्टकेर नाम से पुकारे जाने लगे। लगता है उस लक्षित नहीं होता । उसकी सरणी भिन्न ही है।, समय लोग उनके मूल नाम को भूल चुके होंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूलाचार एक अतएव वे वट्टकेर नाम से पहचाने जाने लगे दि० प्राचीन आधार ग्रन्थ है, जिसका रचना काल जैन श्रमण वैसे ही नामादिक ' की ख्याति से दूर संभवतः विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी है, क्योंकि रहते थे ! चूकि वे निस्पृही होते हैं । अतः उन्हें मूलाचार का उल्लेख पांचवी शताब्दी के प्राचार्य नाम प्रसार की चिन्ता नहीं होती ।। मूल नाम के यतिवृषभ ने अपनी तिलोयपण्णत्ती की 8-532 विस्मृत हो जाने से उनकी गुरु परम्परा ज्ञात नहीं नंबर की 'मूलाया, इरिया' गाथा मूलाचार का हो सकती। अतएव ग्राम के नाम से ही जनसा उ हे स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे उसकी प्राचीनता पहिचानती होगी। इसीलिये वसुनन्दी प्राचार्य ने में कोई सन्देह नहीं रहता। इतना ही नहीं किन्तु भी उनका नाम चट्टकेर सूचित किया है । . . . विक्रम की नौवीं शताब्दी उसकी प्राचारांग रूप से
प्राचार्य वट्टकेर मूल निग्रन्थ परम्परा के प्रसिद्धि रही है। धवला टीका के कर्ता प्राचार्य महान विद्वान थे । भगवान महावीर के समय और वीरसेन ने 'तह मायारंगे विवुत्तं' वाक्य के साथ उसके बाद जैन श्रमण निग्रंथ नाम से ही पहचाने जा गाथा उद्धृत की है वह वतमान मूलाचार में जाते थे। यही निग्रन्थ श्रमण परम्परा बाद को उपलब्ध होती है। इसस स्पष्ट है कि विक्रम की मूलसंघ में परिणत हो गई । इसी से वट्टकेर मूल ५वीं शताब्दी मे उस की प्राचारांग रूप से प्रसिद्धि परम्परा के प्राचार्य माने जाते हैं । संभवतः तीसरी रहा है। और 12वीं 13वीं शताब्दी में रचित चौथी शताब्दी मे यह परम्परा लोक में प्रसिद्ध हो ग्रन्थों में तो उसका अनुकरण स्पष्ट हा है। गई थी, क्योंकि उस समय के लेखों में मूलसघ का अब रही आवश्यक नियुक्ति मोर पिण्डनियुक्ति नाम उपलब्ध होता है।.
को बात, सो यह सुनिश्चित है कि वतमान 'मूलाचार का गंभीर अध्ययन करने और नियुक्तियों का निर्माण विक्रम की छठी शताब्दी कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से तुलना करने से भी में हुआ है । उनके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु हैं, जो भूल च र कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मालूम नहीं होती. वराहमिहर के भाई थे । इससे स्पष्ट है कि मूलाऔर नमूनापार को कथन शैली ही कुन्दकुन्दाचार्य चार उन नियुक्तियों से पूर्व को रचना है। प्रता की कथन 'शैली से मेल खाती है। विचारणा भी. उनस आदान-प्रदान को बात ठीक नहीं है। दूसरे उन जैसी महीं है। ऐसी स्थिति में कुन्दकुन्दाचार्य · भगवान महावीर की मूलनिर्ग्रन्थ परम्परा जब दो वो मूलाचार : काकर्ता नहीं ठहराया जा सकता। भागों में विभक्त हुई, उस समय समागत साहित्य यह सही है कि मूलाचार में कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों दोनों परम्परा के साधुषों को कंठस्थ था । प्रतः ,
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
१-61
दोनों ने उसका उपयोग अपनी-अपनी रचनाओं में इसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति नहीं मानते । वास्तव किया हो, ऐसी स्थिति में आदान-प्रदान की बात में वह कुन्दकुन्दाचार्य की कृति है भी नहीं : वह समुचित नहीं जान पड़ती।
उनकी परम्परा के प्राचार्य वट्टकेर की कृति है। इतिहास से प्रकट है कि भगवान महावीर का
मूलचार में 12 अधिकार हैं और 1203 के
लगभग गाथाएं है। जिनमें अधिकारानुसार विषय 'रिणग्गंढ णातपुत्त' रूप से उल्लेख मिलता है ।
का स्पष्ट विवेचन किया गया है । यह मूल निग्रन्थ अशोक के शिलालेखों में "रिणगंग्ढ' शब्द का प्रयोग
परम्परा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। संभवतः इस जैन साधुषों के लिये हुप्रा है । अतएव जैन संघ
की रचना पाचारांग सूत्र का सार लेकर की गई उस समय निर्गन्थ नाम से ख्यात था। और यही
12वें पर्याप्ति अधिकार के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों निग्रन्थ संघ वाद को मूलसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ
का विचार है कि इस अधिकार की वहां जरूरत नहीं
थी। उन्हें यह जान लेना चाहिये कि प्राचार्य धारवाड़ जिले से प्राप्त कदम्ब वंशी राजा महोदय ने श्रमणों को जीवस्थान की उत्पत्ति, भेदशिवमगेश वर्मा के शिलालेख (78) में श्वेताम्बर प्रभेद और कर्म बन्धादि का का बोध कराने के लिये महाश्रमण संघ और निग्रंथ महाश्रमण संघ का उसकी रचना की है जिससे वे जीव हिंसा से अपने जूदा जुदा उल्लेख पाया जाता है । ईसा की चतुर्थ को संरक्षित रख सकें, और अहिंसक वृत्ति का ध्यान पंचम शताब्दी में दिगम्बर परम्परा को 'मूल' नाम रखते हुए अपती प्रवृत्ति को निर्दोष बना सकें। इस प्राप्त हो गया था। गंगवंशी नरेश अविनीत के सम्बन्ध में प्राचार्य वसुनन्दी की उत्थानिका महत्व शिलालेख में मूलसंघ का स्पष्ट उल्लेख पाया पूर्ण है। विशेष के लिये अनेकान्त वर्ष 12 किरण जाता है।
. 11 पृष्ठ 355 पर प्रकाशित लेखक की रचना देखें। ___ मूलाचार मूलसंघ का प्राचीन आचार ग्रंथ है। प्राचार्य वट्टकेर मूलसंघ की परम्परा के विद्वान इसमें किसी को विवाद नहीं हो सकता । इसकी हैं। उनकी यह एक मात्र कृति मूलाचार है जो रचना शैली और विषय का विवेचन कुन्दकुन्दाचार्य श्रमणों के मूल प्राचार का निरूपक है। चूंकि की शैली से भिन्न है। मूलाचार का गहराई से रचना का 5वीं शताब्दी में उल्लेख है । अतः वह अध्ययन करने पर उसका स्पष्ट प्राभास मिल जाता उससे पूर्व की रचना है। संभवतः वट्टकेर या वेट्ट है। स्व. पं० नाथूराम जी मे मी, डा० ए०एन० केरि का समय विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी उपाध्ये और पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, होना चाहिये।
1. "इति श्रीमदाचार्य वट्टकेरि प्रणीत मूलाचार श्री वसुनन्दी प्रणीत टीका सहिते द्वाद
शोऽधिकारः।" वट्टकेराचार्यः प्रथम तरं तावन्मूल गुणधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्त ।"
(मूलाचार वृत्ति उत्थानिका) 2. 'पुलिसेट्टि बलिय वेट्टकेरिय ललितष्ण. मोगों ? वासि सेट्टि बलियत सोति सेट्टिभागे ?"
(जैन साहित्य और इतिहास पृ० 549) 3. 'बोम्मसेट्टि वेट्टकेरेय इट्टयंद'-यह मूल लेख बम्बई प्रहाता के पृष्ठ 241 पर मुद्रित है ।
जैन लेख संग्रह भा० 4 पृ. 148 । 4. इंडियन एण्टीक्वेरीजिल्द 7 पृ० 37-38 5. जैन लेख संग्रह भाग 2 लेख नं0 70-74 पृ० 55-60
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैसे भूल सकेगा तुमको ?
- श्री शर्मनलाल 'सरस' सकरार (झांसी)
कैसे भूल सकेगा तुमको महावीर यह देश हमारा जब तक नभ में सूर्य चंद्र हैं, ऋणी रहेगा लोक तुम्हारा,
अखिल विश्व के भूमंडल को, जब था गहन तिमिर ने घेरा, उस क्षरण तुमने नई दिशा दी, नई किरण दी, नया सवेरा, भव सागर से तर जाने की, था - जीवन जलयान तुम्हारा, कैसे भूल सकेगा तुमको, महावीर - यह देश हमारा,
जाति पाति के भेद भाव को तुमने परम प्यार से पाटा, दुर्मति के दुर्गम दुर्गों को, संयम की छैनी से छांटा, गाय सिंह ने एक साथ, पानी पीकर बोला जयकारा, कैसे भूल सकेगा तुमको, महावीर यह देश हमारा,
देन तुम्हारी थी, उस युग में, नारी ने नव जीवन पाया, निर्भय हो नारी का जीवन, तुमने वंदनीय बतलाया, भुके 'सरस' सुर नर पशु पति तक था - ऐसा उपदेश तुम्हारा, कैसे भूल सकेगा तुमको, महावीर यह देश हमारा,
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्म जयसागर
का
सीताहरण
ब्रह्म जयसागर के सीताहरण की एक प्रति परवार जैन मन्दिर नागपुर से उपलब्ध हुई है। इस पाण्डुलिपि के कुल पन्ने 124 हैं और प्रत्येक पन्ने के पृष्ठ में लगभग 13 पंक्तियां हैं प्रत्येक पंक्ति में लगभग 25 अक्षर हैं। जहां कहीं शीर्षक लिखने में लाल स्याही का प्रयोग किया गया है । यह पाण्डुलिपि संवत् 1835 में फाल्गुन सुदी 8 बुधवार को पं० गंगाधर द्वारा की गई। प्रतिलिपिकार ने यद्यपि यथाशक्ति उसे शुद्ध रखने का प्रयत्न किया है और फलस्वरूप मार्जिन में अशुद्ध शब्दों को शुद्ध रूप में लिख दिया गया है, फिर भी प्रतिलिपि के देखने से प्रतिलिपिकार की अनेक भाषागत गल्तियां स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इन सबके बावजूद ब्रह्म जयसागर का यह सीताहरण भाषा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी दिखाई देता है।
ब्रह्म जयसागर भट्टारक महीचन्द्र के शिष्य थे। उन्होंने न तो ग्रन्थ के प्रारम्भ भाग में और न उसके अन्त भाग में ही अपनी गुरु परम्परा के विषय में सूचित किया है। अपने गुरु महीचन्द्र के अतिरिक्त रामचन्द का ही उल्लेख किया है। ये रामचन्द उनके ज्येष्ठ गुरुभाई होनी चाहिए क्योंकि उन्होंने "नमं रामचन्द्र घेरनार" लिखकर उनके प्रति मादर व्यक्त किया है। जहां तक मेरी जानकारी में है ब्रह्म जयसागर के विषय में अभी तक पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं। उनका काल लगभग 17 वीं शती का पूर्वापं निश्चित किया जा सकता है। उनके चतुर्विंशत्ति जिनस्तवन, जिनकुशल सूरि चोपई मादि अनेक अब मिलते हैं। राजस्थान के जैन भंगरों में इनकी प्रतिमा भी उपलब्ध हैं। पर उनके प्रस्तुत 'पीताहरणं'
श्रीमती पुष्पलता जैन, एम०ए०
गांधी चौक, सदर, नागपुर
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-70
ग्रन्थ की प्रभी यही एक प्रति उपलब्ध हुई है जिसे कवि ने स्वयं आख्यान कहा है । यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । ग्रन्थ का प्रारम्भिक भाग इस प्रकार है
"सकल जिनेश्वर पद नमू
सारदा
समरू
माय ।
गरणधर गुरु गौतम नमू जे त्रिभोवन बन्दित पाय ||1| महीचन्द्र गुरु पद नमु,
घेरनार ।
रामचन्द्र
सिताहरण जहं
सांभल जो नर नार ||2|| सिता सभी को सति नहि, राम समो पुण्यवंत। कथा कहूं हं तेहन्तणी, सांभलजे करि संत ॥3॥ रामनाम जपता थका, भव भय पातिक जाए ।
हामरणो,
मुगतिगामी सो लागु तेहने सारदा सुध बुध कर जोड़ि कहें
कहूँ,
पाय |4|
आपने,
मात ।
सरस वचन हु मागसु, जेम कथा होए विखात ||5|| विख्यात कथा श्रीराम निहति, प्रमुखेने के सकहे कवि | सिताहरण संक्षेपे कहूं, साँभलजो सज्जन तायो सहूँ ||6|| fro यह आख्यानकाव्य छह अधिकारों में विभक्त "है । प्रथम अधिकार में अन्य जैन ग्रन्थों जैसी परम्परा का निर्वाह किया गया है । वहाँ कहा गया है कि मध्यमेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र हैं। उसके प्रार्य खंड में मगध जनपद है वहाँ 'राजा श्रेणिक अपनी महिषी चेलना के साथ राज्य करते हैं । एक दिन विपुलाचल पर्वत का वन एकाएक "पुष्प मा, माली ने इसकी सूचना दी
और बताया कि महावीर भगवान का समोशरण आया है | श्रेणिक सपरिवार उनके दर्शनार्थ गये इस प्रसंग में कवि ने यहां समवशरण का सुन्दर काव्यात्मक वर्णन किया है। भगवान की स्तुति कर रामचन्द्रजी के विषय में पूछा। इसके बाद धर्म का सुन्दर वर्णन किया गया है ।
द्वितीय अधिकार में रत्नपुर नगर का वर्णन, विद्याधरों और मेघवाहन का युद्ध, युद्ध का कारण आदि के विषय में बताया। भरत क्षेत्र में सक नगर में भावन नाम का श्रेष्ठि व हरिदास नामक उसका पुत्र है । रत्नद्वीप श्रादि में श्रेष्ठि ने व्यापार आदि के माध्यम से बहुत धनोपार्जन किया, अत्याचार अनाचार किये, संसार भ्रमण करते हुए दैवयोग से वह मनुष्य हुआ । तप किया । स्वर्ग गया व विद्याधर हुआ । रत्नपुर के राजा सहस्रलोचन से उसका युद्ध पूर्वभव के बैर कारण हुआ और फलस्वरूप मेघवाहन नामक पुत्र की मृत्यु हुई। यहां विषय की कुछ विशृंखलता व्यक्त होती है। मेघवाहन को लंका का राजा उसकी मृत्यु के बाद बनाया है । कीर्तिघवल नामक विद्याधर के पास श्रीकंठ राजा गया व स्वयंवर का विचार किया । यहीं दशरथ को स्वयंवर सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया विषय की विशृंखलता यहां पुनः भा जाती है ! सगर राजा, नारद पर्वत शिष्यों की कथा, यस राजा का श्रख्यान जैसी परम्परागत कथाएं जोर दी गई हैं। इस अध्याय का नाम पांचचरण दिया गया है ।
तृतीय अध्याय में स्वयंवर में रामचन्द्र विजय, प्रतिनिधियों से युद्ध, नागरिक अभिनन्दन वसंत वर्णन, हिंडोल भ्रमरणं, प्रणय कोप भरतमाता द्वारा वरयाचन, भरत को राज्य प्रदान, वन गमन नारद प्रकरण आदि का वर्णन है। यहां पु अनावश्यक कथा दे दी गई हैं । देशभूष कुलभूषण मुनि के दर्शन, उनसे वार्तालाप, मुनियो पर बलि का उपसर्ग, पांच सौ मुनियों का घानी
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
में पेला जाना व जटायू पक्षी द्वारा जातिस्मरण व प्रतिबोध दिया जाना इस श्रध्याय के मुख्य विषय हैं।
चतुर्थ अधिकार में रामचन्द विलाप, सूर्पणखा माख्यान, खर-दूषरण युद्ध, शम्भु कुमार का मरण, रावण द्वारा सीताहरण, लंका गमन, मन्दोदरी द्वारा रावण की निन्दा, रावण द्वारा विद्या सिद्धि, हनुमान द्वारा लंकादहन आदि का वर्णन है ।
पंचम अधिकार में विभीषण मिलन व युद्ध वन है । षष्ठम अधिकार में पुन युद्ध वर्णन, लक्ष्मण द्वारा रावण की मृत्यु दिखाई गई है । यहां पर भी बताया गया है कि विभीषरण ने रावरण की मृत्यु के दुःख से छुरी से उदर विदीर्ण कर प्रात्मघात कर लिया। इसके बाद सीता मिलन, अयोध्यागमन, सुखभोग, सीता का गर्भवती होना, वन में उसका छोड़ा जाना, वज्रजंग विद्याधर द्वारा बहिन मानकर सीता वा संरक्षण किया जाना, लव-कुश की उत्पत्ति होना, नारद द्वारा लव-कुश को रामचन्द्र की नृशंसता का वर्णन करना, लक्ष्मण आदि से दोनों का सांकेत में युद्ध वन्त में पिता-पुत्र के बीच युद्ध के माध्यम से उनका परस्पर परिचय होना श्रादि सूचित किया गया है । अन्त में "इतिभट्टारक महीचन्द्रानुचर ब्रह्मश्री जयसागर विरचने सिताहरणाख्याने रामलक्ष्मण मुक्ति गमन नाम षष्ठो अधिकार, लिखकर ग्रन्थ को समाप्त कर दिया गया है ।
2-71
ग्रन्थ की इस कथा को देखने से यह स्पष्ट है कि कवि ने विमल सूरि की परम्परा का अनुसरण किया है। काव्य को शायद मनोरंजक बनाने की दृष्टि से इधर-उधर के छोटे प्राख्यानों को भी सम्मिलित कर दिया है । ढाल, दोहा, त्रोटक, चौपाई आदि छन्दों का प्रयोग किया है । हर अधिकार में छन्दों की विविधता है । काव्यात्मक दृष्टि से इसमें लगभग सभी रसों का प्राचुर्य है । ववि की काव्य कुशलता श्रृंगार, वीर, शांत, अद्भुत, करुण आदि रसों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है। बीच-बीच में कवि ने अनेक प्रचलित संस्कृत श्लोकों को भी उद्धृत किया है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से इस ग्रन्थ का अधिक महत्व है । फोकर' जैसे शब्दों का प्रयोग आकर्षक है । भाषा में जहां राजस्थानी, मराठी, और गुजराती का प्रभाव है वही बुन्देलखंडी बोली से भी कवि प्रभावित जान पड़ता है । मराठी और गुजराती की विभक्तियों का तो कवि ने अत्यन्त प्रयोग किया है । ऐसा लगता है कि ब्रह्म जयसागर ने यह कृति ऐसे स्थान पर लिखी है जहां पर उन्हें चारों भाषाओं से मिश्रित भाषा का रूप मिला हो । भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसका प्रकाशन उपयोगी जान पड़ता है । भाषा विज्ञान के अतिरिक्त मूलकथा के पोषण के लिए प्रयुक्त विभिन्न श्राख्यानों का श्रालेखन भी इसकी एक अन्यतम विशेषता है ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीप की दीपित कतारे
रचना:- प्रमचन्द 'दिवाकर" बी. कॉम., शास्त्री, धर्मालंकार,
अध्यापक, श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर, (म.प्र.)
ज्ञान तन्मय दीप की दीपित कतारें कह उठी, तल-तम-विनाशक वीर की ले प्रारती उर से उतारें।
घोर हिंसा स्वार्थ शोषण धर्म संकट कर्म का, अन्याय अरु अज्ञान रूपक अंध ने अधिकार पाया । कह रहा है दीपमाले ! तुम स्वयं निजसम बनालें, अतिवीर के उपदेश से स्व-कर्म-कालिख को निखारें। तल-तम""
॥१॥ अतिशयि बलि केवलि सिद्धार्थ-नन्दन हो प्रभु,
शल्य शैही सप्तहस्ती, कुण्डजन्मी गौरवर्णी हो विभु। पावापुरी निर्वाण वसुधा उत्तरित हो तुम सवेरे, प्रज्वलित हो दीप दीपों से ज्वलित हों पंच पाप सारे ॥ तल-तम""
॥२॥ जीव-जग के शान्ति से जुग क्रान्तिविन जीते रहें, सौजन्य की शहनाई बाजै बैण्ड बजवें दश गुरगों से। कर्तव्य-अरु अधिकार के हम गीत गावें यादकर, स्वतन्त्रता का निर्बाध-जीवन-ज्योति तेरी हम पुकारें ।। तल-तम..."
॥३॥ चौबीसवें हो तीर्थंकर, दिव्यध्वनि थी खिर उठी, तब विश्व के थे तत्व जाने, तम हने जन-जन सभी । विन लिपि विन अक्षरों की, थी सन्मतिक ओंकार वाणी, अपनी भाषा में समझ सब लोक जीवन को सम्हारे ।। तल-तम"
॥४॥ हे दीप की नेकों कतारो ! नमन हो अाभार तेरा, तम मिटे पुरुषार्थ से सौभाग्य भी होता चहेता । अहिंसा-पुजारी देश-भारत-भाल उन्नत नित रहेगा, "प्रेम" से मिल जैन ध्वज ले वोर उत्सव हम मनायें ।। तल-तम"
॥५ ॥
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुनीत आगम साहित्य
का
नीतिशास्त्रीय सिहावलोकन
विश्व के धार्मिक साहित्य को जैन साहित्य एवं दर्शन का महत्व निर्विवाद है। जैन धर्मावलम्बियों में जितना ऊंचा स्थान प्रागमों का है, उतना सम्भवतः अन्य प्रयों का नहीं। इन पुनीत पागमों का निर्माण तो स्वयं भगवान महंत ने किया था किन्तु बाद को उन्हें सूत्र रूपों में, मध मागधी भाषा में निबद्ध, उनके गणधरों ने किया। कारण यह था कि दुभिक्षों, एवं विप्लवों प्रादि प्रापत्तियों के कारण प्रागम पाहित्य विखंडित होता रहा था। भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग 980 या 913 वर्ष पश्चात् (ई. सं. 453-466) के वलभी सम्मेलन में आगम लिपिबद्ध किये गये। अतः निश्चित है कि भगवान महावीर की भाषा अर्ध मागधी में उस समय तक पर्याप्त अन्तर अवश्य पा गया होगा। जो हो ये सूत्र दिव्य ज्ञान के महान् स्रोत है। श्री भगवत्शरण उपाध्याय के विश्व साहित्य की रूप रेखा पृ. 560 के अनुसार तो 'इन ग्रन्थों की सीमा में सारा मानव-ज्ञान जैसे सिमट कर पा गया है।' इनका सम्पादन, बल्लभी परिषद के द्वारा 46 ग्रन्थों में हुआ है। इनमें
1. पायारंग, सूयगडंग इत्यादि 12 अंग; 2. प्राववाइय, रायसपेणइय इत्यादि 12
उपांग; 3. च उसरण, पाउरपच्चकरवाण इत्यादि
10 पइन्ना; 4. निसीह, महानिसीह इत्यादि 6 छेयसुत्त;
और 5. उत्तरज्झयण, दसवेयालिय इत्यादि 4
मूलसुत्त है।
डा. बालकृष्ण 'अकिंचन' एम०ए०,पी-एच०डी०, बी-87, कालकाजी, नई दिल्ली-19
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-74
जैन शास्त्रों के अनुसार रंगों और मूल सूत्तों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है प्राय रंग । प्राचीनतम जैन सूत्र भी यही है । इस सूत्र की महिमा सम्पूर्ण जैन साहित्य में एक स्वर में गायी गई है । भाव निदर्शन के लिए एक उद्धरण प्रस्तुत है -- 'नत्थि कालस्स गागमो | सव्वे पारण। पियाउया, सुहसाया, दुक्ख पडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविरणो जीविउकामा । सव्वेसि जीवियं प्रियं ।।
सब
अर्थात् - 'मृत्यु का आना निश्चित है । प्राणियों को अपना जीवन-प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दुख कोई नहीं चाहता, मरण सभी को अप्रिय है । सभी जीना चाहते हैं । प्रत्येक प्राणी जीवन की इच्छा रखता है, सब को जीवित रहना अच्छा लगता है ।' यह एक शाश्वत तथ्य है । इस प्रकार के शाश्वत, सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक तथ्यों की दृष्टि से जैन साहित्य में मूल सूत्रों की वही महात्म्य है जो बौद्ध साहित्य में धम्मपद का । इसके उत्तरज्भयरण ( उत्तराध्ययन) के प्रथम अध्याय में 'विनय' का वर्णन इस प्रकार है
मा गलियस्सेव कसं वयमिच्छे पुणो पुरणो । कसं व दट्टुमा इन्ने, पावगं परिवज्जए ||
अर्थात् मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-बार गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करनी चाहिए । जैसे श्रच्छी नस्ल का घोड़ा चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी प्रकार गुरु के प्राशय को समझ कर मुमुक्षु को पाप कर्म त्याग देना चाहिए। यह कथन मुमुक्षु के लिए होते हुए भी सर्वजनोपयोगी है । यहीं पर तीसरे अध्ययन में प्रप्रमाद की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि टूटा हुआ जीवन-तन्तु फिर से नहीं जुड़ सकता, इसलिए हे गौतम । तू क्षण भर भी प्रमोद न कर । जरा से ग्रस्त पुरुष को कोई शरण नहीं है, फिर प्रमादीहिंसक और प्रयत्नशील जीव किस की शरण जायेगे ।
बाईसवें अध्ययन में सती का अपने ऊपर श्रासक्त श्रमरण रथनेमि को फटकारना कितना कल्याणकारी तथा प्रभावोत्पादक है - 'हे रथनेमि यदि तू रूप से वैश्रमण, चेष्टा से नलकूबर अथवा साबात इन्द्र ही क्यों न बन जाय, तो भी मैं तुझे
t
चाहूंगी। हे यश के अभिलाषी ! तू जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः सेवन करना चाहता है । इससे तो मर जाना श्रेयस्कर है । जिस किसी भी नारी को देखकर यदि तू उस के प्रति प्रासक्ति भाव प्रदर्शित करेगा तो वायु के झोंके से इधर-उधर डोलने वाले तृरण की भाँति तेरा चित कहीं भी स्थिर न रहेगा ।" इसी प्रकार पच्चीसवें अध्ययन में ब्राह्मण तपस्वी प्रादि के लक्षण तथा कर्म महिमा इस प्रकार गायी गयी है— इस लोक में जो श्रग्नि की तरह पूज्य है, उसे कुशल पुरुष ब्राह्मण कहते हैं। सिर मुंडा लेने से श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से ब्राह्मण नहीं होता । जंगल में रहने से मुनि नहीं होता मौर कुश चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहा जाता । समता से श्रमरण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है । कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, धर्म से वैश्य भोर कर्म से ही मनुष्य शूद्र कहा जाता है।"
स्पष्ट है कि भागम साहित्य नैतिक कथनों का प्रपूर्व भंडार है । ये कथन दिक्कालातीत, सार्वदेशिक एवं सार्वभौमिक सत्य है । जैन धर्म की प्रक्षय निवि होते हुए भी ये मानव मात्र की निषि हैं । इन की महिमा का अधिक माख्यान न करते हुए कुछ बहुमूल्य कथन उद्धृत करना अधिक उपयोगी होगा -
1. " ( महापुरुष वह है) जो लाभालाभ में सुखदुख में, जीवन-मरण में, निन्दा और प्रशंसा में तथा मान-अपमान में समभावी हो ।" 2. "स्वार्थं रहित देने वाला दुर्लभ है, स्वार्थ रहित जीवन निर्वाह करने वाला भी
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-75
दुर्लभ है । स्वार्थ रहित देने वाला पोर एवं सु नाणी चरणेण हीणो, स्वार्थ रहित होकर जीने वाला दोनों ही
नाणस्स भागी न हु सोग्गईस ।। स्वर्ग को जाते हैं।"
हयं नाणं कियाहीणं, 3. "जैसे विडाल के रहने के स्थान के पास
हया अन्नणो किया । चूहों का रहना प्रशस्त नहीं हैं, उसी प्रकार पासंतो पंगुलो छड्ढो, स्त्रियों के निवास स्थान के बीच में ब्रह्म
धावमारणो म अन्धप्रो । चारियों रहना क्षम्य नहीं है।"
संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, 4. "लोहे के कांटों से, मुहूर्त मात्र दुख होता
न हु एगचक्केण रहो पयाइ । है, वे भी (शरीर से) सुगमतापूर्वक निकाले अधों य पंगू प वणे समिच्चा, जा सकते हैं, परन्तु वे कटुवचन कठिनाई
ते संपउत्ता नगर पविट्ठी।। से निकलते हैं जो वर बढ़ाने और महाभय
---प्राकृत साहित्य का इतिहास, उत्पन्न करने के लिए बोले जाय ।
पृ. 205 पर उद्ध त । 5. "क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान अर्थात जैसे चन्दन का भार ढोने वाला गधा
विनय का नाश करता है, कपट मित्रों का भार का ही भागी होता है, चन्दन का नहीं, उसी नाश करता है और लोभ सब कुछ विनष्ट प्रकार चरित्र से हीन ज्ञानी केवल ज्ञान का ही कर देता है।"
भागी होता है सद्गति का नहीं । क्रिया रहित 6. "धर्म से विरत जो कोई जगत् में विचरते ज्ञान और अज्ञानी की क्रिया नष्ट हुई समझनी
है, उन्हें सबके साथ वहो बर्ताव करना चाहिए । (जंगल में आग लग जाने पर) चुपचाप चाहिए जो वे (दुसरों से अपने प्रति) खड़ा हा पगु और भागता हुमा अन्धा दोनों ही कराना चाहते हैं।'
माग में जल मरते हैं । दोनों के संयोग से सिद्धि मागम-वाटिका इस प्रकार के शतशः कथन- होती है । एक पहिये से रय नहीं चल सकता । प्रसूनों की दिव्य गंध से सतत् सुवासित है। निशीयभाष्य के कामासक्ति सम्बन्धी दो कथन प्रावश्यकता उनके प्रचार एवं प्रसार के साथ जीवन देखि में उतारने की है।
"कानी मांख से देखना, रोमांचित हो जाना, प्रागमों के व्याख्या साहित्य में नीति : शरीर में कंप होना, पसीना छूटने लगना, मुह पर
आगमों के संकलन के पश्चात् दूसरी से लेकर लाली दिखाई पड़ना, बार-बार निश्वास और सोलहवीं शताब्दी तक मागम-साहित्य के समझने जंभाई लेना" ये स्त्री में प्रासक्त पुरुष के लक्षण हैं। समझाने के लिए नियुक्ति, भाष्य, टीका, चूणि कामासक्त स्त्रियों की पहचान भी देखिए-सकटाक्ष इत्यादि टीका-साहित्य की विपुल सष्टि हुई। इसमें नयनों से देखना, बालों को संवारना. कान व नाक भी प्रसंगवश हमें कहीं-कहीं पद्यमय नीति कथन को खुजलाना, गुह्य अंग को दिखाना, घर्षण और प्राप्त हो जाते हैं । उदाहरणार्थ माणिक्यशेखर भालिंगन तथा अपने प्रिय के समक्ष अपने दुश्चरित्रों
की अपनी दीपिका में का बखान करना, उसके हीन गुणों की प्रशंसा कुछ सुन्दर रीति वचन कहे है :
करना, पैर के अंगूठे से जमीन खोदना और जहा खरो चंदण भारवाही,
खखारना'-ये पुरुष के प्रति मासक्त स्त्री के लक्षण भारस्य भागी नहु चंदणस्स । समझने चाहिए।
A
सारने
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-76
प्रागमोत्तर जैन-धर्म साहित्य में नीति (5वीं ते कह न वंदरिणज्जा, जे ते ददठूण परक शताब्दी से 10 वीं शताब्दी तक) :
इट्ठास जस्स भज्जा पिययम । कि तस्स रज्जेण । प्रागम युगीन जैन ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं अर्थात् ऐसे लोग क्यों वन्दनीय न हों जो स्त्री को व्यावहारिक नीति उपलब्ध होती है । इस दृष्टि से देखकर वर्षा से पाहत वृषभों की भांति नीचे रत्नशेखर सूरि के 'व्यवहार शुद्धि प्रकाश' बहुत जमीन की मोर मुंह किए चुपचाप चले जाते हैं। उत्तम है। यहां आजीविका उपाय के साथ पुत्र, प्रश्न शैली में पृथ्वी को स्वर्ग बनाने वाले चार ऋण, परदेश प्रादि जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर पदार्थों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है । उस युग में उच्छूगामे वासो सेयं सगोरसा सीली। रचित प्राकृत भाषा का कथा-साहित्य भी अत्यन्त इट्ठाय जस्स भज्जा पिययम । किं तस्स रज्जेण ।। समृद्ध है । यद्यपि इस वाङ्गमय का अधिकांश धर्म
हे प्रियतम ! ईख वाले गांव में वास, सफेद प्रचार के लिए गढ़ा है किन्तु उनमें व्यवहार नीति
वस्त्रों का धारण, गोरस और शालि का भक्षण का पंश भी प्रचुर मात्रा में समाहित है । नीति-शिक्षा
तथा इष्ट भार्या जिसके निकट हो उसे राज्य से प्रायः छन्दोबद्ध है इसमें उपमा, रूपक, दृष्टांत प्रादि
क्या मतलब ? यहां अनेक गाथाओं में स्त्री-पुरुषों अलंकारों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। देवभद्र के स्वभावादि के सम्बन्ध में सुन्दर कथन है। एक सूरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ कहारयण कोस (कथारत्नकोश)
गाथा का व्यंग्यार्थ कितना सत्य एवं व्यवहार सिद्ध में धन की महिमा इस प्रकार गायी गई है :परिगलइ मई मइलिज्जई जसो नाऽदरंति सयणावि।
धन्ना ता महिलामो जाणं पुरिसे सु कित्तिमो नेहो । मालस्सं च पयट्टइ विप्फुएह मणम्मि रणरणपो । उच्छरइ अणुचराहो पसरइ सब्बंगियो महादाहो ।
पाएण जनो पुरिसा महुयरसरिसा सहावेणं ।। किं किं व न होइ दुहं अत्थविहीणस्स पुरिसस्स ॥
अर्थात् पुरुषों से कृत्रिम स्नेह करने वाली स्त्रियां
भी धन्य हैं क्योंकि पुरुषों का स्वभाव भी अर्थात् धन के अभाव में मति भ्रष्ट हो जाती
तो भौरों जैसा ही होता है। श्रीयुत हरिभद्र है यश मलिन हो जाता है, स्वजन भी मादर नहीं
सूरि के उवएसपद (उपदेश पद) की प्रश्नोत्तर करते, आलस्य माने लगता है, मन उद्विग्न हो जाता है, काम में उत्साह नहीं रहता, समस्त अंगों
शैली में दो गाथा देखिएमें महा दाह उत्पन्न हो जाता है। धनहीन पुरुष को धम्मो जीवदया, किं सोक्खमरोग्गया जीवस्स । को कौन-सा दुख नहीं होता? इस सम्बन्ध में को सोहो सद्भावो, किं लद्धव्वं जणो गुणग्गाही। कुमारपाल प्रमिबोध का एक सुभाषित इस प्रकार कि सुहगेज्झ सुपणो, कि दुग्गेज्झं खलो लोपा ॥
अर्थात् धर्म क्या है ? जीव दया। सुख क्या है ? सीहह केसर सइहि, उरु सरणागमो सुदृऽस्स । प्रारोग्य । स्नेह क्या है ? सद्भाव । पांडित्य क्या मरिण मत्या प्रासीवित्तह किं धिप्पई प्रभुयस्स ।। है ? हिताहित का विवेक । विषम क्या है ? कार्य
मर्थात् 'सिंह की जटाओं, सती स्त्री की की गति । प्राप्त क्या करना चाहिए, गुण । सुख जंघाओं, शरण में आये हुए सुमट और आशीविष से प्राप्त करने योग्य क्या है ? सज्जन पुरुष । सर्प के मस्तक की मणि को कभी नहीं स्पर्श करना कठिनता से प्राप्त करने योग्य क्या है ? दुर्जन चाहिए ।' सुमतिसूरि के 'जिनदत्ताख्यान' में परस्त्री पुरुष । यहां प्राप्त करने का अर्थ है ठीक रास्ते पर दर्शन के त्याग का उल्लेख इस प्रकार किया गया लाना। जयसिंह सूरि के 'धर्मोपदेशमाला' (टीका)
में दो कटु सत्य देखिए
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-77
अपात्रे रमते नारी, निरोवर्षति माधवः । है और जब वह विरक्त होती है तो काले नाग की नीचमाश्रयते लक्ष्मी, प्रायेश निर्धनः ।। भांति उसका विष जीवन के लिए घातक होता है।
प्रर्थात नारी अपात्र में रमण करती है, मेध एक अन्य प्रसिद्ध कथन लीजिएपर्वत पर बरसता है, लक्ष्मी नीच का माश्रय लेती पटमं पि प्रावयाणं चितेयव्वो नरेण पडियारो। है और विधान प्रायः निर्धन रहता है।
न हि गेहम्मि पलिते अवडं खरिणउं तरइ कोई ।। रज्जावेंति न रज्जति लेंति हिययाहं न उण प्रति अर्थात् विपत्ति के पाने के पहले ही उसका छप्पण्णय बुद्धीमो जुवईमो दो विसरिसामो ॥ उपाय सोचना चाहिए। घर में आग लगने पर
अर्थात् स्त्रियां दूसरे का रंजन करती हैं, लेकिन क्या कोई कुपा खोद सकता है। यह भी ध्यान स्वयं रंजित नहीं होतीं। वे दूसरों का हृदय हरण देने योग्य है कि 'कुनां खोदने' वाली कहावत करती हैं, लेकिन पपना हृदय नहीं देतीं। दूसरों कितनी पुरानी है। मलधारी हेमचन्द्र सूरि की की छप्पन बुद्धियां उनकी दो बुद्धियों के बराबर 'उपदेशमालाप्रकरण' 506 मूल गाथाओं की एक हैं । इस कथन की अनुवृत्ति परवर्ती रचनाओं में भी दूसरी उपयोगी रचना है । है । क्षण में दरिद्रता मिटाने वाले भद्र-अभद्र धंधों
उसका यह कथन कितना विचित्र हैकी एक सची देने वाली गाथा इस प्रकार है:खेत्त उच्छूण सुमहसेवणं, जोरिणपोसणं चेव । जायमानो हरेदुर्भार्याम् वर्धमानो हरेद्धनं । निवईणं च पसामो खणेण निहणंति दारिद्द। "
प्रियमाणो हरेत् प्राणान्, नास्ति पुत्र समो रिपुः ।।
अर्थात् पुत्र पैदा होते ही भार्या का हरण कर मर्थात् ईख की खेती समुद्र यात्रा (विदेश में ।
लेता है, बडा होकर धन का हरण करता है. मरते जाकर धंधा करने) योनि-पोषण (वेश्या वृत्ति) और
समय प्राणों का हरण करता है। इसलिए पुत्र के राज्य कृपा- इस चार उपायों से क्षण भर में
समान और कोई शत्रु नहीं है कहने की भावदरिद्रता नष्ट हो जाती है। उस भादर्शवादी युग
श्यकता नहीं कि यह कथन अटपटा होते हुए भी में भी यथार्थ की इतनी प्रस्पष्ट अभिव्यक्ति
लौकिक अनुभव की दृष्टि से बावन तोले पाव रत्ती भी उल्लेखनीय है। ऐसे पोर भी बहुत से नीति
है। इस प्रकार के सहस्रों नीति परक उपयोगी कथन सहज सुलभ है। स्त्री के स्वभाव का वर्णन
कथन प्राचीन जैन-ग्रंथ-मंजूषामों में सुरक्षित हैं। करते हुए कहा है
इन कथनों का प्रचार और प्रसार धर्म की अपेक्षा महिला हु रत्तमता उच्छखंड व सक्करा चेव।
सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित-साधन की दृष्टि से हरइ विरत्ता सा जीवियपि कसिणाहिगरलन्द ।।। कहीं अधिक आवश्यक है। काश, भ्रष्टाचार के
अर्थात् जब महिला मासक्त होती है तो उसमें इस अंधेरे युग में जैनागमों के नैतिक कथनों का गन्ने के पोरे अथवा शक्कर की भांति मिठास होता पुनीत प्रकाश फैल पाता ।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर के प्रति
-मुनि भी 'दिनकर'
तुमने संतोष का सूत्र दिया, वह जीवन की मूल पूजी है और अहिंसा की बात मानों, मातृत्व की सतरंज्जी है। ऐसी अनेक बातें हैं जो अपनी-अपनी जगह काम की पर स्याद्वाद एक ऐसा तत्व है, जो सब वस्तुओं की कुञ्जी है।
तुम्हारे सिद्धान्तों को लोगों ने स्वीकार किया और उनके अक्षर-अक्षर पर पूरा विचार किया। पता नहीं तुम्हारे सिद्धान्त कितने रहस्यमय थे कि उनका भक्त और अभक्त सभी ने सत्कार किया।
तुमने मनुष्य-मनुष्य को प्राध्यामित्कता का पाठ पढ़ाया और मेल जोल के लिए आगे उसका हाथ बढ़ाया । यह सारा तुम्हारी वाणी का ही प्रभाव था कि आदमी ने अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए, अपना शीश चढ़ाया।
तुम्हारी वाणी का ही प्रभाव था कि शेर और बकरी साथ रहे
और उसी का प्रभाव था कि सांप और नकुल भी साथ रहे । इस विषम समय में उतना तो नहीं हो पाता पर कम से कम आदमी-आदमी तो हिल मिल कर साथ रहे ।
लोगों ने हृदय से स्वीकार किया जो बातें तुमने सिखाई थी लोगों ने उन पर अमल किया जो बातें तुमने बताई थी। हमें तो आश्चर्य होता है तुम्हारा चमत्कार देखकर पता नहीं इस प्रकार की लगन, तुमने, लोगों में कैसे लगाई थी।
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिंसा धर्म प्रचारक : मिल संत तिरुवल्लुवर
माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व का समय संसार के इतिहास में विशेष महत्व रखता है, जब न केवल भारतवर्ष में वरन् समस्त विश्व में ऐसी अनेक विभूतियों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपनी साधना से अध्यात्म को नया अर्थ प्रदान किया, धार्मिक जगत् में एक नये वातावरण का निर्माण किया और ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत किया, जो आज भी मानव जाति के लिए प्ररणा और उद्धार का पथ प्रशस्त करता है। ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी का समय वस्तुतः स्वर्णकाल ही था, जिसने प्रोटेगोरस, सुकरात कन्फ्यूशियस, महावीर और बुद्ध को विश्व-मंच पर एक साथ उपस्थित किया। महावीर ने भारत की त्यागमयी आध्यात्मिक परंपरा को नया मोड़ दिया
और ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित व नेमिनाथपाश्वनाथ द्वारा संयोजित धर्म-साधना को व्यावहारिक जीवन दर्शन के रूप में प्रतिपादित किया। महावीर के सहस्रों शिष्यों ने अगली दो-तीन शताब्दियों में उनके संदेश को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाया। भारत की प्राकृतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों ने भी इसमें परोक्षतः महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मौर्य शासन काल में उत्तर भारत में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा । ऐसे समय में धर्म-संघ की रक्षा के लिए मुनिवर भद्रबाहु ने अपने शिष्यों का विशाल समुदाय लेकर दक्षिणापथ में प्रवेश किया। उनका मुख्य पड़ाव रहा कर्नाटक । यहां से फिर यह धर्म समूचे दक्षिण भारत में फैला । कहा जाता है कि मुनि भद्रबाहु ने अपने सहयोगी विशाख मुनि को तमिल-प्रदेश में भेजकर जैन धर्म के प्रचार की नींव डाली। जातिवाद का विरोध करने वाला जैन धर्म उस तमिलनाडु में शीघ्र ही व्याप्त हो गया जो वर्ण-व्यवस्था के अभिशाप से
० इन्दरराज वेद माकाशवाणी, जयपुर
Jain education International
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-80
अपने को पीड़ित अनुभव कर रहा था। तमिलनाड प्रेम संबंधी। तिरुकुरल में कुल 133 अध्याय मौर की संस्कृति, उसकी भाषा, उसके साहित्य और हरेक अध्याय में 10 कुरल हैं। 'कुरल' तमिल उसके जनजीवन, सब पर श्रमणत्व की छाप पड़ भाषा का एक विशिष्ट छंद है । दोहे की तरह इसमें गई और सारा प्रदेश भगवान् महावीर के महिंसा भी दो चरण होते हैं। पहले चरण में चार पोर धर्म की शीतल छाया में सुख व शांति का अनुभव दूसरे में तीन पद होते है । यथा :करने लगा।
___"अगर मुदल एळ तल्लाम् मादि तमिलनाडू द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़ भाषा
भगवन् मुदट्रे उलगु ।" तमिल का केन्द्र है। तमिल संस्कृत की तरह प्रति
-(अर्थात् वर्णमाला के 'म' की तरह संसार प्राचीन, साहित्यिक दृष्टि से संपन्न भाषा है। इसकी एक विशेषता यह है कि यह भाषा लोकजीवन से -
. में प्रथम स्थान उन मादि प्रभु का है।) कभी लुप्त नहीं हुई। संस्कृत कभी जनभाषा थी, तिरुकुरल नाम तिरु और कुरल शब्दों के योग कालांतर में वह पंडितों की भाषा बनी और भाज से बना है । तिस अर्थात् श्रीसंपन्न, देवी, पवित्र तो उसका क्षेत्र ग्रंथों और ग्रंथागारों तक सीमित हो और कुरल अर्थात् कुरल छंद । तिरुकुरल के कई गया है। पर तमिल भाषा थोड़े-बहुत परिवर्तन के नाम प्रचलित हैं जैसे, मुप्पाल्, उत्तर वेद, तमिलवेद साथ प्राज भी उसी रूप में बोली और लिखी देवनूल, प्रादि । इन सबमें तिरुकुरल सर्वाधिक लोकजाती है, जिस रूप में वह दो-तीन हजार वर्ष पहले प्रिय नाम है। भारतीय साहित्य के कुछेक ग्रंप प्रयुक्त हुआ करती थी। अपनी मधुरता और मोज ऐसे हैं, जिनका संसार की कई भाषामों में अनुवाद पूर्ण अभिव्यक्ति की सक्षमता के लिए वह आज भी हो चुका है। ऐसे ग्रन्थों में तिरुकुरल का भी स्थान विख्यात भाषा है । तोल्गाप्पियम जैसे प्राचीन है। देश विदेश की भनेक भाषामों में यह रूपांतरित व्याकरण ग्रन्थ, तिरुक्कुरल जैसे महान नीति-ग्रन्थ की गई है और कई भारतीय व विदेशी विद्वानों ने
और शिलप्पधिकारम् जैसे आदर्श महाकाव्य का इस पर टीकाएं लिखी हैं। प्रायः एक काल में जो प्रणयन इसी भाषा में हमा है। जैन संतों ने इस लिखा जाता है, उसकी भाभा शनैः शनैः क्षीण भाषा का बड़ा उद्धार किया है। अनेक व्याकरणों होती चली जाती है। परन्तु तिरुकुरल जैसे कतिपय कोशों, नीति ग्रन्थों और महाकाव्यों पर जैन धर्म ग्रंथ ही इसके अपवाद होते है, जिनकी दयुति युगों का अद्भुत प्रभाव देखने में माता है । तिरुवल्लुवर तक मंद नहीं पड़ती। ऐसे ही जैन संत थे और तिरुकुरल ऐसी ही जैन तिरुकुरल के लेखक तिरुवल्लुवर के नाम, कृति है।
जन्मस्थान और जीवन के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं मार्य जनता के हृदय में जो स्थान वाल्मीकि, है। ये माण भी कई नामों से जाने जाते हैं जैसे कालिदास और तलसी ने बनाया है, वही स्थान नायनार, देवर, देव पूलवर. पेरु नावलर प्रादि। तमिल जनता के हृदय में संत तिरुवल्लुवर ने बनाया वल्लव जाति से सम्बन्धित होने के कारण ही है। तिरुवल्लुवर द्वारा रचित तिरुकुरल (तिरुक्कुरल) कदाचित् ये तिरुवल्लुवर कहलाये। इनके जन्म के सूक्तियों का विलक्षण संपादन है। इसमें कवि ने सम्बन्ध में भी दो मत हैं। कुछ विद्वान् इन्हें ईसा 1330 कुरलों के माध्यम से धर्म, अर्थ और काम पूर्व प्रथम शताब्दी का बताते हैं तो कुछ ईसा है। की सम्यक् व्याख्या की है। तमिल भाषी इसे बाद की दूसरी-तीसरी शताब्दी का। इनका मूला अपनी भाषा का वेद मानते हैं । तिरुकुरल के तीन जन्म स्थान भी अनिश्चित है । बहुप्रचलित धारणा भाग हैं धर्म संबंधी, अर्थ व राजनीति संबंधी तथा के अनुसार इनका जन्म मद्रास नगर के 'मइलापुर
asi
-
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-81
नामक स्थान में हुआ बताया जाता है। ये एक ऋषभदेव द्वारा प्रतिष्ठापित व वर्धमान महावीर उत्तम सद्गृहस्थ और कर्म से जुलाहे थे। इनका द्वारा प्रचारित जैनधर्म । संत तिरुवल्लुवर के गार्हस्थ्य जीवन बहत सुखी व संतोषपूर्ण था । कते समय श्रमण धर्म का प्रभाव तमिल जनता पर पड़ने हैं, इनकी पत्नी वासुकी साधु स्वभाव की सती स्त्री लगा था । वल्लुबर ने वैदिक धर्म का समर्थन नहीं थी। स्वयं वल्लुवर ने अपनी पत्नी की पतिभक्ति किया, क्योंकि उन्हें यज्ञों में धर्म के नाम पर ही की कई बार परीक्षा भी ली थी। यही कारण है कि जाने वाली पशु-बलि से घृणा थी। वैदिक यज्ञों के तिरुकुरल में पातिव्रत्य से सम्बन्धित कई कुरल भी हिंसात्मक स्वरूप का उन्होंने स्पष्टतः विरोध किया उपलब्ध होते हैं तिरुवल्लुवर के परवर्ती जैन है और अहिंसा वर्म की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठित किया कवि इलंगोवड़िगल ने निम्नलिखित कुरल को है। यया :अपने महाकाव्य शिलप्पधिकारम् में बड़ी श्रद्धा के "मविसोरिन्दु मागिरम् वेट्टलिन् ओन्रन् साथ उद्धृत किया है :
उयिरसेगुत्त उप्रणामै नन् । "दैयवम् तोळाअल् कोळ नन् तोळ तेळ वाल् कोल्लान् पुलाल मरुत्तानक ककूप्पि पेयएनए पेयुम् मळं ।"
एल्ला उयिकम् तोळ म्।" (तिरु० 6/5)
(तिरु० 26/9-10) —(अर्थात् जो स्त्री किसी देवता की पूजा -(अर्थात् हजार यज्ञों की तुलना में एक नहीं करती, पर प्रातः उठते ही अपने पति को जीव की भी.रक्षा कहीं अधिक श्रेयस्कर है। संसार पूजती है, वह सती नारी अकाल भी कहेगी तो उसी की करबद्ध पूजा करता है जो न जीव हत्या वर्षा हो जायेगी ।)
करता है और न मांस भक्षण ।) तिरुकुरल मानवता का, अहिंसा धर्म के प्रचार संत तिरुवल्लुवर ने हिंसास्वत की एकांगिता का प्रादर्श ग्रंथ है। विश्व बंधुत्व और अहिंसा के का कभी समर्थन नहीं किया। उनका स्पष्ट मत आदर्शों को प्रतिपादित करने वाला यह वरेण्य प्रथ था कि हिंसा न तो करनी चाहिए, न करवानी समस्त मानव जाति के लिए वरदान सदृश है। चाहिए और न ही किसी रूप में हिंसा का समर्थन अहिंसा की भावना मानवता की मूल भित्ति है। ही करना चाहिए । तत्कालीन बौद्ध भिक्ष भिक्षा में सभी धर्मों ने इसकी महत्ता और उपादेयता को प्राप्त सामिष:पाहार को अनुचित नहीं मानते थे । अंगीकार किया है। संत तिरुवल्लुवर के जीवन पर तिरुकल्लुवर इस विचित्र अहिंसावादिता का दर्शन रूपी वृत्त का केन्द्र बिन्दु अहिंसा ही है। समर्थन नहीं कर पाये । प्रतः उन्होंने जीव हत्या के उन्होंने कहा-'पोन्राग नल्लदु कोल्लामैं', अर्थात् साथ-साथ मांस-भक्षण का भी विरोध किया। एक ही अच्छाई है, हिंसा न करना । उन्होंने अहिंसा उन्होंने मतसा, बाचा, कर्मपा महिमा का समर्थन को श्रेष्ठ धर्म घोषित किया और अनेकों कुरलों किया है। 'सब्वेइ जीवानि इच्छंति जीविन द्वारा अहिंसा के विभिन्न पहलुषों पर अपना दृष्टि- मरिज्जिउं' (दश. 8/10) यानी सब प्राणी जीवन कोण स्पष्ट किया है । उनकी इस अहिंसा आराधना चाहते हैं, मरना कोई. नहीं चाहता, इस सत्य को को देखकर ही विद्वान् लोग उन्हें जैन स्वीकार उन्होंने स्वीकारा और अपने जीवन में उतारा। करते हैं।
अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने दया को __ भारत में अहिंसा को अत्यधिक महत्व देने अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने घोषित किया कि वाला एक ही धर्म रहा है और वह है भगवान् जिस प्रकार यह लोक धनवानों का है, उसी प्रकार
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-82
वह लोक दयावानों का है । जिस व्यक्ति के जीवन में दया नहीं है, जिसके विचार व व्यवहार में करुणा को धारा नहीं बहती वह उस लोक अर्थात् स्वर्ग का कभी अधिकारी नहीं हो सकता । यथा :“श्ररुलिल्लाक्कु अव्वुलगम् इल्ले, पोरुलिल्लावकु इब्लग मिल्लाकि मांगु ।”
(fato 2517)
( अर्थात् यदि यह लोक निर्धन के लिये नहीं है, तो वह लोक निर्दयी के लिये नहीं है । )
इन पंक्तियों के सूक्ष्म अध्ययन विश्लेषण से पता चलता है कि कवि किस प्रकार तत्कालीन धनिकों को निर्धन लोगों के प्रति दयालु होने का उद्बोधन देते थे । वर्तमान समाजवाद के परिप्र ेक्ष्य में संत तिरुवल्लुवर का दो हजार वर्ष पूर्व किया गया वह उद्बोधन कितना प्रभावी प्रतीत होता है ।
सच्चा अहिंसक, साधु या पंडित वही है जो सभी प्राणियों को श्रात्मवत् मानता है । "श्रात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्येति सः पण्डितः ।" अहिंसा का अर्थ है, सब जीवों के प्रति श्रात्मीयता का भाव बरतना और लेश मात्र भी किसी को कष्ट न पहुंचाना | 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की महनीय भावधारा अहिंसा की ही भावधारा है । किसी प्राणी का बध करना ही हिंसा नहीं, उसकी श्रात्मा को कष्ट पहुंचाना भी हिंसा ही है । जो लोग कर्म से नहीं वचनों से भी दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं, वे भी अहिंसा धर्म की अनादर ही करते हैं । कवि ने यहां तक कहा कि आग से होने वाला घाव भर जाता है, पर कटु वचनों का घाव कभी नहीं भरता । (तिरु० 1319) जो लोग इस प्रकार दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में आनन्द का अनुभव करते हैं, उनके क्रूर व्यवहार के प्रति कवि के हृदय में अपार क्षोभ है तभी तो वह पूछता है :
" तन्नुथिक्कु इन्नामै तानरिवान् एन्कोलो मन्नुयिक्कु इन्ना सेयल ?"
-:
(fato 3218)
- ( अर्थात् जिस व्यवहार से स्वयं को दुःख ! पहुँचता हो, वही कष्टप्रद व्यवहार मनुष्य भौरों के साथ क्यों करता है ? )
महाभारत की ये पंक्तियां भी उपर्युक्त भावना को ही व्याख्यायित करती हैं।
:
"श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । श्रात्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। न तत्परस्य कुर्वीत स्यादनिष्टं यदात्मनः । यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत् ॥
- ( अर्थात् जो बातें श्रात्मा के प्रतिकूल हों, उनका दूसरों के प्रति श्राचरण नहीं करना, यही धर्म का सर्वस्व है । इसे सुनो और समझो । जो तुम्हारे लिए अनिष्ट हैं, जिसे तुम अपने लिये किया जाना नहीं चाहते, उसे तुम दूसरों के लिये भी कभी न करो। जो तुम्हें इष्ट है, जिसे तुम प्रपने लिए चाहते हो, उसकी तुम दूसरों के लिए भी इच्छा करो ।
जब अहिंसा की ज्योति प्रखर होती है, तो घृणा का अंधकार मिट जाता है और जब अहिंसा की गंगा प्रवाहित होती है तो समता व मंत्री की फसल लहलहा उठती है । हिंसा के क्षेत्र में विशेष या वैर के लिए कोई स्थान नहीं है । हिंसा को आग प्रतिकार की भावना से भड़कती है । श्रतः प्रतिकार की भावना का उन्मूलन ही हिंसा का उन्मूलन है । और प्रतिकार का यह पहलू भी कितना भव्य और दिव्य है !
'इन्नासेय् तारै प्ररुत्तल् अवरना नन्नयम् सेयुदु विड़ल "
( तिरु० 32:4)
- ( अर्थात्, दुःख पहुंचाने वाले अपने विरोधियों के प्रति भी आपका उचित प्रतिकार यही होना चाहिए कि श्राप उनकी भलाई करके उन्हें लज्जित होने पर विवश कर दें ।)
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-83
मानवतावादी संत कबीर ने भी यही कहा भीतर एक दूसरे के विनाश की भूमिका तैयार की पा
जा रही है। छोटे राष्ट्र बड़े राष्ट्रों की विनाश| "जो तोकू काँटा बुवं, ताहि बोय तू फूल ।।
कारी क्रीड़ा की आशंका मात्र से भयाक्रांत हैं। तोकु फूल को फूल है, बाँको है तिरसूल ।” ।
, वैयक्तिक, सामाजिक, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और
। अंतर-राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में बाइबिल में भी कहा गया है : शत्रुओं से प्रेम हिंसा का वर्चस्व छाया हुआ है। करो। जो तुम्हें शाप देते हैं, उन्हें आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ घुणा का बर्ताव करते हैं उनके
ऐसे वातावरण में मनीषियों को सूक्तियां घावों हित के लिए ईश्वर से प्रार्थना करो। महावीर, पर मरहम का काम करती हैं। तिरुवल्लूबर बुद्ध, सुकरात, ईसा का जीवन इसी प्रादर्श के लिए भारतवर्ष के वे महान् शुभंषी संत थे, जिन्होंने समर्पित हो गया।
समस्त मानव जाति को प्रेम, मैत्री, शांति और वर्तमान युग में अहिंसा की कितनी प्रावश्य- अहिंसा का सदुपदेश दिया। दो हजार वर्ष पूर्व कता और उपयोगिता है, यह किसी से छिपी नहीं। दिये गये उनके संदेश का आज भी उतना ही विश्व सभ्यता विनाश की ओर बढ़ी जा रही है। महत्व है। वर्धमान का संदेश ही वल्लुवर का मंत्री और सौहार्द के उद्यान उजड़ते जा रहे हैं। संदेश है, जो संतप्त मानव-जाति को सदैव शांति भौतिक वैज्ञानिक प्रगति की प्राड़ में भीतर ही और प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।
सबसे बड़ी जीत .
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एग बिणेज्य अप्पाणं, एस से परमो जयो।।
-उत्तरा० 9134 जो मनुष्य दुर्जय २ मि में दस लाख योद्धाओं पर विजय प्राप्त कर ले उसकी अपे स्वयं अपने को जीतना सबसे बड़ी जीत है।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह दीप जो एक बार जला
-धी उदयचन्द्र 'प्रभाकर' शास्त्री प्राध्यापक-सर. हु. दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय जंचरीबाग, नसिया, इन्दौर (म.प्र.)
पूर्ण युवावस्था राज्यवृद्धि, सुख समृद्धि मावेग के दिन, अंकुरित बितन की भूमि में बिखर गये सिद्धांत की कसौटी को जब पता चला। सुदीर्घ साधना ने ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित की तब रंग, द्वेष, मोह, तर्पस्वीं से मीन खड़े पाखिर, प्रात्म-जागृति का उपदेश भी तो मिला। धरती की गोद में उजले सितारों की तरह सत्य, अहिंसा, प्रेम मानवता के प्रश्न चिह्न बन गये प्रात्म-प्रवाह को जब पता चला। कौन खड़ा जीवन तट पर मौन पड़ा होश करो, अपने आदर्शों को सुसंस्कृत स्नेह से क्योंकि अमर पथ अब सुगम बन पड़ा। वो मौन, कौन महावीर था भला स्वं-पर प्रकाशक रत्नत्रयधारी प्रात्म से परमात्म निर्वाण पथ गामी वह दीप जो एक बार जला।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहास-पुरुष नेमि प्रभु की लोकप्रियता
-श्री कुन्दनलाल जैन
बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ की ऐतिहासिकता में अब किञ्चित भी संदेह नहीं रहा है, वे श्री कृष्ण के पारिवारिक जन थे और अरिष्टनेमि के नाम से प्रसिद्ध थे। महाभारत में ऋषभनाथ और नेमिनाथ के निर्वाण स्थलों का उल्लेख करते हुए लिखा है :
रेक्ताद्री जिनो नेमि युगादिविमलाचले ।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ।। महाभारत स्कन्द पुराण के प्रभासखंड के वस्त्रापथ क्षेत्र माहात्म्य अध्याय 16 में नेमि प्रभु का गिरनार से मुक्ति लाभ का स्पष्ट उल्लेख है-उन्हें 'नेमिनाथ शिव' कहा है :
मनोभीष्टार्थ सिध्यर्थ ततः सिद्धिमवाप्तवान् ।
नेमिनाथ शिवेत्येवं नाम चक्रेथ वामनः ।। 96 ऋग्वेद में परिष्ट नेमि का अाह्वान करते हुए लिखा है :
तवां रथं वयद्याहुवेम स्तो मेरश्विना सविताय नव्यं । अरिष्ट नेमि परिद्यामियानं विद्या मेषं वृजन जीरदानम् ।।
ऋ० प्र०24०4,24 यजुर्वेद अध्याय 26 में अरिष्टनेमि से सम्बन्धित मंत्र देखिए :
“ॐ रक्ष रक्ष अरिष्ट नेमि स्वाहा" यजुर्वेद के अध्याय 9 के मंत्र 25 में नेमि प्रभु का उल्लेख निम्न प्रकार है :
वाजस्यमु प्रसव आभूवेमा, च विश्वा भुवनानि सर्वतः ।
स नेमि राजा परियाति विद्वान्, प्रजां पुष्टिवर्धयमानो अस्मै स्वाहा ।। सामवेद प्रपा 9 अध्याय 3 में अरिष्ट नेमि का उल्लेख निम्न प्रकार है :
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वदेवाः ।
स्वस्ति न स्ताक्ष्यों अरिष्ट नेमिः स्वस्तिनो वृहस्पतिर्दधातु ॥ छान्दोग्य उपनिषद के 311716 सूक्त के अनुसार श्री कृष्ण के गुरु घोर पांगिरस ऋषि धे और 'ज्ञातृ धर्म कथा' में अरिष्ट नेमि को आंगिरस का गुरु माना है। इसी काल में पांगिरस नामक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख इसी भासिय' में मिलता है, अतः मांगिरस और अरिष्ट नेमि समकालीन प्रतीत होते हैं, 'मोर चूकि अब श्री कृष्ण की ऐतिहासिकता में कोई संदेह नहीं रहा तो फिर मेन प्रभु की ऐतिहासिकता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है।
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-86
वैसे भारत के मूर्धन्य दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी इंडियन फिलासफी भाग 2 में नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया है।
डॉ० हरिसत्य भट्टाचार्य ने नेमि प्रभु पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ 'अरिष्ट नेमि' जो नेमिनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध करने वाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है एक जगह उन्होंने लिखा है :-When the Samavsharan of Lord Arishtanemi was reported to have come near Dwarkaji Lord Krishna went to see him with his family, Lord Krishna bowed down to Lord Arishtanemi."
डाक्टर फ्यूरर ने 'एपी ग्राफी इण्डिका' भाग 1 में भगवान नेमिनाथ को इतिहास पुरुष के रूप में सप्रमाण स्वीकार किया है।
- 'केम्ब्रिज हिस्ट्री प्रॉफ इण्डिया' में डा. विमल चरण ला लिखते हैं कि "अरिष्टनेमि अथवा. नेमिनाथ 22वें तीर्थंकर थे वे एक वरद क्षत्रिय धर्म प्रसारक व समाज के धुरीण हो गए हैं वे संयमी ध्यान मग्न चतुर और शांत स्वभावी थे, उनको सम्यग्दर्शन हुअा था वे शुद्ध सत्ब व धर्म प्रवीण थे उन्होंने सब बन्धन नष्ट किये थे"।
- नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते हुए डा. प्राणनाथ विद्यालंकार ने 19 मार्च 1935 के साप्ताहिक टाइम्स ऑफ इण्डिया नामक पत्र में काठियावाड से प्राप्त तांबे के प्राचीन शासन पत्र का विवरण प्रकाशित कराया था जो ई. पू. 1140 के लगभग का है । इसका सारांश है कि सुमेर जातीय बाबुल के रिवल्दियन सम्राट नेवुचेदनजर जो रेवानगर का अधिपति था, ने यदुराज की भूमि में रेवाचल के अधिपति नेमि प्रभु की भक्ति की थी और उनकी सेवा में दान पत्र अर्पित किया था। इस शासन पत्र पर नेवुचेदनजर की राजकीय मुद्रा अंकित है।
श्री एस. एस. भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक 'विश्व की दृष्टि में जैन धर्म' में नेमिनाथ, उनके चचेरे भाई श्री कृष्ण तथा नेमि प्रभु की निर्वाण स्थली उर्जयन्तगिरि (गिरनार) को ऐतिहासिक सिद्ध करने के प्रबल प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उपर्युक्त तथ्यों से नेमि प्रभु की ऐतिहासिकता में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता है, वे जितने ऐतिहासिक हैं उतने ही लोकप्रिय भी रहे हैं।
__ नेमि प्रभु और राजुल दोनों ने जो अभूतपूर्व उत्सगं किया वही उनकी लोकप्रियता एवं इतिहास में प्रसिद्धि का कारण रहा । भारतीय वाङ्मय की प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तमिल आदि सभी भाषाओं में उनको गौरव गाथा अंकित है। उनके उदात्त चरित्र एवं त्याग के अद्भुत साकार रूप ने प्रत्येक युग में कथाकारों, साहित्यकारों एवं कलाशिल्पियों को सदैव प्रान्दोलित किया और उनके मर्मस्थलों को झकझोरा तथा बाध्य किया कि उनकी लेखनी नेमि प्रभु तथा राजुलजी के तपः पूत पावन चरित्र को साहित्य की विभिन्न विधानों और भारत की विभिन्न भाषाओं में अंकित एवं चित्रित किया जावे ।
समुद्र विजय और शिवादेवी के लाडले नेमि प्रभु राजा उग्रसेन की लाडली राजूल से जब : परिणय रचाने के लिए दलबल सहित बारात लेकर उसके घर जा रहे थे कि मार्ग में पशुओं की करुण : पुकार सुनकर वे दया द्रवित हो उठे और तुरन्त ही सब कुछ छोड़ छाड़कर. जैनेश्वरीदीक्षा धारण कर
-
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-87
ली थी। उनके साथ राजुल भी भारतीय आदर्शों का अनुकरण करती हुई उनके ही साथ गिरनार पर चली गई और परत्मोकृष्ट तपस्या धारण की । उनको यही घटना ऐसी हृदय द्रावक और मार्मिक रही कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी कवि बन गया, यहां राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का 'साकेत' में लिखित निम्न छंद सहसा स्मरण हो पाता है कि :
हे राम ! तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई भी कवि बन जाय सहज संभाव्य है । उपर्युक्त छंद में राम की जगह नेमि या राजुल शब्द रख दिया जावे और फिर विश्लेषण किया जाय तो नेमि प्रभु को भी राम का स्थान प्राप्त हो सकता है और हर व्यक्ति कवि बन सकता है यथार्थ में नेमि प्रभु और राजुल का जीवन प्रसंग इतना अधिक व्यापक और त्यागमय एवं प्रेरणादायी रहा है कि श्रद्धालुजन भावविह्वल हो अपनी श्रद्धा के सुमन किसी न किसी रूप में उनके चरणों में अर्पित करने को तत्पर हैं । नेमि प्रभु संबंधी साहित्य भारत की विभिन्न भाषाओं में विपुल मात्रा के पाया जाता है पर हिन्दी में जिन विभिन्न विधानों और लोक साहित्य के रूप में अवतरित हुमा है वह निश्चय ही बड़ा महत्वपूर्ण हैं । हिन्दी में नेमिप्रभु और राजुल से संबंधित रास, धूलि, वेलि, फागु, ध्याहलो, कडाख, मंगल, वारहमासा, सज्झाय, वत्तीसी, छत्तीसी, बहोतरी, वावनी, पच्चीसी, शतक, चूनडी, चन्द्रिका, चौपाई, कथा, चरित, पुराण, गीत, घोडी, बना, पद इत्यादि रूप में जो साहित्य प्राप्त होता है उससे नेमि प्रभु की लोकप्रियता स्पष्ट रूप से विदित हो जाती है।
यहां हम सहजादपुर निवासी गर्ग गोत्रिय अग्रवाल वंशी श्री वारैलाल की सं0 1744 में रचित नेमिप्रभु का मंगल ब्याहलो शीर्षक एक रचना का परिचय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहैं है जो सर्वथा अप्रकाशित है। रचना बहुत बड़ी नहीं है केवल 73 छंद है पर हैं बड़े सरस और रोचक और हृदय को गदगद करने वाले हैं। कहीं-कहीं साहित्यिक छटा के भी अनुपम दर्शन हो जाते हैं यहां हम रचना का और अधिक विश्लेषण न करते हुए पाठकों की अभिरुचि पर ही छोड़ते हैं । यह रचना दिजैन सरस्वती भंडार धर्मपुरा दिल्ली के संस्कृत गुटका नं0 1 में पत्र 109 से 115 तक अंकित है । इसकी लम्बाई चौड़ाई 34.9x 18.9 सें.मीहै। हर पत्र पर 25 पंक्तियां और हर पंक्ति में 30 प्रक्षर हैं। इसका लिपिकाल सं० 1896 है । एक प्रति पंचायती मंदिर मस्जिदखजूर में भी मिलती है। यहां एक शंका मेरे मन में उठी है कि वारैलोल कहीं कवि विनोदीलाल का उपनाम तो नहीं क्योंकि बहुत कुछ समानता दोनों में मिलती है विद्वान पाठक इसका निर्णय करें। रचना के आदि मध्य प्रौर मन्त के कुछ अंश इस प्रकार हैं
नौ मंगल नेमिनाथ जी के
___ श्री वारलाल जी कृत अजि गुरु गणधर देव मनाऊरी हाँ अजि जादौपति का मंगल गाऊरी हो । अजि ए बाँता सुनत सुहाइ हां, अजि जादौपति कुलवंस वधाऊ हां ।।। अजिजादी पति कुलवंस वधाइ गाऊं सारद देवि मनाइक। होउ कृपालु मातु मम पर नेम कुवर जस गाइये । ए मंगलाचार नेम राजुल के सुनत श्रवन सुखदाइया । होत उछाह नगर द्वारावती मंगलाचार बधाइया ।21
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रजि इस जंवूदीप मंझारा हा अजि तहां क्षेत्र भरत सुख कार हो । अजि तहां सोरठ देस सुहावै हां मजि तहां नगर द्वारका वसायो हो ।3। प्रजि तहां वस छप्पन कोटि जादो जरासिंधु संहारिया । जब चक्र प्रायो हाथ हरिक सबन मंत्र विचारिया ।। प्रजि जादौ वंस कुल में को बली है सो परिच्छा लीजिए। बल सबन को इक तोलिक तब राज इक छन कीजिए 141 प्रजि कोई कहै पांडव भारी हां, अजि जिन फौज सवै संहारी हो। प्रजि कोई कोई बलभद्र वतावै हां अजि कोई कृष्ण कुवर जस गावं हां ।।। पनि कोऊ कहै संसार में श्रीकृष्ण से जो को बली। जिन संख पूखो धनुष चढ़ायो नाग सय्या दलमली ।। राखो गोवर्धन सिखर ऊपर कंस कू छिन में हत्यौं । भुव लोक में बल सवन जाग्यो कहो याम का मती 18। प्रजि बलभद्र तवं उठ बोल हां, अजि तुम बालक करत किलोले हो । मजि ये वातें कछु न सुहाई हां, अहो प्रभु नेमबली सम को है हां ।। को है बली प्रभु नेम जिनसों को है कहो त्रिलोक में । ए इन्द्र चन्द्र धरणेन्द्र चक्री सुर असुर के थोक में।। कोई कर सूखी क नवै मंगुली सकल जो धाइल ।
जोरवान वली हम गिण वाकू देहि नैक निवाईकै ।8। xxxxxx
लागे जु ब्राह्मण वेद बोलन भाट विरुदावली पढ़ । चिर जिवो नेमि जिनेन्द्र दुल्हो यह जोरि जुग जुग वढ़ ।3। अजि प्रोहित को देई विदाई हां, अजि प्राभूषण जड़त जाहां। अजि दीने अनमोल दुसाले हां, अजि दीनी ग ज मुतियन माला हो.1371 ोने दुसाले घोड़ा जोड़ा हाफि. ऐस्वतः बरखा। देश पट्टण गाम दीन और दीने रथ पखां ।। इह भांति और अनेक दीन बसन पाटंवर नए । सनमान करि दीनी विदाई प्रोहित अजांची हो गये 1381 अजि सुभ दिन को लून छुवायो हां, अणि सब परिवार बुलायो हो । पजि बंदीजन सब मिल पावै हां अजि आदर सू पहरावै हां ।391 पहराया प्रादर सू सबै मिल परवार नै पाया। बोलि बोल जाबका सभ कामिनी और मायाः।। मंगलाचार भया जिमका कुटुम्ब के मन भाइयाः । त्रैलोक्यपति के तिलक हुवी लाल मंगल गाड्या 1401 इति वर्ष मंगल प्रजि चंदन के खंभ मड़ाए हां अजि सों मांगम बीच गड़ाए हां । अजि ऊचा कर मंडप छायो हां, अजि वद्रोपत सरस बनायो हां।।41।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-89
बांधे चन्द्रोपक “प्रति अनूपम 'प्रानि करनी की तर। ........ झमझमात कलशे बहुत विधि सोहें मुतियन की सर। प्रजि झल्लर बनी मखतूल को बिच बिव जवाहर लाइयां । तहां बांधि डोरी रेशमी तिस तले चौक पुराहयां ।421 अजि जुर सकल सुहागन आई हां मजिजदुपति के मंहदी लावै हो । अजि कोई चित्र विचित्र बनावै हां, मंजि कोई खंडी पवन दुलावं हां 1431 चित्र विचित्र बनाय बहु विधि गीति मंगल गावही । वदन निरख प्राण वारौं हलद तेल चढ़ावहीं॥ उवटण अंग सुगंध केसर नेमि कुमार लगावहीं । सतभामा रुक्मिणी जामवंती नेमि कुमार न्हुलावहीं ।। अजि जदुपति कू वागी लाए हां, मजि चुन चुन सब पहराया । अजिहरि बल दोऊच मर जु ढारै हां, अजि जननी उर मानंद लाया हां ॥441
वहरि सुरपति ने लाई कांध, गिरनेर गढ़ में ले गए। पंच मुष्टि लोंच लेकर माप छद भस्थ भए 1681 अजि जे भूपति प्रभु के संग प्राये हां, अजि ते गिरनार कू सबही पाए हां । अजि केतेयक डरे संसारा हां प्रजि केतयक फिरै पर वारा हां 1691 केतयक राजन धरो संयम भीत भय संसार की। स्हह्र राजन लई दीक्षा साथ ... नेमि... कुमार की ।। श्री कृष्ण मरु बलभद्र मिलि फिरे घर कू भाया । तप कल्याणक भया प्रभु का लाल मंगल गाइया ।701 इति अष्टम मंगल अजि सवत्सर सुनो अरि साला हां, सत्राह से मौर चवाला हां। दिन सावन छठ उजारी हां ता दिन यह मंगल गायो हां 171। मंगलाचार नेमजी का सहजादपुर में गाइया । अग्रवाल गर्ग गोत्री अनक चूने कहाइया ।। छत्रपति बैठो चौकन्ना चारी चक्व निवाइयां । नौरंग साह बली के बारेलाल मंगल गाइयां 1721 यह मंगल पूरी भयो सुनत श्रवण सुखदाय । अपनी कृपा तुम राखियो नेम कुवर जिनराय 1731
इति श्री नेमनाथ जी का मंगल ब्याहला ।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-90
नेमि प्रभु के उत्सर्गमयी जीवन से महमूद नामक एक मुसलमान कपिण्य भी प्रभावित हुमा जिसने निम्न 'कड़खा' की रचना की जो दिल्ली के धर्म पुरा जैन मंदिर में विद्यमान है। यद्यपि रचना उच्चकोटि की नहीं है फिर भी भक्तिभाव से मोतप्रोत है देखिए :
नेमिनाथ का कड़खा
सन्त तू दन्त तू' मजर तू' अमर तू सिद्धि तू बुद्धि तू मानवंता। कोष अरु लोभ जिन मान माया तजी जै जै हो नाथ तू पुण्यका ।। तोस्यू कौन सखर कर काम भय थरहरै कर बीनती पलभइ राजा। वाम कर मंगुलि कृष्णहि डोलियो नेम नरनाथ राजाषिराजा तोस्यू कौन ।।। जिन नाग सेज्या दली नेम से प्रति बसी बाम कर मंगुली धनुष साजा । स्वर्ग स्वर्ग पुरी इन्द्र आनए बटल्यो कलभल्यो शेष जब शंख बाबा ॥ तोस्यू कौन 121 • माता शिव देवीकी कूषि उत्पन्नियो स्वामी चिंतामनी रत्नवंस । सकल सुखकरन दुखहरन जादोपती अचल ज्यों मेरु चित्त थिर रहता ।तोस्यू कौन ।। छप्पन कोटिन जादो सिर मुकुट मरिण इन्द्र धरणेन्द्र तेरी करत सेवा । जैन महमूद जिन करत है वीनती राखलो सरण देवाधिदेवातोस्यू कोन 141
इति श्री महमूद का श्री नेमिषी का कड़खा समाप्त ।
.
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थकरत्व और बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों का तलनात्मक अध्ययन
जैन और बौद्ध धर्मों में तीर्थङ्करस्व एवं बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों का विवेचन किया गया है। उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों धर्म साहित्य व प्राचार्यों में विचारों का पर्याप्त आदान-प्रदान हुअा है ।
जैन साहित्य में तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रवों का वर्णन मिलता है। प्राचार्य उमास्वामि ने परम्परानुसार मान्य षोडस भावनामों का उल्लेख किया है जिनका परिपालन करने से व्यक्ति तीर्थकर बन सकता है
___ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलवतेष्वनति. चारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधि-वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यवहुश्रुत प्रवचन भक्तिरावश्यकापरिहारिण मार्गप्रभावना प्रवेचनवत्सल त्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।.... .
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अनतिचार, अभीक्ष्णं : ज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्ति त्याग व तप, साधु समाधि, वैयावृत्ति, अहंदूभक्ति, प्राचार्य भक्ति, बहुश्रुत (उपाध्याय) भक्ति, प्रवचन भक्ति, पावश्यक में अपरिहारिणत्व, मार्गप्रभावना मौर प्रवचन वात्सल्य ये सोलह भावनायें तीर्थकर नामकर्म के प्राश्रुव के कारण हैं । उत्तरकालीन दिगम्बर माचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण किया है । श्वेताम्बर परम्पर। ने षोडस भावनाओं के स्थान पर बीस भावनायें स्वीकार की हैं । वहां सिद्धवत्सलता, स्थविरवत्सलता तपस्वी वत्सलता और अपूर्वज्ञान ग्रहण इन चार भावनामों को और जोड़ दिया गया।
इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं मासे विय बहुलीकरणहिं तित्वयर मामगोमं काम निम्वत्तेसु तं जहा
-डा. भागचन्द जैन अध्यक्ष, पालि प्राकृत विभाग, मागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-92
भरतसिद्ध पवयरण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसु । छल्लयाय तेसिं प्रभिक्ख नाणीव श्रोगोय ॥ 1 ॥ सरविणए प्रावस्सए य सीलब्बए निरइयारो । aruलव सवचियाए वेयावच्चे समाही य 1211 प्रपुव्व नारणगहणे सुयमत्ति पवयणे पहावरणया । एएहि कारणेहि तित्थयरत लहइ सो उ ॥ ३ ॥
2
श्राचार्य हरिभद्र ने तत्वार्थ सूत्र के इति शब्द से उक्त चार भावनायें निकाली हैं
इति शब्दः प्राद्यर्थः विशतेः कारणानां सूत्रकारेण किंचित् सूत्रे किचिद्भास्ये किंचिदादि ग्रहणात् सिद्धपूज क्षरणलवध्यानभावभाव्यं प्रनुप तमुपयुज्य च वक्त्रा व्याख्येवम् 3
•बौद्ध साहित्य में महापुरुषों के प्रायः 32 लक्षण बताये गये हैं पर गण्डव्यूह में 28 दिये गये हैं । बिन प्रत्यों में ये लक्षण मिलते हैं वे ये हैं-दोघ निकाय (प्र. 3. 4. 112 ), ललितविस्तर ( 105. 11) महाव्युत्पत्ति (283 FF). धर्मसंग्रह ( 83 ): गण्डव्यूह (399-20), बोधिसत्व भूमि ( 375.9), महावस्तु ( 1.226.16), श्रभिसमयालंकारालोक (4.526 ), रत्नगोत्र विभाग महाव्यानोत्तरलका शास्त्र ( भाग 26, पृ. 94.95), अभिधर्मदीपविभाषाप्रभावृत्ति सहित (पृ. 187 ), अर्थ विनिश्चय सूत्र और उसकी टीका सर्वमान्य 32 लक्षण ये हैं- (1) सुपतिहितपादता, (2) पादतलचक्कता, (३) श्रायतपण्डिता, ( 4 ) दोघंङ्ग लिता, ( 5 ) मृदुतलुन हस्थपादता (6) जालहत्थपादता, (7) उस्संखपादता, (8) खीणजंघता, (9) धनोनमन्त जाणुपरिमज्जनता, ( 10 ) कोसो हितवत्थ गुह्यता, (11) सुत्रता ( 12 ) सुखमच्छविता (13) एकेकलोमता, ( 14 ) उद्धग्गलोमता, ( 15 ) ब्रह्म जुगतता, (1.6) सत्तस्सदता (17) सीहपुब्बद्धकायता, (18) चित्तन्तरंसता, ( 19 ) गिग्रोपरिमण्डलता, ( 20 ) समबहबलन्धता, ( 21 ) रसग्गता, (22) सीहहनुता, (24) अत्तालीसदसा, ( 24 ) समदन्तता (20) प्रबिर लदम्तता,
(26) सुसुक्कदाढता, ( 27 ) पहूत जिव्हता, ( 29 ) ब्रह्मसरता (29) प्रभिनील नेतता, ( 30 ) गोपखुमता, (31) उण्गाय मुकन्तरता, नौर (32) उन्ही ससीसत । ( दीघनिकाय) ।
महापुरुषों को ये 32 लक्षण जिन पूर्वकृत कर्मों द्वारा प्राप्त होते हैं वे निम्नलिखित हैं1. दृढ़समादानता, 2. विचित्रदानोपचय, 3. परसत्वा जिहन करणता, 4. धर्मरक्षावरण गुप्तिकरणता, 5 परपरीवारा भेदनता, 6. विविध प्रावरण प्रदानता, 7. विपुलान्नपानानु प्रदानता, 8. बुद्धधर्मपरिग्रहणता, 9 गुह्यमन्तरक्षणतया मैथुनधर्मप्रतिविसर्जनता, 10 शुभकर्मानुपूर्वाचरणता 11. कुशल धर्म समाचरता, 12 अभयप्रदानता 13. पर किङ्करणीयोत्सकता, 14. कुशलकर्म ययातृप्तसमादानता 15. विविध भैषज्यानुप्रदानता, 16. कुशलमूल प्रयोगता, 17. सर्वसत्वाधवास प्रयोगता, 18. भिन्नसत्व सन्धानता, 19. स्वारक्षित कायवाङ्मनस्कर्मता, 20 सत्यवचन संरक्षणता, 21. पुष्पस्कन्धोपसेविता, 22. स्निग्धवचन सत्यपालन तया मानन्दवचनगवणता. 23 : मैत्रवत्सत्वसंरक्षणता, 24. कृत्रिमाशयता, 25. धर्मसंगीतिथित्तकर्मण्यता 26. शय्यासनारभरणमनाय वस्त्रानुप्रदानता, 27 सङ्गणिका परिवर्जनता, 28. प्राचार्योपाध्याय कल्याणमित्रानुशासिनी प्रदक्षिण ग्राहिता, 29. सर्व प्रारणानुकम्पनता, निहित लोष्टदण्डशीलता, 30 वर्णार्ह वपरता, 31. गुरुगौरव प्रणामता, श्रीर 32. स्वकीय परकीय समाधि में नियोजनता । 5 अर्थ विनिश्चय सूत्र में प्रत्येक लक्षण प्राप्ति के लिए पृथक कर्मविपाक दिया है परन्तु दीघनिकाय में इन कर्म विपाकों की कुल संख्या बीस ही बतायी गई हैं । - सदाचार, प्रियकारिता, जीवहिंसा त्याग, मधुर भोजनदान, जनसंग्राहकता, प्रर्थ धर्मो उपदेश दाना सत्कारपूर्वक शिक्षण, हित की जिज्ञासा, प्रक्रोध व वस्त्रदान, परस्पर मैत्री करना कराना, योग्यायोग्य पुरुष का ध्यान, परहिताकांक्षा, परपीड़ात्याग, प्रियदृष्टि, सत्कार्य में प्रप्रणी,
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्यवादिता, संघर्ष दूर करना, मधुर भाषिता, अवपूर्ण वचन एवं सम्यग् आजीविका । दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट कर्म विपाकों में कोई विशेष अन्तर नहीं ।
इनके अतिरिक्त बुद्धत्व प्राप्ति के अन्य कारणों में पारमिताओं की प्राप्ति करना भी प्रन्यतम कारण है । प्राचीन पालिसाहित्य में पारमितानों का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता । दीघनिकाय के दसुत्तरसुत्त व संगीतिसुत्त में बौद्ध मन्तव्यों की सूची दी गई है परन्तु उसमें पारमिता का बिलकुल उल्लेख नहीं । मज्झिमनिकाय में पारमियत्तो शब्द अवश्य मिलता है पर पारमिता के अर्थ में 'नहीं । प्रतएव ऐसा प्रतीत होता है कि पारमितानों का सिद्धान्त मूल रूप से थेरवादी परम्परा में नहीं था । सर्वास्तिवादी और महासांघिक परम्पराओं ने बौद्धधर्म में श्रद्धा जाग्रत करने की दृष्टि से पारमिताओं का आलेखन किया । इन्हीं का प्रभाव उत्तरकालीन पालिसाहित्य पर पड़ा । इसी श्राधार पर वहां विविध कथायें भी गढ़ी गई । तथा, दान, बील, नेक्खम्म, पज्ज्ञ, वीरिय, शान्ति, सच्च, अधिष्ठान, मेत्ता व उपेक्खा इन दस पारमिताओं का वर्णन किया गया है। इन दस पारमिताओं का आधार बौद्ध संस्कृत साहित्य में प्राप्त छह पारमितायें हैं :- बान, शील, क्षांति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा 17 थैरवादी परम्परा में नेक्खम्म, सच्च, श्रधिष्ठान मेता व उपेक्खा को जोड़ा गया तथा ध्यान पारमिता को छोड़ा गया । दसभूमिक सूत्र में षट्पारमिताम्रों में उपय कौशल्य, प्रणिधान, बल और ज्ञान को जोड़कर दस पारमितायें की गईं हैं। उपेक्खा व मेत्ता ब्रह्मविहारों के अन्तर्गत प्राये हैं तथा सच्च को शील में परिगणित किया जा सकता है । प्रधिष्ठान को प्रणिधान में गर्भित कर सकते हैं । नेक्खम्मपारमिता (गृह त्याग ) पर थेरवादियों ने विशेष ध्यान दिया जबकि महायानी परम्परा उतना ध्यान नहीं दे सकी । महासाधकों व
2-93
सर्वास्तिवादियों ने उसे पृथक् माना। इन सभी पारमितानों में उक्त 20 और 32 कारण गर्भित किये जा सकते हैं । तीर्थ कर प्रकृति के 16 अथवा 20 निमित्त भी इन्हीं पारमिताभों में रखे जा सकते हैं ।
थेरवादी परम्परा में बुद्धत्व प्राप्ति को प्रस्वीकार नहीं किया गया परन्तु उसे दुर्लभ अवश्य बताया गया है । वहां कहा गया है कि अनेक कल्पों के बाद बुद्ध उत्पन्न होता है - कदाचि करहचि तथागता लोके उप्पज्जन्ति सर्वास्तिवादी और महासांघिकों ने इसकी सम्भावना और कम कर दी। महायानी परम्परा में यह नियम और ढीला हो गया । जैनधर्म के अनुसार भी तीर्थ कर प्रकृति का कर्म बन्ध होना सरल नहीं । पालि साहित्य व महावस्तु प्रादि में बुद्धत्व प्राप्ति के लिए बोधिसत्व प्रणिधान करना है। सुमेध ब्राह्मण का मैत्रेय बुद्ध होना इसी का निदर्शन है ।
इस भूमिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन व बौद्ध परम्परायें इस सन्दर्भ में भी परस्पर प्रभावित हैं । यह विचारणा तब और प्रबल हो जाती है जब हम इन सभी का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं ।
1. दर्शन विशुद्धि
जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि रखना दर्शन विशुद्धि है । इसके प्राठ घांग हैं नि:शङ्कितत्व, निःकांक्षता, निर्विचिकित्सा, श्रमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य व प्रभावना । इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, प्रगुप्ति, प्ररक्षण, आकस्मिक इन सात भयों से मुक्त रहना अथवा जिनोपदिष्ट तत्व में 'यह है या नहीं' इस प्रकार की शंका नहीं करना निःशंकित रंग है । धर्म को धारण करके इस लोक और परलोक में विषयोपभोग की भ्राकांक्षा नहीं करना मौर अन्य मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी प्राकांक्षाओं का निरास करना निःकांक्षित भंग है। शरीर को
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-94
अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ देना अथवा अहिंसा द्वारा उपदिष्ट सुवचन में यह प्रयुक्त है, 'घोर कष्ट है, यह सब संभव नहीं" आदि इस प्रकार की अशुद्ध भावनाम्रों से चित्त विचिकित्सा नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है । बहुत प्रकार के मिध्यानयवादियों के दर्शनों में तत्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर मोहरहित होना प्रमूढदृष्टि अंग है । उत्तम क्षमा आदि धर्मभावनाओं से आत्मा को धर्मवृद्धि करना पहा है । कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से परिच्युत न होना स्थितिकरण है। जिन प्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य है । सम्यक दर्शन, ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से श्रात्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना है 110
षोड़स भावनाओं में दर्शन विशुद्धि मुख्य भावना है । इसके प्रभाव में अन्य सभी भावनायें होने पर भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता । यहां वस्तुतः दर्शन की शुद्धि स्वयं प्राश्रव बन्ध का कारण नहीं | प्राभव-बन्ध का कारण तो है राग । मितः दर्शन विशुद्धि का मथं हुमा दर्शन के साथ रहने वाला राग राग अथवा कषाय ही बन्ध का कारण है, सम्यग्दर्शनादि नहीं
अतः सम्यग्दृष्टि जीव को जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मार्ग में जो दर्शन सम्बन्धी धर्मानुराग होता है वही दर्शन विशुद्धि है । सम्यग्दर्शन के शंकादि दोष दूर हो जाने से ही यह विशुद्धि प्रा जाती है ।
बत्तीस महापुरुष लक्षणों में प्रथम लक्षण सुप्रतिष्ठितपादता है जिसे प्राप्त करने के लिए बौद्ध साहित्य में सदाचार का पालन प्रावश्यक बताया गया है । इसके अन्तर्गत दान, शीलाचरण, उपोसथ व्रत, माता-पिता तथा श्रमण ब्राह्मणों की सेवा, ज्येष्ठों का सत्कार व सत्कर्मों में दृढ़ होना मादि समाहित है । इसका प्राचरण करने से प्रान्तरिक शत्रु - राग, द्वेष, मोह, लोभादि तथा बाह्य शत्रु से व्यक्ति अजेय हो जाता है ।
सच्चे च धम्मे च दमे च संयमे
सोचेय्य सीलाल पोसथे सु च । दाने अहिंसाय असहाय से रतो
दलहं समादाय समत्तमाचरि ||11 अभिधर्मं विनिश्च सूत्र तथा उसकी टीका में समानता 12 कर्म विपाक के कारण सुप्रतिष्टितपादता प्राप्त होती है । दृढ समादानता से प्राचार विचार में दृढ़ता आती है | 13
2. विनय सम्पन्नता
के
सम्यग्ज्ञान प्रादि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय सम्पन्नता है । 14 विनय मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है - निश्चय विनय जो व्यक्ति को शुद्ध स्वरूप में स्थिर करती है तथा व्यवहार विनय जो शुभ भाव में स्थिर करती है । प्रथम विनय बन्ध का कारण नहीं जबकि द्वितीय विनय तीर्थंङ्कर नामकर्म के प्राश्रव का कारण है। छठवें गुणस्थान के बाद व्यवहार विनय नहीं होती परन्तु निश्चय विनय होती है । बौद्धधर्म के प्रथम कारण की तुलना इससे भी की जा सकती है । 3. शील- व्रतों में अन तिचार
शील शब्द का प्रयोग सत्स्वभाव, स्वदार सन्तोष तथा अहिंसादि व्रतों के संरक्षक दिव्रत प्रादि सात व्रतों के प्रर्थ में होता है । प्रहिंसादि व्रत तथा उनके परिपालनार्थ क्रोध वर्जन आदि शीलों में काय वचन और मन की निर्दोष प्रवृत्ति शीलव्रतेष्वनतिचार है ।16 इसी को दीर्घनिकाय में प्रारणातिपातादि से दूर रहकर प्रयतयण्हिता, दोधाङ्गुलिता व ब्रह्मजुगुत्तता नामक महापुरुष लक्षणों की प्राप्ति का मार्ग कहा है-
मारण वध भयमत्तनो विदित्वा परिविरतो परे मारणाय होसि । तेन सुचरितेन सग्गमगमा सुकतफलविपाक मनुभोसि
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
ज्ञान की भावना मे सदैव तत्पर रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है । 17 इसमें सम्यग्ज्ञान के द्वारा प्रत्येक कार्य की प्रवृत्ति पर विचार किया जाता है । अज्ञान निवृत्ति इसका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति, महितपरिहार तथा उपेक्षा व्यवद्दित फल हैं। यहां यथार्थ ज्ञान परम हितकारी है । ज्ञानोपयोग में विद्यमान बीतराग भाव बन्ध का कारण नहीं । बन्ध का कारण तो शुभ भाव रूप राग है । पूज्यपाद ने जीवादि पदार्थ विषयक ज्ञान में सतत् जागरूकता को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहा 117 वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा व धर्मोपदेश का अभ्यास भी इसी के अन्तर्गत आता है 1 18
दीर्घनिकाय के सत्कार पूर्वक शिक्षण तथा अर्थ धर्म का उपदेश से इसकी तुलना की जा सकती है-
सिप्पेसु विज्जाचरणे सु कम्मेसु कथं विजानेप्पु लउनि इच्छति । यदूपधाताय न होति कस्सचि वा चेति खिप्पं द चिरं किलिस्सति ।
तथा
अथ धम्मसहितं पुरे गिरं
एरयं बहुजनं निदंसयि । पाणिनं हित सुखावहो ग्रह
धम्मयागमय जी धमच्छरी ॥
5. संवेग
शरीर मानस प्रादि अनेक प्रकार के प्रियविप्रयोग और अप्रिय संयोग इष्ट का प्रलाभ आदि रूप सांसारिक दुःखों से नित्य भीरुता संवेग है 119
6-7. यथा शक्ति त्याग व तप
सिद्धसेन ने त्याग का अर्थ दान किया है 20 और अभयदेव ने यतिजनोचित दान को त्याग कहा है । 21 पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना
2-95
त्याग है। माहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। प्रभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है. मत पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञान दान तो अनेक सहस्र भवों के दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला है । इन तीनों दानों को सर्वार्थ सिद्धि व तत्वार्थवार्तिक में त्याग कहा गया है 122
दीघनिकाय में माहारदान व वस्त्रदान प्रादि भी उन कारणों में हैं जो बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्त माने गये हैं । पारमितानों में भी दान का महत्वपूर्ण स्थान है। समूची बौद्ध चर्या में दान की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है ।
8. साधु समाधि
जैसे भण्डार में भाग लगने पर वह प्रयत्न - पूर्वक शांत की जाती है उसी तरह अनेक व्रत शीलों से समृद्ध मुनि गरण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधु समाधि है । 23 सिद्धसेन ने समाधि का प्रयं स्वस्थता व निरुपद्रवता का उत्पादन बताया है । श्वेताम्बर परम्परा में संघसाधु समाधिकरण पाठ है ।
aafनकाय में सूक्ष्म छवि प्राप्त करने के लिए प्रव्रजितों की सेवा करने पर जोर दिया गया
पुरं पुरस्था पुरिमासु जातिसु,
भातकामो परिपुच्छिता प्रहु । सुस्सूसिता पव्वजितं उपासिता
प्रत्यन्तरो प्रत्थकथं निसामयि ॥ | 24
9. वैयावृत्यकरण
गुणवान् साधुनों पर समायत कष्ट, रोग प्रादि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा श्रादि करना वैयावृत्य है । 25 साधु समाधि में साधु का चित्त सन्तुष्ट रखा जाता है और वैयावृत्यकरण में तपस्वियों के योग्य साधन एकत्र कर उनका दान दिया जाता है । बौद्ध साहित्य में दान व महाकरुणा का गौरवपूर्ण स्थान है ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-96
10-13 महत्, प्राचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन भक्ति भावश्यकापरिहाणि है । सर्व सावद्ययोगों का
त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में प्रथम तीन --- महत्, प्राचार्य और बहुश्रुत
लगाना सामायिक है। तीर्थङ्कर के गुणों का कीर्तन (उपाध्याय) को पंच परमेष्ठयों के अन्तर्गत रखा
चतुर्विशतिस्तव है । मन, वचन, काय की शुद्धिगया है । सम्यग्दृष्टि की शास्त्र भक्ति ही प्रवचन
पूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति भक्ति हैं । केवलज्ञान श्रुतज्ञान प्रादि दिव्य नेत्र
और बारह प्रावतपूर्वक वन्दना होती है । कृत धारी परहितप्रवण और स्वसमय विस्तार
दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है । भविष्य में दोष निश्चयज्ञ अर्हन्, प्राचार्य और बहुश्रु तों में तथा
न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । श्रुत देवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने
अमुक समय तक शरीरबमत्व का त्याग करना वाले मोक्ष महल के सोपान रूप प्रवचन में प्रव
कायोत्सर्ग है ।28 बोर साहित्य में ऐसा कोई वर्णन विशुद्धिपूर्वक अनुराग करना अर्हद्भक्ति, प्राचार्य
नहीं मिलता। भक्ति, बहुश्रु त भक्ति और प्रवचन भक्ति है 128 नायाधम्म कहामो में अहंद्यभक्ति के स्थान पर 15. मागे प्रभावना अरिहंत वत्सलता. प्राचार्य भक्ति के स्थान पर गुरु नाया धम्म कहानो में इसके स्थान पर प्रवचन वत्सलता, बहुश्रुतभक्ति के स्थान पर बहुश्रुत वत्स- प्रभावना शब्द पाया है। मान छोड़कर सम्यग्दर्शलता और प्रवचन भक्ति के स्थान पर प्रवचन नादि रूप मोक्षमार्ग को जीवन में स्वयं उतारना वत्सलता शब्द मिलते हैं । परमभाव विशुद्धियुक्ता व दूसरों को उपदेश देकर उसका प्रभाव बढ़ाना भक्ति अर्थात् यथा सम्भव अधिगमन, बन्दन, प्रवचन प्रभावना है ।29 पर समय रूपी जुगुनुमों के पर्युपासन, अध्ययन, श्रवण, श्रद्धान रूपा भक्ति प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरवि प्रभा से, है .27 तत्वार्थवातिक में व सर्वार्थसिद्धि में भाव- इन्द्र के सिंहासन को कंपा देने वाले महोपवास विशुधियुक्तोऽनुरागो भक्तिः- विशुद्ध साव युक्त मादि सम्यक् तपों से भव्यजन रूपी कमलों को अनुराग को ही भक्ति कहा है।
विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा समान जिन पूजा दीघनिकाय में खीणजङ धता को प्राप्त करने
के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना
है 130 बौद्ध साहित्य के धर्मरक्षावरणगुप्तिकरणता के लिए विद्या, चरण व कर्म का प्रशिक्षण लेना
की समानता किसी सीमा तक यहां देखी जा देना पड़ता है । अभिधर्मविनिश्चयसूत्र में इसी को
सकती है। बुद्धधर्म परिग्रहणता कहा है। इसी प्रकार कुशल धर्म समाचरणता तथा प्राचार्योपाध्याय कल्याण 16. प्रवचन वात्सल्य मित्रानुशासिनी प्रदक्षिणग्राहिता को भी तुलना के जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती के लिए देखा जा सकता है।
है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से प्रोत14. प्रावश्यक अपरिहाणि
प्रोत हो जाना प्रवचन वात्सल्य है । वात्सल्य सभी मावश्यक प्रपरिहाणि का तात्पर्य है आवश्यक साधर्मियों के प्रति किया जाता है पर भक्ति अपने क्रियाओं में हानि न होने देना । नाया धम्म कहानो
से बड़ों के प्रति होती है। में मात्र आवश्यक कहा गया है । सामायिक, चतु- नायाधम्मकहामो में इन षोड़स भावनाओं के विचतिस्तव, वन्दना. प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और अतिरिक्त सिद्ध वत्सलता, स्थविर वत्सलता, तपस्वी कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथा- वत्सलता पौर प्रपूर्व ज्ञान ग्रहण इन चार भावनाओं काल नियमित व स्वाभाविक क्रम से करते रहना को पोर जोड़ दिया गया है। प्रथम तीन भावनायें
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-97
महद भक्ति प्राचार्य भक्ति और बहुश्रुत भक्ति वे अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट हैं । दोनों की परम्परामों से पृथक नहीं तथा अपूर्वज्ञानग्रहण मभीक्ष्ण ज्ञानो- को जैन परम्परा से मिनाने पर जैन परम्परा पयोग का ही प्रकारान्तर है ।
प्राचीनतम दिखाई देती है । बौद्ध परम्परा में पार___ इस प्रकार जनधर्म व बौद्धधर्म में वर्णित मितामों का पालेखन उत्तरकालीन हैं । सम्भव तीर्थकरत्व एवं बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों को है दीघनिकाय में वर्णित निमित्तों का यह संक्षिप्त तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्राभास होता रूप हो । फिर भी सभी स्रोतों के प्राचीन रूप पर है कि वे एक दूसरे की परम्परा से भलीभांति विचार करने से जैन परम्परा अधिक प्राचीन व परिचित रहे हैं। दीघनिकाय उल्लिखित निमित्त वैज्ञानिक प्रतीत होती है। बौद्ध परम्पर उससे परस्पर मिश्रित हैं जबकि अमिधर्म विनिश्चय सूत्र में प्रभावित रही होगी।
1. तत्वार्थ सूत्र, 6.24 2. नायाधम्म कहामो, 8 3. तत्वार्थाधिगम सूत्र, स्वोपज्ञ भाषा टीकालंकृत-सिद्धसेनगणि, भाग 2, पृ:38
तत्वार्थाधिगम भाष्य टीका-हरिभद्रसूरि 6.23, पृ. 27812 . 1. विशेष देखिए-सामतानी, एन. एच.-A frest light on the interpretation of the
thirty two Maha. purusha Lakshanas of the Buddha. भारती, 6. भाग ।।
1962-63 5. अर्थ विनिश्चयसूत्र व उसकी टीका, वही, 6. Agpacts of Mahayana Buddhism and its relation to Hinavana q. 11 7: दिव्यावदान, पृ. 95 ललितविस्तर, पृ. 345 8: दीघनिकाय अजिनोपदिष्टे निन्थे मोक्षवम॑नि रुचि; निःशङ्कितत्वाद्यष्टाङ्गा दर्शनविशुद्धिः-तत्वार्थ
वार्तिक, 6.24; सर्वार्थसिद्धि, 6.24 10: तत्वार्थवार्तिक, 6.24 11. लक्खणसुत्त, दीघनिकाय 12. सातत्यसत्कृत्य कुशल प्रयोग सम्पन्नता । 13. दृढसमादानत्वात्कर्मवत्-अभिसमयालंकारालोक । दहसमादानो अहोसि-दीर्थान, 14. सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्या सत्कार प्रादरःकषाय
निवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता-तत्वार्थवार्तिक-6.24 15 अहिंसादिषु व्रतेषु तत्परिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निखद्या वृत्ति कायवाङ मनसां
शीलवतेष्वनतिचार इति कथ्यते,-वही।।
शीलमुत्तर गुणा:पिण्डविशुद्धि समिति भावना"...."सिखसेन टीका । 16. ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः-तत्वार्थवार्तिक-6.24.
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-98
17. जीवादिपदार्थस्वतत्वविषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता प्रभीषण शानोपयोगा-सर्वार्थसिखि,
पृ, 163 18. सिद्धसेन टीका 19. संसार दुःखान्नित्य भीरुता संवेग:-तत्वार्थ वार्तिक. .24 20. चियाए त्यागेन यतिजनोचित दानेन-नायाषम्म, 7.69 अभयदेव टीका 21. स्वस्य न्यायाजितस्यानुकम्पा, निर्जितात्मानुग्रहालम्बनं भूतेभ्यो विशेषतस्तु विषिता यतिजनाय
दानम् ।
22. परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्यागः-तत्वार्थवार्तिक; तच्छक्तितो यथाविधि प्रयुज्यमान त्याग
इत्युच्यते-सर्वार्थसिद्धि । 23. तत्वार्थ वार्तिक 6.24; 24. लक्खणसुत्त, 25. तत्वार्थ वार्तिक, 6,24 26. वही 27. यथासम्भवमभिगमनवन्दनपर्युपासनयथाविहितक्रमपूर्वकाध्ययनश्रवणश्रद्धानलक्षणा-सिद्धसेन
टीका। 28. तत्वार्थ वार्तिक, 6.24 29. सम्यग्दर्शनादे मोक्षिमार्गस्य निहत्य मानं करणोपदेशाम्यां प्रभावना-भाष्य । 30. तत्वार्थ वार्तिक
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिन्दी साहित्य
गवान महावीर स्वामी
भगवान् वर्द्धमान और जैनधर्म :
भगवान् महावीर स्वामी जैनधर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थ कर थे। जैनधर्म जीवन-धर्म, मानब-धर्म और सहज-धर्म है। जो उसे अपने जीवन में सिद्ध और प्रकट करते हैं, वे तीर्थ कर के नाम से सम्बोधित किए जाते हैं। श्रमण-संस्कृति मानव-संस्कृति है। उसने हमारे साहित्य को प्रभावित किया है। उसमें गनुष्यता का उज्ज्वल रूप निहित है और साहित्य वास्तव में मानव और मानवता की रसपूर्ण-मार्मिक गाथा तथा चमत्कारित अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से जैन-धर्म साहित्य की मात्मा के अधिक निकट आता दिखाई देता है।
भगवान महावीर स्वामी (540 ईस्वी पूर्व468 ईस्वी पूर्व) के जीवन-चरित्र, व्यक्तित्व और जीवन दर्शन ने समूचे भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने राज-वैभवादि त्याग दिया था। उन्होंने बारह वर्ष तक कठोर तपस्या की थी। वे मनुष्य मात्र को दुःख से मुक्त कराने के लिए तपस्या कर रहे थे और कष्ट सहन कर रहे थे परन्तु विडम्बना यह थी कि मनुष्य उनको दुःख पहुंचा रहे थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में कह सकते हैं:
जितने कष्ट-कण्टकों में है जिनका जीवन-सुमन खिला, गौरव-गन्ध उत्तम उन्हें उतना ही
अत्र-तत्र-सर्वत्र मिला। 'निराला' भी कहते हैं :
मरण को जिसने वरा है, उसी ने जीवन भरा है पौर सूखी री यह डाल, बसतं बासन्ती लेगी।
डा. बमीनारायण दुबे - सागर वि. वि., सागर
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-100
42 वर्ष की आयु में जम्भिका प्राम के निकट मानव जैन हैं। चौबीस तीर्थङ्करों में से प्रादि ऋजुकुला सरिता के तट पर वे 'सर्वज्ञ' अथवा तीर्थंकर ऋषभदेव, पंचम तीर्थङ्कर सुमतिनाथ, 'जिन' या 'महावीर' कहलाए। जिन का अर्थ प्रष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ, तेरहवें तीर्थङ्कर विमलविजयी होता है। हमारे कवियों ने उनको उनके नाथ, सोलहवें तीर्थ कर शान्तिनाथ, बाइसवें गुणाश्रित पांच नामों से सम्बोषित किया है : वीर, तीर्थकर नेमिनाथ, तेइसवें तीर्थ कर पार्श्वनाय, अतिवीर, महावीर, सन्मति तथा वर्द्धमान । वे प्रतिम तीर्थकर महावीर स्वामी के जीवन-चरित्र सिद्धशिला थे क्योंकि यह भगवान् महावीर की को लेकर हिन्दी में विपुल साहित्य लिखा गया जीवन-साधना के चरमोत्कर्ष-मोक्ष का प्रतीक है। है। भगवान नेमिनाथ पर जितना हिन्दी में वे निम्रन्थ थे इसीलिए जैनधर्म निर्ग्रन्थ धर्म के साहित्य लिखा गया है। उतना किसी भी तीर्थ कर नाम से भी विश्रुत हुप्रा क्योंकि इसमें मोहमाया पर नहीं, यहां तक कि महावीर स्वामी पर भी की ग्रन्थि का उन्मूलन ही सर्वस्व है। वे सामाजिक नहीं। हिन्दी के साहित्यकारों के मध्य सर्वाधिक तथा प्राध्यामिक संघर्ष के सफल सेनानी थे। वे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय भगवान नेमिनाथ ही अहिंसा के अवतार थे। वे जीवन-कमल थे उन्होंने दिखायी पड़ते हैं । उनके बाद कहीं महावीर स्वामी, राजनैतिक और सामाजिक जीवन भी मोगा और पार्श्वनाथ और ऋषभदेव पाते हैं। ऋषभदेव का उसकी चरम परिणति माध्यात्मिक जीवनचक्र पाख्यान श्रीमद्भागवत में भी पाया है और उन्हें में की। वे प्रेय से श्रेय की मोर उन्मुख हुए। हिन्दुओं के अवतारों में भगवान बुद्ध की भांति ग्रहण वे मानव से भगवान बने । वे जिनेन्द्र और किया गया है। जिनेश्वर थे। वे क्षमा के देवता और साकार साहित्य के प्रेरणा-स्रोत : निर्वाणस्वरूप थे। दीर्घ तपस्वी महावीर ने उत्तर भगवान महावीर स्वामो साहित्य के प्रेरणाप्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल का भ्रमण कर स्रोत रहे हैं। मुख्यतः दसवीं एकादश शताब्दी से अपने युग के समाज को निरखा-परखा था। वे लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक जैनाचार्यों द्वारा युग-धर्म की विभूति थे और इसीलिए उन्होंने लिखित पुष्कल साहित्य में वे चरित्र नायक के रूप कलियुग में धर्मयुग की सच्ची स्थापना की थी। में प्रतिष्ठित हैं। इस समयावधि में हिन्दी में उनके इन्हीं गुणों ने हमारे साहित्यकारों को उच्चस्तरीय और पृथुल जैन साहित्य रचा गया है आकृष्ट, मुग्ध और मन्त्र-मोहित किया है। जिसकी गणना श्रेष्ठ भारतीय साहित्य में भलीभांति साहित्य के सागर : तीर्थङ्कर :
- की जा सकती है। । मूलत. और प्रधानत: जन साहित्य ने प्राकृत भगवान् महावीर स्व मी ने जैन-दर्शन को तथा प्रर्द्ध मागधी भाषा की श्रीवृद्धि की है। मौलिक प्रदेय दिए हैं जिनसे हमारा हिन्दी-साहित्य उनके अतिरिक्त संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य में अनुगृहीत हुआ है। श्रमण-संस्कृति के परम्परागत भी तद्विषयक विपुल स्तरीय भोर समृद्ध साहित्य महाव्रतों अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय मौर लिखा गया है । जैन-धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य को संलग्न-सम्बद्ध करके, में से एक रहा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा के महावीर ने जैन-मत के परम तथा प्रमुख उन्नायक उत्खनन कार्य और ऋग्वेद यजुर्वेद के साहित्य में होने के गौरव को प्राप्त किया है । इसके साक्ष्य विद्यमान हैं। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद जैन-धर्म का प्रभाव हमें हमारे साहित्य में में भगवान ऋषभदेव और भगवान नेमिनाथ के चार रूपों में स्पष्टतया दिखायी देता है :नामों का उल्लेख मिलता है । भाव और अधुनातन (क) जैन-धर्म ..
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ख) जैन दर्शन
(ग) जैन- संस्कृति मौर (घ) जैन-युग
जैन दर्शन की गणना संसार के प्रधान मोर प्रबुद्ध दर्शनों में की जाती है। उसका भनेकान्तवाद समरसता, विश्वशांति, भ्रातृत्व और मानवप्रेम की रामबाण औषधि है । मध्यकालीन काव्य में महावीर स्वामी :
हिन्दी के मध्यकाल में उत्तरार्द्ध में बुन्देलखंड में एक हिन्दी जैन कवि नवलशाह द्वारा रचित 'वर्द्धमान- पुराण' ही एक ऐसी कृति है जिसे प्रबन्ध-काव्य कहा जा सकता है। इसके सम्पादक पं० पन्नालाल साहित्याचार्य ने इसे महाकाव्य प्रौर धर्मशास्त्र दोनों ही रूपों में निरूपित किया है । कवि ने इस महान काव्य ग्रन्थ का निर्माण संवत् 1825 में भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा विरचित संस्कृत ग्रन्थ के आधार पर किया है । इस ग्रन्थ को भारत के मूर्धन्य विद्वान् श्री भगरचन्द नाहटा ने हिन्दी • जगत् से परिचित कराया ।
प्रस्तुत काव्य 16 अधिकारों में विभक्त है । इसमें दोहा, चौपाई, पद्धडी, छप्पय, चर्चरी, त्रिभंगी आदि सोलह प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है । सर्वाधिक प्रयुक्त छंद चोपाई है। कुल 3806 पद्यों में से 2966 पद्य चौपाई छंद में है । रचनाकार ने सोलह के महत्व का प्रतिपादन निम्न शब्दों में किया है-
ऊर्ध्व लोक षोडस सरगकर, पुण्य लहै अवतार तिन यह षोडस सरगकर, लोनो ग्रन्थहि पार । षोडस कला जु चन्द्रमा, पूरनमासी जान । तिन षोडस अध्यायकर, पूरन भयो पुरान । ज्यों भामिनी उपमा बसे, लहि षोडस शृंगार । यह पुरान अनुपम लर्स, करि षोडस अधिकार ।
काव्य के प्रथम अधिकार में मंगलाचरण प्रादि मिलते हैं । भगवान् महावीर स्वामी का चरित्र द्वितीय अधिकार से प्रारम्भ होता है जो षष्ठ कार तक प्रवहमान है। इनमें उनके पूर्वजन्म
2-101
के. वृत्तान्तों का उल्लेख है । सप्तम अधिकार में उनके गर्भ में आने, भ्रष्टम में जन्म होने, नवममें बाल्यावस्था तथा वैराग्य की स्थिति भौर दसवें में दीक्षा एवं तपस्या के उल्लेख मिलते हैं । एकादश अधिकार में केवलज्ञान तपस्या तथा समवशरण का वर्णन है । द्वादश में गौतम इत्यादि गणधरों के प्रतिबोध का वर्णन के साथ ही साथ पन्द्रहवें अध्याय तक महावीर स्वामी के उपदेश प्रवचन एवं तत्व-चिन्तन के वर्णन मिलते हैं । अन्तिम सोलहवें अधिकार में महावीर स्वामी के बिहार तथा मोक्ष प्राप्ति के तदनन्तर ग्रंथ की समाप्ति है ।
उपरिलिखित ग्रंथ के अतिरिक्त मध्यकाल के हिन्दी साहित्य में कोई दूसरा प्रबन्ध काव्य देखने को नहीं मिला ।
हिन्दी के मध्यकालीन काव्य में भगवान् महावीर स्वामी को लेकर अनेक स्फुट, धार्मिक, भक्ति तथा उपदेशात्मक काव्य लिखे गये । मध्यकाल की सम्बन्धित रचनात्रों को हम तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं
(क) भगवान महावीर स्वामी से सम्बन्चित रचनाएं ।
(ख) चोबीस तीर्थंकरों में से एक तीर्थंकर के रूप से सम्बन्धित रचनाएँ ।
(ग) उनके युग तथा भक्तों से सम्बन्धित रचनाएँ |
(क) जैन भक्ति काव्य के ने भगवान् गहावीर स्वामी का
अधिकांश कवियों स्मरण किया है । पं० भगवतीदास (वि० स० 1680) ने अपनी कृतियां सम्राट जहांगीर ( सन् 1606 - 1627 ) और सम्राट शाहजहां (1627- 1658) के शासनकाल में लिखी जिनकी कुल संख्या पच्चीस बतायी जाती है। इनकी एक पद्य कृति 'वीर जिनेन्द्र पीत' में भगवान महावीर की स्तुति मिलती है ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-102
पाण्डे रूपचन्द (वि० स० 1680-1694) जिनेन्द्र के प्रति अटूट भक्ति को सार्थक अभिव्यक्ति जैन कवि बनारसीदास के परम मित्र थे। उन्होंने मिली है। अपने 'मंगल गीत प्रबन्ध' या 'पंच मंगल' में (ख) हिन्दी जैन भक्ति-काव्य में चौबीस तीर्थतीर्थ कर के यम, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष को करों की स्तुति में विपुल रचनाएं लिखी गयी हैं लेकर भक्तिपूर्ण पदों की सृष्टि की थी। यह जिनमें से एक भगवान महावीर स्वामी भी थे। अत्यन्त लोकप्रिय रचना हुई।
उदयराज जती (सम्वत् 1667) ने दो सौ यशोविजय उपाध्याय (सं० 1680-1743) सवैयों में 'चौबीस जिन सर्वया' नामक कृति लिखी ने अपने पचहत्तर मुक्तक पदों के काव्य 'जस । जो कि भक्ति रस की दृष्टि से अत्युत्तम है। विलास' में जिनेन्द्र के प्रति अपनी पूर्ण भक्ति प्रकट जिन हर्ष ने पच्चीस पद्यों में 'चौबीसी' लिखी की है।
जिसमें संगीतात्मक रूप में चौबीस तीर्थकरों की लालचन्द लब्धोदय (संवत् 1707) ने स्तुति मिलती है। 'पद्मिनी चरित्र' के मंगलाचरणमें भगवान जिनेन्द्र भैया भगवतीदास ने 'चतुर्विंशति जिन स्तुति' की स्तुति की है।
मोर 'तीर्थकर जयमाला' नामक कृतियां लिखी । .. भैया भगवतीदास (संवत् 1731-1752) द्यानतराय ने 'दशस्थान चौबीसी' में चौबीस के 'ब्रह्म-विलास' में एक भक्त भगवान जिनेन्द्र की तीर्थकर की दस बातों का वर्णन किया है। पुष्पों से पूजा करता हुमा कामदेव से मुक्ति पाने विद्यासागर ने कुल सत्ताइस छप्पयों में भूपाल का निवेदन करता है।
स्तोत्र (सम्वत् 1730) में चौबीस तीर्थकर की द्यानतराय (साहित्यिक काल संवत् 1780) स्तुति गायी है। . के 'भारती-साहित्य' में वर्द्धमान स्वामी की भी बुलाकीदास (सम्वत् 1737-1755) के चौबीस प्रारती मिलती है। भगवान महावीर की भक्ति तीर्थकरों से सम्बन्धित 'जैन-चौबीसी' में 196 में रचित चतुर्थ भारती में उनकी सम्यक् मनुष्टुप छंद हैं। स्तुति है
__ लक्ष्मीवल्लभ के 'चौबीस स्तवन' नामक मुक्तक राग-विना सब जग जन तारे,
काव्य में विभिन्न राग-रागिनियों के पदों में चौबीस द्वेष विना सब करम विदारे ।
तीर्थकरों के प्रति कवि की पूर्ण आस्था मिलती है । करों भारती वर्द्धमान की,
. विनोदीलाल (सम्वत् 1760) के 'चतुर्विंशति पावापुर निरवान थान की।
जिन स्तवन सवैयादि' में 71 सवैया मिलते हैं। शील धुरंधर शिवतिय भोगी,
बुन्देलखण्ड के गोपीलाल जी ने भी चौबीस मनवचकायनि कहिये योगी ॥
तीर्थकरों की स्तुति गायी है। करों भारती वर्द्धमान की।
(ग) मध्यकाल के हिन्दी जैन भक्ति-काव्य में पावापुर निरवान थान की।
भगवान महावीर स्वामी के तत्कालीन युग और विद्यासागर (सम्वत् 1734) ने भट्ठारहवीं उनके भक्तों को भी सम्बन्धित रचनाओं में पर्याप्त शती के प्रथम चरण में नौ पद्यों की सोलह स्वप्न तथा सफल स्थान मिला है। सम्पय' नामक कृति 'जिन-जन्म महोत्सव षटपद' जिस प्रकार धर्मसूरि ने तेरहवीं शताब्दी में में भावान जिनेन्द्र के जन्मोत्सव की सुन्दर झांकी भगवान् महावीर के समकालीन और परम भक्त प्रस्तुत की है। एकादश पद्यों के 'दर्शनाष्टक तथा. जम्बू स्वामी पर 'जम्बू स्वामी रासा' लिखा था, चालीस पद्यों के 'विषापहार छप्पय' में भगवान् : उसी प्रकार पाण्डे जिनदास ने सम्वत् 1642 में
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-103
'जम्बूस्वामी चरित्र' की रचना की थी। यह चरित्र (क) प्रबन्ध काव्य में महावीर : भाषा तथा भाव दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ है। सन् 1961 में अनूप शर्मा ने 'वर्द्धमान' नामक जम्बू स्वामी जैनों के अंतिम केवली थे। महाकाव्य लिखा जिसे भारत की श्रेष्ठ संस्था
जिनहर्ष ने सम्वत् 1724 में भगवान महावीर भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया था । प्रामुख के निष्णात भक्त महाराजा श्रेणिक के चरित्र पर रूप में प्रसिद्ध विद्वान् श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने विस्तृत • 'श्रेणिक चरित्र' नामक काव्य लिखा।
तथा सार-गभित भूमिका लिखी है। प्रस्तावना के __ लक्ष्मीवल्लभ ने 18वीं शताब्दी के द्वितीय रूप में महावीर का संक्षिप्त जीवन-वृत्त दिया गया चरण में 96 पद्यों में 'महावीर गौतम स्वामी छंद'
है। सम्पूर्ण काव्य सत्रह सगों में विभाजित है। नामक काव्य लिखा जिसमें महावीर स्वामी मोर
प्रारम्भिक सात सर्ग पृष्ठ-भूमि का कार्य करते हैं। उनके प्रधान गणधर गौतम की स्तुति गायी
अष्टम सर्ग में महावीर का जन्म होता है । संस्कृत गयी है।
के प्राचीन महाकाव्यों की शास्त्रीय शैली का
कुशलतापूर्वक निर्वाह किया गया है । 'हरिऔध' के प्राधनिक साहित्य में महावीर :
"प्रियप्रवास' का स्पष्ट प्रभाष लक्षित होता है । प्राधुनिक हिन्दी साहित्य में भगवान महावीर महाराज सिद्धार्थ मोर उनकी धर्मपत्नी त्रिशला के स्वामी को प्रमुख प्रतिपाद्य विषय बनाकर विपुल गृहस्थ-जीवन, त्रिशला के गर्भ से महावीर का जन्म, साहित्य लिखा गया है । यह दोनों विधाओं में उप- उनकी बाल्यावस्था, गृह-त्याग, विकट तपस्या, ज्ञान लब्ध है:
प्राप्ति, धर्मोपदेश, वीर-वन्दना, महापरिनिर्वाण (क) पद्य-साहित्य और
मादि का विशद काव्यात्मक वर्णन मिलता है। (ख) गद्य-साहित्य
छन्दों में वंशस्थ वृत्त का प्राधान्य है। शास्त रस भगवान महावीर स्वामी के जीवन-चरित्र को को प्रमुखता मिली है। ऋतनों और प्रकृति के लेकर हिन्दी में निम्न प्रकार की रचनाएं लिखी मनोरम चित्र मिलते हैं। महावीर के चरित्र के गयी हैं :
विकास को रेखामों में गहरा रंग दिया गया है। वे (क) प्रबन्ध-काव्य
चिन्तक और दयालु हैं। संस्कृत-गर्मित शुद्ध खड़ी (ख) स्कुट-काव्य
बोली का सर्वत्र प्रयोग मिलता है । रानी त्रिशला का (ग) प्रशस्ति-काव्य
मालंकारिक रूप चित्रण इस प्रकार है जिससे भाषा (घ) लोक-काव्य और .
शैली की भी बानगी मिलती है: (ङ) अनुवाद-काव्य ।
प्रभा शरच्चन्द्र-मरीचि-तुल्य है, इनका विस्तृत प्रतिपादन अधोरूपेण है।
बिना शरत्कंज-समान नेत्र की। काव्य के धीरोदात्त नायक : वर्तमान :
. शुभा शरद-हंस-समा सुचाल है, प्राचीन तथा अर्वाचीन हिन्दी-काव्य में भगवान विशाल तेरी छवि वाम-लोचने ।। महावीर स्वामी को श्रेष्ठ काव्य-पुरुष के रूप में इस कृति में महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों का चित्रित किया गया है। हमारे यहां संस्कृत के सफलतापूर्वक निर्वाह किया गया है। यह काव्य प्राचार्यों ने काव्य में जो चार प्रकार के नायक मूलतः भक्ति तथा वैराग्य के भावों का संवाही हैं। निरूपित किए हैं, उनमें महावीर धीरोदात नायक कवि स्वाभाविक रूप में समन्वयवादी है। इसीलिए की समस्त विशेषताओं से भली-भांति प्रतिपादित उसने दिगम्बर तथा श्वेताम्बर मान्यतामों को किये गये हैं।
सुन्दरतापूर्वक संयुक्त कर दिया है। अनूप शर्मा ने
fm
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
-2-104
अपने इस महाकाव्य के माध्यम से भगवान महावीर स्वामी की काव्यमय मूर्ति की रचना की है जो कि युग-युगान्तर तक वन्दनीय बनी रहेगी
ललाट पे एक अनूप ज्योति है, प्रसन्नता श्रानन में विराजती । मनोज्ञता शोभित अंग-अंग में, पवित्रता है पद-पदुम चूमती । कवि ने इन शब्दों में वीर-वन्दना की है : प्ररणाम श्री सागर ज्ञान-सिन्धु को प्रणाम भू-भूप विश्व-बन्धु को नमामि सत्यार्थ प्रकाश भानु को, नमामि तत्वार्थ विकास सानु का महावीर की मौलिक देन इन शब्दों में आबद्ध
हो गयी है :
है :
मनुष्य अस्तेय- विचार-युक्त जो
वही व्रती मादरणीय है सदा ।
न पालता जो जन ब्रह्मचर्य है,
उसे नहीं प्रास्पद मोक्ष का मिला ॥ दूसरा मुख्य सिद्धान्त इन पंक्तियों में मा पाया
सदा हसा रखना स्व-धर्म है,
प्रदत्त लेना अपना न कर्म है । मनुष्य जो उत्तम प्रात्म-निग्रही, उन्हें अविश्वास सदा प्र-धर्म है । कवि प्रपने महाकाव्य की परिसमाप्ति इस अवतरण से करता है :
भयो, है यह मेदिनी शिविर-सी जाना पड़ेगा कभी, भागे का पथ ज्ञात है न, इससे सद्बुद्धि प्राये न क्यों ? ले लो साधन धर्म के, न तुमको व्यापे व्यथा अन्यथा, है जैनेन्द्र- पदारविन्द - तरणी संसार-पयोधि की ॥
पच्चीस सौ वें महावीर - निर्वाणेत्सवो की एक अपूर्व स्मृति के रू+ में रघुवीरशरण 'मित्र' का 'वीरायण' नामक महाकाव्य हाल ही में प्रकाशित हुधा है ।
महाकाव्य के पश्चात् स्वाभाविक रूप में खण्ड काव्य की स्थिति भाती है ।
उपरिचित कवि नवलशाह के 'वर्द्ध मान चरित' नामक काव्य को चरित काव्य कहा जा सकता है। इसमें वर्द्धमान स्वामी के पूर्वभवों का भी चित्ररण है । ऋषभ भगवान के मोक्ष तक की गाथा दी गयी है । इस चरित-काव्य के सोलह afari में प्रख्यात छन्दों का उपयोग मिलता है । - तात्विक विवेचन अधिक विस्तृत है। इस कृति को . भाषा में ब्रज, बुन्देली तथा खड़ी बोली का समुचित मिश्रण है । उदाहरण के रूप में महारानी प्रियकारिणी के रूप सौन्दर्य का एक चित्र सर्वथा हृष्टव्य है :
अम्बुजसो जुग पाय बने,
नख देख नखत भयो भय भारी । नूपुर की झनकार सुनें,
हग शोर भयों दशहू दिश भारी || कन्दल थम बने जुट जंध, सुचाल चले गज की पिय प्यारी ॥ कीन बनो कटि केहरि सौ, तन दामिनी होय रही लज सारी ॥ नाभि निवोरियसी निकसी,
पढ हावत पेट संकुचन धारी । काम कपिच्छ कियो पट भन्तर, शील सुधीर घरं श्रविकारी ॥ भूषन बारह भांतिन के प्रन्त कण्ठ में ज्याके ज्योति लसे अधिकारी । देखत सूरज चन्द्र छिपे,
मुख दाड़िम दन्त महाछविकारी ॥ धन्यकुमार जैन 'सुधेश' ने 'विराग' नामक भावात्मक खण्डकाव्य में सत्पथ को प्रशस्त किया है । इसे भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा ने प्रकाशित किया है । इसके पांच सर्गों के कथानक में महाबीर के प्रन्तर्द्वन्द्व का अच्छा चित्ररण हुआ है । मातृ हृदय के कोमल पक्षों को भी सफलतापूर्वक उद्घाटित किया गया है। विश्व की कला ने उन्हें राजप्रासाद से धरती पर लाकर जन-मन का भगवान बना लिया । इसमें जननायक महावीर के
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-105
चरित्र पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस काव्य लिखा गया है । महावीर के चरित्र, व्यक्तित्व काव्य में आधुनिक नारीचिन्तन परिलक्षित होता है और सन्देशों को लेकर हिन्दी में सहस्राधिक बनती कठपुतली पति की,
कविताएं लिखी गयी हैं । आवश्यकता इस बात की जिस दिन कर होते पीले ।
है कि इन सबको खोज करके, संकलित सम्पादित पति इच्छा पर ही निर्भर,
करके, महावीर-निर्वाण पच्चीस सौ वर्ष के अवसर हो जाते स्वप्न रंगीले ।।
पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ग्रन्थाकार रूप में केवल विलास सामग्री,
प्रकाशित कर दिया जाय ताकि एक ही ही मानी जाती ललना।
स्थान पर सरलता-सुविधापूर्वक समस्त कविताओं गृहिणी को घर में लाकर,
का प्रास्वादन, अध्ययन-अनुशीलन किया जा सके । वे समझा करते चेरी ।।
सागर के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान 'निर्मम' कब नारी अपने खोये,
ने 'हे निग्रंन्थ' शीर्षक से निर्वाण-पर्व (दीपावली स्वत्वों को प्राप्त करेगी।
सन् 1970) पर अपनी काव्य-पुस्तिका प्रकाशित कब वह निज जीवन पुस्तक;
की है। इसमें मुख्यतया महावीर के व्यक्तित्व, का नव अध्याय रचेगी।
सांस्कृतिक स्वरूप और सन्देशों का काव्यात्मक महावीर-चरित में नारी की भोर सम्यक् रूप प्रतिपादन किया गया है । सुभाव ये हैं :में दृष्टिपात करने का श्रेय 'सुधेश' को है । आधुनिक
हे मुक्तिपुरी के निर्देशक, सास्यवादी चिन्तन भी महावीर-विचारणा को
हम अज्ञात बन्धों के, पाश में, प्रभावित करता दिखाई देता है :
बंधकर रह गये हैं। पूजीपति इनके आश्रित,
बिना नाविक के, नौका पर, रह सुख की निद्रा सोते।
सवार, धारा में बह गये हैं। पर श्रमिक कृषक-गण,
अब, इस कष्ट से, समस्या से, जीवन भर दुख की गठरी ढोते ॥
गति से, इस परिस्थिति से । इस काव्य में आधुनिकता का अंश दिखायी देता
प्रात्मविमोहन के आकर्षण से - है। समता, करुणा, स्नेह तथा समवेदना के स्वरों
मुक्ति तुम्हारी ही, कला पर, है, निर्भरा। को प्राबल्य मिला है। शैली परम प्रोजस्विनी पौर परमेष्ठी दास 'न्यायतीर्थ' ने 'महावीर-संदेश' भाषा सुगम्य है। एक आधुनिक सिद्धान्त-पापी से को काव्य की इन लड़ियों में पिरोया है : घृणा करी-को महावीर अपने सिद्धान्तों में स्थान
प्रेम भाव जग में फैला दो, प्रदान करते हैं :
. करो सत्य का नित व्यवहार । दुष्पाप अवश्य घरिणत है,
दुरभिमान को त्याग अहिन्सक, पर घृणित नहीं है पापी।
बनो यही जीवन का सार ॥ यदि सद्व्यवहार करो वह,
बन उदार भव त्याग धर्म, बन सकता पुण्य प्रतापी ।।
फैला दो अपना देश विदेश । महावीर पर लिखित खण्ड तथा महाकाव्यों में
'दास' इसे तुम भूल न जाना, युगीन चेतना प्रतिफलित होती दिखायी देती है।
है यह महावीर सन्देश ।। (ब) स्फुट काव्य में महावीर :
प्रतिभावान कवि वीरेन्द्र कुमार ने अपनी भगवान महावीर पर विपुल मात्रा में स्फुट सुन्दर तथा सजीव कविता 'वीर वन्दना' में
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-106
महावीर के तपस्वी-साधक व्यक्तित्व की प्रभावो- आकलन में सर्वाधिक मदद मिलेगी। महावीर त्पादक छवि अंकित की है:
लोकगीतों के लोक-नायक रहे हैं। बुन्देली घरेलू इस निखिल सृष्टि के अणु-अणु के,
लोकगीतों में महावीर विषयक अनेकानेक गीत संघर्ष, विषमता ओ, विरोध,
प्रचलित हैं। कल्याण-सरित में डूब चले,
(घ) प्रशस्तिकाव्य में महावीर : हो गया, वैर आमूल शोध ।
भगवान महावीर की प्रशस्ति तथा स्तवन में तेरे पद-नख के निर्भर तट,
हिन्दी में शताधिक गीतों तथा कविताओं की सब सिंह, मेमने मृगशावक,
सृष्टि हुई है। इनमें महावीर का सर्वतोमुखी रूप पीते थे पानी एक साथ,
भास्वर हो गया है। तेरी छाया में प्रो रक्षक ।
हिन्दी में ऐसे भी काव्य लिखे गए हैं कि जिन-चक्रवति, सातों तत्वों पर,
जिनमें या तो चौबीसों तीर्थंकर का स्तवन मिलता हुमा तुम्हारा नव-शासन ।
है अथवा कतिपय तीर्थकरों की प्रशस्ति मिलती तीनों कालों, तीनों लोकों पर,
है। इनके अन्तर्गत भी हमारे महावीर स्वामी का बिछा तुम्हारा सिंहासन ॥ हाल ही में श्री वीरेन्द्र कुमार जैन की महा
गुणगान मिलता है । गुणभद्र द्वारा लिखित जिन
चतुर्विंशति स्तुति, विनयप्रभ की पंच स्तुतियां, वीर स्वामी पर एक काव्यकृति प्रकाशित हुई है।
उपाध्याय जयसागर द्वारा लिखित चतुर्विंशतिजिनमुनि विद्याविजयजी 'दीप-माला' में वर्द्धमान
स्तुति, हीरानन्द सूरि द्वारा लिखित विद्याविलास के निर्वाण का स्मरण करते हैं :
वप्पवाडो, विनयचन्द्र मुनि द्वारा लिखित चौबीस नीति रीति प्रीति तूर्ण नीन्द में गई,
तीर्थंकर देह-प्रमाण चौपई, और भवानीदास द्वारा झूठ लूट फूट राज्य में समा गई। .
लिखित चौबीस जिनबोल में महावीर स्वामी का ईति भीति दूर अन्य-तन्त्रता गई,
स्तवन मिलता है। - धन्य हिन्द भूमि दीपमाला आ गई। गेह द्वार प्रालिये थरी लगा गई,
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पटनागंज रम्य दोप-ज्योति की लखी मुद्रा अब गई। (रहली : सागर) द्वारा प्रकाशित तथा खूबचन्द्र
वर्द्ध मान धीर वीर याद आ गई, जैन 'पुष्कल' द्वारा लिखित पुस्तिका, श्री दिगम्बर
बन्दना उन्हें करू प्रहर्द में लई। जैन अतिशय क्षेत्र, पटनागंज का परिचय में पडकल' (ग) लोक काव्य में महावीर :
द्वारा लिखित भजन में महावीर की महिमा गायी ___महापुरुषों की यह विशेषता होती है कि वे गया है । सामान्य जन-जीवन की चेतना में प्रवेश कर जाते पटनागंज के महावीर हमारी पीर हरो। हैं और इसीलिए काव्य के विषय बन जाते हैं । मध्यप्रदेश जिला सागर में है रहली तहसील । महावीर स्वामी भी लोक-काव्य के विषय हैं। उन बहती स्वर्णभद्र की धारा सुन्दर सरस गम्भीर पर हिन्दी की अनेक स्थानीय बोलियों और जन- हमारी पीर हरो ।। पदीय भाषाओं में कविताएं तथा गीत लिखे गये उसके तट पर मूर्ति तुम्हारी, हैं। महावीर विषयक लोक-गीतों का भी पुस्तका- रथ में बैठी प्रान पधारी। कार संकलन किया जाना चाहिए। इससे विभिन्न हर्षित हुए सभी नर-नारी भई अचानक भीर।। बोलियों और लोक-साहित्य में महावीर के स्वरूप- हमारी पीर हरो।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर की श्री छात्र हितकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित तथा प्रेमचन्द्र 'दिवाकर' द्वारा लिखित 'भगवान महावीर' नामक पुस्तिका में महावीरतर्पण इस प्रकार किया है :
सत्य अहिंसा स्याद्वाद की,
पीकर पुनः सुधामय धारा । भक्ति भाव से श्रद्धांजलि करता, जगत समर्पित सारा ।
जबलपुर के पाक्षिक 'शताब्दी-चर्चा' के महावीर- विशेषांक (सन् 1970 ) में प्रकाशित कविताओं में महावीर की सच्ची श्रद्धांजलि मिलती हैं । हुकुमचन्द 'अनिल' मंगलाचरण गाते हैं :
तुम सत्य अहिंसा के प्रतीक, जय वन्दनीय श्री महावीर । दुखियों की प्राकर हरो पीर, श्राश्रो श्राश्रो फिर महावीर ।। बालमुकुन्द 'नन्द' महावीर की जय-जयकार
करते हैं :
जिसे मांगना मांग ले आकर
भाई घड़ी वरदान की । एक साथ जय आकर बोलो, महावीर भगवान की ॥ नाम के तेरे दीप जले, मन्दिर और तीर्थं महानों में । श्रमर कहानी दुनिया गाये, महिमा वेद पुराणों में । saft लगी है नाम कष्ट की, चमके जगमग ज्योति ज्ञान । एक साथ जय श्राकर बोलो, महावीर भगवान की ।। लक्ष्मीचन्द जैन युग-निर्माता का कलियुग में
फेर से आह्वान करते हैं :
イン
भारत गारत हो रहा आज,
प्रभु उसकी लाज बचा जाओ ।
श्री धर्म समन्वित राजनीति,
नेतानों को समझा जानो । हे युग निर्माता ! युग सृष्टा, कलियुग में फिर से ना जाओ ||
तारण तरण समाज, सागर द्वारा प्रकाशित 'तारणिका' (सन् 1969 ) में प्रकाशित ऋॠषभ समया की कविता की ये पंक्तियाँ महावीर स्वामी पर भी चरितार्थ होती हैं :
बाधानों में मुस्काते जो, हंस-हंस जीवन जी जाते जो,
वही महान कहे जाते हैं, वही जवान कहे जाते हैं ।।
2-107
(ड़) अनुवाद-काव्य :
भगवान् महावीर स्वामी के चरित्र तथा चितन को लेकर संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश से हिन्दी पुष्कल अनुवाद- काव्य श्राया है जिससे आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है ।
में
पन्द्रहवीं शती की भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा रचित संस्कृत की काव्यकृति 'वोर वर्धमान चरित' का सुन्दर अनुवाद पं० हीरालाल शास्त्री ने किया ।
कवि पुष्पदंत कृत 'महापुराण' तथा श्रीचन्द्रकृत 'कहाकोसु' के अपभ्रंश काव्यों से भगवान् महावीर के चरित्र को संकलित कर उसे 'वीरजिरिगद चरिउ' के रूप में डा० हीरालाल जैन ने हिन्दी में प्रस्तुत किया ।
संस्कृत के मूलकवि अग द्वारा रचित 'वर्षमान पुराण' का हिन्दी अनुवाद पं० पन्नालाल साहित्याचार्य ने किया ।
अपभ्रंश के महाकवि रघू के 'सम्मईजि चरिउ' के हिन्दी अनुवाद का श्रेय डा० राजाराम जैन को है ।
पं० बेचरदास जीवराज दोशी ने हिन्दी में 'वियाहपतिसुत्त' को प्रस्तुत करके ऐतिहासिक कार्य किया है। इस सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा किये गये
भगवान महावीर से छत्तीस हजार प्रश्नों
के छत्तीस हजार समाधान श्राकलित हैं, जिनसे न
ני
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-108
केवल भगवान महावीर की प्रत्युत जैन दर्शन की विशालता तथा प्रामाणिकता सिद्ध हो जाती है ।
कतिपय हिन्दी कवियों ने महावीर स्वामी के व्यक्तित्व तथा सिद्धान्तों से सम्बन्धित सूत्रों का सुन्दर-परस अनुवाद किया है।
'महावीराष्टक' के द्वितीय श्लोक का अनुवाद भवानी प्रसाद मिश्र की लेखनी द्वारा अमर हो गया है—
कांख में जिनके नहीं है लाल डोरे भक्त मन के निकट
प्रकटित द्वेष लव जिनके निहोरे
एकटक, कमलाक्ष, स्फुट मूर्ति प्रशमित, नित्य-निर्मल
नयन-पथ से हृदय से आयें, पधारे वे अचंचल |
भगवान् महावीर के निर्वाण के पच्चीस सौ वें वर्ष के उपलक्ष्य में राजस्थान के एक किसान-कवि बशीर अहमद 'मयूख' ने श्रमरण- सूक्तों का अनुवाद कर 'अर्हत' नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया है । 'व्यवहार भाष्य' के सैंतालीसवें पद्य में 'अनेकांते'सबै वि होति सुद्धा
न
सुद्धो नयो उसढ्ढाणे ||
को उन्होंने यह हिन्दी रूप प्रदान किया है
चितन की प्रत्येक दृष्टि
अपने विचार के केन्द्र पर
होती शुद्ध प्रबुद्ध विविध मतों का कोई भी नय चितन के प्राधार पर
होता नहीं अशुद्ध ।
गद्य साहित्य में महावीर
भगवान् महावीर स्वामी के जीवन तथा दर्शन को लेकर हिन्दी में विशाल गद्य साहित्य लिखा गया है जिसके तीन भाग मिलते हैं-
(3) ललित साहित्य (ख) समीक्षात्मक साहित्य (ग) पत्र-पत्रिकाए
(क) ललित साहित्य इसके अन्तर्गत नाटक, उपन्यास तथा कहानी की विधाएं प्राती हैं।
नाटक : स्वर्गीय ब्रजकिशोर 'नारयण' ने 'वर्द्धमान महावीर' न मक श्रेष्ठ नाटक लिखा है । इसका आख्यान श्वेताम्बर जैन ग्रागम पर श्रावृत है । यह रंगमंचीय नाटक है। इसकी समस्त घट - नाएं दृश्य हैं। इसके अभिनय में अधिकतम दो घण्टे लग सकते हैं । इस नाटक का मूल संदेश श्रहिंसा-पालन है ।
उपन्यास : श्री वीरेन्द्र कुमार जैन ने महावीर स्वामी के सम्पूर्ण जीवन को अपने उपन्यास 'अनुत्तर योगी' के तीन खण्डों में बांध दिया है । इस उपन्यास को लोकप्रियता प्राप्त हुई है। जहां प्रथम खण्ड में 'वैशाली का विद्रोही राजकुमार' है तो द्वितीय खण्ड में 'असिधारा पथ का यात्री' । उपन्यासकार ने दुनियां में सर्वप्रथम एक शुद्ध सृजनात्मक प्रयास द्वारा भगवान् महावीर को पच्चीस सदी व्यापी सम्प्रदायिकता के जड़ कारागार से मुक्त करके उन्हें निसर्ग विश्व - पुरुष के रूप में प्रकट किया है। इस उपन्यास में महावीर का वह रूप भाया है जिन्होंने शासन सिक्के और सम्पत्ति संचय की अनिवार्य मृत्यु घोषित करके, मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य श्रौर वस्तु के बीच नवमांगलिक सम्बन्ध की उद्घोषणा की और प्रस्थापना की ।
कहानी श्री बालचन्द्र जैन के कहानी - संकलन 'आत्मसमर्पण' की कहानी 'मोह- निवारण' में समदर्शी भगवान महावीर के उपदेशों की चर्चा आयी है । इसी संकलन की एक कहनी परिवर्तन' में सम्राट् श्रेणिक के मिथ्याभिमान के चूर्ण होने का आख्यान मिलता है ।
.
(ख) समीक्षात्मक साहित्य : भगवान् महावीर स्वाभी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने वाले हिन्दी में अनेक जैन निबंधकार हैं जिनके सर्वतोमुखी कोटि के तिबंध साहित्य की निधि हैं। इनमें श्री जुगल
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-100 किशोर मुख्तार, मुनि श्री कल्याण विजय, बाबू 'वैशाली के राजकुमार' (डा० नेमीचंद चन, कामता प्रसाद, भयोध्या प्रसाद गोयलीय, मुनि श्री तीर्थकर वर्धमान महावीर' (श्री जयकिशन प्रसाद कांति सागर, प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, पं० खण्डेलवाल), 'भगवान महावीर और उनका नाव शीतल प्रसाद, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री अगर- दर्शन', 'भगवान् महावीर की विश्व को देन' तीर्थचंद्र नाहटा, न्यायाचार्य श्री दरबारीलाल तथा कर भगवान श्री महावीर' (मुनि श्री यशोविजय), महेन्द्रकुमार, सिद्धान्त शास्त्री श्री हीरालाल, श्री भगवान् महावीर के प्रेरक संस्मरण' (मुनि महेन्द्र जगमोहनलाल एवं पं० फूलचन्द, न्यायतीर्थ पं० कुमार कमल), 'भगवान महावीर की 1008 बलभद्र, पं० चैनसुखदास तथा पं० परमेष्ठीदास, सूक्तियां' (राजेन्द्र मुनि), 'भगवान महावीर के व्याकरणाचार्य पं. बंशीधर तथा श्री लक्ष्मीचन्द्र हजार उपदेश' (गणेश मुनि), 'कुण्डलपुर के राजजैन मादि के नाम उल्लेखनीय है।
कुमार भगवान् महावीर' (जयप्रकाश शर्मा), प्राचार्य तुलसी मुनि, श्री जैनेन्द्र कुमार तथा 'तीर्थंकर भगवान् महावीर' (ड• गोकुलचंद जैन), प्राचार्य रजनीश जैन धर्म के हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ 'तीर्थंकर महावीर' । पांच खण्ड (प्राचार्य प्रानंद चिंतक हैं।
ऋषि, मुनि मिश्रीमल अमर मुनि मादि), 'भगवान् इन वर्षों में भगवान महावीर स्वामी पर अनेक महावीर की साधना का रहस्य' तथा 'भगवान् ग्रन्थ लिने गये। भारत जैन महामण्डल के 'जन महावीर के सिद्धान्त (मुनि नथमल) इत्यादि को धर्म परिचय पुस्तक माला' के अन्तर्गत प्राचार्य परिगणित किया जा सकता है। तुलसी (भगवान् महावीर), मुनि रूपचन्द (महा- भगवान् महावीर से सम्बन्धित हिन्दी के वीर, मार्क्स और गांधी), श्री चिमन भाई शाह वाङ्मय को प्रकाशित तथा प्रस्तुत करने वाली (भगवान् महावीर का जीवन दर्शन) और श्री संस्थानों में भारतीय ज्ञानपीठ, अखिल भारतऋषभदास रांका (महावीर- व्यक्तित्व, उपदेश और वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद, सागर, वीर प्राचार्य मार्ग) ने विशेष योग दान दिया है। निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन, समिति, इन्दौर, वीर सेवा
अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों में 'भगवान महावीर : मंदिर, दिल्ली; जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर; एक शनुशीलन' (देवेन्द्र मुनि शास्त्री) 'भगवान् वीर निर्वाण-समिति, मेरठ; प. टोडरमल स्मारक महावीर : प्राधुनिक सन्दर्भ में' (सम्पादक : डा० भवन, जयपुर, दिगम्बर जैन साहित्य प्रकाशन केन्द्र, नरेन्द्र भानावत), 'तीर्थंकर महावीर और धर्मतीर्थ' आगरा; जैन साहित्य प्रकाशन समिति, दिल्ली%3B पौर 'भगवान् महावीर कैसे बने' (ग्रायिका ज्ञान- दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, दिल्ली: मती), 'भगवान् महावीर का दिव्य जीवन' और पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोक संस्थान, वाराणसी; भगवान महावीर के शिक्षा पद' (मधुकर मुनि), जैन इतिहास निर्माण समिति, जयपुर; अखिल 'महावीर-वाणी' (सुपार्श्व कुमार जैन), 'श्रमण भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर; अखिल भगवान महावीर का आत्म विज्ञान' (केशरचद भारतीय दिगम्बर जैन परिषद् दिल्ली; अखिल धूपिया), 'महावीर : युग और जीवन-दर्शन' (डा० भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद्, बड़ौत हीरालाल जैन), 'तीर्थंकर महावीर और उनका श्री तारक गुरू जैन ग्रन्थालय, पदराडा; अमर जैन सर्वोदय तीर्थ' (डा० हुक्मचंद भारिल्ल शास्त्री), साहित्य संस्थान, उदयपुर: भारत जैन महामण्डल, 'भगवान् महावीर' (विपिन जारोली), 'तीर्थंकर बम्बई; सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा; श्री कुन्दकुन्द महावीर और उनकी देशना', 'तीर्थकर महावीर भारती, दिल्ली; जैन विश्व भारती, लाउनू। की प्राचार्य परम्परा (श्रुतबर और सारस्वताचार्य), मादर्श साहित्य संघ, चूरू, भगवान् महावीर 2500
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
22-110
वो निर्धारण महोत्सव, महासमिति, दिल्ली; श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता; "आदि की सेवाए चिरस्मरणीय हैं ।
भगवान् महावीर से सम्बन्धित साहित्य को योजनाबद्ध रूप में प्रकाशित करने वालों में स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन, साहू शांति प्रसाद जैन, प्राचार्य तुलसी मुनि मुनि श्री विद्यानन्द, प्राचार्य रत्न देश - भूषण, श्री ऋषभदास शंका आदि के नाम विशेष स्मरणीय हैं ।
(ग) पत्र-पत्रिकाएँ : भगवान् महावीर के महापरिनिर्वाण के पच्चीस सौ वें सांस्कृतिक अवसर पर हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाओंों ने विशेषांक प्रकाशित किये जिनमें स्तरीय तथा विपुल सामग्री मिलती हैं । इनमें युगप्रधान प्राचार्य श्री तुलसी मुनि के तत्वावधान तथा डा० महावीर गेलड़ा के सम्पादन में जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा प्रकाशित 'तुलसी- प्रज्ञा' को विशिष्ट महत्ता है । इसका प्रवेशांक जनवरी-मार्च, 1975 में प्रकाशित हुप्रा ।
अन्य पत्र-पत्रिकाओं में 'तीर्थकर' (सम्पादक : 'डा. नेमीचन्द जैन : इन्दौर) के 'निर्वाण अंक' ( नवम्बर, 1974 ) तथा 'वर्द्धमान अक' (अप्र ेल, 1975), श्री अमर भारती (प्रागरा : सम्पादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस' एवं कलाकुमार ) के दो पुष्पों में 'श्रमण संस्कृति विशेषांक' (मार्च-अप्रैल एवं मई-जून, 1970 ) तथा ' महावीर जयन्ती विशेषांक' (अप्रैल, 1975) 'जैन-जगत' ( बम्बई : सम्पादक श्री ऋषभदास शंका तथा श्री चन्दनमल 'चांद') के 'परिनिर्वाण विशेषांक (नवम्बर, 1974) तथा 'भगवान् महावीर वन्दना विशेषांक' (दिसम्बर - जनवरी, 1975), 'सूत्रकार' (कलकत्ता : सम्पादक : स्नेही श्रात्मा) का 'पच्चीस सौ वां निर्वारण वर्ष : तीर्थंकर महावीर विशिष्टांक' (जनवरी-फरवरी, 1975), 'मालोक' ( कानोड : सम्पादक : बेदप्रकाश पालीवाल तथा सोहन लाल 00 बींग) का 'महावीर निर्वाण शताब्दी एवं
पं० 'उदय' जैन प्रभिनन्दन विशेषांक, (197375), 'मालव प्रहरी' (उज्जैन : सम्पादिका : कृष्णा देवी गुप्ता) का 'वीर परिनिर्वाण विशेषांक' (14 नवम्बर, 197+ ), 'शताब्दी चर्चा ' ( जबलपुर: सम्पादक व्योहार राजेन्द्रसिंह, गणेश प्रसाद नायक तथा शालिगराम नेमा) का 'महावीर जयन्ती समारोह विशेषांक' (1970), 'प्रति प्रवाह' (दुर्ग : सम्पादक : बी० एल० जैन) का 'महावीर जयन्ती विशेषांक' ( 22 अप्रैल, 1975) भादि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
राजस्थान जैन सभा, जयपुर श्री कपूरचंद पाटनी की अध्यक्षता तथा श्री भंवरलाल पोल्याका के प्रधान सम्पादकत्व एवं सम्पादक मण्डल के परामर्श- निर्देशन में प्रतिवर्ष महावीर जयन्ती पर 'महावीर जयन्ती स्मारिका' प्रकाशित करती है जो कि उत्कृष्ट कोटि की है :
भगवान् महावीर पच्चीस सौ वां निर्वाण महोत्सव समिति श्री अक्षयकुमार जैन तथा श्री एल० एल० अच्छा के सम्पादन में अपना मुखपत्र 'वीर परिनिर्वाण' प्रकाशित कर रही है। कानोड़ से श्री विपिन जारोली के सम्पादन में 'महावीर निर्वाण शताब्दी स्मारिका' (24 अप्रैल, 1965) प्रकाशित हुई ।
समापन एवं निष्कर्ष
भगवान महावीर स्वामी ने न केवल हिन्दी अपितु विश्व के साहित्यकारों तथा चिन्तकों को अनुप्रेरित तथा अनुप्राणित किया है । उन जैसा धीरोदात्त नायक प्राप्त कर हिन्दी साहित्य कृतकार्य हुआ है । वैसे ही पूर्व रूप से हिन्दी का जैन साहित्य अत्यन्त विशद रहा है परन्तु भगवान् महावीर स्वामी के महापरिनिर्वाण को ऐतिहासिक बेला में जो हिन्दी वाङ्मय श्राया है वह विश्व साहित्य की अक्षय निधि है । हिन्दी में भगवान् महावीर स्वामी पर लिखित समस्त ललित तथा शास्त्रीय साहित्य को सूचीबद्ध करके उसका विधिवत् तथा व्यवस्थित प्रकाशन होना चाहिए।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रारणी का उद्धार करेगा महावीर सन्देश तुम्हारा
श्री अनूपचन्द न्यायतीर्थ, जयपुर
तुमने ऐसे सूत्र दिये हैं जिनमें जग कल्याण निहित है 'दूर करो रागदि कषायें
इनसे कितना हुआ अहित है हिंसादिक पांचों पापों का निश्चित ही होगा निपटारा ॥१॥
'नहीं सताप्रो किसी जीव को सब में प्राण एक से होते अपनी सुख सुविधा के कारण
क्यों औरों के शूल चुभोते पर पीड़ा दुःखों का कारण, अतः द्वेष से करो किनारा ॥२॥
सत्य अहिंसा पर दृढ़ रह कर आग्रह छोड़ समन्वय लामो स्यावाद और अनेकांत के
दृष्टिकोण को सब अपनायो वस्तु स्वभाव समझ लो पूरा इस ही में उद्धार तुम्हारा ।।३।।
संग्रह करना पाप नहीं, पर परिग्रह की ममता को त्यागो
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
112
इच्छाएं बढ़ रहीं, रोक दो
आशा तृष्णा दूर भगा दों सदा सुखी अपने को मानो आपस में करके बटवारा ॥४॥
"है समान अधिकार सभी को ऊच नीच का भेद हटायो कोई छोटा बड़ा नहीं है
सबको अपने गले लगायो" विश्व-मैत्री पाठ पढायो इस ही में सम्मान तुम्हारा ॥५॥
रूढि अंध विश्वास मिटाकर अब विवेक का दीप जला लो सम्यक् श्रद्धा ज्ञान आचरण
जीवन में पूरा अपना लो सब धर्मों का करो समादर इस ही में कल्याण तुम्हारा ॥६॥
'प्रात्म प्रशंसा पर निंदा तज निज स्वभाव से नाता जोड़ो मोह ममत्व त्यागकर अनुपम
परपरिणति से मुंह को मोड़ो अविनाशी पद पायो इससे मिट जावे संसार तुम्हारा । प्राणी का उद्धार करेगा महावीर संदेश तुम्हारा ।।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान में सबसे ऊँचा शिखर कापरड़ा तीर्थ
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रार्य भट्ट और उन पर जैन ज्योतिष का प्रभाव
वैद्य प्रकाशचन्द्र 'पांड्या' प्रायुर्वेदाचार्य, साहित्यरत्न
पेच एरिया, भोपालगंज, भीलवाड़ा ( राज० )
भारतीय वैज्ञानिकों ने 19 अप्रैल 1975 को अन्तरिक्ष में जिस भारतीय गणितज्ञ के ' नाम से उपग्रह का प्रक्षेपण किया, वे प्रार्य भट्ट कुसुमपुर के ( पटना के पास) रहने वाले थे । स्वयं ने अपने गणितसार की प्रथम श्रार्या में लिखा है
'प्रायं भट्टस त्विह निगदहि कुसुमपुरेऽम्भचितं ज्ञानम् ।'
6
किन्तु, कई विद्वान् इनको वर्तमान कुसुमपुर (पटना) को यह स्थान नहीं मानते । उनका कहना है कि इस प्रान्त में 'आर्य सिद्धान्त' का प्रचार बिल्कुल नहीं है। डा. केर्न ने जिन प्रतियों के माधार पर 'आर्य-सिद्धान्त' को पाया है वे तीनों मलयालम लिपि में थी .......सुदूर दक्षिण भारत में भौर विशेषतः मालाबार प्रान्त में भी इसका प्रचार है। उधर जिन प्रान्तों में तामील मंलयाली लिपियों का व्यवहार होता है, उनमें सौर मान का पंचांग चलता श्रीर वह श्रार्य पक्षीय है ।" इससे अनुमान होता है कि आर्य भट्ट का कुसुमपुर कदाचित् दक्षिण में होगा । इसीलिए कई विद्वान् इन्हें दक्षिण भारत के अश्मक नामक स्थान पर पैदा हुआ मानते हैं ।
श्रापका जन्म समय सन् 176 (शाके 398 ) में माना जाता है । अपने जन्म समय के सम्बन्ध में कालक्रियापाद में उन्होंने लिखा है
' षष्ठ्यद्वानां षष्टियंदा व्यतीतास्त्रयश्च युगपादाः ।' अधिका विंशतिरद्वास्तदेह मम जन्मनो तीता ।" इससे वे तीन युगपाद और 3600 वर्ष बीतने के समय 23 वर्ष के हो चुके थे। पर, उनका यह समय होना ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि, ये वराहमिहिर के पहिले हो चुके थे । वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थों में इनका उल्लेख किया है । वराहमिहिर को ई. पू. 123 से ई. पू. 41 में होना विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। 2 उस हिसाब से ई. पू. 123 से पहिले या उसके श्रासपास प्रापका समय होना चाहिए। परन्तु अकाट्य प्रमारणों के प्रभाव में निश्वित नहीं कहा जा सकता । श्रार्यभट्ट पर जैन- ज्योतिष का पूर्ण प्रभाव था । उन्होंने कालक्रियापाद में युग के समान 12 भाग करके पूर्व भाग का उत्सर्पिणी भोर उत्तर भाग का अवसर्पिणी नाम बतलाया है तथा दोनों के सुषमा, सुषमा- सुषमा प्रादि छह-छह भेद बताये हैं
'उसरणी युगार्द्ध पश्चपादवसर्पिणी युगार्द्धच । मध्ये युगस्य सुषमाउउदाब है दुःषमाऽन्यं शात् ॥
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-114
जैन मान्यता में ही कल्पकाल के दो भेद उत्सपिरणी मोर अबसपिणी करके प्रत्येक छह-छह भेद किये गये हैं अन्य वैदिक मान्यता में ऐसा नहीं है।
___ भार्यभट्ट को प्रथम गणित एवं ज्योतिष का विद्वान माना जाता है किन्तु, उनसे पूर्व ही अन । मान्यता के ग्रन्थ सूर्य प्रज्ञप्ति (ई. पू. 365). चन्द्र प्रज्ञप्ति (ई पू. 365), गर्ग संहिता (ई. पू. 5000 से ई. पू. 300), ज्योतिषकाण्ड इत्यादि में ज्योतिष शास्त्र की अनेक महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों के अवलोकन करने से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि मेयन, मलमास, नक्षत्रों की श्रेणियां, सौर मास, चन्द्रमास, प्रादि का विवेचन हो चुका था। इससे भी अधिक प्राचीन और यथार्थ भौगोलिक एवं गणित सम्बन्धी 'दीवसागर पण्णति' ग्रन्थ है जो अवश्य ही 400 ई. पू. से पहिले रची गई होगी। यद्यपि प्राज यह कृति अनुपलब्ध है, तथापि बाद की अनेक भूगोल सम्बधी कृतियों में अनेक बार इसका सन्दर्भ दिया गया है। जैनाचार्यों के ग्रन्थो में गणित के अनेक ऐसे मौलिक सिद्धान्त निबद्ध है, जो भारतीय गणित में अन्यत्र नहीं मिलते। उपलब्ध जैन साहित्य भले ही इतना प्राचीन न हो, पर उसके तत्व मौखिक रूप से खरबों वर्ष पहिले विद्यमान थे। बल्कि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो जैन ऋषियों और मुनियों द्वारा ही सर्वप्रथम ज्योतिष विषयक प्रत्येक विषय पर प्रकाश डाला गया था। जैन मान्यता के अनुसार द्वितीय कुलकर ने नक्षत्र विषयक शकानों का निराकरण कर अपने युग के व्यक्तियों को प्राकाश मण्डल की समस्त बातें बतलाई थीं। अक्षर संकेतों द्वारा संख्या की अभिव्यक्ति प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार में स्पष्ट उपलब्ध होती है । छेदागम और चूणियों में भी यह प्रणाली है जिससे अंकों का परिज्ञान होता है।
. आर्य भट्ट को प्रथम व्यक्ति कहा जाता है जिन्होंने जीवा के फलनों का पता लगाया तथा ज्योतिष में इनका उपयोग किया । किन्तु, आर्य भट्ट के प्रार्यभट्टीय ग्रन्थ की टीका करने वाला। भास्कराचार्य (प्रथम) ने अपनी टीका में किसी प्राचीन गणित ग्रन्थ की तीन गाथाएं उद्धृत की है। 'इस टीका की प्रति मैसूर राज्य प्राच्य पुस्तकालय बगलोर में बतलाई जाती हैं। ये तीनों गाथाए भास्कराचार्य ने 'प्रार्थभट्रीय'के गणितपाद के दशव श्लोक की टीका में दी हैं। उनमें पहली दो जाम निकालने और वृत्तांश का क्षेत्रफल निकालने का नियम बताती हैं और तीसरी 'करणों (Surds) में जोड़ने की विधि बतलाती है । इनमें से प्रथम गाथा- .
_ 'योगाहरण विक्कम्भं एगाहेण संगुणं कुर्यात् । . , ... चन्द्रमणियं अस्स तु मु म (स) ? सा जीव्वा सकरवताणात । . अर्थात् व्यास में गहराई (वाण) को घदा के, शेष में गहराई से गुणा करो, गुणनफल। 'चौगुने का वर्गमूल वृत्तांश की जीवा होगी।
दुसरी गाथा; ...
'इसुपाय गुण जीवा दसिकरणि भवेत वि गाणि पदं । .
___ धनुह अस्मिं खत्त एवं करणं तु दा अन्नम् ॥' ' अर्थात् जीवा को बाण के चौथाई और पक्ष के वर्गमूल से गुणा करने पर वृत्तांश क्षेत्रफल आता हैतीसरी गाथा---
'मो वठ्ठि प्रदस्त कण, इमूल समासस्स मोत्थवत् । प्रो पठ्ठपामगणिय, करणि समासं तुणा मव्वम् ।।'
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् जिन करणि संख्याओं को जोड़ना हो उममें किसी उपयुक्त संख्या का भाग देकर, भाय. फलों के वर्गमूलों को सामान्य रीति से छोड़ दें और योग में उपयुक्त संख्या (भाजक) का गुणा करो तो करणियोग पावेगा।
भास्कर (प्रथम) (ईसा की छठी शताब्दी के पूर्वाद्धं के विद्वान्) द्वारा उद्धृत तीनों गाथाए बड़े महत्व की हैं। जैन धर्म के ग्रन्थ अधिकतर प्राकृत में ही हैं। और ये गाथाएं किसी गरिणत जैन ग्रन्थ की होनी चाहिए । जो कि 'आर्यभट्ट' से पहिले की ही होने की सम्भावना है। "
आर्यभट्ट ने अपने आर्य सिद्धान्त के गणित पाद में गणित सम्बन्धित प्राएं दी हैं। उनमें दशगुणोत्तर संख्याओं के नाम, वर्ग, धन, वर्गमूल, त्रिभुज, वृत्त और अन्य क्षेत्र, इनके क्षेत्रफल, धन, गोल, इनके घनफल भुजज्यासाधन और भुजज्या सम्बन्धी कुछ विचार, पैराशिक, भिन्न कम (प्रपूर्णांक)
राशिक अथवा बीज गणित सम्बन्धी दो एक उदाहरण आदि दी हैं। प्रार्यभट्ट से पूर्वी जैन नथ धवला टीका, तिलोयपण्यत्ति आदि ग्रन्थों में संख्यामों के स्वरूप, नाम, अक्षर सकेलों द्वारा संस्थानों की अभिव्यक्ति, वर्गमूल, बृत्त, त्रिभुज आदि सभी गणित विषय पाए हैं। इनमें कुछ को डा. नेभिचन्द्र शास्त्री ने जगाचार्यों द्वारा प्रस्तुत 'गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उद्भावनाएं" लेख में "उदधत की हैं।10
..
.. आर्यभट्ट का आर्य सिद्धान्त प्रायः दक्षिण भारत के मालावार प्रांत में ही अधिक पाया जाता है । जिस क्षेत्र में तामील एवं मलयालम भाषा का प्रचार है। इसी क्षेत्र दक्षिण भारत में जैनाचार्य कुंद कुद (ई. पू. 8 अथवा वि. सं. 49) भी हुए थे। ये भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य थे 11 भद्रबाह द्वितीय भी दक्षिण में ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी के बाद पाकर बसे थे और उस समय मैसूर में जैन लोग फैल गये थे । भद्रबाहु ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने ज्योतिष के 'नैमित्तिक शास्त्र, भद्रबाहु संहिता' उपसर्गहर स्तोत्र, दशाश्रु तस्कंध, प्रादि ग्रन्थों की रचना की थी। इनसे भी पूर्व ई, पू. 600 से ई. पू. 300 के पास पास गर्गाचार्य भी हो चुके थे जो कि जैन मालूम होते हैं ।
इस प्रकार चाहे आर्य भट्ट ने अपनी ज्योतिषी गणना करके यह प्रथम प्रगट किया हो कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य के चारों ओर घूमती है, पर उनको प्रथम भारतीय गणितज्ञ मान लेना ठीक नहीं लगता। यह अवश्य है कि उन्होंने ज्योतिष गणित को परिशोधित परिमार्जित किया और कुछ मौलिता भी दी। पर, उनको ज्योतिष गणित के निर्माता नहीं कह सकते। यह निश्चित है कि उन्होंने जैनाचार्यों के उपलक्ष ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य किया होगा और उन पर मनन भी किया होगा। जो उनको अच्छा लगा होगा-उसे स्वीकार किया होगा। उन्होंने स्वयं ने 'आर्यभट्टीय' iv, 43' में कहा है-'मैंने ज्योतिष सम्बन्धी सच्चे-झूठे सिद्धांतों के समुद्र में गहरा गोता लगाकर अपनी बुद्धि रूपी नौका के माध्यम से सद्ज्ञान की मूल्यवान विभाजित मणि का उद्धार किया है।'
1. ज्योतिष विज्ञान जनवरी फरवरी 60 पृ. 15 2. देखिए 'कादम्बिनी' दिसम्बर 69 में प्रकाशित लेखक का लेख वराहमिहिर का काल निर्णय
एवं 'वेद-चक्षु' सम्पादक केदारनाथ प्रभाकर पृ. 71 से 79 तक।
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
2-118 3. देखें 'वेदांग ज्योतिष की भूमिका' भाग पृ. 1-26 तक डा. श्याम शास्त्री 4. डेवेलपमेण्ट प्राफ ज्योग्रफिक नोलेज इन एंशेंट इण्डिया'-प्रो. माया प्रसाद त्रिपाठी पृ. 324-325 b. भारतीय ज्योतिष पृ. 72 लेखक डा. नेमिचंद्र शास्त्री 6. विस्तृत जानकारी के लिए देखें-बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ में प्रकाशित लेखक का लेख
'जन ज्योतिष के प्राचीनतमत्व पर संक्षिप्त विवेचन पृ. 221 से 232 तक 1. त्रिलोकमारगाथा 799 8. 'अन्तरिक्ष युग के प्रणेता पार्यभट्ट प्रथम शुकदेव प्रसाद 'विज्ञान प्रगति' जुलाई 75 पृ. 199 9. एक लुप्त जैन गणित ग्रन्थ-'जैन दर्शन' पृ. 146-42 दिसम्बर 1936, ले. विभुतिभूषण 10. महावीर जयंति स्मारिका सन् 1968 पृ. 198 से 216 तक 11. भगवान कुदकुदाचार्य ले. श्री बाबू भोमानाथ जैन पृ. 16 12. प्राचार्य गर्ग और उनका समय -लेखक का लेख 'ज्योतिष-बोध' दिसम्बर 1973
पृ. 18 से 20
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
RECEEEEEEEEEEET
AGGRESSKOEKOEGEGEVECHE
ख ड
-
राजस्थानी भारखा री रचनावां
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाली आमा भगवान महावीर
राजस्थानी भाषा
भगवान महावीर -श्री भंवरलाल नाहटा
थर थर धूज्यो इन्द्रासण जद,
शकेन्द्र चित्त शंका लाई । उपयोग ज्ञान रो दे जाण्यौ,
प्रभु वीर जनम वेला आई ॥१॥
तीन लोक रा नाथ पधारमा,
सिद्धारथ राजा रै घर । . . घण्ट , वजायो कोड धरण,
आवो सिगला मिल मेरु शिखर ।।२।।
दाई रो काम करयो सिगलो,
छप्पन दिस कंवरया मिल साथै । . चौंसठ इन्द्रां अभिषेक कर्यो,
पाण्डुक वन सिल डुगर माथै ।।३।।
मोक्षार्थी जन मन हरख घणो,
___संजम लेवा नै ऊमाह्या । खत्री कुण्ड में बंटे वधाई,
पयनमी हुवा राणा-राया ॥४॥ पाखण्ड घणो फैल्योडौ हो,
आत्मा नै भूल्या बैठा हा ।। जज्ञां में हिंसा घणी घणी,
नर पाप करण नै सैंठा हा ॥५॥
ढांढां ज्यू बिकती ही दास्यां,
हौ छूया छूत रौ भूत घणौ । दम घुटतौ नारी जाती रौ,
पर त्रास पवितौं जणी जणौ ॥६॥
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
करुणा रा सागर उण वेला,
प्रभु तीन ज्ञान रा धारी हा। पर भरी जवानी राज त्याग,
संकल्प स्व-पर उद्धारी हा ॥७॥
एकेला लांबी तपस्या में,
विचरचा प्रात्मा रौ ध्यान करयो। बारै वरसां उपसर्ग परीसा,
सह, केवल दर्शन-ज्ञान धयो॥८॥
प्रात्मोद्धार करण खातर,
सिगला प्राणी है इधकारी । .. बार परखद में आ सुणता,
उपदेश तीन गत रा धारी ॥६॥
अनादि काल जड़ संग रातो,
अज्ञानी चौरासी भटकै । . कर भेद ज्ञान जड़ चेतन रौ,
ज्यू च्यार गति में नहीं अटकै ॥१०॥
सर्वज्ञ प्रभू जगबोध दियो,
ताचा लाखू भवि प्राणी नै । त्रिकाल अबाधित अनेकान्त,
मय, नमो भंवर जिनवाणी नै ।।११।।
दीवाली दिन पावापुर में,
निर्वाण हुयो जग तारक रौ। पच्चीस सईका पूरीज्या, ___ हिंवडै में पुन प्रतिष्ठ करौ ।।१२।।
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
कठपुतली
● दिखाश्रो पेलो,
O
-कठपुतली रो तिबारीनुमो मंच, ग्राणंदी अर कपूरी दो पुतल्यां मंच पर श्रावं, श्राणंदी रे नीचे में घाघरो पर ऊपर अंगरखी, दाड़ी मूछां ने हाथ बांक्यो. कपूरी जनानी वेश में, गला में ढोल लटकायो थको. दोई बाजा प्राणंद मंगल रा सूचक. प्राणंदी- (बांक्यो बजाता हुआ ) हां भाई सुपो. कपूरी - ( ढोल ढमाकती थकी) हां बाई सुणावो. श्राणंदी - कूण बाई ?
कपूरी - कूरण भाई ? प्राणंदी - श्रठे कोई बाई नीं
कपूरी- अठे कोई भाई नीं
प्राणंदी-धू करण
?
कपूरी-ढम ढम ढम ( ढोल बजावै) पर थू ? प्राणंदी - पुहू हूं हूं (बांक्यो बजाव) कपूरी - वाह वाह. जस्यो थू वस्योइ थारो बाजो
प्राणंदी - म्हारा में कई खोट ?
!
पूरी हूं राईसोट:
म्हारो बांक्यो करदे थारे ढोलम
पोलम पोल (नेड़े जार कूणोऊ कपूरी ने
गरगलावे )
कपूरी - थारे बाक्ये बांक धरणी है
थू भी बांको बांकी
मरदपणा में धाल घाघरो
क्यू मचल्यो थू डाकी ( ढम ढम )
परभु पालणिये
डॉ० महेन्द्र भानावत
प्राणंदी -राणी तिसला सुपना देख्यो अरथ बतायो मोटो महावीर जलमेगा तो फेर
की बात से टोटो, ( पूहूं पहूं ) कपूरी - म्हारा सोगन सांची केव ? प्राणंदी - थारा बाप की सोगन, म्हैं तो सांची ही केतां श्राया, झूठ बोलणो ने जंजाल पालरणो बराबर समझा.
कपूरी- ओर कई सुण्यो. पूरी बात तो करो बेटी
का बाप.
प्राणंदी - म्हैं तो कुंवारा हां, भखन कुंवारा, जलम कुंवारा, सुपनां तो म्हांभी घरणाई देखां पर पिंडत केंवे के थांरे सुपना रो फल नीं आवे
कपूरी- कई सुपनो प्रायो ? वोलो तो म्हूं बता
फल.
आणंदी - सूपनो घणो गेहरो है. कपूरी - सुणावतो.
श्राणंदी - ले सुरण (गावे)
सूतो छो करवट फेर ने म्हने धीरासू प्रायो रे जंजाल सुपना में म्हांने कपूरी मिलाद्यो रे. ( हूं पुहं पुहूं) कपूरी- कपूरी श्राप बी सुपनो ई लेर जीवे म्हारा सेंग सुपना कपूर बरण हाथ सू जातारिया. अबे म्हने तो यो संसारई सुपनो लागबू
करें
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाणंदी-म्हारो तो एकई सुपनो के कदे कपूरी म्हारं मांडरी, सुबै रो टेम. लुगायां पां पड़ोस में सुपना
कनै कनै कबूतरावें पर कदे म थारे गावा रो तेड़ो दे. राणी तिसला रा सुपनां री नेड़े नड़े नुगराऊ (हंसे) मात तिसला ने घर-घर में गूज. तो केई सुपना, एकऊ एक बड़ चड़ ने, एक हवेली में कंकू केसर रा पगल्या मंडाया. बधावा ले लेर ने पाया.
तिसला रा सुपना जाणे सेंग घरां रा सुपना, व पूरी दाई आया ? कूकर आया ? केवो तो गोरियाँ हरखं उमाव जाणे वणां ने खुद ने सुपना - म्हागो बी किल्याण हो जावे.
माया. कांई टाबरटुबर भर दूजा रणीधरणी सब प्राणदी-किल्याण तो उरण पिंडत म्हाराज को फूल्या नीं माने. लुगायां रो झूमको सुपनो उगेर्यो.
होग्यो ज्यां वीयां सुपना रा प्ररथ बताया, सुपना जो पाया राणी लिसला ने भाया कांई व पूरी .... कांई किल्याण हुयो ?
राजा हरख बधाविया जी कोई सुपना जो प्राया. आगादी-सुयी के राजा प्रापरी मोत्यां री मदड़ी चांद सूरज धजा लिछमी जो देख्या
अर राणी प्रापणे गला रो नोसर हार कांई रणजण घंटा बाजे जी कोई सुपना जो प्राया पिडत ने दे दीधो.
सुपना जो पाया राणी तिसला. कपूरी-पिंहत रो भाग जागियोः सपना जद सागे- पदम सरोवर सिंघ बैल जो देख्या साग फलेगा तो पिंडत रा घर प्रांगणांई
कांई ऐरापत राखे जी कोई सुपना जो पाया, मोत्यां सू भरजाई.
सुपना जो माया राणी तिसला.... .... प्रागांदी-पिंडत घणो जबरी सुण्यो. फल भी बताय धनभाग राणा ने बड़
धनभाग राणी ने बड़ भाग राजा दीनो के नम्मे मीने राणी जी कोई काई राज तुमारो गाजे जो कोई सुपना जो पाया. म्हापरूस ने जलम देवेगा, प्राखा सेंसार सुपना जो प्राया राणी तिसला............ में पापणो नाम अम्मर करेगा. वो बड़ो
हवेली रे बारणाऊ एक चमारी जावे जा तपवालो तेजस्वी, ग्यानी अर वीर महावीर लुगायां री प्रणी मीठी बोली ने सुण ऊबी रे जावे, हवेगा, चारूमेर जठे जावो वठे याई बात सुपना रो गीत पूरो वे जावे जदी वा वठं प्रापरे लोग लाडू बांटरिया पर हरख मनायरिया
___घर जावे पर मन में सुपना री राग पर बोल
मस्या बेठग्या के वा गायकी छुटे नी. घरे पोंच के.पूरी-~लो चालो यो रंग फेर देखवा में नी आवेगो आपणा घर वाला ने उठावे पर सुपना की बात पाणंदी-चालो चालो ल्याई टीक रेसी.
बतावे. (कपूरी अर आणंदी दोई अपणा बाजा बजावता चमारी-प्राखी दुनियां जाग गी पण माने अंधारोई धका जाव)
दिखे. प्रवे तो उठो करमेतां (उठावती यकी) दिखावो दजो.
घरवाला-(प्रांख्या मसलतो) क्यू माथो खावे है. - कुडपुर रो हर गली मोहल्लो छगन मगन.
दुनियां तो पाखी बोपी वे जावे तो हा घरां में चितेरा दीवालां पर ऐरापत, चांद,
वे जावे म्हाऊ लारे मरणी को आवेनी. सूरज, लिछमी, धा, कलशकूडा, रणजण घंटा, चमारी-पाखी उमरई सूती काड़ो भला भाग पर पदम सरवर, विवाण, सिंध, बलद जस्या चितगम थाने ठा है के नी राणी तिसला जी ने मांडीर्या, मोटा घरों में ववु लाड्यां आपणां घर- घणा माछा सुपना पाया. हवेल्यां में भारणा लीपरी पर छोर्यो दणां पर नान्हा नान्हा डावड्यां कई रूफलः सुपना गाई री ही. बाँद सूरज, चिढ़कल्यां भर पगल्या । मांडणा वे न वे म्हंई म्हारे प्रांगणे सुपना गवाऊ,
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्हारे घर पवित्तर कराऊं ने धोबो धोबो पतायां बांटू.
घरवाला - एक प्राधी कड़ी तो म्हानं सुरगादे लुगायां रा गीत तो लुगायां गाई म्हानें तो उठने चोवटे जाणोंई पड़सी. चमारी- क्यू चोवटे जावो. भगवान रा भगवानां रा सुपना सब कोई सुणो गावो लुगायां गावावाला रो फल बतावी री हो. धरवाला - तो बतावेनी मालकण. सुरणबानेई तो म्है म्हारो सुपनो तोड़यो. चमारी तो सुणो. (गावे) सुपना जो प्राया राणी तिसला ने श्राया
कांई राजा हरस बघाविया जी कोई सुपना जो प्राया सुपना जो गावे ज्यांरो वेकु टवासा नी तो अजगर से अवतारो जी कोई सुपना जो
श्रीया.
सुपना जो प्राया राणी तिसला गावावाली ने चूड़ा चूदंड कांई
जोड़णवाली ने रूपो जी कोई सुपना जो प्राया. घरवालो - गावा ने जोड़वा वाला रो फल तो सुण्यो पर सुरणवावाला ने कई फल नी बतायो, एक एक सबद अमरित री धार ज्यू है. म्हारो तो जलनई सारथक इग्यो. आखी जिनगानी जरबा गांठवा में फूंक दी.
चमारी-मनक तो मिनकोड़ा वेबू करे केई बार कयो थांने के वेटी का बापां नेमधेम राखबू करो, चोखो सुगा र चोखो सुगावो पण जरवा रे ठोड़ श्रापरी जबानई जरबो बरणाय लोधी.
घरवालः - अकल दोरी आबू करे मंगली ने गंगली ने गंगा र सबने बुलावो, घर लीपावो पूजावो पतावो श्रर गीतां की गंगा चल वो. म्हूं बजार जार भाऊ कई पतास्यां र खोपरा लेर सरनाट करतो पाऊ
(जावे)
● दिखावो तोजो.
राजम्हेल. दास्यां सोनाबाई रूपाबाई महावीर ने संपड़ाई धुपड़ाई ने काजल टीका करें हाथां पगां पर मामा मांड़े. जरी मखमल रो भगलो, कसीदो काड़ी कछु छ र लालां मोती झड़ी टोपी पेरायने पालरगा में सुलाये दे. परबात की वगत. महावीर रोवे घरणां जदी कदेई सोनाबाई माड़ा लेवे तो कदेई रूपाबाई आपरे खांदेलेरे थपक्यां देवे. मन पड़े तो सो जावे र मन पड़े तो टग्गी पकड़ले जद दोई दास्यां मल ने महावीर ने पालणे सुलार हींदो देवे अर पालखियो गावे. पालगियो पंखी पड़ियो । रतना सू रूड़ो जड़ियो । श्रर सोनारी सांकल कड़ियां श्रो महावीर परभु भूलो पालखिये भूलो. रेसम डोर बलिया । घड़ियो भो महावीर परभु भूलो पालखिये भूलो. । झांझरिया रूड़ा राजे । परभु चाले चतराई सू ठमके प्रो महावीर परभु भूलो पालणिये भूलो. परभु ने नोंद प्रा जावे. सोना रूपा छानेकऊ परी जावे.
कोई पांव पायल बाजे
कोई तार तार तबिया । अनेकुई कारीगर
3-5
● दिखावो चोथो ०
महावीर कोइ आठेक बरसरा हुआ, संझया री वगत श्रापणे दास्तां रे लार म्हेल कने वाड़ा में जार आमलकी खेल खेलरया. इस खेल में एक खास ठोड़ऊ रूंकड़ा पर जो पेलपोत चड़जावै वो जीत पर हारया ने घोड़ी बरणार सवारी करे घर ठोड़ पोंचे जरण ठोड़ऊ खेल सरू वे. पीपल रो रूक. महावीर प्रापणे साथियां ने इरण खेल की सारी बात समझाय ने बोल्या के ज्यु ई म्हूं "एक दो भागा भो' केऊ के प्रठेऊ दोड़ र पीपल पर चड़जाणो है. महावीर सब त्यार वे जावो, कमर कस लो सावचेत रीजो गेला में कठेई पड़ जावोला तो धूल मेरा वे जावोला घोडा फूटेला अर कीड़ी रावले चली जावेली.
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-6
दोस्त - चन्त्या ना करो । सब रेड्डी हां । थांगे भागा भो कंवारी जेज है । महावीर - तो म्हूं बी त्यार हूं । लो एक र ये दो ।
दो केतांई तो सेंग भागता बण्या । जद महावीर मुस्काया ।
महावीर - एक दो मेई क्यूं रवाना हो रे । भागा भो बिना भागोला तो कई अरथ नी पटेला । चालो पाछा ठकारणे ।
दोस्त - हां प्राग्या ठकारणे । अब पूरो ध्यान राखसां ।
महावीर - एक दो श्रर भागा भो ।
सब दोडया पर महावीर सबऊ प्रागे जा पोंच्या । पीपल री पांचमी डाली पर ठेठ ऊपर चड़ ने डाली खड़खड़ाई भर हूत करतां नीचे कूदग्या |
दोस्त वीरां में वीर थांई महावीर हो । म्हैं तो थांगे देखने चकचकाय हो गया । महावीर - यो तो घणो सोरो काम हो । डरपो क्यू ? छोटा कामऊ ई जो डरपवा लाग जाबोला तो आगे कई करोला ।
.....
दोस्त - थांणी बरोबरी तो कदेई को कर सक न । लो अबे म्हा बणा घोड़ी पर थां करो सवारी |
महावीर एक-एक करने सबरी घोड़ी बणाय सवारी करे। पीपलऊ भागा भो रे ठिकाणे तांई बैठ्या जावे, बैठने ऊपर थोड़ा हाले कूदे श्रर श्रामलकी गीत बोले
आमलकी भाई आमलकी चालरे घोड़ी चामलकी । घामलको रो कई निसांरण भींत भड़ाको खूंटो ताण । अबकी सबकी ग्रामलकी जी जाणे प्यारामल की । प्यारामल की री जइगां जंडे ऊपरे
करे भंडोई नाम लियो जावे । डा
सवारी चुकाय एक
हाई फेर चाली । महावीर रे भागा भो केवतांई सब दोङ्या पर फेर सब पाछे रेहग्या अर म्हावर ऊपर डाल पर जाई पोंच्या । प्रतराक में छोरा ने एक कालो कलूटो सांप नजर प्रायो. सांप जीब लपलपावतों, फणकारतो थको देखतांई छोरा तो रफ्फू चक्कर ब्या । प्राधा गाबा तो वठेई रेइग्या । वणी एक पगरखी पेरी तो एक वठेई छूटगी । महावीर सांप ने देख न या धमक्या न चीख्या चिल्लाया । श्रर वने पकड़र फेंकदीधो । सांप प्रापरो गेलो लीधो ।
महावीर री या करामात सोनाबाई, रूपाबाई देखरी जी वांने धणी देर वियां घरे नीं देख र जोबाने वठीने आई परी । महावीर जद वठू जावा लागा तो सोनाबाई रोक परा र बोल्या । सोनाबाई - कंवरा, घंटा दो होवरण आया ।
आखाई म्हेल रा खुणा ढूंढ़ मार्या । पगां रो पाणी हुयो जो हुयो पर श्रपरे नी मिलबाऊ रोवरणपत होयगी । महावीर - हें कोई नानो टाबर हूं जो कठेई धूम जाऊ लो । पाली में हुलराय हुलराय नेथां म्हने निडर बणाय दीधो ।
सोनाबाई - प्रापरी जूत्यां रो होड़ बी नीं कर सकूं कुंवरजी । श्रपरो मालकपरणो है के भाप भसी बात केवो ।
महावीर - मूं झूठो व तो पूछलो रूपाबाई ने । aa feड़ा है |
सोनाबाई - आपने कूकर पतो लागो ?
महावीर फेर वाई बात करो । हालरिया हुलरिया में थां कई बातां नी जतलाई ? थारणां जसी बायां सब बालकां री दायां वेवे तो कांई केवरणो ?
रूपाबाई
-पाछला जलम रा म्हारणा प्राछा परताप के प्रापरी सेवा करवा रो मोको मिल्यो । या बात कर सोना रूपा दोयां री प्राख्यां सूं प्रसूड़ा ( पड़दो बंद)
डरक पड़ या ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन धरम साधना रो धरम है। प्रो अनादिकाल सू कलुषित प्रात्मा र अशुद्ध रूप नै दूर कर' र शुद्ध रूप रो प्राप्ति रो मारग बतावै । सापक नै संसार रे बंधण सूमुक्ति हुवण खातर आत्मा री शुद्ध पर अशुद्ध स्थिति पर उणरै कारणां रो ज्ञान जरूरी है । ओ ज्ञान तत्व ज्ञान कही।
महावीर रा
दर्शन मैं तत्वचिन्तन
नौ तत्व:
जैन दर्शन में मुख्य तत्व नौ मानीज-(1) जीव (2) अजीव (3) पुण्य (4) पाप () प्रास्रव (6) बंध (7) संवर (8) निर्जरा पर (9) मोक्ष । इणांरो परिचय इण भांत है
1. जीव तत्व।
___ जीव तत्व रो लक्षण उपयोग-चेतना है। जिणमें ज्ञान पर दर्शन रूप उपयोग है, वो जीव है । जीव चेतन पण कहीजै । इणमें सुख-दुख. अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि भावां रै अणभव री समता हुवै।
जीव तत्व रा दो भेद हुवे--(1) मुक्त पर (2) संसारी । जो जीव करम मलं सू रहित हुयर शान, दरसन रूप मनन्त शुद्ध चेतना में रमख कर, वो मुक्त पर करमां रै कारण जनम-मरण रूप संसार में मिनख, तियंच, देव पर नारक गतियां में धूमतो रैवे वो संसारी कहीजै । ___ संसारी जीवां मांय सू देव ऊर्ग लोक में, मिनख पर पशु मध्यलोक में अर नारक अघोलोक में निवास करै । मिनख र स्पर्शन (शरीर) रसन (जीभ) घ्राण (नाक) चक्षु (प्रांख) पर श्रोत्र (कान) में पांच इन्द्रियां मन सहित हुवै, इण कारण वो मिनख कहीजै ।
डॉ. शान्ता भानावत
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-8
जीव री पांच जातियां हुने--(1) एकेन्द्रिय, भात जीव भर पुद्गल द्रव्यां रै गति करण में धर्म (2) द्वीन्द्रिय, (3) त्रीन्द्रिय (4) चतुरिन्द्रिय अर सहकारी कारण है । (6) पंचेन्द्रिय ।
क्रियायुक्त जीव पर पुद्गल ने ठहरण में जो __एकेन्द्रिय जीव र सिर्फ एक इन्द्रिय सरीर हुने।
अप्रत्यक्ष रूप सू सहायता देवै वो अधर्म द्रव्य जीव पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति रा जीव एके- पर पुद्गल द्रव्यां ने जबरदस्ती नी चलावै अर नीं न्द्रिय जीव है।
ठहरावै। तो निमित्त रूप सू उणारा सहायक __द्वीन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन (सरीर) अर रसन (जीभ) में दो इन्द्रियां हुने। लट, संख, जोंक
जो सब द्रव्यां नै आधार देवै वो आकास है। मादि जीव द्वीन्द्रिय है।
इण रा दो भेद लोकाकास पर अलोकाकास हुवै। श्रीन्द्रिय जीवां रे स्पर्शन, रसन अर प्राण
जीव, पुदुगल, धर्म, अधर्म, काल भै द्रव्य जितरा (नाक) अं तीन इन्द्रियां हुने। चींटी, कानखजूरा
आकाश में ठहरै वो लोकाकास पर जठे आकास रे आदि जीव त्रीन्द्रिय है।
सिवाय दूजा द्रव्य नी हुवै वो भलोकाकास कहीजे । चतुरिन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन, रसन, पर प्राण
जो द्रव्यो र परिवर्तन में सहकारी हुवै वो चक्षु (ख) में चार इन्द्रियां हुगे। मक्खी, मच्छर
काल द्रव्य कही जै। घंटा, मिनट, समय मादि टिड्डी, पतंगा आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं।
काल राईज पर्याय है।
में जीव पर प्रज'ध तत्व संसार निर्माण पंचेन्द्रिय जीवां रै स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्ष
रा मुख्य तत्व है । संसार अनादि अनन्त है। ई. पर श्रोत्र (कान) में पांच इन्द्रियां हुने । नारक,
री रचना किणी ईश्वर नी करी । मनुष्य, देव, गाय, भैस, कागला, कबूतर प्रादि पंचेन्द्रिय जीव हैं।
३. पुण्य तत्व: 2. अजीव तत्व:
.. पुण्य शुभ करम हुवे पर पाप अशुभ करम ।
में दोन्यू अजीव द्रव्य हैं। शास्त्रीय दृष्टि सूपुण्य जिण में चेतना नी हुवं जो सुख-दुख रो अनु
रा नौ भेद हैं । वी इण भांत है-(1) अन्न पुण्य, भव नी करै वो अजीव कहीजै । अजीव तत्व जड़
(2) पान पुण्य (3) लयन (स्थान) पुण्य, (4) पर प्रचेतन हुने ; सोनो, चांदी, ईट चूनो आदि
शयन (शैया) पुण्य (5) वस्त्र पुण्य, (6) मन पुण्य, मतं भर पाकास, काल आदि प्रमूर्त जड़ पदार्थ ।
(7) वचन पुण्य, (४) काय पुण्य पर (9) नमअजीव तत्व है । अजीव तत्व रा पांच भेद हुवै
स्कार पुण्य । अर्थात अन्न, पाणी, औखध प्रादि रो (1) पुद्गल, (2) धर्म, (3) अधर्म (5) प्राकास
दान करणो, ठहरण खातर जग्यां देवणी, मन में पर (काल)। ।
पाच्छा भाव राखणा, खोटा वचन नी बोलणा, जिण में रूप, रस, गंध पर स्पर्श हुवै । जो
सरीर सूपाच्छा काम करणा, देव गुरू नै नममापस में मिल'र आकार ग्रहण कर ले पर विलग हो'र परमाणु बरण जावै वो पुद्गल है । इणां में
र स्कार करणो में सगला पुण्य करम है। मिलण भर अलग होवण री मा क्रिया स्वभाव स ४. पाप तत्व : हुई। दर्शन री भाषा में मिलण री क्रिया नै पापां रा कारण अनेक हुवै पण संक्षेप में में संपात पर बिलग होणे री क्रिया नै भेद कैवे। अठारा मानी-जे । प्रै पापस्थान पण कहीजे।
धर्म तत्व गति में सहायक हुवै । जियां मछली इणारा नाम इण भांत है-(1) हिंसा (2) भूठ खातर पाणी अप्रत्यक्ष रूप सू सहकारी है, उणीज (3) चोरी (4) अब्रह्मचर्य (5) परिग्रह (6) कोष
-
. pic
.
.HTAustaHANNEL
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-9
बांट।
(7) मान (8) माया (9) लोभ (10) राग (11) ६. बंध तत्व : द्वेष (12) कलह (13) अभ्याख्यान (झूठो नाम सुभ-असुभ करम जद प्रातमा र सागै चिपक लगायो, दोस देवणो) (14) पैशुन्य (चुगली) जागे तद वा अवस्था बध कहीजै । श्रे बंध चार (16) परनिन्दा (16) रति-अरति पाप में रुचि भांत रा हवं- (1) प्रकृति बंध, (2) स्थिति बंध, धरम में अरुचि (17) माया-मृषावाद, (कपट सू (3) अनुभाग बन्ध पर (4) प्रदेस बन्ध। . भूठ बोलणो) अर (18) मिथ्या दर्शन ।
प्रकृति बंध करमां रे सभाव न निश्चित करें। - व्यावहारिक दृष्टि सू आ बात कहीजे के
स्थिति बंध करमा रै काल रो निश्चय करै। अनुपाप करण सू नरक रो दुख मिल, लोक में अपयश
भाग फल रो निश्चित कर पर प्रदेस बध ग्रहण मिल पर निन्दा हुवै । पुण्य करण सू देवलोक रो
करियोड़ा करम पुद्गलां ने कमबेसी परिमाण में सुख मिलै, अर लोक में यश, सन्तान वैभव पादि री प्राप्ति हुदै । पण पूर्ण मुक्ति रै मारग पर बढ़रिणवा साधक खातर पाप पर पुण्य दोन्य हेय हैं। ७. संवर तत्व : सुभ-असुभ ने छोड़'र सुद्ध वीतराग भाव में रमण . करम रे प्रावण रो रास्तो रोकणो संवर है । करणोइज अध्यात्म रो लक्ष्य है।
संवर प्रातमा री राग-द्वेष मूलक असुद्ध वृत्तियां ५. प्रास्रव तत्व :
ने रोके । संवर रा पांच भेद इण भांत हैपुण्य-पाप रूप करमा रै भावण रो गस्तो (1) सम्यक्त्व-विपरीत मन्यता की मास्रव कही । प्रास्रव रा पांच भेद इस भाँत
राखणी। है-(1) मिथ्यात्व, (:) अविरति, (3) प्रमाद (2) व्रत-अठारह प्रकार रे पापां सू (4) कषाय अर (5) योग।
वचणो। मिथ्यात्व रो प्ररथ है विपरीत सरधा राखणी, (3) अप्रमाद--धरमप्रति उत्साह राखणो। तत्व ज्ञान नी हुवणो । इण में जीव जड़ पदारथां (4) अकषाय--क्रोध, मान, माया, लोभ मादि में चेतना, अतत्व में तत्व, अधरम में धरम बुद्धि
कषायां रो नास करणो। प्रादि विपरीत भावना री प्ररूपणा करे।
(5) प्रयोग-मन, वचन, काया री क्रियावां अविरति रो प्ररथ हुवै त्याग री भावना रो
रो रुकणो। प्रभाव, त्याग में अरुचि, भोग में सुख अर उत्साह ८. निर्जरा तत्व : री भावना।
प्रातमा में पलां तूं आयोड़ा करमां रो क्षय प्रमाद रो प्ररथ है-आतम कल्याण खातर करणो निर्जरा है। निर्जरा मातम सुद्धि प्राप्त प्राच्छा काम करण री प्रवृत्ति में उत्साह नी हुवणो, करण रै मारग में सीढियां रो काम कर। आ दो पालस्य, मद्य, मांस आदि रो सेवन करणो। भांत री हुवं-(1) सकाम निर्जरा पर (2)
कषाय रो मरथ है-क्रोध, मान, माया, लोभ प्रकाम निर्जरा । सकाम निर्जरा में विवेक सूतप री प्रवृत्ति ।
मादि री साधना करी जाव। सकाम निर्जरा में __ योग रो अरथ है-मन, वचन काया री सुभा- बिना ज्ञान पर संयम सूतप साधना करी जाय। सुभ प्रवति । योग दो मांत रा हुवं । सुभ योग बिना विवेक पर संयम सूकरियोड़ो तप बाल तप पर असुभ योग । सुभ योग सू पुण्य रो बंध हुवं कहीज। इण सकरम निर्जरा तो हुवे, पण भर असुभ योग सू पाप रो।
सांसारिक बंधण सू मुक्ति नी मिले ।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. मोक्ष तत्व :
मोक्ष रो प्ररथ है- सगला करमा सूं मुक्ति । राग अर द्वेष शे सम्पूर्ण नास । मोक्ष आतम विकास री चरम र पूर्ण अवस्था है । इस अवस्था में स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, छोटा-बड़ा आदि रो कांई भेद नी रंगे । श्रातमा रा सगला करम नष्ट हुंवण पर वा लोक रै अग्र भाग में पोंच जावै । व्यावहारिक भाषा में उण ने सिद्धशिला कंवें । यू मोक्ष कोई स्थान नीं है । जिण भांत दीपक री ली रो सुभाव ऊपर जाव है, उणीज भांत करम मुक्त श्रातमा रो सुभाव पण ऊपर उठण (ऊर्ध्वग मी हुवण) रो है । करमां सूं मुक्त हुवण पर मातमा
श्रापणे सुद्ध सुभाव सू चमकबा लागे । उणी रो नाम मुक्ति, निर्वाण र मोक्ष है ।
मोक्ष प्राप्ति रा चार उपाय है-सम्मक दर्शन, चारित्र र तप री आराधना । ज्ञान तत्व री जाणकारी हुवे । दर्शन सूं तत्व पर स बढ़े। चारित्र सूं करमां ने रोक्या जाने पर सू आत्मा रे बंध्योड़ा करमां रो क्षय हुवे। इस चारुं उपाय सूं जीव मोक्ष प्राप्त कर सकें । य री साधना में जाति, कुल, वंश आदि रो बंध कोनी । जो आतमा श्रापणे प्रातम गुणां ज प्रकट कर लेवें वा मोक्ष री अधिकारी ब जाने ।
तप
भव कोडिय संचियं कम्मं तवसा रिगज्जरिज्जइ ।
- उत्तरा ३०1६
श्ररथः करोडां भवां सूं संचित करियोड़ा करम तपस्या सू जीर्ण र नष्ट हु जावै ।
- अनुवाद : डा० शान्ता भानावत
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर महावीर
ईसा सू 600 बरस पहला का भारत में कित्ता ही छोटा-बड़ा राज हा । इन राजन में सू कुछेक में तो राजान को राज हो मौर कुछेक में कुछ जन प्रतिनिधियान को राज हो । इन दूसरा तरहा का राजन कू हम गग राज कह सकें हैं । इनी गणराजन में एक राज हो 'लिच्छवी गण राज' । इ राज आज का बिहार राज को ही एक हिस्सो हो । या की राजधानी वैशाली नगरी ही । या राज में भाठ क्षत्रिय कुलन का प्रतिनिधि मिलके राज करे हा । या सू वा सभी राजा कहलावा हा ।
या वैशाली नगर को ही एक उपनगर हो कुण्ड ग्राम या कुण्डलपुर । कुण्डलपुर को अविपति राजा सिद्धार्थ हो । या की राणी त्रिशला देवी ही । इण दम्पत्ति के यहां ही ईसा से 599 बरस पहला की चैत सुदी तेरस कू एक होनहार बालक पैदा हुयो जो मांगे चलकर संसार में तीर्थंकर महावीर का नाम सू विख्यात हुयो ।
महावीर को पहला को नाम 'वर्धमान' हो । या नामकरण के पीछे भी एक रोचक किस्सो है । कह्यो जाय कि जा बरस महावीर को जनम हु वा बरस सबडा राज में चारु और सुख-समृद्धि को aaraरण बन गयो हो; खुद उनका परिवार की 'सुख-समृद्धि बढ़ोतरी पर ही, सो बालक को नाम 'वर्धमान' रख दियो गयो ।'
वर्धमान बड़ी तेजस्वी और कुशाग्र बुद्धि वालो बालक हो । ऊ बड़ी स्वस्थ, सुन्दर और अतुल बल को धारक हो । निडरता वा का वा सुभाव में कूटकूट कर भरी ही । बचपना का वा का ऐसा किस्सा जैन धार्मिक पुस्तकन में वरिणत हुया हैं जिनसू वा
-श्री महावीर कोटिया की अतुलित वीरता और अद्भुत निडरता प्रकट
होवे हैं । म्रपणा या बीर सुभाव के कारण
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-12
'वर्धमान' कालान्तर में महावीर नाम सू लोक- ऊ अपणो सारो जीवन लोगन कू या पाप-पंक सू प्रसिद्ध हो गयो।
निकालबा में लगायगो । या सोचकर उणने अपणो वर्धमान महावीर शुरु सू ही बड़ो चिन्तनशील सारो जीवन लोगन कू-प्राणी मात्रन कू सुखी और मननशील प्रकृति को हो । लोगन कू यहां करबा में लगा दियो । तीस बरस की भरी जवानी में तक कि जीव-जन्तुन कू भी दुखी देख के वा को उणने राज का सुख-भोगन कू तिलाञ्जलि दे दी। मन करुणा सू भर जावो। एकान्त में ऊ प्रायः वे संसार का सुखन कू छोड़कर सच्चा सुख खोजबा सोचतो-या संसार में सभी जीव दुखन सू घबराने क निकल्या ताकि पृथ्वी का जीव मात्र क सच्चो सूत्र है । वे सभी सुख चाह। सभी चाह वें कि वे सुख प्राप्त हो सके । या खोज में उणने बारह बरसन भोगता हुमा जीवित रहें। सबकू अपणो जीवन तक कठोर साधना कीनी। या कठोर साधना सू जो प्यारो है; मरबो कोई नाय चाहवे । संसार में बच्चो ज्ञान (केवल्य ज्ञान) उरणने पायो वाकू जनजीव मात्र को यो ही प्राकृतिक सुभाव है। परन्तु जन तक पहंचाबा में उणने अपना जीवन का शेष आदमी कू देखो । वही या प्राकृतिक नियम को तीस बरस भी होम दिया । या तरहा जीव मात्र का सबसू बड़ो विरोधी है। प्रपणी स्वार्थ-पूर्ति कू, वा मुक्तिदाता ने अपणो 72 बरस को सबडो जीवन अपणा तुच्छ सुखन कू पूरा करबा कू वा ने सबड़ो लोगन कू संसार सू मुक्ति का मार्ग बताबा में लगा जीवन को सुख नष्ट कर रख्यो है; दुनिया की दियो । लोगन ने भी अपणा या मुक्तिदाता का शांति भंग कर रखी है । जीवन की सुन्दरता कू चरणन में पूरी श्रद्धा सू अपणो सिर झुमायो और नष्ट कर दियो है। अपणा स्वार्थ की खातिर वा वा कू अपणो तीर्थंकर स्वीकार कियो । तीर्थकर दूसरान का जीवन की, उनका सुखन को बलि मानी या विकट भव-सागर सू पार होबा को तीर्थ चढ़ाव है। यो ही मनुष्य को पाप है। उसका या (घाट) बताने व लो । ऐसो हो वा तीर्थंकर महावीर पाप ने पृथ्वी का जीवन कू नरक बना रख्यो है। प्राणी-मात्र को मुक्तिदाता; अनोखो महापुरस । ... यू सोच-विचार कर महावीर ने अपनो जीवन ऐसा लोग जदा-कदा ही या पृथ्वी पंपाके या क को लक्ष्य निश्चित कर लियो । वा ने सोच ली कि धन्य कर जावें हैं।
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिंसा रा दूत : भगवान महावीर
अहिंसा री महिमा भारत रै दर्शन र इतिहास माहि पुराणा जमाना स्यू ही मिल ह । "भारत रा पागम गिरंथ, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सभी इ बात रा साथी देवे है। बौद्ध दर्शन मांहि भी 'अहिंसा' पर ध्यान दियो गयो है; पर महावीर रा विचारां और दर्शन मांहि अहिंसा पर विशेष बल मिले ह्व। व्हठ अहिंसा री सूक्षम विवेचना की गई है।
अहिंसा, महावीर रा दर्शन री खास बात है । इणी री व्याख्या मांहि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य 'र अपरिग्रह या चारव्रतां री भी 'सामिल हह। महात्मा गांधी भी महावीर री इण अहिंसा स्यू प्रभावित रह्या । गांधीजी या चार व्रतो नै प्रापणा इग्यारह सेवाव्रता माहि गिरणं छ। __ प्राचारांग सूत्र मांहि महावीर देव कह हैसंसार रा सारा प्राणी जीवा चाह्व। कोई ने भी मरवो भलो न लागे । सबने भापणो जीवन प्यारो लाग है। प्राणी मात्र ने मारबो, या मारण वास्त विचार करवो भी हिंसा ही कहलावै । आपणा समै री जन भाषा मांहि महावीर बतायो-"महिंसा निउणा दिट्ठा सब भूएसु संजमो" इण रो मतलब यो है कि प्राणी मातर रे प्रति संजम, समता 'र दोस्ती ही हिसा हैं । अहिंसा कोई लारला कुंटुम्ब, परिवार, समाज 'र देश तक ही सीमित नहीं है, उण री सीमा विशाल है। इणीज भांति महावीर सवंजीव री दोस्ती रा भाव ने ही हिंसा मान है। . कई लोग हिंसा नै कायरता समझे। पण माहिंसा कायरता नी म्है। कायरता र अहिंसा मांहि रात दिन रो भेद है। महावीर री अहिंसा कायरां री अहिंसा नहीं है। वा तो वीरां री पहिंसा है। क्षिमा अस्यां रो अस्त्र तो वीरां ने ही
श्रीप्रेमचन्द रावका एम. थि.रवी मनोहरपुर (जयपुर)
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
3-14
शोभा देवे है । समरथवान री अहिंसा हो सांची अहिंसा है। जिरण मिनख मांही समरथ री शक्ति है, वो ही क्षमां रो प्रधिकारी है। समरथ होता हुयां भी शत्रु नै छोड देवो, क्षमा कर देवो, अहिंसा
'गुण है। गांधीजी भी इसी अहिंसा ने माने है । गांधीजी रा मत माँहि 'महिंसा वीरां रो धर्म है ।'
हिंसा रो प्रभाव ही महिंसा कहलावे । जो मिनख हिंसा रा काम मांहि न तो रुचि ले र न करें, वो अहिंसा कहलावे । महावीर स्वयं अहिंसक हुया और वरणां रा समै मांहि जो पशु री हिंसा वा बली चाली उरण नं रोकरण वास्ते वै प्रापरणों सारो जीवन खपायो । लोगां ने दया री भावना से महत्व समझायो और कह्यो कि हरएक प्राणी में समान जीव है चाहे छोटो प्राणी हो या मोटो । दर्द सबने होवे । आपां यदि कोई ने बचां नसको तो मारां भी क्यूं ? श्रापां ने जस्यो कष्ट, दुख होवे है, बस्यो सबने होते है ।
इणीज भांत महावीर दास री प्रथा रो भी विरोध करयो । प्रत्येक श्रादमी नै योग्यता सारी काम-धंधो पर ऊंको मूल्य देखो होवे है । शोषण री प्रवृत्ति से महावीर विरोध करयो । समानता श्रर स्वतंत्रता री महिमा जण जरण ने समझायी । महावीर रा मत मांही प्राणी से स्वतंत्र होत्रो जरूरी है । बिनां इण र विकास नहीं हो सकं ।
महावीर र अनुसारि या कोई ठीक नहीं लागे कि एक तरफ तो मनुष्य गरीबी रो जीवन बितावै भोर दूसरी तरफ ऊंचा- 2 महलां में सेठ राजा
ऐश-प्राराम करें। इस भांति महावीर मनुष्यमनुष्य रे बीच हीनता र उच्चता री भावना नं उन्मूलन वास्ते जन-जन नं उपदेश दियो । वां का अनुसार न कोई सर्वथा उच्च है । प्रर न कोई सर्वथा नीचो । अनेकान्त ही महावीर री अहिंसा दर्शन को सार है |
महावीर रा समवसरण मांहि सभी प्रकार रा जीव समान भाव से धर्मोपदेश सुरणबां वास्ते एकत्र हुवा | महावीर री. तपस्या से प्रभाव इतनो विशाल हो कि सिंह, सरप, गाय, हिरण, हाथ-आदिपरस्पर विरोधी जीव भी मापरो वैर भाव छोड़र वाँ के पास प्रेम-भाव से एक साथ भा बैठा । या सब महावीर रो महिंसक तप रो प्रभाव रह्यो ।
सही बात तो भा है कि नहावीर खुद तो महान बण्यां ही पण प्रपरणां श्रहिंसादि प्रभाव सें वं प्रोरा ने भी महान् बणायां । यां पैला भी हिसारो रूप म्हांने मिले है, पर महावीर स्वामी अहिंसा ने सबसो ऊंचो श्रासन दियो घर ऊंकी महिमां जन-जन नै बतार मनुष्य मनुष्य में दया की भावना को संचार करघो । ईसू जगत माहि शांति व्यापी | महावीर तन र मन दोन्यां मांहि अहिंसा रो प्रतिपादन करचो । इणीज भांति महावोर देव अहिंसारा साँचा पूत कहलाया । आज का काल मांहि गांधी रो अहिंसा पर भी महावीर रो प्रभाव है, जीकू' कारण सूही भारत ने श्राजादी मिली ।
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोतम, त्याग प्रमाद ।
-डॉ. मनोहर शर्मा
पड़सी पीलो पान सो, यो तन होसी रेत । गोतम, नां दिन एक-सा, मत प्रमाद कर, चेत ॥1 ।। प्रोस-बूंद कुस-पात पर, बिलसै थोड़ी बार। गोतम, नर री देह त्यू', उठ, प्रमाद ने टाल ।। 2 ॥ बिधन भरघो संसार यो, मेट आगला कर्म । गोतम, थोड़ो जीवणो, तज प्रमाद, सुण धर्म ।। 3 ।। दुरलभ मिनखा-देह या, घणा करम-फल गूढ । गोतम, त्याग प्रमाद तू, जीतब हारै मूढ ॥4॥ प्राणी निज निज करम सू, भरमै जग-जंजाल । गोतम, ग्यान बिचार मन. अर प्रमाद ने टाल ॥ 5 ॥ मिनख-जमारो लाभ के, प्रारजकुल ना होय ।। गोतम, त्याग प्रमाद तू, मूढ गया जग खोय ॥ 6 ॥ तन जीरण ढीलो भयो, केस भया सिर सेत । गोतम, त्याग प्रमाद तू, अब तेरो के हेत ॥ 7 ॥ जल में बस जल सू बिलग, फूल कमल रो देख । गोतम, त्याग प्रमाद तू, तोड़ मोह जग-रेख ।। 8 ।। धन, दारा, सुत त्याग कर, प्रणागार पद पाय । गोतम, त्याग प्रमाद तू, उलटी कर मत खाय ।। 9 ।। मत भटक अब रेत में, करयो समंदर पार । गोतम. त्याग प्रमाद त, जीत लियो संसार ॥10॥ गुण कर वाणी ग्यान री, गोतम जाण्यो भेद । सिद्ध-रूप समरथ भयो, राग-द्वस ने छेद ॥ 11 ॥
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर
- श्री हुकमचन्द "अनिल"
आज महावीर प्रभु मोक्ष को पधारे थे, माता त्रिशला, पिता सिद्धार्थ के दुलारे थे, ऐसे प्रतिवीर की सब आरती उतारो रे । प्रतम की ज्योति जगा, दीप गीत गाओ रे ॥
वीर ने सत्य अहिंसा का पथ बताया था, " जीयो और जीने दो' सबको यही सुनाया था, पावन सन्मति का पाठ जग को फिर पढ़ाओ रे । दीप से दीप जले ज्ञान उजाला फैले, विश्व में प्रेम की गंगा लहर-लहर फैले, ऐसा मिल कार्य करो समय मत गंवान रे ।
वीर की वाणी को सुन, बैर भूल गये प्राणी, शेर और बकरी पियें एक घाट पर पानी, तुम भी तज भेद भाव मित्रता बढ़ायो रे ।
जैन है विश्व धर्म, धर्म नहीं कायर का, अनेकांत, स्यादवाद, समता धर्म है सबका, जीवन में बीर का उपदेश यह उतारो रे ।
1
मनुष्य देह प्राज मिली निज का उपकार करो आत्म का बोध करो, भव का उद्धार करो वीर निर्वारण वर्ष "अनिल" सिर नवानो रे ।
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
D
сомд. Хосоор
१
ख एड
босоосоо
आंग्ल भाषा
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
Lord Mahavira and Marx
Dr. Harendra Pd. Verma Reader in Philosophy
T. N. B. College, Bhagalpur University, Bhagalpur
Lord Mahavira and Karl Marx are the revolutionaries of their times. They are the products of decadence and the apostoles of renaissance. Both of them are against authority of tradition. Lord Mahavira opposed the blind following of the authorities and scriptures. ("No Logassasesanam Care"). He said that in the pursuit of truth man should follow the dictates of his own reason. Marx also holds that blind faith is not a virtue but an sign of mental slavery and foolishness. Hence the marxists test every thought on the touchstone of history and dialectical materialism and accept only the progressive ones and deplore those which are dogmatic, conservative and regressive. Marx's emphasis is on understanding and not on faith. Though Mahavira is a spiritualist and Marx, a materialist, both stand for radical social, political economic, and religious reconstructions.
Atheistic and humanistic outlook
Both Mahavira and Marx are atheists and humanists. Both of them denounce God as the creator, maintainer and destroyer of the universe and hold that from the viewpoint of substance, the universe in uncreated and eternal and from the viewpoint of modes only it is changing and evolving. It is not created by any God but is evolving. Friederich Engels, Marx's colloborator, wrote: ".
in our revolutionary conception of the universe, there is absolutely no reason for either a Creator or a Ruler, and to talk of a supreme Being shut out from the existing world implies a contradiction in terms, and as it seems to me, a gratuitous insult to the feelings of religious people.""2
1.
Both Mahavira and Marx made man the centre of the cosmos in place of God. They held that "Man is the measure of everything.' According to Mahavira 'Man is his own friend and his own enemy." In his self there is both heaven and hell", it is upto him to choose whatever he likes. There is no God to bind
1. Acharanga Sutra,
2. "Socialism: Utopian and Scientific" in Marx and Engels, Selected works, vol. III, 2nd Ed. Progress Publishers, Moscow, pp. 100-101.
3. Uttaradhyayan sutra, 20-36.
4. Ibid, 20-37.
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
him or to grant him unchartered providences. Man reaps the consequence only of his own actions. Mahavira found that notion of God to be 'incompatible with. the freedom and dignity of man. If man's joys and sufferings are because of God, his endeavour is in vain and if he suffers or enjoys on his own accord, God is superfluous. Hence Mahavira does not accept any God as the dispenser of good and evil to man. He assigns total responsibility of actions to man and finds God a hinderance in the development of men. The notion of God makes man greedy, dependent and docile. Hence Mahavira banished God and made man the archi tect of his own fortune. Marx also found God as an impediment to the progress and development of man, He subscribes to the view of Feuerbach, who said, "Our enemy is God, the denial of God is the beginning of wisdom,"
Mahavira found God to be the legacy of Monarchy. It is the autocratic tradition that gives rise to the notion of a Ruler of the universe. The common man brought up in the autocratic tradition thinks that just as the kingdom is run by a king, the universe is also regulated and managed by a presiding Deity of the universe. Marx and marxists also maintain that God is the image of the king. Both Mahavira and Marx are against institutional religion which is based on dogmas and rituals. Mahavira criticized the Vedic ritualism and Marx declared: "Religion is the opium of the people." It intoxicates man and under the sway of its intoxication man forgets and endures his present sufferings and pulls on in the delusion of another world and the life hereafter. As a matter of fact, heaven and hell are only delusions and phantoms of human mind. Both Mahavira and Marx intended to bring the heaven down to the earth. Marx and Engels wrote: "In direct contrast to German philosophy which descends from heaven to earth, here we ascend from earth to heaven, that is to say, we do not set out from what men say, imagine, conceive, nor from men as narrated, thought of, imagined, conceived, in order to arrive at men in the flesh. He set out from real active men, and on the besis of their real life process we demonstrate the development of the ideological reflexes and echoes of this life-process...... Both Mahavira and Marx want to better the condition of man by removing the wrong beliefs and conservative outlook, and changing the prevailing circumstances and existing social
5. See Kailash Chandra Shastri, Jaina Dharma, Bha. Di Jaina Sangha, Mathura, Samvat 2475, p. 116.
6. See Ramesh Upadhyaya, Communist Naitikta, Jana Bhasa Prakashan, Jodhpur, 1974, p. 17.
7. Marx, Introduction to a Critique of Hegel's philosophy of Law, Quoted by Lenin, Religion, Bunman, p. 18.
8. "Feuerbach: Opposition of Materialistic and Idealistic outlook", Marx and Engels, selected works, vol. I, p. 25.
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
set up. Mahavira maintained that man can attain happiness by conquering himself by himself. Marx also held that man can be the master of circumstances and can mend his lot by his own efforts. However, Marx's emphasis is more on the overthrowing of the existing social order than on rectroining oneself, because he believed that man suffers not because of his own fault but also because of the wrong social set-up. In the bourgeois set up the proletariats are bound to suffer for no fault of their own. Hence, human progress and happiness consistin eradicating the burgeois set up and constructing up a new in which there will be no class-distinction. But Mahavira believed that man's sufferings are the result of his own actions and hence his emphasis is more on restraining one's own self.10 However, both of them are for the happiness and welfare of humanity.
Both Mahavira and Marx emphasize on the principle, "Live and let others live." Parasapare pagraho jivanam11. They lay stress on self-development as well as the development of society. Mahavira believed that man is not only the body (Pudgala), but also the self and has infinite power, knowledge, freedom and bliss (Ananta catustaya), and his destiny is to realize these possibilities. Even being a materialist, Marx accep's the superiority of man and human values. According to Dr. Radhakrishnan, Marx even denies God for he believes in the potential divinity of man."12 Mahavira also held that man is God himself. Every self is God not because of being a part of any Absolute conscioueness but by virtue of possessing infinite powers in himself. Marx also wrote: "In the first method of approach (absolutism) the starting point is consciousness taken as living indivi dual, in the second method (communism), which conforms to real life, it is the real living individuals themselves and consciousness is conceived as their conscious. ness. "13 13 The all round development of personality is the aim of both Mahavira and Marx,
2. Dialectical Materialism.
Mahavira and Marx have similar views with regard to the nature and development of the universe. Though Mahavira is a spirituali.t, he does not minimise the importance of 'matter'. He accepts matter as the physical basis of the universe. According to him the universe comes into being by the modification of matter. Mahavira believes in the theory of auto-genetic creation (Svatah Sristivada) and maintains that the modification of matter is owing to the Law of
9. "Appanameva appanam jaitta suhamehaye" Uttaradhyayan sutra, 9.35, p. 178. 10. "Appa katta vikatta ya, dukkhan ya suhan ya" (Uttaradhyayan sutra 20-37). 11. Umaswami, Tattvartha sutra, 5-21.
12. Dr. Radhakrishnan, The concept of Man (Ed.), P.T. Raju., Preface. 13. "Feuerbach: Opposition of Materialistic and Idealistic Outlook", Selected Works, vol. I, p. 25.
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
Nature; it is spontaneous and without the intervention of any supernatural being or God. In the Moolachara it is said : "The world is uncreated and eternal. It is created by Nature and is filled with living and non-living beings. It is eternal and vet growing and evolving like a palm tree."14 The world comes into being by the modification of Pudgala (matter and energy) which in itself is eternal and indestructible. The course of evolution is Dialectical following the principles of Differentiation (Bheda), Integration (Samghata), and Differentiation-in-integration (Bhed -Samghata). 15 As a matter has inherent contradiction the pairs of opposite qualities (like Snigdha and Ruksha Guna), it breaks by its own nature, it is negated (Bheda) or differentiated whereby atoms are produced. The atoms are by nature integrated to form a new synthesis (samghata). That synthesis becomes a fresh thesis and is negated and integrated again to form a new synthesis (Bheda. samghata), and in this way the dialectical development proceeds on. Marx also takes the evolution of the world as a natural and spontaneous process following the Dialectical course of 'thesis', 'Anti-thesis' and 'Synthesis'. He talks of the Laws of "Mutual penetration of the opposites" and "the Negation of Negation.” According to the former law every subject contains its opposite within it, owing to which every thesis is negated by its anti-thesis. Mahavira calls it as Bheda. According to the latter law the Anti-thesis is further negated to form a synthesis. The idea is incorporated in Mahavira's notions of Samghata and Bheda-samghata. However, Marx also talks of the law of transition of quan:ity into quality owing to which inatter is transformed into consciousness. Mahavira does not subscribe to this view. He differs from Marx here because according to him consciousness is not a product of matter; it is co-ex.stent with matter. However, Mahavira can agree with Marx to the extent that body, specch, mind and vitality are the by-products of matter. ( sarira vaka Manah Prana Panah Pud galunam"). Mahavira does not accept the idea of the generation of consciousness from matter because acccording to him only like can produce the like. Consciousness cannot emerge from matter unless it is involved in it. As matter is unconscious and the self is conscious, the latter cannot emerge from the former. They are co-existent and co-ordinate realities. The soul can live in isolation from matter. Mahavira also talks of the liberation of the soul from the bondage of matter. But as Marx always found consciousness to be associated with the physical body, he considers consciou ness to be the product of the physical body. Marx and Engels wrote. “From the start the "spirit" is afflicted with the course of being "burdened" with matter, which here makes its appearance
14. Vattakeri, Moolachara, 8-28. (Ed.)Pannalal Soni, Manika Chandra Digambara
Granthamala, Kashi, Samvat, 2476. 15. Bheda sam gharebhyah u papad yante, 5-26 Bhedadanuh 5-27 Bheda samghata
bhyam cakshusah 5.28 Umaswami, Tattavarthasutra. 16. Tattararthasutra, 5-19.
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
in the form of agitated layers of air, sound, in short, of language...consciousness is, therefore, from the very beginning a social product and remains so long as man exists at all.”'17
3. The religious and ethical ideal
The religious and ethical ideal of both Mahavira and Marx is the development of oneself and the betterment of the entire society, because self development without the development of the society at large has no meaning. The service of the suffering Humanity is, thus, the ethical virtue for both Mahavira and Marx. Man should not seek only his own happiness but should better the condition of those who are lowly and lost, for all souls are equal. Mahavira emphasized on seeing every soul as our own.18 According to him to support each other is the very nature of the living being. (Paras paro pagraho jivanam).19 Hence, Mahavira proclaimed his friendship and kinship with all living creatures. (Mitti me sarva bhu yesu, veram majham na kenavi).20 The ideal man (Tirthankara) of Jainism does not seek his own salvation, but having himself crossed the mighty ocean of the universe tries to make others also to cross it, without having any apparent motive for the same. Marx also corroborates to this view. His collaborator, Engels, wrote : "The possibility of purely human sentiments in our intercourse with other human beings has now a days been sufficiently curtailed by the society in which we must live, which is based upon class antagonism and class rule. We have no reason to curtail it still more by exialting these sentiments to a religion.21 Hence, it is evident that Marxism is also surcharged with an ideology which often puts the conventional religion to shame. It has a great ideal in the concept of the salvation of entire humanity, otherwise the marxists would not stand amidst the destitute, suffering and exploited multitude and would not have fought for their salvation and progress. The vow taken by Stalin on the death of Lenin reminds us the vow of a Tirthankar to redeem the suffering humanity and to salvage it : “We vow to you, comrade Lenin, that we will not spare our lives to strengthen and extend the union of toilers of the whole world."
17. "Feuerbach : Opposition of Materialistic and Idealistic outlook", Selected
works, vol. I, p. 32. 18. Sutra Kritanga sutra 1-12-18: 19. Tattvartha sutra, 5-19. 20. Sraman sutra, 30-3. 21. "Feuerbach and the end of classical German Philosophy", Selected works,
vol. III, p. 356.
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
4. The economic ideal: Equal distribution
If Marx holds that every individual has the equal right to property and natural resources, Mahavira also holds the same. Both are for the equal distribution of wealth. If Marx established the principle: "From each according to his ability and to each according to his need", Mahavira also declared that 'those who do not equally distribute do not deserve salvation.' ("Asamvibhagi tassa no mokho"),22 Marx calls capital as legal robbery for it is accumulated by the exploitation of the toilers, Mahavira declares it to be the venom issuing from the greed and indolence of man. (Murcha Parigrah), 28 For the eradication of exploitation in the name of property and power Marx suggested the 'abolition of private property.'24 Mahavira emphasized the virtues of non-stealing (Asteya) and non-hoarding (Aparigrah). He said: "Just as the bees live on the pollon of the flower without injuring to the beauty and fragrance of it, likewise one should live in the society without injuring and exploiting others and taking not more than one's requirements."25 Marx also dreams of a society in which the means of production are under the control of certain public institutions and the members of the society will live happily without feeling of stings of wants and poverty-a society where there will be no exploitation.
The social ideal: Casteless, Classless society.
The distinction of class and creed and caste has been a source of exploitation from time immemorial. It pinched and pained both Mahavira and Marx to the core of their hearts. Hence both of them raised voice against such exploitation and social injustice. Marx wanted to overthrow the present structure of society which is rotten and stinking. Marx openly declared: "The communists disdain to conceal their views and aims. They openly declare that their ends can be attained by the foible overthrow of all existing social conditions, '2 Marx intended to establish a casteless and classless society-"a society in which the developing of each is the condition for the development of all." Mahavira also opposed the exploitation of the lowly and lost in the name of caste. According to him basically all indivi duals are equal. The distinctions of caste and class are only accidental and phenomenal, they are not elemental. The determination of caste should be on the basis
22. Dasa vaikalika sutra, 9-2-22.
23. Tatt artha sutra, 7.17.
24. Marx and Engels, "The Communist Manifesto", Selected works vol. I, p. 120.
25. Jaha dummassa puphphesu, bhamro aviyai vasam, Ná ya pupham kilameyi, so ya pineyi appayam. Dasavai kalika sutra. 1.2. 26. Communist Manifesto" Selected works, vol. I p. 37.
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
of action and not on the basis of birth and heredity. Mahavira said, "It is accor ding to ones action that one is characterized as Brahmin, Ksatriya, Vaisya and Sudra." What counts is virtue 20 and not caste and class. Mahavira wanted to establish "a kingdom of ends" where there should be no discrimination of high or low, superior or inferior,
6. The political ideal: Stateless society
The political ideal of both Marx and Mahavira is the establishment of a society where state will not exist as a coersive force-a society in which there will be the rule of everybody on everybody. Morality will not be forced but self-imposed. Everybody will be conscientious in his duty and as such there will be no clash of interests, nor will there be any governmental agency as a coersive machinery to impose the moral laws. "The state will wither away." The republican ideal was saturated in the blood of Mahavira and hence he dreamt of a society in which every body should be a king in himself (Aham Indra), there will be neither coersion nor subjugation. Liberty, equality and freternity will be the rule in that society. Self-restraint (Atmanusasana) will be the only mechanism of Anusasana (administration). The notion of Aham Indra thus runs parallel to Marx's conception of "stateless society."
All these go to show that both Mahavira and Marx shared the same ideals. Though by birth they were separated by a stretch of 2500 years, still they charished the same dreams, the realization of which is the bounden duty of the prosperity, especially when we are celebrating the 2500th Nirvan anniversary of
Lord Mahavira.
27. Kammuna bambhano hoi, kammuna hoi khathio Vaiso kammuna hoi, sudho havai kammuna
7
(Uttaradhyayan Sutra, 25/33.)
28. "Gunehi Sahu, Agunehi asahu". Desvaikalika sutra 9/3/11.
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
Transitoriness of Health and Wealth
Health and wealth are shortliving, Like the shining pearl of dew, As that of bubbles, sparks, lightening Those having them always, are even few ?
Old age ouercomes the blooming youth Human body turns quite lean and Pale Never runs the life-pace smooth O mind's equilibrium ! to thee, I hail.
The equilibrium of thoughts at appex of Robust health and immense pelf, At any rate should not be shaken off It is the joy of tranquil self.
Self is permanent and stable No death can make it die, But health and wealth are perishable They will surely one day fly.
-V. P. JAIN
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
Fundamentals of Jaina Mysticism
Dr. Kamal Chand Sogani
Reader in Philosophy University of Udaipur, Udaipur (Rajasthan)
In the cultural history of mankind, there have been persons ho regard spiritual quest as constituting the essential meaning of life. In spite of the marked environmental differences, their investigations have exhibited remarkable similarity of experience and expression. Such persons are styled mystics and the phenomenon is known as mysticism. Like the mystics of Hinduism, Buddhism, Christianity, Islam etc., Jaina mystics have made abundant contribution to the mystical literature as such. They have dealt with mysticism quite systematically and in great detail.
The equivalent expressions in Jainism for the word 'mysticism' are : Suddhopayoga, Arhat and Siddha state, Panditi-Pandita Marana, Paramatmanhood, Svasamaya, Paradisti, Ahimsa, Samatva. etc. All these expressions convey identical meaning of realising the transcendental self. The traditional definiton of Jaina mysticism may be stated thus : Mysticism consists in the attainment of Arhat-hood or Siddha-hood through the medium of Samyagdarsana (spiritual a wakening), Samyag-jnana (spiritual knowledge) and Samyakcaritra (spiritual conduct) after dispilling Mithyadarsana (perverted attitude), Mithyajnana (perverted knowledge) and Mithyacaritra (perverted conduct). Kundakunda records departure from this terminology when he says : Mysticism consists in realising the Paramatman transcendental self) through the Antaratman (awakened self) after renouncing the Bahira in an (bodily selt). Haribhardra also employés a different terminology when he announced: Mys.icism consists in attaining to Paradrsti (transcendental insight) hrough Sthirt (steady spiritual insight), Kanta and Prabha Drstis (elementary and deep meditational insights) after passing through Mitra. Tara, Bala, and Dipra Drstis. All these definitions of mysticism are fundamentally the same. Paramaiman refers to Arhat-hood, Siddha-hood and Paradrsti: Antaratman points to Samyagdarsana, Sthirdısti, and Samadrsti; and consequently to Sainyagjna ia, Sainyakcaritra and the Kanta and Prabha Drstis; Bahiratman refers to Mithyadarsana along with Mitta, Tara, Bala and Dipra Drstis and consequently to Mithyajnana, and Mithyacaritra.
Thus we may say that the Paramatman is the true goal of the mystic quest. The journey from the Antaratman to the Paramatman is traversed through the medium of mural and intellectual preparations, which purge everything obstructing the emergence of potential divinity. Before this final accomplishment
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
a stage of vision and fall may intervene. Thus the whole mystic may be put as follows: (1) Spiritual awakening (2) Purgation, (3) Illumination (4) Dark-night of the soul, and (5) Transcendental life.
Dark period of the self prior to spiritual awakening
In this stage the empirical souls remain in a perpetual state of spiritual ignorance owing to the beginningless functions of Mohaniya (deluding) Karma. This Karma on the psychical side engenders a complex state of 'Moha' having perverted belief (Mithyadarsana) and perverted conduct (Mithyacaritra) as its ingredients. Here the effect of Mithyadarsana is so dominant that the self does not evince its inclination to the spiritual path, just as the man invaded by bileinfected fever does not have liking for sweet juice. This Mithyadarsana vittiates knowledges and conduct alike, In its presence both knowledge and conduct, however extensive and suffused with morality they may be, are impotent to disinte grate the hostile elements of the soul and to lead us to those superb heights which are called mystical. Consequently the darkest period in the history of the self is the one when the self is overwhelmed by Mithyadarsana. It obstructs all our mystical endeavours. Thus the plight plight of the the self in self in this stage resembles totally ecli sed moon or a completely clouded sky. It is a state of spiritual slumber with the pecularity that the self itself is not cognizant of its drowsy state. Led astray by the perverted attitude, the soul staying in this stage identifies itself with bodily colour, physical frame, sex, caste, creed, family, friends and wealth. The consequence is that it is constantly obsessed with the fear of self-annihilation on the annihilation of the body and the like and is tormented even by the thought of death. Kundakunda and following him, Yogindu, Pujyapada, Subhacandra, Karttikeya etc. recognise this stage as the state of Bahiratman.
that of a
1. Spiritual awakening:
Spiritual awakening is the result of Granthibheda (cutting the knot of ignorance). By virtue of cutting the knot, the Bhinnagranthi sees supreme verity and acquires unswerving conviction in the true self. This occurrence of Samyagdarsana (spiritual awakening) is consequent upon the instruction of those who have realised the divine within themselves or are on the path of divine realisation. Yogindu points out that insight is attained by the Atman, when at an opportune time, delusion is destroyed. "Even as a person born blind can see the world as it is on the sudden acquisition of eyesight, so can a soul having experienced the vision can see the truth as it is". "Even as a person suffering from long-drawn disease experiences extreme delight on the sudden disappearance of the disease, so does a soul eternally bound to the wheel of worldly existence feels spiritual joy and bliss on the sudden dawn of enlightenment."
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
This is to be borne in mind that the spiritual awakening is to be sharply distinguished from the moral and the intellectual awakening. Even if the man prior to spiritual awakening gets endowed with the capacity of intellectual and moral achievements, it cannot be said to have dispelled the darkness spiritual. The characters portrayed by Jaina Acaryas of Dravya-lingi Muni and some of the Abhavyas who have attained to the fair height of intellectual knowledge and moral upliftment illustrate this sort of life without spiritual awakening. Thus the flower of Mysticism does not blossom by the water of mere morality and intellectuality, but requires spiritual manure along with it.
It will not be idle to point out here that the soul in this stage is called Samyagdristi, Antaratman, Bhinnagranthi, and the occupant of Sthiradrsti. Being spiritually converted, the Samyagdrsti considers his own self as genuine abode, regarding the outward physical dwelling places as artificial. He renounces all identification with the animate and inanimate objects of the world and properly weighs them in the balance of his discriminative knowledge. His is the only self that has acquired the right of Moksa. Besides, he practices universal compassion (Anukampa), does not hanker after worldly opulence and empyreal pleasures, shows no feeling of disgust at the various bodily conditions caused by disease, hunger etc. and is free from all fears. Again, being overwhelmed by fear, inferiority and greed for profit, he does not recognise Himsa as Dharma. Apart from this, he has deep affection for spiritual matters and strengthens the conviction of those who are faltering in their loyality to the path of righteousness and disseminates spiritual religion through various means best suited to time and place.
Fall from spiritual awakening :
If the spiritual awakening is due to the total annhilation of Darsana Mohaniya (vision-deluding) Karma, the self has thrown over all the chances of its fall to the lower stage. But if the spiritual awakening is consequent upon the suppression of Darsana Mohaniya Karma, the self either falls to the lower stage or remains in the same stage with the emergence of certain defects ordinarily incognisable. 2. Purcation :
After dispelling the dense and intense darkness caused by the visiondeluding Darsana Mohaniya) Karma, the ardent longing of the awakened self is to purge the conduct deluding (Caritra Mohaniya) Karma which now stands between it and the transcendental self. Only those who are in possession of sturdy will are capable of doing so, says Amrtacandra. In this stage, the aspirant gradually makes himself free from all Himsa root and branch. In consequence, he first adopts the five partial vows (Anuvratas) in order to sustain the central virtue of Ahimsa, as far as possible. This state of self's journey may be
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
called partial purgation since here the aspirant avoids intentional Himsa of two to five sensed Jivas, but he has to commit the intentional Himsa of one-sensed Jivas, namely the vegetable bodied, fire bodied etc. Besides, the Himsa which is committed in being engaged in a certain profession in performing domestic activities, and in adopting defensive measures cannot be avoided by him. Afterwards, the aspirant, being motivated by certain incentives to spiritual life (Anuprakasa) becomes a saint in order to negate Himsa to the last degree. In consequence, the saint observes five Mahavratas and practises internal and external austerities with special attention to meditation, devotion, and Svadhyaya. Besides, he gets food by begging, eats only a little, gets over sleep, endures troubles, practises universal friendship, adheres to spiritual upliftment, and turns away from acquisitions, associations and life-iujuring activities. Thus from the life of saint, vice totally vanishes and there remains virtue which will also be trancended as soon as the flight into the realm of spirit is made.
3. Illumination
By the time the aspirant reaches this stage, he has developed a power of spiritual attention, of selfmerging and of gazing into the ground of the soul. It is through the aid of deep meditation that the mystic now pursues the higher path. Pujyapada rightly observes that meditation produces supreme ecstasy in a mystic who is firmly established in the self. Such an ecstatic consciousness is potent enough to burn the Karmic fuel; and then the person remains unaffected by external trouble and never experiences discomposure. In consequence, he moves. higher where exists the state of profound purity. If the self follows the process of annihilition instead of suppression it rises directly to transcendental life. Here the conduct deluding Karma is destroyed instead of being suppressed.
4. Dark night of the soul post-illumination
Owing to the suppressed passions gaining strength the illuminated consciousness falls either to total darkness or to the stage of spiritual awakening. The consequence is that the ecstatic awareness of the transcendental self gets negated and an overwhelming sense of darkness envelops the mystic. It may be noted that not all mystics experience this dark night. Those of them who ascend the ladder of annihilation escape this tragic period, whereas those who ascend the Ladder of suppression succumb to its dangers and pains. Mystics of the latter type no doub. will also reach the pinnacle of transcendental life, but only when they climb up the ladder of annihilation either in this life or in some other to come.
Transcendental life
The slumbering and the unawakened soul, after passing through the stages of spiritual awakening, moral and intellectual preparation, now arrives at the
5.
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
13
sublime destination by dint of ascending the rungs of meditational ladder. In this stage the soul now possesses dispassionate activities along with omniscience (Kevalajnana). It is a state of Jivana Mukta, a supermental state of existence and an example of divine life upon earth. The self becomes Arhat. It may be noted here that the self in this stage is called Paramatman, and the possessor of Paradrsti. This perfected mystic is established in truth in all directions. He experiences bliss, which is supersensious, unique, infinite, and interminable. Whatever issues from him is potent enough to abrogate the miseries of tormented humanity. His presence is supremely enlightening. He is the spiritual leader of society. Just as a mother educates her child for its benefit and a kind physician cures diseased orphans, so also the perfected mystic instructs humanity for its upliftment and dispenses spiritual pills to the suffering humanity. He is always awake. He has transcended the dualities of friends and foes, pleasure and pain, praise and censure, life and death, sand and gold, attachment and aversion. Since he is the embodiment of spiritual virtues, he leads a life of supermoralism but not of a-moralism. Thus we may conclude by saying that the cognitive conative, and affective tendencies of the perfected mystic reveal their original manifestation in supreme mystical experience, which is ineffable and transcends all the similies of the world.
After this, disembodied liberation results (Videha Mukti). The self now carns the title of Siddha'.
My faith in non-voilence remains as strong as ever. I am quite sure that only should it answer all our requirements in our country, but that it should, if properly applied, prevent the bloodshed that is going on outside India and is threatening to overwhelm the Western World'.
-Gandhiji
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
The Message of Dharma
Let your tempered self have bath In cool stream of forgiveness, Give no quarter to resentment, wrath And soft feelings you do possess.
In pure learning's radiant light, Travel on your life's course In every moment of delight
Don't be ruled by animal force. Let truth become the guiding star, In dense, dark worldly night. By right conduct can reach so far, To Eternal Home, which's bright.
With self control morch on the way 70 sublime goal of true nature Thus be, O soul. quite happy and gay And finish up the world's torture.
-- V. P. Jain
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
Serpent-Cult and Jain-Tirthankaras
BY
Digamber Das Jain, Advocate Gauri Shanker Bazar, Saharanpur.
Serpent cult is Pre-Aryan. Ministry of Information Government of India informs us that Serpent Worship was prevelent all over India in Prevedic period.2 According to Indian Buddhist serpents are found in various colours, which significant their merits. Red serpents belong to Kshatri Clan. Mayank to Brahamans, Yellow to Vaishyas and black to Shudras. The great Hindu Saint Balmiki referred it in his Ramayan.2 C.F. Oldman firmly established reference of Assuras and Sarpas (Serpents) in Rigveda3 and of Assuras and Nagas (serpents) in Mahabharata." Jaina scriptures Parsva Puran and Uttara Puran too refer serpent cult.
Surpents are believed guardians and custodians of wealth. They are supposed to ward off all evils, to bring prosperity, to bestow long life and to attribute good fortune. They are deemed to possess a device nature and power of renewing youths so they are engraved on the crowns of kings and queens and in the holy hands of certain Chothomic Goddess.8
7th Jain Tirthankara Suparsva Nath, crowned king of Varanasi, who lived long befre Aryans reached Ganga and during the time when the Indus Valley Civilization was in full develop nent, is the first great man, who is found connected with the Serpent Cult. His incient images have five hood serpents on his head. The famous archaeologist Shri P.C. Roy Choudhuri found one such his image unearthed from Dewali near Man Bhu ni of Chotta Nagpur division of
1. Dilwara Temples, Published by Ministry of Information, 2. Balmiki Ramayana, 1. 195. also Chapter 67, SLOKA 49. 3. S. Padmanabhan, Nagraja Temple, p. 1. 4. Ibid. 5. Punyashrava Katha Kosh, (Calcutta) p. 182. 6. James Fergusson, Trees and Serpent Worship, p. 5. 7. Henrich Zimmer, The Art of Indian Asia Vol. II. 8. Bed rich Hrozng, Ancient History of Western Asia, India and Crate,
fig. 134, p. 222. 9. Parsvanatha image contain 3, 7 or 11 serpent hoods while those of Suparsva
nath 1, 5 or 9-Anekant August 1970 p. 112.
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
Bihar province, 10 A nude standing Suparsvanath image with serpent hoods is unearthed from a place near Seoni (M.P.). The photo of the image and its beautiful temple appeared on 2nd cover of Ahinsa Bani, Oct., 1963. A very attractive image of Suparsvanath is unearthed from Kongli district Berrely with 5 hood serpent and is preserved in Govt. Museum, at Madras," Similar images are found from village Mohmadi in district Kheri of U.P. which is in provincial museum Lucknow. One such is in Kashi Bharat Kala Bhawan Museum, Varanasi, with Museum No. 255.
An eminent scholar S. Padmanabhan of Negercoil indicates that his city Negercoil has derived its name from the five hooded serpents diety of Nagraja (king of serpents Suparsvanatha) Temple13 whose Mandapa Pillars bear carved figures of Jain Tirthankaras,14 whose diety is wonderful in fulfilling one's wishes and curing even deadly diseases 15 The King of Kaling (S.I.) who was stricken with leprosy, hearing miraculous fame of the image, came to the temple and did penance before it with the result that he was fully cured1 and in gratitude built its present beautiful temple.17 Is it not another wonder of the five hooded serpents miraculous diety that even though there are plenty of coberas in side the temple, no case of snake bite has ever occurred within a mile of the temple,18
Mugal Emperor, Akbar the great to distroy the evil effect of his son. Shekho's daughter go, read Ashtauttar Path of Suparsva Nath and presented to the Lord Suparsva Nath temple one lakh rupees according to "Shureshvara and Mughal Smrat Akbar', page 154. Prof. Dr. Jayanti Pd. in this historical work, mentions that in the auspicious sacred ceremony of gold-kalash of Suparsva Nath performed by general Kram Chand Akbar the Great participated and rubbed Bath-Water of Suparsva Nath, with his fore head with great respect and honour and sent the Bath water for his queens in his royal palace where his queens also. rubbed the water with their fore heads with full faith. Akbar offered 1000 gold coins to Suparsva-image, 18
The royal emblem of Suparsvanath is Svastika. Almost all his images bear at their pedestals. Such image is found at Chandergiri, Shrvanbelgola,
10. Amrit Bazar Patrika, Special Puja Number 1956.
11. Religion of Tirthankaras, plate 16 fig. 35.
66.
12. Ram Chandran, Director Arch. Govt. of India, Monuments of India P. 13. S. Padmanabhan, Nagraja Temple, p. 5.
14. S. Padmanabhan, "In and around Kanya Kumari, p. 3.
15. Nagraja Temple, p. 6.
16. Ibid.
17. Ibid.
18. Dr. James Hastings, Encyclopaedia of Religion and Ethic, Vol. XI p. 418. 18a. Bhartiya Itihas-Ek Drshti-page 488.
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
$17
Mysoore.19 Voice of Ahinsa, Sept. 1970 on its page 212 has given a Photo of Suparsvanath image which contains 5 hoods serpents at head & Sv stika at Pedestal. Jain cave at Khandgiri (Orissa) contains serpants at its gate to represent Jain Tirthankara. Suparsvanath's emblem Svastika is also found along with 2 serpents on the tiles of Geomestrie period of antigue Greece,20 The nude yogi Suparsva Nath while going to Afghanistan, Iran, Egypt, Greece, Africa, Europe, America etc. foreign countries on Six-Khanda religious tour visited Haryana, Punjab, Himachal, Sindh, Texila and Indus Valley, and being influenced with his teachings the people of those places worshipped him and installed his images and his representing figures Svastika, and serpents in his honour and memory. A seal bearing 2 snakes, one on each side of a nude yogi (Suparsvanath's) discovered from Mohen Jodaro21 (Sindhu Ghati) leaves no room to doubt Suparsvanath's worship through serpents and Swastika worship.22 Thus historicity of Suparsva Nath 7th Tirthankara can not be denied, Vedas, non Jain literature Hindu & Muslim Kings respect coupled with archacological evidence, prove well the historicity of Suparsva Nath.
The 23rd Tirthankara Parasvanath is admittedly an hisiorical person 23 His royal emblem is serpent24 which is focad on all his image-pendestals when he was in deep meditation at Ram Nagar of district Bareilly in U.P. the king of serpents Dharnendra spreaded his large hood as Umbrella on his head to save against the heavy evil rain caused by his previously birthed enemy and his queen Padmavati got him seated at her raised hood to protect against the rain flood water. From this very day the place is called Ahi (serpent) Chhatra (Umbrella) in the memory of this great event. This historical fact is well supported by archaeological evidence as such hooded serpent miraculous image of Parsvanatha is discovered from Ahi Chhatra, which may be seen even to day in Jain Temple there.
The Kings being followers of Parsvanath and his image with canophy of sevin hooded serpent (Nag) on his head (shish) were called Shish Nag VansiHistory corroborates the fact that famous historical Enperor of Magadha (Bihar). Shrehik Bimbsar was of Shish-Nag Vans.
19. Jain Shila-lekh Singrah, Vol. I. 20. H. Th. Bossert Ornament (London) 1924, Plate II fig. 4-7-9. 21. Ahinsa Bani, 1963, p. 214. 22. Our article “Miracles of Swastika,” Debe Dhuwani (Agra) March 1968, p.15. 23. VOA Parsvanath Special Edition. 24. Images of Parsvanath contain 3, 7, 11, (108 or 1001) serpent hood at his head.
Anekant, Aug. 1970 p. 112.
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
Parsvanath and Suparsvanath both Tirthankaras visited & preached Jainism all over the six Khandas which includes the entire present world in prehistorical period and Jain Kings like Bimbsar Srenik, Chandra Gupta Maurya, Sampriti and Kaling Emperor Kharvel etc. had sent missionaries, to preach Jainisin in foreign count:ies in historical period so it is natural that their representation serpent as well as swastika worship is found there.
H. Frank Fort has indicated that serpent worship existed 4000 years ago in Babylonia25 Serpent worship prevailed in Egypt.26 Seals unearthed from Mohenjodaro (Pakistan) proves serpent worship in Indus Valley (Pakistan).27 In Rome serpents were kept in large numbers in temples 28 Fergusson found serpent worship in Maxico and Dahomey.29 Serpent worship existed in Thai Land30 and their people used to celebrate surpents festival like Indian people. There are images of Parsvanath with serpent hood in various museums there. 31 Swastika the royal symbol of Suparsva also enjoyed great respect to America.
Serpents the sacred representation of holy Tirthankaras, can not be so cruel and unkind as we suppose. They bite only in defence or taking revenge. A snake bite the son of a magician who complaint to the king of snakes. He summoned all the snakes of locality and asked who & why bite his son. A snake told that his son killed his serpani, a few days back without any cause so he bite to take revenge. The man admitting the fact said that searing she might not bite, he killed. The king said even snakes have a right to pass over the earth. His son was at fault and not snake. Lord Parsvanath saved burning a couple of snakes, in gratitude, they saved the Lord when he was in deep medidation at Ahi-Chetra in District Bareily of Uttar Pradesh, against the evil rain of his enemy. Jain Acharya Shanti Sagar when were in meditation in 1955 a snake played on his body, continuously for hours and left without harming anybody even in present 20th century A.D.32 When the European philosopher Mr. Plenton was visiting great Indian Saint Scholar Raman's Ashram, suddenly an horrible, large black-snake came out of nereby bush, the European ran after him with stick to kill, a disciple obstracted and took the
25. Illustrated London News, Sept. 5, 1936. fig. II, p. 390. 26. Herodotus-II-74. 27. Henrich Zimmer. The Art of Indian Asia, Vol. II. Plate 2-C. 28. Furgusson-loc. cit, p. 48. 29. Ibid p. 8 & 10. 30. Temples & Sculptures of South East Asia, (London) Tricoloured Plates No.
35, 36, 37, 33, 34, 259, 391, 412 & 413. 31. Ibid. 32. Hindi Jain Gazette Shanti Sagar Special Ank.
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
snake in his hand. The snake did not harm him. European asked reason. The discipile told him when they don't harm other how they can harm us?
An American scientist Mr. Ramulus Bahitekar is busy in research of serpent cult. at Madras. He has collected a number of serpents and has written an article in Dharam Youg of 20 & 27 December 1970 that there are more than 230 kinds of serpents out of these 50 are poisonous out of which only 4 kinds are seeing on earth rest 180 are poisonless and harmless. They also love their lives like us and have a right to pass over the earth so we should not kill them. Historical, Archological and literary prove that they are representation of Jaina Tirthankaras Parsvanath & Suparsvanath, whom people worship through out all over the world.
AHINSA
1. Ahinsa is the true character of life, for it appears to all the men and beasts alike. It engenders in them love, trust and friendlyness.
2. Ahinsa does not mean any religious faith, it rather represents that sweet and loving character which makes life worthliving, which sustains it through helpless condition and makes it capable of growing into society.
3. Ahinsa is the inner urge of life to love and behave others in a way as one would like to be loved and behaved by others.
19
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
Why Groan!
Why groan ? It's not thy nature, self! It appears due to thy wrong will, Why honkecing after pleasure and pelf Thy change of salvation, they kill.
To remove, groaning, pale youth, age To shatter all the Karmic chains To put an end the body's cage To finish, in short, all worldly pains. Let us have right faith of true Self, Let us traverse right corduct's way Let thus be removed the matter's delf. Let usher truth to be happy and gay. Let introspect in self domain No anxieties will ever remain.
---V. P. Jain.
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
Development of Jaina Art in Madhya Pradesh
BY K. D. Bajpai
Geographically the present region of Madhya Pradesh occupies the central position in the country. The recent excavations and explorations in some parts of the Chambal and Narmada valleys have thrown welcome light on the protohistoric Chalcolithic culture of central India. The work conducted by the Sagar University in the districts of Raisen, Sehore and Sagar has brought to light a number of interesting painted rock-shelters, implements and other relics, which may be called the vestiges of the ancient Sabara-Nisada cultures of the Vindhya region.
As regards Jainism, the early evidence of its spread in the Madhya Pradesh region is lacking. The Jaina tradition mentions the ancient city of Vidisha, where the image of Tirthankara Mahavira in the form of Jiantaswami was worshipped. It is said that this image was brought by king Pradyota of Avanti from Roruka (in Sindhu-Sauvira kingdom). Ratha yatra processions were held in honour of the image at Vidisha, as is known from the works like Avas yaka Curni and the Vasudeva Hindi.
Another city claiming association with Jainism was Ujjayini. The Kalakacar ya Kathanaka and other traditional accounts may be mentioned in this connection,
But in so far as the early art-relics are concerned, the Jaina pantheon did not make a mark in central India as did Buddhism. The well-known centres of the Buddhist art, Bharhut and Sanchi, flourished during the Sunga-Satavahana period. The rich and colourful art of these two sites occupies a significant place in our art-history.
Vidisha became a centre of Yaksa worship in the Sunga-Sata-vahana period. Several Yaksa and Yaksi images, so far discovered at Vidisha, are remarkable both from the aesthetic and iconographic points of view. The colossal Yaksa and Yaksi statues salvaged from the Betava river a few years back (now deposited in the Vidisha Museum) are very remarkable. The Naga cult also had its growth at Vidisha, although its development here was subsequent to that of the Yaksa
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
22
Cult. The Naga worship, both in the human and serpent form, was current in Vidisha and the region around from the time of the Naga rule to the early Medieval times.
The Saka-Kushana period witnessed the emergence of Mathura as a great art-centre par-excellence in Madhya-desa. Jainism and Buddhism found a congenial atmosphere at Mathura for their growth through visual forms. The numer ous art-objects from Mathura associated with these two religions eloquently prove this.
Vidisha can be said to be the first important town in central India which came in contact with Mathura during the Kushana reign. In the succeeding period of the Naga rule, Mathura had closer relations with Kantipuri (Kutwar in the Morena district), Padmavati (Pawaya near Gwalior) and Vidisha. It is interesting to note that some of the art-relics discovered at Pawaya and Vidisha, assignable to the 2nd-3rd centuries A. D., bear a clear impact of the Mathura style. The emotional vision (rasa-dristi) of the artists of Mathura endowed the visual forms of art with the dance and song of life. The sculpture was thus given the ennobling form of lalitakala, as visualised by Asvaghosa, Kalidasa and others. The Mathura sculptors were past masters in diffusion of the aesthetic beauty in the art-objects.
It was at Mathura that the India Tirthankara images were given, for the first time, their distinctive iconographic symbology. The Srivatsa symbol appears clearly on the Jaina images of Mathura. It may be mentioned here that the so called earliest Tirthankara image from Lohanipur (near Patna) does not bear this symbol on the chest. The poor anatomical composition of this sculpture may also be taken into account while assigning an early date to it.
The recent discovery of three inscribed Tirthankara images near Vidisha. has brought to light evidence of unusual historical significance. Two of the images, according to the inscriptions on their pedestals, are of Candraprabha and the third one is that of Pushpadanta. The inscriptions clearly indicate that these statues were caused to be made by Maharajadhiraja Ramagupta. I have no doubt that this Ramagupta is identical with the elder brother of Candragupta Vikramaditya. He can be identified with the ruler whose copper coins, in quite a large? number, are now known from the Vidisha region and who, like other rulers of the Imperial Gupta dynasty, bore the title of Maharajadhiraja.
A close study of these interesting Jaina statues, reveals that their composition beare close affinities with the Tirthankara and Buddhist images of Mathura, assignable to the transitional period or to the early Gupta Age. The seating posture in dhyanamudra, the anatomical details of the body, the scalloped
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
28
halo behind the head and the Srivat sa symbol on the chest can be compared with those on several known Tirthanka images in the Mathura art. The two deva chauri-bearers, wearing ard horuka, uttari ya and ornaments including the typical mukuta, are also noteworthy. The pedestal shows in the centre the cakra symbol flanked on each side by a lion with the tail raised. One type of the Ramagupta bears the figure of a lion with the tail raised similar to this. .
These Tirthankara images are carved in the round, exhibiting the back view of the Tirthankaras and those of the draped figures of the two attendants. This feature is imitated from the well-known Mathura device. The stone of these three images is the local sandstone of Vidisha. The paleography of the Brahmi script on the pedestals is similar to that occuring in the Udaigiri and Sanchi inscrip. tions of Candragupta Vikramaditya.
During the Gupta Age the art of carving and installation of Tirthankara images continued, although the extent examples from Madhya Pradesh are a few only. The image of Parsvanatha carved during the region of Kumaragupta in cave no. 20 of Udaigiri near Vidisha can be mentioned in this connection. It has the usual characteristics of the Gupta Tirthankara images known from Mathura, Kaushambi and other sites in the north India. A Tirthankara image from Sira hills near Saleha in the Panna dist.) datable to about 500 A.D. is another important sculpture. Mention may here be made of Deogarh (now in the Jhansi dist.). During the Gupta agc Deogarh became an important centre of art. The Dasavatara temple of Visnu, with its artistic statuary, is well-known. Near the Dasavatara temple on the hillock a Jaina establishment was set up during the post-Gupta age. Several Jaina temples, with quite a large number of icons, were built up here upto the 12th century A.D. This Jaina centre at Deogarh did considerable work of diffusing its religious tenets in the region around. The temples and art-relics at Chanderi, Dudhai, Chandpur and other sites indicate this. The Jaina Bhattaraka cult had its predominance at Deogarh for quite a long time.
The rise of the Classical Gupta art of Central India can be associated with the reign of Candragupta Vikramaditya. Under his patronage, monuments and sculptures of abiding beauty were carved at Udaigiri, Sanchi. Eran, Pawaya and Tigwa. These were followed by similar art-relics at Bhumro, Nachna, Tumain, Unchehra, Mandasor, etc. The classical traits are discernible in the few Jaina images of the Gupta age and also of the Gurajara-Pratihara period in the region of Madhya Pradesh. These relics can be seen in the Gwalior, Dhubela and Indore Museums and also at Vidisha, Badoh and Pathari.
The Medieval Jaina art has the usual chraracteristics of profuse ornamentation and iconomcntry. The iconographic details of the Jaina pantheon
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
had been worked out by now, and the artists were compelled to pay more attention to the prescribed iconic norms than to the aesthetic sense of composition. The richness of the contemporary Jaina community and the partronage received from the rulers contributed to the mass development of art in various parts of Madhya Pradesh. The numerous temples and sculptures from Khajuraho, Ajaigarh, Mohendra, Chanderi, Ahar, Terhi, Damoh, Ujjain. Gandhrawal, Gyaraspur, Bhanpura, Gwalior and several other sites furnish a rich material for the study of iconographic details.
The Chandellas were great patrons of art. Not only at Khajuraho bụt also at their other centres, viz. Ajaigarh, Mahoba and Kalinjar, Jaina temples and sculptures in large numbers were carved. As regards Khajuraho, it may be mentioned that the Saiva, Sakta and Vaisnava cults were more prominent there for quite a long time. It was at a later stage that the Jaina achar yas settled at the eastern group of temples at Khajuraho and established their centre there.
The Medieval Jaina art of Madhya Pradesh has almost the same merits and demerits which we notice in the contemporary art of central India.
Those who show mercy towards the weak the oppressed, and the ignorant will ever find mercy in life.
Ahipsa is the park of divinity, heritage of universal sout. It binds all into unity. It gives solace here and hereafter: It should ever be nourished like the secred flame.
.
.
.
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
2,500 years of Jainism
BY
Muni Shri Mahendra Kumarji, B. Sc. (Hons.)
India which is renowed for its cultural heritage and spiritual treasures, owes much to the Religion of Ahimsa, Aparigraha and Anekantavada (nonviolence, non-acquisitiveness and non-absolutism), preached by the Jain Tirthankaras from pre-historic times. Lord Rishabh who was the first Jain Tirthankara finds mention in the Rigveda and also other ancient Hindu literature. The 22nd Jain Tirthankara-Lord Aristanemi was the contemporary of Shri Krishna Vasudeva, and Lord Parsvanath, the 23rd Tirthankara has been proved to be a historical personage living in 877 B.C.-777 B.C.
Bhagwan Mahavira born 599 B.C. was the 24th Tirthankara.
Mahavira's Life
Bhagwan Mahavira was born at Ksatriya Kundagrama, Vaisali (B.har, India) the then capital of the historic republic of the Licchavis or Vajjis, in the year 599 B.C. His father King Siddhartha was one of the rulers of the Republic. In spite of being born in a royal family and having all material means of ease and comfort at hand, Mahavira renounced the worldly life and got himself initiated into austere ascetic life, practising the five great vows of non-violence, truth, non-stealing, continence, and non-acquisitiveness.
After twelve years of the continuous practice of self-control, spiritual vigilence, passionlessness and equanimity, and overcoming the various physical and mental hardships including pangs of hunger and thirst, vagaries of heat and cold, painful bites of mosquitoes and gnats and above all barbarous treatments from people, he attained the perfect knowledge or omniscience.
After preaching the below mentioued tenents of Jainism to people at large for thirty years, Mahavira attained the Nirwana (Liberation from all bondages and mundane existence), at the age of 72 in 527 B.C.
It is a matter of great surprise that many of the great men that the world has produced belonged to the sixth century B.C. Besides Lord Mahavira, Lord Buddha in India, Saint Confucius in China, Socrates in Greece, and Zorostanian in Persia gave the message of humanitarian principles to the world in the sixth century B.C.
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
26
The age of Mahavira in India was one in which number of social and religious practises such as caste-system, slavery, killing of animals in religious sacrifices, and suppression of women's rights to observe religious principles, superstitious worship of so called deities (such as tree, stone. etc.) and so on were in vogue. Bhagwan Mahavira, who was the protagonist of Ahimsa, declared: "All living beings have equal right to live; all of them like living, dislike dying. There. fore, do not kill, injure, enslave, torture or exploit any living being. Killing of any living being amounts to killing of oneself. Violence begets enmity; hence, befriend all living beings."
Bhagwan Mahavira was out and out antagonist of casteism. He asserted: "All human beings are equal. All distinctions on the basis of race, caste, colour and sex are arbitrary. Hence do not consider anyone inferior to yourself."
Bhagwan Mahavira not only preached equality of beings, but also allowed people born in all castes to get initiated in his monastic order. He again gave equal rights to women to practise religious principles and study holy scriptures.
Bhagwan Mahavira was the first Religious Teacher to profess that man himself is the master of his fate. Mahavira believed in perfect self-independence of soul. He asked his disciples to develop their own spiritual power and utilize it for their spiritual development. Thus he was against the worship of deities or God for blessing their mercy or grace for one's upliftment.
Mahavira's Philosophy
Bhagwan Mahavira's philosophy is essentially spiritualism. Soul, according to him, is an objective reality, characteristic of which is "consciousness". It is different from physical reality (matter) which is devoid of consciousness. Body is matter; hence, soul is different from body. Every reality has an sternal existence in the universe. Thus each soul exists in the universe from infinite past and will continue to exist for infinite future. Passions are the cause of soul's bondage with Karmic matter, which is very very minute form of matter (energy). Anger, conceit, deceit, desire (or lust) are mainly the forms of passions. The bondage Karmas result in suffering of soul in various species and recurrent transmigration or cycle of birth and death. Thus to emancipate soul from the cycle of birth and death, one has to become free from bondage of Karmas which in its turn is possible only through the end of passions. This state can be attained only through one's own endeavours in the form of practising self-discipline, vigilence and equanimity. For this Bhagwan Mahavira prescribed the Path of four-fold sadhana of Right Knowledge, Right Faith, Right Conduct and Right Penance, The sadhana included the observance of five universal principles, viz. non-violence, truth, non-stealing, celibacy, and non-possession, as well as practising meditation, fasting, forberance of hardships etc.
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
The metaphysics of Lord Mahavira revealed the multifaceted nature of Reality on the basis of which was established the theory of non-absolutism (Anekantvada) or relativism (Syadvad). According to it, every substance everything comprised of infinite attributes and modes. Hence, any statement made about any substance, would necessarily be a relative one-revealing a, particular mode depending upon the view point of the speaker. It follows from it that Truth is always relative. Any statement claimed to be absolutely true without reference to the point of view from which it is made is contradictory to non-absolutism.
A significant corollary of this doctrine in practical life is the co-existence of and reconciliation between diverse theories and creeds, opposite political parties etc.
Mahavira's Order :
Based on these magnanimous principles, Bhagwan Mahavira established his four-fold order of monks, nuns, lay followers as men and women. The strength of monks and nuns in his order at the time of his Nirvana was 14000 and 36000 respectively. It included the great personalities and royal dignatories such as Prince Abhyaku nar (the son of King Bimbisara) of Magadha, King Udrayana of Sindha, etc. The lay Cummunity at that time was 1,00.000 which included King Bimbisara of Magadha and his successor King Ajatasatru, King Chetaka (The chief of the Vajji Republic) etc. There is enough evidence to show that Mahavira wielded tremendous influence over the political field of his time. Thus Jainism had earned a staunch patronage from the rulers of India contemporary of Mahavira,
The eleven Chief disciples of Mahavira known as Ganadhara collected the speeches of Mahavira and compiled them into texts known as the Agamas. A vast portion of this va uable lore was, however, lost on account of not being written till one milleniurn after the Nirvana of Lord Mahavira. Whatever portion was preserved in memory was made to writing in 454 (or 467) A. D. under the Acharyaship of DEVARDDHI GANI at Vallabhipur in Gujrat. These texts at persent constitute the authoritative scriptures of the Shvetamber Sect. The Digamber sect, however, den its authority; it has its separate literature written by the later Acharyas. whp ssessed authoritative knowledge about Jainism. The main theme of the texts of both the sects is almost the same.
Schisms :
When did the schism of the Jain church into Shvetamber and Digamber sects exactly ook place is diffi ult to state. But it appears that the event was not a sudden one. There is evidence to show that a gradual rift developed
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
28
amongst the monks practising two kinds of asceticism Jinakal pa a stricter form of asceticism and Sthavirkal pa-a milder form of asceticism, The main points of differences are regarding the use of clothes by monks, and possibility of salvation of women. Traditionally the schism is believed to have taken place in the 2nd century A.D.
In the Shvetamber sect, further schism took place in 1663 A. D. when the Sthanakwasi sect came into existence. Actually as early as 1451 A.D. a Jain lay follower called Lunka Mehta started a campaign against the laxity of monks in the Shvetamber sect. The revolt got crystallized 200 years later into formation of the new sect. This new sect was also against idolworshipping, and hence also against building of temples. The lay-followers started building houses to perform religious activities in them. These buildings later on were also used by the monks to stay in and came to be called as "Sthanaka".
A century later in 1760 A.D. Acharya Bhikshu brought about a revolution. This against the building of Sthanakas specially as abode for the monks. resulted in the birth of Terapanth. Acharya Bhikshu also made some new interpretations of the concepts of pity and charity. He also organised the monastic order in a more disciplined and systematic form,
The Digamber sect also was subdivided into some sub-sects such as Terapanthi, Bisapanthi, Taranpanthi, etc. and the original Shvetamber sect, now known as the Murtipujaka sect, also got sub-divided into several sub-sects such as Tapa gachcha, Khartara gachcha, etc.
Political Patronage :
Bhagwan Mahavira was a Kshatriya and belonged to a royal family having blood relationship with major royal families of the then India. It was, therefore, quite natural that most of his contemporary kings either became his followers or admirers. Thus besides Kings Bimbisara and Ajatsatru of Magadha, King Chetaka of Vaishali (Head of the Vajji Republic), and other heads of the Mallaki and Lichavi Republics, King Shatanika of Kausahmbi and his successor King Udayana (the famous character of the Sanskrit Drama Svapnavasavadatta by Bhasa). King Chanda Pradyot of Ujjain, King Udayana of Sindh, King Dadhivahana of Anga (Bhagalpur) etc. were the kings who offered their patronage to Jainism during Mahavira's life. Not only did these Kings offer patronage, but many of them and their family members got initiated into the monastic
order of Mahavira,
Gradually the state of Magadha dominated over most part of the North India and the Kings of Magadha in the 5th century B.C. were the Nandas. They'
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
were also the staunch followers of Jainism. After the Nandas, King Chandragupta Maurya, the founder of the Mauryan Dynasty, came to rule over Magadha. He was an ardent Jain follower and in his old age, he joined the monastic order and journeyed to South India with his guru Bhadrabahu Swami. An inscription found at Chandragiri in Mysore mentions that Muni Chandragupta attained death through Anasana, the penance undertaken unto death for self. purification.
King Samprati of Ujjain, (who was also the grandson of the famous King Ashoka) in 3rd century B.C. and King Kharvela of Orissa (he then Kalinga) in 2nd Century B.C. were the two most ardent followers of Jainism, who did then utmost for spreading of Jainism not only in India but abroad too. The inscriptions of Kharvela at the caves of Udayagiri and Khandagiri are monumental evidence of this fact. After the end of Maurya dynasty in Magadha, Jainism (and Buddhism too) not only lost the political patronage, but had to face a strong opposition from the Brahmanism and its supporter Kings. The atrocities of King Pushyamitra of Shunga dynasty (2nd century B.C.) coinpelled most of the Jains to leave Magadha and go outside. In this way we find that Bihar State which was the place of origin of Jainism is today totally devoid of Jains. Whatever few Jains are found in Bihar today are only people belonging to other States and now living in Bihar. The seat of the Jains gradually shifted to the Western and Southern India. Mathura, Ujjain, Karnatak, Tamilnadu, Gujrat and Rajasthan gradually were found to be .congenial for the growth of Jainism, King Vikrama. ditya of Ujjain (probably of the Gupta dynasty) was greatly impressed by Jain Acharya Siddhasena Divakar (5th century A.D.) the renowned logician of the Jain church. In South, Kings of Chole Kanga, Chalukya and Rastrakuta dynasties showed favour to Jainism. In Gujrat, King Jaysingh Siddhraja and more generously his successor King Kumarpala (12th century A.D.) gave full patronage to Acharya Hemachandra who is called in the Jain church as "Kali Kala Sarvajna (i, e, as good as an omniscient in the Kali age). It was the intluence of the Jains in Gujrat that even today most of the Gujratis are found to be vegetarian. The whole culture and civilization are deeply influenced by the Jain way of life.
In Rajasthan although the Kings were not Jains, almost all of their chief ministers were either Jains or influenced by the Jains, and hence Jainism flourished in Rajasthan. In fact today nearly 75% of the Jains belong to Gujrat and Rajasthan.
Even during the Muslim rule, the Jains continued to maintain their political influence, so that in spite of the atrocities of some Mu:lim Kings, Jainism did survive. The great Moghul Emperor Akbar was greatly impressed by
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Acharya Hiravijay Suri. In Gujrat, the Nawab Mahamud Begada was once financially assisted by the Jain community in the time of a severe drought. Even during the British Rule, the Jains in the West Bengal had congenial relations with the persons at the helm of affairs.
In South, after the influence of the first Sankaracharya, influence of Jainism gradually became diminished. Nevertheless, it could not be totally cffaced. Even today there are thousands of South Indians having faith in Jainism.
Thus it is really surprising to find that although Jainism and Buddhism both had to face equal opposition from Brahmanism, Jainism survived, while Buddhism once became nearly extinct in India.
At present there are nearly five to ten million Jains all over India according to unufficial estimates, although the 1971 census mention them to be 2.6 million.
Buddhism spread all over Asia, while Jainism remained confined only to India. The main reason of this fact is that on account of the severe rules of conduct prescribed for the Jain monks, they could not travel outside the territory of India.
Jains Contribution to Indian Culture :
A. Art and Architecture :
It is difficult to say when did the idol-worshipping actually started in Jainism, but there are archaeological evidence to show that it was probably prevalent even in pre-Mahavirian period. The famous idol of Mohen-jo-daro excavations, popularly called as prototype of Shiva, has been considered by some archaeologists and historians to be the idol of a Jain Tirthankara, either the first one or the sixteenth one. In any way, it can be unambiguously said that in the pre-Vedic civilization (or Indus Valley Civilization), the Shramana culture (or the Jain Culture) had its own place and it was a part and parcel of the culture and civilization of the pre-Vedic India.
The most ancient piece of sculpture that is available after Mahavira, is probably the idol of Mahavira found at Mathura; it is said to be of 84 years after Mahavira's Nirvana i, e. of 5th century B.C. The inscription on this read that King Ajatsatru (Kunika) worships Lord Mahavira. Then a number of idols in various postures found at Mathura, Kamkali Tila, bear testimony to Jains' contribution to sculpture in India. In later times, the temples numbering thousands all over India show to what extent the Jains have preserved their art and architecture not only valuable in aesthetic terms but also a treasure of historical facts and figures. Some of the most famous temples and pilgrimage of the
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jains are: the Temple of Delvada at Mount Abu (Rajasthan), the temple at Ranakpur (Rajasthan), the 56 ft. high idol of Bahubali at Sravanbelgola (Mysore), the beautiful temples at Pavapuri (Bihar), Parsanath Hills or Samet. sikhar (Bihar) and Satrunjaya (Gujrat), etc.
Besides the sculptural contribution, the Jains have also played their own part in development of Indian paintings, handicrafts, caligraphy etc. and also equally great share in bringing up Indian theatres through music, dances, dramas, folk-songs and folk-dances, etc. The Jain literature, both canonical and noncanonical is replete with the theoretical discussion about all these branches of arts.
B. Literature :
As we have already seen there is a vast amount of original Jain literature written in the last 2500 years in many languages, particularly in Prakrit, Ardhamagadhi, Saurseni, Apabhramsha, Sanskrit. Hindi, Gujrati, Rajasthani, Kannada and Tamil.
The oldest canonical texts believed to have been composed in Mahavira's time are in Prakrit (Ardhamagadhi) language. The prominent amongst them are the eleven Angas (Acharanga, etc), the twelve Upangas, the four Mulas, the four Chedas and the Avasyaka. These are the thirtytwo canonical texts considered as an authority by all Shvetambers. The Murtipujakas, in addition consi. der 13 more texts as authority. According to some, there were 84 such texts. In the Digambera, the canonical texts are mainly the books, written by Acharya Bhutbali and Pushpadanta (in 1st century A.D.) and known as Shatkandagama. In addition to these texts the books written by Acharya Kundkunda (in Ist century B.C.) such as the Pahudas, the Samayasara, the Niyamsara, the Panchastikayasara, etc. are also reverred as equivalent to canonical books. The language of the Digainber texts is mainly Saurseni.
The non-canonical literature of Shvetambers mainly comprise of the commentaries on the canonical texts. These commentaries are written by several Acharyas from 2nd century A.D. to the modern age. The oldest commentaries are Niryuktis written by Bhadrabahu Swami (the second) and are in Prakrit language. Then follows the Bhasya and Churnis (in 6th century to 8th century A.D.) again mostly in Prakrit. Later on, the commentaries in Sanskrit called Vrittis or Tikas were written in the 11th century A.D. first by Shilankacharya and then elaborately by Abhayadeva Suri, Haribhadra Suri, Malyagiri, etc. are also Sanskrit commentators. The latest Sanskrit commentaries (such as Avachuris etc.) and commentaries in regional languages (such as Tabba, etc.) extend to very late periods and are of less reliability because of the context of the terms being almost lost.
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hindi translations of all these texts and English translations of some of these texts have also been published. Amongst the later works on Jain Philosophy, the Tattvartha Sutra by Uma Swati (or Umaswami) in the first century AD. is the most important one both from the point of view of its exhaustive treatment and its authority being equally acceptable to Shvetambers and Digambers.
In the first few centuries decade of the Christian era, the logical explana. tion of the Jain Philosophy was the main theme of the Jain writers of both the sects. Acharya Samantbhadra, Pujyapada, Akalanka, Vidyananda, Prabhachandra of the Digamber tradition and Acharya Siddhasena, Jinabhadra, Haribhadra, Hemachandra, (12th century A.D.) and Yashovijaya (as late as 17th century A.D.) of the Shvetamber sects contributed to the development of Jain Logic, which is considered to be as important as the Logic of Buddhists and other schools of Indian Philosophy.
The Jains have their own system of Yoga or practice of meditation. A vast literature is also available on the Jain Yoga. Besides the miscellaneous information about the Jain Yoga in the canonical literature itself, books by Acharya Kundakunda, Jinabhadra, Haribhadra, Hamachandra, Yashovijaya, etc. treat the subject in detail. The practical techniques of developing the latent psychical faculties through meditation, however, were almost thrown into oblivion in the middle ages, but is being revived now-a-days by the eminent Jain Yogis.
Books of Literary Value
Although most of the canonical texts deal with metaphysical and ethical discussions and are in prose of not very interesting style, a few canonical works in poetry offer valuable material of literary interest. Also, the later Jain Acharyas have composed some masterpiece works both in prose and poetry. The Puranic literature of the Digamber tradition in the Apabhramsa language, and some poetic works of the Jain poets such as Siddhasena Diwakar, Haribhadra Suri, Hemachandra, may be rentioned to illustrate the Jains' contribution to the lore of ancient Indian literature. Also some works in regional languages such as Kannada, Tamil, Gujrati and Rajasthani have added remarkable beauty to the literature of these languages. Science and Mathematics
.. The lore of sacred books of the Jains are equally important for their elaborate information about the scientific concepts of the Jains. The Jains have their own theories about many of the scientific subjects such as physics, chemistry, biology, astronomy etc. The atomic theory, the cosmology, the structure of matter and energy, the fundamental structure of living beings, genetics, the concept of space and time, the theory of relativity, the alchemy, the medical sciences etc. are
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
important theories of the Jains which deserve attention of the modern scientists as well as the historians of science. Also the Jain literature is full of mathematical discussions. A štadent of mathematics finds several features of Theory of Sets, Geometry, Algebra, Arithmatic, Theory of Numbers, etc. discussed at length in the Jain texts.
Besides the Jains have made no insignificant contribution to the development of astronomy as well as astrology. It can be safely said that no subject of basic science or humanities is left without discussion in the Jain literature.
Social Sciences
The Jain way of life prescribed for the monks is such that they together with the practice of asceticism, contribute to the weal and welfare of the society.
The reason why Mahavira gave his discourses in Prakrit, the language of the masses, is obviously that he wanted maximum people to be benefited by his religion. The rule that the Jain monks and nuns always travel on foot has also helped the Jain ascetics in having mass contacts with people. The Jain ascetics have taken upon themselves to uplift the ethical and spiritual standards of people living in social life.
A modern form of this mode of mass preaching is found in the Anuvrat Movement, sponsored by the famous Jain saint of our age Acharya Shri Tulsi, This movement has earned a nationwide repute because of its non-sectarian character. It can be said that the Jains' contribution to Independent India in the form of the Anuvrat Movement is one of remarkable importance in the field of socio-religious development of Indian people.
Relevance in Modern Age
It was on the basis of principles that Bhagwan Mahavira raised his voice against :
1. Performance of sacrifices (Yajna) involving killing of animals. 2. Şlave system. :3. Caste system. 4. Barring of women from religious practices, and many other inhuman
and unjustifixable social and religious practices.
Bhagwan Mahavira's teachings have even a greater relevance and deeper significance in the modern age in the context of establishment of -
1. Universal friendliness and peace through non-violence and disarma
ment,
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
2. Social pattern devoid of exploitation and violence.
3.
True socialism based on forswearing of acquisitiveness.
4. Reconciliation between diverse religious faiths, political parties,
communal and racial fractions, etc. based on the doctrine of nonabsolutism or relativism.
5. Mental peace through spiritual development based on freedom from
various passions,
Mahavira Says:
“Be friendly towards all living-beings. All the living beings in this world are like our friends, Therefore, do not kill any one even do no harm; do not give pain to anyonc, do not tease or
anyone.”
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
.
.
।
प
परस्परोपग्रही जीवानाम्
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
BEEEEEEEEEERCIENDS
पंचम
SHARMet
SCREEEEEEEE
ख ड
राजस्थान में भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव वर्ष
में लोक कल्याण की ओर बढ़ते कदम
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
शत्रुजय महातीर्थ, पालीताना
मैसर्स भरामल राजमल सुराणा
हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार,
जयपुर
सौजन्य से
Jain Education Intemational
www.jainelibrary
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान राज्य २५०० वी महावीर निर्वाणोत्सव समिति
मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी, अध्यक्ष
वित्त मंत्री श्री चन्दनमल बैद, उपाध्यक्ष
शिक्षा मंत्री श्री खेतसिंह, उपाध्यक्ष
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान प्रदेश भगवान महावीर २५०० वीं निर्वाणमहोत्सव
महा समिति के पदाधिकारी गणा
डी० आर० मेहता, सचिव, राज्य निर्वाण समिति
बी० एल० पनगड़िया सचिव, राज्य निर्वाण समिति
डा० सुभाष कासलीवाल
डा० पी० के० सेठी
विकलांग सहायता योजना के महत्वपूर्ण स्तम्भ जिन्होंने इस कार्य के लिए अपनी
अमूल्य सेवायें अपित कर योजना को जीवन्त बना दिया है।
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान प्रदेश भगवान महावीर २५०० वो निर्वाणमहोत्सव
महा समिति के पदाधिकारी गणा
कैप्टन सर-सेठ भागचन्द सोनी
अध्यक्ष
श्री राज रूप टांक कार्याध्यक्ष
पदमश्री खेल शंकर दुर्लभजी
उपाध्यक्ष
श्री मन्ना लाल सुराणा
उपाध्यक्ष
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान प्रदेश भगवान महावीर २५०० वी निर्वाणमहोत्सव
महा समिति के पदाधिकारी गण
सम्पत कुमार गधईया
प्रधान मंत्री
श्री मोहन लाल काला
कोषाध्यक्ष
श्री रिखब चन्द कर्णावट संगठन मंत्री
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान को भगवान महावीर निर्वाण
शताब्दी की उपलब्धियां
-श्री चन्दनमल बैद,
वित्तमंत्री, राजस्थान, जयपुर पाज से ढाई हजार वर्ष पूर्व विश्व में एक गैरसरकारी तौर पर राजस्थान में अनेक महत्वऐसा दैदिप्यमान नक्षत्र अवतीर्ण हया था जिसने पूर्ण कार्य हुए हैं जिनका विस्तृत ब्यौरा दिया जाना सत्य और अहिंसा द्वारा संसार को वास्तविक सुख तो यहां सम्भव नहीं है परन्तु फिर भी यह उपयुक्त का मार्ग दिग्दर्शन कराया। यह थे जैनधर्म के होगा कि इन कार्यों का लेखा जोखा संक्षिप्त रूप प्रवर्तक 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर, जिनकी में कर लिया जावे। 25 वौं निर्वाण शताब्दी दिनांक 13 नवम्बर, 1. राजस्थान विधानसभा ने निर्वाण शताब्दी 1974 से मनायी जा रही है।
समारोह के उपलक्ष में धार्मिक स्थानों पर पशु भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के बलि निषेध करने के सम्बन्ध में एक बिल स्वीकार अन्तर्राष्ट्रीय महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत किया। यह बिल अधिनियम के रूम में राजस्थान सरकार ने यह निश्चय किया कि भगवान महावीर में लागू किया जा चुका है। फलस्वरूप राजस्थान की इस 2500 वें निर्वाण वर्ष को राष्ट्रीय स्तर में सार्वजनिक स्थानों पर पशुबलि सर्वका के लिये पर मनाया जावे। तदनुसार इस कार्य के लिये बन्द हो गयी है। प्रधानमंत्रीजी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति 2. राज्य सरकार ने 2600 वें निर्वाण वर्ष का गठन किया गया और साथ ही तत्सम्बन्धी के प्रथम तीन दिन के लिये व अंतिम तीन दिनों के कार्यक्रमों को पूरा करने के लिये 50 लाख रुपये लिये राज्य भर में शराब एवं मांस की विक्री पर की धनराशि स्वीकृत की। भारत सरकार ने देश रोक लगादी है। की सभी राज्य सरकारों को भी यह सलाह दी कि 3. सरकार ने फैसला किया है कि इस वर्ष वे भी अपने-अपने राज्यों में इसी प्रकार की समि- देशी व विदेशी शराब की दुकानों के लाइसेंसों में तियों का निर्माण कर निर्वाण शताब्दी समारोह कोई वृद्धि नहीं की जायेगी। का प्रायोजन करें। फलस्वरूप राजस्थान सरकार 4. राज्य भर में शताब्दी वर्ष में शिकारक ने र ज्यपाल महोदय की संरक्षकता में व मुख्यमत्री लिये कोई लाइसेंस जारी नहीं करने का निर्णय महोदय की अध्यक्षता में एक प्रभावशाली समिति लिया जा रहा है। का निर्माण कर निर्वाण महोत्सव के सम्बन्ध में 5. इस निर्वाण वर्ष में राजस्थान विश्वकिये जाने वाले कार्यक्रमों के लिये वर्ष 1974-75 विद्यालय में एक महावीर चेयर का निर्माण किया व 1975-76 के लिये 15 लाख रुपये की धन- गया है। इस चेयर की स्थापना हेतु राज्य सरकार राशि स्वीकार की।
की ओर से विश्वविद्यालय को 4 लाख रुपये का ___ गत दो वर्षों में निर्वाण शताब्दी समारोह के अनुदान स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार उक्यसिलसिले में समिति के सानिध्य से सरकारी व पुर विश्वविद्यालय में भी महावीर चेयर की
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थापना हेतु राज्य सरकार द्वारा 1 लाख रुपये 12. समिति के तत्वावान में प्रसिद्ध प्राचीन का अनुदान स्वीकार किया जा चुका है और इस जैन ग्रन्थ “कल्पसूत्र" का विभिन्न भाषाओं में बेयर की स्थापना हेतु प्रयास जारी है।
अनुवाद सहित शीघ्र ही सचित्र प्रकाशन किया जा 6. राज्य सरकार ने 2500 में निर्वाण वर्ष रहा है। इस कार्य पर लगभग 50 हजार रुपये के उपलक्ष में मौत की सजा को माजीवन कारा- की धनराशि खर्च होने का अनुमान है। इसी प्रकार पास की सजा में बदल दिया है। यह निर्णय प्रब "जैन मार्ट एवं पार्कीटेक्चर" नामक पुस्तक का तक 4 मामलों में लिया जा चुका है।
सचित्र प्रकाशन किया जा रहा है जिस पर करीब 7. राज्य के 8 जिला मुख्यालयों के म्यूजि- 75 हजार रुपये खर्च होने का अनुमान है। यमों में महावीर कक्षों की स्थापना की जा रही यह तो हुमा राज्य सरकार द्वारा किये जाने है। इन कक्षों हेतु प्राचीन व दुर्लभ मूर्तियों की वाले कार्यों का लेखा-जोखा। इसके अतिरिक्त उपलब्धि जैन समाज द्वारा की जायेगी। राज्य समाज व जनसहयोग से भी अनेक विकास कार्य सरकार ने इस कार्य हेतु 50 हजार रुपया स्वीकार किये जा रहे हैं जो अलग है । जन सहयोग से किये किया है।
जाने वाले कार्यों में साधारणतया पाठशालाओं, ... 8. राजस्थान के समस्त जिला पुस्तकालयों चिकित्सालयों, धर्मशालानों व पुस्तकालयों आदि के में महावीर कक्षों की स्थापना की जा चकी है। लिये भवन निर्माण का कार्य प्रमुख है। इन कार्यों इन कामों में रखे जाने हेतु प्रति पुस्तकालय 500 में खर्च होने वाली धनराशि भी लाखों रुपयों में पुस्तकें व पालमारियां उपलब्ध करवादी गई है। पहुंच चुकी है।
9. भगवान महावीर के उपदेशों को लेकर संक्षेप में भगवान महावीर की 25 वीं निर्वाण शिलालेख तैयार किये गये हैं। इन शिलालेखों को शताब्दी के अवसर पर राजस्थान में सार्वजनिक समस्त जिलों में बनाये जाने वाले महावीर पार्कों और सरकारी स्तर पर जो कार्य हुआ है उसके में प्रतिष्ठित किया जायेगा। इस कार्य हेतु राज्य लिये हम सचमुच गर्व कर सकते हैं। इन्हीं कार्यों सरकार द्वारा 33 हजार रुपये का प्रावधान रखा से सरकार और जनता में जो प्रभूतपूर्व उत्साह इस
दिशा में देखने को मिला है उसे देखकर ही भग10. राजस्थान में विकलांगों की सहायतार्थ वान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव समिति "भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति" का ने सरकार को यह सिफारिश की है कि इस समागठन किया गया है। राज्य सरकार द्वारा इस रोह की अवधि एक वर्ष के लिये और बढा दी संस्था को 2 लाख रुपये का अनुदान स्वीकार किया जावे तो बहुत ही उपयुक्त होगा। सरकार इस गया है। इस कार्य हेतु राजस्थान के विभिन्न भागों प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर रही है। से भी समूचित मात्रा में धनराशि एकत्रित की जा साथ ही समाज के विभिन्न वर्गों को भी चाहिये कि रही है जो कि 5 लाख रुपये तक होने की संभा- वे अपना उत्साह बनाये रखे और जो कार्य इस .वना है। इस समिति के सहयोग से अब तक 40 समारोह के सिलसिले में उन्होंने अपने हाथ में
अपंगों के कृत्रिम अंग लगाये जा चुके हैं। लिया है उसे न केवल समुचित ढंग से पूरा ही करें ..... 11. अनुसूचित जाति व जनजाति के व्यक्तियों वरण जनहित के लिए और भी नये कार्य हाथ में - को मकान बनवाये जाने हेतु 4 लाख रुपया अनु. लेकर भगवान महावीर के उपदेशों को अपनी शक्ति ..बान स्वरूप राज्य सरकार द्वारा स्वीकार किया के अनुसार कार्य रूप में परिणित करें। जा चुका हा... जा चुका है।
.. .
..
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयपुर
राजस्थान प्रा० भ० महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव महासमिति ने ऐतिहासिक कार्य किया है । श्राचार्य भद्रबाहु के बाद देश में जैन एकता की बात प्रबल वेग से पिछले बीस वर्षों में उठी। पिछले दस वर्षों में एकता को प्राप्त करने के लिए बहुत ही संगठित और महत्वपूर्ण प्रयत्व हुए। राष्ट्रीय स्तर पर जब से 2500 वां निर्वाण समिति का गठन हुआ है एक सुनियोजित कार्यक्रम समस्त जैन समाज के सम्मुख उपस्थित हुआ है । राष्ट्रीय समिति से हमारी एकता को सुदृढ़ करने हेतु अनेक उपलब्धियां प्राप्त हुई है। हमने एक झण्डे को स्वीकार किया है। एक ध्वज गीत मान लिया गया है और हमें एक प्रतीक भी मिला है। प्राचार्य विनोबा भावे की प्रेरणा से भौर हमारे विद्वानों, साधुनों, श्रावकों के प्रयत्न से समस्त जैन समाज का एक मान्य ग्रन्थ श्रमण सूक्तम् तैयार हो गया है । भारत वर्ष के सभी प्रान्तों में प्रान्तीय समितियों का गठन हुआ है । सारा जन समाज आज एक प्लेट फारम पर सुन्दर ढंग से संगठित है ।
भारत के सभी प्रान्तों में इस वर्ष योजनायें बनी है और उन्हें काफी सफलतायें भी मिली हैं। राजस्थान की अपनी योजना, कार्य शैली और सगठन सभी प्रान्तों ने सर्वोपरि रहा है । हमारी राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष श्री कस्तूर भाई लाल भाई ने इसे स्वीकार किया है भौर राष्ट्रीय समिति के संगठन मंत्री श्रद्धेय रिषभदासजी रांका ने हमारी उपलब्धियों को महानतम बताया है र भूरि-भूरि प्रशंसा की है। राजस्थान में हमारी रहे हैं-
सफलताओं के तीन प्रमुख कारण
1.
2.
3.
M1
राज्य सरकार का पूर्ण सहयोग और समाज के कार्यकर्ताओं के साथ सरकारी अफसरों का ताल मेल ।
सुनियोजित संगठन और योजनाबद्ध कार्यक्रम |
जनता में जैन एकता की भावना को सही ढंग से फैला पाना और कर्तव्यनिष्ठ कार्यकर्त्ताओं की फौज तैयार हो जाना ।
राज्यपाल हैं । हमारे स्वर्गीय मुख्य मन्त्री श्री बरकतुल्ला खां के सभा
राज्य सरकार ने प्रारम्भ से ही भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव को पूर्ण रुवि लेकर मनाया है। सरकारी स्तर पर मुख्य मन्त्री की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ है जिसके सरक्षक में समिति का गठन हो चुका था । उनके प्राकस्मिक निधन के बाद हमारे वर्तमान मुख्य मन्त्री श्री हरदेव जी जोशी समिति की हर योजना) में व्यक्तिशः रुचि ले रहे हैं भोर हर समय हर सम्भव महयोग और दिशा निर्देश दे रहे हैं । वित्त मन्त्री श्री चन्दनमल जी वेद एवं शिक्षा मन्त्री श्री खेतसिंह जी राठौड समिति के उपाध्यक्ष हैं। श्री डी. आर. महता सरकारी सचिव है। महता साहब अगस्त में विशेष प्रशिक्षण हेतु यूरोप पधार गए हैं, उनकी अनुपस्थिति में श्री बालूलाल जी पनगडिया उनके कार्यों की बहुत ही सूझ-बूझ के साथ निभा रहे हैं
ई
सरकारी समिति की कार्य समिति के सदस्य निम्न व्यक्ति है-
1.
मुख्य मन्त्री श्री हरदेव जी जोशी
2. वित्त मन्त्री श्री चन्दनमलजी बंद
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
4.
5.
6.
समिति की सिफारिश पर राज्य सरकार ने जो घोषणायें की है। मुख्य रूप से निम्न
प्रकार है -
1.
2.
7.
3.
शिक्षा मन्त्री श्री खेतसिंहजी राठौड
श्री देवेन्द्र राजजी महता, सचिव
श्री राजरूप जी टांक
4,
5.
6.
श्री सम्पत कुमार जी गवैया
7.
श्री लूणकरण जी जैन
8. श्री रिखबराजजी कर्नावट
9.
श्री माणकचन्द जी सोगानी
10.
श्री भागचन्द जी सोनी
11.
12.
13.
14.
श्री बुद्धसिंहजी बाफना
श्री खेलशंकरभाई दुर्लभ जी
श्री कपूरचन्दजी कुलिश
श्री प्रगरचन्द जी नाहटा
इस वर्ष को शान्ति वर्ष घोषित किया गया है ।
इस वर्ष में किसी को फांसी की सजा नहीं दी गई है। इससे आठ व्यक्तियों छूट को मिली है ।
कैदियों को सजाऐं कम की गई है। इससे करीब 3500 व्यक्तियों लाभ पहुंचा है ।
दीवाली 1974 पर 3 दिन और 1975 पर 3 दिन तक शराब और मांस बिक्री पर प्रान्त भर में प्रतिबन्ध लगा दिया गया है ।
इस वर्ष शिकार का निषेध कर दिया है और जिन्हें लाइसेन्स दिये जा चुके हैं उन्हें निरस्त किया जा चुका है ।
प्रान्त अन्तर्गत 26 जिलों में 26 जिला पुस्तकालय है, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर में विश्वविद्यालय पुस्तकालय है तथा विधान सभा में भी पुस्तकालय है । उपरोक्त कुल 30 ही पुस्तकालयों में महावीर कक्ष की स्थापना की गई है। उपरोक्त योजना के अन्तर्गत 3 अगस्त सन् 1975 की समाज की तरफ से सवा लाख रुपये की 12000 पुस्तकें सरकार को भेंट की गई जिन्हें राज्य की तरफ से महामहिम राज्यपाल महोदय ने स्वीकार किया | अब भी अनेक दाताओं द्वारा साहित्य प्राप्त हो रहा है और तीसों ही पुस्तकालयों में भेजा जा रहा है ।
राज्य में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, अजमेर, अलवर, भरतपुर व कोटा कुल माठ जगहों में अजायबघर हैं । इन भ्राठों ही अजायबघरों में महावीर कक्ष स्थापित करना तय किया गया है। इनमें भगवान महावीर और जैन धर्म से सम्बन्धित प्राचीन कलाकृतियां, चित्रपट खण्डित मूर्तियां, दस्तावेज एवं अन्य महत्व पूर्ण पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री को स्थापित किया जायेगा । जयपुर में विश्व प्रसिद्ध हवामहल में महावीर क्ष कायम करने का निर्णय हुआ है । यह अपने प्रापमें बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय है ।
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन अजायबघरों में स्थापित करने हेतु जनसमाज से विशेष अनुरोध है कि अपने-अपने - क्षेत्र में स्थित अजायबघरों को ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शित करने योग्य सामग्री भेंट दें।
खण्डित मूर्तियां जो पूजनीय नहीं है, को विशेष रूप से प्रदान करने का प्रयत्न करना
प्रावश्यक है। 8. भगवान महावीर के 14 उपदेशों का संकलन किया गया है और उन्हें शिलालेख में
उत्कीर्ण किया गया है। शिला लेख 6 फीट ऊंचा 3 फीट चौड़ा और 6 इंच मोटा है। इसे विशेष रूप से लाल पत्थर का बनाया गया है ताकि हजारों वर्षों तक यह कायम रह सके । सभी 26 जिला मुख्यावास पर मुख्य चौराहों पर इन्हें स्थापित किया जा रहा है । कोई भी शहर गांव या मोहल्ले में यह शिला लेख स्थापित किए जा सकते हैं। सरकार द्वारा निर्धारित राशि सरकार को देने से शिलालेख निर्दिष्ट स्थान को दे दिए जायेंगे । सभी शहरों व गांवों के नागरिकों के लिए यह स्वर्ण अवसर है और सबको अवश्य अपने अपने शहरों में यह शिला लेख लगवाने चाहिए । जयपुर शहर में बजाज नगर के पास महावीर उद्यान बनाया जा रहा है । प्रान्त के अन्य बहुत से शहरों में महावीर उद्यान निर्मित होने प्रारम्भ हो गये हैं कुछ होने वाले हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर तथा उदयपुर विश्वविद्याखय में जैन शिक्षा का विभाग स्थापित किया जा रहा है । उदयपुर विश्वविद्यालय में विभाग स्थापित करने हेतु अखिल भारतीय साधुमार्गी सभा ने 2 लाख रुयये प्रदान करने का वचन दिया है । इस वर्ष में (दोवाली 1974 से 1975 तक) देशी अथवा विदेशी शराब के लिए जितने
लाईसेन्स शुदा दुकानें है उनमें वृद्धि न करने का सरकार ने निर्णय लिया है। 12. राज्य में स्थान-स्थान पर हरिजन व जनजाति के निवास हेतु बस्तीयां बनाई जायेंगी जिनमें
मांस एवं शराब का विक्रय नहीं हो सकेगा। ऐसे ग्राम महावीर ग्राम कहलाएगें। 13. राज्य की सभी स्कूलों, कालेजों, पंचायत समितियों व जेलों में भगवान महावीर और
उनके उपदेशों (सत्य, अहिंसा. मनेकान्त व विश्व मंत्री) पर प्रवचन मायोजित किये जा
11.
इस
14. भारत सरकार के सहयोग से प्रसिद्ध तीर्थ नाकोडा जी में एक ग्रामीण पुस्तकालय स्थापित
करने का निर्णय लिया गया है । जिसके लिए भवन निर्माण स्थानीय संस्थानों द्वारा होगा। 16. भारत सरकार के सहयोग से शीघ्र ही एक महावीर बाल केन्द्र भी स्थापित किया
जायेगा। राजस्थान में किसी भी व्यक्ति को अब हमेशा के लिए लूला मोर लंगडा नहीं रहने दिया जायेगा। इस हेतु विकलांग सहायता समिति का गठन किया गया है। जिसमें 2 लाख रुपया राजस्थान सरकार ने प्रदान किये है व 3 लाख रुपया समाज प्रदान कर रही है। इस संस्था की 250)रु0 प्रदान कर कोई भी व्यक्ति माजीवन सदस्य, 1000)२० प्रदान कर संरक्षक तथा 600)रु प्रदान कर कोई भी आजीवन सदस्य बन सकते हैं । जिस किसी भी गरीब व्यक्ति को उपरोक्त सदस्य मुफ्त इलाज हेतु भेजेंगे उसे नि:शुल्क पर
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
17.
लगा दिये जायेंगे। जयपुर में हाथ बनाने के भी परीक्षण चल रहे हैं और इसमें सफलता मिलते ही विकलांगों के हाथ लगाने भी प्राम्भ कर दिये जायेंगे। डा.पी० के० सेठी व डा) सुभाष कासलीवाल के तत्वावधन में एस०एम०एस० होस्पीटल मे प्रग प्रदान किये जा रहे हैं। इस समिति के संयोजक श्री होगवन्द जी वैद द्रव्य एकत्रित करने में पूर्ण प्रयत्नशील है। जैन चित्रकला, जैन वग्तुकला तथा जैनियों को राजस्थान की देन, विषयों पर 3 वृहद प्र-थों का निर्माण हो रहा है वल्पसूत्र के स्वलिम चित्रों की फोट कापी एवं उसके हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद सहित, पुस्तक का प्रकाशन हो रह है। इस कार्य हेतु पाठ व्यक्तयों की एक साहित्य समिति का गठन हुप्रा है जिपके निम्नांकित सदस्य हैं :(1) श्री अगरचन्द नाहटा
बीकानेर (2) डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
जयपुर (3) डा० मूलचन्द ठिा
सरदारशहर (4) डा. नरेन्द्र मानावन
जयपुर (5) डा० प्रार. सी० अग्रगल
जयपुर (6) श्री सम्पत कुमार गया
जयपुर (7) श्री देवेन्द्रराज महता
जपपुर (8) श्री जितेन्द्र कुमार जैन
बीकानेर 18. सभी जिलों में जिलाघोगों की अध्यक्षत में जिला कमेटियों का गठन किया गया है।
सभी जिलों के उत्साही कार्यकर्ता इस सदस्य हैं। सभी जिलों में बड़े उत्साह पूर्ण
कार्यक्रम सम्पादित हो रहे हैं। 19. इन सभी कार्यो के लिए सरकार ने 15 ला हाये दिये हैं । 20. इस वर्ष में सरकार ने जिला चूरू व नागौर में हमेशा के लिए शराब बन्दी लागू कर,
हमेशा के लिए र ज्य में शर ब बन्दी करने के मार्ग की तरफ कदम बढ़ाये हैं। 21. इस वर्ष में ही राज्य में हमेशा के लिए धमिक स्थानों में पशु ब ल निषेध बिल पास कर
भगवान मह वीर के सि के उपदेश के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि उपस्थित की गई है। बिल प्रस्तुत करने हेतु विधयक श्री भीममिह जी एवं पारित करने में पूग योगदान देने हेतु मभी विध यक, विशेषकर मुख्यमंत्री जी, स्पीकर महोदय, शिक्षा मंत्री खे:सिंह जी,
प्रशसा के पात्र है। 28. अनेकों स्कूलों, कालेजों व अन्य सार्वजनिक निर्माण कार्यों हेतु सरकार ने रियायती दर
पर भूमि प्रदान की है।
उपरोक्त सरकारी सहयोग से होने वाले सभी कार्यों के लिए मुख्यमंत्री जी, श्री चन्दनमल जी वेद, श्री खेतसिंहजी गठौर, श्री डो० आर० मेहता. श्री पनगडिया जी, सचिवानम के सम्मन्धित कम गरीगण, सभी जिला के जिलाधोश जिलों के सम्बधित कर्मचारीगण एवं अन्य सभी व्यक्ति जिन्होंने इस समारोह को मनाने में सहयोग दिया है, वे सभी प्रशसा के पात्र हैं।
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान की जनता ने और विशेषकर जैन समाज ने बहुत ही सुनियोजित ढंग से संगठित होकर इस महोत्सव वर्ष को मनाया। प्रान्तीय राज्य समिति में जितने भी जन सदस्य थे उन्होंने राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर 2500 वा निर्वाण महोत्सव महासमिति के रूप में अपने मापको सगठित किया। 200 से अधिक प्रात भर के अन्य कार्यकर्ताओं व नेताओं का महासमिति में सहदरण किया गया । महासमिति ने निम्न पदाधिकारी चुने गए :1. अध्यक्ष
श्री भागचन्द जो सोनी-अजमेर 2. कार्याध्यक्ष
श्री राजरूप जा टांक-जयपुर 3. उपाध्यक्ष
श्री खेलशंकर जी दुलभ जी-जयपूर
श्री मन्नालाल जी सुराणा-जयपुर प्रधानमंत्री
श्री सम्पतकुमार जी गया ---जयपुर कोषाध्यक्ष
श्री मोहनलाल जी काला-जयपुर -- 6. संगठन मत्री
श्री रिखबराज जो कर्णावत-जोधपुर हर जिले में जिले में कार्य को संगठित करने हेतु जिला संयोजक मनोनीत किये गए । हुम्ही जिला संयोजकों की परापर्श से जिलाधीश महोदय ने जिला समितियों का गठन किया है। प्रायः सभी जिलों में सामाजिक स्तर पर गठित समितियों ने काम को गति प्रदान करने में महत्वपर्ण
भूमिकागें अता की हैं । हमारे 25 जिलों के जिला संयोजक निम्न महानुभाव है ;.. 1. अलवर -श्री पदमचन्द जी घालावत बजाजा पो० अलवर
2. अजमेर-श्री अमर चन्द जी लूणिया-लूणिया मैन्शन, नया बाजार, अजमेर
बीकानेर-श्री जय बन्द लाल जी नाहटा-न.हटा चोक, बीकानेर 4. बूदी-श्री जयकुमार जी जैन एडवोकेट-बूदी।
बांपवाडा---श्री राजमल जी जैन, 'गे० खमेरा, जिला बांतपाडा 6. बाडमेर-श्री भूरचन्द जैन-जूनी चौकी का बस, बासवाडा 7. भरतपुर-श्री तेजपाल जी रोकडीया-समान कल्याण विभाग, पो० भरतपुर 8. भीलवाडा --श्री शान्तिलाल जो पोकरना-राजस्थान कामर्शियल हाऊस, भूपाल गंज,
भीलवाडा। 9. चूरू-श्री सोहनलाल जी ही रावत, ज्ञानोदय मागं, चुरू 10. चित्तोड-श्री नवरतनमल जी पटवारी-चित्तौड 11: डूगरपुर - श्री कुरी :न्द जी जैन धुपट्टा बाजार, पो० डूगरपुर
12. श्री गंगानगर-श्री लूणकरणजी जैन एडवोकट-मगल निवास, श्रीगंगानगर _ 13. जयपुर---(1) श्री राजरूप ली टांक, जोहरी बाजार, जयपुर
(2) श्री कपूरचन्द जी पाटनी, पाटनी जैन एन्ड कम्पनी, बरडिया भवन,
जौहरी बाजार, जयपुर । 14. जोधपुर-श्री माणकचन्द जी सचेती - चार्टेड अकाउटेन्ट पावनाय मन्दिर, भैरू बाग,
__ जोधपुर 15. झालाबाड--श्री सम्वतराजजी सिघी पो० बक्काणो जिता झालावाड
-
-
--
--
--
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
vir .. 16. जालौर--श्री भंवरलालजी महेता, पो० भीनमाल, जिला जालौर - 17. जैसलमेर-श्री सौभाग्यमलजी जैन, इन्सपेक्टर माफ स्कूल, जैसलमेर
18. मुझुनू-श्री विमलचन्दजी श्रीमाल-श्रीमाल मोहल्ला, झुन्झुनू • 19 कोटा-श्री माणक चन्दजी गोधा द्वारा जम्बूकुमार जी जैन बीजवाडा, कोटा 20. नागौर-श्री पी०सी० जैन, एल०आई०सी० एजेन्ट, नागौर 21. पाली--श्री सम्पतमलजी भण्डारी, उदयपुरिया बाजार, पाली 22. सवाईमाधोपुर--श्री रूपचन्दजी जैन, स्टेशन बजरिया, सवाई माधोपुर 23. सिरोही--श्री तेजराजजी बाफना, सिरोही 24. सीकर--श्री केसरचन्दजी दीवान--सीकर 25. टोंक--श्री फतेहलालजी जिवाणी--पुरानी टोंक 26. उदयपुर--श्री भैरूलाल जी धाकड--71 भूपालपुरा, उदयपुर
उपरोक्त जिला संयोजकों के अन्तर्गत तहसीलों में भी अनेक कार्यकर्तामों ने महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । जोधपुर जिले में जैन समाज के स्तर पर करीब 40 लाख रुपये की योजनायें प्रारम्भ की गई है। श्री घेवरचन्दजी कानूनगो के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्षेत्र में नया उत्साह भर दिया है । बाड़मेर में 40 लाख रुपये के करीब की योजनायें हाथ में ली गई है। जिनमें तीन प्राथमिक पाठशाला. पुस्तकालय, महावीर मंच, मातृ शिशु कल्याण केन्द्र, महावीर भवन, काटेज वार्ड, महावीर नगर, महावीर उद्यान, महावीर चौक आदि कई निर्माण करना विशेष उल्लेखनीय है । जिला संयोजक श्री भूरचन्दजी जैन की लगनशीलता, सूझ-बूझ एवं उत्साह की मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी पडती है। उन्होंने कार्य को जो गति प्रदान की है वह अनुकरणीय है। महासमिति को ऐसे कार्यकर्तामों पर गर्व है। इनके सहयोगी श्रीयुत नेमचन्दजी गोले छा ने भी कार्य सम्पादन में बहुत सुन्दर सहयोग किया है । अजमेर में श्री अमरचन्दजी लूणिया व तपेतपाए कार्यकर्ता श्री मांगीलाल जी जैन के नेतृत्व में बहुत सुन्दर कार्य हुमा है। अलवर समान को संगठित करने में एव उसमें उत्साह का जबरदस्त शंखनाद फूकने में श्रीपदमचन्द पालावत ने गजब का काम किया। वहां पर 15 लाख की योजनायें निर्माणाधीन है। । सोकर क्षेत्र के बुजुर्ग मगर युवकों को उत्साह वाले नेता श्रीकेसरीमलजी दीवान ने स्वल्प सामग्री में अच्छा कार्य किया है।
गंगानगर में श्री लूणकरण जी जैन व समिति के मंत्री श्रीमहनलालजी चौपडा महावीर बाजार व महावीर कालोनी बना रहे हैं । बांसवाडा के राजमलजी ने भी, बांसवाडा जैसे पिछड़े क्षेत्र में सुन्दर योजना बनाई है।
चित्तौड़ के नवरतनम जी पटवारी रचनात्मक कार्यकर्ता रहे है। उन्होंने अपने साथियों के सहयोग से बलि के विरूद्ध लोकमत तैयार किया है। वीरवाल समाज को सुसंस्कारित करने का प्रयास कर रहे है ।
भीलवाडा में शांतिलाल जी को कई परिक्षाओं में से गुजरना पडा है । सम्पतमलजी लोढा, डांगी जी, सुवालालजी खान्या, मांगीलालजी नवलखां तथा अन्य युवक साथियों के सहयोग से उन्हें भी अब सफलता मिलने लगी है। सवाईमाधोपुर जिले को संगठित करने में कल्याणमलजी झण्डेबाला व रूपचन्दजी जैन का प्रमुख हाथ रहा है ।
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
if
उदयपुर में जैन समाज को अनेकों पी०एच०डी प्रोफेसरों का नेतृत्व प्राप्त है वहां बडी सुन्दर योजनायें, महावीर स्मारक, यूनिवर्सिटी में चेयर आदि बन रही है । हमारे संयोजक श्रीधाकड जी एवं डा० सौगानी, डा० प्र ेम सुमन, डा० कुन्दनलालजी कोठारी, श्री गणेशजी डाकलिया एवं वयोवृद्ध नेता श्री वलवन्तसिंह मेहता की भूमिकायें विशेष उल्लेखनीय हैं।
पाली जिले में श्रीयुत सम्पतमलजी भण्डारी, चन्दुलालजी कर विट एवं श्रमरचन्द जी गादिया श्रादि युवक साथी बहुत ही उत्साह पूर्वक कार्य में जुटे हुए हैं । पाली, जालोर, सिरोही जिला निवासियों ने 2 करोड की लागत के बहुत बड़े व आधुनिक साज सज्जा वाले होस्पीटल को बनाने की योजना बनाई है ।
राजस्थान के कतिपय तहसील मुख्यालयों व गांवों में बहुत सुन्दर कार्य हो रहे हैं, श्री लालचन्दजी सिंघी, ब्यावर घनराजजी जैन जैतारन, चांदमलजी दुगड प्रसिद भंवरलाल जी कर्णावट व देवेन्द्रकुमार हिरण राजसमन्द, भीकमचन्दजी कोठारी टोटगढ, सोहनलालजी म आमेट, दोपचन्दजी जैनाकुचामन, मोहनराजजी जैन पाली, माणकचन्दजी सोगानी श्रीलाल क वडिया, जीतमल जी चोपडा, आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है ।
शिक्षा के क्षेत्र में कतिपय महामना महत्वपूर्ण सेवायें समाज को दे रहे हैं । सन्त पुरुष श्री केसरीमल जी सुगना की निरन्तर लगन और त्याग भावना का ही प्रतिफल है कि राणावस विद्याभूमि में परिरगत हो गया है और श्राज वहां स्कूल, कालेज, बोडिंग हाऊस के माध्यम से बालकों का बहुत ही सुन्दर भविष्य निर्माण हो रहा है । समाज के तपेतपाए नेता श्री फूलचन्द जी बाफना विद्यावाडी राणी के माध्यम से राजस्थान के नारी समाज को अनुपम शिक्षा प्रदान करने का प्रयत्न कर रहे हैं । उदय जैन कानोड में स्कूल के दायरे से आगे बढ़ कर कालेज की स्थापना कर रहे हैं । साहित्य के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रगति हुई है । प्राचार्य तुलसी के सानिध्य में प्रागम सम्पादन का कार्य निरन्तर चल रहा है। जैन विश्व भारती ने बहुत ही महत्वपूर्ण साहित्य का प्रकाशन क्रिया 1
आचार्य हस्तीमल जी के सानिध्य में बहुत ही खोजपूर्ण महत्वपूर्ण जैन धर्म का मौलिक इतिहास तैयार हो रहा है। जिसके दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं । मधुकर मुनि की प्रेरणा से भगवान महावीर का सुन्दर जीवन चरित्र हमारे सम्मुख प्राया है। महावीर की तीर्थ क्षेत्र कमेटी व टोडरमल स्मारक ने अच्छा साहित्य प्रकाशन किया है ।
अगर चन्द जी नाहटा जैसे शोधकर्ता व डा० नरेन्द्र भानावत, डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, डा० प्रेम सुमन, डा० सौगानी जी जैसे तटस्थ विचारक व लेखक निरन्तर साहित्य सेवा कर रहे हैं। श्री देवीलाल जी सांमर ने कठपुतली के माध्यम से भगवान महावीर के जीवन और उपदेशों को बहुत ही मार्मिक और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया हैं। अपनी भारतीय कला मण्डल की टीम के साथ वे शीघ्र ही विदेश यात्रा पर जा रहे हैं। श्री महावीर राज गेलडा प्राध्यापक डूंगर कालेज बीकानेर हर वर्ष दर्शन परिषद् के माध्यम से विद्वानों को आमंत्रित करते हैं। यह परिषद् जैन विश्व भारती द्वारा आयोजित होती है ।
राजस्थान में इस वर्ष जैन एकता की प्रबल लहर भाई है और श्राज सम्पूर्ण समाज छोटेछोटे टुकड़ों में विभक्त न रहकर अपने प्रापको एक रूप में संगठित पा रहा है । इस वर्ष की सबसे
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
महत्वपूर्ण उपलब्धियां है समाज का संगठित होना और नाना सुयोग्य व उत्साही कार्यकत्तानों का समाज को प्रन होना।
राजस्थान की राजधानी नयपुर में इस वर्ष अनेकों महत्वपूर्ण कार्यक्रम हुए है। दीवाली 74 पर बड़े ही सुन्दर अष्ठ दिवसीय कार्यक्रय प्रान्तीय सपिति के तत्वावधान में रखे गए थे जिनमें विशाल जुलूस, जन सभा, सांस्कृतिक कार्यक्रपों व समाज सुधार गोष्ठी विशेष उल्लेखनीय है। महावीर जयन्ति पर जयपुर की जनता का उल्लास वर्णानातीत था ! उस दिन जयपुर का जन मानस जुलूस के समय सड़क पर नहीं समा रहा था। रामलील मैदान का पाण्डाल भी छोटा पड़ गया। प्राचार्य तुलसी ने जनता की उत्साह समीक्षा करते हुए कहा कि जयपुर के जुलूस व विशाल जन सभा का प्रायोजन दिल्ली की अपेक्षा किसी कदर भी कम नहीं है । तारीख 3-8-75 को साहित्य समर्पन दिवस पर जितने कम समय में जितना अधिक साहित्य हमें मिला उसको हमें प्रसन्नता है । इस अवसर पर जब विकलांग सहायता समिति की बात उपस्थित ज' समुदाय को बताई गई तो सिर्फ 15 मिनट के समय में हाथों हाथ जनता ने 1 लाख रुपये को धोषण। वहीं पर ही कर दी।
इस वर्ष दीवाली पर हमने स्मारिका प्रकाशन का निश्चय किया है ताकि इस माध्यम से हम साल भर की हमारी योजनाओं व कार्यकलापों का लेखा जोखा ले सकें और आगे की योजनाओं के बारे में सोच सकें। राजस्थान मे जो योजनायें बनाई गई हैं एवं जो कार्य प्रारम्भ किये गए हैं उनकी पसफल हेत समय की प्रावश्यकता है और लक्ष्य की प्राप्ति तक जिस महासमिति ने उन्हें इतना बल व प्रेरणा प्रदान की है, का संरक्षण अावश्यक है। इन सब प्रा.श्यकताओं को मध्य नजर रखते हुए महासमिति के कार्यकाल को एक साल के लिए और बढ़ा दिया गया। राज्य सरकार से भी राज्य समिति की कार्यकाल को बढ़ाने का प्रनुरोध किया गया है ।
समिति ने संवत्सरी एकता का वोड़ा बड़ा उठाया है इस कार्य हेतु प्राचार्य तुलसी, प्राचार्य नानालाल जी, प्राचार्य हस्तीमल जी, मुनि श्री मिश्रीमल जी (मरूधर केशरी) एवं मधुकर मुनि प्रभृति मुनियों का आशीर्वाद प्राप्त हो चुका है। रिख बरा न की कर्णावट को संवत्सरी एकता उपसमिति का संयोजक मनोनीत किया ग-1 है। आप सब लोगों का पूर्ण सहयोग मिलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जबकि हम सब मिलकर एक दिन ए साथ ही संम्वत्सरी मनायेंगे ।
___ अजमेर के जिलाधीश श्रीयुत्त कुम्मट जी ने अनुपम समाज सेवा का अनुपम व्रत लिया है उनकी प्रेरणा से एक बहुत ही सुन्दर समाज सेवी संस्था का जन्म हो रहा है। इसी प्रकार बाडमेर जिले के जिलाधीश भी अनिल वैश्य, लेखाधिकारी श्री बाबूमल भूत्ता एवं नगरपालिका अध्यक्ष श्री मदनलाल रामावत का भगवान महावीर निर्माण महोत्सव के विभिन्न कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान दिया है।
हसमिति की बैठकें अजमेर, जोधपुर श्री डूगरगढ़ (जिला चूरू) व जयपुर में आयोजित हो चुकी है। जोधपुर में करीब 10 हजार व्यक्ति हमारे आयोजन में सम्मिलित हुए थे। मुनिश्री मधुकर जी एव साध्वी श्री विजय श्री जी आदि ने इसमें प्रमुख रूप से भाग लिया था तथा भगवान महावीर की जीवनी जिसके कि प्रमुख सम्पादक मुनि श्री मधुकर जी थे का विमोचन हुआ था । श्री डूंगरगढ़ में करीब 20 हजार व्यक्तियों की उपस्थिति में समिति का आयोजन सम्पन्न हुधा । प्राचार्य श्री तुलसी का सानिध्ध प्राप्त हुआ एवं केन्द्रीय वित्त मंत्री श्री सुब्रह्मण्यम् एवं राज
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थान के वित्त मंत्री । चन्दनमल जी वैद विशेष रूप से पधारे थे। मैं चारों ही जगह के मायोजकों व कार्यकर्तामों को सुन्दर प्रबन्ध व व्यवस्था के लिए धन्यवाद देना चाहता हूं। श्री घेवर चन्द नो कानूनगो, रिखबराज जो कर्णावट, माणकचन्द जी संचेती, लक्ष्मीचन्द जी, श्री गांधी जी प्रादि जोधपुर के कार्यकर्ता एव श्री अमरचन्द जो लूणियां, मांगीलाल जी जैन, श्री लाल जो कावडिया माणक चन्द जी सागानी मादि अजमेर के कार्यकर्ताओं, श्री बच्छर ज जी पारख, सम्पतराम जी भादाणी एवं श्री कन्हैया लाल जी छाजेड आदि डूंगरगढ़ के कार्यकर्ताओं तथा श्री कोचिन्द जी टांक, राजकुमार जी बैगानी, श्री कैलाशचन्द जी, पूनम चन्द जी, सुरेन्द्र कुमार जो श्री माल, अशोक संचेती आदि जयपुर के कार्यकर्ताओं को प्रावास, भाजन व प्रान्य सभी प्रकार की व्यवस्था के लिए मैं भनेकानेक धन्यवाद देता हूं।
जयपुर से सात मील दूर सुराना फरम में भगवान महावीर केवलज्ञान दिवस प्राचार्य तुलसी के सानिध्य में मनाया गया। जिसमें केन्द्रीय वित्त मंत्री श्री सी. सुब्रह्मण्यम् राजस्थान के वित्त मंत्री श्री चन्दन मल जो वैद, राजस्थान के सीकर श्री राम किशोर व्यास ने भाग लिया।
समिति के कार्य सम्पादन में अध्यक्ष श्री भागचन्द सोनी की सूझबूझ का बड़ा सहयोग रहा है । कार्याध्यक्ष श्री राजरूप जी टांक हमारे प्रेरणा व शक्ति के केन्द्रक रहे हैं। जहां जहां भी हमारे कार्यों में दिक्कतें आई वे ढ ल बनकर हमारे वारण के लिए समुपस्थित रहे । अन्यान्य पदाधिकारियों का भी यथोचित सहयोग मिलता रहा है। श्री कपूरचन्द जो पाटनी, हीराचन्द जी वैद. रतनलाल जी छाबड़ा व पन्नालाल जी बाठिया ने समिति को अत्यन्त महत्वपूर्ण सेवायें की है। श्री कपूरचन्द जी पाटनी का हर कार्य में प्रत्यन्त सक्रिय सहयोग मिला है। जयपुर में जुलूस का जब जब भी विराट आयोजन हुप्रा उसकी सम्पूर्ण सुन्दर व्यवस्था में कपूर नन्द जी पाटनी जी ने अथक परिश्रम किया है। विशाल जलूसों को सुन्दर ढंग से संगठित करने का भार श्री कपूरनन्दजी पाटनी पर रहा है। पौर राजस्थान में जुलूस सज्जा और व्यवस्था की दृष्टि से उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किया है। . हीराचन्द जी वैद के जिम्मे विकलांग सहायता समिति हेतु द्रव्य इकट्ठा करना है। इस माध्यम से वे मानवता को बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं ! श्री रतनलाल नी छाबड़ा, श्रीपन्नालाल बांठिया का सहयोग जब भी जिस रूप में महासमिति ने चहा है उसे मिला है।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सफल बनाने में श्री बाबूलाल जी पाटनी, श्री तिलकराज जी
सहयोग रहा है। श्री ज्ञानचन्द जी संचेती व श्री लक्ष्मी नन्द जी जैन के पाथियों के तथा अन्यान्य सभी संगीत जैन मण्डलोंका हमारे सभी सांस्कृ िक काय कमा में पूर्ण योगदान रहा है जिसके लिए सभी बधाई के पात्र हैं। श्री चन्दनमल जो गुजरानी, होराभाई एम. चौधरं', मोतीलाल जी भड़कतिया, सौभागमल जा नाहटा, गुमानमलजी, उमरावमल जी चोरडिया, सरदार चौपड़ा, सरदारमल जो ढढा, मन्नालाल जी सुराना, खेलशंकरभाई दुलभ जी, दाबूलाल जी शाह केवल चन्द जी ठोलिया, जयकुमार जी जैन, शीलप्रसाद जी, तिलकराज जो, महेन्द्र जैन, बलभद्र जी जैन, सुरज्ञानीचन्द जी लुहाड़िया, ताराचन्द जी पाटनी व बाबूलाल जी पाटनी का सहयोग विशेष उल्लेखनीय रहा है। डा० मूलचन्द जी से ठया, हुकमचन्द जी भारिल्ल, भंवरलाल जी न्यायतीर्थ मिल पचन्द जैन आदि वनाओं न तथा राजमन जी जैन, व प्रसन्नकुम र जीसेठी जैसे कवियों ने हमारे समारोह को सफल बनाया है। डा० राजमल जी कासलीवाल वृद्धावस्था में भी हमे प्रेरणा व उत्साह
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
देते रहे हैं। श्री विमलचंद जी सुराणा, श्री हरिश्चंद जी बडेर, उत्तमचंद जी सेठिया मादि से जो सहयोग मिला है वह स्मरणीय रहेगा। श्री प्रवीणचन्द छावड़ा, प्रेमचन्द जी छाबड़ा, हरिशचंद जी गोलछा, तेजकरण जी डंडिया तथा अन्यान्य कला मण्डलो व मण्डलियो ने हमारे को सफल बनाने में जो योगदान दिया प्रशसनीय है । महिला कार्यकत्रियों में श्रीमती प्रभा शाह व कुमारी विमला बाठिया का सहयोग महत्वपूर्ण रहा । हमारे जुलूसों में तेरापंथी महिला मण्डल की सदस्यानों ने भाग लेकर जयपुर के इतिहास में एक महान कार्य किया और महिलाओं के लिए जुलूस में शरीक होने का रास्ता प्रशस्त किया ।
शिवजी राम भवन, प्रात्मानंद सभा भवन, बड़ा दीवान जी मंदिर, लाल भवन, ग्रीन हाऊस महावीर विद्यालय हाल, टोडरमल स्मारक, मादर्श नगर जैन मंदिर, प्रेमप्रकाश सिनेमा व रामलीला मैदान में हमारे प्रायोजन होते रहे हैं। सभी संबंधित अधिकारियों को मैं धन्यवाद देना चाहता हूं। स्वयं सेवक व्यवस्था हेतु वीर सेवक मण्डल के सदस्यगण बधाई के पात्र हैं।
टांक साहब के यहां रहने वाला नाई भंवरलाल तथा राजस्थान जैन सभा के कर्मचारी श्री बल्लभशम को मारी जैन समाज के घर-घर जाकर हमारे प्रोग्रामों के लिए ग्राम लिए विशेष रूप से धन्यवाद का पात्र मानता हूँ। श्री भागचंद जी जैन ने हमेशा माईक की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की है।
और अंत में मैं स्मारिका के सभी सम्पादकों विशेष कर श्रीभंवरलालजी पोल्याका एवं हमारे प्रबंध सम्पादक द्वय के प्रति विशेष आभार प्रदर्शित करना चाहता हूँ।
मुनि श्री विशाल विजय जी, मुनि श्री जयानंदन, क्षुल्लकजी"...." साध्वी श्रीसूरजकंवरजी, कमलश्री जी एवं कौशल्या श्रीजी पिछली दीवाली पर विशेष सानिध्य मिला जिसकी हमें प्रसन्नता है। इस वर्ष प्राचार्य श्री तुलसी व साध्वी श्री विचक्षण श्री जी व श्री सजन श्री जी, जेसी दिग्गज प्रतिभाओं का सानिध्य हमें प्राप्त हुआ है एतदर्थ हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। कार्यालय के कार्य सम्पादन में श्री मदन मोदो एवं श्री भंवर लाल पारख का जो सहयोग मिला है उसे मैं भूल नहीं सकता।
हजारों-हजारों मानव मेदनी का हमें प्यार, सम्मान व सहयोग मिला है। उस सबके लिए मैं महासचिव की ओर से उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं और प्राशा करता हूँ कि भगवान महावीर का संदेश और उपदेश फैलाने में, आत्मसात् करने में जो उत्साह व सहयोग सबने दिवाया वह हमेशा के लिए चिरस्थायी रहेगा।
(सम्पत कुमार गधइया)
जय बोरम् "श्री वृद्धि" टी.-38 सुभाष मार्ग, सी स्कीम,
जयपुर
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशाल जलूस की झांकी
NI
भगवान महापार Soldifणमहील्लव
संग्रह क. फरह-क्लेशति सौन्दन्न अतोनी पनि
नाकीवक मण्डल
वनका प्रधान सभा नोटा होता है कालेज,
Aमही मच्चाजाना
मिकालय हा
२५०० वें महावीर निर्वाणोत्सव के उपलक्ष में दिनांक १३ नवम्बर ७४ को निकाले गये जुलूस का एक विहंगम दृश्य ।
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाड़मेर जिला - नवनिर्मारण की ओर
zili
1. भगवान महावीर नगर की स्थापना :
बाड़मेर नगर में नगरपालिका की ओर से भगवान महावीर नगर की स्थापना की गई। यह नगर महाविद्यालय के समीप एक विशाल क्षेत्र में बसाया जा रहा है। जिसमें करीबन 2350 भावासीय भूखण्ड होंगे | फिलहाल 1151 प्लाट बनाने की योजना क्रियान्वित कर दी गई है । इस नगर में पार्क, बाजार, पोस्ट ग्राफिस, बैंक, शिक्षण संस्थानों के अतिरिक्त भगवान महावीर पार्क हेतु भूखण्ड सुरक्षित रखे गये हैं। इस नगर में अनुसूचित एवं जनजाति के लोगों को भी प्राथमिक्ता के साथ प्रावासीय भूमि आवंटित की गई है ।
10
2. भगवान महावीर चौक :
बाड़मेर नगर के कल्याणपुरा जैन मंदिर के सामने वाले चौक का नाम भगवान महावीर चौक रखा गया है । जिसका निर्माण कार्य नगरपालिका बाड़मेर करवा रही है। इस चौक को डामर से पक्का बनाया जा रहा है जिसमें भगवान महावीर के उपदेशों का एक स्मारक भी स्थापित किया जावेगा । इस चौक पर करीबन 25000 रुपये व्यय होने का अनुमान है। यह निर्माण कार्य निर्वाण महोत्सव वर्ष में ही पूर्ण किया जायेगा ।
3. महाबीर मार्ग .
बाड़मेर नगर के तेलीपाड़ा के समीप हेमराज मेहता के निवास स्थल वाली गली का नामकरण निर्वाण महोत्सव वर्ष में 'महावीर मार्ग' रखा गया है |
4. भगवान महावीर मंच :
राजकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में एक सुन्दर एवं पक्का 'भगवान महावीर मंच' का निर्माण करवाया गया है। इस निर्माण कार्य पर करीबन ० 40001व्यय हो चुके हैं । यह निर्माण कार्य बाड़मेर जिला भगवान महावीर 2500वt निर्वाण महोत्सव समिति द्वारा किया गया है ।
5. भगवान महावीर शिलालेख ।
दीपावली 1975 से पूर्व राज्य सरकार से प्राप्त भगवान महावीर स्वामी के उपदेशों का एक शिलालेख स्तम्भ नवनिर्मित होने वाले भगवान महावीर उद्यान में नगरपालिका बाड़मेर द्वारा स्थापित किया जावेगा ।
6. भगवान महावीर उद्यान का निर्माण :
नगरपालिका बाड़मेर की ओर से जिलाधीश कार्यालय के सामने करीबन 40 हजार रुपये की लागत से एक महावीर उद्यान का निर्माण हो रहा है। जिसमें सुन्दर एवं प्राकर्षक फव्वारा बनाया जा रहा है । इसी पार्क में 40 हजार की लागत से महावीर कुटीर हेतु दो सुन्दर कमरों का निर्माण किया जा रहा है। जिसमें जैन संस्कृति का दिग्दर्शन करवाया जावेगा। जिले की प्राचीन शिल्पकला कृतियों, ग्रन्थ एवं चित्रों को इस कुटीर में संजोय रखने की समुचित व्यवस्था की जायेगी ।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
7. भगवान महावीर काटेज वार्ड :, ..........
बाड़मेर के राजकीय चिकित्सालय प्रांगण में सर्वश्री पुरुषोतमदास भंवरलाल बोहरा, मूलचन्द सिन्धी एव रिख बदास वडेर द्वारा चार कमरों का एक काटे । वार्ड का निर्माण करवा कर जनता की सेवा मे भेंट कर दिया है। इस काटेज वार्ड पर करीबन 60 हजार रुपया व्यय किया गया है। 8. भगवान महावीर की कहानी पुस्तक :
बड़मे जिला भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महोत्सव समिति के मंत्री भूरचन्द जैन द्वारा लिखी भगवान महावीर की कह नी पुस्तक को एक पाकेट बुक दीप.वलो 1975 से पूर्व भगवान महावीर सैल से प्रकाशित की जा रही है। 9. स्कूल भवन एवं प्याऊ का निर्माग:
इसी निर्वाण महोत्सव वर्ष में बाड़मेर के समाजसेवी परतापजी की प्रोल के गोले छा बन्धुओं की ओर से नेहरू नगर में एक प्राथमिक पाठश ला भवन एवं प्याऊ का निर्माण करवाया जा रहा है जिस पर करीबन 50 हजार रुपये व्यय होंगे। 10. मातृशिशु कल्याण केन्द्र का निर्माण :
निर्वाण महोत्सव वर्ष के दौरान बाड़मेर के भगत चेरेटीबल ट्रस्ट की ओर से एक लाख दस हजार रुपये की लागत से राजक य चिकित्सालय बाड़मेर के प्रांगण में म तृ शिशु कल्याण केन्द्र भवन का निर्माण हो रहा है यह भवन दी। वनी 7) से पूर्व पूर्ण हो जावेगा। 11. अकाल पीड़ितों को सहायता :
बाड़मेर जिला भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति की ओर से राजस्थान नहर पर लाने वाले अकाल पीड़ितों को सहारता हेतु दस हजार रुपय दिये गये। इस धनराशि से मकाल पीड़ितों को प्रन्न निःशुल्क दिया गया। 12. जैन मन्दिर, धर्मशाला एवं बापावास
. बाड़मेरे नगर के श्री पार्श्वनाथ जिनालय में चार संगमरमर की वेदियां बनाई जा रही है। जिस पर अनुमानतः करीबन एक डेढ ल ख या व्यय होगा। इसी प्रकार कल्याणपुरा जैन मन्दिर के पास जैन धर्मशाला भी इसी वर्ष बनाई गई है। जिस पर अनुपात: 15 हजार रुपये व्यय हुए हैं। निर्वाण वर्ष से पूर्व बाड़मेर नगर में जन छ त्राव स बन रहा है उस इसी निवारण महोत्सव वर्ष में पूर्ण कर प्रारम्भ करने की व्यवस्था की जा रही है। . 13. भगवान महावीर पुस्तकालय: ।
बाड़मेर जिला मुख्यावास पर श्री भूपचन्द जैन मंत्री भ. म. 2500वां नि. म. स. बाड़मेर के निवेदन पर उनके परिवार के सर्वश्री सुनता :मल, मुम् नपन एवं वीचन्द जैन पुत्र श्री फोनमल बोहरा की तरफ से करीबन 15000 रुपए की लागत से भगवान महावीर पुस्ताय - 1 शोघ्र ही निर्माण करवाने की व्यवस्था की जा रही है। 14. भगवान महाव र मात शिश कल्याण केन्द्र :
. बाड़मे मिल के सिवाना नगरपालिका क्षेत्र में कानूनगो चे रेटीब ' ट्रस्ट की और से दो लाख हाया, व्यय करके भावान महावीर मातृ शिशु पारण केन्द्र' खोल यि गया है जो व्यव स्थित रूप से काय कर रहा है ।
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
15, भगवान महावीर प्याऊ :
सिवाना में श्री बस्सीराम भंवरल ल दांती बालोतरा वालों ने 25 हजार रुपया व्यव करके एक सार्वजनिक प्याऊ का निर्माण कार्य पूर्ण करवा दिया गया है !
16. भगवान महावीर भवन का निर्माण
सिवाना कस्बे में करीबन एक लाख रुपये की लागत से जैन समाज की तरफ से भगवान महावीर भवन बन रहा है जो शीघ्र निर्धारण महोत्सव वर्ष में पूर्ण हो जावेगा । 17. भगवान महावीर होम्योपैथिक चिकित्सालय :
सिवाना में एक लाख रुपये की लागत से कानूनगो चेरेटीबल ट्रस्ट द्वारा भगवान महावीर होम्योपैथिक चिकित्सालय भवन बन रहा है । 18. नेत्र चिकित्सा शिविर :
कानूनगो चेरेटेबिल ट्रस्ट एवं जन सहयोग से सिवाना में दिनांक 2-4-75 को एक नेत्र चिकित्सा शिविर लगाया गया जिसमें 21 लोगों के आपरेशन हुए और 200 लोगों की प्राथमिक चिकित्सा की गई। भांखों के आपरेशन भाद्रि की समुचित व्यवस्था निःशुल्क की गई । 19. भगवान महावीर कन्या पाठशाला :
सिवाना कस्बे में जनसहयोग से तीन लाख रुपये की लागत से इसी वर्ष में भगवान महावीर कन्या पाठशाला भवन की योजना विचाराधीन है जिसकी प्रारम्भिक सभी प्रकार की तैयारियां पूर्ण कर ली हैं ।
20.
भगवान महावीर शिलालेख :
सिवाना तहसील एवं पंचायत समिति के कार्यालय के सामने भगवान महावीर स्वामी के उपदेशों का एक शिलालेख श्री लालचंद हस्तीमल चोधरी सिवाना की तरफ से लगाना निश्चित कर दिया गया है जो इस वर्ष में लगाया जायेगा। इस पर करीबन 15 हजार रुपये व्यय किये जायेंगे। अकाल पीड़ितों को निःशुल्क सहायता :
21.
इस निर्वाण वयं के दौरान सिवान के प्रधान श्री रतनबन्द बालड़ की बालड़ परिवार ने सिवाना तहसील के महाल पीड़ितों को निशुल्क भोजन हेतु हजार लोगों में बितरण किया।
22.
भगवान महावीर भवन का निर्माण
नाकोड़ा जन तीर्थं - मेवानगर पर करीबन दो लाख रुपये की लागत से भवन का निर्माण कार्य श्रारम्भ हो गया है। इस भवन में भगवान महावीर के को प्रदर्शित किया जावेगा । भवन में रंगमंच एवं पुस्तकालय की व्यवस्था भी होगी। 23. भगवान महावीर कालोनी का निर्माण :
-
नाकोड़ा तो ट्रस्ट कमेटी मेवानगर ने इस तीर्थ पर 6 लाख रुपये की लागत से भगवान महावीर कालोनी का निर्माण प्रारम्भ कर दिया है। जिसमें सुविधाजनक आवास भवनों की व्यवस्था होगी । दस कालोनी में सुन्दर उद्यान का निर्माण भी किया जावेगा ।
24.
भगवान महावीर जैन धर्मशालाएं :
बाड़मेर से जैसलमेर सड़क मार्ग पर श्री नाकोड़ा जैन तीर्थ की घोर से रुपये की लागत से तीन जैन धर्मशालाएं बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई है।
माता की प्रेरणा से 5 बोरी धन्न एक
भगवान महावीर जीवन के तैलचित्रों
करीबन 20 हजार इसका निर्माण कार्य
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
शीघ्र प्रारम्भ किया जारहा है। इसी प्रकार की दस अन्य भगवान महावीर विश्राम गृह भी बालोतरा से बाड़मेर एवं बाड़मेर से जैसलमेर सड़क मार्ग पर बनाने का निश्चय किया गया है ।
25. भगवान महावीर शिलालेख :
निर्वाण महोत्सव वर्ष में ही नाकोड़ा तीर्थ पर भगवान महावीर के उपदेशों का एक सुन्दर शिलालेख तैयार कर लगवाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है ।
26. जैन धर्मचक्र की स्थापना :
नाकोड़ा तीर्थ की पहाड़ी पर जैन धर्मचक्र स्थापित करने की स्वीकृति ट्रस्ट कमेटी के अध्यक्ष ने दे दी है जिसका निर्माण कार्य शीघ्र प्रारम्भ किया जा रहा है ।
27. भगवान महावीर राजकीय चिकित्सालय :
बालोतरा कस्बे में जन सहयोग से सात लाख रुपये की लागत से बनने वाले भगवान महावीर राजकीय चिकित्सालय हेतु प्राचीन चिकित्सालय के पास रेलवे विभाग से एक बड़े भूखण्ड को क्रय कर लिया गया है। इसका निर्माण कार्य शीघ्र प्रारम्भ किया जारहा है ।
28. प्रकाल पीड़ितों को सहायता :
प्रकाल पीड़ितों को सहायता देने के लिये बालोतरा कस्बे में जनमहयोग से नियमित रूप से गुड़, खाद्यान्न प्रादि निःशुल्क दिया गया । जिस पर अनुमानत: 20,000/- रुपये व्यय हुए । 29. जैन निर्देशिका का प्रकाशन :
बालोतरा उपखण्ड के जैन समाज का एक परिचयात्मक ग्रन्थ जैन निर्देशिका के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसका कार्य प्रगति पर है ।
30. रैन बसेरा ( भगवान महावीर रैन बसेरा ) :
भगवान महावीर निर्धारण वर्ष के दौरान बालोतरा कस्बे में एक रैन बसेरा स्थापित किया जा रहा है । जिस पर करीबन 10,000/- रुपये व्यय होंगे । भविष्य में इसे नगरपालिका बालोतरा द्वारा चलाया जावेगा ।
31. माकोड़ा जैन सराय का निर्माण :
बालोतरा कस्बे में नाकोड़ा जैन तीर्थ मेवानगर की ओर से दो लाख रुपये की लागत से जैन सराय का निर्माण कार्य पूर्ण होने जा रहा है ।
32.
भगवान महावीर बाल विकास केन्द्र :
बालोतरा में भारत सरकार के शिक्षा विभाग की ओर से एक भगवान महावीर बाल विकास केन्द्र खोलने के लिये पच्चीस हजार रुपये जनसहयोग से देने हेतु तैयार है । अभी तक सरकार की मोर से स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई है ।
33. भगवान महावीर नगर की स्थापना :
बालोतरा कस्बे में भगवान महावीर नगर स्थापित करने के लिये पूर्ण तैयारियां सम्पन्न हो चुकी है। नगरपालिका बालोतरा से भूमि आवंटन के आदेश होते ही इस नगर में भावास • हेतु भवन बनने बारम्भ हो जायेंगे ।
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
34, भगवान महावीर प्याऊ का निर्मा: ।
समदड़ी में श्री पुखराज जी केवलचंद जी मंलरों का बाडा की भोर से लगभग 6 हजार रुपये की लागत से सार्वजनिक उपयोग हेतु भगवान महावीर प्याऊ का निर्माण पूर्ण हो गया है । यह धनराशि जनसहयोग से प्राप्त हुई है। 35. स्कूल में कमरों का निर्माण :
समदड़ी कन्या विद्यालय के प्रांगण में जनसहयोग से निर्वाण महोत्सव वर्ष में 6-7 कमरों का निर्माण कार्य पूर्ण हो चुका है। 38. रेफल होस्ट ल :
भगवान महावीर रेफल हास्पीटल हेतु समदड़ी वासी तीन लाख रुपये व्यय करना चाहते हैं लेकिन सरकार की स्वीकृति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। ... । 37. भगवान महावीर जैन धर्मशाला का निर्माण :
बाड़मेर जिले के धोरीमन्ना ग्राम में जनसहयोग से 25 हजार रुपये की लागत से भगवान महावीर जैन धर्मशाला का निर्माण हो रहा है । 38. जैन मन्दिर का निर्माण :
जिले के चौहटन गांव में एक लाख रुपये की लागत से जैन समाज द्वारा जैन मन्दिर का निर्माण कार्य हो रहा है। 39. जैन मदिर का निर्माण एवं प्रतिष्ठा :
बाड़मेर जिले के पारलू गांव में नवनिर्मित जैन मन्दिर का प्रतिष्ठा महोत्सव इस वर्ष सम्पन्न हुआ। 40. जैन मन्दिर का निर्माण :
बाडमेर जिले के पचपदरा गांव में करीबन दो लाख रुपये की लागत का जैन मंदिर बनने की प्रारम्भिक तैयारियां प्रारम्भ हो चुकी हैं । 41. जैन साहित्य:
राजस्थान की समस्त जिला पुस्तकालयों में स्थापित भगवान महावीर कक्ष के लिये बाड़मेर जिले से निम्नलिखित व्वक्तियों एवं संस्थानों द्वारा जैन साहित्य राजस्थान प्रदेश भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति को नि:शुल्क भिजवाया गया। ।-नाकोड़ा तीर्थ-मेवानगर
=30 पुस्तकें
=30चित्र 2-श्री प्रादेश्वर जैन मंडल-बाड़मेर
=75 पुस्तकें + 30 . 3-श्री पार्श्व जैन मंडल, बाड़मेर
=78 पुस्तकें+30 4-श्री वर्तमान जैन मंडल-बाड़मेर
- 90 पुस्तकें 5-वन्दना प्रकाशन-वाड़मेर
-30 स्मारिकाएं 6-श्री भूरचन्द जैन-बाड़मेर
=85 पुस्तकें + 30 = 320 भगवान महावीर चित्र -40 बाड़मेर नक्शे
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
42. राजकीय चिकित्सालय को रेडियो मेंट! - अङमेर के राजकीय चिकित्सालय को जिला निर्वाण महोत्सव समिति के मंत्री श्री भूरचन्द बैन ने मध्यप्रदेश के सराफरूपचन्द भन्नाल जैन खाचरौद की तरफ से उनकी माता शृगारवाई की स्मृति में एक विशाल रेडियो सैट भेंट किया। यह रेडियो चिकित्सालय में भर्ती मरीजों को भजन एवं समाचार सुनाने के उपयोग में प्रारहा है । भगवान महावीर प्राक्टिोरियम : -
बाड़मेर नगर में नव निर्मित होने वाले भगवान महावीर नगर में जन सहयोग से विशाल भगवान महावीर रंगमंच-आडिटोरियम का निर्माण करवाया जा रहा है। जिस पर करीबन 6 लाख रुाये व्यय किये जावेंगे। इस रंगमंच की प्राचीरों पर भगवान महावीर के जीवन वृत तेज चित्रों का निर्माण करवाया जावेगा।
अहिंसा चौराहा :
बाड़मेर नगर के स्टेशन चौराहे पर इसी वर्ष के दौरान अहिंसा चौराहा बनाया जा रहा है । इप्त चौर हे के मध्य भाग में महात्मा गांधी की प्रतिमा प्रतिष्ठित की जावेगी और चारों तरफ भगवान महावीर के उपदेश नंकित किये जावेगे । इस चौराहे हेतु श्री नेमीचन्द अशोक कुमार गोलेछा की ओर से पांच हजार रुपये दिये गये हैं। सम्पूर्ण चौराहे पर करीबन 25 हजार से अधिक रुपये व्यय होंगे जो नगरपालिका बाड़मेर द्वारा व्यय किये जावेगे। सार्वजनिक प्याऊओं का निर्माण :
बाडमेर नगर में भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव वर्ष के दौरान राजकीय बहुउद्देशीय उच्चतर म ध्यमिक विद्यालय, राजकीय कन्या पाठशाला, स्टेशन चौराहे एवं बस स्टेण्ड के पास सार्वजनिक उपयोग के लिये करीबन 60 हजार रुपये की लागत से सार्वजनिक प्याऊपों का निर्माण कार्य करने का दानदातामों की स्वीकृति मिल गई है जिसे शीघ्र प्रारम्भ किया जा रहा है। जनता धर्मशाला:
बाड़मेर नगर में राजकीय चिकित्सालय एवं बाल मन्दिर के पास जनता के हितार्थ जनता धर्मशाला क निर्माण कार्य सेवा गन पुरूषोतमदास आदि द्वारा करवाया जाना निश्चय हो गया है। इस धर्मशाला पर करीबन तीन लाख रुपये व्यय किये जावेगे। भगवान महावीर एक्स रे प्लान्ट :
सिवाना में श्री रिखबचन्द मिश्रीमल जिन्दाणी की भोर से निर्वाण महोत्सव वर्ष में दो लाख रुपय की लागत से एक भगवान महावीर एक्स रे प्लान्ट एवं लेबोरेटरी सुविधा उपलब्ध करवाने का निश्चय किया गया है । यह कार्य शीघ्र प्रारम्भ कर दिया जावेगा। भगवान महावीर स्तम्भ :
बाड़मेर जिले के मोकलसर गांव में जनसहयोग से भगवान महावीर स्तम्भ निर्माण करने का निचय किया गया है। इस स्तम्भ पर करीबन 25 हजार से अधिक धनराशि व्यय की जावेगी। इस स्तम्भ में जैन स्थापत्यकला के साथ साथ भगवान महावीर के उपदेशों का भी समावेश होगा।
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
भगवान महावीर प्याऊ :
जसोल ग्राम में स्थित उद्योग बस्ती में भगवान महावीर प्याऊ का निर्माण करवाने क निश्चय किया गया है । इस निर्माण कार्य पर भी करीबन 10 हजार रुपये व्यय किये जावेगे यह निर्णय उद्योगपतियों द्वारा लिया गया है ।
मिडिल स्कूल निर्माण :
जसोल ग्राम में श्री सिरेमल जी नैनमल जो बोहरा की ओर से निर्वाण महोत्सव वर्ष में मिडिल स्कूल बनाने का निर्णय लिया है। इस निर्माण कार्य पर करीबन एक लाख रुपये व्यय किये जावेंगे । इसका कार्य शीघ्र प्रारम्भ किया जा रहा है ।
भगवान महावीर चौक का निर्मारण :
जसोल ग्राम में निर्वाण महोत्सव वर्ष में भगवान महावीर चौक की स्थापना करने का निश्चय कर लिया गया है। इस चौक में विशाल चबुतरे का निर्मारण किये जाने का निश्चय किया गया है और उस पर भगवान महावीर के उपदेश एवं जैन प्रतीक स्थापित करने का निश्णय किया गया है ।
प्राथमिक पाठशाला का निर्माण :
श्री जीतमल गिरधरलाल मूंसाली द्वारा असाड़ा शाला का निर्माण कार्य निरण महोत्सव वर्ष में करने का करीबन 40 हजार रुपये व्यय करने की दानदाता की स्वीकृति मिल गई है । अस्पताल के जनसहयोग कार्य --- पचपदरा :
毚
पचपदरा राजकीय चिकित्सालय के चारों तरफ श्री सोहनलाल सालेचा की घोर से 11000 रुपये व्यय करके महावीर बाउन्ड्री बाल बनाई गई हैं। श्री चन्दनमल लुकड की तरफ से निर्वाण वर्ष में अस्पताल को तीन हजार रुपये के लेबेरेट्रो का सामान भेंट किया गया है ।
भगवान महावीर पुस्तकें भेंट
ग्राम में एक नवीन प्राथमिक कन्या पाठनिश्चय किया है । इस निर्माण कार्य पर
भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति जोधपुर की ओर से बाडमेर जिले की समस्त शिक्षण संस्थाओं को एक हजार महावीर चित्र पुस्तकें निःशुल्क भेंट की गई ।
उदयपुर
1- भगवान महावीर अध्ययन केन्द्र
अग्रवाल दिगम्बर जैन समाज ने उपरोक्त केन्द्र की परियोजना ढ़ाई लाख रुपये की तैयार की । इस केन्द्र का उद्घाटन पद्म विभूषण डा० दोलनसिंह जी कोठारी के कर कमलों से दिनांक 20 नवम्बर 74 को हुआ। श्री अग्रवाल समाज ने प्राहा भी प्रकाशित किया । इस केन्द्र में मुख्य प्रवृतियां - दैनिक शास्त्र सभा, पुस्तकाला एवं वाचनालय, बाल मन्दिर, जैन शिक्षण केन्द्र व संगीत केन्द्र आदि का प्रावधान रखा गया है। इस केन्द्र का मासिक व्यय पन्द्रह सौ रुपये मासिक रखा गय
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
42
है, यद्यपि अभी तक यह योजना प्रारम्भिक अवस्था में है। इसके संयोजक भी चांदमल जी अग्रवाल है । 2- - महावीर माध्यमिक विद्या मन्दिर-
सम्यक ज्ञान पीठ के संस्थापक श्री वीरचन्द जी मेहता ने अपने अथक प्रयत्नों से 'माध्यमिक विद्या मन्दिर' का उद्घाटन दि० 12 जून 75 को करवाया है । इसी प्रवसर पर 'राजस्थान जैन प्रतिमा ग्रन्थ' का विमोचन किया गया । यह संस्था एक मासिक पत्र 'महावीर नन्दन' प्रकाशित करती है ।
3 – विश्वविद्यालयस्तरीय छात्रावास -
एक विशाल छात्रावास एक सौ कमरों का निर्माणधीन है। इस छात्रावास का शिलान्यास महामहिम श्री मोहनलाल जी सुखाड़िया ने किया था। श्री मेवाड़ा तेरापन्थ समाज ने इस कार्य की भूमिका प्रस्तुत की और चार युवक कार्यकर्ता ने अपनी सेवायें समर्पित की। कमरा पद्धति के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति से प्रार्थिक अनुदान की राशियाँ प्राप्त की गई। काफी विपदाओं के बाद यह कार्य सफल मार्ग की और अग्रसर हैं । चार बड़े ब्लाकों का निर्माण होगा। जिनका अनुमानित व्यय दस लाख रुपये का है ।
4 - महावीर नाटिका (वैशाली का अभिषेक) -
पद्म श्री देवीलाल जी सामर, संस्थापक - निर्देशक भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर द्वारा कठपुतली नाटिका तैयार की है। इस नाटिका की देश के विभिन्न स्थानों में मांग की जा रही है और प्रदर्शित भी हो रही । हाल ही में जयपुर मोर बाडमेर में अधिक सफलता मिली है। श्री सामर साहब का यह मौलिक प्रयास निर्वाण शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में एक विशेष देन है । उदयपुर नगर में दि० 26-27 अक्टूबर 1975 के प्रदर्शनों से लाभान्वित होगा । इस नाटिका के विशेष श्राकंषण प्रसंग : माता त्रिशला को स्वप्न, इन्द्र द्वारा अभिषेक, शूल पाणी यज्ञ के उत्पात, चण्ड कौशिक दंश, केवल ज्ञान तथा भगवान के सन्देशों का सवमसरण प्रादि समावेश है ।
5- महावीर स्मारक
यह एक वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर महत्वाकांक्षी परिकल्पना है। जिसके विधान को पारित कर सार्वजनिकता प्रदान की है। भूखण्ड प्राप्ति, पंजीकरण व अर्थसंग्रह की विशाल समस्यायें सामने है · महासमिति ने जनमत की दृष्टि से प्रारम्भिक भूमिका प्रस्तुत की है। इसका प्रयास एवं निर्माण भागामी वर्ष में बल पकड़ ेगा, ऐसी श्राशा व्यक्त की जाती है । वैसे जिला प्रशासन स्तर की कार्यकारिणी समिति ने श्री जिलाधीश महोदय श्री पी० एन० भण्डारी की अध्यक्षता में दि० 7 नवम्बर 1974 को निर्णय लिया कि
'उदयपुर नगर में फतहसागर के ऊपर किसी पहाड़ी पर महावीर स्मारक बनाने का निर्णय लिया गया । उदयपुर नगर पर्यटकों का केन्द्र है अतः निर्मारण महोत्सव उदयपुर द्वारा यह स्मारक इस प्रकार से बनावे जो कि पर्यटकों के लिये एक प्राकर्षित बिन्दु उदयपुर के लिये हो सके व इससे समस्त जैन समाज के महावीर के जो सिद्धान्त है उसका दिन दर्शन कराये जावे । इस स्मारक को बनाने की जिम्मेदारी महावीर निर्वाण महोत्सव महासमिति ने ली जिसके संयोजक श्री भैरूलाल धाकड़ हैं । श्री मेरूलाल धाकड़ व श्री प्रतापसिंह मुरडिया जो कि नगर महासमिति के संयोजक, संयोजक स्मारक है । वे नगर महासमिति द्वारा इसकी योजना आदि बनाकर इस कार्य को सम्पादित करावें । इस
,
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
महासमिति के संयोजक जमीन प्राप्त करने के लिये नगर विकास न्यास को प्लान प्रेषित कर जमीन प्राप्त करने की कार्यवाही करावें ।' राजकीय यह प्रेरणा व प्रोत्साहन प्रत्यन्त ही सराहनीय है। यह स्मारक पूर्ण रूप से दस लाख की परियोजना हो सकती है। 6. जैनोलोजी चेअर, उदयपुर विश्वविद्यालय --
___ अखिल भारतीय स्थानक वासी साधुमा संघ मीकानेर ने जैन विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय में स्थापित करने के लिये दो लाख हाये का अनुदान देना निश्चित किया था। किन्ही कारणों से शिथिलता मा जान पर, महासामति ने मिण वर्ष के उपलक्ष में नैतिक समर्थन दिया। राज्य सरकार ने एक लाख रुपये का अनुद न दि.20 मार्च 1975 की राजस्थान प्रान्तीय समिति की बैठक में घाषण. को। श्री साधूम. समाज निसका पैतृक योगदान है । वह दो लाख रुपये शीघ्र ही विश्वविद्यालय को जमा कराने में प्रत्यत्न शील है। तब राज्य सरकार से तत्काल एक लाख रुपये का अनुदान प्राप्त हो सकेगा।
विश्वविद्यालय में जैन विभाग स्वतन्त्र रूप से स्थापित होगा जिसमें एक प्रोफेसर व शोध विद्यार्थी होगें। पोर शोर कार्य को प्राथमिकता दी जायेगी। सम्भव है शिक्षण की व्यवस्था भी प्रारम्भ की जा सके। यह प्रश्न माननीय उपकूलपति महोदय डा०पी० एस० लाम्बा साहब के विचा-1. धीन होगा । डा० ल म्बा साहब ने जैन चे पर स्थापित करन में बड़ी सहृदयता प्रकट की। जैन समाज प्रामारी है। श्री साधुमार्गी समाज का एक ऐतिहासिक दे। हागी जो विस्मृत नहीं की जा सकेगी, आदरणीय श्री गणपाराज जी बोहरा का आर्थिक योगदान विशेष उल्लेखनिय है, जिनका सार्वजनिक अनिन दन है, इस कार्य में प्रमुत निष्ठा विद्वान श्रा हिम्मतसिंह जी स्वरूपरिया की रही है, साथ में म • मा० बलवन्तसिंह जी मेहता का उत्साह भी उतना हो सराहनीय है। 7: विकलांग सहायता समिति राजस्थान शाखा उदयपुर
__राज्य सरकार व प्रान्तीय समिात ने विकलांग सहायता कार्य की संस्था स्थापित कर भगवान महावीर को सच्ची श्रद्धाजली अर्पित की है। राज्य सरकार का दो लाख रुपये का अनुदान, दि. 3 अगस्त की सभा में एक लाख रुपये का तत्काल चन्दा रोटेरी क्लब तथा श्री वर्द्धमान श्रावक सघ के विशेष प्राधिक सहयोग ने इस समिति में जान फूंक दी । राष्ट्रीय रूपाति प्राप्त डा. पी. के. सेठी ने अपनी सेवायें सहर्ष समर्पित की हैं। उदयपुर भी इस प्रोर शीघ्रता से सहयोग प्रदान करने में संलग्न है । शहर के धनी मानी दानी सज्जनों ने उदारता से हाथ बंटाया है, अब तक काफी संरक्षक व साधारण जीवन सदस्य बन चुके हैं। शिष्ट मण्डल के एक सप्ताह के प्रयास से बारह हजार रुपये की राशि उपलब्ध हो चुकी है। श्री सोहनलालजी हिंगड़, श्री कन्हैयालालजी टाया, श्री महावीर प्रसादजी मिंडा, श्री हजारीमलजी कारवा तथा श्री संयोजक इस कार्य में यथा शक्ति लगे हुए हैं। 8. अन्य कार्य१फतहपुरा में श्री स्थानकवासी समाज द्वारा पच्चास हजार की लागत से एक स्थानक बनाने की योजना प्रारम्भिक अवस्था में है। इसमें सम्भवतः शिक्षण प्रवृति भी चलेगी। भूपालपुरे में इस वर्ष स्थानकवासी समाज द्वारा स्थानक निर्मित हो चुका हैं। ताकि धार्मिक प्रवृति को बल मिलेगा। श्री, श्वे. मूर्तिपूजक समाज चार लाख रुपये की राशि से माध्यमिक शाला निर्माण करने की परिकल्पना रखता है और हाथीपोल की धर्मशाला के पास जमीन भी निश्चित करली है।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
xxitz
समाज सुधार
.. स्वरूप समाज रचना व रूढ़ि उन्मूलन की दृष्टि से सब ही जैन समाजों व उसकी जातियों के प्रतिनिधियों ने दहेज प्रथा की भयंकरता के प्रति घोर वेदना प्रगट की। मानवीय कमजोरियां व झठी साजाजिक प्रतिष्ठान ने समाज के साधारण व गरीब टबकों पर भारी बोझ डाल दिया है जो असह्य होता जा रहा है। उन्होंने यह निर्णय लिया कि:
दि. 17 नवम्बर 74 व 24 नवम्बर 74 की बैठकों में सब ही समाज के प्रतिनिधियों ने यह सहमति प्रकट की कि दहेज प्रथा के भयंकर रोग को कम करने के लिये वैवाहिक सम्बन्धों की छूट जैन जाति तथा दे देनी चाहिये। इस और कोई विरोध कहीं से भी नहीं पाया और सर्व मान्यता प्रदर्शित की गई ।' ...
1. युवा वर्ग सजग प्रतीत होता है। उदयपुर में बोहरा यूथ ने सामूहिक वैवाहिक पद्धति के मार्ग को अपना कर दूसरी जाति के समक्ष एक ज्वलन्त उदाहरण उपस्थित किया है। व्यवहारिक धरातल पर प्रयोग जैन समाज में अभी गर्भ की अवस्था में है । इस और शक्ति जितनी शक्ति चाहिये घी नहीं जुटा पाये और न सामूहिक वातावरण बना सके। अन्तर्भाना अवश्य बन पड़ी है। 'महावीर नन्दन' मासिक पत्रिका वैवाहिक विज्ञापन अवश्य देता है। एक क्रांतिकारी युवादल दहेज का दमन कर सके, प्राशा वादो है। प्रारम्भिक प्रार्थिक सहायता :
प्रत्येक समाज इस शक्ति की निधि रखता है और उदार समाज सेवी सज्जनों से किसी भी अच्छे कार्य का प्रारम्भ व सफल संचालन होता है। उदयपुर में निम्नलिखित महानुभावों ने भगवान महावीर पच्चीसवी निर्वाण शताब्दी वर्ष को मनाने में प्रारम्भिक सहायता अब तक प्रदान की : श्री बी. ए. टी. एण्ड सन्स 1111), श्री प्रतापसिंहजी मुरडिया 1111), श्री किशनलालजी दलाल 1001), श्री भगवतीलालजी स्वरूपरिया 1111) रु श्री जसकरणजी धर्मचन्दजी पोरवाल 1001), श्री सिंघवी ब्रदर्स 750), श्री कुन्दनसिंहजी खमेसरा 501), श्री फतलालजी सोहनलालजी हिंगड 501) श्री किरणमल जी शामसुखा 501), श्री जोतिहजी मेहता 501), श्री नगर निर्माण समिति 500), राज्य सरकार 725), श्री दिगम्बर समाज 1500) कुछ राशि अन्तरिम रूप से प्राप्त की है।
जोधपुर
भगवान महावीर शिक्षण संस्थान द्वारा 1200 बालिकाओं के लिये उच्चतर कन्या माध्यमिक विद्यालय के लिये भवन निर्माण का कार्य हाथ में लिया गया है जिसका अनुमानित व्यय 200 लाख रुपये होगा। यह पाठशाला स्थानीय गोशाला मैदान में निर्मित करायी जायेगी जिसके लिये राज्य सरकार द्वारा 5 एकड़ भूमि आवंटित की जा चुकी है। इसका शिलान्यास महावीर जयन्ती पर माननीय श्री हरिदेवजी जोशी, मुख्य मन्त्री, राजस्थ न के कर कमलों द्वारा किया जा चुका है तथा इसका निर्माण कायं दीवाली पूर्व प्रारम्भ कर दिया जायेगा।
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
2.
सरदार उच्चतर माध्यमिक विद्यालय (मरूबाग क्षेत्र) के मैदान में इन्डोर स्टेडियम
निर्मित कराया जायेगा जिसकी अनुमानित राशि 5 लाख रुपये होगी। 3. महावीर पार्क का निर्माण--जिसकी अनुमानित व्यय राशि 40000). होगी इसमें
भगवान महावीर के सिद्धान्तों का शिलालेख स्थापित किया जायेगा। इस हेतु स्थानीय समिति ने 10000) की धनराशि नगर सुधार न्यास जोधपुर को भेग
4. 82 भवन की महावीर बस्ती का निर्माण किया जायेगा जिसकी निर्माणाधीन व्यय
380000) रुपये होगा। इस कार्य में 15000) रु० की धनर शि जोधपुर जिला
भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव समिति की तरफ से व्यय किये जा चुके हैं।
जोधपुर नगर से बाहर जिले में भी निम्न योजनाएं हाथ में ली गई हैं तथा उनका कार्य भी प्रारम्भ किया जा चुका है : .. 6. पीपाड़ शहर में श्रीमति सुग्राबाई धर्मपत्नी श्री गणेशमल गांधी द्वारा पोयं लोजिकल
लेब्रोटरी के भवन का निर्माण करवाया गया जिस पर 7000) रु. की धनराशि .. व्यय हुई। 6. पीपाड़ शहर की माताओं एवं बहनों के आपसी सहयोग से 3000) रु० को तीन
हजार रुपये की राशि एकत्रित कर प्रसूति कक्ष का निर्माण करवाया गया । स्थानीय बाबा पाश्रम पीपाड़ शहर में स्वर्गीय भंवरलाल जी कटारिया की स्मृति में उनके सुपुत्र श्री अमृतलाल कटारिया द्वारा 2051 की लागत से वाटिका का निर्माण किया गया। इस वाटिका में कुल राशि 10000) दस हजार खर्च होने का अनुमान है। बिलाड़ा कस्बे में 25 शैयाओं का अस्पताल भवन निर्माण योजना शीघ्र प्रारम्भ की जारही है जिसके लिये अब तक लगभग 2 लाख रुपये की धन राशि एकत्रित की जा चुकी है। लगभग 5 लाख रुपये की राशि एकत्रित किये जाने का प्रयास जारी है।
भवन का नक्शा सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा तैयार किया जा चुका है। 9. ग्राम इन्द्रोका के विद्यालय में 500) रु० की धनराशि महावीर कक्ष हेतु प्रदान
की गई। 10. ग्राम बालेसर में भगवान महावीर प्राथमिक पाठशाला भवन का निर्माण कार्य शीघ्र
प्रारम्भ किया जा रहा है । जोधपुर जिले में मानव सेवा तथा राहत कार्य :11. गरीब व असहाय व्यक्तियों को निःशुल्क आवश्यक औषधियां अनुदान योजना एवं
खून एक वर्ष के लिये वितरण कार्य चल रहा है । अनुमानित व्यय राशि 50000)6.
होगी। 13. कुष्ट रोगियों को बसाने हेतु 60 कच्चे झोंपड़े 10000) दस हजार रुपये की लागत
राशि के बनवाये गये। ।
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
13. दीपावली व दीक्षा दिवस पर मानव राहत व जीव दया कार्यक्रमों में 5000) २०
पांच हजार रुपये की धन राशि खर्च की गई। 14. , समिति की प्रेरणा से अधिवक्ता श्री थानचन्द की महता ने एक रोग निवारण बैंक
हेतु 50000) पचास हजार रुपये की धनराशि देने की घोषणा की है। प्रचार कार्य सम्बन्धी योजना :-- 15. भगवान महावीर के जीवन व सिद्धान्तों से सम्बन्धित रुपये 10000) रु० दस हजार
रुपये की लागत की पुस्तकों का स्थानीय स्कूलों में वितरण किया गया। भगवान महावीर के जीवन पर पाषारित भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर द्वारा "वैशाली का अभिषेक" टाऊन हाल जोधपुर में विश्व विख्यात कठपुतली प्रदर्शन के
छः कार्यक्रम प्रदर्शित किये गये। 11. स्थानीय प्रजायबघर में महावीर कक्ष की स्थापना की गई है। 18. जन स्थापत्य कला कृतियों की एक प्रदर्शनी प्रसिद्ध कलाकार श्री कान्ती रांका द्वारा
टाऊन हाल जोधपुर में लगाई गई। विकलांगों की सहायतार्थ कार्यक्रम :--
19. विकलांगों की सहायतार्थ 51000) रुपये एकत्रित करने का लक्ष्य रखा गया जिसमें -: ( से 32000) रुपये एकत्रित किये जा चुके हैं।
.. 1. बूदी में कीर्ति स्तम्भ की स्थापना के लिये 5000) रु० की स्वीकृति नगरपालिका बूदी द्वारा दी गई है व 5000) रु० का चंदा इकठ्ठा किया जा रहा है। इससे रघुवीर भवन के सामने के तिकोणे पर कीर्ति स्तम्भ की स्थापना की जाने वाली है। .5 2. अस्पताल में वार्ड बनाये जाने हेतु चंदा इकट्ठा किया जा रहा है । इसके लिये एक कमरा श्री मदनमोहन जी मालिक फर्म दौलतराम कुन्दनमल जी द्वारा बनाया जावेगा व शेष कार्य जन-सहयोग द्वारा होगा।
13. दिगम्बर जैन समाज द्वारा केशवराय पाटन के मंदिर में द्रव्य संग्रह पुकराने पर निर्माण कराये जाने हेतु कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है एवम् कार्य काफी पूरा भी हो चुका है। 2, 4. तालेडा में धर्मशाला बनाये जाने हेतु कार्यवाही चालू है।
महावीर पार्क के लिये राज्य सरकार से आर्थिक सहायता अपेक्षित है। यदि इस कार्य के लिये कुछ सहायता मिल जावे तो यह कार्य शीघ्र ही पूरा हो जावेगा।
P एक सड़क बाजार से लेकर मंदिर व दादाबाड़ी के रास्ते जाती हुई राणीसति रोड़ से मिलाई गई जिसका नाम महावीर मार्ग दिलाने का प्रयास किया जा रहा है।
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
लवर
एक धर्मशाला
राय हाई सेकेण्डरी स्कूल
तीन लाख की लागत से
दो लाख की लागत से
डेढ़ लाख की लागत से पचास हजार की लागत से पचास हजार की लागत से
75 हजार की लागत से प्रवास हजार की लागत से
एक लाइब्र ेरी रामगढ़ में
चार स्तम्भ भगवान महावीर की शिक्षा के अलग-अलग जगह स्थापित करने हेतु
एक औषधालय
एक लाइब्रेरी
एक रसायनशाला
एक औषधालय श्रायुर्वेदिक
यह स्कीम राज्य सरकार को वास्ते जमीन की स्वीकृति भेज दी गई है ।
श्री गंगानगर
जिले में सार्वजनिक निर्माण कार्य
TAXY
1. श्रीगंगानगर में करणपुर बस स्टेण्ड पर महावीर प्रतिक्षा-कक्ष निर्माणाधीन ।
2. गोलबाजार के चौक में जिला प्रशासन के सहयोग से महावीर वाणी का शिला लेख
लगवाया गया 1
3. गंगानगर में नगरपालिका के सहयोग से भगवान महावीर शॉपिंग सेन्टर का निर्माण ।
4. नगरपालिका के सहयोग से महावीर उद्यान निर्माणाधीन ।
5. भारतीय गृह निर्माण सहकारी संस्थान के सहयोग से भगवान महावीर नगर बसाया जाना । उक्त नगर के लिये जमीन खरीद ली गयी है ।
6, नोहर में भगवान महावीर भवन एवं महावीर सार्वजनिक प्याऊ का निर्माण ।
7. नोहर में नगरपालिका के सहयोग से भगवान महावीर सूचना केन्द्र एवं महावीर बालउद्यान का निर्माण ।
8: संगरिया में महावीर जैन भवन में साजनिक पुस्तकालय एवं वाचनालय निर्माणाधीन । 9. पीलीबंगा में महावीर वाटिका निर्माणाधीन |
10. गंगानगर की सबसे प्रमुख सड़क जो रेल्वे स्टेशन से शुरू होकर गोलबाजार, पब्लिक पार्क होती हुई रविन्द्रपथ पर मिलती है उसका नामकरण "भगवान महावीर मार्ग" रखा गया ।
प्रदर्शन पट्ट
जिले में श्री गंगानगर, करणपुर, सिंह नगर, सूरतगढ़ आदि क्षेत्रों में ग्यारह पर प्रतिमास भगवान महावीर की वाणी अंकित की जाती हैं।
2
सिनेमा स्लाईड
जिले के प्राय: प्रमुख सिनेमा गृहों में भगवान महावीर की वाणी की बिनेमा स्लाईड जिलाधीश महोदय के आदेश से निःशुल्क प्रदर्शित की जा रही हैं ।
संगरिया, हनुमानगढ़, नोहर, पीलीबंगा, पदमपुर, रायबड़े साईजों के होडिंग बनवाकर लगवाये गये हैं। जिन
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्य वितरण सम्पूर्ण जिले में पच्चास से भी ऊपर सार्वजनिक पुस्तकालयों, विद्यालयों, कालेजों आदि को भगवान महावीर एवं जैनधर्म से सम्बन्धित हजारों पुस्तकें वितरित की गई।
--20 विद्यालयों में भगवान महावीर के जीवन संबंधित निम्बन्ध लिखवाये गय एवं श्रेष्ठ
बच्चो को पुरस्कार वितरित किये गये। -~-15 संस्थानों (कालेज और विद्यालयों) को भगवान महावीर का फेम किया हुमा बड़ा
सुन्दर चित्र मेंट किया गया ।
हरिजनों में भी भगवान महावीर का संदेश पहुंचाने के लिये हमारे कार्यकर्ता कल्याण कोट, जैतसर एवं भागसर प्रादि गांवों में गये । जन सम्पर्क किया एवं महावीर साहित्य का विवरण किया।
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
_