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विकवा दें घर द्वार
दवाते हैं गर्दन कन्या वालों की सभ्य वेश में शुभ्र बात से ।
करते हैं जो काली घातें कर भेड़िया मगरमच्छ भी
__खा जाते हैं जिनसे मातें इनके फन्दे की फांसी का
__कसता ही जाता है बन्धन भगवान ! क्या तुम सहन
कर सकोगें इस युग का अर्चन वन्दन ! भव्य पुरातन देवालय हैं
जीर्ण शीर्ण ढकते जाते है लोकेषणा के लिये भक्त
मूर्ति-मन्दिर गढते जाते हैं इन्हें भला फुरसत ही कब है।
पूजा को कर दिये पुजारी और बोलियों में धन से ही
वनते स्वर्ग-मोक्ष अधिकारी धर्म, कलश-माला खरीद में
व्यर्थ इन्हें सामाजिक 'चिन्तन' भगवन ! क्या तुम सहन ।
कर सकोगे इस युग का अर्चन बन्दन ? कितने चित्र छपे कलेण्डरों
पेपर बेटों में पैन्दों में डायरियों, बल्वों स्वीचों में
सिक्कों में ताले चैनों में ढढ लिये साधन कमाई के
__ धन्धे वालों ने, नामों में श्रद्धालु गाढी कमाई से
लेते हैं दुगने दामों में तुर्रा ये निर्वाण दिवस पर
करते हैं प्रभु का अभिनन्दन ! भगवन ! क्या तुम सहन ।
कर सकोगे इस युग का अर्चन वन्दन ?
ज्ञानचन्द 'ज्ञानेन्द्र' ढाना (सागर)
सिका
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