________________
1-140
कई दार्शनिकों का मत है कि जैन न्याय ने संसार को नवीनता नहीं दी । डा० कीथ ने लिखा है— जैन दर्शन का विकास न होने का मूल कारण है उसका प्राचीनता पर विश्वास । मूल रूप में जो तत्व मिले उनमें किसी भी प्रकार का संशोधन न होने से जैन न्याय प्राज भी पिछड़ा हुआ है ।'
लेकिन इस तथ्य में पूर्ण सत्यता प्रतीत नहीं होती । स्याद्वाद और नयवाद को अधार मानकर जैन आचार्यों ने जो कुछ लिखा, वह मौलिक चिन्तन दूसरे दर्शनों में नहीं मिलता। इस न्याय शैली का उल्लेख श्रागमों में स्पष्ट हो जाता है पर स्वतंत्र ग्रन्थ रचना सिद्धसेन और समन्तभद्र ( पांचवीं छठी शताब्दी) द्वारा की गई है। जिनके ग्रन्थ तत्वार्थ सूत्र की भांति श्वेताम्बर मोर बिगम्बर दोनों को मान्य है ।
श्राचार्य सिद्धसेन ने अपनी कृति न्यायवतार में प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण रखकर जैन न्याय को नया मोड़ दिया है । इससे पहले प्रमारण के मति श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच भेद किए जाते थे ।
न्यायशास्त्र में अनुमान एक प्रारणवान तत्व है । खण्डन मण्डन व्याप्ति का जो मूल्य है वह किसी भी दृष्टि से न्यून नहीं है। किसी भी पदार्थ का एक देशीय ज्ञान प्रत्यक्ष हो जाता है, लेकिन सर्वागीण जानकारी के लिए अनुमान को आधार मानना पड़ता है । जैसे एक श्वेत वस्त्र है, वस्त्र का श्वेत रंग हमारी आंखों के सामने है । लेकिन जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक दृश्य पदार्थ में पाँच वर्ण होते हैं । प्रतः उस वस्त्र के अन्य वर्णं अनुमान गम्य हैं ।
'साधनात् साध्यज्ञानमनुमानम्' अनुमान की इस परिभाषा में दार्शनिकों का मतभेद नहीं है लेकिन इसकी प्रामाणिकता और भेद-प्रभेदों में प्रन्तर पड़ता है । बौद्ध अनुमान को वास्तविक
Jain Education International
प्रमाण नहीं मानते किन्तु प्रत्यक्ष का निर्वाहक मानते हैं । नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक ये अनुमान को प्रत्यक्ष की तरह ही स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं । जैन दर्शन ने प्रमाण के मुख्य दो भेद किए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष के प्रकारों अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है ।
नैयायिकों ने अनुमान के तीन भेद माने हैंपूर्ववत् शेषवत् भौर सामान्यतो दृष्ट |
1- पूर्ववत् -
कारण से कार्य का ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है। जैसे- भ्रमर, भैंसा, हाथी (सर्प) और तमाल वृक्ष की तरह काली प्राभा वाले मेघ वृष्टि के सूचक हैं। यहां मेघों को कालिमा कारण है और वर्षा कार्य है ।
2- शेषवत् -
कार्य से कारण को जानना शेषवत् अनुमान है । 2 जैसे नदी के विशेष प्रवाह रूप कार्य को देखकर वृष्टि का ज्ञान करना । वृष्टि नदी पूर का कारण है तथा प्रवाह विशेष से जाना जाता है ।
3 - सामान्यतो दृष्ट -
पूर्व दृष्ट समान धर्म से किसी अप्रत्यक्ष तथ्य को जानना । 3 जैसे – पुरुष एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता तो गा करता है । वैसे ही सूर्य भी प्रकाश में इस छोर से उस छोर तक पहुंच जाता है । वह गति सापेक्ष है । यद्यपि उसकी गमनक्रिया पुरुष के गमन की तरह व्यक्त नहीं है तो भी सामान्यत: देखी हुई बात में विपर्यय नहीं होता । अतः सूर्य भी गति करता है ।
जैन न्याय ने अनुमान परिवार में स्वार्थ मोर परार्थये दो भेद तो किए ही हैं, इनके अतिरिक्त तीन भेद फिर माने हैं । पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्ट साधर्म । इनमें पहले दोनों भेद नैयायिकों से शब्द
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org