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लागत तत्कालीन चौहान राणा श्री शिखरसिंह विक, साह प्रतापसिंह, शाह सातसिंह आदि ने गया। इस प्रकार जैन साधु सन्तों प्राचार्य महात्मानों इस नगरी में बराबर श्रागमन होता रहा । ' के प्रोसवाल पारख गोत्रीय देकोशाह के पुत्र ने 10सं0 1521 में दीक्षा ग्रहण की जो आगे चलकर वाचार्य जिनसमुद्रसूरि के नाम से लोकप्रिय हुए । जूना स्थित जैन मन्दिरों की शिल्पकला पाली में स्थित जैन धर्मावलम्बियों के विख्यात
रणकपुर एवं सिरोही जिले के माउंट श्राबू बने देलवाड़ा जैन मन्दिरों की भांति यहां के रे भूरे पाषाण पर कलाकृत की गई है । मन्दिर
छतें अब भी विद्यमान हैं इनके अन्दर बने वजों में शिल्पकला को अत्यन्त ही सुन्दर तरीके पाषाणों पर अ ंकित करने का प्रयास किया मी है। लेकिन ये छतें जगह जगह टूटने के कारण के अन्दर बने बड़े बड़े छिद्रों से आने वाली शनी की किरणें अवश्य ही साफ दिखाई देने मती हैं । मन्दिर के खम्भों पर प्राचीरों के चारों और पावटों, गम्भारों श्रादि अनेकों भागों में शिल्प ला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं । इन जोड़ शिल्पकला के श्राकार न केवल शिल सौन्दर्य
बताते हैं अपितु ये प्राचीन पुरातत्व सम्बन्धी नकारी से भी दर्शकों को लाभान्वित करते हैं । तोरण वाले श्री श्रादिनाथ भगवान के मन्दिर कुछ छतें पहले ही गिर चुकी थीं कुछ गिराई मौर कुछ गिरने के लिये स्वयं ही प्रातुर हो हैं। इन छतों के नीचे बने गुम्बजों की शिल्प
अत्यन्त ही सुन्दर है इनमें लक्ष्मी सरस्वती शक्ति की प्रतिमाएं श्राज भी न केवल दर्शनीय प्रपितु कला की दृष्टि से देखने लायक हैं । मन्दिर के अतिरिक्त दो अन्य मन्दिर भी विमान हैं लेकिन उसके पार्श्व भाग के अतिरिक्त
भी नहीं है । पास में बिखरे खण्डहर इनको समता एवं शिल्पकला का अवश्य ही परिचय दे
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जूना को प्राचीन जैन तीर्थ स्थान मानने के कारण श्राज भी बाड़मेर नगर एवं आसपास के कई जैन परिवार इसकी यात्रा कर तीर्थ यात्रा का लाभ उठाते हैं। यहां पर अभी भी जन धर्मावलम्बियों के कई परिवार शादी, विवाह, केश मुण्डन प्रादि शुभ अवसरों पर नियमित रूप से अनिवार्य यात्रा करते हैं। यहां बने तीर्थ क्षेत्र के रक्षक क्षेत्रपाल जी का प्रमुख स्थान दर्शनीय एवं पूजनीय बना हुआ है, जिसके आगे एक छोटा सा कुण्ड हव्य से सदा भरा रहता है । बाड़मेर जैन समाज के मालू गोत्र के जनसमुदाय को विवाह आदि अवसरों पर अनिवार्य रूप से यहां की यात्रा करनी पड़ती है। यहां कई सतियों एवं महापुरुषों के स्मारक स्थल भी बने हुए हैं जहां पर समय समय पर छोटे पैमाने पर मेलों का आयोजन भी होता है ।
जैन मन्दिरों एवं बिलखते इस पाषाणों की नगरी में श्राबादी शून्य मात्र ही है परन्तु इसकी गोद में मीठे पानी के कुछ कुएं अवश्य ही हैं । इन कुत्रों से भासपास की कई ढाणियों के लोग पीने का पानी और पशुओंों को नियमित रूप से यहां लाकर पानी पिलाते हैं । ये कुएं भी ऐतिहासिक गतिविधियों के प्रमुख श्राकर्षण रहे है । एक प्रचलित दन्तकथा एवं ऐतिहासिक घटना के आधार पर कहा जाता है कि इस समय पश्चिमी पाकिस्तान स्थित अमरकोट का राजकुमार महेन्द्रा अपनी लोद्रवा (जैसलमेर) की मूमल प्रेमिका से नियमित रूप से रात्रि को मिलने के लिये इसी मार्ग से गुजरा करता था और अपनी सवारी के ऊंट को जूना के इसी कुएं पर पानी पिलाता और थोड़े समय के लिए स्वयं भी सुस्ता लेता था । यह ऐतिहासिक प्रेमकथा भी जूना की मरुभूमि के साथ जुड़ी होने का गौरव प्राप्त किये हुए है ।
बर्तमान जूना के नाम से विख्यात ऐतिहासिक स्थल प्राचीन समय में जूना बाहड़मेर, बाड़मेरु, बाहड़गिरी, बाप्पड़ाऊ आदि अनेकों नामों से विख्यात नगर रहा है। इस नगर की स्थापना
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