________________
2-18
है कि यहां पर विशाल एवं सुन्दर शिल्पकला कृतियों का जैन मन्दिर था। यहां के अवशेषों को देखने से मन्दिर का प्रवेश द्वार श्रृंगार चौकी, रंग मंडप, सभा मंडप, मूल गम्भारा, परिक्रमा स्थल, मन्दिर के चारों श्रोर बनी प्राचीरें और नीचे उतरने एवं चढ़ने के लिए पहाड़ी के दोनों तरफ बनी विशाल पक्की पाषाणों की पगदण्डी श्राज भी तितर-बितर अवस्था में विद्यमान हैं ।
जूना यद्यपि श्राज विनाश की स्थिति लिए हुए है जहां केवल बिखरे पाषाणों की नगरी ही विद्य मान है। पहाड़ों की गोद में बसे इस ऐतिहासिक एवं पुरातत्व की दृष्टि से परिचायक जूना विशाल नगरी भोर राजधानी का रूप लिये हुए था । श्राज जूना की पहाड़ियों पर दस मील के घेरे में बना जूना का किला दृष्टिगोचर होता है जिसके बुर्ज, सीढियों, परिधि और रामप्रासाद भाज भी खण्डित अवस्था में प्राचीन वीरोचित कहानियां बता रहे है । विशाल पहाड़ियों पर बने इस भव्य किले के नीचे तलहटी भाग में जूना नगर बसा होने के अवशेष अब भी प्रसंख्य ईमारतों के खण्डहरों के रूप में दिखाई देते है। इन्हीं खण्डहरों की बस्ती में भग्नावशेष रूप लिये जैन धर्मावलम्बियों के तीन जैन मन्दिर अब भी विद्यमान हैं जिसके पाषाण भी धीरे धीरे जमीन की सतह पर आकर आनन्द की सांस लेने के लिये श्रातुर हो रहे हैं।
जूना के जैन मन्दिर अति प्राचीन हैं। इसका उल्लेख श्री क्षमाकल्याणकृत खरतरगच्छ पट्टावली में किया हुआ है कि उद्धरण मंत्री सकुटम्ब वि०सं० 1223 में हुआ । इसके पुत्र कुलधर ने बाहड़मेर ( जूना ) नगर में उत्तुंग तोरण का जैन मन्दिर बनाया । जूना स्थित जैन मन्दिरों में चार शिलालेख अब भी विद्यमान है जिसमें वि०सं० 1296 के शिलालेख में जालोर के महाराजा श्री सामंत सिंह देव चौहान के राज्य का उल्लेख मिलता है । दूसरे शिलालेख वि०सं० 1352 का एक एवं वि०सं० 1366 के दो है जिसमें इस मन्दिर को ऊंचे तोरण
Jain Education International
(उत्तुंगतोरण) वाला भगवान श्री श्रादिमाथ जैन मन्दिर होना बताया है और इस मन्दिर प्रतिष्ठा एवं निर्माण पर गुजरात के सोलंकी भी देव के शासन के समय चलने वाली धनराशि प्रियविश्व के खर्च होने का उल्लेख किया गया चौथे लेख वि० सं० 1693 में इस स्थान जैन तीर्थ स्थान होने की महत्ता बताई है । इन जैन मन्दिरों की बस्ती में भग्नावशेष में खड़ी ईमारतों में प्राचीरें हैं तो हृत नदार खम्भे है तो तोरण गायब, फर्श है तो सीढ़िय लापता, गम्भारे हैं तो मूर्तियां नहीं यदि कुछ है। चारों ओर बिखरे शिल्पकला कृतियों के पाषा ही पाषाण ।
वि०सं० 1223 में उद्धरण मंत्री के पुत्र कुलप द्वारा बाड़मेर (जुना) में बनाये उत्तु ंग तोरण श्री प्रादिनाथ भगवान के जैन मन्दिर पर श्रीश्राच जिनेश्वरसूरिजी ने वि०सं० 1283 माहवदी 2 दिन ध्वजा फहराई | श्री प्राचार्य जिनेश्वरसूरिज के तत्वाधान में वि०सं० 1309 माघ सुदि 10 दिन पालनपुर में प्रतिष्ठा महोत्सव प्रायोजित हु और सेठ सहजाराम के पुत्र बच्छड़ ने बाड़मे (जुना) आकर बड़े उत्सव के साथ दो स्वर्ण कल की प्रतिष्ठा करवा कर श्री आदिनाथ मन्दिर शिखर पर चढ़ाये | वि०सं० 1312 में जिनेश्वरसूरि के शिष्य चण्डतिलक ने 'अभयकुमा चरित्र' महाकाव्य यहां प्रारम्भ किया । श्रीश्राचा जिनप्रबोधसूरि ने यहां बि०स० 1330 मंगस वदी चतुर्थी के दिन पद्यवीर, सुधाकलश, तिलक कीर्ति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभू, हेमतिलक भौर ने तिलक को बड़े समारोह के साथ दीक्षित किया जैन धर्मावलम्बियों का जूना ( बाहड़मेर) तीर्थ स्व रहा है । यहां कई प्राचार्य महात्मानों ने प्राक चतुर्मास किये और कई धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की । श्री श्राचार्य कुशलसूरि ने वि०सं० 138 में सांचोर से आकर बाहड़मेर (जूना) में चतुर्मा किया । श्री प्राचार्य पद्मसूरि बाड़मेर आये जिनक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org