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बर्षित कर आसक्त व मोहित करने में समर्थ नहीं और समान-वितरण में समाज की भलाई कह कर होता। अपरिग्रही संसार में पानी में कमल की विराम ले लेते हैं, वहीं कह सकते हैं कि जैनधर्म सरह विषय-भोगों में अलिप्त रहता है । वास्तव इसके आगे प्राध्यात्मिक साम्यवाद तक ले जाता में दुनिया में अपरिग्रही ही सुखी है।
है। सर्वतन्त्रविहीन सच्ची स्वतन्त्रता हमें पूर्ण * जैनधर्म ने शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मान- अहिंसक व परमात्मा बनने पर उपलब्ध हो सकती सिक हिंसा न करने पर विशेष बल दिया है। है। विश्वकवि रवीन्द्र टैगोर का कथन स्पष्ट हैसंसार में जहां भी शोषण, अत्याचार, शीतयुद्ध,
_ 'भगवान महावीर ने भारतवर्ष को उस मुक्ति संघर्ष, तनाव व एक दूसरे को कैद कर अपने
का सन्देश दिया, जो धर्म की वास्तविकता है, केवल विचारों के आश्रित बनाए रखने की वृत्ति लक्षित
सामाजिक रूढ़ि नहीं है । मुक्ति धर्म की उस वास्तहोती है, यह सब मानसिक हिंसा का परिणाम है। जब तक संसार में मानसिक हिंसा की उग्रता बनी
विकता के माश्रय से उपलब्ध होती है जो निवृत्ति
परक है तथा सामाजिक प्रदर्शन व रूढ़ियों से परे रहेगी, तब तक विश्व-शांति की बात नहीं सोची जा सकती। आपस में बैठकर शांति-स्थापना के
है एवं मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई दीवार नहीं
मानती है । संसार में मनुष्य सामाजीकरण कर सकता प्रयत्नों की चर्चा भी तभी सफल हो सकती है, जबकि हमारे मन तनावरहित हो। अहिंसा की
है, राष्ट्रीयकरण कर सकता है, मनुष्य किन्तु स्थिति में किसी प्रकार का तनाव नहीं होता।
स्वभाव के सामाजीकरण के बिना असन्तुलन तथा इसलिये जैनधर्म कहता है कि मानसिक क्षोभ से
विषमता सदा बनी ही रहती है । ऐसी स्थिति में रहित आत्मा की समता परिणति का नाम अहिंसा
अहिंसा मानव-मनो-वृत्तियों के सामाजीकरण की है । यह कोई वाद नहीं है। फिर भी प्राप चाहें
दिशा में एक आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भूमिका
है। और यही कारण है कि लाखों वर्षों के इतिहास तो संसार के वादों में जहां समाजवाद, साम्यवाद ।
__ में अहिंसा की जितनी पहले कभी आवश्यकता वस्तु के विकेन्द्रीकरण, सामाजिक सम्पत्ति के नियन्त्रण एवं राष्ट्रीयकरण की पैरवी करते हैं नहा था, उसस बढ़ कर आज आवश्यकता है ।
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