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इन्द्रों के साथ ही नरेन्द्रों ने भी अठारह मल्ललिच्छवि नरेशों ने दीप मालाछों को प्रज्वलित कर निर्धारण - महोत्सव मनाया था । श्राज वही महोत्सव देश-देशान्तरों में अभिनव रूप में मनाया जा रहा है। ज्ञान का यह महापर्व संसार में ज्ञानविज्ञान के नित नवीन वातायनों का उद्घाटन करे और पूरा मानव समाज मिल कर सत्साहित्य व अध्यात्म का प्रचार करे, तभी इस महोत्सव की सार्थकता है । जैन समाज से अपेक्षा है कि विदेशों में जैनधर्म और भगवान महावीर को समझने की तीव्र उत्कण्ठा है, उनकी भाषा में जैन साहित्य नहीं होने से वे उससे वंचित रहे श्रौर यह दायित्व जैन समाज का है कि वे भगवान महावीर को अपने तक सीमित न रख कर जन-जन तक सुलभ करायें, उनके सिद्धान्त और सन्देश दुनिया के कोने-कोने तक फैला दें ।
यह
भगवान महावीर ने मुख्य रूप से अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सन्देश दिया था । धर्म एक ही है और वह है- प्रहिंसा । मानव जाति एक है और उसका धर्म एक है- प्रहिंसा । अनेकान्त अहिंसा का वैचारिक पक्ष है और अपरिग्रह व्यावहारिक । प्रत्येक विद्या के दो ही पक्ष होते हैंथ्योरी और प्रेक्टिकल । अनेकान्त थ्योरी है श्रीर अपरिग्रह प्रेक्टिकल रूप । मनुष्य में अनासक्ति मोर अनाग्रही वृत्ति आए, यही अहिंसा धर्म का लक्ष्य है । अनेकान्त से अनाग्रही वृत्ति बनती है और मपरिग्रह में मनुष्य आसक्ति से दूर हट जाता है, वस्तु से लगाव नहीं रहता । इन तीन 'प्र' (अहिंसा, अनेकान्त र अपरिग्रह ) में भगवान महावीर का जीवन-दर्शन लक्षित होता है । महात्मा गांधी कहते हैं। 'अनेकान्त वाद (स्याद्वाद ) मुझे बहुत प्रिय है । उस से मैंने मुसलमानों की दृष्टि से उनका, ईसा - इयों की दृष्टि से उनका, इस प्रकार अन्य सभी का विचार करना सीखा। मेरे विचारों को या कार्य को कोई गलत मानता, तब मुझे उसकी अज्ञानता पर पहले क्रोध पाठा था । पब मैं उनका
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effबन्दु उनकी प्रांखों से देख सकता हूं, क्योंकि मैं जगत के प्रेम का भूखा हूं। अनेकान्तवाद का मूल सत्य का युगल है । अनेकान्त ने सत्य की खोज के द्वार सदा सदा के लिए उन्मुक्त कर दिए हैं । कोई भी उस सत्य को समझ सकता है, उपलब्ध कर सकता है । वहां न किसी जाति का बघन है और न कुल का । विनाश के कगार पर भूलने वाली मानवता को बचाने के लिए प्रथम सन्देश अनेकान्त का है । प्रत्येक मानव को उसके देश की परिस्थितियों में सही तौर पर समझने का प्रयत्न करें । फिर, जो उसे इष्ट है, वही हम चाहेंगे । जो और जैसा हमें अच्छा लगता है, वही दूसरों को भी अच्छा लगता है । हम सारा संग्रह कर उस पर एकाधिकार कर खुद मालिक बन जाते हैं और दूसरे को उस में भागीदार नहीं बनाना चाहते है, यही परिग्रह-वृत्ति है । सब अनर्थों का मूल यह परिग्रह की प्रासक्ति है । सभी संघर्ष अधिकार- बुद्धि से उत्पन्न होते हैं । आज की दुनिया में भौतिकता के परिग्रह की चारों ओर जो प्रतिस्पर्धाएं चल रही हैं, उन से भविष्य क्या होगा, कहा नहीं जा सकता ? किन्तु इतना निश्चित है कि संसार में इस से शांति स्थापित नहीं हो सकती । भगवान महावीर की वारणी है
इच्छाएं प्राकाश के समान अनन्त हैं । ये दुर्लभ्य हैं । इन इच्छाओं से रहित हो जाना प्रपरिग्रह है । अपरिग्रह में भीतर और बाहर की सभी ग्रन्थियों का मोचन हो जाता है। परिग्रह से मनुष्य में भय उत्पन्न होता है। अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे। क्योंकि परिग्रह के समान कोई जाल नहीं है । संसार के सुख भोगों की प्राप्ति में ही प्राणी जगत् लीन है। किन्तु तीन लोकों के वैभव प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य को तृप्ति नहीं मिलती । धन-वैभव के हाथ से निकल जाने पर मनुष्य प्रत्यन्त दुखी होता है । प्रतएव परमार्थ से इन्द्रियों के सुख की अभिलाषा परिग्रह है । अपरिग्रहो को संसार का कोई भी विषय अपनी मोद
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