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4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
ज्ञान की भावना मे सदैव तत्पर रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है । 17 इसमें सम्यग्ज्ञान के द्वारा प्रत्येक कार्य की प्रवृत्ति पर विचार किया जाता है । अज्ञान निवृत्ति इसका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति, महितपरिहार तथा उपेक्षा व्यवद्दित फल हैं। यहां यथार्थ ज्ञान परम हितकारी है । ज्ञानोपयोग में विद्यमान बीतराग भाव बन्ध का कारण नहीं । बन्ध का कारण तो शुभ भाव रूप राग है । पूज्यपाद ने जीवादि पदार्थ विषयक ज्ञान में सतत् जागरूकता को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहा 117 वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा व धर्मोपदेश का अभ्यास भी इसी के अन्तर्गत आता है 1 18
दीर्घनिकाय के सत्कार पूर्वक शिक्षण तथा अर्थ धर्म का उपदेश से इसकी तुलना की जा सकती है-
सिप्पेसु विज्जाचरणे सु कम्मेसु कथं विजानेप्पु लउनि इच्छति । यदूपधाताय न होति कस्सचि वा चेति खिप्पं द चिरं किलिस्सति ।
तथा
अथ धम्मसहितं पुरे गिरं
एरयं बहुजनं निदंसयि । पाणिनं हित सुखावहो ग्रह
धम्मयागमय जी धमच्छरी ॥
5. संवेग
शरीर मानस प्रादि अनेक प्रकार के प्रियविप्रयोग और अप्रिय संयोग इष्ट का प्रलाभ आदि रूप सांसारिक दुःखों से नित्य भीरुता संवेग है 119
6-7. यथा शक्ति त्याग व तप
सिद्धसेन ने त्याग का अर्थ दान किया है 20 और अभयदेव ने यतिजनोचित दान को त्याग कहा है । 21 पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना
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त्याग है। माहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। प्रभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है. मत पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञान दान तो अनेक सहस्र भवों के दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला है । इन तीनों दानों को सर्वार्थ सिद्धि व तत्वार्थवार्तिक में त्याग कहा गया है 122
दीघनिकाय में माहारदान व वस्त्रदान प्रादि भी उन कारणों में हैं जो बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्त माने गये हैं । पारमितानों में भी दान का महत्वपूर्ण स्थान है। समूची बौद्ध चर्या में दान की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है ।
8. साधु समाधि
जैसे भण्डार में भाग लगने पर वह प्रयत्न - पूर्वक शांत की जाती है उसी तरह अनेक व्रत शीलों से समृद्ध मुनि गरण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधु समाधि है । 23 सिद्धसेन ने समाधि का प्रयं स्वस्थता व निरुपद्रवता का उत्पादन बताया है । श्वेताम्बर परम्परा में संघसाधु समाधिकरण पाठ है ।
aafनकाय में सूक्ष्म छवि प्राप्त करने के लिए प्रव्रजितों की सेवा करने पर जोर दिया गया
पुरं पुरस्था पुरिमासु जातिसु,
भातकामो परिपुच्छिता प्रहु । सुस्सूसिता पव्वजितं उपासिता
प्रत्यन्तरो प्रत्थकथं निसामयि ॥ | 24
9. वैयावृत्यकरण
गुणवान् साधुनों पर समायत कष्ट, रोग प्रादि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा श्रादि करना वैयावृत्य है । 25 साधु समाधि में साधु का चित्त सन्तुष्ट रखा जाता है और वैयावृत्यकरण में तपस्वियों के योग्य साधन एकत्र कर उनका दान दिया जाता है । बौद्ध साहित्य में दान व महाकरुणा का गौरवपूर्ण स्थान है ।
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