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अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ देना अथवा अहिंसा द्वारा उपदिष्ट सुवचन में यह प्रयुक्त है, 'घोर कष्ट है, यह सब संभव नहीं" आदि इस प्रकार की अशुद्ध भावनाम्रों से चित्त विचिकित्सा नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है । बहुत प्रकार के मिध्यानयवादियों के दर्शनों में तत्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर मोहरहित होना प्रमूढदृष्टि अंग है । उत्तम क्षमा आदि धर्मभावनाओं से आत्मा को धर्मवृद्धि करना पहा है । कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से परिच्युत न होना स्थितिकरण है। जिन प्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य है । सम्यक दर्शन, ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से श्रात्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना है 110
षोड़स भावनाओं में दर्शन विशुद्धि मुख्य भावना है । इसके प्रभाव में अन्य सभी भावनायें होने पर भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं होता । यहां वस्तुतः दर्शन की शुद्धि स्वयं प्राश्रव बन्ध का कारण नहीं | प्राभव-बन्ध का कारण तो है राग । मितः दर्शन विशुद्धि का मथं हुमा दर्शन के साथ रहने वाला राग राग अथवा कषाय ही बन्ध का कारण है, सम्यग्दर्शनादि नहीं
अतः सम्यग्दृष्टि जीव को जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मार्ग में जो दर्शन सम्बन्धी धर्मानुराग होता है वही दर्शन विशुद्धि है । सम्यग्दर्शन के शंकादि दोष दूर हो जाने से ही यह विशुद्धि प्रा जाती है ।
बत्तीस महापुरुष लक्षणों में प्रथम लक्षण सुप्रतिष्ठितपादता है जिसे प्राप्त करने के लिए बौद्ध साहित्य में सदाचार का पालन प्रावश्यक बताया गया है । इसके अन्तर्गत दान, शीलाचरण, उपोसथ व्रत, माता-पिता तथा श्रमण ब्राह्मणों की सेवा, ज्येष्ठों का सत्कार व सत्कर्मों में दृढ़ होना मादि समाहित है । इसका प्राचरण करने से प्रान्तरिक शत्रु - राग, द्वेष, मोह, लोभादि तथा बाह्य शत्रु से व्यक्ति अजेय हो जाता है ।
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सच्चे च धम्मे च दमे च संयमे
सोचेय्य सीलाल पोसथे सु च । दाने अहिंसाय असहाय से रतो
दलहं समादाय समत्तमाचरि ||11 अभिधर्मं विनिश्च सूत्र तथा उसकी टीका में समानता 12 कर्म विपाक के कारण सुप्रतिष्टितपादता प्राप्त होती है । दृढ समादानता से प्राचार विचार में दृढ़ता आती है | 13
2. विनय सम्पन्नता
के
सम्यग्ज्ञान प्रादि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय सम्पन्नता है । 14 विनय मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है - निश्चय विनय जो व्यक्ति को शुद्ध स्वरूप में स्थिर करती है तथा व्यवहार विनय जो शुभ भाव में स्थिर करती है । प्रथम विनय बन्ध का कारण नहीं जबकि द्वितीय विनय तीर्थंङ्कर नामकर्म के प्राश्रव का कारण है। छठवें गुणस्थान के बाद व्यवहार विनय नहीं होती परन्तु निश्चय विनय होती है । बौद्धधर्म के प्रथम कारण की तुलना इससे भी की जा सकती है । 3. शील- व्रतों में अन तिचार
शील शब्द का प्रयोग सत्स्वभाव, स्वदार सन्तोष तथा अहिंसादि व्रतों के संरक्षक दिव्रत प्रादि सात व्रतों के प्रर्थ में होता है । प्रहिंसादि व्रत तथा उनके परिपालनार्थ क्रोध वर्जन आदि शीलों में काय वचन और मन की निर्दोष प्रवृत्ति शीलव्रतेष्वनतिचार है ।16 इसी को दीर्घनिकाय में प्रारणातिपातादि से दूर रहकर प्रयतयण्हिता, दोधाङ्गुलिता व ब्रह्मजुगुत्तता नामक महापुरुष लक्षणों की प्राप्ति का मार्ग कहा है-
मारण वध भयमत्तनो विदित्वा परिविरतो परे मारणाय होसि । तेन सुचरितेन सग्गमगमा सुकतफलविपाक मनुभोसि
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