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10-13 महत्, प्राचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन भक्ति भावश्यकापरिहाणि है । सर्व सावद्ययोगों का
त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में प्रथम तीन --- महत्, प्राचार्य और बहुश्रुत
लगाना सामायिक है। तीर्थङ्कर के गुणों का कीर्तन (उपाध्याय) को पंच परमेष्ठयों के अन्तर्गत रखा
चतुर्विशतिस्तव है । मन, वचन, काय की शुद्धिगया है । सम्यग्दृष्टि की शास्त्र भक्ति ही प्रवचन
पूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति भक्ति हैं । केवलज्ञान श्रुतज्ञान प्रादि दिव्य नेत्र
और बारह प्रावतपूर्वक वन्दना होती है । कृत धारी परहितप्रवण और स्वसमय विस्तार
दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है । भविष्य में दोष निश्चयज्ञ अर्हन्, प्राचार्य और बहुश्रु तों में तथा
न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । श्रुत देवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने
अमुक समय तक शरीरबमत्व का त्याग करना वाले मोक्ष महल के सोपान रूप प्रवचन में प्रव
कायोत्सर्ग है ।28 बोर साहित्य में ऐसा कोई वर्णन विशुद्धिपूर्वक अनुराग करना अर्हद्भक्ति, प्राचार्य
नहीं मिलता। भक्ति, बहुश्रु त भक्ति और प्रवचन भक्ति है 128 नायाधम्म कहामो में अहंद्यभक्ति के स्थान पर 15. मागे प्रभावना अरिहंत वत्सलता. प्राचार्य भक्ति के स्थान पर गुरु नाया धम्म कहानो में इसके स्थान पर प्रवचन वत्सलता, बहुश्रुतभक्ति के स्थान पर बहुश्रुत वत्स- प्रभावना शब्द पाया है। मान छोड़कर सम्यग्दर्शलता और प्रवचन भक्ति के स्थान पर प्रवचन नादि रूप मोक्षमार्ग को जीवन में स्वयं उतारना वत्सलता शब्द मिलते हैं । परमभाव विशुद्धियुक्ता व दूसरों को उपदेश देकर उसका प्रभाव बढ़ाना भक्ति अर्थात् यथा सम्भव अधिगमन, बन्दन, प्रवचन प्रभावना है ।29 पर समय रूपी जुगुनुमों के पर्युपासन, अध्ययन, श्रवण, श्रद्धान रूपा भक्ति प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरवि प्रभा से, है .27 तत्वार्थवातिक में व सर्वार्थसिद्धि में भाव- इन्द्र के सिंहासन को कंपा देने वाले महोपवास विशुधियुक्तोऽनुरागो भक्तिः- विशुद्ध साव युक्त मादि सम्यक् तपों से भव्यजन रूपी कमलों को अनुराग को ही भक्ति कहा है।
विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा समान जिन पूजा दीघनिकाय में खीणजङ धता को प्राप्त करने
के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना
है 130 बौद्ध साहित्य के धर्मरक्षावरणगुप्तिकरणता के लिए विद्या, चरण व कर्म का प्रशिक्षण लेना
की समानता किसी सीमा तक यहां देखी जा देना पड़ता है । अभिधर्मविनिश्चयसूत्र में इसी को
सकती है। बुद्धधर्म परिग्रहणता कहा है। इसी प्रकार कुशल धर्म समाचरणता तथा प्राचार्योपाध्याय कल्याण 16. प्रवचन वात्सल्य मित्रानुशासिनी प्रदक्षिणग्राहिता को भी तुलना के जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती के लिए देखा जा सकता है।
है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से प्रोत14. प्रावश्यक अपरिहाणि
प्रोत हो जाना प्रवचन वात्सल्य है । वात्सल्य सभी मावश्यक प्रपरिहाणि का तात्पर्य है आवश्यक साधर्मियों के प्रति किया जाता है पर भक्ति अपने क्रियाओं में हानि न होने देना । नाया धम्म कहानो
से बड़ों के प्रति होती है। में मात्र आवश्यक कहा गया है । सामायिक, चतु- नायाधम्मकहामो में इन षोड़स भावनाओं के विचतिस्तव, वन्दना. प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और अतिरिक्त सिद्ध वत्सलता, स्थविर वत्सलता, तपस्वी कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथा- वत्सलता पौर प्रपूर्व ज्ञान ग्रहण इन चार भावनाओं काल नियमित व स्वाभाविक क्रम से करते रहना को पोर जोड़ दिया गया है। प्रथम तीन भावनायें
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