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महद भक्ति प्राचार्य भक्ति और बहुश्रुत भक्ति वे अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट हैं । दोनों की परम्परामों से पृथक नहीं तथा अपूर्वज्ञानग्रहण मभीक्ष्ण ज्ञानो- को जैन परम्परा से मिनाने पर जैन परम्परा पयोग का ही प्रकारान्तर है ।
प्राचीनतम दिखाई देती है । बौद्ध परम्परा में पार___ इस प्रकार जनधर्म व बौद्धधर्म में वर्णित मितामों का पालेखन उत्तरकालीन हैं । सम्भव तीर्थकरत्व एवं बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों को है दीघनिकाय में वर्णित निमित्तों का यह संक्षिप्त तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्राभास होता रूप हो । फिर भी सभी स्रोतों के प्राचीन रूप पर है कि वे एक दूसरे की परम्परा से भलीभांति विचार करने से जैन परम्परा अधिक प्राचीन व परिचित रहे हैं। दीघनिकाय उल्लिखित निमित्त वैज्ञानिक प्रतीत होती है। बौद्ध परम्पर उससे परस्पर मिश्रित हैं जबकि अमिधर्म विनिश्चय सूत्र में प्रभावित रही होगी।
1. तत्वार्थ सूत्र, 6.24 2. नायाधम्म कहामो, 8 3. तत्वार्थाधिगम सूत्र, स्वोपज्ञ भाषा टीकालंकृत-सिद्धसेनगणि, भाग 2, पृ:38
तत्वार्थाधिगम भाष्य टीका-हरिभद्रसूरि 6.23, पृ. 27812 . 1. विशेष देखिए-सामतानी, एन. एच.-A frest light on the interpretation of the
thirty two Maha. purusha Lakshanas of the Buddha. भारती, 6. भाग ।।
1962-63 5. अर्थ विनिश्चयसूत्र व उसकी टीका, वही, 6. Agpacts of Mahayana Buddhism and its relation to Hinavana q. 11 7: दिव्यावदान, पृ. 95 ललितविस्तर, पृ. 345 8: दीघनिकाय अजिनोपदिष्टे निन्थे मोक्षवम॑नि रुचि; निःशङ्कितत्वाद्यष्टाङ्गा दर्शनविशुद्धिः-तत्वार्थ
वार्तिक, 6.24; सर्वार्थसिद्धि, 6.24 10: तत्वार्थवार्तिक, 6.24 11. लक्खणसुत्त, दीघनिकाय 12. सातत्यसत्कृत्य कुशल प्रयोग सम्पन्नता । 13. दृढसमादानत्वात्कर्मवत्-अभिसमयालंकारालोक । दहसमादानो अहोसि-दीर्थान, 14. सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधनेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्या सत्कार प्रादरःकषाय
निवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता-तत्वार्थवार्तिक-6.24 15 अहिंसादिषु व्रतेषु तत्परिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु निखद्या वृत्ति कायवाङ मनसां
शीलवतेष्वनतिचार इति कथ्यते,-वही।।
शीलमुत्तर गुणा:पिण्डविशुद्धि समिति भावना"...."सिखसेन टीका । 16. ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः-तत्वार्थवार्तिक-6.24.
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