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एक अभिलेख भुवनेश्वर के समीप हाथीगुफा में मिला है । इस लेख में लिखा है कि कलिंग में तीर्थंकर की एक प्राचीन मूर्ति थी, जिसे मगध के शासक नन्द अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गए। लेख में भागे लिखा है कि खारवेल ने पुनः इस प्रतिमा को मगध से कलिंग में लाकर उसकी प्रतिष्ठापना की। इस उल्लेख से ईसवी पूर्व चौथी शती में तीर्थंकर प्रतिमा के निर्माण का पता चलता है ।
यहां जीवन्तस्वामी प्रतिमा का परिचय दे देना श्रावश्यक है । तपस्या करते हुए महावीर स्वामी की एक संज्ञा 'जीवन्तस्वामी' हुई । कुछ ग्रन्थों के अनुसार यह संज्ञा उनकी प्रारम्भिक अवस्था की द्योतक है जब वे मुकुट तथा अन्य विविध आभूषण धारण किए हुए थे। अकोहा नामक स्थान से इस स्वरूप में भगवान् की एक अत्यन्त कलापूर्ण प्रतिमा मिली थी । यह मूर्ति कांसे की है और अब वह बड़ौदा के संग्रहालय में प्रदर्शित है । भगवान ऊंचा मुकुट तथा अन्य अनेक ग्राभूषण पहने हैं । उनके मुख का शांत, प्रसन्न भाव दर्शनीय है । मूर्ति पर ईसवी छठी शती का ब्राह्मी लेख खुदा है, जिसके अनुसार यह जीवन्त स्वामी की प्रतिमा है ।
मथुरा से कंकाली टीला तथा कौशांबी आदि अन्य स्थानों से गुप्तकाल के पहले की तीर्थंकरमूर्तियां प्राप्त हुई हैं। भगवान महावीर के अतिरिक्त आदिनाथ, पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा मुनिसुव्रत की मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं । इनका पता कतिपय विशिष्ट चिह्नों तथा उन पर कित लेखों से चलता है । अनेक प्रारम्भिक मूर्तियों पर लांछनों का अभाव है । लांछनों का प्रयोग गुप्तकाल के बाद व्यापक रूप से मिलने लगता है ।
मथुरा तथा कौशांबी से पत्थर के बने हुए वर्गाकार या श्रायताकार 'मायागपट्ट' मिले हैं ।
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पूजा के लिये इनका प्रयोग होने के कारण उन्हें 'आयागपट्ट' कहा जाता था । अनेक पट्टों पर बीच में ध्यान मुद्रा में पद्मासन पर अवस्थित तीर्थंकर मूर्ति है। उसके चारों ओर अनेक सुन्दर अलंकरण तथा प्रशस्त चित्र बने हैं । मायागपट्टों का निर्माण ईसवी पूर्व प्रथम शती से प्रारम्भ हुआ। उन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि उनमें से अधिकांश का निर्माण महिलाओं की दानशीलता के कारण हुआ । मन्दिरों, विहारों तथा मूर्तियों के निर्माण में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक रुचि लेती थीं। प्राचीन शिलालेखों से इस बात की पुष्टि होती है ।
कुषाण काल ( ई० प्रथम द्वितीय शती) से जैन 'सर्वतोभद्रका' प्रतिमात्रों का निर्माण प्रारम्भ हुप्रा इन पर चारों दिशाओं में प्रत्येक और एक-एक जिन मूर्ति पद्मासन पर बैठी हुई या खड्गासन मे खड़ी हुई मिलती है । ये तीर्थंकर प्रायः प्रादिनाथ (ऋषभनाथ), पार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा महावीर हैं ।
मध्य प्रदेश के धुबेला संग्रहालय में एक अत्यन्त सुन्दर सर्वतोभद्रमूर्ति है, जो पूर्व मध्य काल की है । उस पर उक्त चारों तीर्थंकरों के चिह्न भी अंकित हैं, जिससे उनके पहचानने में कोई संदेह नहीं रह जाता ।
सर्वतोभद्रका प्रतिमा की परम्परा मध्यकाल के अन्त तक जारी रही । मथुरा, देवगढ़ आदि स्थानों से प्राप्त अनेक सर्वतोभद्रिका मूर्तियां अभिलिखित हैं और मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से बड़े महत्व की हैं ।
गुप्त तथा मध्य काल में निर्मित भगवान महावीर की मूर्तियां बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं । कुछ ऐसे शिलापट्ट गुप्तकाल से उपलब्ध होने लगते
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