________________
हैं जिन पर चौबीसों तीर्थकर प्रतिमा का एक *कन मिलता है । गुप्त युग तथा विशेषकर मध्य काल में तीर्थंकर प्रतिमा के अगल बगल या ऊपर नीचे अनेक देवी देवताओं एवं यक्ष, सुपर्ण, विद्याधर श्रादि के चित्रण भी मिलते हैं । ये भगवान के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए अंकित मिलते हैं ।
. महावीरजी की गुप्तकालीन कतिपय मूर्तियां भारतीय कला के सर्वोत्तम उदाहरणों में गिनी जाती है। भगवान की शांत निश्चल मुद्रा को तथा सिर के पीछे अलंकृत प्रभावली को प्रदर्शित करने में कलाकारों ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की । मूर्तियां अधिकतर पद्मासन में मिलती हैं। सिर पर कुंचित केश तथा वक्ष पर श्रीवत्स या वर्ध - मानक्य चिन्ह मिलता है । अंग प्रत्यंगों की गठन बड़ी सुगढ़ होती है । ऐसी अनेक उत्कृष्ट मूर्तियां मथुरा कौशांबी, महिच्छत्रा, देवगढ, ग्राकोटा आदि स्थानों से मिली हैं ।
तीर्थंकर महावीर स्वामी के मन्दिरों का निर्माण कब से प्रारम्भ हुआ यह एक विवादग्रस्त बात है । प्राचीन जैन आगमों में प्रायः तीर्थंकर मन्दिरों का उल्लेख नहीं मिलता । महावीर स्वामी अपने भ्रमण के समय मन्दिरों में नहीं ठहरते थे, बल्कि चैत्यों में विश्राम करते थे । इन चैत्यों को टीकाकारों ने 'यक्षायतन' (यक्ष का पूजा स्थल) कहा है। भारत में यक्ष पूजा बहुत प्राचीन है । यक्षों के मन्दिरों या थानों में उनकी पूजा होती थी । 'भगवती सूत्र' नामक जैन ग्रन्थ के अनुसार भगवान महावीर ने 'पृथ्वी शिलापट्ट' के ऊपर बैठ कर एक वृक्ष (शाल) के नीचे तप किया, जहां उन्हें सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान बुद्ध ने पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया । बुद्ध के उस श्रासन का नाम 'बौधिमड' प्रसिद्ध हुआ । उसका प्रकन प्रारम्भिक बौद्ध कला में बहुत मिलता है जिसकी पूजा का बड़ा प्रचार हुआ । बोधिमंड तथा बुद्ध से सम्बन्धित बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप
Jain Education International
2-43
आदि कही प्रारम्भ में पूजा होती थी । बुद्ध की मानुषी मूर्ति का निर्माण बाद में शुरू हुप्रा । उसके पहले जैन तीर्थंकरों की मानुषी प्रतिमाएं अस्तित्व में श्रा चुकी थीं।
चैत्य वृक्ष की पूजा जैन धर्म का भी एक अंग बन गई । विभिन्न तीर्थंकरों से संबंधित चंत्य वृक्षों के विवरण जैन साहित्य में उपलब्ध हैं । ऐसे तरुवरों में कल्पवृक्ष, शाल, आम्र आदि महत्वपूर्ण वृक्ष माने जाने लगे और इनका प्रदर्शन तीर्थकर प्रतिमानों तथा उनके शासन देवताओं के साथ किया जाने लगा । चैत्य वृक्ष ही मन्दिरों के प्रारम्भिक रूप मान्य हुए । यद्यपि आधुनिक अर्थ में प्राचीनतम जिन मन्दिरों के स्वरूप का स्पष्ट पता हमें नहीं है, पर इतना कहा जा सकता कि अनेक मन्दिर ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व अस्तित्व में प्रा चुके थे ।
1
वैशाली के ज्ञातृ कुल में वैशाली नगरी के समीप कुण्ड ग्राम ( प्राधुनिक वासुकुण्ड) में ई० पूर्व 599 में भगवान महावीर का जन्म हुआ । उनके पिता सिद्धार्थ इस कुल के मुखिया थे । महावीर की माता त्रिशला वैदेही वैशाली के नरेश चेटक की बहन थी । प्राचीन जैन ग्रन्थों में महावीर स्वामी को 'विदेह सुकुमार' तथा 'वैशालिक' नाम भी दिये गये हैं । उन्होंने दक्षिण बिहार के पर्वतीय तथा जांगलिक प्रदेश के भ्रमण में अनेक वर्ष बिताए। इससे यह स्वाभाविक था कि वह क्षेत्र महावीर स्वामी के उपदेशों का विशेष पात्र होता । जैन अनुश्रुति के अनुसार राजगृह महावीर स्वामी को सबसे अधिक पसन्द था । उन्होंने चौदह वर्षावास राजगृह तथा नालंदा में किए । राजगृह में महावीर स्वामी के पूर्वज तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म हुआ था । मुनिसुव्रत का नाम मथुरा से प्राप्त द्वितीय शती की प्रतिमा पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण मिलता है ।
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार भगवान महाबीर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org