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चाही । उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े बड़े (बौद्धादि) अपने शरीर से चार अङ्गल अधिक वेतालों के रूप बनाकर उपसर्ग किया कि जो तीक्ष्ण लम्बी लाठी लेकर वहां विचरण करते थे। जैसे चमड़ा छीलकर एक दूसरे के उदर में प्रवेश करना रण में हाथी वैरी सेना को जीतकर पारगामी चाहते थे, खोले हुए मुहों से प्रत्यन्त भयंकर दिखते होता है, उसी प्रकार भगवान महावीर भी उस थे, अनेक लयों से नाच रहे थे तया कठोर शब्दों लाढ़ देश में परीषह रूपी सेना को जीतकर पारअट्टहास और विकरालदृष्टि से डरा रहे थे । इनके गामी हुए 27 जैसे कवच आदि से संवृत शूरवीर सिवाय रुद्र ने सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु पुरुष संग्राम में चारों ओर से शस्त्रादि का प्रहार के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया, होने पर भी आगे बढ़ता चला जाता है, उसी प्रकार किन्तु वह उन्हें समाधि से विचलित नहीं कर श्रमण भगवान महावीर उस देश में कठिन से सका। अन्त में वह भगवान के महति और महावीर कठिन परिषहों के होने पर भी धैर्य रूपी कवच से दो नाम रखकर अनेक प्रकार से स्तुति कर चला संवृत होकर मेरु की तरह स्थिरचित्त होकर संयम गया 24
मार्ग पर गतिशील थे।28 . दिगम्बर जैन शास्त्रों में उपर्युक्त उपसर्ग का महामौन-जैन मान्यतानुसार तीर्थ कर ही उल्लेख है, किन्तु श्वेताम्बरीय शास्त्रों में मोर छद्मस्थ में उपदेश नहीं देते हैं। वे कैवल्य प्राप्ति के भी कई उपसर्गों का वर्णन मिलता है। इनमें बाद ही तद्रूप देशना करते हैं । तीर्थंकर महावीर गोपाल, शूल पारिणयक्ष, सगमदेव, चण्डकोशिक सर्प, मभी छद्मस्थ थे। मति, श्रुत, अवधिज्ञात तो उन्हें गौ शालक और लाढ़देश के अनार्य प्रजाजनों द्वारा जन्म से हो थे और दीक्षा के समय मन; पर्ययज्ञान पहुंचाई गई पीड़ायें भगवान की अनन्त क्षमता भी हो गया था पर कंवल्य प्राप्ति में कुछ विलम्ब और सहिष्णुता का ज्वलन्त निदर्शन हैं । जब था। दीक्षा के पश्चात् कंवल्योपलब्धि तक वे मौन भगवान महावीर अनार्यदेश में बिहार कर रहे थे, अवस्था में प्रवक् रहे। इसीलिए उन्हें महामोनी उस समय पुण्यहीन प्रनार्य व्यक्तियों ने भगवान को और पाकेवलोदयान्मौनी विशेषण दिए गए है ।29 डण्डों से मारकर घायल किया तथा बालों को . महाश्रमणत्व-- तीर्थंकर महावीर को महाखींचना भादि अनेक प्रकार कष्ट दिए, फिर भी वे श्रमण कहा जाता है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार अभिवादन करने वाले व्यक्ति पर प्रसन्न होकर उससे जिसकी वृत्ति सर्प, गिरि, अग्नि, सागर, माकाश, बात नहीं करते थे, जो व्यक्ति अभिवादन नहीं वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, रवि और पवन के करता था, उस पर क्रोध नहीं करते थे। भगवान समान होती है, वे श्रमण श्रेणी में पाते हैं । जिस को रह साधना जन साधारण के लिए सुलभ नहीं प्रकार सप अपने लिए पिल नहीं बनाता उसो थी।20 लाढ़ देश में भगवान को बहुत से उपसर्ग प्रकार श्रमण का कोई घर नहीं होता, जहां कहीं हुए। बहुत से लोगों ने उन्हें मारा, पीटा एवं उनका निवास हो जाता है। परीषहों में उत्कम्पन दांतो और नखों से उनके शरीर को क्षतविक्षत नहीं होने के कारण उनकी वृत्ति पर्वत के समान किया। उस देश में भगवान ने रुक्ष अन्न, पाती वही गई है । तेज और तमोमय होने के क.रण अग्नि का सेवन किया। वहां कुत्तों ने भगवान को काटा। के समान, गाम्भीर्य अथवा ज्ञ नादि रत्नों के प्रागार उस देश में ऐसे कम व्यक्ति थे जो भगवान को होने के कारण सागर के समान, सब जगह निरा. काटते हुए कुत्तों से छुड़ाते थे। प्रायः लोग काटते लम्बन होने से प्राकाश के समान, सुख और दुख में हुए कुतों को छू छू कर काटने के लिए अधिक विकार न दिखलाने से वृक्ष के समान, मनियतवृत्ति प्रोत्साहित करते थे। ऐसी स्थिति में अन्य श्रमण होने से भ्रमर के समान, संसार के भय से उहिण्न.
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