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होने के कारण मृग के समान, समस्त खेदों को मुहूं तमात्र चंक्रमणकर2 ध्यानसाधना करते थे। सहने के कारण पृथ्वी के समान, काम-भोग रहने वाह्यतप-वारप्रभु वर्षाकाल में जबकि सारी पृथ्वी पर भी उनमें निले पता होने के कारण जल से प्रकृति में झंझावात के उग्र आलोडन से थर्राती हुई भिन्न कमल के समान, लोक के समान्य रूप से दृष्टिगोचर होती उस समय भी धर्यरूपी कवच प्रकाशित होने के कारण सूर्य के समान तथा सब को प्रोढकर किसी वृक्ष के नीचे समाधि लगाए जगह अप्रतिबद्ध होने से पवन के समान श्रमणों रहते थे। कितने ही वृक्षों को जला देने वाले हिम की वृत्ति होती है ।30 तीर्थंकर महावीर इसी वृत्ति प्रपात को वे अपनी ध्यानरूपी अग्नि से जला दिया के थे। प्राचाराङ्ग सूत्र के अनुसार उनका निवास करते थे। ग्रीष्मकाल में जबकि चारों ओर अग्नि प्रायः शून्यघर, सभा, प्याऊ, पण्यशाला (दुकान) वर्षा होती, तब सूर्य की किरणों से भीषण तपते हुए तथा शहर की शाला होता था। वे प्रायः श्रम- पर्वत के शिलापण्डों पर अपने ध्यानरूपी शीतल जीवियों के ठहरने के स्थान, बाग, नगर, श्मसान, अमृत जल का सिंचन करते थे । इस प्रकार शारी. शून्यागार तथा वृक्ष के नीचे ठहरते थे ।31 रिक सुख की हानि के लिए33 वे वाह य तप करते
सतत जागृति-भगवान निद्रा का भी सेवन थे। नहीं करते थे। यदि कभी निद्रा आने लगती तो वे उठकर अपनी आत्मा को जागृत करते थे। उपर्युक्त प्रकार की महान् साधना के फलवे निद्रा को (प्रमाद रूप में) जानकर (संयमानुष्टान स्वरूप ही महावीर को सर्वोत्कृष्ट प्राध्यात्मिक में व्यवस्थित होकर अप्रमत्त भाव से विचरण करते सम्पत्ति की प्राप्ति हुई और वे सर्वज्ञ मोर सर्वदर्शी थे। कभी सर्दी की रात्रि में बाहर निकलकर के रूप में विश्व मे प्रसिद्ध हुए।
1. असगः वर्धमान चरितम् 17/102 ,
2. वही 17/103 . 1.3. रविषेण : परमचरित. 2/85 . - 4. धवला.1 खं० पृ. 65
5. जिनसेन : हरिवंश पुराण 2/5-51: .. .. विद्यानन्द मुनि : तीर्थंकर वर्द्धमान पृ० -27 17. जयधवला भाग I पृ० 81
8. उत्तर पुरण 74/305 ... प्राचाराङ्ग 1/9/1/3-4 10. उत्त'पुराण 74/308 1. प्राचारङ्ग 1/9/173 12. महावीर जयन्तो स्मारिका, जयपुर 1970 जैन प्रकाश के उत्थान वीरांक में प्रकाशित
त्रिभुवनदास महता का लेख 13, पाचाराङ्ग 1/914/9
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