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उन्हें वधमान नाम से भी अभिहित करने लगे । अपने विशिष्ट ज्ञान के कारण वे सन्मति कहलाये। अपने अतुल बल पराक्रम एवं निर्भयता के निमित्त से उन्हें लोगों ने वीर, अतिवीर आदि नामों से भी पुकारा । उनकी भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक विशेषताओं के कारण उनके १००८ नाम हुए। उनके भौतिक नामों में से वीर, महावीर, वर्धमान, सन्मति, अतिवीर, वैशालीय, ज्ञातृ पुत्र प्रादि नाम विशेष प्रसिद्ध हैं । 4. महावीर के समय देश में बड़ी विचित्र परिस्थितियां थीं। सब ओर जाति वाद की आग लगी हुई थी। प्रत्येक अपने को उच्च और दूसरे को नीच समझता था । सब अहं के पर्वत पर चढ़े हुए थे। कोई उससे उतरना नहीं चाहता था। लोग जिह्वा लोलुप हो रहे थे । अपने क्षणिक स्वाद सुख के कारण वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। बलवान, निर्बल को सताना, उनके प्राण तक ले लेना अपना अधिकार समझते थे। इसे उन्होंने धर्म का प्रावरण पहना दिया था। हरेक अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा समझता था। स्त्रियां गाड़ी के दो पहियों में से एक न समझी जाकर तिरस्कृत थीं, पैर की जूती समझी जाती थीं।
महावीर ने सोचा यह सब क्या है ? क्यों लोग सर्प के समान विषधर बने हुए हैं ? क्यों इन्सान ही इन्सान का दुश्मन हो रहा है ? चांद की शीतल चांदनी सबको मिलती है, धरती अपना अन्न सबके लिए समान रूप से उगाती है, मेघ सबके लिए बरसते हैं, उनमें कोई दुराव नहीं होता, कोई पक्षपात नहीं होता तो फिर धर्म भी ऐसा क्यों कहीं ? सब जीना और सुखी होना चाहते हैं, मरना और दुःखी होना कोई नहीं चाहता, सबकी आत्मा समान है, क्यों नहीं लोग इस तथ्य को समभते ? क्यों वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं ? इस समस्या का निदान क्या है ? इस चिन्तन ने महावीर को एक दिशा दी। उन्होंने सोचा जब तक मनुष्य स्वयं पूर्ण न बने, स्वयं उस मार्ग पर न चले तब तक उसे दूसरों को उपदेश देने का कोई हक नहीं है और न उसका उपदेश प्रभावी ही हो सकता है और वे चल पड़े सम्पूर्ण सांसारिक वैभवों को लात मार जंगल की ओर अपनी जन्मजन्मान्तरों की साधना को पूर्ण करने, मुक्ति का मार्ग खोजने । वह दिन था मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी का। इस समय उनकी आयु केवल ३० वर्ष की थी।
बारह वर्ष तक उन्होंने घोर तपस्या की। उनका तपस्वी जीवन परिषहों और उपसर्गों से परिपूर्ण था किन्तु किसी प्रकार की विघ्न बाधाओं
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