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क्षीरवत्' जीवात्मा के साथ घुलमिल जाते हैं । इस धनिष्ठ सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं । 19
मिथ्यादर्शन भादि जो कर्मबन्ध के हेतु हैं उनका निरोध विरोधी गुरणों से ही हो सकता है । इसलिये मोक्ष के मार्ग का उपदेश देते हुए प्राचार्य उमास्वाति ने बतलाया है कि 'सम्यग्दर्शन' 'सम्यग्ज्ञान' और 'सम्यक् चारित्र' मोक्ष का मार्ग है । 11 प्राचार्य उमास्वाति ने इनकी विशद व्याख्या की है । संक्षेप में तत्वार्थ के प्रति श्रद्धा होना 'सम्यग्दर्शन' कहलाता है। जैन दर्शन के अनुसार जो जीव, प्रजीव आदि सात तत्व है उनके प्रति श्रद्धा रखना ही 'सम्यग्दर्शन' है 12 यह कुछ व्यक्तियों में स्वाभाविक होता है किन्तु कुछ व्यक्तियों में गुरु के उपदेश से ही उत्पन्न होता है 113 सम्यग्दर्शन तत्व वस्तु को जानने का प्रथम साधन है । तत्वार्थ के प्रति श्रद्धा होने अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति तत्व के सम्यग्ज्ञान के लिये प्रयास करता है। जीव, प्रजीव मादि सात तत्वों को भली भाँति जान लेना ही सम्यग्ज्ञान है । 14 इस सम्यग्ज्ञान का जैनदर्शन के ग्रन्थों में प्रत्यन्त विस्तृत विवेचन किया गया है और इसके अनेक भेद प्रभेदों का निरूपण किया गया है । सर्वदर्शन संग्रह में भी इसका संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट विवेचन है 25 सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करके साधक पापकर्मों से दूर रहता है और परहित साधन प्रादि कर्मों का धाचरण करत है। यही सम्यक्चत्रि है। विध ग्रम में इसकी व्याख्या की गई है ग्रहिस भादि व्रतों के भेद स यह पांच प्रकार का है - ( 1 ) महिसा (2) सूनृत प्रर्थात् सत्य और प्रिय वचन, ( 3 ), प्रस्तेय, ( 4 ) ब्रह्मचर्य और (1) अपरिग्रह | सम्यक् चारित्र का विशद निरूपण करके जैन दर्शन. में चारित्र पर विशेष बल दिया गया है। फिर भी जनदर्शन के अनुसार 'सम्यग्दर्शन', 'सम्यग्ज्ञान', मौर 'सम्यक् चारित्र' तीनों मिलकर ही मोक्ष के साधन होते है पृथक-पृथक नहीं 117
सम्यग्दर्शन मादि के द्वारा मिथ्यादर्शन आदि
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का निरोध हो जाता है इस प्रकार बन्ध के हेतुओं प्रर्थात् श्रास्रव का निरोध होने से प्रात्मा में कर्मपुद्गलों का प्रविष्ट होना रुक जाता है। इसी को जैनदर्शन में 'संवर नाम से कहा गया है 127 संवर के अनेक अवान्तर भेद भी माने गये हैं । 18 जब संवर के द्वारा श्रात्मा में नये कर्मो का आना रुक जाता है तब साधक तप श्रादि के द्वारा पूर्व अर्जित कर्मों को नष्ट कर देता है। इसे ही 'निर्जरा कहते हैं । निर्जरा नामक तत्व का भी जैन ग्रन्थों में विशद वर्णन मिलता है । इस प्रकार संवर और निर्जरा के द्वारा जीवात्मा कर्मबन्धन से छूट जाता तथा मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । मोक्ष का अर्थ है सभी कर्मों का क्षय । यह शंका हो सकती है कि कर्मबन्ध की परम्परा तो अनादि है अत: इस प्रकार तो उसका प्रन्त ही नहीं होगा ? इसका समाधान करते हुए प्राचार्य भक्लक देव ने बतलाया कि जिस प्रकार बीज और अंकुर की परम्परा अनादि है किन्तु यदि किसी बीज को अग्नि से जला दिया जाता है ता फिर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता मोर इस प्रकार बीजाकुर की परम्परा का नाश हो जाता है । इसी प्रकार क. मंबन्ध का बीज जो मिथ्यादर्शन आदि है, उसका नाश कर देने पर फिर कर्मबन्ध नहीं होता है 118
समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर मुक्तात्मा ऊर्ध्वगमन करता है। 20 वह ऊपर की भोर ही क्यों जाता है, इस विश्लेषण करते हुए जंनदर्शन में ऊर्ध्वगमन के चार हेतु प्र: 21 का निरूपण किया गया है
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(1) पूर्व प्रयत्न आदि के संकार से जिस प्रक र दण्ड से घुमाया गया कुम्म्वार वा चक्र दण्ड की क्रिया के बन्द हो जाने पर भी उसी क्रिया के बल से उसके संस्कार के क्षीण होन तक घूमता ही रहता है, उसी प्रकार संसार में स्थित जीवात्मा ने मोक्ष की प्राप्ति के लिये जो कर्म श्रादि किये हैं, उन कर्म आदि के न रहने पर भी उसके संस्कार से मुक्तात्मा लोकान्त तक ऊपर जाता रहता है 28
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