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1-156 । (2) संगरहित हो जाने से-जैसे मिट्टी के से परे 'धर्मास्तिकाय तो रहता नहीं अतः मुक्तात्मा लेप से भारी हा तुम्बा पानी में डूब जाता है का मौर ऊपर गमन नहीं होता है ।28 किन्तु मिट्टी का लेप धुल जाने पर वह ऊपर प्रा इस लोकाकाश के अन्त पर्यन्त पहुंचकर ही जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा कर्मभार से संसार मुक्तात्मा की गति रुक जाती है। इस मुक्तावस्था से मग्न रहता है किन्तु जब कर्मों के संग से मुक्त में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से शरीर, इन्द्रिय हो जाता है तो ऊप” की ओर गमन करता है ।23। तथा मन का वहां सर्वथा अभाव ही हो जाता है । (3) बन्धन का नाश हो जाने से-जिस
इससे जो सुख निर्बन्धन, निरुपाधि मुक्तात्मा अनु
भव करता है वह अनिवंचनीय, अनुपमेय तथा प्रकार ऊपर का छिलका हट जाने पर एरण्ड का
अचिन्त्य है । उस स्वभाव सिद्ध परमसुख के सम्मुख बीज ऊ र को छिटक ज ता है. उसी प्रकार कर्म का बन्धन छूट जाने से मुक्तात्म' की स्वाभाविक
त्रिलोक का समस्त मानन्द बिल्कुल नगण्य सा
है। ऊर्ध्वाति होती है 124
श्री प्रकलंकदेव ने इस मुक्तावस्था का बड़ा ही .. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 'संग' तथा
आलंकारिक वर्णन किया है-लोक शिखर पर 'बन्ध' में अन्तर है। जब जीवात्मा के प्रदेशों में
अतिशय मनोज्ञा तन्वी सुरभि पुण्या भोर अत्यन्त कर्मपुद्गल अविभक्त रूप से अर्थात् नीरक्षीरवत्
दीप्तिवाली प्रारभारा नाम की भूमि है ।30 यह घुल मिल जाते हैं तब जीव का बन्ध कहलाता है,
मनुष्य लोक के समान विस्तारवाली, शुभ और किन्तु जीवात्मा और कर्म का केवल सम्पर्क होना
शुक्ल छत्र के समान है । लोकान्त में इस भूमि पर संग कहा गया है ।
सिद्ध विराजमान होते हैं 181 वे 'केवलज्ञान', (4) ऊपर को जाने के स्वभाव के कारण- 'केवलदर्शन', सम्यक्त्व पौर सिद्धत्व से युक्त होते जिस प्रकार तिरछी बहने व ली आयु के न रहने हैं, तथा क्रिया का निमित्त न रहने से निष्क्रिय पर दीपशिखा स्वभाव से ऊपर को जलती है, उसी होते हैं। प्रकार मुक्तात्मा भी अनेक प्रकार की गतियों को इन सिद्धों का अनश्वर, अबाधित तथा विषयाउत्पन्न करने वाले कर्मों का निर्वाण हो जाने पर तीत सुख प्राप्त होता है ।93 यदि कोई प्रश्न करे स्वभाव से ऊपर को ही जाता है। 26
कि मुक्तों को सुख कैसे हो सकता है ?34 तो उत्तर इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन विचार धारा है कि 'सुख' शब्द का प्रयोग चार अर्थों में देखा के अनुसार मुक्तात्मा ऊपर को ही जाता है, किन्तु जाता है-1. विषय, 2. दुःखाभाव, 3. सुखानुउसके ऊपर को जाने की सीमा लोकाकाश है। भूति तथा 4. मोल 135 प्राकाश दो प्रकार का होता है-(1) लोकाकाश (1) 'भग्नि सुखकर है' या 'वायु सुखकर है' और (2) अलोकाकाश 'लोकाकाश' में 'लोक' इत्यादि में 'सुख' शब्द 'विषय' के अर्थ में है। . शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। (2) रोग मादि दुःखों के प्रभाव में जो सक्षेप में जहां पुण्य पाप का फल भोगा जाता है मनुष्य कहता है 'मैं सुखी हूं' वहां 'सुख' शब्द वह लोक है 17 इसी लोक का आकाश, लोकाकाश दुःखाभाव के अर्थ में है। हैं। इससे परे अलोकाकाश है : मुक्तात्मा लोका. (3) पुण्य कर्मों के विपाक से इन्द्रियों के काश के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है, इससे पागे द्वारा विषयों में अनुकूलता की प्रतीति होती है । वह गति नहीं करता। मुक्तात्मा की ऊर्ध्वगति में उसे भी 'सुख' कहा जाता है। वहां 'सुख' शब्द धर्म भी निमित हुमा करता है, किन्तु लोकाकाश 'सुखानुभूति' के लिये है।
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