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ऐतिहासिक जैन तीर्थ राणकपुर
- मुनि श्री छत्रमलजी सवा पांच सो वर्ष का, यह प्राक्तन प्रासाद । जैनों के वर्चस्व का, करता डिडिमनाद ।।1।। उड़ उड़ चौरासी ध्वजा, देती यों संकेत । मन्दर माकर देखलो, होकर सभी सचेत ।।2।। मधिनायक श्री प्रादि जिन, चतुमुखी जगदीश । ध्यान लीन मुद्रा मुदित, मोहक विश्वावीश ।।3।। त्रिलोक्य दीपक नाम का, इतना वृहदाकार। सारे भारतवर्ष में, है यह प्रथम विहार ।।4।। जो कुछ भी मैंने किया, परिचय वहां सम्प्राप्त । वह प्रकित मैं कर रहा, यद्यपि नहीं पर्याप्त ।।5।। वहीं मादड़ी ग्राम था, धरणा शा गुणवान । देखा शाह ने स्वप्न में, नलिनी गुल्म विमान ।।6।। शशि(सोमसुन्दर प्राचार्यने,दिया स्वप्न प्रवबोध । शिल्पी मिले जु दीपजी, करने पर बहु-शोध ।।7।। चौदह सौ तेतीस में, हुमा कार प्रारम्भ । चौदह सौ छिनवे हुप्रा, पूर्ण प्रायः अविलम्ब ।।8।। शिल्पी पन्द्रह सौ लगे, सताबीस सौ और । श्रेसठ वर्षों तक खपे, सारे चतुर चकोर ॥७॥ सप्त धातुओं से भरी, पैंतीस फुट की नींव । प्रोन्नत शत दो फुट गया, देवालय नभ सीम || 100 स्फुट फुट अड़तालीस सौ, में इसका फैलाव ।
है चोरासी भोहरे, जहां न तनिक लगाव ||1|| ' मध्य कलाकृतिमय खड़े, ऊचे ऊचे स्तम्भ । मिलता एक न एक से, देखा हो गत दम्भ ।।12।। मानी जाती प्राज भी, गिनती अति दुःश्वार । गिनने वालों ने गिने, है आश्चर्य मपार ।।13॥
1. चौदह से पम्बालीस
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