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मत्यु नहीं.... निर्वाण क्यों ?
मामतौर से लोगों को मरने की अनिच्छा रहती है फिर भी मृत्यु टलती नहीं चाहे उसे टालने की कितनी ही को शश की जाय। मरने के बाद क्या होगा इस बात की कल्पना से ही मृत्यु का भय लगता है परन्तु अनिच्छा रहते हुये भी मरना आवश्यक होता है । कुछ विशिष्ट व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिन्हें मरण का भय नहीं होता। मरते समय न तो वे भयभीत होते हैं और न ही मरते समय उन्हें जरा भी कष्ट महसूस होता है । धीरज के साथ पुराने वस्त्रों के त्याग की तरह वे इस शरीर को छोड़ देते हैं। उनका वह मरण, समाधिमरण कहलाता है । ऐसी मृत्युगों के लिये शोक नहीं किया जाता बल्कि उत्सब मनाया जाता है। ऐसे महापुरुषों का भौतिक शरीर नष्ट होकर मृत्यु भी लागों को वर्षों तक प्रेरणा देती है। इसीलिये उसे मरण नहीं बल्कि निर्वाण कहा जाता है और ऐसे ही महापुरुष का हम 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव मना रहे हैं।
जो बात टलने वाली नहीं, उसे भुलाने से कुछ लाभ नहीं इसलिये मृत्यु को याद रखकर सावधान रहना और अपने जीवन को फिजूल व निरर्थक बातों में न खपाना ही श्रेयस्कर है । मृत्यु की स्मृति गला यों और अपराधों से बचाती है, अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने में सहायक होती है। मरण अनिवार्य है और वह कब आयेगा इसका पता न हो तो हमें सावधानी बरतनी चाहिए । क्षण भर का प्रमाद भी हानिकर होता है इस लिये हमें ऐसा मरण अपनाना चाहिए जिससे हम अमर बन सकें।
महाभारत में एक संवाद है युधिष्ठिर मौर यक्ष का। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करता है :
श्री रिषभवास रोका
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