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"दुनियां का सबसे बड़ा श्राश्चयं क्या है ।" 1: युधिष्ठिर जवाब देते हैं- "हर मनुष्य प्रति क्षण मृत्यु के निकट जा रहा है, वह जानता है कि उसे मरना पड़ेगा फिर भी वह अपने को अमर मानता है । यही सबसे बड़ा श्राश्चर्य है । सभी दीर्घकाल तक जीना चाहते हैं, मृत्यु को भूल जाना चाहते हैं किन्तु वह कब, किस रास्ते से आयेगी, कोई नहीं जानता । शरीर कब जायेगा पता नहीं ।
मरण का स्मरण अशुभ माना जाता है । मनुष्य मरने की स्थिति में है फिर भी मृत्यु निकट श्रई है. ऐसा कहना ठीक नहीं समझा जाता । उसे सावधान कर अपनी मृत्यु सुधारने का अवसर नहीं दिया जाता । मृत्यु के विषय में प्रधेरे में रखना ही उसका हित समझा जाता है, ऐसा करने में ही उसकी भलाई समझी जाती है मानों कुछ क्षरण वह बच जाय तो बहुत बड़ी बात हो गई हो ऐसा समझा लाता है जबकि कहा यह जाता है कि मृत्यु एक क्षण के लिये भी नहीं टाली जाती ।
जो बात होने वाली है उपे स्पष्ट बताकर उसे ठीक से विवेकपूर्वक मरने के लिये तैयार करने में ही उसका हित है । जब किसी को यह बात मालुम हो जाय कि यह संसार छोड़ कर उसे जाना ही है तो वह न तो बुरे काम ही करेगा, न ही बुरे विचार मन में आने देगा | फिर उसके मन में किसी भी चीज का मोह नहीं जगेगा। वह ऐसा मरण अपनायेगा जिसमें मर कर भी अमर हुआ जा सकता है ।
मरण सुधारने के लिये पूर्व तैयारी रखनी चाहिये। मररण के स्वरूप को समझ कर उसे विवेकपूर्वक अपनाने का अभ्यास करना चाहिए । अकस्मत असावधानी में मृत्यु आवे इसके बदले हम उसके लिये अपनी पूरी तैयारी कर सावधान रहें यह अधिक इष्ट है ।
मनुष्य का जीने का मोह मृत्यु को प्रयत्न पूर्वक भुलाने की कोशिश कराता है। मानव जाति ने मृत्यु की याद को भुला कर अब तक बहुत खोया
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है । उसके हाथ से न होने जैसे काम हुये हैं, होते हैं और भविष्य में भी होंगे ।
मृत्यु अनिवार्य है और कब आयेगी इसका पता हो तो मनुष्य अधिक सावधानी बरते, यह स्वाभाविक ही है । उसके पश्चात् अव्यवस्था या गड़बड़ी न हो ऐसी व्यवस्था वह करे यह स्वाभाविक है । भविष्य की चिन्ता न रहकर, मृत्यु श्रावे तब सहज भाव से पुराने वस्त्रों की भांति शरीर त्याग दे व मृत्यु न भावे तब तक विशुद्ध जीवन जीए ।
व्यवहार कुशल व्यक्ति अपने बाद अव्यवस्था न हो इसलिये वसीयत बना कर रख देते हैं । रोमन लोगों में तो वसीयत न लिखकर मरना प्रसंस्कारिता समझी जाती थी और यह बात ठीक भी है । वसीयत लिखकर न जाने से होने वाले दुष्परिणामों से हम अपरिचित नहीं है । यह वसीयत केवल भौतिक सम्पत्ति की ही नहीं अपितु प्राध्यात्मिक भी होती है । कहते हैं भगवान महावीर ने अपना अन्तिम उपदेश उत्तराध्ययन प्रहरों तक एक श्रासन पर बैठ कर दिया था । जो ग्राज भी प्रकाश देता है ।
बुढ़ापे में मृत्यु की संभावना अधिक बढ़ जाती है इसलिए लेन-देन व व्यवसाय भी बुढापे में कम देना हितकर होता है। जिसका ऋण या कर्ज हो दे दिया जाय। किसी का यदि हम पर अहसान हो तो भी चुका देना चाहिए। हमारी बातचीत से किसी की कुछ भी अपेक्षाएं पैदा हुई हो तो वह भी पूरी कर देनी चाहिए। सभी तरह के कर्ज या वचन चुका देने चाहिए। दिये हुये आश्वासन अधूरे न रहें इसकी सावधानी बरतनी चाहिए । बातचीत इतनी सावधानी से करें कि किसी के मन में कोई अपेक्षा न जगे । दिया हुआ कर्ज, समझ लेना चाहिए कि वह आने वाला नहीं । आ जाय तो अच्छा और न आये तो उसके लिये क्षोभ नहीं करना चाहिये ।
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