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अपकार को भूल जाना चाहिए और किसी के प्रच्छा । हमारे लिये दूसरों को कम कष्ट हो इसका प्रति प्रशुभ भाव हो तो उन्हें जड़मल से निकाल ध्यान रखें। देना चाहिए। प्राणीमात्र के प्रति समसा व मैत्री चीजों का उपयोग कम करने से सहज में भाव रहे। मन में किसी के प्रति भी द्वेष, तिरस्कार सन्तोष बढ़ता है । मानव जीवन की ससे बड़ी कला या ईर्ष्या एवं क्रोध न रहे । मन विशुद्ध और निर्मल यह है कि हम जैस हैं वेसे अपने आपको समझ कर रहे। इसीलिये प्राणीमात्र की क्षमा मांग कर भूत
जीवन जीना । हम अपनी स्थितियों के प्रति सजग. मात्र के प्रति मैत्री का संकल्प किया जाता है।
अप्रमत्त और सद। सावधान रहकर प्राप्त परिस्थिबाह्य की तरह ही अन्तर के शत्र मों जैसे राग, तियो के अनुसार जीवन चलायें। अपने भूनकाल द्वेष, कषाय, अहंता-ममता, स्पर्धा, वासना-विकारों की भव्यता की यादों को भुला दें, भविष्य की से मुक्ति पाने का प्रयास किया जाय । सबके
कल्पनामा का त्याग करें और वतमान को अच्छा कल्याण की ही कामना मन में रहे और चित्त शुद्ध
बनाने की कोशिश करें, वर्तमान के प्रति सामजस्य रहे जिससे मरते समय सहज निर्मल भाव से शरीर
रखकर प्राप्त परिस्थिति को अच्छा बनने का स्याग जा सके।
प्रयास करें। प्राप्त परिस्थिति में सन्तोष मानें। प्रवृत्तियों को समेट लेना चाहिए अथवा योग्य बुढ़ाये में जीवन को निरूपाधिक बनाना, उसे व्यक्तियों को सौंप देनी चाहिए। सद्प्रवत्तियों के अधिक सयमी व नियत्रित बनाने में ही कल्याण है। मोह से भी बचना चाहिए। सत्कार्य करें भी तो सभी तरह की ऐषणामों को त्यागना ही उस में प्रासक्ति न हो।
हितकर है। पुत्र'षणा, अर्थेषणा, लोकपणा म स बुढ़ापे में शरीर निर्बल होता है, इन्द्रियां लोकेषणा का त्याग सबसे कठिन होता है । कि तु शिथिल हो जाती है, जीवनी-शक्ति घटती जाती अन्य सभी ऐषणाप्रो की तरह ही ल.केषण। भी है। इस वास्तविकता को ध्यान में रख कर यदि व्यर्थ, निरर्थक व हानिकर ह। है ।क्योकि वह मानपहले की तरह ही प्रवृत्तियां चालू रखें तो वे ठीक सिक स्वास्थ्य का नाश करती है। न होकर मन को असन्तोष और समाज को हानि ही बुढ़ापे में नींद कम पाती है। शरीर भी अधिक पहंचाती है। हाथ में चीज को सम्भालने की शक्ति काम करने में अक्षम होता है। समय खाली रहता न रहे तो उसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर होता है। है, उस समय का सदुपयोग स्वाध्याय, चिन्तन और योग्य समय पर निवत्त होना ही लाभदायक होता ध्यान में करे । मन को खाली न रखें। बुढ़ापे की और बढापा विवेकपूर्वक बिताने से मरण सुधर चिन्ता और छोटी पोर तुच्छ बातों को याद करना जाता है।
दुःखदायी ही होता है। जीवन में जो कुछ भी बूढापे में शरीर ठीक रहना हो तो आहार का अच्छा बन पड़ा हो उसको याद करके सन्तोष संयम आवश्यक है। जीवन-संध्या की आखिरी मानना चाहिए । उससे प्रसन्नता का अनुभव करना में प्राहार प्रासानी से पच जाय ऐसा लेना चाहिय। चाहिए । जीवन में भी कुछ अशुभ हो गया उसकी भोजन, नियम से और मात्रा कम हो । रात्रि में याद कर पछतावा करना चाहिए । भूलों से शिक्षा भोजन टाला जाय । पाहार इतना ही लें जिनका ग्रहण करनी चाहिए, जिसके प्रति भी अन्याय हुपा शरीर पर दुष्परिणाम न हो, भोजन ऐसा करें हो उसका परिमार्जन कर क्षमा मांग कर मन की जिससे मोटापा मोर वजन न बढे । स्वादश सफाई कर लेनी चाहिये। अधिक न खाये। जिन चीजों के बनाने में अधिक हम पर जिनका उपकार हुआ, जिन्होंने हमारे समय लगता हो ऐसा भोजन भी टाला जा सके तो हित में कुछ किया उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करनी
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