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प्रागमोत्तर जैन-धर्म साहित्य में नीति (5वीं ते कह न वंदरिणज्जा, जे ते ददठूण परक शताब्दी से 10 वीं शताब्दी तक) :
इट्ठास जस्स भज्जा पिययम । कि तस्स रज्जेण । प्रागम युगीन जैन ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं अर्थात् ऐसे लोग क्यों वन्दनीय न हों जो स्त्री को व्यावहारिक नीति उपलब्ध होती है । इस दृष्टि से देखकर वर्षा से पाहत वृषभों की भांति नीचे रत्नशेखर सूरि के 'व्यवहार शुद्धि प्रकाश' बहुत जमीन की मोर मुंह किए चुपचाप चले जाते हैं। उत्तम है। यहां आजीविका उपाय के साथ पुत्र, प्रश्न शैली में पृथ्वी को स्वर्ग बनाने वाले चार ऋण, परदेश प्रादि जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर पदार्थों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है । उस युग में उच्छूगामे वासो सेयं सगोरसा सीली। रचित प्राकृत भाषा का कथा-साहित्य भी अत्यन्त इट्ठाय जस्स भज्जा पिययम । किं तस्स रज्जेण ।। समृद्ध है । यद्यपि इस वाङ्गमय का अधिकांश धर्म
हे प्रियतम ! ईख वाले गांव में वास, सफेद प्रचार के लिए गढ़ा है किन्तु उनमें व्यवहार नीति
वस्त्रों का धारण, गोरस और शालि का भक्षण का पंश भी प्रचुर मात्रा में समाहित है । नीति-शिक्षा
तथा इष्ट भार्या जिसके निकट हो उसे राज्य से प्रायः छन्दोबद्ध है इसमें उपमा, रूपक, दृष्टांत प्रादि
क्या मतलब ? यहां अनेक गाथाओं में स्त्री-पुरुषों अलंकारों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। देवभद्र के स्वभावादि के सम्बन्ध में सुन्दर कथन है। एक सूरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ कहारयण कोस (कथारत्नकोश)
गाथा का व्यंग्यार्थ कितना सत्य एवं व्यवहार सिद्ध में धन की महिमा इस प्रकार गायी गई है :परिगलइ मई मइलिज्जई जसो नाऽदरंति सयणावि।
धन्ना ता महिलामो जाणं पुरिसे सु कित्तिमो नेहो । मालस्सं च पयट्टइ विप्फुएह मणम्मि रणरणपो । उच्छरइ अणुचराहो पसरइ सब्बंगियो महादाहो ।
पाएण जनो पुरिसा महुयरसरिसा सहावेणं ।। किं किं व न होइ दुहं अत्थविहीणस्स पुरिसस्स ॥
अर्थात् पुरुषों से कृत्रिम स्नेह करने वाली स्त्रियां
भी धन्य हैं क्योंकि पुरुषों का स्वभाव भी अर्थात् धन के अभाव में मति भ्रष्ट हो जाती
तो भौरों जैसा ही होता है। श्रीयुत हरिभद्र है यश मलिन हो जाता है, स्वजन भी मादर नहीं
सूरि के उवएसपद (उपदेश पद) की प्रश्नोत्तर करते, आलस्य माने लगता है, मन उद्विग्न हो जाता है, काम में उत्साह नहीं रहता, समस्त अंगों
शैली में दो गाथा देखिएमें महा दाह उत्पन्न हो जाता है। धनहीन पुरुष को धम्मो जीवदया, किं सोक्खमरोग्गया जीवस्स । को कौन-सा दुख नहीं होता? इस सम्बन्ध में को सोहो सद्भावो, किं लद्धव्वं जणो गुणग्गाही। कुमारपाल प्रमिबोध का एक सुभाषित इस प्रकार कि सुहगेज्झ सुपणो, कि दुग्गेज्झं खलो लोपा ॥
अर्थात् धर्म क्या है ? जीव दया। सुख क्या है ? सीहह केसर सइहि, उरु सरणागमो सुदृऽस्स । प्रारोग्य । स्नेह क्या है ? सद्भाव । पांडित्य क्या मरिण मत्या प्रासीवित्तह किं धिप्पई प्रभुयस्स ।। है ? हिताहित का विवेक । विषम क्या है ? कार्य
मर्थात् 'सिंह की जटाओं, सती स्त्री की की गति । प्राप्त क्या करना चाहिए, गुण । सुख जंघाओं, शरण में आये हुए सुमट और आशीविष से प्राप्त करने योग्य क्या है ? सज्जन पुरुष । सर्प के मस्तक की मणि को कभी नहीं स्पर्श करना कठिनता से प्राप्त करने योग्य क्या है ? दुर्जन चाहिए ।' सुमतिसूरि के 'जिनदत्ताख्यान' में परस्त्री पुरुष । यहां प्राप्त करने का अर्थ है ठीक रास्ते पर दर्शन के त्याग का उल्लेख इस प्रकार किया गया लाना। जयसिंह सूरि के 'धर्मोपदेशमाला' (टीका)
में दो कटु सत्य देखिए
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