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है। ऐसे निरपराध पशु-पक्षियों को भी नहीं बख्शा। काल नियत नहीं कर सका है। वर्तमान चौबीसी । उन पर अनेक जुल्म किये और उनको मार कर भी तीर्थकर परम्परा में सर्व प्रथम तीर्थंकर ऋषभ
खा गया और खा रहा है। और फिर भी अपने देव ने केवल उद्बोधन दिया था। निर्माण नहीं। मापको सर्वश्रेष्ठ प्राणी घोषित करता है। मानव उन्होंने अपने अवधिबल से जो दूरस्थ विदेहादि में यदि मानवता समाप्त हो जावे, तो मानव और क्षेत्रों में जैसी व्यवस्था जानी थी उसी का रूप पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । जी अनेक यहां बताया था। अन्तिम तीर्थकर भगवान महा मानवाकृति वाले कुमनियों ने इस प्रकार के कृत्य वीर ने उन्हीं की वाणी को प्रसारित किया था। किये हैं. वहां अनेक महामानवों ने प्राने चिन्तन रचना नहीं की थीं। तीर्थंकरों की परम्परा भी
और मनन द्वारा प्राणी मात्र के हित कारक मार्ग सदा से चलो पाई है। भूत और वर्तमान की तरह दर्शन तो दिया ही है। साथ ही उनके संरक्षणार्थ चौबीस तीर्थंकर भविष्य में भी उत्पन्न होते रहेंगे, प्रयोगात्मक उपाय भी बताये है। जैन धर्म ने तो प्राज का मानव भौतिकवादी बन गया है, धर्म को सारे विश्व के कल्याणार्थ ऐसी भावना जाग्रत की व्यथं और प्रफीम की गोली की तरह मान रहा है है कि यदि उस पर अमल किया. जावे तो विश्व . उसकी मान्यता है धर्म अधर्म कुछ नहीं है। ये की सारी समस्यायें ही समाप्त हो जावें और सभी सब माया जाल लोगों को भटकाने और भुलावें में संतोषी मोर सम्पन्न बन जावें।
' डालने के सिवाय कुछ नहीं है। कितनी विपरीतता
3 है। कितनी अपूर्ण और गलत धारणा है। वर्तमान यहां मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि परिस्थितियों में मानव के जीवन का प्रामूल माज के सभी राष्ट्र जैन विचारधारा पर थोड़ा सा परिष्कार करना नितान्त आवश्यक है । तभी उनके भी अनुचिन्तन यदि गभीरता के साथ करेंगे. तो भ्रमित विचार हटेंगे। और तभी विश्व का प्रत्येक निःसंदेह उन्हें इसमें सारे विश्व की सभी समस्याओं प्राणी सर्वोदय प्रवर्तक भगवान महावीर की देशना का समाधान सुगमता से मिल जावेगा । जैन धर्म को; और उनके प्ररूपित सिद्धान्तों की उपयोगिता अनादि काल से ही है। इसकी उत्पत्ति का कोई और महत्व को समझ सकेगा।
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