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क्यों न बहे
ज्ञान
ज्योति धारा
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तोड़ अन्धकारा
क्यों न बहे ज्ञान ज्योति धारा
मह शत्रु अन्त में भाई
रोक रहा संगति खोद खाई
लेकर वैराग्य का कुठारा
क्यों न करें मोह क्षार सारा
तोड़ अन्धकारा
स्वजनों का मोह नहीं छूटा
बने यही दस्यु हमें लूटा
पहिले ही क्यों नहीं विचारा सिर पर है धरा पाप-भारा तोड़ अन्धकारा
मोह की फसल जितनी बोई उतनी पूंजी घर की खोई
राग-द्वेष उग रहे अपारा कर्म-शत्रु का उदय हमारा तोड़ अन्धकारा
फल - स्वरूप जीव बहुत भटका
लहरों में फंसा डूब अटका
पान सका हाय फिर किनारा
ज्ञानी ने मोह को पछाड़ा
तोड़ अन्धकारा
डा०
• छैल बिहारी गुप्त (उज्जैन) क्यों न बहे ज्ञान ज्योति धारा
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