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अनुपम सुख तो प्राप्त किये ही हैं। साथ ही अब जैनधर्म की मान्यता है, कि पदार्थ अनेकान्तात्मक वे भविष्य में मोक्ष में जावेगे। ये जैनधर्म के सौ. है (गुणात्मक है) प्रतः एक पक्ष को ही पूर्ण पदार्थ दयी होने का प्रवत्न प्रमाण है। जैनधर्म प्राणी म न बंठना ठीक नहीं है। दूसरे भी गुण तत्व में मात्र का कल्याण चाहता है। सभी का उत्थान है। जिसे दूसरा प्रगट करता है। अतः उसे भी पौर अभ्युदय चाहता है। उसमें किसी भी तरह तुम झूठा कैसे कहोगे ? प्रतः स पेक्ष दृष्टि से दोनों की चहार दोवारी या घेराबन्दी नही है । जनधम को ही मान्यता सही है। पदार्थों के स्वरूप को सही दृष्टि देता है। यथार्थ ज्ञान प्रदान करता है। निर्णय करने में और उनमें सामंजस्य बि
बिठने में मोर ज्ञान, वैराग्य, मोर सयम पर आरूढ़ होकर अनेकान्तात्मक दृष्टि ही सही है । जनघनके "मागे बढ़ते चलो" का माह्वानन करता है । इस अहिंसा सिद्धान्त को पूज्य राष्ट्रपिता म. गांधी ने धर्म में सबसे बड़ी खूबी है। प्राणी मात्र पर दया । पूर्ण स्वतत्रता संग्राम में प्रयोगात्मक रूप देकर दृष्टि रखना । किसी भी तरह किसी भी प्राणो को। और उसकी सफलता की प्राप्ति से अहिंसा की न मारना न उन्हें सताना । झूठ न बोलना । न । उपयोगिता प्रातष्टा और महत्ता सारे विश्व में चोरी करना । व्यभिचार न करा । मावश्यकता से । फैलाई है। बंर से बैर नहीं मिटेगा । अहिंसा ही से अधिक किसी भी चीज का (धन जमीन मााद) यह सभव हो सकेगा ? कैसे सर्वोदयी कल्याणकारी संग्रह न करो। पेट भरो पेटी मत भरो। शराब उ देश हैं ? कितने हृदयग्राही हैं ? यदि माज भी मादि सभी नशाला वस्तुओं का त्याग करा। शराब सी समस्य ए सुलझानी है तो जैनधम के उपसे न जाने कितने परिवार समाप्त हो गय है । और देशों के अनुसार चलना हा हगा। काका कालेलनिरतर हो रहे हैं। हमें प्रसन्नता है कि हमारी कर ने ठीक ही कहा है, कि जैनधर्म के सिद्धान्तों के न्यायाप्रय सरकार का भी अब शराबबन्दी कायं की प्रचार प्रसार से ही विश्व कल्याण तथा शान्ति की मोर ध्यान गया है। इसी तरह मास खाना करता स्थाना होगी। को बेरहमी को जन्म देता है। प्रत: इस कभी मत प्राज का मानव कितना बदल गया है। धर्म खाप्रा । बेईमानी अनाचार, कदाचार, प्रतिष्ठ के को अफीम की गोली बताता है और धर्म से दूर विनाशक हैं। अतः इन्हें सेवन न करो। भरनी होता जा रहा है । आज मात्र दिख वटी ही धर्म इच्छानों को तृष्णा को सयमित करो। इच्छाए रह गया है। और बाह्य क्रिया कांडों तक ही मनत हैं। वे कभी किसी की पूरी नहीं हुई है। सोभित हो रहा है। अन्तकरण में पौर व्यवहार इन से दुःख और असंतोष तो बढ़ता ही है । साय में भी (प्राचरण में) नहीं उतार रहा है। पतनोन्मुख ही अधिक संग्रह रखने से दूसरे लोग इनसे वचित होने का एक मात्र यही कारण है। रह जाते हैं। उनका शोषण होता है । वे प्रभाव पान यदि कोई अशान्ति वधंक प्राणी है तो के कारण चीजों से वंचित रह जाते है। फलप्रभ.व वह मानव है। एक मानव दूसरे मानव का शत्र ग्रसित नंगे, भूखे, लोगों में असंतोष फैलता है। बना हुआ है। मनुष्यों का जितना सहार निर्दयता
और तब लूट-पाट आदि के उपद्रव होते हैं । और के साथ अपने स्वार्थ के लिये मनुष्य ने किया है। प्रशांति फैलती है। प्रतः जैनधर्म का भाग्रह अपनी उतना कभी किसी ने नहीं किया। मनुष्य ने ही इच्छामों को सीमित करने का है । जैनधर्म से फोजों द्वारा विन श कार्य कराया। मनुष्य ने हीसंतुलित और सुखी जीवन यापन के लिये विवारों ऐसे संहारक शस्त्रास्त्र बनाये । जिनसे कुछ ही में अनेकान्तात्मक चितवन दिया है । जिससे सभी समय में सार विश्व का सहार हो सकता है। धार्मिक वादों के झगड़े विवाद नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य ने ही वन के एकान्त प्रदेश में बसने वाले
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