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________________ 1-16 मनुष्यों की अपेक्षा पशु अधिक सुखी होते, किन्तु वासना शरीर की भूख है। जिसने अन्तःकरण की सत्य यह है कि मनुष्य का आनन्द उसकी आत्मा में आवाज को पहचाना है, वही बाह्य से हटकर निहित है न कि देह में । मनुष्य का ध्यान यदि अन्तर्मुखता की और गति कर सकता है। केवल शरीर की प्रसन्नता की प्राप्ति के उपायों में ही दैहिक प्राकर्षण मानव को मूढ़ बनाता है किन्तु लगा रहेगा, तो वह संसार में रहने के अयोग्य हो मोह का पर्दा दूर होते ही वह पश्चाताप करने जाएगा । जीवन की कुत्सानों को लेकर बढ़ने वाला लगता है । हरिगिरि अहंतर्षि ने इस तथ्य को अपने आदर्श कभी नैतिक नहीं हो सकता । नैतिक प्रादर्श शब्दों में इस प्रकार प्रकट कियानियामक विज्ञान है। मनुष्य में जैसे कामना है, चंचलं सुहमादाय, मत्ता मोहम्मि मारणवा । वैसे संयम व नियन्त्रण भी है। उसकी विशेषता प्राइच्चरस्सि तत्तं वा, मच्छा झिज्जंत पारिणयं ॥ कामना नहीं, संयम का विवेक है। जो व्यक्ति स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति के सहारे कामना पर जितनी विजय अस्थिर सुख को प्राप्त करके मानव मोह में प्राप्त कर सकता है, उसका संकल्प बल उतना ही मासक्त हो जाता है, किन्तु सूर्य की किरणों से तेजस्वी होता है । इस दृष्टि से सुखवादी आदर्श का तप्त पानी के क्षय होने पर मछली की भांति अर्थ होगा-जीवन की वास्तविकता से पतन । तड़फता है। संसार में भोग्य वस्तुएं परिमित हैं तथा मनुष्य की सुखवाद का विकास दैहिक प्राधार पर हुमा । कामनाएं अपरिमित और अनन्त हैं । इस दृष्टिकोण अतः वह अपने आप में अपूर्ण है । प्रात्म-पक्ष से से भी सुखवाद मनुष्य को कभी सुखी नहीं बना अस्पृष्ट रहकर पूर्णता की प्राप्ति कठिन है । सच तो सकता। यह है कि केवल दैहिक आधार अनित्य और क्षणिक मनुष्य केवल इन्द्रिय-जन्य संवेदनाओं को ही है। प्रनित्य की उपासना करने वाला शाश्वत की अपना लक्ष्य नहीं मानता। उसका परम लक्ष्य प्राप्ति कैसे कर सकता है ? अतः देहात्मवाद या पान्तरिक संतोष है । सुखवादी विचारकों ने इन्द्रिय- सुखवाद के स्वीकर्तामों को पुनः महावीर की यह जन्य संवेदनाओं व प्रात्मतोष में एकत्व स्थापित कर अनुभूत वाणी चिन्तन की प्रेरणा से देती हैबहुत बड़ी भ्रान्ति पैदा की है। दोनों की भूमिकाएं पुव्वं पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्म विद्धसणधम्म अधुवं भिन्न-भिन्न हैं। अनितियं प्रसासयं चयावचइयं विपरिणामधम्म प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप देहातीत है, जबकि पासइ एयं रूवं ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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