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विचार हो और न ईिसा की क्रिया, मात्र हिसक शब्दों का उच्चारण हो जैसे सुधार भावना की दृष्टि से माता पिता का बालकों पर या गुरू का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना । नैतिकता या बधन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमश: शाब्दिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प रहित मात्र शारीरिक हिंसा, संकल्प रहित शारीरिक हिंसा की अपेक्षा मात्र ठोचारिक हिंसा और मात्र वैचारिक हिंसा की अपेक्षा संकल्प युक्त शारीरिक हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है ।
हिंसा की विभिन्न स्थितियां - वस्तुतः हिंसा की तीन अवस्थाएँ हो सकती है 1. हिंसा की गई हो 2. हिंसा करना पड़ी हो और 3. हिंसा हो गई हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतन रूप से की गई हो तो वह संकल्प युक्त है और यदि अचेतन रूप से की गई हो तो वह प्रमाद युक्त है। हिंसक क्रिया चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई या प्रमाद के कारण हुई हो तो कर्ता दोषी है । दूसरी स्थिति में हिंसा चेतन रूप से किन्तु विवशता बश करनी पड़ती है यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है अथवा बाह्य परिस्थिति जन्य यहां भी कर्ता दोषी है, कर्म का बंधन भी होता है लेकिन पाश्चाताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएं स्वयं के द्वारा आरोपित है । बाध्यता के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है । बाध्यताम्रों की स्वीकृति कायरता एवं शरीर-मोह की प्रतीक है । बधन में होना और बंधन को मानना दोनों ही कर्ता की विकृतियां है और जब तक यह यह विकृतियां है - कर्ता स्वयं दोषी है ही । तीसरी स्थिति में हिंसा न तो प्रमाद के कारण होती है और न विवशता वश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी हो जाती है। जैन विचारणा के अनुस र हिंसा की यह तीसरी स्थिति कर्ता की इष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है ।
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हिंसा के विभिन्न रूप - हिंसक कर्म की उपरोक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जावे तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं 1. हिंसा की गई हो और 2. हिंसा करनी पड़ी हो । वे दशाएं जिनमें हिंसा करना पड़ता है दो प्रकार की
1. रक्षणात्मक भौर 2. श्राजीविकात्मक - जिसमें भी दोबातें सम्मिलित है जीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग,
जैन भाचार दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार कर्म माने गये हैं-
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1. संकल्पजा - संकल्प या विचार पूर्वक हिंसा करना । वह श्राक्रमणात्मक हिंसा है ।
2. विरोधजा - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों (अधिकारों) के आरक्षण के लिए विवशता वश हिमा करना। यह आरक्षणारमक हिंसा है ।
3. उद्योगजा - प्राजीविका के उपार्जन प्रथवा उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होने वाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है ।
4. प्रारम्भजा - जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा - जैसे भोजन के पकाने । यह निर्वाहात्मक हिंसा है ।
हिंसा के कारण - जैन आचार्यों ने हिंसा के कारण माने हैं। 1. राग 2. द्वेष 3, कषाय 4. प्रमाद ।
हिंसा के साधन - जहाँ तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है वे तीन हैं—मन, वचन और शरीर । व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के द्वारा करते हैं ।
क्या पूर्ण श्रहिंसक होना संभव है ? - जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पति ही जीवन युक्त है वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से मरा हुआ है । क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता है ? महाभारत में भी जगत को सूक्ष्म
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