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जीवों से व्याप्त मानकर यहीं प्रश्न उठाया गया इस प्रश्न के उत्तर में महावीर कहते हैं कि यह है। जल में बहुतेरे जीव है, पृथ्वी पर तथा वृक्षों मानना उचित नहीं है, उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा हुई है .36 इस प्रकार हम देखते हैं कि संकल्प कोई भी मनुष्य नहीं है जो इनमें से किसी को की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति कभी नहीं मारता हो, पुन कितने ही ऐसे सूक्ष्म ही हिंसा अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्व है। प्राणी है जो इन्द्रियों से नहीं मात्र अनुमान से ही परवर्ती जैन साहित्य में भी यह धारणा पुष्ट होती जाने जाते हैं । मनुष्य के पलकों के गिरने से मात्र रही है । प्राचार्य भद्रबाहु का कथन है कि 'साव. ही जिनके कंधे टूट जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। धानी पूर्वक चलने वाले साधक के पैर के नीचे तापर्त्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा भी कभी-कभी कीट, पतंग प्रादि क्षुद्र प्राणी प्रा जा सकता है । 34 प्राचीन युग से ही जैन विचा. जाते है और दबकर मर भी जाते हैं, लेकिन उक्त रकों की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर गई है अोध- हिंमा के निमित्त से उसे सूक्ष्म कर्म बन्ध भी नहीं नियुक्ति में प्राचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न के सन्दर्भ बताया गया है, क्योंकि वह मन्तर में सर्वतोभावेन में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, उस हिंसा व्यापार से मिलिप्त होने के कारण जिनेश्वर भगवान का कथन है कि अनेकानेक जीव निष्पाप है। जो विवेकवान मप्रमत्त साधक हृदय समूहों से परिव्याप्त विश्व के साधक का अहिंसकत्व से निष्पाप है और मागमविधि के अनुसार माचरण अन्तर में प्राध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, करता है, उसके द्वारा हो आने वाली हिंसा भी बाह्म हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं 135 कर्म निर्जरा का कारण है लेकिन जो प्रमत्त जैन विचारणा के अनुसार भी बाहय हिंसा से व्यक्ति है उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक शरीर मर जाते हैं वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक तथा शारीरिक क्रियायें हैं तब तक कोई भी होता है। मात्र यही नहीं वरन जो प्राणी नहीं व्यक्ति बाह य दृष्टि से पूर्ण अहिंसक नहीं रह मारे गये हैं, प्रमत्त उनका भी हिंसक है क्योंकि सकता।
वह अन्तर में सर्वतोभावेन पापात्मा है । इस हिंसा, अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति का प्रकार प्राचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल अन्तर मानस है-हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय दृश्यमान पाप रूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो बाह य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है जितना जाता 140 वह साधक की प्रान्तरिक अवस्था पर प्राधारित है । हिंसा और अहिंसा के विवेक का माधार प्रमुख प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में लिखते हैं कि रूप से प्रान्तरिक है । हिंसा विचार में संकल्प की बाहर में प्राणी मरे या जीये प्रयताचारी-प्रमत्त को प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की गई है। अन्दर में हिंसा मिश्चित है। परन्तु जो अहिंसा भगवती सूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट की साधना के लिए प्रयत्नशील है, संपताचारी है किया गया है । गणधर गौतम, महावीर से प्रश्न उसको बाहर से होने वाली हिंसा से कर्म बन्धन करते हैं -हे भगवान् ! किसी श्रमणोपासक ने नहीं है। ।" प्राचार्य प्रमृतचन्द्र सूरी लिखते ह प्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो कि रागादि कषायों से मुक्त नियमपूर्वक पाचारण लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण करते हुए भी यदि प्राणायात हो जाये तो वह हिंसा को हो । यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी हिंसा नहीं है42 | निशीथ चूणि में भी कहा गया का वध हो जाए तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई ? है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी प्रप्रमत्त
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