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भगवान महावीर
का
केन्द्रीय सिद्धान्त
महिला;
एक
तुलनात्मक अध्ययन
10 सागरमल जैन
शंन विभाग, हमीदिया कालेज, घोपाल
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जैन दर्शन में हिंसा का स्थान हा जैन दर्शन का प्राण है। जैन दर्शन में हिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन प्रचार विधि घूमती है । जैनागमों में हिंसा भगवती है। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैभयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितो को जैसे जल, भूलों से ओलन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, खेगियों को जैसे श्रीर वन में जैसे सार्थवाह का साथ, प्राधारभूत है बसे ही महिसा प्रणियों के लिए सारभूत है । असा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। बही साथ एक ऐसा शाश्वत धर्म है, जिसका जैनतीर्थंकर उ देश करते हैं। नाच रांग सूत्र में कहा गया है भूत, भविष्य र वर्तमान के सभी प्रत् यही उपदेश करते हैं कि सभी प्रारण, सभीभूत, सभी जीव और सभी सत्य को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए और न किसी का हनन करना चाहिए । मही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका समस्त लोक के खेद को जानकर महंतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है । सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि हिंसा न करे, अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए । दशवेकालिक सूत्र में कहा गया है, कि सभी प्राणियों के प्रति संयम में हिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर ने इसको 'प्रथम स्थान पर कहा है । भक्तपरिक्षा नामक ग्रन्थ में कहा गय है कि अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है ।
श्राचार्य प्रमृतचन्द्र सूरि के अनुसार तो जैन आचार विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र महिला से व्याप्त है,
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