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तू स्वतन्त्र संगीत है
-श्री प्रसन्न कुमार सैंडी शक्ति पुञ्ज तू. चिदानन्द तू. क्यों व्याकुल भयभीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है ।
अर्ज कर रहा कब से, कुछ तो रहम करो गिरधारीजी। एक पुत्र दे दो बस केवल, पर पडू बनवारीजी । अपनी शक्ति प्रतिष्ठा रखोई, अच्छे बने भिखारीजी। अगर मांगना हो, अपने से मांगो तो सरदारीजी।
सुख प्रानन्द शान्ति तेरे अपने, क्यों पर से प्रीत हैं। जड़ की क्या सामथ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है।"
(२) 'प्रेम' आग को शीतल करता, 'क्रोध' जलाता पानी को। 'चिन्ता' जीवन की बरबादी, जहर करे गुड़ेंधानी को। लालच का फल भी प्रत्यक्ष है, कब्ज हो गया मानी कों। उतरा पुत्र मिले से ज्वर जो चढ़ा वियोगिन रानी को।
हीनभाव कमजोर बनाते, क्यों यह मुखता पीत हैं। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तूं स्वतन्त्र संगीत है ।।
मुह से 'अहं ब्रह्मास्मि' कह रहे, किन्तु गुलामी छाई है। दास-भाव यदि नहीं हृदय से निकला व्यर्थ पढ़ाई है। जो विचार में बूढ़ा, उसमें कहने की तरुणाई है। जो सोचोगे सो पावोगे, चिन्तन की महिमाई है।
हँसमुख को आपत्ति कष्ट क्या, उसे हार भी जीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र संगीत है।
(४) ज्ञान-रत्न को छोड़ भर रहा धन-कंकर से कोष क्यों। सोने से लेकर मिट्टी का काम, अन्य को दोष क्यों। तू चेतन अमूर्त अविनाशी, जड़ नश्वर पर रोष क्यों। तृष्णा में सुख शांति कहां है, छोड़ रहा सेतोष क्यों ।
समभावी हरकाल सुखी है, क्या गर्मी क्या शीत है। जड़ की क्या सामर्थ्य बांधले, तू स्वतन्त्र सगीत है।
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