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उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक कौन से तीन ? 'स्वयं प्राणी-हिंसा से विरक्त नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत हैं ; प्राचार रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं के नियमों के दुसरे रूप जैसे असत्यभाषण नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जन साधारण करता11 । को सुलभ रूप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न महायान सम्प्रदाय में करुणा और मैत्री की नामों से कहे जाते हैं वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी विभिन्न पक्ष हैं ; जैन आचार दर्शन में अहिंसा पृष्ठभूमि यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा हुआ है। यह प्राधार वाक्य है जिससे वाचार के सभी नियम हिन्दू दर्शन और गीता में अहिंसा का निगमित होते हैं। भगवती पाराधना में कहा गया स्थान-गीता में अहिंसा का महत्व स्वीकृत है अहिंसा सब प्राश्रमो का हृदय है, सब शास्त्रों करते हुए, उसे भगवान का ही भाव कहा गया का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) है ।
है, उसको देवी सम्पदा एवं सात्विक तप बताया . बौद्ध प्राचार दर्शन में अहिंसा का स्थान- है12 । महाभारत में तो जैन विचारणा के समान बौद्ध दर्शन के दस शीलों में अहिंसा स्थान प्रथम ही अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया है। चतुःशतक में कहा गया है। तथागत ने संक्षेप गया है13 | मात्र यही नहीं उसमें भी धर्म के में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन उपदेश का उद्देश्य प्राणियों को हिंसा से विरत् किया है । धम्मपद में बुद्ध ने हिंसा को अनार्य करना माना गया है। अहिंसा ही धर्म का सार कर्म कहा है। वे कहते है जो प्राणियों की हिसा है इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत के लेखक का करता है वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के कथन है--"प्राणियों की हिंसा न हो इसलिए प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा धर्म का उपदेश दिया गया है अतः जो अहिंसा से जाता है।
युक्त है. वही धर्म है"14 । । बुद्ध हिंसा एवं युद्ध के नीति शास्त्र के तीव्र लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में तो विरोधी हैं, धम्मपद में कहा गया है कि विजय से बार बार अर्जुन को युद्ध लड़ने का निर्देश दिया वैर उत्पन्न होता है, पराजित दुःखी होता है जो गया है, उसका युद्ध से विमुख होना निन्दनीय एव जय पर जय को छोड़ चुका है उसे ही सुख है उसे कायरतापूर्ण माना गया है। फिर गीता को अहिंसा ही शांति 8101
की विचारणा की समर्थक कैसे माना जाए? अगुतर निकाय में बुद्ध इस बात को अधिक इस सम्बन्ध में मैं अपनी और से कुछ कहूँ; इसके स्पष्ट कर देते है कि हिंसक व्यक्ति इसी जगत में पहले हमें गीता के व्याख्याकारों की दृष्टि से ही नारकीय जीवन का सृजन कर लेता है जबकि इसका समाधान पा लेने का प्रयास करना चाहिये । अहिंसक व्यक्ति इसी जगत में स्वर्गीय जीवन का गीता के प्राद्य टीकाकार प्राचार्य शंकर 'युद्धस्व' सृजन कर लेता है । वे कहते हैं- 'भिक्षुओं, तीन (युद्धकर) शब्द की टीका में लिखते हैं कि यहां धमों से युक्त प्राणो ऐसा होता है जैस लाकर नरक युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है15 : मात्र में डाल दिया गया हो। कौन से तीन ? स्वयं यही नहीं प्राचार्य गीता के प्रात्मौपम्येन सर्वत्र' प्रागीडिया करता है, दूसरे को प्राणी हिंसा की के मधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की योर घसीटता है और प्राणी हिंसा का समर्थन पुष्टि करते हैं' जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही करता है । 'भिक्षुषों, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा सभी प्राणियों को सुख अनुकूल है और जैसे दुःख होता है जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो। मुझे अप्रिय एवं प्रतिकूल हैं जैसे सब : प्राणियों को.
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