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जैन दर्शन की दैनिक जीवन में उपयोगिता
- प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन
विभाव से वह अपने आप को परतन्त्र समझता है । अप्पा मित्तं श्रमित्त च । श्रात्मा ही अपना मित्र है, वही उसका शत्रु है । अपने ही विभावों को - कषायित रूपों को-राग, द्वेष और मोह को जीतकर वह जिन बनता है और अपने सत्, चित् और प्रानन्दमय स्वतन्त्ररूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । यह तो जीव का भ्रम है कि वह कर्मबद्ध है और परतन्त्र है । इस भ्रम को दूर करने के लिए उसे आस्था के साथ ज्ञान और प्राचरण की सम्यक्त्वपूर्ण साधना में लीन होना पड़ता है ।
आज हम एक स्वतन्त्र और विकासशील देश के नागरिक हैं और आर्थिक क्रान्ति के द्वारा समाज की नव-संरचना के महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। इसी समय भगवान महावीर का 2500 वां निर्वाण महोत्सव समारोह वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न करने वाली एक बड़ी घटना है जो अहिंसा वर्ष के रूप में घटित हो रही है । सामाजिक विकास की दिशा में स्वतन्त्रता और समानता इन दो बड़े जीवन मूल्यों के विषय में जैन दर्शन का प्रभिमत जानना, बताना इस परिप्रेक्ष्य में सर्वथा प्रासंगिक है ।
जैन दर्शन प्राध्यात्मवादी दर्शन है । उसकी दृष्टि में व्यक्ति समाज का महत्वपूर्ण घटक है । इसलिए वह व्यक्ति के विकास में समष्टि का विकास देखता है । व्यावहारिक दृष्टि से चाहे व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है पर तात्विक दृष्टि से यह सम्बन्ध व्यक्ति की विशिष्टता का विघात नहीं कर सकता ।
जैन दर्शन न केवल मानव को, वरन् प्रत्येक जीव को और प्रत्येक जीव को ही नहीं प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र मानता है । जीव की स्वतन्त्रता इस दर्शन की मौलिक चिन्तना है । उसके स्वरूप को बिगाड़ना या सुधारना किसी अन्य के लिए सम्भव ही नहीं है । स्वभाव से वह स्वतन्त्र है और
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जैन दर्शन की दूसरी मौलिक चिन्तना है समता । जीवों की समानता और स्वतन्त्रता दोनों एक दूसरी की पूरक है। इससे जीवों की पारस्परिक स्थिति स्पष्ट होती है। एक जीव दूसरे जीव के उपकार या अपकार में निमित्त तो बन सकता है, पर इससे उसकी समता किसी भी तरह खंडित नहीं होती । कोई जीव छोटा या बड़ा नहीं, निकृष्ट या उत्कष्ट नहीं । जैसे प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है वैसे ही वह समान भी है । प्राध्यात्मिक घरातल पर सारे जीव समान हैं। सभी जीव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख इस अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न हैं। हमें जो असमानता भासित होती है वह तो उसके शारीरिक या सका पौद्गलिक परिवेश के कारण है । भौतिक घरातल
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