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पर असमानता अनिवार्य है। तिथंच, पशु, देव प्रयत्नों की लम्बी मीमांसा को संक्षेप में त्याग और
और मानव का भेद इसी धरातल पर है। भौति- तप कहा गया है। त्याग और तप से आत्मा कता के कारण ही काले और गोरे का भेद है। परिग्रह के सारे अभिग्रहों से मुक्त हो जाता है। मोटे और दुबले का भेद है। स्त्री, पुरुष और स्वतन्त्रता और समानता की अनुभूति गृहस्थ नपुंसक का भेद है। बौद्धिक उपलब्धियों में भी दशा में भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि इसी प्रकार व्यक्तिशः अपेक्षाकृत भेद है । माज तक साधु-दशा में । अंश भेद रहता है, वह रहेगा। की कोई सामाजिक व्यवस्था केवल भौतिक प्राधार यदि हम माथिक समता को गृहस्थ जीवन के लिए पर ऐसे भेदों को नहीं मिटा सकी। भौतिक दृष्टि मावश्यक मानते हैं तो उसके लिए भी एक वृत्ति अहंकार को बढ़ाती है । भौतिक सम्पन्नता प्रमाद का विकास करना होगा। वृत्ति का विकास की जननी है। प्रमाद के योग से पाचरण में प्राध्यात्मिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हिंसा माती है । हिंसा से विषमता बढ़ती है। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं-जनतन्त्री या भौतिक दृष्टि का यदि आध्यात्मिक परिष्कार न लोकतन्त्री शासन-व्यवस्था में नया समाज बनाने के हो तो मानवीय दुःखों को हटाने के लिए जुटाई लिए जन-जन का योग चाहिए। केवल कानून गई सुख-सुविधाएं समता के नाम पर घोर से धोर बनाने से काम नहीं चलेगा। जन-सहयोग जो एक विषमताएं उत्पन्न कर देती है। शान्ति और माध्यात्मिक वृत्ति है उससे ही नये समाज की रचना सामाजिक न्याय की स्थापना के नाम पर संघर्षों होगी। इससे यह स्पष्ट हुप्रा कि समाज का प्रत्येक और युद्धों की प्रतिहिंस त्मक भावनाओं में उत्तरोत्तर व्यक्ति सामाजिक समानता में प्रास्था रखने वाला उभार प्राता रहता है और फिर उनको समाप्त हो, म त्म-विश्वासी हो, वह वैचारिक दृष्टि से करने के सारे भौतिक प्रयल एक मात्र विवाद सामाजिक विषमताओं को प्रपान्य करे और उन्हें पा परिचर्या के विषय बनकर व्यर्थ हो जाते हैं। मन, वचन और काय के सुसंयत प्राचरण से दूर
करे । त्याग और संयम के विशिष्ट प्राचरण से ही . भौतिकतावादी दृष्टि की विसंगतियों और विफलतापों के संदर्भ में जैन दर्शन यही करता है
भौतिक विषमताओं को किसी हद तक दूर किया भा
जा सकता है। कि समस्या का सम धान माध्यात्मिक है। उसे स्वीकार करो। बहिर्मुख-बहिरात्मा-मत रहो, जन सहयोग प्रबुद्ध होना चाहिए। उसे पाने अन्तर्मुख वनो। मंतरात्मा बनते ही तुम देखोगे के लिए जैन दर्शन ने एक दृष्टि दी है। वह है कि तुम तो स्वय पर ब्रह्म हो, परमात्मा हो। जीत अनेकान्त दृष्टि । पदार्थों के स्वरूप को समझने का स्वभाव परमात्मा है। सब परमात्मा बन की दृष्टि । वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। सकते हैं।
वह मनन्त रूपात्मक है। इन रूों को गगण भी
कहा जाता है। ये गुण साधारणतः किसी भी स्वतन्त्र और समान बनने के लिए पात्मा को व्यक्ति के द्वारा एक काल में देखे, समझे या बताये कुछ करना नहीं है। स्वतन्त्रता और समानता नहीं जा सकते । अनेकान्त दृष्टि विभिन्न व्यक्तियों बाहर से आनेवाली वस्तुएं नहीं हैं। वे तो मात्मा द्वारा विभिन्न कालों में विभिन्न अपेक्षाओं से कहे के अपने गुण हैं। अपने धर्म है । उसे यह भ्रम गये एक ही वस्तु के अनेक गुणों को समझने में हो गया है कि वे बाहरी तत्व है। इस भ्रम को सहायक होती है। इससे समाज में सहिष्णुता, हटाना हैं । परतन्त्रता पौर विषमता के भ्रम को सह मस्तित्व मौर निष्पक्षता के भावों का उदय हटाने के लिए उन्हें ही छोड़ना होगा। छोड़ने के होता है। संस्कृतियों के समन्वय में, सर्व-धर्म
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