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माव में भी यही दृष्टि रहती है। इसे सम्यग् दृष्टि शून्यता, रिक्तता या प्रभाव की अनुभूति नहीं भी कहते हैं। इसी दृष्टि का एक रूप लोक
होती-उसके स्वयं के अनन्त दर्शन, पनन्त ज्ञान, दृष्टि है जो लोकहित के मूल में रहती है। इस
अनन्त शक्ति और अनन्त सुख में वह विलीन रहता
है-यही उसका ब्रह्मचर्य है। दृष्टि में सत्य के प्रति प्रभिनिवेश रहता है, यह
अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, अपरिग्रह पोर ब्रह्ममानव को दुराग्रहों से बचाती है। इसा दृष्टि को
घयं इन पांच जीवन मूल्यों की यह प्राध्यात्मिक कुछ इस प्रकार से भी कहा जा सकता है-हम
पृष्ठ भूमि है जिसे जैन दर्शन गृहस्थों के लिए स्वयं दुराग्रही न हों, दूसरों को अपनी बात तो .
अणुव्रतों के रूप में और साधुनों के लिए महा. कहें पर उसे उनपर लादें नहीं, सत्य बहु-मायामी व्रतों के रूप में प्रस्तुत करता है होता है, भाषा के द्वारा उसके किसी एक अंश की. संक्षेप में, जैन दर्शन की मान्यता है कि मानव हो किसी अपेक्षा में अभिव्यक्ति होती है, हम उस जड़ और चेतन का स्वरूप समझता है, उसके प्रपेक्षा को समझें। इस प्रकार यदि दृष्टि अने- अन्तर को पहचानता है। न तो वह दीन है और कान्तात्मक हो तो विरुद्ध सी प्रतीत होने वाली न हीन है। वह शरीर नहीं, शरीर संयुक्त है। पातों में संगति आ जायगी। महिंसक समाज की वह माध्यात्मिक शक्तियों का पुज है। मानव. रचना में यह दृष्टि अनिवार्यतः पावश्यक है। जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन है । इसी जीवन में उसके
अनेकान्त दृष्टिवाले व्यक्तियों का पाचरण भ्रम दूर होते हैं और उसे अपने प्रापकी अनुभूति पुम्यक्त्व को लिये हुए होता है। सम्यवस्वी जाग- होती है। गृहस्थ दशा में उसे अनेकान्त दृष्टि हक होता है, वह सत्य को स्वीकार करता है और, होना चाहिए-दूसरों की दृष्टि का मादर करना मिथ्या से बचता है। उससे मन्धश्रद्धा का पोषण चाहिये । किसी को भी दीन या हीन समझना नहीं हो सकता मिथ्यात्व को नष्ट करना ही , स्वरूप को खोना है और सब जीवों को समान उसको जीवन-साधना हो सकती है। स्पष्ट है,, मानना स्वरूप की प्रतिष्ठा है। उसे आत्म विकास ऐसा व्यक्ति जो सत् है उसे मानता है, प्रक्षत को के रहस्य को समझना है, उसकी गहराइयों में नहीं मानता। न तो वह 'पर' को 'स्व' मान प्रवेश करना है-तभी वह ममझ सकता है कि सकता है और न वह 'स्व' को 'पर' ही बता रखता
प्रस्म-विकास ही लोक-विकास है, पास्मोदार ही
लोकोद्धार है। है। उसका व्यवहार दूसरों को सत्यनिष्ठ बनाम) भारतीय संस्कृति में स्वतन्त्रता और समानता में निमित्त बनता है, सत्य-निष्ठता की प्ररणा के चिन्तन का विकास भौतिक संकीरगताम्रा से उससे मिलती है। यही उसका उपग्रह या उपकार चाहे कभी-कभी माच्छन्न हो गया हो पर उसका है। संयोग या निमित्त बनने के अतिरिक्त बह और
व्यापक रूप सदा बना रहा है । जैन दर्शन द्वारा कुछ हो ही नहीं सकता। वह मानी नहीं होता, . प्रस्तुत स्वतन्त्रता और समानता के सशक्त विचार कृत्रिमता, माया, छल, कपट से दूर रहता है।
उसकी सहानुभूतिपूर्ण अनेकान्त दृष्टि मौर दूसरे के प्राप्य का अपहरण करना उसके स्वभाव
अहिंसामय आचरण की व्यवहार्यता-ये सब इस में ही नहीं होता। उसके मौलिक पर्जन पौर
व्यापक परिप्रेक्ष्य में जन जन को प्रात्म बोष देने संचय दोनों की सीमाएं घटती जाती हैं, प्रनिवा
वाले, अपने शक्ति के स्वरूप को प्रकट करने पंतः प्रावश्यक का ग्रहण और शेष का परित्याग वाले सिद्ध हुए हैं। यही इनकी जीवनोपयो. स्वतः होता है। इस सबसे उसके जीवन में गिता है।
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