________________
1-42
त करने वाली एक-एक परत को चीर कर प्रस्तु, भगवान महावीर ने व्यक्ति की स्वतन्त्रउसे दीव्य पालोक से भर देना चाहते थे। इसी चेतना को कुण्ठित नहीं किया अपितु वे व्यक्ति की पवित्र-अनुष्ठान के लिए उन्होंने अपनी सम्पूर्ण स्वतन्त्र चेतना के सजग-प्रहरी थे। उन्होंने युग-युग शक्ति लगा दी।
से राजनैतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और प्राध्यात्मिक एक क्षण के लिए यदि मान भी लें कि परतन्त्रता की कारा में छटपटाते हुए विश्व-मानव महावीर ने अपनी आज्ञा के प्रतिष्ठान पर अपने को स्वयं अस्तित्व और कर्तृत्व का बोध दिया। विशाल धर्म संघ को प्रतिष्ठित किया था, तो भी स्वतन्त्रता का बोध दिया। उसको प्राप्त करने के उनकी आज्ञा में किसी भी तटस्थ विचारक को लिए सम्यक दिशा-बोध दिया और उस दिशा में अधिनायकवाद के दर्शन नहीं होते। क्योंकि महावीर आग बढ़ने के लिए उसे गतिशीलता भी प्रदान की प्राज्ञा वहां जाकर परिसम्पन्न हुई थी, जहां वे की। सम्पूर्ण सत्य को उपलब्ध हो चुके थे। वे सत्यमय
फलतः उस युग में परिव्याप्त जातिवाद, दासबन चुके थे। व्यक्ति और सत्य का द्वैध मिट गया
प्रथा, साम्राज्यवादी मनोवृत्ति, और उपनिवेशथा। अतः महावीर की प्राज्ञा व्यक्ति की प्राज्ञा
परम्परा आदि की जड़ें हिल गई। नहीं थी, अपितु सत्य की आज्ञा थी। उनको केन्द्र मानकर चलने वाला कोई भी व्यक्ति चेतना के उस परम तेजस्वी पुरुष के अलौकिक स्वतन्त्रताआवरणों को क्षीण कर उस परम सत्य को प्राप्त संग्राम ने युग-चेतना को बन्धन मुक्त किया है कर सकता है।
और युग-युग तक मुक्ति की प्रेरणा देता रहेगा।
सर्वथा प्रातरुत्थाय पुरुषेण सुचेतसा । कुशलाकुशलं स्वस्य चिन्तनीयं विवेकत ः॥
-पद्मपुराण ४६-१३०
___ अर्थः-मनुष्य को प्रातःकाल उठकर सबसे पहले अपनी कुशलता और अकुशलता अथवा हित और अहित के सम्बन्ध में विवेकपूर्वक चिन्तवन करना चाहिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org