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दीप की दीपित कतारे
रचना:- प्रमचन्द 'दिवाकर" बी. कॉम., शास्त्री, धर्मालंकार,
अध्यापक, श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर, (म.प्र.)
ज्ञान तन्मय दीप की दीपित कतारें कह उठी, तल-तम-विनाशक वीर की ले प्रारती उर से उतारें।
घोर हिंसा स्वार्थ शोषण धर्म संकट कर्म का, अन्याय अरु अज्ञान रूपक अंध ने अधिकार पाया । कह रहा है दीपमाले ! तुम स्वयं निजसम बनालें, अतिवीर के उपदेश से स्व-कर्म-कालिख को निखारें। तल-तम""
॥१॥ अतिशयि बलि केवलि सिद्धार्थ-नन्दन हो प्रभु,
शल्य शैही सप्तहस्ती, कुण्डजन्मी गौरवर्णी हो विभु। पावापुरी निर्वाण वसुधा उत्तरित हो तुम सवेरे, प्रज्वलित हो दीप दीपों से ज्वलित हों पंच पाप सारे ॥ तल-तम""
॥२॥ जीव-जग के शान्ति से जुग क्रान्तिविन जीते रहें, सौजन्य की शहनाई बाजै बैण्ड बजवें दश गुरगों से। कर्तव्य-अरु अधिकार के हम गीत गावें यादकर, स्वतन्त्रता का निर्बाध-जीवन-ज्योति तेरी हम पुकारें ।। तल-तम..."
॥३॥ चौबीसवें हो तीर्थंकर, दिव्यध्वनि थी खिर उठी, तब विश्व के थे तत्व जाने, तम हने जन-जन सभी । विन लिपि विन अक्षरों की, थी सन्मतिक ओंकार वाणी, अपनी भाषा में समझ सब लोक जीवन को सम्हारे ।। तल-तम"
॥४॥ हे दीप की नेकों कतारो ! नमन हो अाभार तेरा, तम मिटे पुरुषार्थ से सौभाग्य भी होता चहेता । अहिंसा-पुजारी देश-भारत-भाल उन्नत नित रहेगा, "प्रेम" से मिल जैन ध्वज ले वोर उत्सव हम मनायें ।। तल-तम"
॥५ ॥
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